धूप [लघुकथा]
- सुभाष नीरव
http://www.sahityashilpi.com/2010/10/blog-post_27.html
लघुकथा ....
चौथी मंज़िल पर स्थित अपने कमरे की
खिड़की से उन्होंने बाहर झाँका। कार्यालय के कर्मचारी लंच के समय, सामने
चौराहे के बीचोंबीच बने पार्क की हरी-हरी घास पर पसरी सर्दियों की गुनगुनी
धूप का आनंद ले रहे थे। उन्हें उन सबसे ईर्ष्या हो आई। और वह भीतर ही भीतर
खिन्नाए, 'कैसी बनी है यह सरकारी इमारत! इस गुनगुनी धूप के लिए तरस जाता
हूँ मैं। . . .
उन्हें
अपना पिछला दफ़्तर याद हो आया। वह राज्य से केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर
आए थे। कितना अच्छा था वह ऑफ़िस-सिंगल स्टोरी! ऑफ़िस के सामने खूबसूरत
छोटा-सा लॉन! लंच के समय चपरासी स्वयं लॉन की घास पर कुर्सियाँ डाल देता
था- अफ़सरों के लिए। ऑफ़िस के कर्मचारी दूर बने पार्क में बैठकर धूप का
मज़ा लेते थे। पर, यहाँ ऑफ़िस ही नहीं, सरकार द्वारा आवंटित फ़्लैट में भी
धूप के लिए तरस जाते हैं वह। तीसरी मंज़िल पर मिले फ़्लैट पर किसी भी कोण
से धूप दस्तक नहीं देती।
एकाएक
उनका मन हुआ कि वह भी सामने वाले पार्क में जाकर धूप का मज़ा ले लें।
लेकिन उन्होंने अपने इस विचार को तुरंत झटक दिया। अपने मातहतों के बीच जाकर
बैठेंगे। नीचे घास पर! इतना बड़ा अफ़सर और अपने मातहतों के बीच घास पर
बैठे!
वह
खिड़की से हटकर सोफ़े पर अधलेटा-सा हो गए। और तभी उन्हें लगा, धूप उन्हें
अपनी ओर खींच रही है। वह बाहर हो गए हैं। बिल्डिंग से। चौराहे के बीच बने
पार्क की ओर बढ़ रहे हैं वह। पार्क में घुसकर बैठने योग्य कोई कोना तलाश
करने लगती हैं उनकी आँखें। पूरे पार्क में टुकड़ियों में बँटे लोग। कुछ ताश
खेलने में मस्त हैं, कुछ गप्पें हाँक रहे हैं, कुछ मूँगफल्ली चबा रहे हैं।
गप्पे हाँकते लोग एकाएक चुप हो जाते हैं। लेटे हुए लोग उठकर बैठ जाते हैं।
उनके पार्क में बैठते ही लोग धीमे-धीमे उठकर खिसकने लगते हैं। कुछ ही देर
में पूरा पार्क खाली हो जाता है और बचे रहते हैं- वही अकेले।
अचानक
उनकी झपकी टूटी। उन्होंने देखा, वह पार्क में नहीं, अपने ऑफ़िस के कमरे
में हैं। उन्होंने घड़ी देखी, अभी लंच समाप्त होने में बीस मिनट शेष थे। वह
उठे और कमरे से ही नहीं, बिल्डिंग से भी बाहर चले गए। पार्क की ओर उनके
कदम खुद-ब-खुद बढ़ने लगे। एक क्षण खड़े-खड़े बैठने के लिए उपयुक्त स्थान
ढूँढ़ने लगे। उन्हें देख लोगों में हल्की-सी भी हलचल नहीं हुई। बस, सब मस्त
थे। लोगों ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया था। वह चुपचाप एक कोने में
अपना रूमाल बिछाकर बैठ गए। गुनगुनी धूप उनके जिस्म को गरमाने लगी थी। पिछले
दो सालों में यह पहला मौका था, सर्दियों की गुनगुनाती धूप में नहाने का।
लंच
खत्म होने का अहसास उन्हें लोगों के उठकर चलने पर हुआ। वह भी उठे और लोगों
की भीड़ का एक हिस्सा होते हुए अपने ऑफ़िस में पहुँचे। अपने कमरे में
पहुँचकर उन्हें वर्षों बाद खोई हुई किसी प्रिय वस्तु के अचानक प्राप्त होने
की सुखानुभूति हो रही थी।
सुभाष नीरव |