शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2016

कहानी ‘‘पछतावा’’ .... डॉ. शरद सिंह



कहानी


पछतावा


- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह



ग्राम रजाखेड़ी, रेलवे फाटक नम्बर... क्या फ़र्क़ पड़ता है रेलवे फाटक नम्बर से? नम्बर कोई भी हो, रहना तो उसे वहीं था। वह पैदा वहीं हुआ था। उसका घर जो वहीं था। वैसे फ़र्क़ तो इस बात से भी नहीं पड़ता था कि उसका घर ग्राम रजाखेड़ी में था। वही ग्राम रजाखेड़ी जो कभी प्रदेश की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत हुआ करती थी। फिर भी अगर वह ग्राम रजाखेड़ी में न रह कर शनीचरी पुलिस चौकी के पास रहता या फिर शुक्रवारी की घटिया पर, तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। जगह बदल जाने से उसकी फि़तरत बदलने वाली नहीं थी। उसने जो कुछ जाना, समझा और सीखा था, अपने पिता और बड़े भाइयों से सीखा था। उसके पिता ने बड़े लाड़-प्यार से उसका नाम रखा था एकलव्य। नामकरण करते समय उसके पिता को भी इस बात का अहसास नहीं था कि एक दिन उसका एकलव्य अपने नाम को सार्थक करते हुए अपने पिता को ही गुरु द्रोणाचार्य बना लेगा। जहां तक बड़े भाइयों का प्रश्न था तो एकलव्य के तीनों बड़े भाई उसे जोश दिला-दिला कर अपने जैसे बनाने का बीड़ा उठाए घूमते। एक मां ही थी जो नहीं चाहती थी कि उसका सबसे छोटा, सबसे प्यारा-सा दिखने वाला बेटा एकलव्य अपने भाइयों के पदचिन्हों पर चले अथवा अपने पिता का अनुकरण करे।

एकलव्य और उसके भाइयों के नाम सरकारी स्कूल में लिखवाए गए थे। लेकिन स्कूल और पढ़ाई से उनका छत्तीस का आंकड़ा था। तीनों बड़े भाई फेल-पास होते हुए जैसे-तैसे आठवीं की परीक्षा तक पहुंचे... और फिर वहीं फुलस्टॉप लगा कर बैठ गए। आठवीं कक्षा पार न करने की मानों उन तीनों ने क़सम खा रखी थी।

मां सरकारी स्कूल में भृत्य थी, भले ही उसकी नौकरी कच्ची थी लेकिन चार पैसे मिलते तो थे। मंा का काम था स्कूल में बच्चों के लिए पीने का पानी भरना और प्राचार्या जी के कमरे की साफ़-सफ़ाई करना। यूं तो नल आने पर टंकी में पानी भरना पड़ता था, लेकिन नल कब आएगा, यह निश्चत नहीं रहता। कभी सुबह आता तो कभी शाम को तो कभी दोपहर को। मां चाहती थी कि उसके तीनों बड़े बेटों में से कोई एकाध तो पढ़-लिख कर भृत्य बनने लायक हो जाए। कम से कम एकलव्य के लिए घर में एकाध अच्छा उदाहरण तो बने, लेकिन मां के सोचने या चाहने से सब कुछ होना होता तो उसके घर के दिन न फिर जाते? फिर भी एकलव्य ने मां की इच्छा का मान रखा और आठवीं कक्षा की परीक्षा पास कर ली। वह कैसे पास हो गया, यह उसे भी नहीं पता। जैसे किसी अपराधी को संदेह का लाभ मिल जाता है, वैसे ही एकलव्य को अपनी खराब रायटिंग का लाभ मिल गया होगा। परीक्षक को शायद ढंग से समझ में ही नहीं आया होगा कि एकलव्य ने उत्तर-पुस्तिका में लिखा क्या है। या फिर कोई और तुक्का लग गया हो। बहरहाल, एकलव्य आठवीं उत्तीर्ण कर के नवीं कक्षा में जा पहुंचा। जिस दिन उसने नवीं में दाखिला लिया, उसी दिन उसने अपने पिता को यह साबित कर देना चाहा कि वह सिर्फ़ नाम का ही नहीं बल्कि काम से भी एकलव्य है और उसके पिता उसके लिए गुरु द्रोणाचार्य से कम नहीं हैं। यह बात अलग है कि एकलव्य को महाभारतकी कथा के एकलव्य और द्रोणाचार्य के बारे में पता ही नहीं था। उसके पिता को भी इस कथा के बारे में कितना पता था, पता नहीं। हो सकता है कि पिता ने यह नाम कहीं सुना हो, उन्हें पसंद आ गया हो और उन्होंने अपने बेटे का नाम यही रख दिया। या शायद पंडित जी ने सुझाया हो, नामकरण संस्कार के समय।

जो भी हो, एकलव्य ने उधर नौवीं कक्षा में अपना नाम लिखाया और छुट्टी होने पर स्कूल से भाग कर सीधे अपने पिता के पास पहुंचा, जो उस समय अपने कुछ मित्रों के साथ ताश-पत्ती खेलने में व्यस्त थे। अब सब के सामने एकलव्य अपने पिता को वह नहीं दे सकता था जो गुरुदक्षिणा के रूप में उनके लिए ले कर आया था। उसने पिता को संकेत कर के अलग बुलाया। पिता ने जैसे ही उससे पूछा- क्या है? क्या काम है? एकलव्य ने अपनी ढीली-ढाली पेंट की ज़ेब से स्टील की चमचमाती हुई नल की टांेटी निकाली और अपने पिता के हाथ में थमा  दी।

हैं? ये क्या है?’’ पिता स्टील की ठंडक को महसूस करते हुए चौंक कर बोले।

कैसी है?’ एकलव्य ने उत्साह भरे स्वर में पूछा।

है तो अच्छी, पर मिली कहां से?’ पिता ने पूछा।

स्कूल से लाया हूं।एकलव्य ने उत्साहित हो कर बताया।

वाह बेटा! शाबाश!!पिता ने खुशी से एकलव्य की पीठ ठोंकते हुए कहा,‘तू तो अपने भाइयों से भी आगे निकल गया।

यही तो सुनना चाहता था एकलव्य।

कितने में बिकेगी?’ एकलव्य ने जिज्ञासा से भर कर पूछा। वह अपने पिता से शाबाशी के चंद और शब्द सुनना चाहता था।

नई है, दो सौ नहीं तो सौ रुपए में तो बिक ही जाएगी। अच्छा, अब तू घर जा, मैं बाद में आऊंगा।पिता को ध्यान आया कि उनका खेल अभी ख़त्म नहीं हुआ है और उनके दोस्त उनकी प्रतीक्षा में रुके बैठे हैं। पिता ने यह नहीं कहा कि एकलव्य ने स्कूल से नल की टोंटी चुरा कर ग़लत किया है, उल्टे वे उसे शाबाशी दे कर प्रोत्साहित करते रहे। जैसे कि अपने अन्य तीन बेटों को शाबाशी दिया करते हैं।

घर लौटते समय एकलव्य को याद आ रहा था कि कैसे उसके बड़े भाई सार्वजनिक जगहों से नल की टोंटियां, लोहे की जाली, पाईपें आदि उखाड़ लाया करते और उसके पिता उनकी पीठ ठोंका करते। यह सब देख कर एकलव्य को भी लगता कि वह भी कोई ऐसा काम करे जिससे उसके पिता उसकी पीठ ठोंके, उसकी तारीफ़ करें। इसीलिए अपने स्कूल में नल की चमचमाती  टोंटी देख कर उससे रहा नहीं गया। वह टोंटी उसे शाबाशी पाने की ट्रॉफी के समान लगी और उसने घर से पेंच-पाना ला कर टोंटी उखाड़ी और अपनी जेब के हवाले कर ली। ऐसा करते किसी ने नहीं देखा उसे। यह चतुराई उसने अपने भाइयों से ही तो सीखी थी। दूकानों से खाने-पीने के सामान तो उसने बहुत चुराए थे, लेकिन यह उसकी खुद की नज़र में एक बड़ा हाथ था। अपने पिता को बता कर उनसे शाबाशी हासिल करने वाला बड़ा हाथ।

एकलव्य खुश होता हुआ अपने घर पहुंचा। मगर वहां का नज़ारा देख कर उसके होश उड़ गए। घर में कोहराम मचा हुआ था। मंा बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी और दो बड़े भाई घबराए हुए एक कोने में खड़े थे। तीसरे का कहीं पता नहीं था। मोहल्ले-पड़ोस की औरतें मां के बिस्तर को घेर कर खड़ी हुई थीं।

अम्मा को क्या हुआ, चाची?’ घबराए हुए एकलव्य ने एक औरत से पूछा।

होना क्या है? तेरी मां को कमर में गहरी चोट आई है। दवा तो दिलवा दी गई है लेकिन सत्यानाश हो उसे चोट्टे का जिसने स्कूल को भी नहीं छोड़ा।वह औरत गुस्से से भर कर बोली।

उस औरत की अजीब सी बातें सुन कर एकलव्य ख़ामोश हो गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आया। वह उल्टे पांव अपने पिता की ओर भागा। एकलव्य को उसके पिता बीच रास्ते में ही मिल गए। किसी ने उन्हें मां को चोट लगने की सूचना दे दी थी। वे भी घबराए हुए थे।

घर पहुंचते ही एकलव्य के पिता ने भी वही प्रश्न किया-क्या हुआ इसे? कैसे चोट लगी?’

एकलव्य के भी कान खड़े हो गए। वह भी जानना चाहता था कि उसकी मां को चोट लगी कैसे? कहीं किसी ने उन्हें मारा-पीटा तो नहीं?

पिता के पूछने पर मां ने खुद कराहते हुए बताया कि स्कूल में दोपहर को जैसे ही नल में पानी आया वह जल्दी-जल्दी पानी भरने लगी। टंकी की एक टोटी कोई चुरा ले गया था, जिससे पानी वहां बह कर फैल रहा था। कल तक छोटी लगी हुई थी जिससे उसका ध्यान टोंटी गायब होने पर गया ही नहीं और न ही वहां बहते हुए पानी पर ध्यान गया। जैसे ही एकलव्य की मां का पैर फर्श पर फैले हुए उस पानी पर पड़ा, उसका पैर फिसल गया और वह पीठ के बल धड़ाम से गिरी। वह तो गनीमत था कि उसका सिर दीवार से नहीं टकराया नहीं तो कोई अनहोनी भी हो सकती थी। 

मां की बात सुन कर एकलव्य का कलेजा धक्क से रह गया। उसने अपने पिता की ओर देखा। ठीक उसी समय पिता ने भी एकलव्य की ओर देखा। दोनों की नज़रें पल भर को आपस में मिलीं और दोनों घबरा गए। पिता का हाथ अपने कुर्ते की ज़ेब की ओर चला गया। जहां स्टील की चमकती, सुंदर टोंटी अभी भी रखी हुई थी। वे एकलव्य से कहना चाह रहे थे कि -बेटा, अब ऐसा काम कभी मत करना।

जबकि एकलव्य मन ही मन क़सम खा चुका था कि वह अब ऐसा काम कभी नहीं करेगा।  लेकिन इसके साथ ही उसे अपने पिता से यह शिक़ायत भी थी कि उन्होंने उसे ऐसा करने पर डांटा क्यों नहीं? अगर वे उसके भाइयों को भी चोरी करने पर शाबाशी देने के बजाए डांट देते तो वह भी आज ऐसा ग़लत काम नहीं करता।

उधर मां दर्द से कराह रही थी और इधर पिता-पुत्रा पछतावे के सागर में डूबते जा रहे थे।               

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डॉ. शरद सिंह की कहानी ‘‘पछतावा’’

इस कहानी का प्रसारण दिनांक 05.02 2016 को आकाशवाणी के सागर केन्द्र से किया गया ....