सोमवार, दिसंबर 10, 2018

सागर पाठक मंच में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ शरद सिंह ने 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' उपन्यास की विशेषताओं पर प्रकाश डाला

 
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

दिनांक 09.12.2018 को साहित्य अकादेमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद भोपाल के स्थानीय उपक्रम सागर पाठक मंच के तत्वाधान में उपन्यासकार सूर्यनाथ सिंह के उपन्यास "नींद क्यों रात भर नहीं आती" पर चर्चा-गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में मैंने उपन्यास की विशेषताओं पर प्रकाश डाला।  मैंने कहा कि-‘‘ पारम्परिक किस्सागोई की उम्दा मिसाल है सूर्यनाथ का उपन्यास। एक कहानी में एक से अधिक कहानियों का जुड़ते जाना किस्सागोई शैली की खूबी है। जब इस शैली का प्रयोग उपन्यास में किया जाता है तो जोखिम बढ़ जाते हैं।  सूर्यनाथ सिंह ने अपने उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' में इस जोखिम को उठाते हुए किस्सागोई शैली का बेहतरीन प्रयोग किया है। यही इस उपन्यास की विशेषता भी है। लेखक की अन्वेषक दृष्टि से प्रस्तुत कहानियों ने उपन्यास की समसामायिकता को जिस ढंग से उभारा है, वह उल्लेखनीय है। उपन्यास लेखन में नए प्रयोग उपन्यास की महत्ता को बढ़ा देते हैं।’’ 
  आयोजन का आरम्भ हुआ मेरी दीदी डॉ वर्षा सिंह की सस्वर सरस्वती वंदना से, तदोपरांत पाठकमंच सागर इकाई के संयोजक श्री उमाकांत मिश्र जी के कुशल संचालन में समीक्षा आलेखों का वाचन किया गया। 🏵️ मुझे मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार साझा करने का आत्मीय अवसर देने हेतु हार्दिक धन्यवाद सागर पाठक मंच एवं बड़े भाई उमाकांत मिश्र जी 🙏 📰आज समाचारपत्रों ने आयोजन को जिस प्रमुखता से स्थान दिया है उसके लिए मैं सागर मीडिया की हृदय से आभारी हूं 🙏
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as a Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as a Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest and Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

Dr Varsha Singh as Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018
Dr Sharad Singh as Chief Guest at Sagar Pathak Manch on the Novel of Suryanath Singh - 09.12.2018

मंगलवार, दिसंबर 04, 2018

लोक कथाओं का महत्व - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह


Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03 2017
लोक कथाओं का महत्व 
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

(‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ तथा ‘खजुराहो की मूर्तिकला में सौंदर्यात्मक तत्व’ आदि विभिन्न विषयों पर पचास से अधिक पुस्तकों की लेखिका, इतिहासविद्, साहित्यकार।)
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व्याख्यान की संक्षेपिका :
 किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र की संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति में भाषा, बोली आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोकविश्वास,जनजीवन की परम्पराएं एवं लोकाचार निबद्ध रहते हैं।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उसे अन्य भाषाओं से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। पहले बोली एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती थी किन्तु धीरे-धीरे सीमित क्षेत्र के निवासियों के असीमित फैलाव ने बोली को भी असीमित विस्तार दे दिया है। इसलिए आज बोली का महत्व मात्र उसके क्षेत्र विशेष से जुड़ा न हो कर पूरी तरह से जातीय गुणों एवं जातीय गरिमा से जुड़ गया है। 
Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03. 2017

प्रत्येक लोकभाषा का अपना अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोक गीतों, मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है।
 किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोकसमुदायों में लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है, वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत, प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस
ग्रंथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
         कर्नल टॉड के
ग्रंथ के बाद कुछ और ग्रंथ आए जिनमें भारतीय लोककथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध’, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में क्षेत्रीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक ग्रंथों में क्षेत्रीय लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया। 
Adivasi - Bharat ke Adivasi Kshetron ki Lok Kathayen - Book of Dr Sharad Singh .
उदाहरण के लिए यदि कोई लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने जाता है और वहां उसका सामना शेर से हो जाता है, तो अपने प्राण बचा कर गांव लौटने पर वह शेर के खतरे को इस उद्देश्य से बढ़ा-चढ़ा कर कहेगा कि जिससे जंगल में जाने वाले अन्य व्यक्ति सावधान और सतर्क रहें। शेर से सामना होने तथा शेर के प्रति भय का संचरण होने पर सहज भाव से किस्सागोई आरम्भ हो जाती है। यह स्थापित किया जाने लगता है कि अमुक समय में अमुक गांव के अमुक व्यक्ति को इससे भी बड़ा और भयानक शेर मिला था। जिसे उस व्यक्ति ने अपनी चतुराई से मार भगाया था। वनों के निकट बसे हुए ग्राम्य जीवन में इस प्रकार की कथाओं का चलन निराशा में आशा का , भय में निर्भयता का और हताशा में उत्साह का संचार करता है।
    वस्तुतः लोककथा वह कथा है जो लोक द्वारा लोक के लिए लोक से कही जाती है।    इसका स्वरूप वाचिक होता है। इसमें वक्ता और श्रोता  अनिवार्य तत्व होते हैं। वक्ता एक होता है किन्तु श्रोता एक से अनेक हो सकते हैं। इन कथाओं को गांव की चौपालों, नीम या वटवृक्ष के नीचे बने हुए चबूतरों पर, घर के आंगन में चारपरई पर लेटे हुए अथवा अलाव को धेर कर बैठे हुए कहा-सुना जाता है। ‘कथा’ शब्द का अर्थ ही यही है कि ‘जो कही जाए’। जब कथा कही जाएगी तो श्रोता की उपस्थिति स्वतः अनिवार्य हो जाती है। लोककथा को कहे और सुने जाने के मध्य ‘हुंकारू’ की अहम भूमिका होती है। ‘हुंकारू’ कथा सुनते हुए श्रोता द्वारा ‘हूं’-‘हूं’ की ध्वनि निकालने की प्रक्रिया होती है। जिसके माध्यम से श्रोता द्वारा यह जताया जाता है कि  वह सजग है और चैतन्य हो कर कथा सुन रहा है। साथ ही  कथा में उसकी उत्सुकता बनी हुई है। इस ‘हुंकारू’ से कथा कहने वाले को भी उत्साह मिलता रहता है। उसे भी पता चलता रहता है कि श्रोता उसकी कथा में  रुचि ले रहा है, चैतन्य हो कर सुन रहा है, सजग है तथा कथा में आगे कौन -सा घटनाक्रम आने वाला है इसके प्रति उत्सुक है। लोककथा की भाषा लोकभाषा और शैली प्रायः इतिवृत्तात्मक होती है।

Books of Dr Sharad Singh on Indian Tribal Life & Culture
लोककथाओं के प्रकार :
लोककथाओं में विषय की पर्याप्त विविधता होती है। इन कथाओं के विषय को देश, काल परिस्थिति के साथ ही कल्पनाशीलता से विस्तार मिलता है। लोककथाओं के भी विषयगत कई प्रकार हैं-
1. साहसिक लोककथाएं - इस प्रकार की कथाओं में नायक अथवा नायिका के साहसिक अभियानों का विवरण रहता है।
2. मनोरंजनपरक लोककथाएं- इन कथाओं में हास्य का पुट समाहित रहता है।
3. नीतिपरक लोककथाएं- वे कथाएं जो जीवन सही ढंग से जीने की शिक्षा देती हैं ,
4. कर्मफलक एवं भाग्यपरक लोककथाएं- इन कहानियों में कर्म की प्रधानता अथवा कर्म के महत्व को स्थापित किया जाता है। , 
5. मूल्यपरक लोककथाएं- जीवन में मानवीय मूल्यों के महत्व को स्थापित करती हैं।
6. अटका लोककथाएं- वे लोककथाएं जिसमें एक पात्र किसी रहस्य के बारे में जिज्ञासा प्रकट करता और दूसरा पात्र रहस्य को सुलझा कर उसकी जिज्ञासा शांत करता। 
7. धार्मिक लोककथाएं- लोकजीवन में धार्मिक मूल्यों के महत्व को रेखांकित करती है।

लोककथा और मानवमूल्य :
मानव जीवन को मूल्यवान बनाने की क्षमता रखने वाले गुणों को मानव मूल्य कहा जाता है। आज मूल्य शब्द का प्रयोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से व्यवहार के लिए होने लगा है। मूल्य शाश्वत व्यवहार है। इसका निर्माण मानव के साथ-साथ हुआ है। यदि इसका अंत होगा तो फिर सभ्यता के साथ मानवता भी समाप्त हो जायेगी। ‘मूल्य’ उन्हीं व्यवहारों को कहा जाता है जिनमें मानव जीवन का हित समाविष्ट हो, जिनकी रक्षा करना समाज अपना सर्वाच्च कर्त्तव्य मानता है। मूल्य परम्परा का प्राण तत्त्व है। ये जीवन के आदर्श एवं सर्वसम्मत सिद्धान्त होते हैं। मूल्यों को अपनाकर जाति, धर्म और समाज को, मानव जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता है।
मूल्य सामाजिक मान्यताओं के साथ बदलते भी रहते हैं, किन्तु उनमें अन्तर्निहित मंगल कामना और सार्वजनिक हित की भावना कभी तिरोहित नहीं होती। नए परिवेश में जब पुरानी मान्यताएं कालातीत हो जाती हैं तो समाज नयी मान्यताओं को स्वीकार कर लेता है और वे ही मान्यताएं ‘मूल्य’  बन जाती हैं। पुरातन काल में जीवन मूल्यों के रूप में श्रद्धा, आस्था, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को स्वीकार किया गया है। वहीं नवीन मूल्यों में सत्य, अहिंसा, सहअस्तित्व, सहानुभूति, करुणा, दया आदि आते हैं।
लोक कथाएं मानव मूल्यों पर ही आधारित होती हैं और उनमें मानव-जीवन के साथ ही उन सभी तत्वों का विमर्श मौजूद रहता है जो इस सृष्टि के आधारभूत तत्व हैं और जो मानव-जीवन की उपस्थिति को निर्धारित करते हैं। जैसे- जल, थल, वायु, समस्त प्रकार की वनस्पति, समस्त प्रकार के जीव-जन्तु आदि।
लोक कथाओं में मानव मूल्य को जांचने के लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जा सकता है कि -
1.    लोक कथाएं संस्कृति की संवाहक होती हैं।
2.    लोक कथाओं की अभिव्यक्ति एवं प्रवाह मूल रूप से वाचिक होती है।
3.    इसका प्रवाह कालजयी होता है यानी यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
   प्रवाहित होती रहती है।
4.    सामाजिक संबंधों के कारण लोककथाओं का एक स्थान से दूसरे
   स्थान तक विस्तार होता जाता है।
5.    एक स्थान में प्रचलित लोक कथा स्थानीय प्रभावों के सहित दूसरे
   स्थान पर भी कही-सुनी जाती है।
6.    लोकथाओं का भाषिक स्वरूप स्थानीय बोली का होता है।
7.    इसमें लोकोत्तियों एवं मुहावरों का भी खुल कर प्रयोग होता है जो स्थानीय अथवा आंचलिक रूप में होते हैं।
8.    कई बार लोक कथाएं कहावतों की व्याख्या करती हैं। जैसे सौंर कथा है-‘ आम के बियाओं में सगौना फूलो’।
9.    लोक कथाओं में जनरुचि के सभी बिन्दुओं का समावेश रहता है।
10.    इन कथाओं में स्त्री या पुरुष के बुद्धिमान या शक्तिवान होने के विभाजन जैसी कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है। कोई कथा नायक प्रधान हो सकती है तो कोई नायिका प्रधान।
11.    विशेष रूप से बुंदेली लोक कथाओं में नायिका का अति सुन्दर होना या आर्थिक रूप से सम्पन्न होना पहली शर्त नहीं है। एक मामूली लड़की से  ले कर एक मेंढकी तक कथा की नायिका हो सकती है और एक दासी भी रानी पर भारी पड़ सकती है।
12.    लोक कथाओं का मूल उद्देश्य लोकमंगल हेतु रास्ता दिखाना और ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना होता है जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को महत्व मिल सके।
13.    कथ्य में स्पष्टता होती है। जो कहना होता है, वह सीधे-सीधे कहा जाता है, घुमा-फिरा कर नहीं।
14.    उद्देष्य की स्पष्टता भी लोक कथाओं की अपनी मौलिक विशिष्टता है। सच्चे और ईमानदार की जीत स्थापित करना इन कथाओं का मूल उद्देष्य होता है, चाहे वह मनुष्य की जीत हो, पशु-पक्षी की या फिर बुरे भूत-प्रेत पर अच्छे भूत-प्रेत की विजय हो।
15.    असत् सदा पराजित होता है और सत् सदा विजयी होता है।
16.    आसुरी शक्तियां मनुष्य को परेशान करती हैं, मनुष्य अपने साहस के बल पर उन पर विजय प्राप्त करता है। वह साहसी व्यक्ति शस्त्रधारी राजा या सिपाही हो यह जरूरी नहीं है, वह गरीब लकड़हारा या कोई विकलांग व्यक्ति भी हो सकता है।
17.    जो मनुष्य साहसी होता है, बड़ा देव उसकी सहायता करते हैं।
18. लगभग प्रत्येक गांव में एक न एक ऐसा विद्वान होता है जिसके पास सभी प्रश्नों और जिज्ञासाओं के सटीक उत्तर होते हैं। यह ‘सयाना’ कथा का महत्वपूर्ण पात्र होता है।
एक वाक्य में कहा जाए तो लोक कथाएं हमें आत्म सम्मान, साहस और पारस्परिक सद्भावना के साथ जीवन जीने का तरीका सिखाती हैं।
लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन कभी नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है। इसीलिए इन कथाओं में भूत-प्रेत के भय की कल्पना और विभिन्न प्रकार के मिथक विद्यमान हैं जिससे मनुष्य ऐसे कार्य न करे जिससे उसे किसी भी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। इसे मनुष्यता के विरुद्ध कार्य करने वालों के लिए लोकचेतना का आग्रह कहा जा सकता है।
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Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar on Tribal Literature held on 03.03.2017


शुक्रवार, नवंबर 30, 2018

कहानियां यूं ही नहीं बनतीं - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh as a Speaker at National Seminar of Dr Harisingh Gour Central University Sagar M.P. on Tribal Literature held on 03.03. 2017
"कहानियां यूं ही नहीं बनतीं। एक या एक से अधिक व्यक्ति, कोई विशेष घटना और उस घटना से जुड़े नाना प्रकार के विचार परस्पर मिल कर जिस कथावस्तु को गढ़ते हैं, उसी का परिष्कृत, संस्कारित रूप कहानी में ढल कर सामने आता है। कहानी अपना लेखक अथवा वाचक स्वयं चुनती है। लेखक को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उसने कथानक को चुना है। उसके आस-पास तो ढेरों कथानक होते हैं लेकिन वह तो एक समय पर किसी एक को ही अपना पाता है। यही तो खूबी है कहानी की।" 
- डॉ. शरद सिंह 
(डॉ. हरी सिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर, मध्यप्रदेश में लोककथाओं पर सेमिनार में )

शुक्रवार, नवंबर 16, 2018

संस्मरण - 2 .. नानाजी, मां और भय की लाठी - डॉ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Book Author and Social Worker
मेरे नाना संत श्यामचरण सिंह हेडमास्टर रहे थे। यद्यपि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय होने के लिए मेरे जन्म से बहुत पहले ही नौकरी से तयागपत्र दे दिया था। उन्हें मोतियाबिंद था इसलिए वे ठीक से देख नहीं पाते थे किन्तु बिना देखे ही वे मुझे और मेरी दीदी वर्षा सिंह को गणित, अंग्रेजी आदि विषय पढ़ाया करते थे। स्वभाव से वे गुस्सैल थे। यदि मैं सवाल ठीक से हल नहीं कर पाती तो उन्हें बहुत गुस्सा आता। वैसे वे हम बहनों को कभी मारते थे नहीं थे। उनका मानना था कि लड़कियों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। फिर भी हमें, विशेरूप रूप से मुझे हमेशा यह भय बना रहता था कि मुझे ठीक से पढ़ाई करने पर नानाजी बहुत मारेंगे। मुझे उनकी मार कभी नहीं पड़ी लेकिन उनके भय की लाठी हमेशा मेरी आंखों के सामने खड़ी रही।
हम दोनों बहनें नानाजी की लाड़ली थीं। वे हमसे प्रेम भी बहुत करते थे। पढ़ाई के मामले को छोड़ दिया जाए तो उनसे हमें कभी डर नहीं लगता था। वैसे मुझे एक घटना याद है कि मैं अपनी मां डॉ विद्यावती के साथ बल्देवजी के मंदिर गई।
Baldev Tempal, Panna MP, India, Photo by Dr Sharad Singh
 बल्देवजी का प्रसिद्ध मंदिर मध्यप्रदेश के पन्ना जिला मुख्यालय में है। पन्ना मेरी जन्मस्थली है। हां तो, उस समय मैं शायद दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। मंदिर से लौटते समय मैंने मां से कुछ खरीदने की ज़िद की (सामान का स्मरण मुझे नहीं है, कोई मिठाई या खिलौना रहा होगा)। उन्होंने मना कर दिया। मैंने गुस्से में आ कर उनकी चोटी खींच दी। मां ने मेरी इस हरकत पर गुस्सा हो कर मुझे धमकाया कि वे घर पहुंच कर नानाजी से शिक़ायत करेंगी। 
Sant Shyam Charan Singh

घर पहुंचते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। मैं जा कर पलंग के नीचे छिप गई। मुझे लगा कि अब मां नानाजी से शिक़ायत करेंगी और मुझे मार पड़ कर रहेगी। लगभग आधा घंटा मैं वहां छिपी रही। फिर मां ने ही मुझे पुकारा-‘‘पलंग के नीचे से निकल आ, तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा!’’
यानी मां ने मुझे पलंग के नीचे छिपते हुए देख लिया था और यही मेरी सज़ा साबित हुई कि मैं आधा घंटा पलंग के नीचे छिपी रही।
Dr Varsha Singh with her mother Dr Vidyawati Malvika
उस दिन के बाद से मैंने कभी भी मां से कोई सामान खरीदने की ज़िद नहीं की। सिर्फ़ दबे शब्दों में इच्छा ज़ाहिर करती और यदि मांग पूरी करने लायक होती तो मां अवश्य पूरी करतीं। यूं भी उन्होंने हम दोनों बहनों को कभी कोई अभाव महसूस नहीं होने दिया। एकल मातृत्व की मिसाल बन कर हम दोनों बहनों को पाला, पढ़ा
या-लिखाया।


संस्मरण - 1 .. सच कहते थे नाना जी - डॉ शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Book Author and Social Worker
मेरे नाना ठाकुर संत श्यामचरण सिंह के कारण मुझे बचपन से अख़बार पढ़ने की आदत पड़ी। सच कहा जाए तो मैंने स्कूल की किताबें पढ़ना बाद में सीखा और अख़बार पढ़ना पहले सीख लिया था। कारण यह था कि मेरे नाना जी को मोतियाबिंद हो गया था। वे स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी थे। पक्के गांधीवादी।
Dr Sharad Singh's Grandfather Freedom Fighter Thakur Sant Shyam Charan Singh
 आजादी की लड़ाई की धुन में उन्होंने खुद की सेहत पर ध्यान ही नहीं दिया और असमय मोतियाबिंद की चपेट में आ गए। उन दिनों मोतियाबिंद का ऑपरेशन कराना जोखिम भरा माना जाता था। लिहाजा रोग बढ़ता गया और नानाजी को दिखाई देना कम हो गया। लेकिन समाचारों के मामले में वे हमेशा जागरुक रहते थे। सवेरे से अख़बार पढ़ना उनकी आदत थी किन्तु जब से दृष्टि कमज़ोर हुई, मेरी और मेरी दीदी वर्षा सिंह की यह ड्यूटी थी कि उन्हें अख़बार पढ़ कर सुनाया करें। 
उन दिनों मुझे समाचारों की तो समझ थी नहीं लेकिन अख़बार पढ़ कर सुनाना एक विशेष काम लगता था। बड़ा मज़ा आता था उस समय जब मेरी सहेलियां पूछतीं कि तुम सुबह क्या करती हो? और मैं गर्व से कहती मैं अख़बार पढ़ती हूं। पढ़ कर सुनाने वाली बात गोलमाल रहती। मेरी सहेलियां मुंह बाए मेरी ओर ताकती रह जातीं। 
Daink Aaj News Paper
उन दिनों हमारे घर वाराणसी से प्रकाशित होने वाला दैनिक ‘आज’ समाचार पत्र डाक द्वारा आया करता था। पोस्टमेन की कृपा से कभी-कभी नागा हो जाता और फिर चार अंक इकट्ठे आ जाते। फिर भी उन दिनों रेडियो के अलावा अख़बार ही समाचार के माध्यम होते थे, इसलिए बासी अख़बार भी ताज़ा ही रहता। नाना जी बड़े चाव से सुनते और जब कोई परिचित घर आता तो उससे समाचारों के बारे में चर्चा-परिचर्चा करते।
मैंने बचपन में दैनिक ‘आज’ में गाजापट्टी की समस्या के बारे में पढ़ा था। उस समय मुझे रत्तीभर पता नहीं था कि ये गाजापट्टी है कहां। आज सोचती हूं तो लगता कि हे भगवान ये समस्या तो वर्षों पुरानी है! इसी तरह के कई राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे आज इसीलिए चौंकाते हैं कि जिस समस्या के बारे में मैंने अपने बचपन में पढ़ा था, वह आ तक बरकरार है। हम इंसान समस्याओं को शायद ख़त्म ही नहीं करना चाहते हैं।
नानाजी कहा करते थे-‘‘लड़ाई-झगड़े से कोई हल नहीं निकलता, यदि निकलता होता तो महात्मा गांधी अहिंसा का रास्ता नहीं चुनते। वे जानते थे कि शांति से निकाला गया हल स्थायी रहता है।’’
सच कहते थे नाना जी!!!


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शनिवार, अक्तूबर 06, 2018

रामकथा की वैश्विक सत्ता में निहित उसकी मूल्यवत्ता - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Historian and Social Worker
शोध-आलेख

रामकथा की वैश्विक सत्ता में निहित उसकी मूल्यवत्ता
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

(
लेखिका सागर, म.प्र. निवासी ‘प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास’ तथा ‘खजुराहो की मूर्तिकला में सौंदर्यात्मक तत्व’ आदि विभिन्न विषयों पर पचास पुस्तकों की लेखिका, इतिहासविद्,साहित्यकार।)                                 
विशेष : यह लेख उस वक्तव्य का आलेख रूप है जो ‘‘वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा’’ विषय पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में डॉ (सुश्री) शरद सिंह द्वारा अपने अतिथि-व्याख्यान में अप्रैल 2018 में शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गढ़ाकोटा (मध्यप्रदेश) में बोला गया था। सेमिनार के उपरांत महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ घनश्याम भारती द्वारा संपादित सेमिनार पर केन्द्रित पुस्तक ‘‘वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा’’ में इसे संग्रहीत किया गया। 
Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar (MP) - 23.04.2018
रामकथा को वैश्विक स्तर पर जो प्रतिष्ठा और लोकप्रियता मिली है वह इसकी मूल्यवत्ता को स्वतः सिद्ध करती है। विश्व-इतिहास और विश्व-साहित्य में राम के समान अन्य कोई पात्र कभी नहीं रहा। रामकथा की अपनी एक वैश्विक सत्ता है, अपनी एक अलग पहचान है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि  रामकथा मात्र एक कथा नहीं वरन् जीवन जीने की सार्वभौमिक शैली है। इसमें मानवीय पारिवारिक संबंधों से ले कर जड़ एवं चेतन के पारस्परिक संबंधों की भी समुचित व्याख्या की गई है। रामकथा की यह भी विशेषता है कि इस पृथ्वी का कोई ऐसा तत्व नहीं है जो प्राणिरूप में इसमें समावेशित नहीं किया गया हो। प्राणहीन पाषाण अहिल्या के रूप में जीवन्त हो उठता है तो मृतकों की देह को खाने वाला गिद्ध पक्षी जटायु के रूप में श्रीराम और सीता की सहायता में दौड़ पड़ता है। समुद्र संवाद करता है तो जगत में उद्दण्ड प्राणि के रूप में पहचाने जाने वाले वानर रूपी बालि और सुग्रीव के रूप में न केवल शासनकर्त्ता के रूप में मिलते हैं वरन् समुद्र पर सेतु बांधने का अनुशासित कार्य भी करते दिखते हैं। स्त्री और पुरुष के इतने विविध रूप इस कथा में हैं जो किसी अन्य कथा में देखने को नहीं मिलते हैं।  यह एक ऐसी कथा है जिसमें श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम, आदर्श राजा, आज्ञाकारी पुत्र और आदर्श पति होने के साथ ही महान योद्धा भी हैं। वे धैर्यवान हैं तो भावुक भी हैं। राम एक ऐसे चरित्र हैं जिनकी दृष्टि में कोई छोटा या बड़ा नहीं है, कोई अस्पृश्य नहीं है और न ही कोई उपेक्षित है। रामकथा में श्रीराम के द्वारा अधर्म पर धर्म की और असत्य पर सत्य की विजय की जिस प्रकार स्थापना की गई है उससे समूचा विश्व प्रभावित होता आया है। 
Dr Sharad Singh In International Conference 23.04.2018

वाल्मीकि रचित रामायण अतिरिक्त भारत में जो अन्य रामायण लोकप्रिय हैं, उनमें ‘अध्यात्म रामायण’, ‘आनन्द रामायण’, ‘अद्भुत रामायण’, तथा तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। वाल्मीकिकृत रामायण के उपरान्त रामकथा में दूसरा प्राचीन ग्रन्थ है ‘अध्यात्म रामायण’। वाल्मीकि में जहां हमें मानवीय तत्व अधिक दिखाई देता है, वहीं ‘अध्यात्म रामायण’ में राम का ईश्वरीय तत्व सामने आता है। इसीलिए ‘आध्यात्म रामायण’ को विद्वानों द्वारा ‘ब्रह्मांड-पुराण’ के उत्तर-खंड के रूप में भी स्वीकारा किया गया है। वहीं, ‘आनन्द रामायण’ में भक्ति की प्रधानता है। इसमें राम की विभिन्न लीलाओं तथा उपासना सम्बन्धी अनुष्ठानों की विशेष चर्चा है। ‘अद्भुत रामायण’ में रामकथा के कुछ नए कथा-प्रसंग मिलते हैं। इसमें सीता माता की महत्ता विशेष रूप में प्रस्तुत की गयी है। उन्हें ‘आदिशक्ति और आदिमाया’ बतलाया गया है, जिसकी स्तुति स्वयं राम भी सहस्रनाम स्तोत्र द्वारा करते हैं। लोकभाषा में होने के कारण तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ की लोकप्रियता आधुनिक समाज में सर्वाधिक है। इसने रामकथा को जनसाधारण में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। इसमें भक्ति-भाव की प्रधानता है तथा राम का ईश्वरीय रूप अपनी समग्रता के साथ सामने आया है। वस्तुतः ‘रामचरित मानस’ उत्तर भारत में रामलीलाओं के मंचन का आधार बनी।
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रामकथा ने भारतीय मात्र भू-भाग पर ही राज नहीं किया अपितु भारत की सीमाओं को लांघती हुई उसने विदेशों में भी अपनी सत्ता स्थापित की। राजनीतिक सत्ता को परिवर्तन यानी तख़्तापलट का भय होता है किन्तु ज्ञान की सत्ता को चिरस्थायी होती है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता। इसीलिए जिन देशों में धार्मिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हुए तथा भीषण रक्तपात हुए वहां भी रामकथा ने अपना प्रभाव सतत बनाए रखा। प्राचीन भारत और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में आर्य संस्कृति तथा उसके साथ रामकथा का जो प्रचार-प्रसार हुआ, वह आज भी यथावत स्थित है। युग, परिस्थिति और धर्म परिवर्तन के बावजूद विभिन्न क्षेत्रों में रामकथा के प्रभाव में कोई कमी नहीं आयी है। इसके विपरीत उसमें वृद्धि ही हुई है। मुस्लिम बहुल इंडोनेशिया में तो रामायण को राष्ट्रीय पवित्र पुस्तक का गौरव प्राप्त है। भारत के न्यायालयों में जो स्थान ‘भगवद्गीता’ को प्राप्त है, इंडोनेशिया में वहीं स्थान ‘रामायण’ को मिला हुआ है। वहां ‘रामायण’ पर हाथ रखकर सत्यता की शपथ ली जाती है। इंडोनेशिया में प्रचलित रामकथा के ग्रन्थ का नाम है ‘काकाविन रामायण’। इसमें 26 सर्ग तथा 2778 पद हैं। ‘काकाविन रामायण’ के आधार पर इंडोनेशिया में राम की अनेक प्राचीन प्रतिमाएं मिलती हैं।
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एशिया के अनेक देशों में रामकथा प्रचलित है जिसमें वहां की जीवन, धर्म, संस्कृति की दलग ही छाप है। जिसके कारण रामकथा को एक वैश्वि स्वरूप मिला है। जिन देशों में लगभग सौ वर्ष से भी पहले पहले राम-कथा पहुंची, उसमें चीन, तिब्बत, जापान, इण्डोनेशिया, थाईलैंड, लाओस, मलेशिया, कम्बोडिया, श्रीलंका, फिलीपिन्स, म्यानमार, रूस आदि देश प्रमुख हैं।
जापान में 12वीं शताब्दी में रचित ‘होबुत्सुशु’ नामक ग्रन्थ में रामायण की कथा जापानी में मिलती है। लेकिन ऐसे प्रकरण भी हैं, जिनसे कहा जा सकता है कि जापानी इससे पूर्व भी राम-कथा से परिचित थे। वैसे आधुनिक अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ कि विगत एक हजार वर्ष से प्रचलित ‘दोरागाकु’ नाट्य-नृत्य शैली में राम-कथा मिलती है। 10 वीं शताब्दी में रचे ग्रन्थ ‘साम्बो-ए-कोताबा’ में दशरथ और श्रवणकुमार का प्रसंग मिलता है। ‘होबुत्सुशु’ की राम-कथा और ‘रामायण’ की कथा में भिन्न है। जापानी कथा में शाक्य मुनि के वनगमन का कारण निरर्थक रक्तपात को रोकना है। वहां लक्ष्मण साथ नहीं है, केवल सीता ही उनके साथ जाती है। सीता-हरण में स्वर्ण-मृग का प्रसंग नहीं है, अपितु रावण योगी के रूप में राम का विश्वास जीतकर उनकी अनुपस्थिति में सीता को उठाकर ले जाता है। रावण को ड्रैगन (सर्पराज)-के रूप में चित्रित किया गया है, जो चीनी प्रभाव है। यहां हनुमान के रूप में शक्र (इन्द्र) हैं और वही समुद्र पर सेतु-निर्माण करते हैं। कथा का अन्त भी मूल राम-कथा से भिन्न है।
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इंडोनेशिया में बाली का हिंदू और जावा-सुमात्रा के मुस्लिम, दोनों ही राम को अपना नायक मानते हैं। जाकार्ता से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित प्राम्बनन का मंदिर इस बात का साक्षी है, जिसकी प्रस्तर भित्तियों पर संपूर्ण रामकथा उत्कीर्ण है।
थाईलैंड में रामकथा को इस तरह आत्मसात किया गया कि उन्हें धीरे-धीरे यह लगने लगा कि राम-कथा की सृजन उनके ही देश में हुआ था। वहां जब भी नया शासक राजसिंहासन पर आरूढ़ होता है, वह उन वाक्यों को दोहराता है, जो राम ने विभीषण के राजतिलक के अवसर पर कहे थे।  यह मान्यता है कि वहां राम के छोटे पुत्र कुश के वंशज सम्राट “भूमिबल अतुल्य तेज” राज्य कर रहे हैं, जिन्हें नौवां राम कहा जाता है। थाईलैंड में “अजुधिया” “लवपुरी” और “जनकपुर” जैसे नाम वाले शहर हैं। सन् 1340 ई. में राम खरांग नामक राजा के पौत्र थिवोड ने राजधानी सुखोथाई (सुखस्थली) को छोड़कर ‘अयुधिया’ अथवा ‘अयुत्थय’ (अयोध्या) की स्थापना की थी। उल्लेखनीय है कि राम खरांग के पश्चात् राम प्रथम, राम द्वितीय के क्रम में नौ शासकों के नाम राम-शब्द की उपाधि से विभूषित रहे। थाईलैंड में रामकथा पर आधारित ग्रंथ ‘रामकियेन’ है। ‘रामकियेन’ का अर्थ होता है राम की कीर्ति। भारतीय ‘रामलीला’ की भांति ‘रामकियेन’ नाट्यरूप में भी लोकप्रिय है। 
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म्यांमार में प्रथम रचना सत्राहवीं शताब्दी की ‘रामवस्तु’ के रूप में मिलती है और इसमें राम कथा को बौद्ध जातक कथाओं की भांति प्रस्तुत किया गया है। इसके नायक बोधिसत्व राम हैं, जो कि तुषित स्वर्ग से देवताओं की प्रार्थना पर अवतरित हुए हैं। दूसरी रचना ‘महाराम’ है, जिसका रचनाकाल अठारहवीं शताब्दी के अन्त अथवा उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ माना जाता है। यह कृति भी गद्य में है। तीसरी प्रमुख कृति है ‘राम-तोन्मयो’। जो 1904 ईं. में साया-हत्वे द्वारा लिखी गई। इन कृतियों के अतिरिक्त रामकथा पर आधारित जो ग्रंथ मिलते हैं वे हैं- ‘राम-ताज्यी’, ‘राम-भगना’, ‘राम-तात्यो’, ‘थिरी राम’, ‘पोन्तव राम’ तथा ‘पोन्तव राम-लखन’। इसके अतिरिक्त म्यानमार में 1767 ई. से थामाप्वे नामक रामलीला भी खेली जाती है।
Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha

कम्बोडिया यानी वर्तमान कम्पूचिया में पहली शताब्दी से ही रामकथा की लोकप्रियता के प्रमाण मिलते हैं। ‘रामकेर’ या ‘रामकेर्ति’ कम्बोडिया का अत्यधिक लोकप्रिय महाकाव्य है, जिसने यहां की कला, संस्कृति, साहित्य को प्रभावित किया है। छठी सातवीं शताब्दी के मंदिरों तथा शिलालेखों में रामकथा से संबंधित विवरण मिलते हैं। कम्बोडिया में आज भी यह रामकथा सत्य एवं न्याय की विजय की प्रतीत मानी जाती है। कम्बोडिया में राम के महत्व का जीता-जागता सबूत है अंगकोरवाट, जो दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहां बुद्ध शिव, विष्णु, राम आदि सभी भारतीय देवों की मूर्तियां पाई जाती हैं। इसका निर्माण ग्यारहवीं शताब्दी में सूर्यवर्मन द्वितीय ने करवाया था। इस मंदिर में कई भाग हैंकृअंगकोरवाट, अंगकोर थाम, बेयोन आदि। अंगकोरवाट में रामकथा के अनेक प्रसंग दीवारों पर उत्कीर्ण हैं। जैसे सीता की अग्नि परीक्षा, अशोक वाटिका में रामदूत हनुमान का आगमन, लंका में राम-रावण युद्ध, वालि-सुग्रीव युद्ध आदि यहां की रामायण का नाम रामकेर है, जो थाई रामायण से बहुत मिलती-जुलती है।
फिलीपीन्स में रामकथा ‘महारादिया लावना’ के रूप् में लिती है जो 13वीं-14वीं शताब्दी की कृति मानी जाती है। यहां की राम-कथा में राम को मन्दिरी, लक्ष्मण को मंगवर्न, सीता को मलाइला तिहाइया कहा जाता है। फिलीपीन्स की राम-कथा में भी असत्ंय पर सत्य की विजय दिखाई गयी है। इसमें भी रावण असत का प्रतीक है जो सत्य से पराजित होता है। यद्यपि इसमें रावण की मृत्यु की कथा नहीं है।
मलेशिया में ‘मलय रामायण’ की प्राचीनतम प्रति सन् 1633 ई. में बोदलियन पुस्तकालय में संग्रहीत की गयी थी। विशेष बात यह कि यह अरबी लिपि में है और मुस्लिम देश होने पर भी वहां भारतीय संस्कृति का प्रभाव रहा है। मलेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोडते हैं। मलय रामकथा ‘हिकायत सेरी राम’ के नाम से भी मिलती है जिसमें रावण के चरित्र से लेकर रामजन्म, सीताजन्म, रामसीता विवाह, राम वनवास, सीताहरण और सीता की खोज, युद्ध, सीता त्याग तथा राम-सीता के पुनर्मिलन तक की कथा है।
लाओस लाओस में राम-कथा संगीत, नृत्य, चित्रकारी, स्थापत्य और साहित्य की धरोहर के रूप में ताड़-पत्रों पर सुरक्षित है। यहां राम-कथा ‘फालम’ और ‘पोम्पचाक’ के नाम से मिलती है। ‘फालम’ एक जातक-काव्य है जिसमें भगवान बुद्ध जेतवन में एकत्र भिक्षुओं को श्रीराम की कथा सुनाते हैं।
तिब्बत में राम-कथा ‘अनामक जातक’ तथा ‘दशरथ जातक’ के रूप में स्थापित हुई। डॉ. कामिल बुल्के के अनुसार यद्यपि तिब्बत में राम-कथा बौद्ध-कथाओं के रूप में पहुंची थी, तथापि इस पर गुणभद्र के ‘उत्तरपुराण’ तथा ‘गुणाढ्य’ की रचना में सीता रावण की पुत्री बतायी गयी है। मंगोलिया में प्रचलित रामकथा बौद्ध राम-कथाओं पर आधारित है। मंगोलिया में राम-कथा राजा जीवक की कथा है, जो आठ अध्यायों में विभक्त है। इस कथा की छः पुस्तकें लेनिनग्राद पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। श्रीलंका में राम-कथा का कोई विशेष ग्रन्थ नहीं मिलता। फिर भी कुमारदास का ‘जानकीहरण’ उल्लेखनीय है।
दुनिया के अनेक देशों में ‘रामायण’ के अनुवाद को बड़े चाव से पढ़ा जाता है। अंग्रेजी में तुलसीदासकृत रामायण का पद्यानुवाद पादरी एटकिंस ने किया जो बहुत लोकप्रिय है। फ्रांसीसी विद्वान गासां दतासी ने 1839 में रामचरित् मानस के सुंदर कांड का अनुवाद किया। फ्रांसीसी भाषा में मानस के अनुवाद की धारा पेरिस विश्विविद्यालय के श्री वादि विलन ने आगे बढाई। रूसी भाषा में मानस का अनुवाद करके अलेक्साई वारान्निकोव ने रामकथा को इस तरह आत्मसात किया कि उनकी समाधि पर मानस की अर्द्धाली ‘भलो भलाहिह पै लहै’ लिखी गई है। उनकी यह समाधि उनके गांव कापोरोव में स्थित है। चीन में वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस दोनों का पद्यानुवाद हो चुका है। इसके अलावा डच, जर्मन, स्पेनिश, जापानी आदि भाषाओं में भी रामायण के अनुवाद हुए हैं। जहां तक रामकथा पर व्यापक चिंतन का प्रश्न है तो अब तक 14 देशों में 18 से अधिक रामायण सम्मेलन हो चुके हैं। विद्वानों का यह भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य ‘इलियड’ तथा रोम के कवि नोनस की कृति ‘डायोनीशिया’ की रामकथा में अद्भुत समानता है।
सारांशतः यह बात अकाट्य रूप से कही जा सकती है कि रामकथा की वैश्विकसत्ता अद्वितीय है ओर वैश्विक जनमानस को जिस कथा ने सर्वाधिक प्रभावित किया है वह रामकथा ही है। रामकथा में जो राजनीतिक एवं सांस्कृतिक अवधारणाएं हैं वे विश्व में व्याप्त आतंकवाद एवं राजनीतिक क्लेश समाप्त कर सकती हैं यदि उन्हें आत्मसात किया जाए। सच तो यह है कि यह कालजयी कथा सच्चे अर्थों में विश्व को एक सुंदर एवं संस्कारी ग्लोबल गांव बनाने की क्षमता रखती है।
Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar - 23.04.2018
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 ‘‘वैश्विक जीवन मूल्य और रामकथा’’ शोध संग्रह में प्रकाशित लेख....
Ramkatha Ki Vaishik Satta Me Nihit Usaki Mulyavatta – Dr (Miss) Sharad Singh in the book - Vaishvik Jeevan Mulya Aur Ramkatha

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Ramkatha Ki Vaishik Satta Me Nihit Usaki Mulyavatta – Dr (Miss) Sharad Singh in the book - Vaishvik Jeevan Mulya Aur Ramkatha Book Cover
Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar (MP) - 23.04.2018

Dr Sharad Singh with Dr Shyam Sundar Dubey In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar (MP) - 23.04.2018

Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar (MP) - 23.04.2018
Dr Sharad Singh In International Conference On Ram Katha at Govt College Garhakota, Sagar (MP) - 23.04.2018