पुस्तक-समीक्षा .... जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण पुस्तक .... - डॉ शरद सिंह
पुस्तक-समीक्षा
जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण
पुस्तक
- डॉ शरद सिंह
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पुस्तक - जनकवि ईसुरी
संपादक - आनन्दप्रकाश त्रिपाठी
प्रकाशक - बुंदेली पीठ, हिन्दी विभाग,
डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)
मूल्य - 250 रुपए
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बुन्देलखण्ड में साहित्य की
समृद्ध परम्परा पाई जाती है। इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं जनकवि ईसुरी।
वे मूलतः लोककवि थे और आशु कविता के लिए सुविख्यात थे। रीति काव्य और ईसुरी के
काव्य की तुलना की जाए तो यह बात उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु युग में लोककवि ईसुरी
को बुन्देलखण्ड में जितनी ख्याति प्राप्त हुई उतनी अन्य किसी कवि को नहीं। ईसुरी
की फागें और दूसरी रचनाएं आज भी बुंदेलखंड के जन-जन में लोकप्रिय हैं। ईसुरी की
फागें लोक काव्य के रूप में जानी जाती है और लोकगीत के रूप में आज भी गाई जाती है।
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,
सागर (म.प्र.) के बुंदेली पीठ से प्रकाशित ‘जनकवि ईसुरी’ पुस्तक ईसुरी के व्यक्तित्व
एवं कृतित्व को जानने, समझने
की दिशा में महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में उपन्यास अंश एवं वैचारिक
टिप्पणियों सहित कवि ईसुरी पर केन्द्रित कुल छब्बीस लेख हैं। पुस्तक का संपादन
प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने किया है।
पुस्तक की भूमिका लिखते हुए
प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने ईसुरी के संदर्भ में जनकवि होने के अर्थ की
व्याख्या की है। प्रो. त्रिपाठी के अनुसार, ‘जनकवि के फ़जऱ् से वे (ईसुरी) कभी गाफि़ल नहीं हुए।
समाज के प्रति अपने सरोकारों को ले कर वे निरन्तर सजग रहे। किसान, स्त्री और समाज के पीडि़त
आम आदमी के लिए उनके मन में गहरी सहानुभूति और संवेदना थी। अपने अंचल की ग्राम्य
जीवन की समस्याओं, प्राकृतिक
आपदाओं, पर्यावरण
संकट, बढ़ती
आबादी पर उन्होंने चिन्ता जताई।’
जो अपनी सृजनात्मकता के
माध्यम से जन की दशा और दिशा का चिन्तन करे, विश्लेषण करे और रास्ता सुझाए, वही जन साहित्यकार हो सकता है। कवि ईसुरी इस अर्थ में सच्चे
जन कवि थे। ईसुरी का जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, वे किस प्रकार के संकटों से जूझते रहे इस पक्ष पर पुस्तक के
पहले लेख ‘ईसुरी
की जीवन यात्रा’ (नाथूराम
चैरसिया) से समुचित प्रकाश पड़ता है। इसी दिशा में लोकेन्द्र सिंह नागर का लेख ‘ईसुरी और रजऊ की खोज में’ ईसुरी और रजऊ के अस्तित्व
का अन्वेषण करता है। इसे पढ़ कर ईसुरी के देशकाल से जुड़ना आसान हो जाता है।
ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक
कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र
में मात्रा ‘रजऊ’ है, दूसरी स्त्री नहीं। ईसुरी
की कविताओं में प्रेम का जो रूप उभर कर आया है वह आध्यात्म की सीमा तक समर्पण का
भाव लिए हुए है, जहां
व्यक्ति को अपने प्रिय के सिवा कोई दूसरा दिखाई नहीं देता है और व्यक्ति उसकी हर
चेष्टा से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति नैतिक बंधनों
में पर्याप्त छूट लेने की अनुमति देती है।
यह छूट रीतिकालीन कवियों की कविताओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
ईसुरी की श्रृंगारिकता में सामान्य रूप से
कुंठाहीनता, शारीरिक
सुख की साधना, प्रेमजन्य
रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति प्रिय
के दृष्टिकोण आदि शास्त्रीय लक्षणों से
युक्त है।
ईसुरी के जीवन और सृजन पर ‘रजऊ’ नाम की स्त्री का गहरा
प्रभाव था। यद्यपि इस बात में मतभेद है कि ‘रजऊ’ उस
स्त्री का नाम था अथवा स्नेहमय सम्बोधन। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि ‘रजऊ’ के प्रति ईसुरी को अगाध
प्रेम था और उन्होंने अधिकांश काव्य रजऊ के संदर्भ में ही रचा है। ईसुरी के काव्य
में रजऊ की उपस्थिति का आकलन एवं विवेचन करने वाले लेख हैं-‘‘लोककवि ईसुरी के
प्रेमोच्छ्वास‘ (अम्बिकाप्रसाद
दिव्य), ‘ईसुरी की
फागों में रूप सौंदर्य’ (रामशंकर
द्विवेदी), ‘ईसुरी
के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश
दुबे), ‘ईसुरी के
काव्य में स्त्री’ (शरद
सिंह) तथा। इनके अतिरिक्त नर्मदा प्रसाद गुप्त का लेख ‘ईसुरी की काव्य-प्रेरणा और
रचना-प्रक्रिया’ भी
ईसुरी के व्यक्तित्व-कृतित्व को समझने में सहायक है। इ।सुरी के फाग साहित्य को
समझने की दृष्टि से यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। फागों के बारे में स्पष्ट करते हुए
लेखक ने लिखा है कि ‘पहले
यह भ्रान्ति थी कि वे लोकरचित हैं किन्तु पुनरुत्थान के फागकारों और खासतौर से
ईसुरी ने इस कुहर को साफ़ कर दिया। ...फागकार एक तो एकान्त में फागें रचता है, दूसरे सम्वाद की स्थिति
में।’
ईसुरी के काव्य में स्त्री, स्त्री उसका रूप-लावण्य, प्रेम और आध्यात्म की
अद्भुत छटा दिखाई देती है। बहादुर सिंह परमार का लेख ‘ईसुरी का समाज बोध’ तथा आनन्दप्रकाश त्रिपाठी
का लेख ‘ईसुरी की
कविता में स्त्री समाज’ ईसुरी
के सामाजिक सरोकारों पर आधारित है। ये लेख इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि ईसुरी
मात्र रीतिकालीन लक्षणों से प्रोतप्रोत कवि नहीं थे अपितु वे प्रगतिशील दृष्टि से
परिपूर्ण सामाजिक चेतना भी रखते थे। ‘ईसुरी का समाज बोध’ लेख से ज्ञात होता है कि ‘लोक कवि के मुख से समाज की विद्रूपताओं एवं लोमन की पीड़ा की
मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।’ स्त्री
समाज का अभिन्न हिस्सा है अतः ईसुरी के काव्य में स्त्री के स्वरूप को समझे बिना
ईसुरी के काव्य को समझा नहीं जा सकता है। कुछ विद्वान ईसुरी के काव्य में श्रृंगार
के अतिरेक को अश्लीलता ठहराते हैं किन्तु जैसा कि ‘ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (आनन्दप्रकाश त्रिपाठी)लेख में भी स्पष्ट किया गया है
कि श्रृंगार रस में डूबते हुए ईसुरी ने ‘रजऊ’ के
अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री को ध्यान में नहीं रखा है। उनका सारा प्रेम या प्रेमासिक्त
विवरण ‘रजऊ’ पर ही जा ठहरता है।
आननदप्रकाश त्रिपाठी लिखते हैं कि-‘वस्तुतः
ईसुरी के काव्य में नारी जीवन की बहुरंगी छवियां अंकित हैं। स्त्री समाज को
उन्होंने पूरी संवेदना और सहजता के साथ चित्रित किया है।’ वहीं ‘ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (शरद सिंह) में भी यह तथ्य
उभर कर सामने आता है कि ‘ईसुरी
को मात्र दैहिक कवि मान लेना उनके काव्य के एक पक्ष को देखने के समान है। उनके
काव्य में मिलन की तमाम आकांक्षाएं हैं किन्तु मिलन का वह विवरण नहीं है जो कई
रीतिकालीन कवियों की कविताओं में खुल कर मुखर हुआ है। ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक
कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र
में मात्र ‘रजऊ’ है, दूसरी स्त्री नहीं।’
‘ईसुरी के लोक का महाकाश’ लेख में वसंत निरगुणे ने लिखा है कि ‘मेरी दृष्टि में ईसुरी ने
रजऊ में उस विराट स्त्री के दर्शन कर लिए थे, जिसे ब्रह्मा ने पहली बार रचा था। यह ईसुरी का लोक रहा जिसमें
रजऊ बार-बार आती है और स्त्री की नई व्याख्या ईसुरी के छंद में उतरती जाती है।’
दुर्गेश दीक्षित का लेख ‘ईसुरी की आध्यात्म चेतना’ ईसुरी के काव्य के वस्तु
विषय के क्रमिक विकास और उनकी आध्यात्मिकता प्रस्तुत करता है। ‘तृप्ति के बाद विरक्ति का
क्रम शाश्वत है।’ दुर्गेश
दीक्षित का यह वाक्य ईसुरी के उसे भाव की ओर संकेत करते हैं जिनमें पहले तो कवि
अपनी ‘रजऊ’ की लौकिकता का वर्णन करते
हैं और अंततः उसे ‘नईयां
रजऊ काऊ के घर में, बिरथां
कोऊ भरमें’ कह
कर अलौकिक बना देते हैं।
पुस्तक की विशेषता यह भी है
कि इसमें ईसुरी पर विविध विधाओं की सामग्री को संग्रहीत किया गया है। ‘पर बीती नई कहत ईसुरी’ (रमाकांत श्रीवास्तव), ‘ईसुरी और उनके समकालीन
गंगाधर व्यास’ (गुणसागर
सत्यार्थ), ‘ईसुरी
के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश
दुबे), ‘पुनर्पाठ
में ईसुरी’ (श्यामसुंदर
दुबे), ‘जनकवि
ईसुरी: प्रासंगिकता के नए संदर्भ’
(कांतिकुमार जैन), उपन्यास अंश ‘कही
ईसुरी फाग’ (मैत्रेयी
पुष्पा) एवं ‘प्रेम
तपस्वी’ (अंबिकाप्रसाद
दिव्य), नाटक ‘यारौं इतनो जस कर लीजो’ (गुणसागर सत्यार्थी), कविताएं ‘ईसुरी को याद करते हुए’ (आशुतोष कुमार मिश्र) तथा
आकलनयुक्त टिप्पणियांे ने पुस्तक को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। ‘कही ईसुरी फाग’ हिन्दी की सुपरिचित लेखिका
मैत्रेयी पुष्पा का बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में ईसुरी के मानवीय स्वभाव
और चरित्र की दृष्टि से रजऊ और ईसुरी के पारस्परिक संबंध का आकलन किया गया है अतः
पुस्तक में इस उपन्यास के अंश को शामिल किया जाना आवश्यक था। इसी प्रकार ‘प्रेम तपस्वी’ उपन्यास ईसुरी के सम्पूर्ण
जीवन पर प्रकाश डालता है अतः इसके अंश का समावेश भी समीचीन है। आशुतोष कुमार मिश्र
का यह काव्यांश ईसुरी के कृतित्व को बखूबी रेखांकित करता है-
सही-सही बताना कवि
तुमने फाग लिखे हैं
कि ‘रजऊ’ के इंतज़ार के
घने वृक्ष लगाए हैं।
‘बुंदेली अध्ययन माला’ के अंतर्गत प्रकाशित जनकवि ईसुरी’ पुस्तक कवि ईसुरी के लगभग
प्रत्येक पक्ष पर गहन दृष्टि डालने वाली सामग्रियों से परिपूर्ण है तथा यह
शोधार्थियों सहित साहित्यिक अभिरुचि सभी पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक
है।
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पुस्तक-समीक्षा ... जीवट स्त्री की साहसिक आत्मकथा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
Dr (Miss) Sharad Singh, Writer |
(सोशल एक्टविस्ट एवं लेखिका रमणिका गुप्ता की आत्मकथा "आपहुदरी : एक ज़िद्दी लड़की की आत्मकथा" की मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा "आउटलुक" पत्रिका के 16-31 जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित )
रमणिका गुप्त एक जीवट महिला हैं। उन्होंने
लेखनकार्य के साथ ही मजदूरों, आदिवासियों, दलितों एवं अल्पसंख्यकों के पक्ष में
अनेक लड़ाइयां लड़ी हैं। उन्होंने अपनी आयु से कई गुना अधिक रंग देखे हैं जीवन के।
उस उम्र में जब रूमानी अनुभवों के चटख रंग अधिक आकर्षित करते हैं और छद्मवेशी बन
कर अपने शिकंजे में जकड़ने लगते हैं, किन्तु सब कुछ सुखद और अपनी मुट्ठी में लगते
हुए भी फिसलने लगता है, उस
उम्र के दौर में रमणिका गुप्त ने उन तमाम रंगों के साथ उन्मुक्तता से खेला और
साबित कर दिया कि समाज की तमाम रूढि़यों तथा पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर थोपी गई
बंदिशों के विरुद्ध वे एक ‘आपहुदरी’ अर्थात् जिद्दी की तरह अडिग खड़ी रहने
का माद्दा रखती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा को नाम दिया है-‘‘आपहुदरी: एक जि़द्दी लड़की की आत्मकथा’’।
Aaphudari |
रमणिका गुप्त की आत्मकथा की पहली कड़ी ‘हादसे’ के नाम से प्रकाशित हो चुकी है और ‘आपहुदरी’ दूसरी कड़ी है जिसमें बचपन से लेकर
धनबाद तक के अनुभवों को संजोया गया है। इस आत्मकथा में एक ऐसी स्त्री के दर्शन
होते हैं जिसका जितना सरोकार स्वयं के अस्तित्व की स्थापना से है उतना ही सराकार
दुखी-पीडि़त इंसानों के दुखों को दूर करने से भी है। एक ऐसी स्त्री जो स्वयं के
सुख की कल्पना के वशीभूत पिता से विद्रोह करके विवाह रचा सकती हैं तो धनबाद के
कोयला मज़दूरों के हित की रक्षा के लिए किसी के शयनकक्ष में पहुंच कर उसकी अंकशयनी
भी बन सकती है। यह स्त्री-जीवन का ऐसा कंट्रास्ट है जो पूरी दुनिया में विरले ही
मिलेगा।
समाज स्त्री के साथ दोहरापन अपनाता है। ‘अपनी स्त्री’ और ‘पराई स्त्री’ के लिए अलग-अलग मापदण्ड होते हैं। ‘अपनी स्त्री’ से अपेक्षा की जाती है कि वह पति अथवा
परिवार के पुरुष द्वारा निर्धारित रास्ते पर चले, बिना किसी प्रतिवाद के। जबकि ‘पराई स्त्री’ से अपेक्षा की जाती है कि वह हरसंभव
तरीके से उन्मुक्तता का जीवन जिए। यह उन्मुक्तता उसी समय तक के लिए जब तक वह ‘अपनी स्त्री’ में परिवर्तित नहीं हो जाती है। जब कोई
लेखिका आत्मकथा लिखती है तो इसी दोहरेपन की पर्तें अपने अंतिम छोर तक खुली दिखाई
देती हैं। अकसर लेखिकाओं की आत्मकथा पुरुषवादी समाज को कटघरे में ला खड़ा करती है।
स्त्री के प्रति समाजिक सोच न कल बदली थी और न पूरी तरह से आज बदली है। आज भी स्त्री
को ‘वस्तु’
और ‘भोग्या’ मानने वालों की कमी नहीं है। आज वे
औरतें जो मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं और उनकी मुक्ति देहमुक्ति से अलग नहीं हैं।
हरहाल, स्त्रियों
का प्रथम बंधन देह से प्रारम्भ होता है। यद्यपि ‘देहमुक्ति’ के विषय को ‘बोल्डनेस’ ठहरा दिया जाता है।
अपने जीवन का अक्षरशः सच लिखना बहुत कठिन होता
है, चाहे
स्त्री हो या पुरुष दोनों के लिए। इंसान अपना बेहतर पक्ष ही सबके सामने रखना चाहता
है, अपनी
कमजोरियों को नहीं। जबकि आत्मकथा की विधा जीवन के प्रत्येक सच की मांग करती है,
चाहे वह अच्छा
हो या बुरा। जब भी किसी लेखिका की आत्मकथा सामने आती है, साहित्य समाज उसके प्रति अतिरिक्त
सजगता अपना लेता है कि लेखिका ने कहीं कोई ‘ऐसी-वैसी’ बात तो नहीं लिख दी है? अपना दुख, अपनी पीड़ा ही लिखी है न, कहीं पीड़ा के कारणों का खुलासा तो
नहीं कर दिया है? लेखिका
एक स्त्री होने के साथ-साथ पुरुषों की भांति एक मनुष्य भी है जिसका अपना एक जीवन
है, अपने
दुख-सुख हैं और जिन्हें गोपन रखने अथवा उजागर करने का उसे पूरा-पूरा अधिकार है।
उसके भीतर वे सभी संवेग होते हैं जो एक आम स्त्री में होते हैं, अन्तर मात्रा यही होता है कि आम स्त्री
उन संवेगों को व्यक्त करने का साहस नहीं संजो पाती है जबकि आत्मकथा लिखने वाली स्त्री
साहस के साथ सब कुछ सामने रख देती है-जो जैसा है, वैसा ही।
Outlook..16-31 Jan 2016..Review of Aaphudari by Dr Sharad Singh |
रमणिका गुप्त अपने जीवन के पन्ने पलटती हुई
अपने अनुभवों का बयान तो करती ही हैं, कोयलांचल के हर स्तर में व्याप्त हर प्रकार के
भ्रष्टाचार से भी रूबरू कराती हैं। उन्होंने ‘आपहुदरी’ में समाज के सकल पाखण्ड को चुनौती देते
हुए अपने भीतर की स्वावलम्बी, स्वतंत्रा स्त्री के छोटे से छोटे पक्ष को भी
ध्यानपूर्वक सामने रख दिया है, जो रोचक भी है, पठनीय भी और चिन्तन योग्य भी। अदम्य
साहस, उन्मुखता
का आह्वान और स्त्रियोचित आकांक्षाएं - सबकुछ एक साथ जी लेने की कला यदि किसी को
जानना हो तो उसे रमणिका गुप्त की आत्मकथा ‘आपहुदरी’ कम से कम एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए।
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पुस्तक समीक्षा
- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक - यहीं कहीं था घर (उपन्यास)
लेखिका - सुधा आरोड़ा
प्रकाशक- सामयिकप्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नईदिल्ली 110002
मूल्य - रुपए 250 मात्र
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Yahin Kahin Tha Ghar |
स्त्री जीवन को ले कर अनेक
उपन्यास रचे गए हैं। इस विषय पर बंगाली साहित्य से ले कर हिन्दी साहित्य तक एक
समृद्ध श्रृंखला मौजूद है। फिर भी ऐसा लगता है जैसे अभी भी कुछ ऐसा है जो साहित्य
का हिस्सा नहीं बन पाया है अथवा सहज रूप में सामने नहीं आ पाया है। ऐसा ही
अनछुआ-सा मुद्दा है स्त्री-जीवन की प्राथमिकताओं का। क्या स्त्री होने का यही अर्थ
है कि वह युवावस्था में कदम रखते ही विवाह के बंधन में बांध दी जाए, वह भी कुछ इस तरह कि बेटी
का विवाह कर के माता-पिता अपने सिर का बोझ उतार रहे हों? तो क्या स्त्री होने का यही
अर्थ है वह विवाह करे, बच्चे
पैदा करे और आज्ञाकारिणी की भांति परिवार के पुरुषों की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाती रहे? वह स्वयं को धन्य समझे कि
किसी पुरुष ने उसे अपने योग्य समझ कर उससे विवाह किया, तो क्या उसकी अपनी सोच, अपनी विचारधारा, अपनी भावना का कोई मूल्य
नहीं है? निःसंदेह
समय करवट लेता जा रहा है, आज
की स्त्री कामकाजी हो चली है, परन्तु
क्या इससे उसके सामाजिक और पारिवारिक दशा में कोई बुनियादी अन्तर आया है? कमाने के अधिकार के साथ-साथ
उसे खर्च करने का अधिकार भी मिला पाया है? क्या उसे अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने का अधिकार
मिल पाया है? बहुत
सारे प्रश्न हैं जो आज भी अपने उत्तर ढूंढ रहे हैं।
सुधा आरोड़ा एक स्थापित
लेखिका होने के साथ-साथ स्त्रियों से जुड़ी सामाजिक समस्याओं को निकट से देखने और
समझने का अनुभव रखती हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ स्त्री-जीवन की प्राथमिकताओं पर सशक्त ढंग से चर्चा करता है।
सुधा आरोड़ा ने अपने इस उपन्यास में इस तथ्य को सामने रखा है कि देह में स्त्रीत्व
के प्रकट होते ही स्त्री की देह लोलुप पुरुषों के लिए भोग्य-वस्तु बन जाती है। जिस
स्त्री को अपनी युवावस्था में पांव रखते ही किसी देह-लोलुप की कुदृष्टि से दो-चार
होना पड़े तो उसका स्वर विद्रोह के स्वर में बदलेगा ही। यदि वह अपनी उसी कच्ची
उम्र में स्वतः प्रेरणा से स्वयं को बचाना सीख जाती है तो उसमें यह भावना जागना
स्वाभविक है कि दुनिया की सारी औरतें आत्मनियंत्रित और आत्मरक्षिता बन सकें। ‘यहीं कहीं था घर’ में सुधा आरोड़ा ने स्त्री
के सामाजिक बोध के साथ मनोविज्ञान को भी बड़े ही विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत
किया है।
उपन्यास की नायिका विशाखा
अपने स्कूली छात्र जीवन से ही बुरे-भले अनुभवों से गुज़रते हुए जीवन को समझने का
निरन्तर प्रयास करती है। मकान मालिक की दूकान में अनाज के बोरे ढोने वाला नत्थू
लोहार की कामुकता विशाखा को उस समय भयाक्रांत कर देती है जब उसे कामुकता का अर्थ
भी पता नहीं था। यह भावी स्त्री की सहज प्रवृति थी जो उसे नत्थू लोहार के चंगुल से
स्वयं को बचाए रखने में सक्षम बना पाती है। विशाखा जानती थी कि नत्थू लोहार की
बेजा हरकतों के बारे में वह अपनी मां से यदि कुछ कहेगी भी तो मां इस विषय में कुछ
नहीं कर पाएगी। बात बढ़ाने का दुष्परिणाम यही हो सकता था कि विशाखा का स्कूल जाना
छुड़ा दिया जाता। जैसे उसकी बड़ी बहन के साथ हुआ। यद्यपि बड़ी बहन सुजाता का मामला
बिलकुल अलग था। सुजाता की पढ़ाई बंद करा देने के पीछे इतना कारण पर्याप्त था कि वह
किसी लड़के के प्रति आकर्षित हो रही थी, ऐसा दादी को संदेह था। मामला इतने पर ही शांत नहीं हुआ।
चिन्ता का दूसरा सिरा ठीक इसी बिन्दु से शुरू हुआ कि सुजाता के लिए शीघ्रातिशीघ्र
लड़का देख कर उसे ‘विदा’ कर दिया जाए। सुजाता की
ससुराल या लड़के के चाल-चलन से अधिक महत्वपूर्ण हो गया उसे ब्याह कर एक बेटी के
दायित्व से मुक्त हो जाना।
मध्यमवर्गीय परिवारों में
सबसे बड़ा संकट होता है विपन्नता। धनाभाव के कारण अनेक कठिनाइयां मुंह बाए खड़ी
रहती हैं और जब उनसे बच पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है तो लोग ‘महात्माओं और बाबाओं’ की शरण में कठिनाइयों का हल
ढूंढने लगते हैं। अपनी कठिनाइयों के प्रभाव से वे इतने अधिक भ्रमित हो चुके होते
हैं उन्हें सही और गलत में अन्तर दिखाई देना बंद हो जाता है। जो धनराशि वे अपने
बच्चों के लालन-पालन या पढ़ाई-लिखाई में खर्च कर सकते हैं, उस धनराशि को ‘स्वामी जी’ की सेवा में बेहिचक खर्च
करते चले जाते हैं। धन की हानि की शायद भरपाई हो भी जाए किन्तु स्वामी जी के
चेले-चाटों की कुदिृष्ट से होने वाली हानि की भरपाई कभी नहीं हो पाती है। इन
परिस्थितियों में भावनात्मक शोषण किसी भी क्षण दैहिक शोषण में बदल सकता है। इस कटु
सच्चाई की ओर न तो पिता का ध्यान जाता है, न मां का और न दादी का। सुजाता को भी इस तथ्य का अनुभव हो
चुका होता है जिससे बचने का उसके पास कमजोर-सा उपाय है कि ऐसे व्यक्ति के सामने
पड़ने से बचा जाए।
स्वामी जी का चेला स्वामी
सदानन्द भावना से देह के रास्ते का सफर तय करना चाहता है और वह विशाखा की
भाग्यरेखाएं पढ़ने की आड़ में विशाखा की हथेली थाम लेता है,-‘‘तुम्हारा विवाह तो कुछ
विलम्ब से है, सुजाता
बेन का विवाह अल्पायु में होगा। कहते हुए स्वामी सदानन्द ने अपने दानों हाथों में
थामी हुई विशाखा की हथेली को अपनी गोद में नीचे दबा दिया। एक क्षण को विशाखा कुछ
समझ नहीं पाई, फिर
जैसे लोहे की गरम सलाख हथेली को छू गई हो, वह तमक कर उठ खड़ी हुई। स्वामी सदानन्द की तोंद का वह
लिजलिजा-सा स्पर्श और उसके नीचे एक सख्त चुभन। छिः।’’ (पृ.45)
विशाखा के मन में यदि
स्वामी जी और उसके चेलों के प्रति घृणा और अविश्वास का भाव पनपता है तो यह
स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। पहले नत्थू लोहार और फिर स्वामी सदानन्द स्त्री-पुरुष
के दैहिक समीकरण की झलक को वीभत्स ढंग से विशाखा के कोमल मन पर किसी गहरी खरोंच के
समान अंकित कर देते हैं। इन सबके बीच भावनात्मक हादसों का एक लौह-क्रम। विशाखा की
सबसे छोटी बहन जिसके लिए सुजाता दूध की बोतल तैयार किया करती थी, इस दुनिया से चली जाती है।
वह दुनिया को देख, समझ
भी नहीं पाई थी किन्तु उसकी पैदाइश के समय से ही उसे दादी के ताने हर पल मिलते
रहे। तीजी नाम की उस नन्हीं जीव ने लड़के के बदले लड़की के रूप में जो जन्म लिया
था।
मंा तो गोया बच्चा जनने की
मशीन बन चुकी थी। इधर सुजाता के विवाह के लिए लड़का ढूंढा जा रहा था और उधर मंा ने
सुजाता की दो जुड़वां बहनों को जन्म दिया। जिसमें से एक अस्पताल में ही चल बसी।
कथावस्तु के प्रवाह के साथ लेखिका ने मध्यमवर्गीय और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों
की इस जटिल समस्या को बड़ी ही सहजता से रेखांकित कर दिया है। एक ओर सबसे बड़ी बेटी
को विवाह योग्य माना जा रहा होता है और दूसरी ओर पिता एक अदद पुत्र की लालसा में
अपनी पत्नी को गर्भ धारण करने को विवश करता रहता है। इस लालसा के जन्म और लालसा की
पूर्ति के बीच दैहिक सम्मिलन में सुख जैसे किसी भाव के होने का प्रश्न ही नहीं रह
जाता है। एक मशीनी क्रिया कि जब तक मनचाहा उत्पादन नहीं होगा तब तक उत्पाद की
क्रिया चलती रहेगी, भले
ही स्त्री का देह रूपी यंत्र थक कर जर्जर हो चला हो।
विशाखा एक युवा बेटी के रूप
में अपनी मां की दुर्दशा को देखती है, वह चाहती है कि मां विद्रोह करे। वह अपनी बहन को इच्छा-अनिच्छा
से परे विवाह के खूंटे से बांधने के भावनाहीन प्रयासों को देखती है और चाहती है कि
सुजाता विद्रोह करे। परन्तु मां और सुजाता दोनों कमजोर स्त्रियां हैं, वे विद्रोह करने के बदले
परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने को ही स्त्री जीवन का पर्याय मान लेती हैं।
घुटने टेकने का क्रम एक बार
जो शुरू होता है तो उसका अंन्त दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। एक अव्यक्त गुलामी
जीवनपर्यन्त। विवाह के समय ही सुजाता के ससुराली उसका वजूद बदलना शुरू कर देते हैं
जिससे वे उसे अपनी ‘सम्पत्ति’ में शामिल कर सकें। विगत
जीवन के अस्तित्व को पोंछ कर लगभग मिटा दिया जाए। विवाह के बाद स्त्री को अपनी
पहचान खोते देर नहीं लगती है। फलां की बहू, फालां की पत्नी, फलां की मां आदि-आदि सम्बोधन उसकी पहचान बन जाते हैं। श्रीमती
ये, श्रीमती
वो....यही परिचय रह जाता है। कई बार तो मृत्यु के बाद भी यही चर्चा होती है कि
उसकी बहू, उसकी
सास, उसकी
पत्नी की मृत्यु हो गई है। इन सबके बीच माता-पिता के द्वारा रखा गया नाम खो चुका
होता है। वह नाम जिसके साथ उसने अपने जीवन को पहचाना होता है, अपनी युवावस्था से नाता
जोड़ा होता है और जिस नाम को किसी ने (सौभाग्यवश कभी) प्रेम से पुकारा होता है या
उस नाम के नाम प्रेम-पाती लिखी होती है। वह अठ्ठारह-बीस साल का सहयात्री नाम भी कई
बार उससे अलग कर दिया जाता है और उसे दिया जाता है नया नाम।
सुजाता के साथ भी यही हुआ।
सुजाता की सास श्रीमती जुनेजा का निर्णय था,-‘‘ नहीं-नहीं पंडित जी, यह सुजात्ता नाम तो बंगालियों सा लगता है। एक तो हमारे पड़ोस
में ही काम करती है। हमें तो नाम बदलना है। मेरे जेठ की सारी बहुओं के नाम बदले गए
हैं। कोई अच्छा-सा नाम बताओ। कुडि़यों, छेत्ती करो!’’
(पृ. 131)
‘‘उस लगन मंडप में जलते हवनकुंड में सुजाता तनेजा के नाम के
अवशेष समाप्त हो गए। अब उसने नरेन्द्र जुनेजा की पत्नी श्रीमती रेणुका जुनेजा का
चोला धारण कर लिया था।’’ (पृ.132-33) जैसे कोई
किसी इमारत की बुनियाद का पत्थर बदल दे, अपनी मर्जी के आकार-प्रकार का लगा दे और फिर आशा करे कि इमारत
अडिग खड़ी रहे। इमारत तो निश्चित रूप से गिर जाएगी लेकिन स्त्री अपने जीवन का
एक-एक कण नींव के पत्थर में बदल देती है इसीलिए अपना सब कुछ बदल जाने पर भी
सामाजिक-पारिवारिक जीवन की इमारत को ढहने नहीं देती है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह
है कि स्त्री के अस्तित्व के पंख उससे बार-बार नोंच लिए जाएं, एक परम्परा बना कर?
विवाहित जीवन में भी सब कुछ
ठीक-ठाक हो यह आवश्यक नहीं है। ऊपर से सब ठीक दिखने वाला दृश्य अपने भीतर अनेक
कोलाहल, अनेक
अव्यवस्थाएं समेटे रहता है। इस कोलाहल, इस असंतुलन पर पर्दा डाले रखने के लिए प्रायः स्त्री को ही
अपने निर्णय से मुंह मोड़ना पड़ता है,-‘‘वह निर्णय हमेशा की तरह आज फिर धराशाई हो गया है। शायद
इस उम्मींद से कि हमारे रिश्तों में कोई गर्माहट आएगी और मोनू को अपने मां-बाप का
वह साया मिल सकेगा, जिससे
वह अब तक अपरिचित है, पर
आज लग रहा है कि इस खुशफहमी में अब जीना फिजूल है। ये रिश्ते बहुत नाजुक हैं और
इनमें एक बार दरार पड़ जाए तो आसानी से भरती नहीं। उस दरार को कितना भी पाट लो, जरा-सा कुरदते ही हर बार
पहले से ज्यादा गहरी दरार नजर आती है।’’ (पृ.160)
बेटी के रूप में जन्म ले कर
बद्दुआएं झेलना, युवती
हो कर लम्पट पुरुषों की कुदृष्टि का शिकार बनना और अपने जीवन को एक मनुष्य के रूप
में अपने ढंग से जीने का अधिकार खो देना ही यदि स्त्री-जीवन की नियति है तो फिर
उसके जीवन की प्राथमिकताएं क्या हैं? ‘यहीं कहीं था घर’ उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने परिवार की घनी बुनावट में
तरह-तरह की त्रासदी झेलती लड़कियों और घुटती हुई स्त्री के जीवन को उजागर करते हुए
स्त्री जीवन से जुड़े तथ्यों को रोचक और विचारणीय शैली में प्रस्तुत किया है।
उपन्यास की भाषा और प्रवाह पाठक को सतत जोड़े रखने में पूरी तरह सक्षम है। सुधा
आरोड़ा ने अपने लेखकीय कौशल और ज़मीनी अनुभवों से इस प्रश्न के हर पक्ष को बड़ी ही
बारीकी से अपने उपन्यास में पिरोते हुए, इस प्रश्न के उत्तर को भी सामने रखने का सफल एवं प्रभावी
प्रयास किया है।
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पुस्तक समीक्षा ..... समाज के यथार्थ का कोलाज़ - डॉ. शरद सिंह
Dr (Ms) Sharad Singh |
पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक
- कुर्की और अन्य कहानियां
लेखिका
- उर्मिला शिरीष
प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली-2
मूल्य- रुपए 250 मात्र
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Kurki aur anya kahaniyan |
समाज में दुख-सुख, राग-द्वेष, जीतने
और हारने के अनेक रंग दिखाई देते हैं। इन्हीं रंगों के बीच अनेक ऐसी घटनाएं छिपी
होती हैं जो कहानी बन कर उभरने पर मन को गहरे तक छीलती चली जाती हैं। एक स्त्री जो
अपने ढंग से जीना चाहती हो, एक किसान जो अपनी ज़मीन के लिए
मर-मिटना चाहता हो और एक एक आम आदमी जो परिस्थितियों के द्वारा हर क़दम पर छला जा
रहा हो यदि कहानियों में इस तरह उतर आएं कि मानो आंखों के आगे चलचित्र चल रहा हो तो ऐसी कहानियां किसी
सिद्धहस्त कथाकार की कलम से ही बाहर आ सकती हैं। हिन्दी कथाजगत में उर्मिला शिरीष
निर्विवाद रूप से एक ऐसी सिद्धहस्त कथाकार हैं जिनकी कहानियों के कथानक ही नहीं
वरन् कथापात्रा भी बहुत जाने-पहचाने और बहुत समीप के लगते हैं क्यों कि वे आम
जि़न्दगी ये कथावस्तु चुनती हैं और आमजि़न्दगी के चरित्रों को अपनी कहानियों में
पात्र के रूप में पिरोती चली जाती हैं। ‘कुर्की
और अन्य कहानियां’ उर्मिला शिरीष का नया कहानी संग्रह है।
संग्रह में छोटी-बड़ी ग्यारह कहानियां हैं। ये सभी कहानियां जीवन के ग्यारह रंगों
का बयान करती हैं।
संग्रह की पहली कहानी ‘एम. एल. सी.’ है
जो निम्नवर्ग के तबके की एक ऐसी स्त्री की कथा है जो पारिवारिक दुर्भावना की शिकार
है। वह स्त्री है खेरुनबाई जिसे उसके ही परिवारवालों द्वारा विवश किया जाता है कि
वह परिवार का पेट पालने के लिए देह व्यापार करे। उसके लिए ग्राहकों का जुगाड़ किया
जाता है चाहे उसे उन ग्राहाकोंसे देह संबंध स्थापित करना पसंद हो या न हो। सच तो
यह है कि उन स्त्रिायों का प्रतीक है जिनकी देह पर उनका स्वयं का अधिकार नहीं होता
वरन् पुरुष ही उनके जीवन के साथ-साथ उनकी देह का भी मनचाहा उपयोग करते हैं।
खेरुनबाई को यह भी अधिकार नहीं है कि वह किसी से प्रेम कर सके अथवा जिसे प्रेम
करती है उसे अपनी इच्छा से अपनी देह सौंप सके। वह विरोध करती है तो बदचलन कहलाती
है। खेरुनबाई में स्वयं के शोषण के विरुद्ध चेतना है और वह थाने पहुंच कर बेझिझक
बयान देती है कि ‘‘मेरे देवर ने मारा है और उस हरामी, कमीने ने मेरे साथ ग़लत काम भी किया है।’’ वह आगे कहती है कि ‘‘उसने
मेरे साथ बलात्कार किया है। देखो मेरे कपड़े फाड़ डाले। मेरी छातियों को पांवों से
कुचला। आप जांच करवा लो! मैं झूठ नहीं बोल रही। उस हरामी को गि़रफ़्तार करो , साब! वो मुझे मार डालेगा।’’ (पृ.11)
पर थानेदार प्रतिप्रश्न करता है,‘‘क्यों मारा? कोई
तो बात रही होगी और तूने ग़लत काम होने दिया?’’ (पृष्ठ.11) गोया ‘ग़लत
काम’ स्त्री की सहमति से किया जाता हो।
उर्मिला शिरीष ने खेरुन और थानेदार के संवाद के रूप में समाज की विकृत सोच का
अनावृत्त चेहरा सामने रख दिया है।
दूसरी कहानी है ‘बिवाईयां’। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में किसानों
द्वारा आत्महत्या किए जाने की घटनाएं तेजी से बढ़ीं। कर्ज के बोझ तले दबा किसान जब
जीने का कोई उपाय नहीं ढूंढ पाता है तो थक-हार कर मौत को गले लगा लेता है। कर्ज और
भारतीय किसानों का साथ सदियों पुराना है। कोई हार जाता है तो कोई पीढि़यों तक कर्ज
के बोझ को ढोता चला जाता है। किसान के जीवन में कर्ज बिवाईंयों की तरह होता है जो
निरन्तर पीड़ा देता है किन्तु उससे बच पाना कठिन होता है। कर्ज के बोझ तले किसान
की स्त्री के मन पर न जाने कितने मारक क्षण
गुज़रते हैं जब उसे अपने प्रिय गहने साहूकार के पास गिरवी रखने पड़ते हैं।
उसे भी पता होता है कि अब ये गहने उसे कभी वापस नहीं मिल सकेंगे। उन्हें वापस पाने
की कल्पना एक भ्रम मात्रा है। उर्मिला शिरीष ने किसान की पत्नी के पैरों की
बिवाइयों और कर्ज से जीवन के ऊसर हो कर दरकने का बड़ा मार्मिक रूपक कथानक के रूप
में प्रस्तुत किया है - ‘‘उसे लगा औरत की बिवाइयां चैड़ी से
चैड़ी होती जा रही हैं, इतनी चैड़ी, इतनी लम्बी, इतनी
गहरी कि वे बिवाइयां खेत में बदल गईं, दरारों
से फटता खेत, रूखा-सूखा वीरान खेत, जिसे न पानी मिला था, न खाद, न
बीज, न छाया, जिसका
सौंदर्य-सौंधापन और हरीतिम खत्म हो गई थी, जिसमें
परिंदों का आना ठहर गया था, जिसके बीच खड़ा हो कर न कोई हंसता था, न गाता था, न
सपने देखता था।’’ (पृ.31)
जीवन की परेशानियां किस तरह व्यक्ति को ढोंगी
बाबाओं के फेर में डाल देती हैं,
इसका
रोचक प्रस्तुतिकरण है कहानी ‘अभिशाप’।
विशेषरूप से एक स्त्री जिसके भीतर मातृत्व धारण करने की अदम्य लालसा है और साथ ही
अव्यक्त सामाजिक दबाव भी, वह हर उपाय आजमाने को तैयार है, भले ही ढोंग और आडम्बरधारी बाबा और तथाकथित
सिद्धस्त्री ‘माताजी’ ही
क्यों न हों। ऐसा भ्रमित मन यह भी मानने को तैयार हो जाता है कि ‘‘जहां मेडिकल साईंस और दवाएं काम नहीं करती हैं, वहां चमत्कार होते हैं। स्पर्श मात्रा से
बीमारियां दूर हो जाती हैं।’’ (पृ. 46) इसी
मानसिक दशा का अनुचित लाभ उठाते हैं छद्मवेशी बाबागण और माताएं।
स्थानान्तरण और भ्रष्टाचार के समीकरण के
तार-तार को सामने रखने वाली कहानी है ‘लूप
लाईन’। हर वह अधिकारी, कर्मचारी जो रिश्वतखोरी का लती होता है, सदा ऐसे अनुभाग में पदस्थापना चाहता है जहां
उसकी रिश्वत लेने की प्रवृत्ति संतुष्ट होती रहे। मनचाहे अनुभाग की चाहत में वह
सारे दांव-पेंच लड़ाता है और स्थितियों को अपने पक्ष में करके ही मानता है। वह
बेलाग कहता है कि ‘‘सर! मैं आपको भी मालामाल कर दूंगा, क्या रखा है इस तरह के जीवन जीने में, आप तो जानते हैं बाढ़ पीडि़तों, भूकंप पीडि़तों के लिए कितना बजट आता है, उस बजट का कितना हिससा इस्तेमाल होता है और
कितना बचाया जा सकता है-ज़मीन और प्लाट खरीद कर डाल लेना। बच्चों के काम आएंगे। बताइए, आपने बच्चों के लिए क्या किया, क्या जोड़ा, बताइए
भाभी जी, इनकी आदर्श सोच को कौन पूछ रहा है। आप
देख रही हैं मेरी हालत।’’
भ्रष्टाचार के पनपने और फैलने के नग्न सत्य को ‘लूप-लाईन’ के
माध्यम से बखूबी व्यक्त किया गया है।
‘असमाप्त’ सर्वथा अलग रंग की कहानी है। कथानायक हमीद
लंगड़ा जो पेशे से दूकानदार है,
जिसकी
दूकान में हवा भरने, पंक्चर सुधारने व्यवस्था से ले कर,बीड़ी, सिगरेट, पान, तंबाकू, गुटखा, नमकीन, चना, साबुन
जैसी वस्तुएं भी उपलब्ध रहती थीं। अतः उसकी दूकान पर ट्रकचालकों का मजमा लगा रहना
स्वाभाविक था। फिर भी एक औसत किस्म का
आदमी था हमीद लंगड़ा। वह गालियां देता था, उसकी
जुबान अश्लील और क्रूर थी। इन सबके होते हुए भी हमीद लंगड़ा यह मानता था कि ‘‘ औरत ही इस कायनत को चलाती है, मर्द तो केवल पीछे-पीछे चलता है।’’ (पृ. 73)
हमीद लंगड़ा के जीवन की कायनात को चलाने वाली
औरत रिजवाना थी जिसकी अपनी कुछ आवश्यकताएं और आकांक्षाएं थीं। इन्हीं आकांक्षाओं
ने रिजवाना को हमीद से विमुख करके उसके प्रति समर्पित कर दिया जो उसे हर तरह से अपने योग्य लगा। ‘‘ये तो खुदा ही जानता है कि वह अंदर ही अंदर
अंकुरित-पल्लवित होने वाली मोहब्बत की खुशबू थी या रिजवाना की अतृप्त वासानाओं का
विस्फोट, जो उम्र के तकाजे के कारण एकाएक पहाड़ी
की छाती फोड़ लावा की तरह धधक रहा था या हमीद लंगड़ा की घोर उपेक्षा और कमजोरी का
प्रति-परिणाम। तिस पर घर का एकांतिक माहौल उन भावनाओं को हवा देने के लिए काफी था।’’ (पृ. 76)
परिणामतः हमीद और रिजवाना के जीवन की धुरी बन
जाता है प्रिंस, और तीनों का जीवन चौंका देने वाले
रास्ते पर चल पड़ता है। मानवीय संवेगों का अत्यंत बारीकी से और बहुत ही सुंदर
चित्राण किया है लेखिका ने। निश्चित रूप से संग्रह की यह एक सशक्त कहानी है।
‘कुछ
इस तरह’ एकाकी जीवन जीने वाले दो प्रौढ़ों की
सुखांत कथा है। यदि समाज अपने-अपने जीवनसाथी खो चुके विधवा और विधुर हो चुके
प्रौढ़ों को एक दूसरे के साथ जीवन जीने का भरपूर अवसर दें तो उनका जीवन भी सुखद हो
सकता है, आल्हाद से भर सकता है। इस तथ्य को सबसे
अधिक समझने की आवश्यकता है उन युवाओं को जो अपना जीवन अपने ढ़ंग से जीने और अपना
भविष्य संवारने के लिए बुढ़ापे की ओर बढ़ चले अपने माता-पिता को अकेला छोड़ जाते हैं।
‘हरजाना’ पब्लिक-शो के सहारे जीवन जीने वाले कलाकारों की
संघर्ष एवं शोषण की कथा है। मानवीय मूल्यों और स्वार्थ के बीच चलने वाले दांव-पेंच
पारस्परिक संबंधों को किस तरह उलझा देते हैं, यह ‘चेहरे’ कहानी
में बखूबी पढ़ा और समझा जा सकता है।
‘निगाहें’ ठेकेदारों द्वारा श्रमिकों के शोषण की मार्मिक
कथा है। दो समय की रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करते हैं उसी दो समय की रोटी पर कब्जा
करके उन श्रमिकों को बंधुआ की स्थिति तक ला दिया जाता है। बेरोजगारी के आलम में श्रमिकों की कोई कमी नहीं
है। इस कटु सत्य को ठेकेदार हथियार की तरह प्रयोग में लाते हैं। जैसे इस कहानी में
ठेकेदार कहता है-‘‘ ऐसे दयनीय बन जाते हैं कि अभी मर
जाएंगे। अरे मजदूरों की क्या कमी है, गांव
में फसल बरबाद हो गई। अभी कुछ खाने-करने को बचा नहीं। शहरों में दौड़- दौड़ कर आ
रहे हैं। मजेरों की कमी थोड़ी न है। थोक के भाव मिल रहे हैं। ’’ (पृ. 122)
छोटे रुपहले परदों पर नाच-गाने की
प्रतियोगिताओं और धारावाहिकों ने इस तरह
चकाचैंध फैला रखी है कि हर माता-पिता ‘सेलीब्रिटी’ बनना चाहता है। जब वह स्वयं कुछ नहीं बन पाता
है तो अपनी इच्छाओं की वेदी पर अपने मासूम बच्चों के बचपन की बलि देने को तत्पर हो
उठता है। यदि बच्चे उनकी आशाओं को,
उनकी
चाहत को पूरा नहीं कर पाते हैं तो अपने मातृत्व की प्रकृतिदत्त कोमलता को भूल कर
मां भी चिड़चिड़ा कर कहने लगती है कि - ‘‘इतना
सिखाया था, इतना समझाया था। अरे, ध्यान से चार लाईनों गा लेती तो किस्मत बदल
जाती, अब तू मर। यहीं पर सड़। कुछ नहीं कर
सकती, तू जीवन में।’’ (पृ. 128)
संग्रह की शीर्षक कथा ‘कुर्की’ कर्ज
और कर्ज लेने पर उत्पन्न होने वाली विपत्तियों का आख्यान है। ‘‘लगभग सभी गांव वाले कर्जदार थे। कुछ पुराने
कर्जदार थे कुछ पीढि़यों के कर्जदार थे, कुछ
नए कर्जदार थे, पर थे सभी कर्जदार। कोई साहूकार का
कर्जदार था, तो कोई सहकारी समिति का, तो कोई बैंक का, तो
कोई सर्राफे का।’’ (पृ. 134)
कर्ज लेने वालों को भी गोया कोई हिचक नहीं, एक विचित्रा, अबूझ
आर्थिक व्यवस्था। वसूली और कुर्की का खतरा जाना-बूझा हुआ है, फिर भी कर्ज लेने में कोई कोताही नहीं। ‘‘भैया! कुल चालीस हजार बैंक से उठाया था। ब्याज
सहित हो गया साठ हजार। जितना सोना था वो गिरवी रखा है बिजली का बिल बचा है अट्ठारह
हजार।’’ (पृ. 135) सरकारी
मुआवजे की बैसाखियां भी कम घातक नहीं होती हैं। वे कुछ कदम चलने में तो सहायता
करती हैं किन्तु लंगड़ापन दूर नहीं कर सकती हैं। कर्ज के बोझ तले दबा इंसान इस
आश्वासन के सहारे सुख के दो पल की बाट जोहता रहता है कि ‘‘सरकार मुआवजा देगी, चिन्ता क्यों करते हो।........सरकार कर्ज माफ
करने के लिए कह रही है, सर्वे में जितनी राशि बनेगी दी जाएगी।’’
‘‘कब
तलक?’’ (पृ. 138)
यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर कभी मिलता है
कभी नहीं। कर्ज ले कर खरीदे गए ट्रेक्टर, बोए
गए बीज और उगाई गई फसल को कुर्की से बचा
पाना जीवन-मरण के प्रश्न के समान हर पल सामने खड़ा रहता है।
‘कुर्की
और अन्य कहानियां’ उर्मिला शिरीष की उन कहानियों का पठनीय
संग्रह है जिनमें स्त्री विमर्श,
श्रमिक
विमर्श, कृषक विमर्श अर्थात् समूचे समाज का एक
विचारणीय विमर्श है, एक रोचकतापूर्ण वैचारिक कोलाज़ है।
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पुस्तक समीक्षा ....नारद की चिन्ता उर्फ नावक के तीर - डॉ. शरद सिंह
Dr (Ms) Sharad Singh |
पुस्तक समीक्षा
- डॉ.
शरद सिंह
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पुस्तक
- नारद की चिन्ता (व्यंग)
लेखक
- सुशील सिद्धार्थ
प्रकाशक- सामयिक बुक्स,
3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
मूल्य - रुपए 395
मात्र
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Narad ki Chinta |
समकालीन परिदृश्य बेहद जटिल है। आज मानव जीवन
का प्रत्येक यथार्थ उपभोक्तावादी यथार्थ बन कर रह गया है। अपनी इच्छा पूरी करने के
लिए सारे नियम-कायदे ताक में रखना आम बात हो गई है। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति ने
जोड़-तोड़ के द्वारा इच्छित वस्तु अथवा स्थिति को पाना दैनिक व्यवसाय बना दिया है।
जब प्रत्येक व्यक्ति अग्रघर्षण प्रेरणा शक्ति (एग्रेसिव पावर) के अपरिमार्जित रूप
से प्रेरित हो कर परम अहम् (सुपर ईगो) और इदम (इड) के प्रभाव में अविवेकी चेष्टाओं
को बिना झिझक अपनी जीवन शैली में आत्मसात करने लगता है तब इससे उत्पन्न दूषित
मनोवृत्तियों पर चोट करने का सबसे सशक्त माध्यम होती है-व्यंग विधा। यह लेखक के
लिए चुनौती के रूप में सामने आती है। एक संवेदनशील, सजग, पैनीदृष्टि रखने वाला विवेकशील लेखक ही व्यंग
को उसके सही रूप में साध सकता है। सुशील सिद्धार्थ एक ऐसे ही सिद्धहस्त व्यंगकार
हैं जो अपने व्यंगों के माध्यम से जहंा अव्यवस्थाओं, विषमताओं
एवं दुरभि चेष्टाओं पर करारी चोट करते हैं वहीं उनका कथ्य पूरी कोमलता के साथ
प्रवाहित होता है। ‘नारद की चिन्ता’ सुशील सिद्धार्थ का नवीनतम व्यंग संग्रह है।
इसमें वे पुस्तक की भूमिका लिखते हुए भूमिका कोे ‘आत्मश्लाघा’ का नाम देते हैं। जो स्वयं पर व्यंग कर सकता है
वही सशक्त एवं प्रभावी ढंग से तमाम विसंगतियों पर व्यंग कर सकता है। यही से संग्रह
में संग्रहीत व्यंगों के पैनेपन और चुटीलेपन का अहसास शुरू हो जाता है।
व्यंग समाज में व्याप्त उन विसंगतियों, विषमताओं एवं विद्रूपों की ओर ध्यान आकृष्ट
करता है जो मानवीय आचरण के विकारों अथवा मनोविकारों से उत्पन्न होते हैं। व्यंग
लेखन एक ऐसी साहित्यिक कला है जो रोचक, आकर्षक
होने के साथ ही साथ मनोचेतना पर प्रहार भी करती हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
के अनुसार-‘‘व्यंग वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंए रहा हो और
सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी
उपहासात्मक बना लेना हो जाता हो।’’
द्विवेदी जी ने व्यंग को जहंा कटाक्ष करने का
अचूक अस्त्र माना वहीं हरिशंकर परसाई ने इसे जीवन का परिचायक माना। परसाई के
अनुसार जीवन मात्र अच्छाइयों से भरा हुआ नहीं है, इसमें
बुराइयां भी हैं, झूठ भी है और विसंगतियां भी हैं। परसाई
ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि -‘‘व्यंग जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों
और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है......यह नारा नहीं है।’’ वहीं अमृत राय मानते हैं कि ‘‘व्यंग पाठक के क्रोध या क्षोभ को जगा कर
प्रकारान्तर से उसे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।’’
हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन के क्षेत्र में
अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग
के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृद्ध
करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल का नाम
लिया जाता है। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति
व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। इसी
क्रम में व्यंग लेखन के क्षेत्र में सुशील सिद्धार्थ एक विश्वास भरा नाम है।
सुशील सिद्धार्थ के व्यंग भी पाठक के अंतर्मन
को झकझोर कर उसे जगाने और उसकी चेतना लौटा लाने का माद्दा रखते हैं। उनके ताजा
व्यंग संग्रह ‘नारद की चिन्ता’ में कुल पचहत्तर व्यंग संग्रहीत हैं।
संस्कृति के संरक्षण की आड़ में स्वार्थ की
पैंतरेबाजी को लेखक ने खूब ताड़ा है। लोक संस्कृति और लोक साहित्य के नाम पर किए
जाने वाले छद्म यानी तथाकथित प्रोजेक्ट्स योजनाओं के सच को सामने लाते हुए सुशील
सिद्धार्थ लिखते हैं कि ‘‘जीप लोकतंत्र की तरह किसी गंाव की ओर
भागी जा रही थी। मिशन लोक साहित्य। लोक काल के गुलगुले गाल में समा जाए, इससे पहले उसे पकड़ कर प्रोजेक्ट के पिंजरे में
डाल देना था।’’ (लोक साहित्य के अहेरी, पृ.15)
सुशील सिद्धार्थ की व्यंग्य रचनाएं मन में
गुदगुदी मात्र पैदा नहीं करतीं बल्कि उन सामाजिक वास्तविकताओं से रूबरू कराती हंै, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग
संभव नहीं है। लगातार खोखली और भ्रष्ट होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक
व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को लेखक ने बहुत ही निकटता से
पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढि़वादी जीवन-मूल्यों पर चोट करते हुए लेखक ने विषय
की गंभीरता को सदा ध्यान में रखा है और आधारभूत जीवन मूल्यों को सकारात्मक रूप में
प्रस्तुत किया है।
साहित्य जगत में आलोचना की पैतरेबाजी पर भी
लेखक ने जम कर कलम चलाई है। स्वनामधन्य आलोचक किसी नए लेखक को किस प्रकार बनाते और
बिगाड़ते हैं तथा किस प्रकार अपनी हठधर्मिता को दूसरों पर आरोपित करने का प्रयास
करते हैं, यह कटु सच्चाई व्यंग लेख ‘नए को नापो’ में
बड़े ही रोचक ढंग से सामने रखी गई है। एक आत्ममुग्ध आलोचक उद्घोष करता है कि ‘‘मैं हूं आलोचक।’’ फिर
वह अपनी बड़ाई इन शब्दों में करता है कि ‘‘मैं
अनथक अनवरत लिखे जा रहा हूं। सारी पत्रिकाएं खंगालता हूं और रचनाओं, लेखक-लेखिकाओं रूपी मोती सूचियों में बिखेर
देता हूं। मेरी ग्रहणशीलता और संवेदनशीलता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। कई बार तो
रचना छपने से पहले ही मेरे द्वारा महाकाव्यात्मक घोषित कर दी जाती है, भले ही छपने के बाद वह गुटका संस्करण ही साबित
हो।’’ (पृ.39-40) नए
लेखकों की रचनाओं को नापने का स्वयंभू आलोचकों का पूर्वाग्रही सांचा कुछ इस प्रकार
रहता है-‘‘मेरे लिए कसौटी यह है कि इसे किसने
लिखा है। लिखने वाला उचित है तो कहानी भी समुचित होगी।’’ (पृ.41)
लेखक की भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा है, जिससे पाठक को यही लगेगा कि लेखक उसके सामने ही
बैठा उससे संवाद कर रहा है। ‘एक पटु पटकथा’ में साहित्य और धारावाहिकों की पटकथा लेखन के
विषयगत समीकरण का रेशा-रेशा खोल कर रख दिया गया है। इसी व्यंग से एक उदाहरण देखें-‘‘आपके साहित्य में भी तो सुपारी लेने-देने का
रिवाज है। मैं खुद कई सुपारी लेखकों को जानता हूं। आप सहर्ष धारावाहिक की सुपारी
लें। धारावाहिक का नाम है-गुण्डाकथा वाया तड़ीपार।’’ (पृ.69)
सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने
वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है। सामाजिक सिद्धांतों के नाम पर दोहरापन
ओढ़ कर जीने वालों पर करारी चोट करता है व्यंग लेख ‘ए
सुटेबल ब्वाय’’। स्त्री स्वतंत्रता पर बढ़-चढ़ कर बात
करने वालों के घर में स्त्री शोषित रहती है और ऐसे ही लोग अपने बच्चों के दोषों को
बड़ी सफाई से गोलमाल कर के उन्हें ‘सुटेबल’ के
रूप में स्थापित कर देते हैं -‘‘अब मेरी समझ में आ रहा है कि सुटेबल
ब्वाय या सुटेबल गर्ल होने के लिए आवश्यक है कि सुटेबल फादर या मदर भी हो।’’ (पृ़.87)
परंपरागत अध्यापकीय बोझिलता से परे उनके व्यंग
सहज संवाद करते हैं और अपनी बात को पाठक के मन-मस्तिष्क में उतार देने में
पूर्णतया सक्षम हैं। शैली का प्रवाह और भाषा का बोधगम्यता उनके व्यंगों को और अधिक
मुखरता प्रदान करती है। विचारों को सरलता से सामान्य जगत से गहनता में उतार ले
जाने वाला कौशल लेखक की कलात्मक क्षमता एवं विद्वता को भी प्रमाणित करता है। कहीं
भी बनावटी भाषा नहीं दिखाई देती। व्यंग्य में जो बिंब होने चाहिए, जो रूपक और चित्र-विधान होने चाहिए, वे सब स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं। सतर्कता
और विवेक व्यंग्य रचना के लिए अनिवार्य है। इस सतर्कता और विवेक के अभाव में छद्म
को न तो अनुभव किया जा सकता है और न जांचा सकता। सुशील सिद्धार्थ के व्यंगों में
समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है।
‘साठ
पार की कुछ योजनाएं’, ‘भूतपूर्व प्रेमिका से मुठभेड़’, ‘मेरा ज्योतिष प्रेम’, ‘मुखड़ा क्या देखे दर्पण में’ हास्य का भाव लिए गुदगुदाने वाले व्यंग हैं। ‘कामलगाओपनिषद से साभार’ भी एक ऐसा ही रोचक व्यंग है जो विघ्नसंतोषियों
के जीवन दर्शन से साक्षात्कार कराता है। ‘‘अपना
जीवन सरल बनाने और नजदीकी लोगों का जीवन कठिन बनाने की कला को ‘काम लगाना’ कहते
हैं।’’
देश की वर्तमान दशा पर पर चोट करता है व्यंग -‘कृपया पैर मजबूत करें’। अपने इस लेख में सुशील सिद्धार्थ बड़ी बारीकी
से विवरण प्रस्तुत करते हैं-‘‘मेरे भाई, अपना देश कब से अपने पैरों पर खड़ा होने की
कोशिश कर रहा है। लोगों के महल खड़े हो गए, कारखाने
खड़े हो गए, बैंक बैलेंस खड़े हो गए मगर देश? कुछ लोगों के अनुसार देश के पैरों पर बहस जारी
है। इनको किस कंपनी, किस नंबर का जूता पहनाया जाए, जूतों का रंग कैसा हो, इन तमाम बातों पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाई
है।’’ (पृ.170) इसी
प्रकार ‘मृत्युबोध’ में व्यंजनात्मकता की वह सुन्दर छटा देखने को
मिलती है, जो अंतर्मन को झकझोरे बिना नहीं रहती
है-‘‘जानम समझा करो, हम उस देश के वासी है, जहां जीवन नहीं मृत्यु की पूजा होती है। कई
लोगों के मरने की खबर अखबार में छपती है तो मालूम होता है कि ये भी जीवित थे।
जिन्दगी की खोज खबर लेना हमारी संस्कृति को रास नहीं आता।’’ (पृ.171)
‘नारद
की चिन्ता’ एक चु टीला
व्यंग है। ‘‘भारत में जो होता है, बस होता है या यूं कहो कि भारत में सब कुछ ‘कुछ कुछ होता है।’’ इस एक वाक्य में देश वर्तमान दशा और दिशा का
अनावरण हो जाता है। सुशील सिद्धार्थ के व्यंग लेखन की यह विशेषता है कि वे सजग
वेत्ता की भांति अपने चारो ओर के वातावरण को परखते, जांचते
हैं और फिर उन्हें विश्लेषणात्मक ढंग से अपने व्यंग में पिरोते हैं। संग्रह के लेख
सत्य पर आधारित हैं। इनकी केन्द्रीय वस्तु पाठक को सोचने पर विवश करती है।
प्रत्येक व्यंग कही गुदगुदाते हुए शुरू होता है , समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक
कुप्रथाओं पर प्रहार करता है और अंत में सहमतियों से भरा एक गंभीर चिन्तन छोड़
जाता है। बहुत सीमित शब्दों में अपनी बात इस सुंदर शैली में कह पाना सुशील
सिद्धार्थ की विशेषता है। दैनंदनी जीवन की वे अनेक विसंगतियां जिन्हें देखकर भी हम
अनदेखा कर देते हैं , सुशील सिद्धार्थ की अन्वेषक दृष्टि से
बच नही पाई हैं। इसलिए प्रत्येक व्यंग के कथ्य में पर्याप्त विविधता है। ‘नारद की चिन्ता’ में
संग्रहीत व्यंग नावक के तीरों की भांति देखने में छोटे भले हों किन्तु उनमें चोट
करने की क्षमता भरपूर है। यही खूबी इस पुस्तक को बार-बार पढ़ने के लिए उत्साहित
करती है।
-------------------------------------------------------------------- पुस्तक-समीक्षा....मुस्लिम महिलाओं के जीवन की सशक्त पड़ताल - डॉ. शरद सिंह
Dr ( Ms) Sharad Singh |
- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक
- लेडीज क्लब
लेखिका
- नमिता सिंह
प्रकाशक
- सामयिक बुक्स, दरियागंज, नई दिल्ली-2,
मूल्य
- 360
रुपए
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जब हम भारत की आधी आबादी की बात करते हैं तो
इसका अर्थ होता है वे तमाम औरतें जो भारत में रह रही हैं। वे चाहे किसी भी वर्ग, जाति, धर्म
या समुदाय की हों। फिर भी हिन्दी साहित्य में मुस्लिम समुदाय की स्त्रियों के जीवन
को समग्रता से कम ही उकेरा गया है। जब कि मुस्लिम समुदाय के सतत् विकास में उनकी
स्त्रियों का अभिन्न योगदान रहता है। वे अन्य समुदाय की स्त्रियों की भांति अपने
परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति समर्पित रहती हैं। वे अपने बच्चों को
पालती-पोसती हैं और उन्हें जीवन में संघर्ष करने के योग्य बनाती हैं। किन्तु
प्रायः उनका यह योगदान अनदेखा रह जाता है क्योंकि वे स्वयं को सामने नहीं लातीं।
उनके सामने न आ पाने का कारण एक तो उनकी परम्परागत झिझक है और दूसरी सकल समाज की
भांति पुरुषवर्चस्व का दबाव। अपने जुझारु व्यक्तित्व के लिए सुविख्यात लेखिका
नमिता सिंह ने अपने ताज़ा उपन्यास ‘लेडीज़ क्लब’ में इस तथ्य को बखूबी सामने रखा है।
‘लेडीज़
क्लब’ के रूप में नमिता सिंह ने एक ऐसा
केन्द्र या ‘सिम्बॅल’ चुना
है जहंा विभिन्न समाज और विभिन्न धर्म की स्त्रियां परस्पर मिलती हैं, अपना-अपना मनोरंजन करने के साथ ही अपने-अपने
दुख-सुख भी परस्पर बांटती हैं जिसमें उनका स्नेह और उनकी ईर्ष्या-द्वेष भी शामिल
होते हैं। कुलमिला कर कोई भी लेडीज़ क्लब वह केन्द्र होता है जहां वे औरतें भी
स्वयं को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती हैं जो कहीं अन्यत्र अभिव्यक्त नहीं कर
पाती हैं। ऐसे केन्द्र बिन्दु से ही ‘लेडीज़
क्लब’ उपन्यास के कथानक का आरम्भ होता है और
कथा के प्रवाह के साथ ही अनेक घटनाएं जुड़ती चली जाती हैं। इनमें से कई घटनाएं
चैंकाती हैं, स्तब्ध करती हैं, और कई घटनाएं ऐसी हैं जो मन को दुख और
सहानुभूति से भर देती हैं।
समाज में घटित होने वाली हर घटना या विचार का
प्रभाव स्त्री-जीवन पर भी पड़ता है। यदि समाज विभिन्न खानों में बंटता है तो
स्त्रियों से भी आशा की जाती है कि वे उस बंटवारे के अनुरूप जिएं। एक समुदाय की
स्त्रियां यदि उन्मुक्त और साधिकार जी रही
हों तो यह जरूरी नहीं है कि उसरे समुदाय का समाज अपनी स्त्रियों को वह स्वतंत्रता
और अधिकार प्रदान करने के बारे में सहज हो। समाज के विभिन्न जाति एवं धर्म में
बंटे होने के बारे में उपन्यास की नायिका क्षोभ व्यक्त करते हुए कहती है कि ‘‘मैं भूल गई थी कि हमारा हिन्दुस्तानी समाज
जाति-दर-जाति सैंकड़ों खानों में ऐसा बंटा है कि इसकी जड़ें दूर-दूर तक फैल गई
हैं। ज़मीन के नीच गहरे धंसी ये जड़ें उन बस्तियों और कुनबों तक जा पहुंची हैं, जहां इन विभाजन रेखाओं का अस्तित्व ही नहीं
होना चाहिए था। धर्म और जाति के ये विभाजन के दंश समाज की हर धड़कन में मौजूद हैं।’’ (पृ. 17)
शहनाज़ आपा, ग़ज़ाला, अजरा जैसी स्त्रिएं सामाजिक बंधनों से जूझती
दिखाई देती हैं। वहीं लेडीज़ क्लब भी सामाजिक दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रहता है।
शहर में साम्प्रदायिक कटुता बढ़ने पर क्लब की सदस्य लीला गुप्ता ने अपने घर बदलने
को एक बहाने के रूप में प्रयोग करते हुए क्लब में शामिल होना ही छोड़ दिया। लीला
के अनुसार जब वह कैंपस में थी तो आना सुगम था किन्तु अब घर दूर है अतः क्लब में
नहीं पहुंच पाती है। इस पर शहनाज़ आपा टोकती हैं कि ‘‘ क्या पढ़ाने नहीं आतीं तुम? रोज डिपार्टमेंट तक आती हो। महीने में एक दिन
गेस्टहाऊस तक आना अब इतनी मुसीबत का काम हो गया?’’ (पृ 33) लीला गुप्ता के क्लब में न पहुंचने और शहनाज़
आपा की पीड़ा के बहाने लेखिका ने उस अलगाव के रेखांकित किया है जो जाने-अनजाने
आकार लेता चला जाता है।
एक युवा लड़की ग़ज़ाला अमेरिका में पढ़ी और
बड़ी हुई। वह भारत के उस वातावरण में नहीं आना चाहती है जहां रूढि़यों के बंधन ही
बंधन हैं। वह विरोध करती है किन्तु उसके पिता मौलाना अपनी पैंतरेबाज़ी से उसे भारत
चलने को विवश कर देते हैं। भारत आ कर ग़ज़ाला कर मन हर पल छटपटाता रहता है और उसे
अपनी मंा के मौन पर आश्चर्य भी होता है।
‘‘कितना
कठिन होता है अपने-आप से लड़ते हुए जीवन बिताना। औरतों की जि़न्दगी में मूक-बधिर
की तरह हुकुम का पालन करना, रेवड़ के साथ चलते जाना क्यों होता है?’’ (पृ 93) लेखिका
इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढती हुई जिस दिशा में जाती हैं वहां साम्प्रदायिक कट्टरता, परस्पर अविश्वास, हिंसा, और वैमनस्य के ऐसे घिनौने रंग दिखाई देते हैं
कि मन में टीस उठती है-क्या हमने अपने सामाजिक वातावरण को इतना बदरंग कर दिया है? दुर्भाग्य से यही सच है। देश में औरतों की
प्रगति को मात्र चंद उदाहरणों से नहीं मापा जा सकता है, उनकी ओर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है जो घुटन
भरे माहौल में जीने को विवश हैं। लेखिका ने इस तथ्य को भी उजागर किया है कि
दकियानूसी सोच अपढ़ या आर्थिक रूप से निम्नवर्ग में ही नहीं भद्र और पढ़े-लिखे
वर्ग में भी कट्टरता से जमी हुई है।
स्त्री की दशा और समाज की जंग खाई बुनावट का
बारीकी से विश्लेषण करने में सक्षम उपन्यासकार नमिता सिंह ने अपने इस नए उपन्यास ‘लेडीज क्लब’ के द्वारा देश और समाज के उस कोने को भी उजागर कर
दिया है जहां मुस्लिम समाज की महिलाएं
पुरातन विचारों से उत्पन्न विसंगतियों को जीने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास
मात्र एक कथानक नहीं वरन् एक साहसिक विमर्श है मुस्लिम स्त्रियों के जीवन पर।
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पुस्तक-समीक्षा .... स्त्री के भीतर की आवाज़ का घोषणापत्र ... डॉ. शरद सिंह
Dr ( Ms) Sharad Singh |
पुस्तक-समीक्षा
स्त्री के भीतर की
आवाज़ का घोषणापत्र
समीक्षक - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक
- आवाज़
लेखिका
- मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक
- सामयिक प्रकाशन,
3320-21,जटवरड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई
दिल्ली-2
मूल्य
- 300
रुपए
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एक स्त्री क्या चाहती है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर
सभी अपने-अपने ढंग से देते हैं। जैसे कोई कहता है कि स्त्री को गृहस्थी मिल जाए, परिवार, पति, बच्चे मिल जाएं तो वह खुश रहती है और अपने-आप
में पूर्णता का अनुभव करती हुई संतुष्ट रहती है। कोई कहता है कि स्त्री पुरुष की
छाया बन कर जीना पसन्द करती है। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि कुछ उच्छृंखल औरतें
दैहिक स्वतंत्राता पा कर प्रसन्न रहती हैं अर्थात् वे अपनी देह को अपने ढंग से
जीना चाहती हैं। पुरुष प्रधान समाज में ऐसे उत्तर मिलना स्वाभाविक है। किन्तु सही
उत्तर तो स्वयं स्त्री ही दे सकती है न, कि
वह क्या चाहती है, अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने
परिवार से या फिर अपनी देह या अपने विचारों से? स्त्री
ने जब भी अपने अस्तित्व से जुड़े इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा तो उसे झिड़क दिया
गया कि ‘बहुत बोलने लगी हो!’, ‘अपनी जबान पर लगाम दो!’, ‘आवारा हो चली हो!’, मुंह से आवाज़ भी निकाली तो ठीक नहीं होगा!’ आदि-आदि। आवाज़! हां, इसी आवाज़ को स्त्री के भीतर से बाहर आने की
आवश्यकता सदैव रही है। कुछ भले पुरुषों और कुछ सजग स्त्रियों ने स्त्री के भीतर
आवाज़ को बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। यह प्रयास हर कालखण्ड, हर सदी में किया जाता रहा है। इसी प्रयास का
सुपरिणाम है कि आज स्त्री स्वयं को पहचानने की ललक तो संजोने लगी है, वह अपने मन की आवाज़ सुनने को लालायित तो रही
है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्त्री की आवाज़ को शब्द देने और लिपिबद्ध करने
वाली लेखिकाओं में अग्रिम पंक्ति में नाम आता है मैत्रेयी पुष्पा का। उनके लेखन की
धार अनेक बार पुरुषवादियों को लहूलुहान कर चुकी है। उनका लेखन अपने-आप में अनूठा
है। क्योंकि वे खरी बात खरे-खरे शब्दों में लिख डालती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की
ताज़ा पुस्तक ‘आवाज़’ उनके
इसी लेखकीय अनूठेपन का उल्लेखनीय उदाहरण है।
‘आवाज़’ स्त्री विमर्श की पुस्तक है। इसमें मैत्रेयी
पुष्पा ने स्त्री जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं को विविध उदाहरणों के साथ
व्याख्यायित किया है और स्त्री के मन की आवाज़ को मुखर करते हुए इस तथ्य को पूरी
तार्किकता के साथ सामने रखा है कि आखिर स्त्री क्या चाहती है? विमर्श का आरम्भ वे इन काव्य पंक्तियों से करती
हैं कि ‘मेरे हमसफ़ीरो, न ख़ामोश रहना/ मैं आवाज़ दूं, तो तुम आवाज़ देना।’ एक आवाज़ के समर्थन में जब तक दूसरी आवाज़ न
उठे तब तक उस पहली आवाज़ के उठने का असर दिखाई नहीं देता है। इसीलिए लेखिका उन
कारणों को टटोलती है जो आवाज़ से आवाज़ मिलाने के साहस के रास्ते में रोड़ा बन
जाते हैं। लेखिका को पहला और बुनियादी रोड़ा मिलता है संस्कारों के रूप में। सभी
संस्कार नहीं अपितु वे संस्कार जो अपना स्वरूप गंवा चुके हैं, वीभत्स बन चुके हैं और जो समाज में सड़े-गले
विचारों की दुर्गन्ध फैलाते रहते हैं। ऐसे दूषित संस्कारों को छोड़ देने का आह्वान
किया है पुस्तक के प्रथम अध्याय में। निःसंदेह बुनियाद को सुधार कर ही समूची इमारत
को मजबूती प्रदान की जा सकती है। मैत्रेयी भारतीय संस्कृति के अतीत चुन कर वे
उदाहरण सामने लाती हैं जो आमजन और विशेष रूप से आमस्त्रियों के सुपरिचित हैं, फिर वे लिखती हैं-‘मालूम हो कि हमारा सामाजिक माहौल एक नक्कारखाना
है, जहां आवाज़ें नहीं सुनी जातीं, हुक्मनामे का घंटा बजता है- चुप रहो या हमारे
स्वर में स्वर मिलाओ- यह ईश्वर के आदेश की तरह पवित्रा, मगर कड़ी घटना है। अविस्मरणीय उपदेश है। इन
उपदेशों को सतियों ने सुना और माना,
वे
देवी की तरह प्रतिष्ठापित हुईं,
मगर
सीता, द्रौपदी, मैत्रेयी, गार्गी, अहिल्या
और मंदोदरी ने सतियों के अनुसार सतीधर्म निभाया क्या? वे देवी नहीं बनीं, यह हमारा दावा है। तभी तो पुरुष प्रवरों में
प्रवर अवतारी, ऋषि, मुनि, देवता और राक्षसों के बीच अपनी आवाज़ बुलन्द
करती हुई स्त्री भूमिका में आई और सजाएं पाईं। यहीं से तो स्त्री के इतिहास ने
मोड़ लिया।’ (पृ.11)
इसके आगे लेखिका उस मोड़ की चर्चा करती हैं
जिसमें स्त्री स्वयं को साबित करने के लिए जूझती हुई दिखाई देती है। ‘पितृ सत्ता ने जिये कंगाल करके छोड़ा था, वह समृद्धि के रास्ते पर दिखने लगी। इसलिए कि
भरमाने वाले लोकाचार, सुरक्षा के दावे और सुशील, सीधी गऊ जैसी बेटी के संबोधनों के बदले उसके
हक़ छीनने की साजि़श क्षीण होने लगी। पारिवारिक शुभकामनाएं उसे बेदखल करती रही हैं, तो अब अपने हक़ों से रिश्ता जोड़ना लाजमी है।’ (पृ.18)
तीसरे अध्याय में मैत्रेयी के तेवर और अधिक
आक्रामक हो उठते हैं। यह आक्रामकता ठीक उस तरह कि है जैसे किसी जोरदार प्रहार के
बिना खण्डहर हो चली इमारत को भी नहीं गिराया जा सकता है, यानी यह आक्रामकता उस प्रहार की भांति है जो
दूषित पुरुषवादी सोच की इमारत को गिरा देना चाहती है। जब द्रौपदी का चीरहरण किया
जा रहा था तब जितने दोषी दुर्योधन और दुःशासन थे, उतने
ही दोषी युधिष्ठिर और अर्जुन भी थे। वे सभासद भी दोषी थे जो एक स्त्री के सम्मान
को सार्वजनिक रूप से आहत होते देख रहे थे। जो नहीं देख सके, उन्होंने नेत्रा झुका लिए। क्या यही पौरुष था
दोनों पक्ष का? महाभारतकालीन इस प्रसंग को वर्तमान
परिवेश में तौलती हुई लेखिका इस तथ्य को उजागर करती है कि यदि आज स्त्री सुरक्षित
नहीं है तो क्यों? समाज और समाज में रहने वाली स्त्री की
सुरक्षा के लिए थाने हैं, कोतवालियां हैं। किन्तु -‘यह तो थाने-कोतवालियों में जा कर देखा जा सकता
है कि वहां पुलिस की हवस की कैसी शिकारगाह हैं।’ (पृ 30) फिर जब थाने और कोतवालियों में सत्राी की अस्मत
तार-तार होती है तो समाज कौरवों की राजसभा के सभासद की भांति मौन रहता है या
नज़रें चुराता है। मैत्रेयी इस ओर भी ध्यान देती हैं कि जिस देश में सारी व्यवस्था
राजनीति से संचालित होती है और जहां की राजनीति में स्त्रियों को स्थान दिया जाने
लगा है तो उन राजनीतिक स्त्रियों की स्त्री के पक्ष में क्या भूमिका है? वे निःसंकोच लिखती हैं कि -‘अपनी राजनेत्रियों की तो बात ही क्या करें, वे स्त्री उत्थान के शिखर सिंहासनों पर विराजती
हैं, बलात्कार की मारी लड़कियों से बेख़बर
हैं।’ यहां मैत्रेयी के उन विचारों की
वास्तविकता मुखर होती है जिसमें वे निरा स्त्रीवादी नहीं बल्कि मानवतावादी हो कर स्त्री
के हित के बारे में सोचती हैं। वे उन स्त्रियों को भी ललकारती हैं जो स्त्री हो कर
स्त्रियों के हित के बारे में कोई कदम नहीं उठा पाती हैं। यहां मैत्रेयी दो टूक
तरीके से कहती हैं-‘सेक्स, गर्भ
और प्रसव से गुजरती ये राजनीतिक स्त्रियां आखिर कितनी राजनीतिक हैं? इतनी ही जितनी राजनीति के क्षेत्रा में जमे
पुरुष इनको छूट दें या कसें? ये कठपुतलियां साबित हुईं, जिनके गले में बंधी रस्सियों का संचालन हर हालत
में पुरुषों के हाथ में है।’ (पृ.43)
लेखिका स्त्री की दुरावस्था के लिए स्वयं स्त्रियों
को ही दोषी पाती हैं। दोषी इस अर्थ में कि स्त्रियों के गले में जो ‘पति परमेश्वर’, ‘मालिक’ जैसे शब्द बांध दिए गए हैं, स्त्रियां उन्हें गुलामी के पट्टे की भांति ढोए
जा रही हैं। बराबरी और अधिकार की बात करना
अभी भी उन्हें ठीक से नहीं आया है। इस बिन्दु पर वेश्याओं और विवाहिताओं के बीच के
अंतर को मैत्रेयी ने इन शब्दों में रेखांकित किया है-‘वेश्याओं ने आपत्ति दजऱ् कराई कि हम पराधीन
नहीं, अपने धंधे का खाते हैं। हमें किसी मर्द
की सुरक्षा या संरक्षण की जरूरत नहीं, अपनी
जिम्मेदारी खुद उठाना जानते हैं- हमें गृहणियों के बराबर न रखा जाए, वे कतई बेगारिनें हैं।’ (पृ.53) यह
तुलना बहुत कठोर है किन्तु गहराई तक सोचने को विवश करती है।
मैत्रेयी पुष्पा ने ‘आवाज़’ के
माध्यम से स्त्री-शिक्षा, पैत्रिक संपत्ति पर स्त्रियों के
अधिकार, घरेलू हिंसा आदि के साथ ही ‘सेरोगेट मदर’ पर
भी धारदार टिप्पणी की है। बहुत ही बारीकी से ‘सेरोगेट
मदर’ पर लेखनी चलाई गई है। यह विशय उस समय
अतिसंवेदनशील हो उठता है जब एक स्त्री कोख खरीद रही हो, एक स्त्री कोख बेच रही हो और एक स्त्री लेखिका
के रूप में इस ‘व्यवसाय’ का
आकलन कर रही हो। मैत्रेयी लिखती हैं-‘यहां
दृश्य में दो औरतें हें, एक जो किसी रईस की पत्नी है और दूसरी
वह जो रोटी-कपड़ा से मोहताज़ है और बेचने के लिए अपना शरीर ही उसके पास है, उसका जो भी अंग बिक पाए। ये दोनों औरतें उसी
समाज का हिस्सा हैं, जो मर्यादा, नैतिकता और स्त्री की पवित्राता के पक्ष में
ढेाल-नगाड़े बजाता है। पतिव्रत को स्त्री का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताता है।’ (पृ.161-162) खरीदने वाली स्त्री अपने पति के लिए, अपने परिवार के लिए वंशज खरीदती है वहीं बिकने
वाली स्त्री अपने उस मातृत्व का सौदा करने को विवश रहती है जो स्त्री के रूप में
उसकी सबसे बड़ी जैविक विशेषता मानी जाती है। लाभ में रहता है पुरुष और सिर्फ
पुरुष। पुस्तक के अंतिम अध्याय को मैत्रेयी पुष्पा ने ‘एक स्त्री का घोषणपत्र’ के रूप में लिखा है। इस अध्याय में अतीत और
वर्तमान की दशाओं के आधार पर भविष्य के प्रति आशाएं व्यक्त की गई हैं। इसमें
आह्वान है उन स्त्रियों का जो आज भी नहीं जानती हैं कि वे किस दशा में जी रही हैं।
हिन्दी में स्त्रीविमर्श की अब तक प्रकाशित
पुस्तकों में यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी क्यों कि इसमें स्त्री के भीतर की
आवाज़ बिना किसी लाग-लपेट या बिना किसी झिझक के सहज ओर प्रभावी ढंग से उद्घाटित की
गई है जिसमें यह महाप्रश्न भी शामिल है कि स्त्री का समय कब बदलेगा? यह पुस्तक प्रश्न के साथ-साथ परिवर्तन के
रास्ते की ओर स्पष्ट संकेत भी करती है। वस्तुतः ‘आवाज़’ में मैत्रेयी पुष्पा का वह तेवर जो उनकी
प्रत्येक साहित्यिक कृति में रहा है और जिसके लिए वे जानी जाती हैं, ‘आवाज़’ में
यह तेवर अपने समग्र रूप में है। इसलिए इस पुस्तक को ही स्त्री के भीतर की आवाज़ का
घोषणपत्र कहा जा सकता है।
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Dr ( Ms) Sharad Singh |
पुस्तक-समीक्षा
- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक
- बर्फ-आशना परिन्दें (उपन्यास)
लेखिका
- तरन्नुम रियाज
प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
मूल्य
- रुपए 795 मात्र
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Barf ashna parindey |
तरन्नुम रियाज़ कश्मीरी मूल की उर्दू की
ख्यातिलब्ध रचनाकार हैं। ‘‘बर्फ आशना-परिन्दें’’ उनका उर्दू में लिखा गया उपन्यास है
जिसका हिन्दी लिप्यांतरण डॉ. वाहिद नसरू ने किया है। कश्मीर को ले कर एक अलग ही
संवेदनशीलता सभी के मन में पाई जाती है। स्वर्ग-सी सुन्दर कश्मीर की भूमि में
प्रकृति ने तो अपनी छटाएं बिखेरी ही हैं, वहां एक उच्चकोटि का इतिहास भी रचा गया है। यह
दुख की बात है कि आज अलगाववादी ताक़तें उस इतिहास और सकल संवेदनाओं को ताक में रख
कर वादियों की शांति भंग कर रही हैं लेकिन इन वादियों में ही एक किरदार ने जन्म
लिया जिसका नाम है शीबा।
‘‘बर्फ आशना-परिन्दें’’ का कथानक पन्द्रह अध्यायों में
प्रवाहमान है। प्रथम अध्याय है ‘अखरोट के बाग़ात’, दूसरा ‘शोर करती नदी’, तीसरा उम्मींद के आशियाने’, चैथा चांदनी ‘महवे ख़्वाब हो जैसे’, पांचवां ‘हीमाल और नागराय’, छठा ‘नौहाख़्वां फ़ख़्ताएं’, सातवां खि़ज़ां तवील हुई जाती है
चिनारों में’, आंठवां
‘सूखे
पत्तों से झांकती नरगिसें’, नौवां अंखियों को समझाए कोई’, दसवां झीलों पर अबाबीलें’, ग्यारवां ‘दर्द ज़र्द पत्तों का’, बारहवां ‘जादूगर’, तेरहवां ‘सोज़ो-साज़ो-दर्द-ए-दाग़’, चौदहवां ‘दर्द-आशना परिंदे’ तथा पन्द्रहवां ‘वो रगे-जां के क़रीब’। ये पन्द्रहों अध्याय उपन्यास की
नायिका के बचपन से आरम्भ होकर उसकी परिपक्वता के सफ़र को कुछ इस तरह से बयान करते
हैं जैसे कोई पहाड़ी नहीं अपने उद्गम से निकल कर निरन्तर वेगमान होती हुई बह चली
हो।
उपन्यास का कथानक शुरू होता है नन्हीं बालिका
शीबा की उन उत्सुकताओं के साथ जो अपने बालसुलभ ढंग से सबकुछ जान लेने को आतुर है।
चेरी के पकने का समय उसकी मां को कच्ची चेरी चख कर ही कैसे पता चल जाता है,
यह भी उसकी
उत्सुकता का विषय है। जहां उसकी बहन में खिलंदड़ापन अधिक है और वह पढ़ाई के स्थान
पर खेल को अधिक महत्व देती है, वहीं शीबा में पढ़ाई के प्रति एक अनूठा लगाव
है। गोया उसे पता है कि पढ़ाई ही उसकी तमाम जिज्ञासाओं को शांत कर सकती है। उसे
गुड्डे-गुडि़या का ब्याह भी विचित्र लगता है। यह कैसा ब्याह? न दूल्हें के होठों पर मुस्कुराहट और न
दुल्हन के चेहरे पर चमक। बेजान गुड्डे-गुडि़यों को लेकर शीबा की सोच बचपन से ही
अलग थी -‘‘बलिश्त
भर चैड़े गुडि़याघर में नन्हें-नन्हें मुर्दों की तरह अकड़े हुए लेटे
दूल्हा-दुल्हन शीबा को सचमुच मुर्दे से नज़र आते। दिल के अंदर एक न बयान कर सकने
वाला नागवार-सा तनाव बेकरार किए रहता, गोया ख़ौफ़ और बेवकूफ़ी ने मसनूईपन और
खुदफ़रेबी से मिल कर कोई ख़याली महल तामीर करने की कोशिश की हो, जो सिवाय इस खामखयाली में जीने वालों
के किसी और को नज़र ना आ सकता हो।’’ (पृ.43)
शीबा के बचपन की घटनाओं के समांतर कश्मीरी
ज़मींदारों और काश्तकारों के पारस्परिक संबंध भी उभर कर सामने आते हैं। कश्मीर का
इतिहास भी गर्व के साथ सामने रखा जाता है जो शीबा के पिता ने उसे बताया और पढ़ाया
था कि किस तरह कश्मीर की भूमि पर लगभग सभी धर्मांे ने पनाह पाई और परवान चढ़े। ‘‘क़दीमतरीन ज़बानों-तहज़ीब का मरकज
कश्मीर, ऋाियों-मुनियों
का कश्मीर, शेखुल
आलम और ललद्य का कश्मीर, शाक्य मुनि की पेशनगोई का बौद्ध गहवारा कश्मीर,
ललितादित्य और
सुइयाह का कश्मीर, अर्नीमाल
का कश्मीर’’(पृ.57)
यह सर्वधर्म समभाव की भावना शीबा के हृदय को मानव मात्र के प्रति असीमा कोमलता और
आत्मीयता से भर देती है जो आगे चल कर उसके जीवन की दिशा को निर्देशित, निर्धारित करती चलती है।
शीबा के लड़कपन में ही उसके आगे यह सच भी सामने
आ जाता है कि उसकी अपनी बहन उससे ईष्र्या करती है। दोनों बहनों के बीच की कड़वाहट
छोटी, ग़ैरमामूली
लगने वाली बातों के माध्यम से दिखाई देती हैं और जल्दी ही यह कड़वाहट बढ़ने लगी।
अपने से अधिक पढ़ जाने का पछतावा बाजी यानी शीबा की बड़ी बहन के लिए सहन करना कठिन
था। एक तरह से स्वयं को कम महसूस करने की भावना ने उन्हें शीबा से दूर कर दिया।
स्वयं शीबा भी इस दूरी को भली-भांति समझ रही थी। ‘‘खयालों में गुम ख़ामोश खड़ी शीबा का
दिल दफ़अतन धक-धक करने लगा था। हर बात में मनमानी करने वाली बाजी ये हार बर्दाश्त
नहीं करेगी और ये गुस्सा किसी और भयानक तरीके से उतारेगी। फिर अचानक इसे खयाल आया
कि अब तो वो उनकी दस्तरस में नहीं होगी। इसके दिल को इत्मीनान-सा हुआ। वो वैसे ही
खड़ी रही, जैसे
किसी ड्रामे के आखिरी सीन की मुंतजि़र हो।’’(पृ. 87) दोनों बहनों के बीच की दरार जब
तब और चैड़ी हो जाती। शीबा पर छींटाकशीं करने में बाजी को आनन्द आता। ‘‘शीबा तुम, तुम तो ओवरऐज़ लगने लगी हो....बाजी ने
आवाज़ में तश्वीश का ऐसा उनसुर मिला लिया कि इसमें शामिल तज़हीक का पहलू नुमाया हो
सके, मगर
चेहरे पर हैरतअंगेज़ से तास्सुरात भी सजा लिए।’’ (पृ.94) शीबा और उसकी बहन के बीच दरार
और दूसरी ओर शीबा का अपने मार्गनिर्देशक प्रो. दानिश के प्रति सहानुभूति, ममत्व एवं आत्मीयता की भावना।
वह ग्यारवां अध्याय है जिसमें ‘दर्द ज़र्द पत्तों का’ बयान करते हुए प्रो. दानिश की निरन्तर
गिरते स्वास्थ्य और उनके प्रति शीबा की आतुरता भरी असीम चिन्ता का विवरण है। शीबा
निर्विकार भाव से प्रो. दानिश की सेवा करती है जबकि उसकी बहनें उस पर चरित्रहीनता
का आरोप लगाती हैं। मगर इससे पहले के घटनाक्रम में बहुत कुछ है। शीबा अपने परिजनों
के द्वारा पहुंचाई जाने वाली इस पीड़ा को पीते हुए भी अपने उस प्रोफेसर की सेवा
में जुटी रहती है जिसकी पत्नी अपने उच्चपद की व्यस्तताओं के कारण समुचित समय नहीं
दे पाती है। बेगम शहला दानिश छुट्टियां समाप्त होने पर अपने कंधों को हल्का-सा
झटका देकर, हाथ
फैला कर कहती हैं-‘‘सोचती
हूं कि जाने से पहले सब इंतिजाम कर जाऊं कि वहां फिक्र न लगी रहे, हां, छुट्टियां बढ़ तो सकेगी, मगर कितनी? बहुत हुआ तो हफ्ता-दस दिन, और फिर किसके भरोसे, अगर ये तन्दुरुस्त न हुए और छुट्टी भी
जाया हुई तो क्या करूंगी, ये छुट्टियां मैंने सर्दियों के लिए सोच रखी
थीं।’’ शीबा
को उत्तर देते हुए बेगम दानिश मानो अपने बीमार पति को भी मना लेना चाहती हों -‘‘न चाहते हुए भी जाना पड़ता है, क्या किया जाए, नौकरी है, सीनियर पोस्ट पर हूं मैं वहां, और छह महीने बाद मेरा प्रमोशन होने
वाला है, है
न दानिश?’’ (पृ.101)
प्रो. दानिश खामोश रहते हैं और शीबा उन्हें अपने उत्तरदायित्व की भांति स्वीकार कर
लेती है।
अपनी सहेली मयूरी से शीबा की लगभग हर विषय पर
वर्तालाप होती रहती है। प्रति दिन बढ़ती सामाजिक और राजनैतिक अशांति एवं अस्थिरता
पर दोनों सहेलियां एक दूसरे से अपनी पीड़ा का साझा करती हैं। शाीबा मयूरी से कहती
है-‘‘मगर
हम कहां जाएं, न
अपने मुल्क में चैन न बाहर सुकून, इतनी तबाहियां हो गईं, जिससे किसी का भी भला नहीं हुआ,
बिगड़ता ही गया।’’
शीबा आगे कहती
है-‘‘सोचती
हूं कि सब मालोमत्ता, जान
व सुकून लुट गया, मगर
जो थोड़ा बचा है, उसे
संभाला जा सकता है, फिर
से बसाया जा सकता है ये उजड़ा खित्ता।’’ (पृ. 236-37) इधर दुनिया के बिगड़ते हालात का
दुख और उधर चिन्ता प्रो. दानिश की गिरती तबीयत की।
प्रो. दानिश गहन बीमारी की अवस्था में मात्र
शीबा को ही पहचान पाते हैं, अपनी पत्नी शहला को भी नहीं। एक अनकहा रिश्ता
दोनों के बीच जि़न्दा था जिसे अपने ही हाथों मार कर शीबा सुख-चैन नहीं पा सकती थी।
विवाह कर लेने का घरवालों का दबाव भी उसे प्रो. दानिश की सेवा से विमुख नहीं कर पा
रहा था। मयूरी भी उससे पूछती है कि विवाह के बारे में उसका इरादा क्या है? तो शीबा बेझिझक कहती है-‘‘दानिश सर जब तक तन्दुरुस्त नहीं होते,
मैं उनको अकेला
नहीं छोड़ सकती, शादी
के बारे में मैंने सोचा भी नहीं है।’’ (पृ. 377) शीबा के इस निर्णय को निरा दुनियादार
भला कैसे समझ पाते? ये
एक अबूझ-सा रिश्ता था। प्रो. दानिश की दुनिया शीबा तक सिमट कर रह गई थी, वे शीबा में ही अपना संरक्षक, अपना आत्मीय और अपने जीने का बहाना
पाते थे। वहीं शीबा के लिए ये रिश्ता आत्मसंतोष से भरा हुआ था, भले ही शब्दों से परे था-‘‘प्रो. ये उसका कुछ ऐसा ही रिश्ता रहा
है, जैसा
किसी कमजोर के साथ किसी सरपरस्त का होता है। शीबा ने जरा गौर से सोचा और सिर हल्के
से झटका, वरना
उसका प्रोफेसर के साथ क्या रिश्ता हो सकता था, मगर गहरा रिश्ता...।’’ (पृ.404) इस अनाम रिश्ते के बारे में
उसके पास उत्तर था, एक
ठोस उत्तर- ‘‘वो
हमारे उस्ताद हैं, हम
सब तुलबा की जि़न्दगी संवारी है उन्होंने। मेरे सिवा उनका ख़याल रखने वाला कोई
नहीं है। हम सब उनकी खि़दमत करते रहे हैं कई वर्ष, मगर अब सिर्फ़ मैं हूं, अब वो अच्छे हो जाएं तो फिर, फिर....।’’ (पृ. 434) हम अपनी इच्छाओं के कारणों को
किस तरह ढूंढ कर अकाट्य बना लेते हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण शीबा के इस उत्तर में देखा
जा सकता है। हम जो चाहते हैं, वहीं करना चाहते हैं, किन्तु कितने लोग हैं जो मनचाहा कर
पाते हैं? एकदम
उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। सामाजिक दबाव हम पर इतना अधिक प्रभावी और
हावी रहता है कि उससे उबर पाना हममें से सभी के लिए संभव नहीं हो पाता है। फिर भी
कुछ लोग हैं जो बेजान गुड्डे-गुडि़या का खेल बन कर जीने के बजाए इंसान की तरह सांस
लेते हुए जीना पसंद करते हैं, शीबा भी उन्हीं से से एक है, एक सशक्त इंसान। वह उपन्यास का सबसे
सशक्त चरित्र भी है।
तरन्नुम रियाज़ की भाषा शैली में एक सुन्दर
प्रवाह है जो पाठका को कथानक के साथ बंाधे रखता है। उपन्यास की नायिका शीबा,
प्रो. दानिश,
बेगम शहला दानिश,
प्रो. दानिश का
नौकर सलीम मियां, मयूरी,
प्रशांत,
शीबा की बहनें,
उसके माता-पिता
जैसे कंट्रास्ट लेकिन सशक्त पात्रों के जरिए गोया लेखिका ने एक आख्यान ही रच डाला
है। यूं तो यह उपन्यास मूल उर्दू में लिखा गया किन्तु हिन्दी लिप्यांतर करते हुए
लिप्यांतरकार डाॅ. वाहिद नसरू ने प्रत्येक अध्याय के अंत में उर्दू के कठिन शब्दों
के अर्थ भी दे दिए हैं जिससे निश्चित रूप से हिन्दी पाठकों को सुविधा होगी।
तरन्नुम रियाज़ के इस उपन्यास ‘‘बर्फ आशना-परिन्दें’ अपने आप में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, संस्कृति एवं विचारों के साथ ही
दिल-दिमाग़ में गहरे तक उतर जाने वाले कथानक को समेटे हुए वह बेहतरीन उपन्यास है।
इस उपन्यास से हो कर गुज़रना ठीक वैसा ही अनुभव है, जैसे बर्फ में दबी आग को महसूस करना।
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‘समीक्षा’ के सुनहरे अध्याय का आरम्भ
‘समीक्षा’ अक्टूबर-दिसम्बर 2010 |
राज्यसत्ता और संस्कृति के अंतर्सम्बंधों पर सहज ही सबका ध्यान केन्द्रित रहता है किन्तु रचना, प्रकाशन और समीक्षा के अंतर्सम्बंध पर दृष्टिपात करने का अवसर कम ही आता है। या तो रचना और प्रकाशन या फिर रचना और समीक्षा के पारस्परिक संबंधों पर ही विचार-विमर्श सिमट कर रह जाता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि समीक्षा विधा रचनाकार की रचना प्रक्रिया को दिशा प्रदान करती है। इस विधा पर प्रायः भेद-भाव या प्रयोजित होने का आरोप भी लगता रहा है। ऐसी स्थिति में एक ऐसी पत्रिका का महत्व बढ़ जाता है जो समीक्षा विधा पर ही केन्द्रित हो। ‘आलोचना’ और ‘समीक्षा’ पत्रिकाएं मूल रूप से समीक्षा पर केन्द्रित पत्रिकाएं हैं। ‘समीक्षा’ की प्रकाशन-यात्रा सन् 1967 में पटना से आरम्भ हुई और दिल्ली स्थानान्तरित होने के बाद भी सतत् जारी रही। इस पत्रिका की यात्रा में एक सुनहरा मोड़ तब आया जब यह सामयिक प्रकाशन, दिल्ली के प्रबंधन से जुड़ गई। यह जुड़ाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि जुड़ाव के बाद निकले पहले अंक से ही ‘समीक्षा’ के रूप-रंग में परिवर्तन आने लगा। इसका श्रेय सामयिक प्रकाशन के आधारस्तम्भ और युवा प्रबंधक महेश भारद्वाज की समसामयिक दृष्टिकोण को दिया जाना चाहिए। दूसरा पक्ष यह भी है कि इसके युवा संपादक सत्यकाम और महेश भारद्वाज के बीच प्रकाशकीय समझ का एक अच्छा तालमेल है जिसका प्रमाण ‘समीक्षा’ के वे अंक हैं जो निरंतर चित्ताकर्षक एवं संग्रहणीय रूप में सामने आते गए। ‘समीक्षा’ को एक बहुफलक का रूप दिया गया है और बिना किसी पूर्वाग्रह या भेद-भाव के विभिन्न प्रकाशनों की पुस्तकों की समीक्षाएं समान रूप से प्रकाशित की जा रही हैं। यह सदा विवाद में उलझे रहने वाले हिन्दी साहित्य जगत के लिए एक अच्छी पहल मानी जा सकती है। अक्टूबर-दिसम्बर 2010 के अंक की संपादकीय में सत्यकाम ने इस बात पर आपत्ति जताई गई है कि अन्य साहित्यकारों की जन्मशती मनाए जाने के शोर के बीच उपेन्द्रनाथ अश्क का जिक्र भी नहीं किया गया। उनका यह रोष प्रकट करना न्यायसंगत है। उपेन्द्रनाथ अश्क का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण अवदान है। ‘व्यक्तित्व’ के अंतर्गत कबीर की चर्चा करते हुए ‘सांच कहौं’ शीर्षक में गोपाल राय ने एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा की है कि ‘क्या कबीर सूफी थे?’ इसके साथ ही कई विशेष चर्चाएं अपने लेख में समेटी रखी हैं।
महेश भारद्वाज, प्रबंध संपादक |
संपादक सत्यकाम |
पत्रिका की कलेवरगत समग्रता इसके उज्जवल और लोकप्रिय भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है।
‘समीक्षा’ अक्टूबर-दिसम्बर 2010
सम्पादक- सत्यकाम
प्रबंध सम्पादक - महेश भारद्वाज
प्रबंध सम्पादक - महेश भारद्वाज
मूल्य - 25 रुपये (वार्षिक- 125 रुपये)
प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
3320-21 जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
फोन नं 011-23282733
सम्पादकीय कार्यालय
एच-2, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-11008
फोन : 011-29533534
प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
3320-21 जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
फोन नं 011-23282733
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एच-2, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-11008
फोन : 011-29533534
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पुस्तक समीक्षा ‘विश्वामित्र’ उपन्यास
दैनिक ट्रिब्यून, 14 फरवरी 2010 में प्रकाशित समीक्षा-
इंतजार करता घर
नमन प्रकाशन,
4231-1, जटवाड़ा, अंसारी रोड,
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
मूल्य : 150 रुपये
युवा एवं प्रतिभा सम्पन्न कवि लालित्य ललित कविता संग्रह ‘इंतजार करता घर’ सन् 2010 में नमन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। लालित्य ललित का यह कविता संग्रह अपने आप में संवेगों के अनेक रंग समेटे हुए है। इसकी कविताएं कहीं चुटीला व्यंग करती हैं तो कहीं असीम ऊर्जा का अहसास कराती हैं तो कहीं सामने आईना रख देती हैं। इन कविताएं में विचार और संवेदना का क्षेत्रा विस्तृत है और अभिव्यक्ति में सहजता है। ललित लालित्य का यह कविता संग्रह आश्वस्त करता है कि आधुनिक खुरदुरे वातावरण में कविता का सौम्य, कोमल आग्रह सदा सांस लेता रहेगा क्यों कि इसमें निहित कविताएं काव्य के पारंम्परिक सम्मोहन से परे नया संसार रचती दिखाई पड़ती हैं। इनमें नूतन बिम्ब हैं, मुक्त अभिव्यक्ति है और रचना कर्म का श्लाघनीय आचरण है जो इन्हें अन्य समकालीन कविताओं से अलग पहचान देता है।
पुस्तक समीक्षा(साहित्य सृजन – नवम्बर-दिसम्बर 2009)
कई-कई बार इस कृति को पढ़ना ज़रूरी - परमानन्द श्रीवास्तव
कृति : पिछले पन्ने की औरतें(उपन्यास)
लेखिका - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन,
3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पृष्ठ : 304, मूल्य : 150 रुपये(पेपर बैक)
लेखिका - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन,
3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पृष्ठ : 304, मूल्य : 150 रुपये(पेपर बैक)
स्त्री का अकेलापन (पृ.4, जनसत्ता,22 अगस्त 2010)
सिम्मी हर्षिता के नवीनतम उपन्यास ‘‘जलतरंग’’ पर शरद सिंह की समीक्षा
Book review | पियरी का सपना : रोचक व पठनीय
- [ Translate this page ]3 जन 2010 ... स्त्री के अस्तित्व से साक्षात्कार. शरद सिंह. पुस्तक समीक्षा ... उनकी कहानियों से गुजरते हुए स्त्री के अस्तित्व के उन तमाम पक्षों से साक्षात्कार होता है जिन्हें जाने ...hindi.webdunia.com › ... › साहित्य › पुस्तक-समीक्षा
जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं ... |
है- 'आओ गुड़िया से खेलें : एक हॉरर शो'। तौफीक और आरिफ के बीच जिंदगी से जूझती हुई गुड़िया का त्रासद अंत तो सभी को ज्ञात है, किंतु जो प्रायः अनदेखा रह जाता है, उस पर ध्यान दिलाया गया है इस लेख में। गुड़िय... |
hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/bookreview/0902/26/1090226... - 2510.00kb |
सुन्दर जानकारी दी आपने...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार...