Dr (Miss) Sharad Singh, Author |
थर्ड ज़ेंडर विमर्श और प्रमुख हिन्दियेत्तर कृतियां
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
अमेरिकी कवि शरेन रफेल ने सन् 2017 में एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने अपनी उस व्याकुलता को व्यक्त किया था जिसमें वे एक थर्ड ज़ेडर मनुष्य होने के परिप्रेक्ष्य में अपना व्यक्तित्व पहचानना और जानना चाहते हैं। वे अपनी कविता के माध्यम से समाज से प्रश्न करते हैं कि मैं कौन हूं मुझे बताओ, मैं तुम्हें सुन रहा हूं पूरे ध्यान से। पूरी कविता का अनुवाद इस प्रकार है-
मैं सुनूंगा
मैं वास्तव में तुम्हें सुनूंगा;
लेकिन इसके जवाब में मेरी मदद करो
- (मुझे बताओ) क्या मैं इंसान हूं?
क्या मुझे बहुत जटिल होना चाहिए?
लेकिन हम एक ही भाषा साझा करते हैं
और एक ही दुनिया,
तो मैं भी (समाज की) पैचवर्क-रजाई का हिस्सा क्यों नहीं हूं?
मैं अलग-थलग हूं, कभी-कभी, हमेशा;
मैं एक कलाकार बन सकता हूं, आपको पता है
या शायद एक महान चिकित्सक
या शायद एक आत्मापूर्ण गायक।
लेकिन मैं एक हिस्सा नहीं होने से थक गया हूं -
एकजुट दुनिया का एक हिस्सा।
क्या हम एक ही सूर्य का उगना नहीं देखते हैं?
सूरज मेरे लिए क्यों नहीं उगता है?
मैं एक कदम पीछे हट कर सोचता हूं
मैं इंसान कैसे नहीं हो सकता?
हम उसी हवा को सांस लेने के लिए साझा करते हैं,
लेकिन यह मुझे मारती है,
हां, यह हवा मुझे मार देती है।
जब मैं चकित हूं,
अपनी तुच्छता से,
इतनी बदतरता के साथ,
एक घृणित दृष्टि जो मुझे जीने नहीं देती है।
जब मुझे लगातार याद दिलाया जाता है
तो मेरी दुनिया अलग हो जाती है
मुझे दो की दुनिया में रहने के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि मैं तीसरा हूं।
मुझे एक टैग के बंधन और गंदगी के खिताब से मुक्त होने दो
मुझे इस दुनिया का हिस्सा बनने दो जो दो में बंटी है
जब मैं खुद को देखूं तो मुझे शर्मिंदा मत होने दो,
मुझे भी बनने दो दुनिया के लिंग का हिस्सा।
मुझे इस दुनिया में मुक्त होने दो।
जहां से स्त्री और पुरुष की लैंगिक पहचान समाप्त होती है वहीं से आरम्भ होती है तीसरे लिंग की पहचान जिसे आम बोलचाल में ‘थर्ड जेंडर’ कहा जाता रहा है। यही ‘थर्ड जेंडर’ द्विशब्द आज उस मानव समुदाय की पहचान बन गया है जो न स्त्रा है, न पुरुष। फिर भी इसमें निहित हैं दोनों लिंगों के गुण। वह पौरुषेय भी है और स्त्रैण भी। दोनों का थोड़ा-थोड़ा अंश, एक अलग जैविक वैशिष्ट्य। किन्तु कठिनाई उनके जैविक विशेषताओं की नहीं है, कठिनाई है सामाजिक संरचना की। जो मनुष्य ने रची और ‘शक्तिशाली उत्तरजीविता को प्राप्त करता है’ वाले सिद्धांत पर चलते हुए समाज में तीनों में से एक लिंग की प्रधानता निर्धारित कर ली। समाज बना पुरुष प्रधान। लैंगिक पूर्णता होते हुए भी समाज में स्त्रा को मिला दोयम दर्ज़ा। ऐसे में तृतीय लिंगी भला कहां स्थान पाते? उनकी पहचान मानो एक ‘सोशल टैबू’ बनती गई। - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
अमेरिकी कवि शरेन रफेल ने सन् 2017 में एक कविता लिखी थी जिसमें उन्होंने अपनी उस व्याकुलता को व्यक्त किया था जिसमें वे एक थर्ड ज़ेडर मनुष्य होने के परिप्रेक्ष्य में अपना व्यक्तित्व पहचानना और जानना चाहते हैं। वे अपनी कविता के माध्यम से समाज से प्रश्न करते हैं कि मैं कौन हूं मुझे बताओ, मैं तुम्हें सुन रहा हूं पूरे ध्यान से। पूरी कविता का अनुवाद इस प्रकार है-
मैं सुनूंगा
मैं वास्तव में तुम्हें सुनूंगा;
लेकिन इसके जवाब में मेरी मदद करो
- (मुझे बताओ) क्या मैं इंसान हूं?
क्या मुझे बहुत जटिल होना चाहिए?
लेकिन हम एक ही भाषा साझा करते हैं
और एक ही दुनिया,
तो मैं भी (समाज की) पैचवर्क-रजाई का हिस्सा क्यों नहीं हूं?
मैं अलग-थलग हूं, कभी-कभी, हमेशा;
मैं एक कलाकार बन सकता हूं, आपको पता है
या शायद एक महान चिकित्सक
या शायद एक आत्मापूर्ण गायक।
लेकिन मैं एक हिस्सा नहीं होने से थक गया हूं -
एकजुट दुनिया का एक हिस्सा।
क्या हम एक ही सूर्य का उगना नहीं देखते हैं?
सूरज मेरे लिए क्यों नहीं उगता है?
मैं एक कदम पीछे हट कर सोचता हूं
मैं इंसान कैसे नहीं हो सकता?
हम उसी हवा को सांस लेने के लिए साझा करते हैं,
लेकिन यह मुझे मारती है,
हां, यह हवा मुझे मार देती है।
जब मैं चकित हूं,
अपनी तुच्छता से,
इतनी बदतरता के साथ,
एक घृणित दृष्टि जो मुझे जीने नहीं देती है।
जब मुझे लगातार याद दिलाया जाता है
तो मेरी दुनिया अलग हो जाती है
मुझे दो की दुनिया में रहने के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि मैं तीसरा हूं।
मुझे एक टैग के बंधन और गंदगी के खिताब से मुक्त होने दो
मुझे इस दुनिया का हिस्सा बनने दो जो दो में बंटी है
जब मैं खुद को देखूं तो मुझे शर्मिंदा मत होने दो,
मुझे भी बनने दो दुनिया के लिंग का हिस्सा।
मुझे इस दुनिया में मुक्त होने दो।
सन् 2011 में कवि मोसेस समांदार ने ‘द थर्ड जेंडर’ शीर्षक कविता में इस बात का उलाहना दिया था कि जिसने स्त्रा और पुरुष को बनाया उसी ने तृतीय लिंगियों को भी बनाया, तो फिर यह भेद-भाव और विचित्र-प्राणी समझा जाना क्यों? मोसेस ने जो कविता लिखी वह इस प्रकार है -
मैं एक विचित्र आग्रह करता हूं
चरित्र से परे जीवन
जैसे सल्फरिक एसिड के डिब्बे
एक शांत तीसरा लिंग बाहर निकलता है
उसे कहा जाता है चेक्स (chex)
महिला, पुरुष और चेक्स
चेक्स विचित्रा है
अनंत क्षमता का एक प्राणी या (व्यक्ति)
पुरुष नहीं
स्त्रा नहीं
बस, होना चाहिए सही
देवता की तरह नहीं
लेकिन तीसरा लिंग
भ्रम या दोनों का मिश्रण नहीं है
लेकिन उत्तम लिंग?
यह तीसरा लिंग कौन बनाता है?
मानव तो नहीं।
भारत के पौराणिक युग में जो तृतीय लिंगी नृत्य, गान और संगीत के कौशल से परिपूर्ण हो कर देवताओं के सेवकों के रूप में देखे जाते थे, जिनका उल्लेख संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। मध्यएशियाई आक्रमणकारियों के आगमन के साथ ही उन्हें काम सौंपा गया स्त्रियों के उस समूह की पहरेदारी का जो हरम या रनिवास में रखी जाती थीं। वे जिस एक पुरुष की विवाहिता होती थीं वह सर्वशक्तिमान शासक होते हुए भी इस भय से ग्रस्त रहता था कि उसके हरम में रहने वाली स्त्रियां किसी अन्य पुरुष से लैंगिक संबंध न स्थापित कर लें। भय इतना अधिक कि कहीं वे पहरेदारों के आकर्षण में न आ जाएं। इस संदर्भ में सबसे निरापद थे तृतीय लिंगी। वे हरम या रनिवास में रहने वाली स्त्रियों की यौनिक सीमा के पहरेदार बना दिए गए क्योंकि उनसे उन स्त्रियों के मालिक को किसी भी प्रकार का भय नहीं था।
पुराण-काल के बाद महाभारत काल में भी तृतीय लिंगियों का जीवन शास्त्रीय नृत्य-गान से जुड़ा रहा, साथ ही युद्ध में भी निर्णायक भूमिका में उन्हें देखा जा सकता है। ‘महाभारत’ की दो कथाओं में इनका विवरण मिलता है। एक कथा है पांडुपुत्र अर्जुन के बृहन्नला बनने की और दूसरी कथा शिखण्डी की है। कथा के अनुसार अर्जुन को सशरीर स्वर्ग में भ्रमण करने का अधिकार था। समस्त विद्याओं में पारंगत होने के बाद अर्जुन को इन्द्र ने अपने दरबार में आमंत्रित किया। उसके स्वागत में उर्वशी का नृत्य रखा गया।
अप्सरा उर्वशी का नृत्य देख कर अर्जुन मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगा। उर्वशी को अर्जुन का इस प्रकार प्रशंसा करना अच्छा लगा और वह अर्जुन पर मुग्ध हो गई। उर्वशी ने एकांत में मिल कर अर्जुन के समक्ष अभिसार का प्रस्ताव रखा। इस पर अर्जुन ने उर्वशी का प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा कि आप मेरी माता तुल्य हैं क्यों कि आप मेरे पूर्वज पुरुरवा की अर्द्धांगिनी रही हैं और भरतकुल की जननी हैं। मैं आपके साथ अभिसार की बात सोच भी नहीं सकता हूं। अर्जुन की बात सुन कर उर्वशी को अपमान का अनुभव हुआ और उसने अर्जुन को धिक्कारते हुए कहा कि तुम मुझे अभी माता तुल्य कह रहे हो और थोड़ी देर पहले मेरा कामुक नृत्य देख कर मेरी प्रशंसा कर रहे, क्या तुम अपनी माता कुंती को मेरी तरह दरबार में नृत्य करते देख सकते हो? क्या मेरे नृत्य की तरह उनके नृत्य की भी प्रशंसा कर सकते हो? अर्जुन निरुत्तर रह गया। तब उर्वशी ने उसे शाप दिया कि तुम्हें पुरुष होते हुए भी एक वर्ष तक स्त्री का भी जीवन जीना पड़ेगा, वह भी एक नर्त्तकी बन कर, अर्थात् तुम्हें तृतीय लिंगी मनुष्य का जीवन जीना पड़ेगा। उर्वशी का शाप सच हुआ और अर्जुन को अज्ञातवास के अंतिम वर्ष राजा विराट के महल में बृहन्नला के रूप में रहना पड़ा। यह जैविक बदलाव नहीं था, एक छद्मावरण था किन्तु इस छद्मावरण के साथ एक ऐसे तृतीय लिंगी का जीवन जीना पड़ा जो नृत्य-गान में निपुण था। थर्ड जेंडर का यह कैमोफ्लॉग (छद्मावरण) था जो आज पेट भरने की विवशता के साथ जुड़ गया है। महानगरों में कई पुरुष तृतीय लिंगी का चोला धारण कर के तृतीय लिंगी बन कर पैसा उगाहते हैं।
पुराण-काल के बाद महाभारत काल में भी तृतीय लिंगियों का जीवन शास्त्रीय नृत्य-गान से जुड़ा रहा, साथ ही युद्ध में भी निर्णायक भूमिका में उन्हें देखा जा सकता है। ‘महाभारत’ की दो कथाओं में इनका विवरण मिलता है। एक कथा है पांडुपुत्र अर्जुन के बृहन्नला बनने की और दूसरी कथा शिखण्डी की है। कथा के अनुसार अर्जुन को सशरीर स्वर्ग में भ्रमण करने का अधिकार था। समस्त विद्याओं में पारंगत होने के बाद अर्जुन को इन्द्र ने अपने दरबार में आमंत्रित किया। उसके स्वागत में उर्वशी का नृत्य रखा गया।
Apsara Urvashi |
Shikhandi |
‘महाभारत’ में दूसरी कथा है शिखण्डी की। इसमें कोई कैमोफ्लॉग नहीं है। अम्बा काशीराज की पुत्रा थी। उसकी दो और बहनें थी जिनका नाम अम्बिका और अम्बालिका था। हस्तिनापुर के संरक्षक भीष्म ने अपने भाई एवं हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर आसीन राजा विचित्रवीर्य के लिए काशीराज की तीनों पुत्रियों का हरण कर लिया। उन तीनों को वे हस्तिनापुर ले गए। अंबा ने भीष्म को बताया कि वह तो किसी और से प्रेम करती है अतः उनके भाई से विवाह नहीं कर सकती है। तब भीष्म ने अम्बा को उसके प्रेमी के पास पहुंचा दिया। किन्तु प्रेमी ने हरण की जा चुकी अंबा को तिरस्कृत कर ठुकरा दिया। अम्बा ने अपने जीवन के साथ हो रहे इस खिलवाड़ के लिए भीष्म को दोषी माना और उनसे विवाह करने का आग्रह किया। आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा से बंधे होने के कारण भीष्म द्वारा विवाह करने से मना कर दिया गया। सब ओर से ठुकराई गई अंबा ने प्रतिज्ञा की कि वह एक दिन भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। इसके लिए उसने घोर तपस्या की। उसका जन्म पुनः एक राजा की पुत्रा के रूप में हुआ। पूर्वजन्म की स्मृतियों के कारण अंबा ने पुनः अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए तपस्या आरंभ कर दी। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया तब अंबा ने शिखंडी के रूप में एक तृतीय लिंगी बनकर महाराज द्रुपद के घर जन्म लिया और महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण बनी।
इन दोनों कथाओं का उल्लेख यहां इसलिए समीचीन है क्योंकि इनसे महाभारत काल अर्थात् प्राचीन भारत में तृतीय लिंगियों के महत्व का पता चलता है। भारतीय इतिहास के मध्यकाल में भले ही तृतीय लिंगियों को हरम का पहरेदार बना दिया गया लेकिन मलिक काफूर जैसे तृतीय लिंगी ने अनेक महत्वपूर्ण युद्ध लड़े और भारत में खिलजी वंश को सुदृढ़ता प्रदान की।
इन दोनों कथाओं का उल्लेख यहां इसलिए समीचीन है क्योंकि इनसे महाभारत काल अर्थात् प्राचीन भारत में तृतीय लिंगियों के महत्व का पता चलता है। भारतीय इतिहास के मध्यकाल में भले ही तृतीय लिंगियों को हरम का पहरेदार बना दिया गया लेकिन मलिक काफूर जैसे तृतीय लिंगी ने अनेक महत्वपूर्ण युद्ध लड़े और भारत में खिलजी वंश को सुदृढ़ता प्रदान की।
The Perfect Servant |
थर्ड जेंडर के सामाजिक अस्तित्व की प्राचीन समाज में जगह के प्रश्न पर एक और किताब उल्लेखनीय है। सन् 2003 में यूनीवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस से एक पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘द परफेक्ट सर्वेंट : इनुक्स एन्ड द सोशल कंस्ट्रक्शन ऑफ जेंडर इन बाईज़ेन्टियम’। इसे लिखा था कैथरीन एम. रिंगरोज ने। इस पुस्तक में ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में बाईज़ेन्टियम साम्रज्य के आधीन यूनानियों द्वारा बसाए गए थ्रेस शहर में रहने वाले हिजड़ा सेवकों के बारे में विस्तृत विवरण मिलता है। तत्कालीन बाईज़ेन्टियम समाज में थर्ड जेंडर की पहचान एक उत्तम सेवक के रूप में थी। ठीक वैसे ही जैसे भारत में मध्यकाल में उन्हें उत्तम सेवक माना गया। एंथ्रोपोलॉजिकल आधार पर ऐतिहासिक अध्ययन के दृष्श्टिकोण से यह पुस्तक महत्वपूर्ण मानी गई।
लेकिन समय के साथ तृतीय लिंगी मानो सामाजिक षडयंत्र के शिकार हो गए। उन्हें हाशिए पर पहुंचा दिया गया। उनकी आशीषें या दुआएं तो महत्वपूर्ण रहीं लेकिन उनका अस्तित्व संकुचित घेरे में बांध दिया गया। ताली बजा-बजा कर नाचने वाले और दुआएं देने वाले विचित्रा मनुष्यों के रूप में उन्हें देखा जाने लगा। समाज के इस रवैये से सकुचा कर वे भी अपने-आप में सिमटने लगे। योरोप और अमेरिका में तृतीय लिंगी अपेक्षाकृत जल्दी सम्हल गए। उन्होंने अपनी बौद्धिक और कौशल क्षमता को पहचाना, प्रदर्शित किया और समाज में अपनी जगह बना ली। योरोप या अमेरिका का कोई भी तृतीय लिंगी तालियां बजाते हुए घर-घर नहीं भटकता है। वह फैशन इंडस्ट्री में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुका है।
भारत में तृतीय लिंगियों यानी थर्ड जेंडर का संघर्ष अभी आरम्भ ही हुआ है।
इतिहास गवाह है कि पुरुषों ने अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए स्त्रियों को दोयम दर्जे पर रख दिया। वहीं स्त्रियों ने भी अपने संघर्ष का नया इतिहास रचते हुए साबित किया कि वे पुरुषों से किभी तरह से कम नहीं हैं। स्त्रियों के इस संघर्ष में स्वयं पुरुषों के बुद्धिजीवी हिस्से ने उनका साथ दिया। अब बारी है समाज के उस तबके की जिसने सदियों से अपनी परिस्थिति को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर रखा है। उनके भीतर जैविक (बायोलॉजिकल) झिझक है। वे जानते हैं कि वे न तो स्त्री हैं और न पुरुष।
लेकिन समय के साथ तृतीय लिंगी मानो सामाजिक षडयंत्र के शिकार हो गए। उन्हें हाशिए पर पहुंचा दिया गया। उनकी आशीषें या दुआएं तो महत्वपूर्ण रहीं लेकिन उनका अस्तित्व संकुचित घेरे में बांध दिया गया। ताली बजा-बजा कर नाचने वाले और दुआएं देने वाले विचित्रा मनुष्यों के रूप में उन्हें देखा जाने लगा। समाज के इस रवैये से सकुचा कर वे भी अपने-आप में सिमटने लगे। योरोप और अमेरिका में तृतीय लिंगी अपेक्षाकृत जल्दी सम्हल गए। उन्होंने अपनी बौद्धिक और कौशल क्षमता को पहचाना, प्रदर्शित किया और समाज में अपनी जगह बना ली। योरोप या अमेरिका का कोई भी तृतीय लिंगी तालियां बजाते हुए घर-घर नहीं भटकता है। वह फैशन इंडस्ट्री में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना चुका है।
भारत में तृतीय लिंगियों यानी थर्ड जेंडर का संघर्ष अभी आरम्भ ही हुआ है।
इतिहास गवाह है कि पुरुषों ने अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए स्त्रियों को दोयम दर्जे पर रख दिया। वहीं स्त्रियों ने भी अपने संघर्ष का नया इतिहास रचते हुए साबित किया कि वे पुरुषों से किभी तरह से कम नहीं हैं। स्त्रियों के इस संघर्ष में स्वयं पुरुषों के बुद्धिजीवी हिस्से ने उनका साथ दिया। अब बारी है समाज के उस तबके की जिसने सदियों से अपनी परिस्थिति को अपनी नियति मान कर स्वीकार कर रखा है। उनके भीतर जैविक (बायोलॉजिकल) झिझक है। वे जानते हैं कि वे न तो स्त्री हैं और न पुरुष।
Neither Man Nor Woman - The Hijras of India |
सन् 1990 में सेरेना नंदा की पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका नाम था ‘नाईदर मैन नॉर वुमेन : द हिजराज ऑफ इंडिया’। इसे प्रकाशित किया था बेलामांट, केलीफोर्निया के वड्सवर्थ पब्लिशिंग हाउस ने। यह भारत के थर्ड जेंडर के जीवन पर एक मोनोग्राफिक पुस्तक थी। इस पुस्तक के लिए सेरेना नंदा को सन् 1990 में ही ‘रुथ बेनेडिक्ट प्राईज़’ से सम्मानित किया गया। थर्ड जेंडर के जीवन के अध्ययन का विस्तार करने के उददेश्य से सन् 1998 में कैनगेग लर्निंग ने इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया। लेखिका सेरेना नंदा सिटी यूनीवर्सिटी न्यूयार्क में एंथ्रोपोलॉजी की प्रोफेसर इमेरट्स रह चुकी हैं। इसीलिए उन्होंने एंथ्रोपोलॅाजिकल दृष्टिकोण से थर्ड जेंडर के जीवन का अध्ययन प्रस्तुत किया। सेरेना नंदा ने अपनी पुस्तक में लिखा कि -‘भारतीय समाज में हिजड़ा की पारंपरिक भूमिका एक बच्चे के जन्म के आसपास विवाह और समारोहों में गायन और नृत्य करना है। वे महिलाओं के रूप में कपड़े पहनते हैं। माना जाता है कि उनके पास नपुंसकता और बांझपन को दूर करने वाली विशेष शक्तियां होती हैं। जो हिन्दू धर्म से आते हैं वे देवी बहुचरा की पूजा करते हैं, लेकिन जो मुस्लिम पृष्ठभूमि से आते हैं और खुद को मुस्लिम मानते हैं, वे मुस्लिम रीतियों का पालन करते हैं। सेरेना नंदा की पुस्तक में हिजड़ों की संस्कृति, धर्म और जैविक स्थिति पर पृष्ठभूमि के बाद उनके जीवन की बारिकियों से परिचित कराया गया है। सेरेना मानती हैं कि हिजड़ा की एक सांस्कृतिक तुलना देखी जा सकती है जिसमें मूल उत्तरी अमेरिका के बेरडैच और आधुनिक पश्चिमी समाजों के ट्रांससेक्सुअल शामिल हैं।
The Invisibles |
सन् 1996 में ‘द इनविजिबल : द टेल ऑफ द इनुक्स ऑफ इंडिया’ प्रकाशित हुई जिसे सन् 1998 में विंजेट पब्लिशर ने प्रकाशित किया। इसे लिखा था जिया जाफरी ने। न्यूयार्क में जन्मी जिया जाफरी का बचपन दिल्ली में गुजरा। उन्होंने बर्नार्ड कॉलेज न्यूयार्क से अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करने के बाद कोलम्बिया विश्वविद्यालय से फिक्शन राईटिंग में स्नातक की उपाधि पाई। उनके अनेक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित हुईं। ‘द इनविजिबल : द टेल ऑफ द इनुक्स ऑफ इंडिया’ में जिया जाफरी ने अनिता नाम की एक थर्ड जेंडर (हर्माफ्रोटिड/ द्विलिंगी) के जीवन को पिरोया है जिसे उसके माता-पिता थर्डजेंडर समुदाय को सौंप देते हैं। जहां से उसकी त्रासद कथा आरम्भ होती है। थर्ड जेंडर समुदाय पर आपराधिक तत्वों के दबाव की खोजी प्रस्तुति को आलोचक ही नहीं वरन लेखक समुदाय से भी भरपूर सराहना मिली। रिसजार्ड कापुंस्की ने पुस्तक के बारे में कहा-‘यह एक शानदार यात्रा है। जाफरी ने इस आकर्षक किन्तु अत्यंत नाजुक विषय पर मानवीय संवेदनाओं के साथ कलम चलाई है।’
‘संवेदनात्मक रूप से लिखा गया, अच्छे से व्यक्त किया गया और न्यायसंगत दृष्टिकोण रखा गया।’ यह टिप्पणी थी ‘न्यूयार्क टाइम्स की पुस्तक समीक्षा में।
अमेरिकी लेखक हिल्टन एल्स ने जिया जाफरी की इस पुस्तक को ‘दिलचस्प और इससे पहले कभी नहीं लिखी गई पुस्तक कहा।’ अमेरिका की ही लेखिका सिग्रिड नुनेज़ ने इसे ‘इतिहास, एंथ्रोपोलॉजी, यात्राओं, संस्मरणों के एक गुलदस्ते जैसी दिलचस्प पुस्तक’ कहा।
‘द इनविजिबल : द टेल ऑफ द इनुक्स ऑफ इंडिया’ भारत के उस समुदाय की कथा है जो समाज में रहते हुए भी समाज के परिदृश्य में नहीं हैं। निरा उपेक्षित हैं। मानो उनका होना या न होना समाज के लिए कोई अर्थ ही न रखता हो। सन् 1996 से पहले लगभग यही स्थिति थी भारत में थर्ड जेंडर की।
सन् 2000 में चंडीगढ़ के डॉ. सतीश कुमार शर्मा की पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘हिजराज़ : द लेबल्ड डेविएंट’। ज्ञान प्रकाशन हाउस से प्रकाशित इस किताब में समाज में थर्ड जेंडर की दैवीय प्रतिस्थापना को विश्लेषित किया गया। इसने थर्ड जेंडर के संगठित अस्तित्व को समझने में मदद की।
‘संवेदनात्मक रूप से लिखा गया, अच्छे से व्यक्त किया गया और न्यायसंगत दृष्टिकोण रखा गया।’ यह टिप्पणी थी ‘न्यूयार्क टाइम्स की पुस्तक समीक्षा में।
अमेरिकी लेखक हिल्टन एल्स ने जिया जाफरी की इस पुस्तक को ‘दिलचस्प और इससे पहले कभी नहीं लिखी गई पुस्तक कहा।’ अमेरिका की ही लेखिका सिग्रिड नुनेज़ ने इसे ‘इतिहास, एंथ्रोपोलॉजी, यात्राओं, संस्मरणों के एक गुलदस्ते जैसी दिलचस्प पुस्तक’ कहा।
‘द इनविजिबल : द टेल ऑफ द इनुक्स ऑफ इंडिया’ भारत के उस समुदाय की कथा है जो समाज में रहते हुए भी समाज के परिदृश्य में नहीं हैं। निरा उपेक्षित हैं। मानो उनका होना या न होना समाज के लिए कोई अर्थ ही न रखता हो। सन् 1996 से पहले लगभग यही स्थिति थी भारत में थर्ड जेंडर की।
सन् 2000 में चंडीगढ़ के डॉ. सतीश कुमार शर्मा की पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘हिजराज़ : द लेबल्ड डेविएंट’। ज्ञान प्रकाशन हाउस से प्रकाशित इस किताब में समाज में थर्ड जेंडर की दैवीय प्रतिस्थापना को विश्लेषित किया गया। इसने थर्ड जेंडर के संगठित अस्तित्व को समझने में मदद की।
The truth about me |
सन् 2010 में तमिल भाषी ए. रेवती की आत्मकथात्मक पुस्तक आई - ‘द ट्रुथ एबाउट मी’। अंग्रेजी अनुवाद किया था वी. गीता ने। इस किताब को मदुरै स्थित ‘द अमेरिकन कॉलेज‘ के थर्ड जेंडर साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। अपने जीवन की कहानी कहने में रेवती ने हत्प्रभ कर देने वाला साहस दिखाया। रेवती ने ‘गलत शरीर में होने’ के अपने गहरे संघर्ष को उजागर किया जो उसे बचपन से पीड़ित करता था। खुद को सच मानने के लिए, अपने परिवार और समुदाय द्वारा निरंतर हिंसा से बचने के लिए रेवती अपना गांव छोड़ कर हिजड़ों के घर में जगह पाने के लिए दिल्ली चली गई। उसकी ज़िंदगी एक महिला बनने और प्यार खोजने के लिए खतरनाक शारीरिक और भावनात्मक यात्रा की अविश्वसनीय श्रृंखला बन गई। ‘द ट्रुथ एबाउट मी’ एक थर्ड जेंडर की साहसी आत्मकथा है जिसने अपने घर के अंदर और बाहर गरिमा का जीवन खोजने के लिए उपहास, उत्पीड़न और हिंसा का डट कर विरोध किया। रेवती ने अपनी इस आत्मकथात्मक पुस्तक में अपने कटु अनुभवों को साझा करते हुए एक घटना का उललेख किया है कि- ‘उस भीड़ में पुरुषों ने हमारे कंधों पर, हमारी पीठ पर हाथ लगाना शुरू कर दिया। कुछ ने हमारी छातियों को पकड़ने का प्रयास किया। - मूल या डुप्लिकेट?- उन्होंने चिल्ला कर पूछा। ऐसे क्षणों में मुझे निराशा महसूस हुई और आश्चर्य हुआ कि क्या हमारे लिए गरिमा के साथ जीने और सभ्य जीवन जीने का कोई तरीका नहीं है?’
Myself Mona Ahmed |
सन् 2001 में प्रकाशित ‘माई सेल्फ मोना अहमद’। दयानिता सिंह द्वारा लिखी गई यह किताब फोटोबुक, जीवनी, आत्मकथा और कथा का मिश्रण है। आरम्भ में यह एक फोटोजर्नलिस्ट प्रोजेक्ट था जिसने दयानिता को मोना अहमद से परिचित कराया। लेकिन मोना अहमद के द्वारा इस तरह के एक प्रोजेक्ट का विषय बनने से मना कर दिया गया था। लेकिन तब तक दयानिता भी मोना अहमद के जीवन को सबके सामने लाने का निश्चय कर चुकी थीं। उन्होंने एक फोटोग्राफिक बायोग्राफी लिखने का मन बनाया और इस बारे में मोना अहमद से चर्चा की। अंततः मोना अहमद भी मान गईं और उन्होंने दयानिता को पूरा-पूरा सहयोग दिया। उन्होंने अपनी पुस्तक में पुस्तक फोटोग्राफ और साहित्य को एक साथ प्रस्तुत किया, एक सुंदर किन्तु गंभीर कोलाज़ की तरह।
दयानिता सिंह ने लिखा है कि ‘वह न तो यहां और न ही वहां, न नर और न ही महिला होने की कहानी बताना चाहती थी, और आखिरकार, न तो एक नपुंसक और न ही मेरी जैसे कोई। वह हमेशा मुझसे पूछती, ‘मुझे बताओ मैं क्या हूं?’
जैसा कि अमेरिकी थर्ड जेंडर रचनाकार डेज़ी ब्रॉन्क्स ने अपनी कविता ‘फेमीलियर वेज़ल’ में लिखा -
मैं भूल गया यह मेरा शरीर है
मैं अपनी छाती और मुस्कान देखता हूं
मेरी बांह
ये मेरे ही हैं
कभी-कभी गिनने की कोश्षिश करता हूं
मैं अपने पेट की तरफ देखता हूं
और लंबे समय तक
सोचने का प्रयास नहीं करता
लेकिन आश्चर्यचकित हो जाता हूं कि
मेरे पैर भूल गए हैं कि वे मेरे हैं
.............
मैं भूल जाता हूं कि मेरे हाथ कहां हैं
सब कुछ भूलने पर भी
मुझे मिलता है अपने शरीर पर
एक-एक अक्षर लिखा हुआ
यह शरीर
पात्रा है मेरा, मेरा पेट और मेरी छाती
मुझे दिखाई देती है असमानता।
तुम मुझे देखो, और उस लड़के को देखो ष्
वह एक टी-शर्ट के साथ मुस्कुरा रहा है
उसकी बांह पर निशान देखना कठिन नहीं है
जिन निशानों को आप नहीं देख पाते हैं,
वह जीवन का निशान जो मैं शायद ही
अपने लिए जोड़ सकता हूं।
डेज़ी ब्रॉन्क्स के ‘शायद’ के इस भय को दृढता से परे धकेलते हुए मुद्रित सामग्री ने एक विश्वास का वातावरण और एक संभावना को जन्म दिया। यह मुखर रूप से तब हुआ जब प्रसिद्ध फोटोग्राफर दयानिता सिंह ने मोना अहमद के जीवन की साहसिक सहानुभूतियों को छायाचित्रों के साथ जिस प्रमाणिकता से प्रस्तुत किया उसने उनकी पुस्तक को एक बहुत ही संवेदनशील दस्तावेज़ बना दिया। भारत में कितना कठिन है थर्ड जेंडर का जीवन इसे महसूस किया जा सकता है मोना अहमद के इस बायोग्राफिक एल्बम को देख कर जिसमें जीवनानुभव हैं, तस्वीरें हैं और जिसमें वेदना-संवेदना का अथाह सागर हहराता दिखाई पड़ता है। मोना अहमद से अपनी भेंट के बारे में दयानिता सिंह ने लिखा है कि ‘हम दोनों पहली बार 1989 में मिले, जब मैं लंदन के ‘द टाइम्स’ के लिए शूटिंग असाइनमेंट पर थी।’ अपनी पुस्तक के परिचय में असाइनमेंट की बात करते हुए दयानिता कहती हैं कि मेरे लिए एक फोटोजर्नलिस्ट के रूप में खुद को साबित करने का यह एक अवसर था। मैं अपना सबसे बेहतरीन काम कर के देना चाहती थी, यह दिखाने के लिए कि मैं अपने पुरुष वर्चस्व वाले पेशे में लड़कों से कम नहीं हूं। वेश्यावृत्ति, बालश्रम, दहेज की मौत और बाल विवाह की कहानी से आगे बढ़ कर थर्ड जेंडर पर एक स्टोरी तैयार करना चाहती थी। मोना अहमद से मिलना मेरे लिए अपने लक्ष्य तक पहुंचने जैसा था।’
अपनी पहली भेंट के बारे में दयानिता बताती हैं कि ‘अपने असाइनमेंट के तहत मैं दिल्ली की संकरी गलियों से गुज़रती हुई अकबर दूधवाले की गली में पहुंची। वहां मैंने अपने समय की प्रसिद्ध थर्ड जेंडर सोना और चमन के घर की जानकारी ली। भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय सोना पाकिस्तान चली गई थी जबकि चमन भारत में ही रही। मुझे पता चला कि तुर्कमान दरवाज़े के निकट चमन की शिष्या मोना अहमद रहती है। मैं मोना अहमद के घर पहुचीं। दरवाज़े की घंटी बजाई। दरवाज़ा खुला तो मैं देख कर चकित रह गई कि आभूषणों से सजा हुआ एक आकर्षक व्यक्तित्व मेरे सामने था। उसने गर्मजोशी से कहा- मेरे घर में आपका स्वागत है।’
यद्यपि जैसा दयानिता ने सोचा था ठीक वैसा नहीं हुआ। जब मोना को पता चला कि यह परियोजना ‘द टाइम्स’ के लिए थी, तो वह चिंतित हो उठी और पूछा कि फिल्म उसके पास वापस आ जाएगी न? ब्रिटेन में मोना के रिश्तेदार थे, जिन्हें नहीं पता था कि मोना थर्ड जेंडर है। दयानिता ने फिल्म मोना को दे दी और मोना अहमद ने तुरंत इसे कूड़ेदान में फेंक दिया। इससे दयानिता का असाईनमेंट खटाई में पड़ गया लेकिन इससे मोना और दयानिता के बीच एक विश्वास भरी मित्राता का आरम्भ अवश्य हो गया। इस मित्राता ने दयानिता के लिए थर्ड जेंडर की दुनिया के वे द्वार खोल दिए जिनके पीछे अथाह गोपन था। मोना ने अपनी पालित बेटी आयशा के जन्मदिन समारोह में दयानिता को आमंत्रित किया। दयानिता लिखती हैं कि ‘जब भी मैं दिल्ली से गुजरती हूं, तो मैं तुर्कमैन गेट की ओर घूमती हूं और मोना के कमरे में घंटों बिताती हूं।“
फिर एक ऐसा कठिन समय आया जब आयशा मोना से दूर चली गई। मोना को उसके समुदाय से अलग-थलग कर दिया गया और उसने एक कब्रिस्तान में पनाह ली। मोना ने अपने पूर्वजों की कब्रों के पास घर बनाया। यह सब कुछ उसके लिए असहनीय था लेकिन वह हारना नहीं चाहती थी। मोना के घर के पास एक पुराना स्वीमिंगपूल था। उस स्वीमिंगपूल में मोना ने अचार बनाने की एक फैक्ट्री खोली। अपने उत्पाद को नाम दिया ‘अहमद पिकल’। इस फैक्ट्री में गरीब मुस्लिम महिलाओं को रोजगार मिला।
अपनी पुस्तक ‘माई सेल्फ मोना अहमद’ में दयानिता ने जो तस्वीरें संजोई हैं वे मोना के जीवन के विभिन्न पक्षों को बखूबी दर्शाती हैं। मोना ने दयानिता को अनुमति दे दी कि वह थर्ड जेंडर की भावुक एवं खुरदरी दुनिया से सबको परिचित करा सकें। समाज थर्ड जेंडर को अपमानजनक ढंग से पुकारता है। उसे स्वयं से दूर रखने का प्रयास करता है।
मोना अहमद के मन में हमेशा यह प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहा है कि -‘मैं कौन हूं?’ दयानिता सिंह की इस पुस्तक में मोना के विभिन्न छायाचित्रों के साथ ही मोना द्वारा लिखे गए कई पत्रा शामिल हैं। जिनमें से एक में, वह दुखी हो कर लिखती है कि- ‘मैं लगातार सोचती हूं, भगवान ने मुझे हिजड़ा क्यों बनाया? एक मां के 4 बच्चे हैं, सिर्फ एक हिजड़ा क्यों है? बेशक, यह भगवान की देन है, लेकिन केवल एक लड़के को क्यों लगता है कि वह एक औरत की तरह कपड़े पहने? यह क्या है, मुझे समझ में नहीं आता है। कोई भी इस सवाल को समझा नहीं सकता है। एक हिजड़े के पास शरीर पुरुष का होता है, लेकिन आत्मा स्त्रा की होती है। ऐसा क्यों होता है?’
मोना अहमद धनी पीड़ा के साथ लिखती हैं कि-‘अगर भगवान मेरे सामने आए, तो मैं उससे पूछूंगी कि तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया? अगर तुम मुझे तीसरे सेक्स के रूप में पैदा करना चाहते थे तो तुमने मुझे जन्म क्यों दिया? और यदि तुमने मुझे तीसरा सेक्स बनाया है, तो तुमने मेरे लिए समाज में सम्मान क्यों नहीं सुनिश्चित किया?’
समाज में सम्मान पाना यह एक बहुत ही बुनियादी मुद्दा है। जो समाज का अभिन्न अंग हो, समाज उसे अपने से काट कर अलग रखे तो यह विडम्बना नहीं तो और क्या है?
दयानिता सिंह ने लिखा है कि ‘वह न तो यहां और न ही वहां, न नर और न ही महिला होने की कहानी बताना चाहती थी, और आखिरकार, न तो एक नपुंसक और न ही मेरी जैसे कोई। वह हमेशा मुझसे पूछती, ‘मुझे बताओ मैं क्या हूं?’
जैसा कि अमेरिकी थर्ड जेंडर रचनाकार डेज़ी ब्रॉन्क्स ने अपनी कविता ‘फेमीलियर वेज़ल’ में लिखा -
मैं भूल गया यह मेरा शरीर है
मैं अपनी छाती और मुस्कान देखता हूं
मेरी बांह
ये मेरे ही हैं
कभी-कभी गिनने की कोश्षिश करता हूं
मैं अपने पेट की तरफ देखता हूं
और लंबे समय तक
सोचने का प्रयास नहीं करता
लेकिन आश्चर्यचकित हो जाता हूं कि
मेरे पैर भूल गए हैं कि वे मेरे हैं
.............
मैं भूल जाता हूं कि मेरे हाथ कहां हैं
सब कुछ भूलने पर भी
मुझे मिलता है अपने शरीर पर
एक-एक अक्षर लिखा हुआ
यह शरीर
पात्रा है मेरा, मेरा पेट और मेरी छाती
मुझे दिखाई देती है असमानता।
तुम मुझे देखो, और उस लड़के को देखो ष्
वह एक टी-शर्ट के साथ मुस्कुरा रहा है
उसकी बांह पर निशान देखना कठिन नहीं है
जिन निशानों को आप नहीं देख पाते हैं,
वह जीवन का निशान जो मैं शायद ही
अपने लिए जोड़ सकता हूं।
डेज़ी ब्रॉन्क्स के ‘शायद’ के इस भय को दृढता से परे धकेलते हुए मुद्रित सामग्री ने एक विश्वास का वातावरण और एक संभावना को जन्म दिया। यह मुखर रूप से तब हुआ जब प्रसिद्ध फोटोग्राफर दयानिता सिंह ने मोना अहमद के जीवन की साहसिक सहानुभूतियों को छायाचित्रों के साथ जिस प्रमाणिकता से प्रस्तुत किया उसने उनकी पुस्तक को एक बहुत ही संवेदनशील दस्तावेज़ बना दिया। भारत में कितना कठिन है थर्ड जेंडर का जीवन इसे महसूस किया जा सकता है मोना अहमद के इस बायोग्राफिक एल्बम को देख कर जिसमें जीवनानुभव हैं, तस्वीरें हैं और जिसमें वेदना-संवेदना का अथाह सागर हहराता दिखाई पड़ता है। मोना अहमद से अपनी भेंट के बारे में दयानिता सिंह ने लिखा है कि ‘हम दोनों पहली बार 1989 में मिले, जब मैं लंदन के ‘द टाइम्स’ के लिए शूटिंग असाइनमेंट पर थी।’ अपनी पुस्तक के परिचय में असाइनमेंट की बात करते हुए दयानिता कहती हैं कि मेरे लिए एक फोटोजर्नलिस्ट के रूप में खुद को साबित करने का यह एक अवसर था। मैं अपना सबसे बेहतरीन काम कर के देना चाहती थी, यह दिखाने के लिए कि मैं अपने पुरुष वर्चस्व वाले पेशे में लड़कों से कम नहीं हूं। वेश्यावृत्ति, बालश्रम, दहेज की मौत और बाल विवाह की कहानी से आगे बढ़ कर थर्ड जेंडर पर एक स्टोरी तैयार करना चाहती थी। मोना अहमद से मिलना मेरे लिए अपने लक्ष्य तक पहुंचने जैसा था।’
अपनी पहली भेंट के बारे में दयानिता बताती हैं कि ‘अपने असाइनमेंट के तहत मैं दिल्ली की संकरी गलियों से गुज़रती हुई अकबर दूधवाले की गली में पहुंची। वहां मैंने अपने समय की प्रसिद्ध थर्ड जेंडर सोना और चमन के घर की जानकारी ली। भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय सोना पाकिस्तान चली गई थी जबकि चमन भारत में ही रही। मुझे पता चला कि तुर्कमान दरवाज़े के निकट चमन की शिष्या मोना अहमद रहती है। मैं मोना अहमद के घर पहुचीं। दरवाज़े की घंटी बजाई। दरवाज़ा खुला तो मैं देख कर चकित रह गई कि आभूषणों से सजा हुआ एक आकर्षक व्यक्तित्व मेरे सामने था। उसने गर्मजोशी से कहा- मेरे घर में आपका स्वागत है।’
यद्यपि जैसा दयानिता ने सोचा था ठीक वैसा नहीं हुआ। जब मोना को पता चला कि यह परियोजना ‘द टाइम्स’ के लिए थी, तो वह चिंतित हो उठी और पूछा कि फिल्म उसके पास वापस आ जाएगी न? ब्रिटेन में मोना के रिश्तेदार थे, जिन्हें नहीं पता था कि मोना थर्ड जेंडर है। दयानिता ने फिल्म मोना को दे दी और मोना अहमद ने तुरंत इसे कूड़ेदान में फेंक दिया। इससे दयानिता का असाईनमेंट खटाई में पड़ गया लेकिन इससे मोना और दयानिता के बीच एक विश्वास भरी मित्राता का आरम्भ अवश्य हो गया। इस मित्राता ने दयानिता के लिए थर्ड जेंडर की दुनिया के वे द्वार खोल दिए जिनके पीछे अथाह गोपन था। मोना ने अपनी पालित बेटी आयशा के जन्मदिन समारोह में दयानिता को आमंत्रित किया। दयानिता लिखती हैं कि ‘जब भी मैं दिल्ली से गुजरती हूं, तो मैं तुर्कमैन गेट की ओर घूमती हूं और मोना के कमरे में घंटों बिताती हूं।“
फिर एक ऐसा कठिन समय आया जब आयशा मोना से दूर चली गई। मोना को उसके समुदाय से अलग-थलग कर दिया गया और उसने एक कब्रिस्तान में पनाह ली। मोना ने अपने पूर्वजों की कब्रों के पास घर बनाया। यह सब कुछ उसके लिए असहनीय था लेकिन वह हारना नहीं चाहती थी। मोना के घर के पास एक पुराना स्वीमिंगपूल था। उस स्वीमिंगपूल में मोना ने अचार बनाने की एक फैक्ट्री खोली। अपने उत्पाद को नाम दिया ‘अहमद पिकल’। इस फैक्ट्री में गरीब मुस्लिम महिलाओं को रोजगार मिला।
अपनी पुस्तक ‘माई सेल्फ मोना अहमद’ में दयानिता ने जो तस्वीरें संजोई हैं वे मोना के जीवन के विभिन्न पक्षों को बखूबी दर्शाती हैं। मोना ने दयानिता को अनुमति दे दी कि वह थर्ड जेंडर की भावुक एवं खुरदरी दुनिया से सबको परिचित करा सकें। समाज थर्ड जेंडर को अपमानजनक ढंग से पुकारता है। उसे स्वयं से दूर रखने का प्रयास करता है।
मोना अहमद के मन में हमेशा यह प्रश्न उमड़ता-घुमड़ता रहा है कि -‘मैं कौन हूं?’ दयानिता सिंह की इस पुस्तक में मोना के विभिन्न छायाचित्रों के साथ ही मोना द्वारा लिखे गए कई पत्रा शामिल हैं। जिनमें से एक में, वह दुखी हो कर लिखती है कि- ‘मैं लगातार सोचती हूं, भगवान ने मुझे हिजड़ा क्यों बनाया? एक मां के 4 बच्चे हैं, सिर्फ एक हिजड़ा क्यों है? बेशक, यह भगवान की देन है, लेकिन केवल एक लड़के को क्यों लगता है कि वह एक औरत की तरह कपड़े पहने? यह क्या है, मुझे समझ में नहीं आता है। कोई भी इस सवाल को समझा नहीं सकता है। एक हिजड़े के पास शरीर पुरुष का होता है, लेकिन आत्मा स्त्रा की होती है। ऐसा क्यों होता है?’
मोना अहमद धनी पीड़ा के साथ लिखती हैं कि-‘अगर भगवान मेरे सामने आए, तो मैं उससे पूछूंगी कि तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया? अगर तुम मुझे तीसरे सेक्स के रूप में पैदा करना चाहते थे तो तुमने मुझे जन्म क्यों दिया? और यदि तुमने मुझे तीसरा सेक्स बनाया है, तो तुमने मेरे लिए समाज में सम्मान क्यों नहीं सुनिश्चित किया?’
समाज में सम्मान पाना यह एक बहुत ही बुनियादी मुद्दा है। जो समाज का अभिन्न अंग हो, समाज उसे अपने से काट कर अलग रखे तो यह विडम्बना नहीं तो और क्या है?
Me Hijra Me Laxmi |
सन् 2012 में एक असाधारण आत्मकथा मराठी में प्रकाशित हुई जिसका नाम था-‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’। यह थर्ड जेंडर लक्ष्मी त्रिपाठी की आत्मकथा है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी का जन्म सन् 1979 में थाणे, महाराष्ट्र में हुआ था। उन्होंने मुम्बई के मिठीबाई कॉलेज से बी.कॉम किया। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी अनेकानेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध होने के साथ-साथ कैंसर पीड़ित व एच.आई.वी. के लिए भी कार्यरत हैं। हिजड़ों व महिलाओं की समस्याओं को भी उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाया है। विश्व के अनेक देशों में उन्होंने भारतीय थर्ड जेंडर समाज का प्रतिनिधित्व भी किया है। अनेकानेक पुरस्कार व सम्मान से सम्मानित लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी थर्ड जेंडर समाज की शिक्षा और अधिकारों के लिए पूर्णतः समर्पित हैं। वे एक टीवी कलाकार, भरतनाट्यम नृत्यांगना और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी जानी जाती हैं। वे एक थर्ड जेंडर हैं जो थर्ड जेंडर समाज के हित के लिए कार्य करती हैं। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी टीवी शो ‘बिगबॉस सीजन-5’ की प्रतिभागी भी रह चुकी हैं। टीवी शो ‘सच का सामना’, ‘दस का दम’ और ‘राज पिछले जनम का’ में भी देखी जा चुकी हैं।
अपने समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को अपने हिजड़ा होने पर गर्व है। वे इसे अभिशाप नहीं मानती हैं। उनकी आत्मकथा के अंग्रेजी अनुवाद ‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’ का विमोचन नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में किया गया था। लक्ष्मी के अनुसार उन्होंने कभी लिखने के बारे में नहीं सोचा था। लक्ष्मी के अनुसार - ‘मैं दो साल तक लगातार असमंजस में रही और उसके बाद इसे लिखने के लिए तैयार हूं। मैं हमेशा सोचती थी कि यह किताब कभी नहीं लिखी जा सकती।’ उनकी पुस्तक मराठी और गुजराती में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। सन् 2015 में उनकी यह आत्मकथा हिन्दी में ’मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’ के नाम से प्रकाशित हुई।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी पहली थर्ड जेंडर हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ में एशिया-प्रशांत क्षेत्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं और टोरंटो में विश्व एड्स सम्मेलन जैसे अनेक मंचों पर अपने समुदाय और भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वह इस समुदाय के समर्थन और विकास के लिए ‘अस्तित्व’ नाम का संगठन चलाती हैं।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ने हिन्दी-पट्टी को चौंकाया। देखा जाए तो हिन्दी साहित्य में विमर्श के लिए एक विस्तृत आधार दे दिया।
अपने समुदाय के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी को अपने हिजड़ा होने पर गर्व है। वे इसे अभिशाप नहीं मानती हैं। उनकी आत्मकथा के अंग्रेजी अनुवाद ‘मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’ का विमोचन नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में किया गया था। लक्ष्मी के अनुसार उन्होंने कभी लिखने के बारे में नहीं सोचा था। लक्ष्मी के अनुसार - ‘मैं दो साल तक लगातार असमंजस में रही और उसके बाद इसे लिखने के लिए तैयार हूं। मैं हमेशा सोचती थी कि यह किताब कभी नहीं लिखी जा सकती।’ उनकी पुस्तक मराठी और गुजराती में पहले ही प्रकाशित हो चुकी है। सन् 2015 में उनकी यह आत्मकथा हिन्दी में ’मैं हिजड़ा, मैं लक्ष्मी’ के नाम से प्रकाशित हुई।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी पहली थर्ड जेंडर हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ में एशिया-प्रशांत क्षेत्रा का प्रतिनिधित्व करती हैं और टोरंटो में विश्व एड्स सम्मेलन जैसे अनेक मंचों पर अपने समुदाय और भारत का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वह इस समुदाय के समर्थन और विकास के लिए ‘अस्तित्व’ नाम का संगठन चलाती हैं।
लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा ने हिन्दी-पट्टी को चौंकाया। देखा जाए तो हिन्दी साहित्य में विमर्श के लिए एक विस्तृत आधार दे दिया।
A Gift of Goddess Lakshmi |
सन् 2017 में मनोबी बंदोपाध्याय और झिमली मुखर्जी पांडेय द्वारा लिखी ‘ए गिफ्ट ऑफ गॉडेस लक्ष्मी’ प्रकाशित हुई। यह भी अपनी पहचान को परिभाषित करने और उपलब्धि के नए मानकों को निर्धारित करने के लिए एक ट्रांसजेंडर की असाधारण और साहसी कथा कही जा सकती है। सारांशतः कहा जाए तो जब एक लड़का बांदोपाध्याय परिवार में पैदा हुआ था, तो सभी खुश हुए। उसका नाम रखा गया आसन। आसन का जन्म दो लड़कियों के बाद हुआ था। यद्यपि, कुछ समय बाद लड़के ने अपने शरीर में अपर्याप्त जैसा कुछ महसूस करना शुरू कर दिया और अपनी पहचान पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। वह लडका हो कर भी स्वयं को लड़की जैसा अनुभव करता था। यह उसके लिए ही नहीं वरन उसके परिवार के लिए भी विचित्रा स्थिति को जन्म दे रहा था।
भाग्य के इस क्रूर मजाक को परिवार ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया। लेकिन आसन पहले से ही मनोबी बनने की अपनी यात्रा शुरू कर चुका था। ईमानदारी और गहरी समझ के साथ, मनोबी एक पुरुष से एक महिला में अपने परिवर्तन स्वीकार करता गया। तमाम विरोधों, उपहासों और हतोत्साह करने वाले प्रयासों के बाद भी मनोबी ने थर्ड जेंडर की अपनी प्रकृति को स्त्री और पुरुष प्रकृति के बराबर सिद्ध करने का संघर्ष जारी रखा। उसने उच्चशिक्षा प्राप्त की और लड़कियों के कॉलेज में प्राचार्य के पद पर आसीन हो कर सिद्ध कर दिया कि थर्ड जेंडर मात्रा ताली बजा-बजा कर नाचने वाले उपेक्षित मनुष्य नहीं अपितु बुद्धिजीवी होते हैं। उन्हें आवश्यकता है तो सामाजिक सहयोग, विश्वास और अपनत्व की।
भाग्य के इस क्रूर मजाक को परिवार ने स्वीकार करने से इंकार कर दिया। लेकिन आसन पहले से ही मनोबी बनने की अपनी यात्रा शुरू कर चुका था। ईमानदारी और गहरी समझ के साथ, मनोबी एक पुरुष से एक महिला में अपने परिवर्तन स्वीकार करता गया। तमाम विरोधों, उपहासों और हतोत्साह करने वाले प्रयासों के बाद भी मनोबी ने थर्ड जेंडर की अपनी प्रकृति को स्त्री और पुरुष प्रकृति के बराबर सिद्ध करने का संघर्ष जारी रखा। उसने उच्चशिक्षा प्राप्त की और लड़कियों के कॉलेज में प्राचार्य के पद पर आसीन हो कर सिद्ध कर दिया कि थर्ड जेंडर मात्रा ताली बजा-बजा कर नाचने वाले उपेक्षित मनुष्य नहीं अपितु बुद्धिजीवी होते हैं। उन्हें आवश्यकता है तो सामाजिक सहयोग, विश्वास और अपनत्व की।
Third Gender Discourse |
हिन्दियेत्तर के साथ ही 21वीं सदी के आरम्भिक दशक से अब तक हिन्दी में एंथ्रोपोलॉजिकल पुस्तकों के साथ ही कुछ आत्मकथाएं, कुछ जीवनियां और कुछ उपन्यास आए। कविताएं और कहानियां भी आईं। पाठकों ने सभी की ओर उत्सुकता एवं जिज्ञासा से देखा। स्पष्ट था कि वे थर्ड जेंडर की दुनिया को जानने, समझने को आतुर हैं, कुछ झिझक के साथ। यह झिझक भी दूर हो जाएगी एक दिन जब स्त्री, पुरुष और थर्ड जेंडर लेखक अपनी लेखनी से थर्ड जेंडर की गोपन दुनिया के हर दरवाजे, हर खिड़कियां खोल देंगे। एक दिन यह हो कर रहेगा क्योंकि थर्ड जेंडर विमर्श अब साहित्य के रास्ते चल पड़ा है जहां वह वैचारिक प्रतिबद्धता का अभिन्न अंग बन जाएगा।
-----------------------------------
-----------------------------------
Reference:
1. The Perfect
Servant: Eunuchs and the Social Construction of Gender in Byzantium 1st Edition
by Kathryn M. Ringrose
2. The
Invisibles: A Tale of the Eunuchs of India by Zia Jaffrey
3.
Me
Hijra, Me Laxmi by Laxmi Narayan Tripathi
4. A Gift of
Goddess Lakshmi by
Manobi Bandopadhyay (Author), Jhimli Mukherjee Pandey (Author)
5. The Truth
about Me by A. Revathi (Author), V. Geetha (Translator)
6.
Hijras: the Labelled Deviants By S K Sharma
7. Neither Man
Nor Woman: The Hijras of India by
Serena Nanda