- डॉ. शरद सिंह
रेल्वे व्हीलर्स और बस स्टेन्ड्स की दूकानों से ले कर फुटपाथों तक राज करने वाली हिन्दी साहित्य की इन पुस्तकों को समीक्षकों द्वारा कभी गंभीर समीक्षा के दायरे में नहीं रखा गया। मोटे, दरदरे, भूरे-पीले से सफेद काग़ज़ पर छपने वाला यह साहित्य उपन्यासों के रूप में पाठकों के दिल-दिमाग़ पर छाया रहता था। कहा जाता है कि माता-पिता द्वारा रोके जाने पर भी स्कूल, कॉलेज के विद्यार्थी अपनी पाठ्य पुस्तकों में छिपा कर इन्हें पढ़ते थे। दूसरी ओर इनमें से कई लेखक ऐसे थे जिनके उपन्यास स्वयं माता-पिता की पहली पसन्द होते थे। अस्सी के दशक तक पूरे उठान के साथ ऐसे उपन्यासों की उपस्थिति रही है। वर्तमान में पठन में रुचि कम होने का प्रभाव इस तरह के उपन्यासों पर भी पड़ा है। यह साहित्य लुगदी साहित्य के नाम से जाना जाता था। जिसे अंग्रेजी में पल्प फिक्शन कहा जाता है। आज भी ऐसे उपन्यास चलन में हैं पर अपेक्षाकृत बहुत कम।
इस प्रकार के साहित्य को लुगदी साहित्य इसलिए कहा गया क्योंकि ये रचनाएं जिस कागज पर छपा करती थीं, वह कागज अखबारी कचरे और किताबों के कबाड़ की लुगदी बनाकर दोबारा तैयार किया जाता था अर्थात रीसाइकल्ड पेपर के रूप में।
लुगदी साहित्य अर्थात् ऐसा कथा साहित्य या गल्प जो बाज़ार में बिक्री के पैमाने पर तो लोकप्रिय रहा किंतु जिसका साहित्यिक मूल्य बहुत कम आंका जाता रहा।
लुगदी साहित्य के दौर में हिन्दी के जो लेखक सामने आए उनमें प्रमुख थे- दत्त भारती, प्रेमशंकर बाजपेयी, कुशवाहा कांत, राजवंश, रानू आदि... लेकिन इनमें सबसे प्रसिद्ध थे- गुलशन नंदा।
गुलशन नंदा हिन्दी में लुगदी साहित्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक रहे। वे 60 से लेकर 80 के दशक तक, की दर्जनों सिल्वर जुबिली, गोल्डन जुबिली फिल्मों के लेखक थे। हिन्दी साहित्यकारों के बीच एक उपेक्षत नाम और उस दौर की युवा पीढ़ी के लिए आराध्य एवं आदर्श लेखक गुलशन नंदा के अनेक बहुचर्चित उपन्यास थे- जलती चट्टान, नीलकंठ, घाट का पत्थर, गेलार्ड, झील के उस पार, पालेखां आदि।
‘झील के उस पार’ वह उपन्यास था जिसका हिन्दी पुस्तक प्रकाशन के इतिहास में शायद ही इससे पहले इतना जबर्दस्त प्रोमोशन हुआ हो। देश भर के अखबारों, पत्रिकाओं, रेडियो पर प्रचार के अलावा होटल, पान की दुकान से लेकर सिनेमाघरों तक प्रचार किया गया। प्रचार में इस बात का भी खुलासा किया गया कि पहली बार हिन्दी में किसी पुस्तक का पहला एडीशन ही पांच लाख कापी का छापा गया है।
गुलशन नंदा के अनेक उपन्यासों पर फिल्में बनीं और बॉक्स ऑफिस पर हिट रहीं जैसे- सावन की घटा, जोशीला, जुगनू, झील के उस पार, नया जमाना, अजनबी, कटी पतंग, नीलकमल, शर्मीली, नज़राना, दाग़, खिलौना आदि।
बुक स्टॉल्स पर गंभीर साहित्य की तुलना में इब्ने सफी, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, रानू, राजवंश, वेदप्रकाश कम्बोज, कर्नल रंजीत, सुरेंद्र मोहन पाठक और वेदप्रकाश शर्मा जैसे लुगदी साहित्यकार ज्यादा बिकते रहे। इन रचनाकारों के उपन्यासों को बस, ट्रेन की यात्रा के दौरान बहुत पढ़ा जाता था।
प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि रेल यात्राओं का एक बड़ा फायदा उनकी जिंदगी में यह रहा है कि इसी दौरान उन्होंने कई अहम किताबें पढ़ लीं। रेल यात्रियों के मनोरंजन में किताबों की जो भूमिका रही है, उसमें एक बड़ा हाथ एएच ह्वीलर बुक कंपनी और सर्वोदय पुस्तक भंडार जैसे स्टॉल का भी रहा। दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों में पढ़ने का रुझान पैदा किया तथा जिस लुगदी साहित्य ने पाठकों को गंभीर अर्थात् समीक्षकों एवं आलोचकों द्वारा जांचे-परखे गए साहित्य की ओर प्रेरित किया उस लुगदी साहित्य को कभी भी समीक्षकों एवं आलोचकों ने नहीं स्वीकारा। इसके विपरीत उसे तुच्छ़, हेय और घटिया साहित्य माना गया। हिन्दी साहित्य के किसी भी मानक साहित्यकार की पुस्तकों की तुलना में लुगदी कागज पर छपने वाले वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास लाखों की संख्या में छपते रहे हैं। कम मूल्य में अधिक पृष्ठों वाली यह रोचक पुस्तकें पाठकों को सहज आकर्षित करती थीं।
ओमप्रकाश शर्मा के उपन्यासों ने भी पाठकों को वर्षों तक अपने आकर्षण में बांधे रखा। एस सी बेदी के उपन्यास समाज में घटित होने वाले अपराधों का सुन्दर विश्लेषण करते थे। इनमें अपराध के दुष्परिणामों की भी व्याख्या विस्तृत रूप से की जाती थी।
ये उपन्यास आर्थिक दृष्टि से पाठकों के लिए ‘बटुआ फ्रेण्डली’ होते थे। ये किराए पर उपलब्ध रहते थे, आधे और चौथाई मूल्य में भी खरीदे-बेचे जाते थे।
लुगदी साहित्य को हिन्दी साहित्य से अलग अथवा उपेक्षित रखा जाता रहा जबकि इस साहित्य की भी सदा अपनी विशिष्ट उपादेयता रही है और इस विशिष्ट उपादेयता को भुलाया नहीं किया जा सकता है।