सोमवार, नवंबर 20, 2023

कहानी "ट्रेंडिंग लव वाया मलूकदास" - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, जनसत्ता वार्षिक अंक (दीपावली 2023) में प्रकाशित

कहानी
ट्रेंडिंग लव वाया मलूकदास
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

    उसने सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट डाली, साथ में दर्जन भर हैशटैग लगा दिए। उनमें एक हैशटैग ‘‘लव’’ भी है, जो तुरंत ट्रेंडिंग करने लगता है। लौकिक  हो  या अलौकिक हो, बस, प्रेम का विषय चुन कर उसमें ‘‘हैशटैग लव’’ चिन्हित कर देना इसीलिए उसे अच्छा लगता है। यद्यपि वह कभी-कभी सोचती है कि उसके इस हैशटैग को कोई गौर करता भी या नहीं? क्योंकि अकसर ट्रेंडिंग  के पीछे कोई चिंतन-मनन नहीं हुआ करता है। खै़र, कोई हैशटैग के खूंटे पर लटके प्रेम के बारे में सोचे या न सोचे, उसे सोशल मीडिया का ‘‘फेक लव’’ चाहिए भी नहीं।
मगर क्या उसे सच्चा सौ टका प्रेम भी नहीं चाहिए? उसने अपने आप से प्रश्न किया। फिर तत्काल निष्कर्ष पर भी पहुंच गई।
‘‘मुझे अब किसी से प्यार करना चाहिए।’’ उसने अपने आप से कहा, ’’शादी का तो कुछ कहा नहीं जा सकता है किन्तु प्यार तो कर ही सकती हूं।’’ वह मोबाईल वहीं सोफे पर छोड़ कर आईने के सामने जा बैठी। प्रेम करने के इरादे का निष्कर्ष भले ही तात्कालिक लगे किन्तु वर्षों से मन को कुरेदता अकेलापन उसे इस निष्कर्ष कीे ओर शनैः शनैः निरंतर धकेल रहा था।
कितने वसंत निकले हैं, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, दिल में प्रेम की चाहत तो अभी ज़िन्दा है। प्यार करने की असली उम्र तो वयस्कता के साथ ही आती है। सोलहवें साल में यही समझ में नहीं आता है कि हम प्यार कर रहे हैं या ‘घर-घर’ की तर्ज़ में ‘प्यार-प्यार’ खेल रहे हैं। उस समय तो बड़े भी दुत्कारते हुए कह देते हैं कि यह उम्र प्यार करने की नहीं है या फिर यह प्यार नहीं लड़कपना है। ये सब उसके अपने तर्क थे।
‘‘कौन कहता कि तुम बुढ़ा रही हो? ये काले-काले बाल, वे गौरवर्ण! ऐ विपुला! इनके बारे में तुम आज तक बेखबर क्यों रहीं ?’’ उसने आईने में दिखाई पड़ रहे अपने प्रतिबिम्ब से पूछा।
प्रतिबिम्ब भी उसी के समान उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। वह हंस पड़ी। हंसी उसे इसलिए आई कि अपनी सुंदरता तो वह लगभग रोज ही सेल्फी में निहार कर संतुष्ट हो लेती है।

हां! उसका नाम है विपुला । मां-बाप ने रखा था। अगर वे अचला, विमला, कमला भी रख देते तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। नाम नियति नहीं बदला करते हैं। यदि उसकी नियति में किसी का प्रेम रंच मात्र नहीं लिखा है, तो नाम विपुला होने भर से क्या हो सकता है? ये तो अच्छा हुआ कि उसकी अभी तक शादी नहीं हुई वरना उसे शायद अपने पति के प्यार से भी वंचित रहना पड़ता। वैसे दुनिया में कितनी औरतें हैं जो अपने पति का प्रेम हासिल कर पाती हैं? बहुतों को तो पता ही नहीं होता है कि पति का प्यार होता क्या है, फिर भी अच्छी कटती है ज़िन्दगी। कभी-कभी बहुत कुछ जानने से, न जानना भी अच्छा होता है। खैर, ये बिलकुल अलग मसला है। कम से कम विपुला के मामले से एकदम अलग।
 खैर, उसने कभी सोचा नहीं था कि उसे भी कभी प्यार करने की ‘‘तलब’’ होगी। ऐसा नहीं है कि वह कभी पुरुषों के संपर्क में नहीं आई लेकिन यह संपर्क न तो काम-क्रीड़ा के रूप में रहा और न प्रेम के। वह घंटो बैठी-उठी है पुरुषों के साथ। उसने उनके कंधों पर हाथ रखा है, पीठ पर धौल जमाया है, उंगलियों की तेज हरकत से उनके बालों को माथे पर बिखेरा। हां, एक-दो अवसर ऐसे भी आए जब उसने अपने गाल पर चुम्बन लेने दिया। बस, दोस्ताना। अब अगर कोई इसे भी वासना या प्रेम से जोड़े, तो विपुला के हिसाब से ये नासमझी ही होगी। नहीं-नहीं, ये मत समझिए कि वह फ्लर्ट करती है। वह फ्लर्ट करने वाली लड़कियों में से नहीं है। आज भी उसके दिल में फ्लर्ट करने की नहीं अपितु प्यार करने की इच्छा जागी है। इस मामले में वह फाईव-जी के जमाने में थ्री-जी है।

किससे प्यार करे वह? विपुला सोचने लगी। विनय। हां, विनय कैसा रहेगा? हर समय उसके चक्कर लगाया करता है। अपनी बीवी के सामने भी उसी की तारीफ के पुल बांधता रहता है ।
ये पुरूष भी बड़े विचित्र जीव होते हैं। उन्हें अपनी बीवी के सामने पराई औरत की प्रशंसा करने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है लेकिन उनकी बीवी उनके सामने किसी पराए पुरुष की प्रशंसा में एक वाक्य ही बोल दे तो पति नामक पुरुष अंगारों पर लोट जाता है। अवैध संबंधों के समीकरण गढ़ने लगता है। अब विनय को ही ले लो, वह अपनी बीवी के सामने विपुला की तारीफ करते नहीं अघाता । वह तो अपनी बीवी से यहां तक कह देता है कि तुम विपुलाजी से कुछ सीखती क्यों नहीं ?
क्या सोचती होगी विनय की बीवी? उंह, कुछ भी सोचे! जब विनय को अपनी बीवी की परवाह नहीं है तो वह क्यों सोचे ? वह शादीशुदा है तो क्या हुआ, कौन उससे शादी करनी है, विपुला ने सोचा और विनय का नंबर डायल करने लगी।
‘‘हैलो ! हां, विनय! मैं विपुला, तुम अभी मेरे घर आ जाओ।’’
‘‘अभी?’’
‘‘हां-हां, अभी!’’
‘‘कोई इमर्जेन्सी है क्या?’’
‘‘हां जी, इमर्जेन्सी ही समझो।’’
‘‘ऐसा क्या? बताओ न!’’
‘‘बता दूं? नहीं, फोन पर नहीं, यहां आने पर बताऊंगी।’’
‘‘तबीयत तो ठीक है, न ?’’
‘‘हां, तबीयत ठीक है!’’
‘‘वो क्या है कि मैं दोपहर बाद अगर आऊं तो चलेगा? दरअसल, अभी वाईफ को शॉपिंग पर ले जाना है।’’
‘‘क्या कहा, दोपहर बाद तक आ सकोगे? अगर अभी आ जाते....’’ विपुला का मन तनिक बुझा किन्तु उसे तत्क्षण विचार आया कि वह विनय को साफ-साफ कह दे कि वह उसे प्यार करना चाहती है फिर तो दौड़ा चला आएगा। कह कर देखे?
‘‘अच्छा सुनो !’’
‘‘हां बोलो !’’
‘‘अं... कुछ नहीं, जाने दो!’’
‘‘क्या छिपा रही हो?’’
‘‘ऊंहूं। कुछ भी तो नहीं। मन नहीं लग रहा था सो तुमसे बाते करना चाह रही थी। खैर, छोड़ो!’’ अपने मन की बात सचमुच छिपा गई विपुला। उसे डर लगा कि कहीं वह प्रेम का कोई और अर्थ न निकाल बैठे।
‘‘ठीक है। शाम से पहले आने की कोशिश करता हूं।’’
‘‘अरे नही... आराम से आना!’’ विपुला ने फोन बंद करते हुए टिकाते मुंह बनाया। उसका चेहरा उत्तर गया था। उसे विनय से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। उसे लगा था कि विनय उसकी बात सुन कर दौड़ा चला आएगा।

खैर, मुझे निराश नहीं होना चाहिए, हर इंसान की अपनी अपनी व्यस्तता होती है। विनय को फ़ुर्सत नहीं है तो अनिमेष को ट्राई करती हूं। विपुला ने अपने आप से कहा और अनिमेष का नंबर डायल करने लगी।
‘‘हेलो!’’
‘‘हेलो, मैं मिनी बोल रही हूं आंटी!’’ फोन अनिमेष की बेटी ने उठाया था।
‘‘कैसी हो मिनी? पापा घर पर हैं?’’
‘‘आई एम फाईन! एक मिनट में, अभी पापा को बुलाती हूं, होल्ड प्लीज।
‘‘हां, हलो विपुला, कहो कैसे याद किया?’’
‘‘क्या कर रहे हो?’’
‘‘बस कुछ खास नहीं, बच्चो की प्रोग्रेस रिपोर्ट चेक कर रहा था।’’
‘‘घर आ सकते हो?’’
‘‘कब?’’
‘‘अभी!’’
‘‘अभी? ओ.के. आता हूं। मिनी कल शाम को ही कह रही थी कि विपुला आंटी के घर चलना है। आधे घंटे के भीतर पहुंचता हूं।’’
‘‘अरे, अभी नहीं! मैं तो मज़ाक कर रही थी। किसी दिन शाम को आना मिनी, सरोज भाभी वगैरह सभी को लेकर। सब इत्मीनान से बैठेंगे, गप्पे-शप्पें करेंगे।’’
‘‘ठीक है, जैसा तुम कहो!’’
‘‘हां, यही ठीक रहेगा।’’
‘‘वो वासुदेव की क्रमोन्नति का क्या हुआ?’’ अनिमेंष ने पूछा।  
‘‘पता नहीं। कोई दरवाजे पर आया है.... फिर बात करूंगी... शायद दूधवाला है। ओके बाय!’’ विपुला ने अनिमेंष का उत्तर सुने बिना झट से फोन काट दिया।
कोई नहीं आया था दरवाजे पर, लेकिन अनिमेष की बातें ही विपुला झुंझलाने लगी थीं। अपनी बेटी को साथ लेकर आने वाले से कैसे कहे कि वह उसे मिलने के लिए नहीं बल्कि प्यार करने को बुला रही है। माना कि उसके मन में अनिमेष को लेकर कामासक्ति नहीं है, लेकिन उसकी बेटी के सामने उससे कैसे कह पाएगी- ‘‘आई लव यू!’’
उसे दैहिक प्रेम नहीं मानसिक प्रेम की तीव्र इच्छा हो रही है। कोई हो उसके क़रीब, जो उसे अहसास करा सके कि कोई उसकी चिंता करता है, कोई उसे सचमुच पसंद करता है। एक भरेपन का अहसास, और कुछ नहीं!
अब क्या किया जाए? झुंझलाती हुई विपुला अपनी तर्जनी के नाखून का छोर कुतरने लगी।

उसे याद आने लगा चिराग नाम का वह लड़का जो कालेज के प्रथम वर्ष में उसके साथ पढ़ता था। सेठ दयालचंद के खानदान का रोशन चिराग था वह। कई लड़कियां उस पर मरती थीं, मगर वह विपुला के इर्द-गिर्द फेरे लगाया करता था। उसने अनेक बार विपुला को डेट पर चलने का आमंत्रण दिया किन्तु विपुला को फ्लर्ट करने वालों से सख्त नफरत रही। इसी नफरत के चलते उसने चिराग को खूब उल्लू बनाया। उससे जी भर कर ट्रीट ली। सहेलियों के साथ सिनेमा देखने को उससे टिकटें भी खरीदवाई। लेकिन, जब चिराग ने अपना प्रस्ताव विपुला के सामने रखा तब उसने चिराग को शुष्क सैद्धांतिक व्याख्यान दे डाला । चिराग में पेशंस की कमी थी। वह दूसरे ही दिन दूसरी लड़की को चारा डालने लगा। तो क्या चिराग उसे प्यार करता था? नहीं, चिराग जैसे लड़के कभी किसी से प्यार कर ही नहीं सकते हैं, अपनी पत्नी से भी नहीं।
यदि आज चिराग मिल जाए तो? विपुला ने सोचा। दूसरे ही पल उसने अपने इस विचार को यह कहते हुए अपने मन से निकाल फेंका कि ‘‘तुझे प्यार करना है या फ्लर्ट’’?’’
वह अपने आप में सिमट गई।
उसे याद आया कि उसके छप्पन वर्षीय बॉस ने संजीदा होते हुए उससे कहा था ‘‘विपुला, मैं तुम्हें चाहता हूं। मुझे अपनी जिन्दगी में सब कुछ मिला फिर भी कोई कमी महसूस होती रही है। लेकिन जब से तुम्हें देखा है तो ऐसा लगता है कि वो कमी तुम हो। क्या तुम मुझे मिल सकती हो ?’’
‘‘क्यों नहीं। पर, क्या आप अपनी वाइफ से तलाक लेंगे?’’ विपुला ने दो टूक शब्दों में पूछा था।
बॉस ने हाथ बढ़ाया था तो वह पीछे हट गई थी लेकिन मुस्कुराकर और कुछ-कुछ अपने चेहरे पर विवशता ला कर। विपुला का मुस्कुराना भी विवशता थी और विवशता का प्रदर्शन करना भी विवशता ही थी। असमंजस में रह गया था उसका बॉस और इससे अधिक कठोर नहीं हो पाई थी विपुला । कामकाजी औरतों के अधिकार कानून की किताबों में ही अधिक सहज, सरल लगते हैं. वास्तविकता में उन अधिकारों को पाना बड़ा कठिन होता है, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कबीर ने कहा था- ‘‘जो घर बारे आपना, आए हमारे साथ।’’
उसे अपना बॉस एक लिजलिजा प्राणी लगता है। मोटा, थुलथुल, बिकुल किसी गंदे टोड के समान। वह तो उसे छूने की कल्पना मात्र से सिहर उठती है। शायद, उसके बॉस जैसा ही निकलता गिरीश। अचानक मिला था वह। पहचान हुई। दोस्ती हुई। दोस्ती लम्बी नहीं चली क्योंकि वह नौकरी बदल कर दूसरे शहर चला गया वह कम्युनिस्ट था। वह भी उन दिनों कम्युनिस्ट हुआ करती थी। जैसे आजकल का युवा जैसे सर्फर या चैटर हुआ करता है। उस दौर का लगभग युवा कम्युनिस्ट हुआ करता था, विपुला का तो यही मानना है। गिरीश के साथ लम्बी-लम्बी अंतहीन बहसे होतीं। उसका जोश, उसकी उत्तेजना अच्छी लगती। वह जब उत्तेजित हो कर पूंजीवाद की खामियां गिनाता तो विपुला को बड़ा भला लगता । अच्छा लगता था उसे गिरीश का साथ। यह साथ छूटा तो लगभग चार साल बाद फिर जुड़ा। उस समय तक गिरीश कम्युनिस्ट नहीं रहा था, वह एक उच्चपद पर पदासीन हो चुका था, उसकी रंगों में पूंजीवादी रक्त हिलोरे लेने लगा था। अगर रफ-टफ शब्दों में कहा जाए तो वह ‘‘हराम की कमाई खा-खा कर मुटा गया’’ था।
‘‘मुझसे शादी करोगी?’’ गिरीश ने एक छोटी-सी मुलाकात के दौरान पूछा था।
‘‘मैंने तुम्हारे बारे में इस दृष्टिकोण से कभी सोचा नहीं।’’विपुला ने कहा था।
‘‘अब सोचना। मैं तो शुरू से ही तुम्हे चाहता हूं।’’
‘‘तो पहले क्यों नहीं कहा?’’
‘‘बस, यूं ही। शायद, मैं विवाह की आवश्यकता को नहीं समझ पाया था।’’
‘‘अब कैसे समझ लिया?’’
‘‘मेरी बाहों में आ जाओ तो समझा दूं।’’ धृष्टतापूर्वक कहा था गिरीश ने।
‘‘सचमुच शादी करोगे मुझसे? तुम्हें दहेज में कुछ नहीं मिलेगा। तुम्हारी मां, तुम्हारे पिताजी, तुम्हारे रिश्तेदार मान जाएंगे?’’ विपुला ने अपनी सारी शंकाएं व्यक्त कर दी थीं।
‘‘नहीं मानेंगे तो मना लूंगा।’’ गिरीश का उत्तर सुन कर वह उसकी बाहों में समा गई थी। उसने जीवन में पहली बार अपने अधरों का चुम्बन लेने दिया था। एक ऐसा दग्ध चुम्बन जिसने उसके सारे शरीर को झंकृत कर दिया था। इस प्रथम चुम्बन का प्रथम अनुभव आगामी बहुत दिनों तक उसे रोंमांचित करता रहा। फिर भी इससे आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी थी उसने। अगली मुलाकातों में भी गिरीश चुम्बनों से आगे नहीं बढ़ पाया। गोया चुम्बन को विपुला ने लक्ष्मणरेखा बना दिया। हां, यह जरूर पूछती रही कि शादी कब करोगे? इस पर गिरीश का व्यवहार बदलने लगा। गिरीश कभी विपुला को दकियानूसी ठहराता, तो कभी विचित्र से उलाहने देने लगता ।
‘‘तुम मोटी क्यों होती जा रही हो?’’
‘‘कोई लेन-देन करने वाला घर पर आ गया तो उसे भगा तो नहीं दोगी?’’
‘‘तुम्हारे दांत कुछ टेढ़े-मेढ़े हैं, इन्हें कॉस्मेटिक से ठीक क्यों नहीं करवातीं?’’
‘‘खुले बाल क्यों रखती हो? इससे तुम्हारा सिर बड़ा दिखाई देता है, तुम आईना ठीक से नही देखती हो क्या?’’
‘‘तुम्हारे निकट के रिश्तेदारों में विवाह के नेग करने वाले तो हैं ही नहीं फिर विवाह के बाद के नेग कौन पूरे करेगा ?’’
गिरीश के इन नए प्रश्नों से थक गई वह और उसने मौन की चादर लपेटनी शुरू कर दी । शीघ्र ही वह समय भी आ गया जब इस सारे किस्से का अंत हो गया। गिरीश ने एक उच्चाधिकारी की लड़की के साथ ‘‘अरैंजमैरिज’’ कर ली। बाद में विपुला को अहसास हुआ कि गिरीश वाले मामले में प्यार का कोई सरोकार नहीं था। जो था, वह भ्रम था। गोया कोई अज्ञात को ज्ञात मान कर उससे चैंटिंग और शेयरिंग करता रहे।
इसके बाद उसे प्यार करने की आवश्यकता कभी महसूस ही नहीं हुई। अपने आप में डूबी हुई थी वह। पर, आज अचानक न जाने क्या हुआ कि मानो, नींद से जागते ही उसे लगने लगा कि उसे भी किसी से प्यार करना चाहिए। हो सकता है कि प्यार करने के बाद उसके अंदर भी काम भावना सिर उठाने लगे। कौन मानेगा कि पुरुषों के साथ उठने बैठने वाली अकेली जान विपुला अभी तक काम-भावना से प्रेशराईज़ नहीं है ? लोग यह क्यों मानते हैं कि एक लड़की युवा होते ही रतिदेवी की जेरॉक्स कॉपी बन जाती है और उसके रोम-रोम से काम-भावनाएं फूटने लगती हैं? है न अजीब फंडा?

विपुला अपने विचारों की दिशा बदल कर सोचने लगी कि अब किसके सामने प्यार का प्रस्ताव रखे? उसका दिल प्यार करने को कुलाचंे भरने लगा। अगर रूना के पति के सामने प्रस्ताव रखे तो? प्रशंसा तो उसकी आंखों में भी झलकती है। लेकिन कह सकेगी अपनी प्रिय सहेली के पति से? रूना कहीं हिन्दी फिल्मों की नायिका की भांति यह न कहने लगे कि ‘‘डाका डालने को तुझे मेरा ही घर मिला था।’’
रुना के लुटे-पिटे चेहरे की कल्पना कर के हंसी आ गई विपुला को।
‘‘हाऊ फुलिश।’’विपुला के मुंह से निकला ।
घुटनों को बाहों में बांध कर बैठे-बैठे खूब सोचा विपुला ने। कोई नाम नहीं सूझने पर उसने कपड़े बदले और दरवाज़े पर ताला डाल कर निकल पड़ी। मुख्य सड़क पर आते ही उसे पुरुषों की भीड़ दिखाई पड़ने लगी। सायकिल पर पुरुष, स्कूटर पर पुरुष, बाईक पर पुरुष, कार में पुरुष, खोमचों पर पुरुष। गर्दन तान कर चलते पुरुष, सिर झुका कर चलते पुरुष, फब्तियां कसते पुरुष, घूर-घूर कर देखते हुए पुरुष। गोया ये दुनिया मात्र पुरुषों की हो।
किससे करे प्रेम निवेदन वह ? सभी पुरुष हैं लेकिन सभी अपरिचित। अब, रास्ता चलते किसी पुरुष से तो वह कह नहीं सकती है कि मैं तुमसे प्यार करना चाहती हूं!
क्यों जागी प्यार करने की इच्छा उसके मन में ? वह झुंझलाने लगी। इस वृहतर समाज में प्यार कहां है? किस रूप में है? समाज है क्या. भावनाओं, विचारों, एक दूसरे के प्रति उपलब्धता- अनुपलब्धता का गुणा-भाग ही तो है। फिर भी प्रभावी रहती है समाजिक नियमों की अदृश्य आकृति। प्यार हमेशा इस आकृति के पांवों तले ही क्यों होता है?
हर औरत को कभी न कभी प्यार की चाहत होती होगी। प्यार भी किससे एक पुरुष से। उसी पुरुष से जिसके बेज़ा दबाव से वह आजाद रहना चाहती। उफ ! कितने सारे अंतर्विरोधों को अपने दिल में समेटे घूमती है एक औरत। यह सब कुछ कितना उलझा हुआ है। अकेलापन तो वह कई वर्षों से झेल रही है फिर अब ये अकुलाहट क्यों ? क्या उसकी बढ़ती उम्र उसे डरा रही है ? उसे अंतस से उठने वाले प्रश्नों का धुंआ उसकी आंखों पर छाने लगा फिर भी वह रुकी नहीं, चलती रही।
‘‘मैम. जरा देख के!’’
‘‘आह!!!’’ विपुला चिंहुक उठी। उसके बायें घुटने में ठोकर लगी थी। सामने बीस-बाईस साल का लड़का अपनी बाईक पर बैठा हुआ था। उसके चेहरे पर खेद के भाव थे।
‘‘मैम आपको लगी तो नहीं? सॉरी, मैं ब्रेक नहीं लगा पाया। यूं भी कुछ लूज है ब्रेक! रियली सॉरी!’’ लड़के ने क्षमायाचना की मानो झड़ी लगा दी।
‘‘इट्स ओ. के.!’’ विपुला ने कहा।
उस लड़के के चेहरे की ताज़गी देखकर अचानक वह अपने आप को थका-थका सा महसूस करने लगी। जाने कितनी दूर निकल आई थी वह, उसे तो होश ही नहीं था। ठोकर तो एक पैर में लगी थी लेकिन दुख रहे थे दोनों पैर। निश्चित रूप से कई किलोमीटर चल चुकी थी वह। उसने महसूस किया कि वह हांफ भी रही है। उसे अपना चेहरा धुआं-धुआं सा होता महसूस होने लगा। क्या उसे घर बैठ कर नंबर डायल करते रहना चाहिए था ? उसने अपने आप से प्रश्न किया और तत्काल ही उसके मन ने उत्तर दिया,‘‘पता नहीं!’’
और विपुला अपने आप से बतियाने लगी गोया वह अपने भीतर ही भीतर प्यार के अस्तित्व को बूझ लेना चाहती हो। ये बात दूसरी है कि उसके मन को एक सशक्त पलायनवादी उत्तर ‘‘पता नहीं’’ के रूप मे मिल गया था।
‘‘प्यार कहा मिलेगा?’’
‘‘पता नहीं!’’
‘‘प्यार किससे किया जाए?’’
‘‘पता नहीं!’’
‘‘प्यार क्यों किया जाए?’’
‘‘पता नहीं।’’
यदि वह सामने से आते किसी भी पुरुष को रोक कर कहे कि वह उससे प्यार करना चाहती है तो वह पुरुष उसके बारे में क्या सोचेगा ? क्या कहेगा ?
‘‘पता नहीं !’’
चौराहे पर खड़े हो कर प्रेम की खोज, क्या यही है असली हैशटैग लव?
आटो रिक्शा ले लेना चाहिए, अपने सिर को झटकते हुए उसने सोचा और एक आटोरिक्शा रोकने के लिए जैसे ही हाथ उठाया वैसे ही एक और बाईक उसके सामने आ कर रुकी।
‘‘तुम यहां कहां घूम रही हो?’’यह विनय था। ‘‘चलो बैठो! तुम्हारे ही घर जा रहा था। वाईफ को उसके भाई के घर पहुंचा कर। मगर तुम यहां कहां भटक रही हो ?’’ विनय ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा।
‘‘बस, यूं ही!’’ भला और क्या कहती विपुला?
“चलो, बैठो पीछे घर चलते हैं।’’ विनय ने संकेत किया।
‘‘किसके घर ?’’
‘‘तुम्हारे! और किसके ? घर नहीं जाना है क्या ? ऐसे क्या देख रही हो ? चलो, बैठो।’’
‘‘तुम तो अपनी पत्नी को शॉपिंग पर ले जाने वाले थे ?’’ विपुला ने पूछा।
‘‘हा, लेकिन उसका मूड बदल गया। उसके भाई का फोन आ गया तो वह भाई के घर जाने की जिद करने लगी। अब छोड़ो भी उसे। बैठो, पेट्रोल फुंका जा रहा है.।’’ विनय हंसा।
‘‘ठीक है चलो।’’ विपुला विनय के स्कूटर पर सवार हो गई। रास्ते भर विनय बोलता रहा जिसे विपुला ने सुना भी नहीं क्योंकि उसका मन सिर्फ एक प्रश्न पर अटका हुआ था, कैसा प्यार चाहिए उसे? कैसा?
घर पहुंच कर विपुला को विनय की जो पहली बात सुनाई दी, वह थी- ‘‘क्यों बुला रही थीं मुझे? कोई खास बात है?’’
‘‘अं... नहीं, बस, यूं ही।’’ एक बार फिर विपुला अपने यह कहने की लालसा को दबा गई कि मुझे तुमसे प्यार करना है। कोई लाभ भी तो नहीं है अब कहने का, उसके मन में उठा ज्वार अब उतर चुका है। लहरों के पीछे छूट गई है मरी हुई मछलियों-सा बुझा हुआ उत्साह और निर्जीव सीपियों सी ठंडी देह। इस पूर्ण वयस्क आयु में देह की आंच को आत्मनियंत्रण की ठंडी राख के नीचे दबाए रहने की आदत पड़ चुकी है। अब आसान नहीं है इस आंच को हवा देना । और फिर.. सिर्फ एक बार हवा दे कर ही क्या होगा. क्या वह इस आंच को सुलगाए रख सकेगी?
‘‘क्या सोचने लगीं?’’
‘‘कुछ नहीं!’’
‘‘फिर भी!’’
‘‘और सुनाओ? वो वासुदेव की क्रमोन्नति का क्या हुआ ?’’ विपुला सहसा औपचारिक होते हुए पूछ बैठी।
विनय से बातें करती-करती न जाने कब उसने सोशल मीडिया पर मलूकदास का यह दोहा लिख दिया कि -
‘‘जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि-कहि न सुनाव।
 अंतरजामी जानि है, अंतरगत का भाव।।’’
फिर एक बड़ा-सा इस्माईली लगाया। हैशटैग लव लगा कर पोस्ट कर दिया और मशगूल हो गई विनय के साथ दुनियादारी की बातों में। प्रेम उसके भीतर ही भीतर देर तक उमड़ता-घुमड़ता रहा और उसकी पोस्ट पर देर तक लाईक, कमेंट्स आते रहे। विपुला प्रेम के अंतरंग की शिक्षा दे कर एक अदद हैशटैग से उसे बहिरंग कर चुकी थी। आभासीय दुनिया के चौराहे पर प्रेम विहीन प्रेम एक बार फिर ट्रेंडिंग कर रहा था, वह भी वाया मलूकदास    
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शनिवार, अक्तूबर 07, 2023

कहानी | तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनी, रूपाली? | डॅा.(सुश्री) शरद सिंह | पहला अंतरा में प्रकाशित

कहानी  
   
तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनी, रूपाली?

 - डॅा.(सुश्री) शरद सिंह


‘‘तुमने आज का अख़बार पढ़ा?’’ सुलभा ने हांफते हुए मुझसे पूछा। 
वह अपने दाएं हाथ से अख़बार लहराती दौड़ी चली आ रही थी। आवेग के कारण उसके शब्द लड़खड़ा रहे थे। 
‘‘शांत हो जाओ! रिलेक्स! बैठ जाओ। पानी लाती हूं तुम्हारे लिए।’’ कहती हुई मैंने उसे हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए सोफे पर बिठाया। वह बैठी भी तो इस मुद्रा में मानो सोफे में स्प्रिंग लगी हो और वह अभी उछल पड़ेगी। मैंने मेज पर रखे जग से गिलास में पानी ढाला और गिलास उसे पकड़ा दिया।
वह गट्गट् कर के एक सांस में पूरा गिलास खाली कर गई। अपने दुपट्टे के छोर से अपना मुंह पोंछते हुए अख़बार मेरी आंखों के आगे लहरा दिया। मेरा ध्यान गया कि अभी तक अख़बार उसके दाएं हाथ की उंगलियों में ही फंसा हुआ था। 
‘‘तुमने पढ़ा?’’ सुलभा ने एक बार फिर मुझसे प्रश्न किया।
‘‘हां, पढ़ा। विश्वास करना कठिन है।’’ मैंने कहा।
‘‘हां, यार देखो, जलन होती थी उससे कि उसे कितना अच्छा गुड लुकिंग, हैंडसम पति मिला है। श्रेयांश के पापा से लाख गुना चार्मिंग।’’ सुलभा ने अपना दिल खोल दिया।
‘‘क्या कह रही हो!’’ मैंने टोंका।
‘‘अब तुमसे क्या छिपाना? मैंने तो उससे एक बार मज़ाक में कह भी दिया था कि यदि हसबैंड की एक्सचेंज आॅफर की कोई स्कीम होती तो मैं तुम्हारे हस्बैंड से अपना वाला एक्सचेंज कर लेती। और जानती हो उसने तब क्या जवाब दिया था?’’ सुलभा ने मुझे पूछा।
‘‘उसने फटकार लगाई होगी तुम्हें।’’ मैंने फीकी-सी हंसी हंसते हुए कहा। 
‘‘नहीं उसने कहा था- मैं भी!’’ सुलभा ने बताया। उसकी बात सुन कर मैं चौंक गई।
‘‘चल क्या रहा था उसके साथ? तुम्हारी बात तो समझ में आती है कि तुम कुछ भी कह डालती हो लेकिन वो क्यों राजी थी अपना हस्बैंड बदलने को? क्या उस समय से ही कुछ गलत चल रहा था?’’ मैंने कहा।
‘‘हां यार, ये तो मैंने सोचा ही नहीं। क्योंकि उस समय भी बात आई-गई हो गई थी। ऐसा कुछ होने वाला था भी नहीं। वह तो बस यूं ही कह दिया था मैंने। हंा, इससे मैं इंनकार नहीं करूंगी कि उसके हस्बैंड पर मुझे उस समय से ही क्रश था जब मैंने सगाई के समय उसे पहली बार देखा था। उस समय तो श्रेयांश भी नहीं हुआ था और श्रेयांश के पापा भी उतने फैटी नहीं थे जितने कि अब हो गए हैं। मैं तो कहती हूं कि सुबह उठ कर एक्सरसाईज़ किया करें, जिम जाएं, मगर वे हैं कि मेरी एक नहीं सुनते। जबकि उसके हस्बैंड को देखो अभी भी स्मार्ट है, डैशिंग है।’’ सुलभा आदतन बहकती हुई बोली।
‘‘ऐसी स्मार्टनेस भी किस काम की सुल्लू, जो किसी की जान ले ले। मुझे तो इतनी घृणा हो रही है उससे, कि अगर अभी वह मेरे सामने आ जाए तो मैं मार-मार के उसकी चमड़ी उधेड़ दूं। आखिर कोई कैसे इतना नृशंस हो सकता है?’’ मैं अपने घृणा के भावों को छिपा नहीं पा रही थी। वैसे छिपाना भी नहीं चाहती थी। मैं इतनी महान या साधु प्रवृत्ति की नहीं हूं कि पाप से घृणा करूं और पापी से नहीं। मुझे दोनों से बराबर की घृणा होती है।
‘‘हां, आज तो मुझे भी उसके हस्बैंड से घृणा हो रही है। बल्कि मेरी तांे यह सोच कर रूह कांप रही है कि मेरा एक डिमोन, एक नरपिशाच पर क्रश था। मुझे तो यह सोच कर भी झुरझुरी हो रही है कि यदि वो मेरा हस्बैंड होता तो....।’’ सुलभा की आगे की बात उसकी हलक में अटक कर रह गई। 
किसी भी औरत के लिए यह भयानक दुःस्वप्न हो सकता है कि उसका पति एक नृशंस हत्यारा निकले। 
‘‘यार कोई किसी पर इतना शक़ कैसे कर सकता है?’’ सुलभा बोली। उसका स्वर अभी भी स्थिर नहीं हुआ था।
‘‘शक़ की कोई सीमा नहीं होती है सुल्लू! वह तो अमरबेल की तरह होती है। जिस रिश्ते पर चढ़ी, उसका सारा रस चूस कर उसे मार डालती है। क्या तुम्हें डेसडिमोना याद नहीं है? काॅलेज में तो तुम ओथेलो और इयागो पर कितना गुस्सा करती थीं। मानो वे दोनों शेक्सपीयर के नाटक के पात्र न हो, बल्कि जीते-जागते वास्तविक व्यक्ति हो। वह भी तो पत्नी के चरित्र पर संदेह की ही कहानी थी। क्या हुआ था अंत उस कहानी का, याद है न?’’ मैंने सुलभा से पूछा।
‘‘हां याद है! मगर तब मैं सोचती थी कि यह योरोप में ही संभव है, हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं हो सकता है।’’ सुलभा ने निराशा भरे स्वर में कहा। फिर विचित्र ढंग से मेरी ओर देखती हुई पूछ बैठी,‘‘यदि किसी दिन श्रेयांस के पापा को मुझे पर शक़ हो गया तो?’’
‘‘क्या बकवास कर रही हो! अव्वल तो श्रेयांस के पापा ऐसे हैं नहीं और फिर सुल्लू, हर मर्द एक जैसा नहीं होता है। वो तो कितनी केयर करते हैं तुम्हारी! उल्टे तुम्हीं कभी-कभी उन्हें डांट दिया करती हो। और फिर तुम्हारा किसी और से तो अफेयर भी नहीं है, तो फिर डर क्यों रही हो?’’ मैंने सुलभा को प्यार से समझाया। 
‘‘फिर भी! शक़ होने के लिए किसी से अफेयर होना जरूरी तो नहीं है!’’ सुलभा ने बड़े मार्के की बात बोली। 
‘‘सही कहती हो, सुल्लू! यदि कभी तुम्हारी ज़िन्दगी में ऐसा समय आए तो तुम अपने हस्बैंड से दो-टूक बात करना। यदि फिर भी उसे तुम पर विश्वास न हो तो तत्काल उसे छोड़ देना। यदि उसने भी समय रहते निर्णय लिया होता तो उस दरिंदे को यह मौका नहीं मिलता।’’ मैंने सुलभा को समझाया। 
‘‘क्या ये सब कुछ इतना आसान होगा?’’ सुलभा के स्वर में हिचक थी।
‘‘या तो आसान बनाओ या फिर दरिंदे के हत्थे चढ़ जाओ!’’ मैंने सुलभा से कहा।
‘‘नहीं! यह कैसे माना जा सकता है कि हर कोई इस हद तक जा सकता है?’’ सुलभा डर भी रही थी और मानने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी।
‘‘यह भी कैसे मान लिया जाए कि कोई इस हद तक नहीं जाएगा? ऐसे एक्सपेरीमेंट से क्या लाभ जिसका रिजल्ट अपनी जान दे कर पता चले।’’ मैंने सुलभा से कहा। 
संशय और घबराहट सुलभा के चेहरे से टपक रही थी। वह स्वयं को आश्वस्त नहीं कर पा रही थी। यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी, क्योंकि आज अख़बार में जिसकी ख़बर छपी है वह हमारी सगी सहेली थी। हम काॅलेज में साथ-साथ घूमा करती थीं। हमारी तिकड़ी मशहूर थी। फिर समय के साथ जीवन में परिवर्तन आते गए। सुलभा का विवाह हों गया। मुझे एकाकी जीवन मिला और वह यानी रूपाली को तनिक देर से लेकिन सुलभा के शब्दों में ‘‘गुड लुकिंग और डेशिंग’’ हस्बैंड मिला। मैं और सुलभा इसी शहर में रहती रहीं, लेकिन रूपाली का हस्बैंड एक मुंबई में एक मल्टी नेशनल कंपनी में सीईओ था। अतः उसे मुंबई में बसना पड़ा। शादी के बाद वह यहां एक-दो बार ही आई। जब आई भी तो इतने कम समय के लिए कि रिश्तेदारों में ही घूमते हुए उसका समय निकल गया, हम दोनों से संक्षिप्त भेंट हुई। हां, शुरू-शुरू में फोन पर हमारी बात होती रही, फिर वह भी धीरे-धीरे कम हो गई। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। हर कोई अपनी जिन्दगी में रम जाता है। हमें क्या पता था कि उसकी ज़िन्दगी जो ऊपर से शांत और ‘कूल’ दिखाई पड़ रही है, उसके भीतर ज्वालामुखी का लावा धधक रहा है। उस लावे के छींटों से रूपाली हर दिन तिल-तिल कर जल रही थी, पर ‘उफ!’ भी नहीं कर रही थी। ऐसा क्यों किया रूपाली ने? हम दोनों में से किसी से भी साझा करती अपने दर्द को, हम कोई न कोई रास्ता निकाल लेते। उसे यूं अकेली नहीं छोड़ते।
‘‘क्या सोच रही हो?’’ सुलभा ने मुझे टोंका।
‘‘कुछ नहीं! बस, संस्कृत की एक कहानी याद आ गई जो कभी ‘कथासरित्सागर’ में पढ़ी थी। तुम कह रही हो न कि हमारी संस्कृति में ऐसा नहीं हो सकता था। तो सुनो, तुम्हें वह कहानी सुनाती हूं। मुक्तकेशी की कहानी है यह।’’ मैंले सुलभा से कहा।
‘‘हां, यार! सुना ही दो, कुछ ध्यान तो बंटे। बार-बार उसका चेहरा आंखों के आगे आ जाता है। घबराहट होने लगती है।’’ सुलभा अपने शरीर को ढीला छोड़ती हुई सोफे पर अधलेटी हो गई।
‘‘सुनो, पुराने समय की बात है काशी में एक सुंदर युवती थी जिसका नाम था मुक्तकेशी। वह सुंदर ही नहीं अपितु सुशील और आज्ञाकारी भी थी। उसके घने लंबे बाल अत्यंत सुंदर थे जिन्हें वह सादा खोल कर रखती थी, इसीलिए उसका नाम मुक्तकेशी पड़ गया था। उसके बचपन का नामकरण वाला नाम सभी भूल चुके थे। वह मुक्तकेशी ही कहलाती थी। उसके पिता ने सोचा कि अपनी पुत्री के लिए ऐसा वर चुनूं जो देखने में तो अच्छा हो ही साथ में सीधा हो और मेरी बेटी का पूरा ध्यान रखे। हर पिता यही आकांक्षा रखता है। पिता ने कौशांबी नरेश की राजसभा में काम करने वाले वज्रसार को अपनी बेटी मुक्तकेशी के लिए वर के रूप में चुना। मुक्तकेशी को जब पता चला तो वह भी अपने भावी जीवन के सुखद स्वप्न बुनने लगी। दोनों की कुंडलियां मिलवाई गईं। गुणों का मिलान सटीक बैठा। शुभमुहूर्त पर व्रज़सार और मुक्तकेशी का विवाह हो गया। मुक्तकेशी अपने पति के घर कौशांबी आ गई। यूं तो वह अपने पति के मित्रों के सामने नहीं निकलती थी किन्तु एकाध बार ऐसा अवसर आया कि उसे सामने आना पड़ा। कुछ मित्र ऐसे थे जो मुक्तकेशी को देखते ही वज्रसार के प्रति ईष्र्या से भर उठे। उन्हें लगा कि वज्रसार को इतनी सुंदर पत्नी नहीं मिलनी चाहिए थी।
वज्रसार के तथाकथित मित्र उसे उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाने लगे। उनका कहना था किे यदि पत्नी सुंदर हो सके उसे कभी कहीं अकेली नहीं जाने देना चाहिए। कोई भी उसकी सुंदरता की प्रशंसा कर के उसे मूर्ख बना सकता है। कभी वे ये कहते कि कुछ सुंदर स्त्रियां बहुत चतुर होती हैं। ऊपर से भोली होने का नाटक करती है जबकि भीतर से वे छल-कपट और कामवासना से भरी होती हैं। यानी कुल मिला कर वज्रसार के मित्र उसके मन में मुक्तकेशी के विरुद्ध संदेह के बीज रोपते रहते थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन कोई न कोई बीज अंकुरित अवश्य होगा और वज्रसार एक मूर्ख की भांति अपने ही हाथों अपनी गृहस्थी को आग लगा देगा।
वज्रसार धीरे-धीरे शंकालु होता जा रहा था। वह मुक्तकेशी को कहीं अकेली नहीं जाने देता था। मुक्तकेशी अपने पति के इस व्यवहार से यही समझती थी कि उसका पति उसे बहुत प्रेम करता है इसलिए उसे पल भर को भी कहीं अकेली नहीं जाने देना चाहता है। वह अपनी इस सोच पर प्रसन्न होती और इतराने लगती। 
कुछ समय बाद मुक्तकेशी के पिता और भाई किसी काम से कौशांबी आए। उन्होंने वज्रसार से कहा कि विवाह के बाद मुक्तकेशी अपने मायके नहीं आई है, वहां सभी उससे मिलने को आतुर हैं अतः कुछ दिन के लिए वह मुक्तकेशी को उन लोगों के साथ मायके जाने दे। वज्रसार अपने श्वसुर और साले को मना तो कर नहीं सकता था, अतः उसने उनसे यह कहा कि ‘‘मुक्तकेशी के बिना यहां काम नहीं चल सकेगा अतः वह स्वयं मुक्तकेशी के साथ चलेगा। इससे लौटने पर किसी को पहुंचाने नहीं आना पड़ेगा, वह मुक्तकेशी को अपने साथ वापस ले आएगा।’’ मुक्तकेशी के पिता और भाई को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी? वे तो यह सोच कर खुश हो गए कि उन्हें अपने दामाद की सेवा करने का अवसर मिलेगा। 
वज्रसार कुछ दिन अपनी ससुराल में रहा। फिर उसकी छुट्टियां समाप्त हो गईं और उसके लौटने का समय आ गया। उसने मुक्तकेशी को साथ वापस चलने को कहा। लेकिन मुक्तकेशी की मां ने अनुनय-विनय किया कि उनकी बेटी को कुछ दिन और अपने मायके में रहने दे। विवश हो कर वज्रसार को अकेले वापस लौटना पड़ा। उसके लौटते ही उसके मित्रों को मानो अच्छा मौका मिल गया। वे रात-दिन यही कान भरने लगे कि ‘‘विवाह के बाद तो पत्नी को अपने पति का घर प्रिय होता है, मगर तुम्हारी पत्नी ने अपने मायके में रुकने का हठ किया। इसका सीधा अर्थ है कि वहां उसका कोई पुराना प्रेमी है जिसके साथ वह प्रेमालाप करना चाहती है, तभी तो वह तुम्हारे साथ नहीं आई।’’
यह सुन कर वज्रसार से नहीं रहा गया और वह चार दिन में ही अपनी ससुराल जा पहुंचा। उसे इस तरह अचानक आया देख कर सभी यह सोच कर प्रसन्न हो उठे कि मुक्तकेशी को कितना प्रेम करने वाला पति मिला है जो चार दिन भी अकेले नहीं रह सका। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुक्तकेशी को वज्रसार के साथ विदा कर दिया। 
वज्रसार जब मुक्तकेशी को ले कर लौट रहा था तो उसने बीच घने जंगल में बैलगाड़ी रोकी और मुक्तकेशी को उसके केशों से पकड़कर घसीटता हुआ एक पेड़ के पास ले गया। उसने मुक्तकेशी का उत्तरीय खींचा और उसी से उसे पेड़ से बांध दिया। फिर क्रोध में भर कर उसके कपड़े फाड़ते हुए पूछने लगा कि -‘‘बता तूने अपने किस पुराने प्रेमी के साथ प्रेमालाप किया? इसीलिए तू रुकी थी न अपने मायके? माता-पिता तो बहाना मात्र थे, है न?’’
अपने पति के इस अप्रत्याशित व्यवहार से स्तब्ध मुक्तकेशी को कोई उत्तर नहीं सूझा। वह तो समझ ही नहीं पा रही थी कि उससे इतना प्रेम करने वाले पति को यह अचानक क्या हुआ?
‘‘क्यों पुराने प्रेमी से प्रेमालाप करते समय लाज नहीं आई और अब बताने में लाज आ रही है? मैं सब समझता हूं तेरी चतुराई!’’ वज्रसार पर तो मानों उन्माद सवार था।
‘‘ये आप क्या कह रहे हैं? आपसे ये सब किसने कहा?’’ मुक्तकेशी ने अपनी स्तब्धता से बाहर आते हुए वज्रसार से पूछा।
‘‘किसी को कहने की क्या आवश्यकता? मैं और मेरे सारे मित्र जानते हैं कि तू अपने मायके में क्यों रुकी थी।’’ वज्रसार मुक्तकेशी के पुनः कपड़े फाड़ते हुए बोला, ‘‘मेरे मित्र ठीक कहते हैं कि तेरी जैसी रूपवती पत्नी के होने से तो अच्छा है कि कोई पत्नी ही न रहे। आज मैं तुझे जीवित नहीं छोडूंगा।
वज्रसार ने मुक्तकेशी पर झपटते हुए उसके पूरे कपड़े तार-तार कर दिए। किन्तु तभी मुक्तकेशी को नग्नावस्था में देख कर उसके मन में कामभवना जाग उठी। वज्रसार ने सोचा कि जब इसे मारना ही है तो पहले तनिक आनन्द उठा लिया जाए फिर मारा जाए। मुक्तकेशी पति की भावना ताड़ गई। उसने वज्रसार से कहा कि ‘‘ठीक है यदि तुम मुझे मारना चाहते हो तो मार दो, लेकिन मरने से पहले मैं तुम्हारे साथ उन्मुक्त भाव से सहवास करना चाहती हूं।’’
यह सुन कर वज्रसार और वासनामय हो उठा। उसने तत्काल मुक्तकेशी के बंधन को खोल दिया। मुक्तकेशी ने भी अवसर पाते ही अपने उसी उत्तरीय से जिससे उसे पेड़ में बांधा गया था, वज्रसार को उसी पेड़ से बांध दिया। फिर वह गर्जना करती हुई बोली-‘‘अरे मूर्ख पुरुष! तेरा नाम वज्रसार नहीं बल्कि वज्रमूर्ख होना चाहिए था। तूने अपने कपटी मित्रों की बातों में आ कर मुझे चरित्रहीन मान लिया, कम से कम एक बार तो ढंग से जांच-पड़ताल कर लेता। मुझसे खुल कर पूछ लेता। तू तो संदेह में अंधा हो गया और तुझे अपनी पत्नी की सच्चरित्रता ही दिखना बंद हो गई।’’
मुक्तकेशी की बात सुन कर वज्रसार को मानो होश आ गया कि वह कितनी बड़ी गलती कर बैठा है। वह मुक्तकेशी से क्षमा मांगने लगा।
‘‘मुझसे बहुत बड़ी त्रुटि हो गई मुक्तकेशी! मुझे क्षमा कर दो और एक और अवसर दे दो! अब मैं पुनः कभी तुम पर शंका नहीं करूंगा।’’ वज्रसार गिड़गिड़ाने लगा।
‘‘नहीं वज्रसार! तुम मुझे अपनी पत्नी बनने योग्य नहीं मान रहे थे, सच तो ये है कि तुम मेरे पति रहने योग्य नहीं हो। जो व्यक्ति दूसरों की बातों में आ कर अपनी पत्नी की हत्या करने पर उतारू हो जाए, उस पति को दूसरा क्या आधा अवसर भी नहीं दिया जा सकता है। सो, मैं आज से न तो तुम्हारी पत्नी हूं और न तुम मेरे पति।’’ इतना कह कर मुक्तकेशी वहां से वापस अपने मायके लौट गई।
मायके में मुक्तकेशी ने जब पूरा हाल कह सुनाया तो उसके माता-पिता और भाई-बहनों ने भी उसके निर्णय को स्वागत किया। मुक्तकेशी ने शेष जीवन एक ब्रह्मचारिणी के रूप में व्यतीत करने का निश्चय किया। वहीं दूसरी ओर वज्रसार जब लौट कर अपने मित्रों के पास पहुंचा तो सबने उसकी बहुत खिल्ली उड़ाई कि वह कैसे मूर्ख बन गया। इस घटना का प्रभाव यह हुआ कि वज्रसार का दूसरा विवाह भी नहीं हो सका। जिसे भी उस घटना को पता चलता वह अपनी बेटी के साथ वज्रसार का विवाह करने से मना कर देता। वज्रसार का शेष जीवन पश्चाताप में व्यतीत हुआ। 
‘‘तो ये थी कहानी मुक्तकेशी की, सुल्लू!’’ कहानी समाप्त करते हुए मैंने सुलभा से कहा।
कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद सुलभा बोली,‘‘रूपाली को भी मुक्तकेशी बनना चाहिए था। कभी तो शुरुआत हुई होगी संदेह भरी कटुता की। उसे चुपचाप नहीं सहना चाहिए था।’’
‘‘हां, सुल्लू! आज सुबह जब से मैंने यह रोंगटे खड़े कर देने वाली ख़बर पढ़ी है कि उसके पति ने उसे मार कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर यहां-वहां कूड़ादान में फेंक दिया था, मुझे जितना गुस्सा उस हैवान पर आ रहा है उतना ही रूपाली की सहनशक्ति पर भी गुस्सा आ रहा है। ऐसी भी सहनशक्ति किस काम की जो जानलेवा साबित हो? यदि शीशे में दरार पड़ जाए तो वह एक न एक दिन टूट कर किसी न किसी को चुभता ही है। ऐसे शीशे को समय रहते ही अपने से दूर कर देना चाहिए।’’ मैंने सुलभा से कहा।
सुलभा कुछ नहीं बोली। इससे आगे मेरे पास भी कुछ नहीं था कहने, सुनने को। बस, एक समाचार का एक शीर्षक बुरी तरह चुभ रहा था कि रूपाली को उसके शंकालु पति ने नृशंतापूर्वक मार डाला। वह शीर्षक खंज़र बन का हम दोनों के दिलों में भी उतर चुका था। लहू की रिसती अदृश्य बूंदों के साथ अनेक ‘काश!’ थे, जिनके होने का अब कोई अर्थ नहीं था। एक मुक्तकेशी साहस नहीं दिखा पाई थी और हैवान जीत गया था। यह सोच-सोच कर हम दोनों इतनी निःशब्द हो गईं कि सीलिंग फैन के ब्लेड्स के द्वारा हवा को काटने की आवाज़ भी किसी तूफान या अंधड़ की आवाज़ के समान लग रही थी। फिर भी हमारे मन के किसी कोने से एक प्रश्न आंतरिक चींख बन कर शोर कर रहा था कि ‘तुम मुक्तकेशी क्यों नहीं बनीं, रूपाली? काश! तुम बन सकी होतीं!’   
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बुधवार, अप्रैल 12, 2023

कहानी | प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | पहला अंतरा

कहानी
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

उसकी उम्र यही कोई अट्ठारह-उन्नीस साल की रही होगी। अपनी सहेलियों के साथ बैठी हंस रही थी, खिलखिला रही थी। एकदम मस्तमौला जीव दिख रही थी। हाथ-हिला कर बात करना और बीच-बीच में अपनी कुर्सी से उठ-उठ पड़ना मेरे सहित वहां मौजूद सभी का ध्यान खींच रहा था। इसका अनुभव मुझे तब हुआ जब मेरे पास वाली मेज पर बैठी महिला ने कुढ़ कर कहा,‘‘ओवहर स्मार्ट बन रही है।’’
‘‘सही है, आज कल के बच्चों को होश ही नहीं रहता है कि उनके आस-पास भी कोई मौजूद है या फिर वे किसी पब्लिक प्लेस में हैं।’’ उस महिला के साथ वाली महिला ने टिप्पणी की। वे दोनों परस्पर रिश्तेदार थीं या वे भी सहेलियां थीं, पता नहीं। अनुमान लगाना कठिन था। पल भर को मेरा ध्यान उस लड़की से भटक कर उन महिलाओं पर अटक गया। दोनों को देख कर कोई भी बता सकता था कि उनका बहुत सारा समय ब्यूटीपार्लर में व्यतीत होता होता होगा। दोनों ने चाईनीज़ फूड मंगा रखा था और दोनों ही कांटे के सहारे बड़े सलीके से उसे खा रही थी। विशेषणयुक्त मुहावरे में कहूं तो - ‘‘इन फुल एटीकेट’’। वे अपना यह सलीका किसे दिखा रही थीं? शायद परस्पर एक-दूसरे को, अन्यथा वहां मौजूद सबका ध्यान उन लड़कियों की ओर था। जिनके लिए दो युवा लड़कों ने वहां से जाते-जाते टिप्पणी की थी-‘‘ये तितलियां’’। 
एक ज़ोरदार उन्मुक्त हंसी का स्वर गूंजा और मेरा ध्यान एक बार फिर उन तितलियों यानी उन लड़कियों की ओर चला गया। कितनी खुश, कितनी उन्मुक्त, कितनी जीवंत। ऊर्जा से भरपूर। 
मेरे भीतर से एक आवाज़ उठी कि तुम भी इस दौर से गुज़री हो। और मैंने अपने भीतर की आवाज़ को स्वीकार कर लिया। स्कूल के दिनों में तो नहीं लेकिन काॅलेज के दिनों में मैं भी इन्हीं लड़कियों की तरह चंचल हुआ करती थी। यद्यपि अब और तब में बहुत अंतर था। मेरे छोटे से शहर के छोटे से काॅलेज में एक अदद कैण्टीन हुआ करती थी। जहां लड़कों का जमावड़ा रहता था। हम लड़कियों के लिए वहां जाना प्रतिबंधित था। मजे की बात यह कि यह प्रतिबंध न तो काॅलेज प्रशासन ने लगाया था और न किसी  व्यक्ति ने। यह प्रतिबंध अपनी परंपरागत कस्बाई मानसिकता के चलते स्वयं लड़कियों लगा रखा था। मैं शुरू से को-एजुकेशन में पढ़ी थी इसलिए लड़के मेरे लिए अजूबा नहीं थे। मुझे कुछ अजूबा लगता था तो लड़कियों की ऐसी अनावश्यक झिझक। अरे, अगर हम लड़कियां कैण्टीन में पहुंच जातीं तो लड़के हमें खा थोड़े ही जाते। 
हां, एक ख़ूबसूरत डिप्लोमेसी जरूर चलती थी मेरे साथ की लड़कियों की। उनमें से कुछ ऐसी थीं जिनकी कनखियां और संकेत अपने पसंद के लड़कों की ओर सक्रिय रहते थे। हम लोगों का पांच लड़कियांे का अघोषित ग्रुप था। मुझे छोड़ कर दो लड़कियों के चोरी-छिपे वाले ब्वायफ्रेंड थे और बाकी दो के उजागर ब्वायफ्रेंड। मेरा कोई उस तरह का ब्वायफ्रेंड नहीं था। जिस लड़के से मुझे कोई बात करना होती तो मैं सीधे-सीधे कर लेती। कोई दुराव-छिपाव नहीं। जबकि उजागर वाली लड़कियां बारी-बारी से अपने मित्रों से कैण्टीन से हम सभी के लिए चाय मंगवा लिया करती थीं। एक संकेत प्रस्थानित होता और पांच मिनट में कैण्टीन वाला छोकरा हाथ में चाय के गिलासों का झाला पकड़े हुए आ खड़ा होता और इशारा करते हुए कहता,‘‘भैया ने भिजवाई है चाय!’’
छोकरे से चाय का गिलास लेने के बाद वे लड़कियां आपस में एक-दूसरे को छेड़तीं कि ‘‘भैया ने या सैंया ने?’’ और जिसके ‘‘सैंया’’ ने चाय भिजवाई होती वह इतरा कर कैण्टीन के बाहर अपनी मित्रमण्डली के साथ खड़े अपने ‘‘सैंया’’ की ओर देख कर मुस्कान फेंकती। वह ‘‘सैंया’’ छात्र भी झेंपता, मुस्कुराता और तन कर खड़ा हो जाता। यह सब देखना मुझे विचित्र अनुभूति से भर देता। मैं लड़कों से सहज रूप से बात करने की आदी थी। मैंने अपने बचपन में भी अपनी काॅलोनी के लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा ओर कंचे खेले थे। मात्र दो वर्ष छोड़ दिया जाए तो कच्ची पहली से मेरी काॅलेज में प्रथम वर्ष में पहुंचने तक सहशिक्षा में ही पढ़ाई हुई थी। वहीं मेरे साथ की उन चारो लड़कियों की पूरी शिक्षा बालिका विद्यालय में हुई थी अतः उन्हें वास्तविक प्रतिबंधित क्षेत्र में चोरी-छिपे प्रवेश का सुखद अनुभव हो रहा था और वे इस अनुभव को लेने में कोताही भी नहीं बरतती थीं। उनमें से दो के तो बड़े सपने भी नहीं थे। वे आगे चल कर शादी कर अपना घर-संसार बसाने की अदम्य अभिलाषा रखती थीं। कैरियर जैसी बात उनके लिए बेमानी थी। 
समय एक छलांग में कितनी परिवर्तन नाप लेता है यह सोचना वामन अवतार की पौराणिक कथा के बारे में सोचने के समान है। बौना रूप धर कर तीन पग में तीन लोक नापने जैसा। पहले टीवी फिर कम्प्यूटर फिर अबाध इंटरनेट। दुनिया चंद सालों में ही बदल गई। जो विषय चर्चा में भी निषिद्ध थे, वे मोबाईल के आयाताकर पर्दे पर सजीव देखे जा सकते हैं। मेरी पीढ़ी और वर्तमान युवापीढ़ी में जैविक रूप से कोई अधिक दूरी नहीं है लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी दूरी है। आज मेरे सामने जो तितलियों जैसी लड़कियां खिलखिला रही थीं, उन्हें जीवन का दीर्घ अनुभव नहीं है लेकिन वे सजग हैं अपने कैरियर को ले कर। 
‘‘मैं तो प्लस टू कर के अपनी आंटी के पास सिएटल चली जाऊंगी। यहां रह कर लाईफ स्प्वाईल करने से क्या फायदा।’’ एक लड़की ने चहकते हुए कहा था।
‘‘हां री! तू लकी है कि तेरी आंटी एब्राॅड में हैं, लेकिन देखना मैं भी किसी मल्टीनेशनल कंपनी को ज्वाइन कर के तेरे पास आ जाऊंगी।’’ सबसे ज्यादा चहकने वाली उस लड़की ने कहा था। 
उनकी बातें सुन कर मैं सोच में पड़ गई थी कि कितने बड़े-बड़े सपने हैं इसके पास, एकदम स्पष्ट और नपेतुले। शायद मेरे कल शाम का अनुभव इन्हें एक ‘टैबू’’ जैसा लगे। मेरे पुराने शहर से ये शहर बड़ा है। यहां परिवर्तन की लहर महानगरों के बराबर तो नहीं लेकिन उसके पीछे-पीछे दौड़ रही है। आज नेटिंग, चैटिंग, बैटिंग आदि सब कुछ होता है यहां। ये लड़कियां दुस्साहसी हैं। ये दुनिया के जिन ख़तरों को जानती हैं, उनमें भी कूद पड़ने को तत्पर हैं। अगर ये मेरे कल शाम की दास्तान सुन लें तो मेरी प्रतिक्रिया पर और भी बड़ा वाला ठहाका मार कर हंस पड़ेंगी। लेकिन मैं क्या करूं, मैं हूं ही ऐसी। संबंधों को हल्के में लेना मुझे आता ही नहीं है। या तो मैं डूब कर नाता जोड़ती हूं, अन्यथा बच कर निकल जाना पसंद करती हूं। 
कल शाम मेरे लिए एक दुर्घटना के समान थी। मन के कोने-कोने तक बहुत देर स्तब्धता छाई रही। ऊपर से भले ही मैंने मुस्कुरा कर स्वयं को सहज बनाए रखने का प्रयास किया किन्तु अंदर से सहजता के सारे धागे चटक कर टूट गए थे। 
हुआ यूं कि मेरे एक परिचित जो पेशे से अधिवक्ता हैं। मेरे घर आए। कुछ देर यहां-वहां की बातें होती रहीं।
‘‘आजकल आपकी समाजसेवा कैसी चल रही है?’’ उन्होंने पूछा था।
‘‘ठीक है। बढ़िया। अब स्वयं को और व्यस्त रखने लगी हूं ताकि मन लगा रहे। खाली रहती हूं तो घबराहट होने लगती है।’’ मैंने बताया।
‘‘हां, स्वयं को व्यस्त रखना आपके लिए जरूरी है।’’ उन्होंने मेरी बात पर हामी भरी थी।
‘‘आप अपना कोई एनजियो क्यों नहीं शुरू करतीं?’’ उन्होंने पूछा था।
‘‘क्या लाभ? मेरा लक्ष्य लोगों की मदद करना है, अब चाहे अपना एनजियो बना कर करूं या दूसरों के साथ मिल कर।’’ मैंने उत्तर दिया था।
‘‘ठीक है।’’ उन्होंने कहा था। 
इस संक्षिप्त वार्तालाप के बाद वे अप्रत्याशित ढंग से बोल उठे,‘‘नित्या जी, मैं आपका आलिंगन करना चाहता हूं।’’
एक पल को तो मुझे समझ ही नहीं आया कि जो मैंने सुना है वह सही है या गलत? 
‘‘आज आप बहुत सुंदर दिख रही हैं। इसीलिए मैं अपनी भावना प्रकट किए बिना नहीं रह पा रहा हूं। प्लीज़, मेरे क़रीब आइए।’’ उन्होंने मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किया बिना किसी बंदूक की गोली की तरह अगला वाक्य दाग़ दिया। 
‘‘यह संभव नहीं है। मैं आपको इस दृष्टि से नहीं देखती हूं।’’ मुझे दो-टूक कहना ही पड़ा। इसके बाद वे तनिक संयत हुए। 
‘‘मेरे विचार से अब आपको जाना चाहिए।’’ मैंने तनिक और कठोरता बरती।
उन्होंने मेरी ‘‘न’’ को ‘‘न!’’ ही माना और चले गए। किन्तु हम स्त्रियों की छठीं इन्द्रिय सजग रहती है। मैंने भांप लिया कि उन्होंने ऊपरी तौर पर खुद पर काबू पाया है, आंतरिक नहीं।
उनके जाने के बाद वे सारे प्रश्न मेरे मस्तिष्क से खेलने लगे जो उसी समय मुझे उनसे पूछने चाहिए थे। लेकिन उस समय मैंने बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा था। मैं उनसे पूछना चाहती थी कि हमारा तो वर्षों पुराना परिचय है, लेकिन इससे पहले मैं कभी सुंदर नहीं लगी क्या? या फिर आज इसलिए सुंदर लग रही हूं कि मां के जाने के बाद नितांत अकेली रह गई हूं और साथ की ललक इस एक वाक्य से मुझे पिघला देगी? 
उन्होंने न कभी पूछा कि कोई, किसी तरह की आवश्यकता तो नहीं है? न मेरे दुख की घड़ी में मेरे आंसू पोंछने का समय निकाला। आज मेरे अकेलेपन में मैं उन्हें सुंदर दिखाई देने लगी। इतनी सुंदर कि आलिंगन योग्य। वाह! बहुत खूब!!
इस घटना ने रात भर मेरे मन को छीला। भोर भी अनमनी व्यतीत हुई। भोजन पकाने तक का मन नहीं हुआ। एक विरक्ति। एक विछिन्नता। एक व्याकुलता। मानो एक शीशा गिर कर टूट गया था और उसकी किरचें रह-रह कर चुभ रही थीं। प्रेम को व्यक्त करना कितना कठिन होता है, जबकि वासना को व्यक्त करना सरल। एक जुमला उछाला और मान लिया कि काम बन जाएगा। वह भी एक ऐसा व्यक्ति जो मेरी दृष्टि में प्रबुद्ध श्रेणी का था। लेकिन संभवतः बुद्धि, प्रबुद्धि और चरित्र तीनो अलग-अलग होते हैं। कल शाम से मैं यही मानने पर विवश हो गई हूं। 
घर में मन नहीं लग रहा था। बैंक की पासबुक निकाली और उसकी एंट्री अपडेट कराने निकल पड़ी। घर से निकलने का एकदम फिसड्डी बहाना। खैर, बैंक में जा कर ताज़ा एंट्री भी ले ली। अब क्या करूं? समझ में नहीं आ रहा था। तभी अनुभव हुआ कि थोड़ी भूख लग रही है। मैं अकेली ही रेस्तरां की ओर बढ़ ली। आमतौर पर मैं अकेली वहां बैठ कर नहीं खाती हूं। जब कभी आवश्यकता होती है तो पैक करवा कर घर ले आती हूं और फिर घर में अपने सोफे पर पांव पसार कर टीवी पर टकटकी लगा कर खाती हूं। लेकिन उस समय मैं भीड़ में रहना चाह रही थी। अकेली तो बिलकुल भी नहीं। बस, इस तरह इस रेस्तरां आ पहुंची और घंटे भर से कुछ न कुछ चुगती हुई उन लड़कियों को देखती हुई बैठी हूं।
वह प्रश्न मेरे मन में फिर कुलबुलाया कि यदि मेरी जगह ये ब्राउनी तितली होती तो क्या करती? जी हां, वह जो उन लड़कियों में सबसे अधिक चुलबुली और उत्साही लड़की थी उसने भूरे रंग का टाॅप पहना हुआ था, इसीलिए मैंने उसका नाम ‘‘ब्राउनी तितली’’ रख दिया। 
यदि मैं ब्राउनी तितली को अपने पास बुला कर अपने साथ घटी घटना के बारे में उससे बात करूं तो? उस लड़की से चर्चा करने का विचार आना ही इस बात का सबूत था कि ख़याली घोड़ों के नथुनों में कोई लगाम नहीं होती है। मैंने स्वयं को लानत भेजी। लेकिन मन था कि बार-बार इसी एक प्रश्न पर आ ठहरता था। मेरी जगह यदि यह ब्राउनी तितली होती तो इसकी क्या प्रतिक्रिया होती? क्या यह सहज रह पाती? या आलिंगनबद्ध हो जाती? या कोई अप्रत्याशित तीखी प्रतिक्रिया से सामने वाले के होश उड़ा देती? ये तीन प्रश्न या तीन उत्तर, वस्तुनिष्ठ की भांति थे, जिनमें से किसी एक पर टिक करना कठिन था। 
‘‘देखो, मुझे अंकल ने क्या दिया?’’ ब्राउनी के साथ वाली एक अन्य तितली अपने गले में पड़ी चेन दिखाती हुई बोली। 
‘‘हाऊ ब्यूटीफुल। डायमण्ड है इसमें?’’ एक ने पूछा।
‘‘अरे नहीं! डायमण्ड पहन कर मुझे अपना गला कटवाना है क्या? जब मैं अपनी कार में चलने लगूंगी तब डायमण्ड पहनूंगी। स्कूटी में गोल्ड, डायमण्ड ये सब सेफ थोड़े ही है।’’ उसने बड़े सयानेपन से कहा।
‘‘यस! शर्मा आंटी को देखो न, वे माॅर्निंगवाक पर गई थीं कि किसी ने उनके गले से उनकी सोने की चेन खींच ली। चेन तो हल्की थी, बहुत कीमती नहीं थी लेकिन चेन खींचे जाने से उनकी गरदन पर गहरे स्क्रैचेस आ गए थे।’’ ब्राउनी तितली ने कहा। मुझे वह बुहत समझदार लग रही थी। मुझे लग रहा था कि वह बहुत तेजी से दुनिया को समझती जा रही है। मगर मेरी जैसी परिस्थिति में आ कर वह क्या करती?
ढाक के तीन पात! मन घूम फिर कर उसी प्रश्न पर जा पहुंचा। माना कि युवा पीढ़ी के लिए दैहिक संबंध कोई ‘‘टैबू’’ नहीं है लेकिन जहां इच्छा का कोई सिरा ही न हो, वहां क्या आज का युवा कोई ‘डील’ कर सकता है?
‘डील’, हां यह एक व्यावसायिक शब्द है लेकिन आजकल प्रेम संबंधों में भी यह समाहित हो गया है। इसे नया भाषा विन्यास कहें या संबंधों के प्रति लाभ-हानि वाला दृष्टिकोण। जैसे पिछले दिनों मेरी एक साथी किसी पुरुष की चर्चा करती हुई कह रही थी कि वह तो बेहतरीन ‘‘हस्बैंड मटेरियल’’ है। जब हस्बैंड और वाईफ भी मटेरियल की दृष्टि से आंके जाएं तो फिर डील तो बहुत छोटा शब्द है इसके सामने। खैर, यह ब्राउनी तितली कैसे डील करती मेरे मसले को? 
‘‘तेरे अंकल भी ग़ज़ब की चीज़ हैं। काश! मेरे भी कोई ऐसे अंकल होते।’’ आह सी भरती हुई एक तितली की आवाज मेरे कानों से टकराई और मुझे अहसास हुआ कि मैं अपनी सोच में डूब गई और ये तितलियां उस कथित डायमण्ड के इर्दगिर्द ही घूम रहीं हैं। 
‘‘अरे यार, वो मेरे अंकल हैं!’’ उस चेन वाली लड़की ने खीझते हुए कहा।
‘‘हंा, यार छोड़ इसके अंकल को! तू ऐसा कर कि गिनीपिग सर के साथ डेट कर ले। कोई तो अच्छी गिफ्ट मिल ही जाएगी।’’ ब्राउनी तितली ने खिलखिलाते हुए कहा।
‘‘व्हाट रबिश! अगर गिनीपिग सर को पता चल गया तो वे तेरा फालूदा बना देंगे।’’ चेन के लिए आहें भरने वाली लड़की ने कहा।
‘‘हाय बना ही दें न!’’ चेन वाली लड़की बोल उठी।
‘‘तू सच्ची बहुत बड़ी बेशरम है!’’ चेन के लिए आहें भरने वाली लड़की ने हंस कर कहा।
‘‘यार लाईफ में गिफ्ट इंप्वार्टेंट नहीं है, इश्क़ इंप्वार्टेंट है। मैं तो गिनीपिग सर की ओर देखूं भी न। ऐसे हैंडसम लाखों पड़े हैं।’’ ब्राउनी तितली ने कहा। उसकी बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए। 
मगर एक कठिनाई यह थी कि मुझे वहां बैठे बहुत देर हो गई थी। अकेली बैठी-बैठी और कितनी देर स्नेक्स चुगती? तीन कप काफी भी पी चुकी थी। रेस्तरां वाला लड़का भी सोचता होगा कि कहां की भुक्खड़ आ बैठी है। यद्यपि उसका मालिक तो खुश ही होगा क्योंकि मैं बैठी-बैठी उसका बिल बढ़ा रही थी।
दूसरी कठिनाई यह थी कि तीन कप काफी और एक गिलास पानी पी चुकने के बाद वाशरूम की तलब सताने लगी थी। जबकि मैं उन तितलियों की बातों से चूकना नहीं चाहती थी और उठ कर आने-जाने के चक्कर में अपने प्रति उनका ध्यान भी नहीं खींचना चाहती थी। वे मेरी उपस्थिति से लगभग बेखबर थीं। यद्यपि मुझे पता नहीं था कि मेरी उपस्थिति का भान होने पर उनके वार्तालाप पर कोई असर पड़ेगा या नहीं?
तीसरी कठिनाई यह थी कि अब मुझे वहां बैठी रहना स्वतः ही अटपटा लगने लगा था। मेरी बाजू वाली मेज की वे दोनों महिलाएं काफी पहले जा चुकी थीं। उनके बाद उस मेज पर एक जोड़ा आया था। वह भी अब जा चुका था। मैंने ब्राउनी तितली के ‘‘गिफ्ट’’ और ‘‘इश्क़’’ के कथन को ही उसका सूत्र वाक्य मान लिया और बैरे को बिल लाने का संकेत कर दिया।
बैरा तो मानो मेरे संकेत की ही प्रतीक्षा कर रहा था। दो मिनट में बिल ले कर उपस्थित हो गया। मैंने बिल चुकाया और वहां से विदा होते समय एक गहरी दृष्टि उन तितलियों की ओर डाली। वे सब अपने-आप में डूबी हुई थीं। स्पष्ट था कि उन्हें मेरे होने या जाने से कोई अंतर नहीं पड़ रहा था। यह महसूस कर मुझे तसल्ली हुई।
अब मेरा मन भी हल्का हो चुका था। मानो मैंने अपना उत्तर पा लिया था। मैं जान गई थी कि मेरी जगह अगर वो ब्राउनी तितली होती तो उसकी भी प्रतिक्रिया मेरी तरह होती। उन तितलियों के लिए दैहिक संबंध कोई गंभीर विषय भले ही न हो लेकिन विवशता पूर्ण संबंध और इच्छापूर्ण संबंध में अंतर करना उन्हें भी आता है। लेकिन वे मेरे बुद्धिजीवी परिचित गए भूल गए कि ‘‘ प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए। राजा प्रजा जो ही रुचे, सीस दे हि ले जाए।।’’
मेरे मन की फांस अब एक कोने में सरक गई थी। वह निकल तो कभी सकती नहीं लेकिन हर समय टीसेगी तो नहीं, यही बहुत है। क्योंकि जो कुछ भी वह था वह प्रेम तो कदापि नहीं था। प्रेम उथला नहीं, गहरा होता है, बहुत गहरा। सात सागरों से भी गहरा। काश! सब लोग यह समझ पाते!
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मंगलवार, मार्च 28, 2023

कहानी | मौना, अब तुम कहां जाओगी? | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | ' साहित्य संस्कार ' पत्रिका में प्रकाशित

विवाह के नाम पर ओडीशा (उड़ीसा) से खरीद कर बुंदेलखंड लाई गई युवती .... क्या होगा उसका भविष्य?  पढ़िए मेरी कहानी "मौना, अब तुम कहां जाओगी?" 
     यह प्रकाशित हुई है जबलपुर अर्थात संस्कारधानी से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका "साहित्य संस्कार" के महिला कथाकार अंक  में। जिसके यशस्वी संपादक हैं श्री सुरेंद्र सिंह पंवार।
हार्दिक धन्यवाद Surendra Singh Pawar ji 🙏

यूं तो पूरा अंक पठनीय है किंतु यहां पढ़िए मेरी कहानी... 😊🙏🌷
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कहानी
मौना, अब तुम कहां जाओगी?                      
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

मौना अपने ससुराल पहुंची। 
द्वार पर उसका किसी ने स्वागत नहीं किया। एक औरत से परिचय कराया गया। नाम बताया गया लक्ष्मी। मौना ने नाम रट लिया। आसान था। परिचित-सा। अलबत्ता, लक्ष्मी की एक भी बात मौना के पल्ले नहीं पड़ी। भाषायी समस्या थी। लक्ष्मी बुन्देली मिश्रित हिन्दी भाषी थी और मौना ओडिया भाषी। 
मौना को पहली रात में ही अनुभव हो गया कि उसका ब्याह भले ही रामप्रसाद के साथ किया गया है लेकिन उसके जेठ दुर्गाप्रसाद का भी उस पर उतना ही अधिकार है। यह क्या हो रहा है उसके साथ? मौना हतप्रभ थी। किससे कहे अपना दुख? उस घर में नौकर के नाम पर वही थी और सेविका के नाम पर भी वही। लक्ष्मी एक भी काम को हाथ नहीं लगाती। 
मौना के साथ जो कुछ होता जा रहा था उसे ठीक-ठीक समझ पाना उसके बूते के बाहर था। मौना के पिता शिबोम के साथ मोल-भाव करने के बाद सौदा तय हुआ दो हज़ार दो सौ पच्चीस रुपए और इस वादे में कि उसकी तीसरी बेटी के लिए भी ऐसा ही कोई ‘रिश्ता’ वे लोग ढूंढ देंगे। रामप्रसाद ने शिबोन के परिवार और आस-पास की झुग्गीवालों के सामने मौना की मांग में सिंदूर भरा। इस ‘रस्म’ के लिए मौना को लाल रंग की साड़ी दी गई थी पहनने के लिए ताकि वह ‘दुल्हन’ दिखे। शादी के बाद शिबोम और उसके परिचय वालों को देसी दारू और मछली के सस्ते पकौड़ों की दावत दी गई। शिबोम सीना फैलाए घूमता रहा और मौना ब्याह की प्रसन्नता को अपने दिल में समेटे अपरिचित ‘देश’ की ओर चल पड़ी, रेलगाड़ी में बैठ कर। वह अपने दूल्हे को देखती और मन ही मन खिल उठती। उसकी दोनों बड़ी बहनों के दूल्हे ऐसे नहीं थे। वे उम्र में बहुत बड़े थे बहनों से। 
‘हमारे यहां दुल्हन का नाम बदल दिया जाता है। हम तुम्हें मौना कह कर बुलाया करेंगे।’ दुर्गाप्रसाद ने मौना को शादी से पहले ही जता दिया था। मौना समझ नहीं सकी थी। उसे हिन्दी नहीं आती थी, बुन्देली मिश्रित हिन्दी तो बिलकुल भी नहीं। शिबोन ने बेटी को दुर्गाप्रसाद की बात को अपनी भाषा में अनुवाद कर के बताया था। 
क्या फ़र्क़ पड़ता है? मौना ने सोचा था। दो समय के भात से बढ़ कर नाम नहीं होता। वे कुछ भी पुकारें, कम से कम भात तो देंगे! न जाने कितने दिन और कितनी रातें मौना और उसके परिवार को पानी पी कर काटनी पड़ जाती हैं। जिस दिन मंा-बाप को काम नहीं मिलता, उसे काम नहीं मिलता, उसकी बहन को काम नहीं मिलता, उस दिन फांके के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता। 
मौना के विवाह पर उसकी मंा रोई थी, फिर खुश हुई थी यह सोच कर कि चलो, एक और बेटी को इस नरक से छुटकारा मिलेगा....और परिवार को कुछ दिनों के लिए भरपेट अन्न। 
मौना के मायके से ससुराल तक का रास्ता बहुत लम्बा था। एक रेल से दूसरी रेल और भीड़ का सैलाब। भीड़ तो मौना ने भी देख रखी थी किन्तु रेल पर चढ़ने का यह उसका पहला अवसर था। 

ससुराल आकर शीघ्र ही मौना ने जान लिया कि वह ब्याह कर पत्नी बना कर नहीं अपितु नौकरानी और देहपिपासा शांत करने के साधन के रूप में लाई गई है। जिस पेट भर अन्न का सपना देखती वह यहां आई थी, उस अन्न में भी कटौती बढ़ती चली गई।  
बूढ़ी सास भी मौना को ही कोसती।

नर्क-सा जीवन जीती मौना रोती, सिसकती और दुआ करती कि कम से कम एक बार तो उसके मां-बाप उससे मिलने आ जाएं। पर, कैसे आएंगे? क्या उन्हें पता है रास्ता? वे भी तो कभी रेल पर नहीं चढ़े? 
एक दिन लक्ष्मी पर मानो वज्रपात हो गया। मौना को चक्कर आया। वह पानी का कलसा लिए हुए धड़ाम से गिरी। लक्ष्मी ने तो समझा कि मौना ‘टें बोल गई’, उसने चैन की सांस लेते हुए सोचा कि चलो, बला टली। किन्तु बला टली नहीं, सास ने मौना के शरीर को टटोला और प्रसन्न हो कर घोषणा की कि मौना पेट से है। सास की वाणी सुनते ही पथरा गई लक्ष्मी। कुछ देर बाद उसने स्वयं को सम्हाला और अपने आने वाले कल के बारे में सोचने लगी। अंततः उसने दुर्गाप्रसाद से दोटूक बात करने का निश्चय किया। 
‘जनने तो दो उसे, बेच आऊंगा उसे भिंड, मुरैना में कहीं...बेफालतू चिन्ता मत कर!’ दुर्गाप्रसाद ने आश्वस्त किया।
‘और जो तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं कुए में कूद कर जान दे दूंगी।’ लक्ष्मी ने चेतावनी दी।
‘ऐसी नौबत नहीं आएगी! भरोसा रख मुझ पर।’ दुर्गाप्रसाद ने भरोसा दिलाया।

मौना को जब पता चला कि वह गर्भवती है तो वह सोच में पड़ गई कि अब उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? उसे और उसके बच्चे को अच्छे से रखेंगे ये लोग या उसके बच्चे को भी उसी की भांति नौकर बना कर रखा जाएगा? और जो बच्ची हुई तो? मौना घरवालों की बोली कुछ-कुछ समझने लगी थी। अब वह अपने कान खड़े रखती, एक चैकन्नी मां की तरह। एक अच्छी बात यह थी कि उसे अब भरपेट भोजन दिया जाने लगा था। इतना तो वह समझ गई थी कि उसके पेट में मौजूद गर्भ के कारण उसे भरपेट भोजन दिया जा रहा है। लेकिन प्रसव के बाद? इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं था। 
यदि वह प्रसव के पहले ही इस घर से कहीं भाग जाए तो?
लेकिन कहंा? उसे तो ठीक से पता भी नहीं है कि वह है कहां? उसके अपने माता-पिता का घर किस शहर में, कितनी दूर और कहां हैं? वहां तक कैसे पहुंचेगी? रेल की लम्बी यात्रा के बाद एक बस में सवार हो कर वह इस गांव तक आई थी। वह पढ़ी-लिखी नहीं थी और उस पर उसे अपनी बोली-भाषा के अलावा कुछ आता नहीं था। कैसे और कहां चली जाए वह? हिन्दी भी टूटी-फूटी समझ पाती है। इसी उधेड़बुन में मौना के दिन-रात कटते। 
 
एक दिन मौना को दो अपरिचित आदमियों के सामने खड़ा किया गया। वे विचित्रा नेत्रों से उसे घूरते रहे। गर्भ धारण करने और भरपेट भोजन करने के कारण चेहरे पर आई लुनाई ने मौना के स्त्राीत्व में चार चांद लगा रखा था। सांवला चेहरा चमक उठा था। देह भर आई थी।  कुछ देर वे दोनों मौना को घूरते रहे फिर मौना को दूसरे कमरे में भेज दिया गया। पता नहीं क्यों मौना का मन सशंकित हो उठा। ये लोग कौन हैं? लक्ष्मी से पूछे? या फिर सास से?
आखिर उसने साहस बटोर कर लक्ष्मी से पूछा।
‘जब वे दोनों तुझे ले जाएंगे खरीद कर तक खुद ही पता चल जाएगा....फिर ऐश करना...’ लक्ष्मी ने भद्दे ढंग से उत्तर दिया था। ‘खरीदना’ और ‘बेचना’ जैसे शब्दों के अर्थ मौना जानती थी। इतने अरसे में उसे हिन्दी के कई शब्द समझ में आने लगे थे।
‘और तेरा बच्चा यहां मेरे पास।’ कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए, अपनी गोद की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मी बोली।
मौना हतप्रभ रह गई। पहले माता-पिता, भाई-बहन छूटे और अब उसका बच्चा भी उससे छुड़ा लिया जाएगा? 
नहीं! उसे यहां से भागना ही होगा, हर कीमत पर। मौना ने सोचा। कहां जाएगी? कहीं भी। उसकी कोख में अब उसका अपना बच्चा है। वह अपने बच्चे को नहीं छोड़ेगी। कभी नहीं।

जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगे, मौना की छटपटाहट बढ़ने लगी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस नरक से कैसे भागे? अंततः उसने उस दाई का सहारा लेने का निश्चय किया जो उसका गर्भ जांचने दो-तीन बार आ चुकी थी। मौना ने पेट दर्द के बहाने दाई को बुलवाया और जांच के दौरान एकांत पाते ही दाई के पैर पकड़ लिए। मौना का भाग्य अच्छा था कि बूढ़ी दाई का मन पसीज गया। या फिर इससे बड़ा कारण यह था कि बूढ़ी दाई को गंाव में चल रहे इस धंघे का पता था। या फिर कोई और कारण था तो वह स्वयं ही जानती होगी।
बूढ़ी दाई ने ही तय किया कि जिस दिन गांव के मंदिर में भंडारा होगा उस दिन मौका मिलते ही वह मौना को बस पकड़वा देगी। बूढ़ी माई अपनी बात की पक्की निकली। भंडारे वाले दिन परिवार के सभी लोग मुफ़्त का भोजन करने मंदिर गए। बाहर से घर की सांकल लगा गए थे। मगर बूढ़ी दाई ने ऐन बस छूटने के समय सांकल खोली और मौना की मुट्ठी में बीस रुपए का नोट थमाते हुए उसे बस में घुसा दिया। बस चल पड़ी और मौना थर-थर कांपती रही।
कंडेक्टर आया।
‘कहां जाना है?’ उसने मौना से पूछा और पैसे के लिए अपना हाथ बढ़ाया।
‘सागर....’ मौना ने अटकते हुए कहा।
मौना ने घबरा कर बीस का नोट उसे थमा दिया।
‘खुल्ले देता हूं अभी!’ कहते हुए कंडक्टर और आगे बढ़ा। मौना को समझ में नहीं आया कि टिकट के पन्द्रह रुपए की थी या बीस की? बस से उतरने के पहले कंडेक्टर ने उसे पांच रुपए लौटा दिए थे। यह पांच रुपए ही उसकी कुल सम्पत्ति थे। उसने सहेज कर अपनी साड़ी के पल्लू में बंाध लिया।
सागर में बस अड्डे पर उसने ‘रेल’, ‘रेल’ कह कर पूछना शुरु किया। कुछ ने सिर झटक कर अनसुना कर दिया। कुछ ने बताया। फिर किसी तरह रास्ता पूछती-पूछती रेलवे-स्टेशन पहुंच गई। किस रेल में उसे चढ़ना है? कहां जाना है? उसे पता नहीं था। बहुत देर तक वह प्लेटफार्म पर डोलती रही। गला सूखने लगा तो पांनी की टंकी के पास पहुंच कर गला तर किया। 
प्लेटफार्म पर लाइटें जल गई थीं। चहल-पहल बढ़ गई थी कि फिर एक रेल आई। 
भीड़ का एक रेला उसमें से उतरा और दूसरा चढ़ने लगा। मौना भी धक्का-मुक्की करती हुई जा चढ़ी। उस समय उसके मन में बस दो ही इच्छाएं बलवती थीं कि एक तो इस भीड़ की धक्का-मुक्की में उसका गर्भ सुरक्षित रहे और दूसरी कि वह यहां से बहुत दूर चली जाए। 
रेल के डब्बे के फर्श पर बैठते ही मौना की अंाखों में आंसू छलछला गए। बाबू कैसे होंगे? उसे याद करते होंगे? उसने अपने पिता के बारे में सोचा। मंा कैसी होगी? वह याद करती होगी? क्या अभी वे रुपए बचे होंगे जो उसके ब्याह में उसके मां-बाप को दिए गए थे? दोनों बड़ी बहनों के ब्याह में मिले रुपयों से मंा ने तीन माह घर चलाया था। 
....और कला? क्या वह भी अब तक ब्याह दी गई होगी? मौना को अपनी तीसरी बड़ी बहन की याद आई। ‘ब्याह?’ इसी तरह का ब्याह? जैसा उसका खुद का हुआ? उस गंाव में....कौन जाने उस गंाव में मौना की झुग्गी-बस्ती की और लड़कियां भी रही हों? कौन जाने मौना की दोनों बड़ी बहनें भी उसी गंाव के किन्हीं घरों में.....धक् से रह गया मौना का दिल।  मौना को पता नहीं था कि उस गांव में पांच औरतें और थीं मौना के ‘देश’ की। उन्हें भी मौना की तरह घर से बाहर निकलने की मनाही थी। उन्हें आपस में मिलने देने का तो प्रश्न ही नहीं था। वे एकाकी, आश्रित और लाचार अनुभव करती रहें, यही उनके पतिनुमा मालिकों के लिए बेहतर था। यूं भी कौन सोच सकता था कि बुन्देलखण्ड के पिछड़े हुए गंाव में ओडीसा से लड़कियां ब्याह कर लाई जाने लगीं हैं। क्यों कि वहां लड़कियां कम हैं, क्यों कि लाचार ओडिया लड़कियों के रूप में एक ऐसी नौकरानी मिल जाती है जो न काम छोड़ कर भाग सकती है और न अंाखें दिखा सकती है। सौदा लाभ ही लाभ का।
मौना देर तक रोती रही और उसके आस-पास बैठे लोग नाक-भौंह सिकोड़ कर उसे देखते रहे...लेकिन मौना ने तय कर लिया था कि वह अपने मां-बाप के घर पहुंच पाए या न पहुंच पाए लेकिन वह हरहाल में जिएगी और अपने बच्चे को भी जन्म देगी, पालेगी। कुछ भी हो वह ज़िन्दगी से हार नहीं मानेगी। यह उसके भीतर की मंा का साहस था जो अंगड़ाइयां लेने लगा था क्यों कि उसके भीतर की औरत भले ही हार मान लेती लेकिन उसके भीतर की मां कभी हार नहीं मानेगी। 
उसे याद आने लगा वो गीत जो उसकी मंा अकसर गाया करती थी-
छो..छोको भूंजी लोक पतर तुड़ले लागसी भोक
छो..छोको भूंजी लोक ...... 
 (अर्थात् हम लोग गरीब भुंजिया आदिवासी, पत्ता तोड़ते हुए भूख लगती है। )
 उस समय उसे भूख नहीं लगी थी लेकिन उसे ध्यान आया कि कहीं उसके गर्भ का शिशु भूखा न हो? एक अबोध मां अपने सहज ज्ञान से अपने गर्भस्थ शिशु की आवश्यकताएं भांपने लगी। भले ही उसका घबराया मन उससे पूछ रहा था-‘मौना, अब तुम कहां जाओगी?’ किन्तु मौना के भीतर की मां ने उस प्रश्न को अनसुना करते हुए अपने गर्भस्थ शिशु की आवाज़ पहले सुनी और उसने दो रुपए का केला खरीदा और खा लिया। 
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