Dr (Miss) Sharad Singh |
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...
("सामयिक
सरस्वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj जुलाई-सितम्बर 2017 अंक )
ताकि जिया जा सके
- शरद सिंह
हम आज़ाद हैं ...
... पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी सारी विद्वता, सारी सोच अंग्रेजों के बनाए माप-दण्ड के अनुरूप चलती है। हम शेक्सपियर, शैली और कीट्स के इतर साहित्य को जानने से कतराते हैं। सोवियत संघ के युग में आम आदमी ने टॉल्सटॉय, गोर्की और पुश्किन के साहित्य को जाना। उससे कुछ आगे फ्रैंज काफ्का, सार्त्रा और कामू को पढ़ा। आज ‘अलकेमिस्ट’ के लेखक पाओलो कोएलो को भी छोटे शहरों, गांवों में रहने वाले हिन्दी लेखक और पाठक कम ही जानते हैं। जो जानते हैं उनमें भी पाओलो कोएलो की साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने वाले कम ही हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ और अंग्रेजी की ओर अभिभावकों की अंधी दौड़ ने मातृभाषाओं को उपेक्षित कर दिया है। ऐसी दशा में आज हमें मेहनत करनी पड़ेगी त्रिलोचन के सॉनेट की मूलप्रवृत्तियों को समझने के लिए। खैर, त्रिलोचन और उनके सॉनेट की चर्चा बाद में , पहले उस आयोजन के बारे में जहां त्रिलोचन और उनके सॉनेट को पूरी आत्मीयता से याद किया गया। विगत 24 वर्ष से मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा ‘पावस व्याख्यान माला’ का आयोजन किया जा रहा है। मेरी लगातार तीन वर्ष की सहभागिता का अनुभव मुझे भरोसा दिलाता है कि ‘हिन्दी दिवस’ के एक दिवसीय मोहजाल से ऊपर उठ कर हिन्दी के प्रति सत्यनिष्ठा से काम करने वाले अभी भी हैं...जैसे मप्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्रा-संचालक कैलाशचन्द्र पंत।
इस वर्ष भी 28 से 30 जुलाई 2017 तक हिन्दी भवन, भोपाल में 24वीं पावस व्याख्यानमाला का तीन दिवसीय आयोजन किया गया। व्याख्यान के लिए चार विषय चुने गए थे - रामायण में प्रतिष्ठापित मूल्यों की सार्वभौमिकता, अमृतलाल नागर के उपन्यासों का वैशिष्ट्य, त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प तथा चौथा विषय था लोक साहित्य में संस्कृति की मधुरिम छटा। जितना सच यह है कि लोक साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है उतना ही सच यह भी है कि पाश्चात्य साहित्यिक प्रवृत्तियों ने भी हिन्दी साहित्य को विस्तार दिया है। इस क्रम में सॉनेट का स्थान सबसे पहले आता है। पश्चिमी जगत की साहित्यिक विधा सॉनेट को भारतीय परिवेश में ढालने का श्रेय यदि किसी को है तो वह है कवि त्रिलोचन शास्त्री को।
हिन्दी साहित्य के काव्य इतिहास में सॉनेट को पूरी भारतीयता के साथ समावेशित करने का श्रेय त्रिलोचन शास्त्री को ही है किन्तु उनके देहान्त के बाद मानो साहित्य जगत ने त्रिलोचन के सॉनेट को महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम के एक लघु अध्याय के रूप में लेख कर के छोड़ दिया। ‘‘त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प’’ सत्रा में मैंने कवि त्रिलोचन जी को याद करते हुए अपनी उन स्मृतियों को सबके साथ साझा किया जब त्रिलोचन जी सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजन पीठ में अपने प्रथम कार्यकाल में पदस्थ थे। जितने ख्यातिनाम, उतने ही सहज व्यक्ति। सहज इतने कि मैंने उन्हें ‘अंकल’ का सम्बोधन दिया और उन्होंने आत्मीयता से स्वीकार कर लिया।
त्रिलोचन शास्त्री ने सन् 1950 के आस-पास सॉनेट लिखना आरम्भ किया। यह माना जाता है कि उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता का समावेश करते हुए अपने अधिकांश सॉनेट्स पेटार्कन एवं शेक्सपीयरन शैली में लिखे हैं। शिल्प का आधार भले ही आयातित हो किन्तु त्रिलोचन ने भाव, विचार और शिल्प को ‘त्रिलोचनीय’ अर्थात् मौलिक रूप दिया। जहां तक मेरा मानना है कि समालोचना के दौरान लेखन हमेशा शोधपूर्ण होना चाहिए। यानी पहले जड़ों तक पहुंचो, फिर लिखो। हमें त्रिलोचन के सॉनेट की तुलना शेक्सपियर के सॉनेट से करते हुए ही नहीं ठहर जाना चाहिए बल्कि सॉनेट के मूल स्थान ग्रीस, इटली और सिसली के सॉनेट की प्रवृत्तियों से भी तुलना करना चाहिए। क्योंकि शेक्सपीयर का सॉनेट एलीटवर्ग का सॉनेट था जबकि सिसली का सॉनेट कृषक और मजदूरवर्ग का था और इस प्रकार के सॉनेट ही त्रिलोचन ने लिखे हैं। मुझे तो त्रिलोचन के सॉनेट में आयरिश और कैल्टिक प्रवृत्तियां भी दिखाई देती हैं।
बात कविता की ही कभी सुखद तो कभी दुखद.... कविता को जीने वाले कवि अजित कुमार और काव्य में जीवन को पिरोने वाले कवि चंद्रकांत देवताले को सदा के लिए खोना हिन्दी काव्य-जगत् के लिए शोकाकुल कर देने वाली स्थिति है। यूं तो अजित कुमार ने उपन्यास, कविता, कहानी, यात्रा, संस्मरण, आलोचना आदि एकाधिक विधाओं में कलम चलाई किन्तु वे जिस तरह अपनी कविता में स्वयं के बहाने पूरे जग की बातें कह जाते थे, वह गहरे तक प्रभाव छोड़ने में सक्षम रहा। ‘अनायास’ एक प्रतिनिधि कविता है कवि अजित कुमार की-
‘‘रेंगते हुए एक लम्बे से केंचुए को/मैंने जूते की नोक से जैसे ही छेड़ा/वह पहले तो सिमटा/फिर गुड़ीमुड़ी नन्हीं एक गोली बन/सहसा स्थिर हो गया/क्या मैं जानता था/ देखूंगा इस तरह/ गीली मिट्टी में अनायास/अपना प्रतिबिम्ब?’’
समय साक्षी होता है प्रवृत्तियों का विचारों का और चेष्टाओं का। समय के साक्ष्य कभी साहित्य तो कभी इतिहास तो कभी सिनेमा में ढल कर सामने आते हैं। साक्षी बना 15 अगस्त 1947 भारत की आजादी का ... लेकिन अलगाव के जो बीज दिलों की ज़मीन में दबा दिए गए थे वे आज भी माहौल पा कर यदाकदा सतह से बाहर झांकने की कोशिश करने लगते हैं। सन् 2010 में एक फिल्म आई थी ‘‘रोड टू संगम’’। इसके लेखक और निर्देशक थे अमित राय। अपनी इस फिल्म के लिए अमित राय ने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरला तथा मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड्स जीते थे। फिल्म की कहानी एक ऐसे पात्रा को ले कर चलती है जो इलाहाबाद में रहता है, गाड़ियां सुधारने का काम करता है और अपने मुस्लिम समुदाय की कमेटी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसे काम मिलता है उस ऐतिहासिक गाड़ी को सुधारने का जिस पर महात्मा गांधी की अस्थियां लाई गई थीं। एक बार फिर इसी ऐतिहासिक गाड़ी को चुना जाता है महात्मा गांधी की उन अस्थियों को संगम तक ले जाने के लिए जिन्हें ओडिशा के एक बैंक-लॉकर में रख कर लोग भूल गए थे। इस फिल्म में अमित राय ने बड़े कलात्मक ढंग से इस तथ्य को सामने रखा था कि सामान्यजन की आस्था और कट्टरपंथियों की आस्था में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है। इस फिल्म में महात्मा गांधी के प्रपौत्रा तुषार अरुण गांधी ने अस्थि-कलश को संगम तक पहुंचाने की भूमिका स्वयं निभाई थी। सन् 2010 में ‘‘रोड टू संगम’’ के जरिए कट्टरपंथियों की जो तस्वीरें सामने रखीं थीं वे आज भी राजनीति के फ्रेम में जड़कर प्रजातंत्रा की दीवारों पर टंगी दिखाई पड़ती हैं। आज भी एक समुदाय दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता है और दूसरा समुदाय आज भी स्वयं को धार्मिक आधार पर उपेक्षित दिखाने की कोशिश करता रहता है।
हिन्दी में साहित्य और पत्राकारिता को एक मिशन के रूप में ले कर चलने वाले वरिष्ठ नामों में एक प्रखर नाम है अच्युतानंद मिश्र का। संपादक, पत्राकार, लेखक, पत्राकारों के नेतृत्वकर्त्ता, शिक्षाविद और समाजसेवी जैसी अनेक विशिष्टताओं के धनी अच्युतानंद मिश्र हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। पत्राकारिता के वर्तमान स्वरूप पर उन्होंने बहुत उचित टिप्पणी की है कि ‘‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने के बाद आज वह खबरों की खोज के अलावा खबरों को प्रायोजित और उत्पादित भी करने लगा है, जबकि तथ्यपूर्ण बुनियादी जानकारी उपलब्ध कराना और बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना पहले भी उसका घोषित उद्देश्य रहा है और आज भी है। अन्तर यह है कि अब उसको सनसनीखेज और बिकाऊ खबरों की तलाश है।’’
अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को बड़ी बारीकी से आलेखित किया है इसी अंक में विजयदत्त श्रीधर ने। जी हां, इस बार के रचना, आलोचना और साक्षात्कार के केन्द्र हैं पं. अच्युतानंद मिश्र। ज्वलंत प्रश्नों को सामने रखते हुए साक्षात्कार लिया है संत समीर ने। मुझे विश्वास है कि ये सारी सामग्री पाठकों को पं. अच्युतानंद मिश्र के विचारों के और निकट ले जाएगी जहां से वे इस पुरोधा पत्राकार को समग्रता के साथ जान सकेंगे।
आलोक मेहता और गोपेश्वर सिंह के संस्मरण और नरेन्द्र मोहन की डायरी के अंश के साथ ही लेखिका कृष्णा अग्निहोत्रा की लेखकीय मनोवृत्तियों, अनुभूतियों और विचारों की त्रायी आस्वादन कराएंगी गद्य की विविधताओं का। कृष्णा अग्निहोत्रा मुखर स्पष्टता की पक्षधर लेखिका हैं। इनकी आत्मकथा (दो खंड में) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘‘औरकृऔरकृऔरत’’ ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज़ कराई थी।
हिन्दी को ले कर ढेर सारी नकारात्मक स्थितियों के बीच सुखद लगता है तब जब सोनिया तनेजा जैसी युवा साहित्यकार अमरीका में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रही होती हैं।
और अंत में जीवन की तमाम बाधाओं को हराने वाले शाश्वत प्रेम को समर्पित मेरी यह कविता -
कॉपी के फटे हुए पन्ने पर
नहीं है आसान
खिलाना
प्यार का गुलाब
कुछ लकीरें लांघनी होंगी
कुछ लकीरें मिटानी होंगी
कुछ लकीरें छोड़नी होंगी
ताकि जिया जा सके
अपना जीवन
अपना प्यार
अपने ढंग से
लकीरों को हराते हुए।
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Also can read on this Link ...
https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-july-sep-2017
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_july-sep_2017
- शरद सिंह
हम आज़ाद हैं ...
... पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी सारी विद्वता, सारी सोच अंग्रेजों के बनाए माप-दण्ड के अनुरूप चलती है। हम शेक्सपियर, शैली और कीट्स के इतर साहित्य को जानने से कतराते हैं। सोवियत संघ के युग में आम आदमी ने टॉल्सटॉय, गोर्की और पुश्किन के साहित्य को जाना। उससे कुछ आगे फ्रैंज काफ्का, सार्त्रा और कामू को पढ़ा। आज ‘अलकेमिस्ट’ के लेखक पाओलो कोएलो को भी छोटे शहरों, गांवों में रहने वाले हिन्दी लेखक और पाठक कम ही जानते हैं। जो जानते हैं उनमें भी पाओलो कोएलो की साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने वाले कम ही हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ और अंग्रेजी की ओर अभिभावकों की अंधी दौड़ ने मातृभाषाओं को उपेक्षित कर दिया है। ऐसी दशा में आज हमें मेहनत करनी पड़ेगी त्रिलोचन के सॉनेट की मूलप्रवृत्तियों को समझने के लिए। खैर, त्रिलोचन और उनके सॉनेट की चर्चा बाद में , पहले उस आयोजन के बारे में जहां त्रिलोचन और उनके सॉनेट को पूरी आत्मीयता से याद किया गया। विगत 24 वर्ष से मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा ‘पावस व्याख्यान माला’ का आयोजन किया जा रहा है। मेरी लगातार तीन वर्ष की सहभागिता का अनुभव मुझे भरोसा दिलाता है कि ‘हिन्दी दिवस’ के एक दिवसीय मोहजाल से ऊपर उठ कर हिन्दी के प्रति सत्यनिष्ठा से काम करने वाले अभी भी हैं...जैसे मप्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्रा-संचालक कैलाशचन्द्र पंत।
इस वर्ष भी 28 से 30 जुलाई 2017 तक हिन्दी भवन, भोपाल में 24वीं पावस व्याख्यानमाला का तीन दिवसीय आयोजन किया गया। व्याख्यान के लिए चार विषय चुने गए थे - रामायण में प्रतिष्ठापित मूल्यों की सार्वभौमिकता, अमृतलाल नागर के उपन्यासों का वैशिष्ट्य, त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प तथा चौथा विषय था लोक साहित्य में संस्कृति की मधुरिम छटा। जितना सच यह है कि लोक साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है उतना ही सच यह भी है कि पाश्चात्य साहित्यिक प्रवृत्तियों ने भी हिन्दी साहित्य को विस्तार दिया है। इस क्रम में सॉनेट का स्थान सबसे पहले आता है। पश्चिमी जगत की साहित्यिक विधा सॉनेट को भारतीय परिवेश में ढालने का श्रेय यदि किसी को है तो वह है कवि त्रिलोचन शास्त्री को।
हिन्दी साहित्य के काव्य इतिहास में सॉनेट को पूरी भारतीयता के साथ समावेशित करने का श्रेय त्रिलोचन शास्त्री को ही है किन्तु उनके देहान्त के बाद मानो साहित्य जगत ने त्रिलोचन के सॉनेट को महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम के एक लघु अध्याय के रूप में लेख कर के छोड़ दिया। ‘‘त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प’’ सत्रा में मैंने कवि त्रिलोचन जी को याद करते हुए अपनी उन स्मृतियों को सबके साथ साझा किया जब त्रिलोचन जी सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजन पीठ में अपने प्रथम कार्यकाल में पदस्थ थे। जितने ख्यातिनाम, उतने ही सहज व्यक्ति। सहज इतने कि मैंने उन्हें ‘अंकल’ का सम्बोधन दिया और उन्होंने आत्मीयता से स्वीकार कर लिया।
त्रिलोचन शास्त्री ने सन् 1950 के आस-पास सॉनेट लिखना आरम्भ किया। यह माना जाता है कि उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता का समावेश करते हुए अपने अधिकांश सॉनेट्स पेटार्कन एवं शेक्सपीयरन शैली में लिखे हैं। शिल्प का आधार भले ही आयातित हो किन्तु त्रिलोचन ने भाव, विचार और शिल्प को ‘त्रिलोचनीय’ अर्थात् मौलिक रूप दिया। जहां तक मेरा मानना है कि समालोचना के दौरान लेखन हमेशा शोधपूर्ण होना चाहिए। यानी पहले जड़ों तक पहुंचो, फिर लिखो। हमें त्रिलोचन के सॉनेट की तुलना शेक्सपियर के सॉनेट से करते हुए ही नहीं ठहर जाना चाहिए बल्कि सॉनेट के मूल स्थान ग्रीस, इटली और सिसली के सॉनेट की प्रवृत्तियों से भी तुलना करना चाहिए। क्योंकि शेक्सपीयर का सॉनेट एलीटवर्ग का सॉनेट था जबकि सिसली का सॉनेट कृषक और मजदूरवर्ग का था और इस प्रकार के सॉनेट ही त्रिलोचन ने लिखे हैं। मुझे तो त्रिलोचन के सॉनेट में आयरिश और कैल्टिक प्रवृत्तियां भी दिखाई देती हैं।
बात कविता की ही कभी सुखद तो कभी दुखद.... कविता को जीने वाले कवि अजित कुमार और काव्य में जीवन को पिरोने वाले कवि चंद्रकांत देवताले को सदा के लिए खोना हिन्दी काव्य-जगत् के लिए शोकाकुल कर देने वाली स्थिति है। यूं तो अजित कुमार ने उपन्यास, कविता, कहानी, यात्रा, संस्मरण, आलोचना आदि एकाधिक विधाओं में कलम चलाई किन्तु वे जिस तरह अपनी कविता में स्वयं के बहाने पूरे जग की बातें कह जाते थे, वह गहरे तक प्रभाव छोड़ने में सक्षम रहा। ‘अनायास’ एक प्रतिनिधि कविता है कवि अजित कुमार की-
‘‘रेंगते हुए एक लम्बे से केंचुए को/मैंने जूते की नोक से जैसे ही छेड़ा/वह पहले तो सिमटा/फिर गुड़ीमुड़ी नन्हीं एक गोली बन/सहसा स्थिर हो गया/क्या मैं जानता था/ देखूंगा इस तरह/ गीली मिट्टी में अनायास/अपना प्रतिबिम्ब?’’
समय साक्षी होता है प्रवृत्तियों का विचारों का और चेष्टाओं का। समय के साक्ष्य कभी साहित्य तो कभी इतिहास तो कभी सिनेमा में ढल कर सामने आते हैं। साक्षी बना 15 अगस्त 1947 भारत की आजादी का ... लेकिन अलगाव के जो बीज दिलों की ज़मीन में दबा दिए गए थे वे आज भी माहौल पा कर यदाकदा सतह से बाहर झांकने की कोशिश करने लगते हैं। सन् 2010 में एक फिल्म आई थी ‘‘रोड टू संगम’’। इसके लेखक और निर्देशक थे अमित राय। अपनी इस फिल्म के लिए अमित राय ने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरला तथा मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड्स जीते थे। फिल्म की कहानी एक ऐसे पात्रा को ले कर चलती है जो इलाहाबाद में रहता है, गाड़ियां सुधारने का काम करता है और अपने मुस्लिम समुदाय की कमेटी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसे काम मिलता है उस ऐतिहासिक गाड़ी को सुधारने का जिस पर महात्मा गांधी की अस्थियां लाई गई थीं। एक बार फिर इसी ऐतिहासिक गाड़ी को चुना जाता है महात्मा गांधी की उन अस्थियों को संगम तक ले जाने के लिए जिन्हें ओडिशा के एक बैंक-लॉकर में रख कर लोग भूल गए थे। इस फिल्म में अमित राय ने बड़े कलात्मक ढंग से इस तथ्य को सामने रखा था कि सामान्यजन की आस्था और कट्टरपंथियों की आस्था में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है। इस फिल्म में महात्मा गांधी के प्रपौत्रा तुषार अरुण गांधी ने अस्थि-कलश को संगम तक पहुंचाने की भूमिका स्वयं निभाई थी। सन् 2010 में ‘‘रोड टू संगम’’ के जरिए कट्टरपंथियों की जो तस्वीरें सामने रखीं थीं वे आज भी राजनीति के फ्रेम में जड़कर प्रजातंत्रा की दीवारों पर टंगी दिखाई पड़ती हैं। आज भी एक समुदाय दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता है और दूसरा समुदाय आज भी स्वयं को धार्मिक आधार पर उपेक्षित दिखाने की कोशिश करता रहता है।
हिन्दी में साहित्य और पत्राकारिता को एक मिशन के रूप में ले कर चलने वाले वरिष्ठ नामों में एक प्रखर नाम है अच्युतानंद मिश्र का। संपादक, पत्राकार, लेखक, पत्राकारों के नेतृत्वकर्त्ता, शिक्षाविद और समाजसेवी जैसी अनेक विशिष्टताओं के धनी अच्युतानंद मिश्र हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। पत्राकारिता के वर्तमान स्वरूप पर उन्होंने बहुत उचित टिप्पणी की है कि ‘‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने के बाद आज वह खबरों की खोज के अलावा खबरों को प्रायोजित और उत्पादित भी करने लगा है, जबकि तथ्यपूर्ण बुनियादी जानकारी उपलब्ध कराना और बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना पहले भी उसका घोषित उद्देश्य रहा है और आज भी है। अन्तर यह है कि अब उसको सनसनीखेज और बिकाऊ खबरों की तलाश है।’’
अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को बड़ी बारीकी से आलेखित किया है इसी अंक में विजयदत्त श्रीधर ने। जी हां, इस बार के रचना, आलोचना और साक्षात्कार के केन्द्र हैं पं. अच्युतानंद मिश्र। ज्वलंत प्रश्नों को सामने रखते हुए साक्षात्कार लिया है संत समीर ने। मुझे विश्वास है कि ये सारी सामग्री पाठकों को पं. अच्युतानंद मिश्र के विचारों के और निकट ले जाएगी जहां से वे इस पुरोधा पत्राकार को समग्रता के साथ जान सकेंगे।
आलोक मेहता और गोपेश्वर सिंह के संस्मरण और नरेन्द्र मोहन की डायरी के अंश के साथ ही लेखिका कृष्णा अग्निहोत्रा की लेखकीय मनोवृत्तियों, अनुभूतियों और विचारों की त्रायी आस्वादन कराएंगी गद्य की विविधताओं का। कृष्णा अग्निहोत्रा मुखर स्पष्टता की पक्षधर लेखिका हैं। इनकी आत्मकथा (दो खंड में) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘‘औरकृऔरकृऔरत’’ ने अपनी धमाकेदार उपस्थिति दर्ज़ कराई थी।
हिन्दी को ले कर ढेर सारी नकारात्मक स्थितियों के बीच सुखद लगता है तब जब सोनिया तनेजा जैसी युवा साहित्यकार अमरीका में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रही होती हैं।
और अंत में जीवन की तमाम बाधाओं को हराने वाले शाश्वत प्रेम को समर्पित मेरी यह कविता -
कॉपी के फटे हुए पन्ने पर
नहीं है आसान
खिलाना
प्यार का गुलाब
कुछ लकीरें लांघनी होंगी
कुछ लकीरें मिटानी होंगी
कुछ लकीरें छोड़नी होंगी
ताकि जिया जा सके
अपना जीवन
अपना प्यार
अपने ढंग से
लकीरों को हराते हुए।
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