बुधवार, नवंबर 15, 2017

कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj अक्टूबर-दिसम्बर 2017 अंक )

कोकून के बाहर फैला अनंत प्रकाश
- शरद सिंह
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
है कहां वह आग जो मुझको जलाए
है कहां वह ज्वाल मेरे पास आए
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
हरिवंश राय बच्चन की ये पंक्तियां दशकों बाद भी आह्वान करती हैं उस दीपक को जलाने का जिसके अभाव में सकल मानवता अपने भविष्य के प्रति बड़ा-सा प्रश्नचिन्ह उठाए खड़ी है। यह प्रश्न चिन्ह उस पृथ्वी से भी भारी है जिसे कच्छप अपनी पीठ पर ढो रहा अथवा उससे भी अधिक भारी जिसे हर्लक्युलिस अपने कांधे पर उठाए हुए है। यह प्रश्नचिन्ह आकार ही न ले पाता यदि हम सजग होते कि कब संवेदनाओं का तैल हमारे हदय के दिए से कम होने लगा। यदि हमारा व्यवहार किसी अनार्की की तरह होने लगे तो यह ठहर कर सोचने का विषय है। आत्ममुग्धता इस हद तक बढ़ जाए कि व्यक्ति अनर्गल विचारों की सार्वजनिक घोषणा करने लगे तो चिन्तनीय है। कभी-कभी लगता है कि वर्तमान दौर विवादों को सप्रयास जन्म देने का दौर है। गोया एक घायल सड़क पर पड़ा है और यदि कोई उस घायल से सबका ध्यान हटाना चाहता है तो उसे करना सिर्फ़ इतना ही है कि सबकी नज़र बचा कर भीड़ पर एक गिट्टी उछाल दे और फिर होने दे तू-तू, मैं-मैं। कहीं हम इसी दूषित सोच की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? हमारी दृष्टि का वह परिष्कार कहां गया जिसमें ताजमहल हमें कला की अनुपमकृति दिखाई देता था और खजुराहो को हम कलातीर्थ की संज्ञा देते थे। कोई भी नवीन शोध दृष्टिकोण के नए रास्ते प्रशस्त करता है किन्तु पूर्वाग्रहपूर्ण रास्तों पर चलते हुए कोई नवीन शोध हो ही नहीं सकता है। नवीन शोध अपने आप में एक ऐसी प्रविधि होती है जो जीवन के प्रत्येक बिन्दु को प्रभावित करती है। इस तथ्य को समझने के लिए दृष्टिपात किया जा सकता है प्रो. चोम्स्की के भाषा संबंधी शोधकार्य पर।
मेसाचुएटस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी के सेवानिवृत्त  प्राध्यापक, भाषावैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक एवं राजनैतिक एक्टीविस्ट प्रो. एवरम नोम चोम्स्की। प्रो. चोम्स्की के भाषा विज्ञान से कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग भाषाओं को समझने में सुगमता होती है। विकासवादी मनोविज्ञान और गणित के क्षेत्रा में भी चोम्स्की के भाषाई सिंद्धांतों से मदद ली जाती है। चोम्सकी ने मनोविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बी. एफ. स्कीनर की पुस्तक ‘वर्बल बिहेवियर’ की आलोचना की, जिसके बाद संज्ञानात्मक (काग्नीटिव) मनोविज्ञान के क्षेत्रा में मानो क्रांति ही हो गई और दशाओं को समझने के नवीन सिद्धांत सामने आए। सन् 1984 में चिकित्सा विज्ञान एवं शरीर विज्ञान के क्षेत्रा में नोबेल पुरस्कार विजेता नील्स काज जेरने ने चोम्स्की के जेनेरेटिव माडल का प्रयोग मानव शरीर में स्थित प्रोटीन संरचनाओं के गठन एवं शरीर की प्रतिरक्षा में उसके महत्व को समझाने के लिए किया था। अपने शोध ‘द जेनेरेटिव ग्रामर ऑफ इम्यून सिस्टम’ में जेरने ने प्रो. चोम्स्की के सिद्धांतों को आधार बना कर जेटेरेटिव व्याकरण प्रतिपादित किया। यदि प्रो. चोम्स्की के उदाहरण को लें तो यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि भाषा और साहित्य जीवन की प्रत्येक चेष्टाओं को प्रभावित एवं प्रेरित करते हैं। बशर्ते शोध ईमानदारी से किए गए हों। यूं भी जीवन और साहित्य सिक्के के दो पहलू हैं अथवा यूं भी कहा जा सकता है कि ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन से साहित्य उपजता है और साहित्य से जीवन को दिशा मिलती है। भारत विभाजन की त्रासदी और उस त्रासदी की पीड़ा को इतिहास के पन्नों से कहीं अधिक खुल कर साहित्य के पन्नों ने मन-मस्तिष्क के करीब पहुंचाया।
  डोमेनिक लैपियर एवं लैरी कॉलिंस के ‘फ्रीडम एट मिड नाईट’, खुशवंत सिंह के ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’, सलमान रुश्दी के ‘मिडनाईट चिल्ड्रेन’ और सआदत हसन मंटो के कथा साहित्य जैसे इतर भाषा के साहित्य के उदाहरणों से परे हिन्दी साहित्य में ही देखा जाए तो प्रसिद्ध उपन्यासकार यशपाल का दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘झूठा सच’ विभाजन की त्रासदी पर हिन्दी में लिखा गया पहला ऐसा उपन्यास है जो इसे विराट ऐतिहासिक, राजनीतिक फलक पर सामने रखता है। बदीउज्जमा का ‘छाको की वापसी’ और कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ भी विभाजन पर हिन्दी में लिखे गए उल्लेखनीय उपन्यास हैं। विभाजन को लेकर लिखा गया भीष्म साहनी का उपन्यास ‘तमस’ भी पाठकों को कालयात्रा कराते हुए अंतस तक सिहरा देता है। राही मासूम राजा का ‘आधा गांव’ भी विभाजन से पहले की घटनाओं और इसके कारण प्रभावित सामाजिक ताने-बाने से परिचित कराता है। हिन्दी की शीर्षस्थ कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ ने पाकिस्तान स्थित पंजाब के गुजरात से विस्थापित होकर पहले दिल्ली में शरणार्थी के रूप में आने और फिर भारत स्थित गुजरात के सिरोही राज्य में वहां के राजकुमार की गवर्नेस के रूप में नौकरी करने वाले पात्रा की कहानी है। विशेष बात यह है कि यह उपन्यास कथानक की खांटी सच्चाई को उजागर करता है क्योंकि अकसर उपन्यासों के कथानक के संबंध में लेखक का कथन होता है कि उपन्यास के पात्रा और वणि्र्ात घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन इसमें लिखा गया कि इसके सभी पात्रा और घटनाएं वास्तविक और ऐतिहासिक हैं। उपन्यास का पात्रा सिकंदरलाल विभाजन पर टिप्पणी करते हुए कहता है कि ‘यह तवारीख़ का काला सिपारा सियासत पर यूं ग़ालिब हुआ कि जिन्ना ने दौड़ाए इस्लामी घोड़े और गांधी, जवाहर ने पोरसवाले हाथी।’ कृष्णा सोबती के इस उपन्यास से पहले भी कई उपन्यास आए जिन्होंने विभाजन और शरणार्थियों की त्रासदी के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण प्रस्तुत किए। इसी तारतम्य में स्मरण की जा सकती है ‘अज्ञेय’ की वे दो कविताएं जो उन्होंने 12 अक्तूबर 1947 से 12 नवंबर 1947 के बीच लिखी थीं। पहली कविता इलाहाबाद में और दूसरी मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर। इसमें ‘शरणार्थी’ शीर्षक वाली यह लंबी कविता ग्यारह खंडों में है और उस समय की त्रासदी का बेहद मार्मिक चित्राण करती है।
इन दिनों शरणार्थी होने की त्रासदी झेल रहे हैं रोहिंग्या। म्यांमार के सबसे ग़रीब प्रांत रख़ाइन में 10 लाख से ज़्यादा रोहिंग्या रहते हैं और उन्हें वहां का नागरिक नहीं माना जा रहा। संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के मुताबिक 40,000 रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार की सीमा पार कर बांग्लादेश पहुंचे हैं। नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई ने सवाल किया, ‘अगर उनका घर म्यांमार में नहीं है तो उनकी पीढ़ियां कहां रह रही थी? उनका मूल कहां है?’ उन्होंने कहा, ‘रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार की नागरिकता दी जाए। वह देश जहां वे पैदा हुए हैं।’
इस समस्या का अंतर्राष्ट्रीय हल निकलना जरूरी है और वह भी जल्दी से जल्दी। शरणार्थी जीवन जीने को विवश रोहिंग्या भी आखिर इंसान हैं और उन्हें भी अन्य मनुष्यों की तरह एक अच्छा जीवन पाने का अधिकार है। क्या सभी देशों को द्रवित होने के लिए उस तस्वीर की प्रतीक्षा है जो एलन कुर्दी की थी। वह कुर्दी मूल का तीन वर्षीय सीरियाईई बालक था जिसके शव की तस्वीर पूरे विश्व को कंपकपा गई थी। एलन का परिवार सीरियाई गृहयुद्ध से बचने के लिए 2 सितंबर 2015 को एक नौका में तुर्की से ग्रीस जाने की कोशिश कर रहा था, पर नौका के डूबने से एलन की मौत हो गईई और उसका शव लावारिस की तरह समुद्र तट पर पड़ा मिला। यह तो तय करना ही होगा कि ऐसी मौतें और नहीं हों।
इस अंक में दिल को छूने वाले कई प्रसंगों को समेटा गया है। सूर्यबाला समकालीन कथा साहित्य में अपनी अलग ही पहचान रखती हैं। ‘एक इन्द्रधनुष जुबेदा के नाम’ जैसी कालजयी कहानी लिखनेेेेेेेेेे वाली लेखिका सूर्यबाला के कथा-पात्रा बेहद संतुलित ढंग से कथानक का ताना-बाना बुनते हैं। ‘रचना, आलोचना, साक्षात्कार’ के अंतर्गत् इस बार हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला की रचनात्मकता एवं संवाद। अंजू शर्मा की लम्बी बातचीत मनीषा कुलश्रेष्ठ से तथा ‘शब्द और मैं’ में राकेश कुमार सिंह। दिलचस्प लेख हैं व्यास मणि त्रिपाठी और मीनाक्षी नटराजन के। राजेन्द्र उपाध्याय, सुशांत सुप्रिय तथा पूनम आरोड़ा की कविताएं। वर्षा सिंह की ग़ज़लें। साथ ही कहानियां, व्यंग और पुस्तक समीक्षा भी।
और अंत में मेरी यह कविता -
बुन रखा है हमने
अपनी जातीयता, अपनी राजनीति
अपने समाज, अपने अर्थशास्त्रा
और नितांत अपनी आकांक्षाओं का कोकून
जिसके भीतर है साम्राज्य गहन अंधकार का,
इससे पहले कि
घुट जाए दम आंखों का
समझना होगा-
कोकून के बाहर फैला है अनंत प्रकाश
जो बना सकता है हमें
प्रकृति की तरह,
सार्वभौमिक, सर्वहितकारी
घुटनरहित, कुण्ठारहित, द्वंद्वरहित।
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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017


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Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017  Cover



Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017 Index
Samayik Saraswati Oct.-Dec 2017 Index

ताकि जिया जा सके - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj जुलाई-सितम्बर 2017 अंक )
ताकि जिया जा सके
- शरद सिंह
हम आज़ाद हैं ...
... पर कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी सारी विद्वता, सारी सोच अंग्रेजों के बनाए माप-दण्ड के अनुरूप चलती है। हम शेक्सपियर, शैली और कीट्स के इतर साहित्य को जानने से कतराते हैं। सोवियत संघ के युग में आम आदमी ने टॉल्सटॉय, गोर्की और पुश्किन के साहित्य को जाना। उससे कुछ आगे फ्रैंज काफ्का, सार्त्रा और कामू को पढ़ा। आज ‘अलकेमिस्ट’ के लेखक पाओलो कोएलो को भी छोटे शहरों, गांवों में रहने वाले हिन्दी लेखक और पाठक कम ही जानते हैं। जो जानते हैं उनमें भी पाओलो कोएलो की साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने वाले कम ही हैं। अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ और अंग्रेजी की ओर अभिभावकों की अंधी दौड़ ने मातृभाषाओं को उपेक्षित कर दिया है। ऐसी दशा में आज हमें मेहनत करनी पड़ेगी त्रिलोचन के सॉनेट की मूलप्रवृत्तियों को समझने के लिए। खैर, त्रिलोचन और उनके सॉनेट की चर्चा बाद में , पहले उस आयोजन के बारे में जहां त्रिलोचन और उनके सॉनेट को पूरी आत्मीयता से याद किया गया। विगत 24 वर्ष से मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा ‘पावस व्याख्यान माला’ का आयोजन किया जा रहा है। मेरी लगातार तीन वर्ष की सहभागिता का अनुभव मुझे भरोसा दिलाता है कि ‘हिन्दी दिवस’ के एक दिवसीय मोहजाल से ऊपर उठ कर हिन्दी के प्रति सत्यनिष्ठा से काम करने वाले अभी भी हैं...जैसे मप्र राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल के मंत्रा-संचालक कैलाशचन्द्र पंत।
इस वर्ष भी 28 से 30 जुलाई 2017 तक हिन्दी भवन, भोपाल में 24वीं पावस व्याख्यानमाला का तीन दिवसीय आयोजन किया गया। व्याख्यान के लिए चार विषय चुने गए थे - रामायण में प्रतिष्ठापित मूल्यों की सार्वभौमिकता, अमृतलाल नागर के उपन्यासों का वैशिष्ट्य, त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प तथा चौथा विषय था लोक साहित्य में संस्कृति की मधुरिम छटा। जितना सच यह है कि लोक साहित्य ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है उतना ही सच यह भी है कि पाश्चात्य साहित्यिक प्रवृत्तियों ने भी हिन्दी साहित्य को विस्तार दिया है। इस क्रम में सॉनेट का स्थान सबसे पहले आता है। पश्चिमी जगत की साहित्यिक विधा सॉनेट को भारतीय परिवेश में ढालने का श्रेय यदि किसी को है तो वह है कवि त्रिलोचन शास्त्री को।
हिन्दी साहित्य के काव्य इतिहास में सॉनेट को पूरी भारतीयता के साथ समावेशित करने का श्रेय त्रिलोचन शास्त्री को ही है किन्तु उनके देहान्त के बाद मानो साहित्य जगत ने त्रिलोचन के सॉनेट को महाविद्यालयीन पाठ्यक्रम के एक लघु अध्याय के रूप में लेख कर के छोड़ दिया। ‘‘त्रिलोचन : गांव के कवि का सॉनेट शिल्प’’ सत्रा में मैंने कवि त्रिलोचन जी को याद करते हुए अपनी उन स्मृतियों को सबके साथ साझा किया जब त्रिलोचन जी सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजन पीठ में अपने प्रथम कार्यकाल में पदस्थ थे। जितने ख्यातिनाम, उतने ही सहज व्यक्ति। सहज इतने कि मैंने उन्हें ‘अंकल’ का सम्बोधन दिया और उन्होंने आत्मीयता से स्वीकार कर लिया।
त्रिलोचन शास्त्री ने सन् 1950 के आस-पास सॉनेट लिखना आरम्भ किया। यह माना जाता है कि उन्होंने अपनी प्रयोगधर्मिता का समावेश करते हुए अपने अधिकांश सॉनेट्स पेटार्कन एवं शेक्सपीयरन शैली में लिखे हैं। शिल्प का आधार भले ही आयातित हो किन्तु त्रिलोचन ने भाव, विचार और शिल्प को ‘त्रिलोचनीय’ अर्थात् मौलिक रूप दिया। जहां तक मेरा मानना है कि समालोचना के दौरान लेखन हमेशा शोधपूर्ण होना चाहिए। यानी पहले जड़ों तक पहुंचो, फिर लिखो। हमें त्रिलोचन के सॉनेट की तुलना शेक्सपियर के सॉनेट से करते हुए ही नहीं ठहर जाना चाहिए बल्कि सॉनेट के मूल स्थान ग्रीस, इटली और सिसली के सॉनेट की प्रवृत्तियों से भी तुलना करना चाहिए। क्योंकि शेक्सपीयर का सॉनेट एलीटवर्ग का सॉनेट था जबकि सिसली का सॉनेट कृषक और मजदूरवर्ग का था और इस प्रकार के सॉनेट ही त्रिलोचन ने लिखे हैं। मुझे तो त्रिलोचन के सॉनेट में आयरिश और कैल्टिक प्रवृत्तियां भी दिखाई देती हैं।
बात कविता की ही कभी सुखद तो कभी दुखद.... कविता को जीने वाले कवि अजित कुमार और काव्य में जीवन को पिरोने वाले कवि चंद्रकांत देवताले को सदा के लिए खोना हिन्दी काव्य-जगत् के लिए शोकाकुल कर देने वाली स्थिति है। यूं तो अजित कुमार ने उपन्यास, कविता, कहानी, यात्रा, संस्मरण, आलोचना आदि एकाधिक विधाओं में कलम चलाई किन्तु वे जिस तरह अपनी कविता में स्वयं के बहाने पूरे जग की बातें कह जाते थे, वह गहरे तक प्रभाव छोड़ने में सक्षम रहा। ‘अनायास’ एक प्रतिनिधि कविता है कवि अजित कुमार की-
‘‘रेंगते हुए एक लम्बे से केंचुए को/मैंने जूते की नोक से जैसे ही छेड़ा/वह पहले तो सिमटा/फिर गुड़ीमुड़ी नन्हीं एक गोली बन/सहसा स्थिर हो गया/क्या मैं जानता था/ देखूंगा इस तरह/ गीली मिट्टी में अनायास/अपना प्रतिबिम्ब?’’
समय साक्षी होता है प्रवृत्तियों का विचारों का और चेष्टाओं का। समय के साक्ष्य कभी साहित्य तो कभी इतिहास तो कभी सिनेमा में ढल कर सामने आते हैं। साक्षी बना 15 अगस्त 1947 भारत की आजादी का ... लेकिन अलगाव के जो बीज दिलों की ज़मीन में दबा दिए गए थे वे आज भी माहौल पा कर यदाकदा सतह से बाहर झांकने की कोशिश करने लगते हैं। सन् 2010 में एक फिल्म आई थी ‘‘रोड टू संगम’’। इसके लेखक और निर्देशक थे अमित राय। अपनी इस फिल्म के लिए अमित राय ने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरला तथा मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर के अवार्ड्स जीते थे। फिल्म की कहानी एक ऐसे पात्रा को ले कर चलती है जो इलाहाबाद में रहता है, गाड़ियां सुधारने का काम करता है और अपने मुस्लिम समुदाय की कमेटी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उसे काम मिलता है उस ऐतिहासिक गाड़ी को सुधारने का जिस पर महात्मा गांधी की अस्थियां लाई गई थीं।  एक बार फिर इसी ऐतिहासिक गाड़ी को चुना जाता है महात्मा गांधी की उन अस्थियों को संगम तक ले जाने के लिए जिन्हें ओडिशा के एक बैंक-लॉकर में रख कर लोग भूल गए थे। इस फिल्म में अमित राय ने बड़े कलात्मक ढंग से इस तथ्य को सामने रखा था कि सामान्यजन की आस्था और कट्टरपंथियों की आस्था में ज़मीन-आसमान का फ़र्क होता है। इस फिल्म में महात्मा गांधी के प्रपौत्रा तुषार अरुण गांधी ने अस्थि-कलश को संगम तक पहुंचाने की भूमिका स्वयं निभाई थी। सन् 2010 में ‘‘रोड टू संगम’’ के जरिए कट्टरपंथियों की जो तस्वीरें सामने रखीं थीं वे आज भी राजनीति के फ्रेम में जड़कर प्रजातंत्रा की दीवारों पर टंगी दिखाई पड़ती हैं। आज भी एक समुदाय दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखता है और दूसरा समुदाय आज भी स्वयं को धार्मिक आधार पर उपेक्षित दिखाने की कोशिश करता रहता है।  
हिन्दी में साहित्य और पत्राकारिता को एक मिशन के रूप में ले कर चलने वाले वरिष्ठ नामों में एक प्रखर नाम है अच्युतानंद मिश्र का। संपादक, पत्राकार, लेखक, पत्राकारों के नेतृत्वकर्त्ता, शिक्षाविद और समाजसेवी जैसी अनेक विशिष्टताओं के धनी अच्युतानंद मिश्र हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। पत्राकारिता के वर्तमान स्वरूप पर उन्होंने बहुत उचित टिप्पणी की है कि ‘‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आने के बाद आज वह खबरों की खोज के अलावा खबरों को प्रायोजित और उत्पादित भी करने लगा है, जबकि तथ्यपूर्ण बुनियादी जानकारी उपलब्ध कराना और बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत करना पहले भी उसका घोषित उद्देश्य रहा है और आज भी है। अन्तर यह है कि अब उसको सनसनीखेज और बिकाऊ खबरों की तलाश है।’’
अच्युतानंद मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को बड़ी बारीकी से आलेखित किया है इसी अंक में विजयदत्त श्रीधर ने। जी हां, इस बार के रचना, आलोचना और साक्षात्कार के केन्द्र हैं पं. अच्युतानंद मिश्र। ज्वलंत प्रश्नों को सामने रखते हुए साक्षात्कार लिया है संत समीर ने। मुझे विश्वास है कि ये सारी सामग्री पाठकों को पं. अच्युतानंद मिश्र के विचारों के और निकट ले जाएगी जहां से वे इस पुरोधा पत्राकार को समग्रता के साथ जान सकेंगे।
आलोक मेहता और गोपेश्वर सिंह के संस्मरण और नरेन्द्र मोहन की डायरी के अंश के साथ ही लेखिका कृष्णा अग्निहोत्रा की लेखकीय मनोवृत्तियों, अनुभूतियों और विचारों की त्रायी आस्वादन कराएंगी गद्य की विविधताओं का। कृष्णा अग्निहोत्रा  मुखर स्पष्टता की पक्षधर लेखिका हैं। इनकी आत्मकथा (दो खंड में) ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘‘औरकृऔरकृऔरत’’ ने अपनी  धमाकेदार उपस्थिति दर्ज़ कराई थी।
हिन्दी को ले कर ढेर सारी नकारात्मक स्थितियों के बीच सुखद लगता है तब जब सोनिया तनेजा जैसी युवा साहित्यकार अमरीका में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रही होती हैं।
और अंत में जीवन की तमाम बाधाओं को हराने वाले शाश्वत प्रेम को समर्पित मेरी यह कविता -
कॉपी के फटे हुए पन्ने पर
नहीं है आसान
खिलाना
प्यार का गुलाब
कुछ लकीरें लांघनी होंगी
कुछ लकीरें मिटानी होंगी
कुछ लकीरें छोड़नी होंगी
ताकि जिया जा सके
अपना जीवन
अपना प्यार
अपने ढंग से
लकीरों को हराते हुए।
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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati - July-Sep 2017

Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati - July-Sep 2017

Samayik  Saraswati - July-Sep 2017 Cover
Samayik  Saraswati - July-Sep 2017 Index

 

मुक्तिबोध ! तुम्हें बोध था मुक्ति के द्वार का - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj अप्रैल-जून 2017 अंक )
मुक्तिबोध ! तुम्हें बोध था मुक्ति के द्वार का
- शरद सिंह
गजानन माधव मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष इसी वर्ष अर्थात्  2016 के नवंबर माह में आरम्भ हो जाएगा। शताब्दी वर्ष आरम्भ होते ही मुक्तिबोध की रचनाशीलता और सृजन पर चर्चा-परिचर्चा, संगोष्ठियों तथा आकलन का दौर भी आरम्भ हो जाएगा। इस कोलाहल से पहले ‘सामयिक सरस्वती’ का यह अंक ‘मुक्तिबोध विशेषांक’ के रूप में रखने का उद्देश्य मात्रा यही है कि मुक्तिबोध के तमाम सृजन को आत्मसात करते हुए शताब्दी वर्ष तक पहुंचा जाए... ताकि हम उन्हें भली-भांति जान, समझ लें जिनका शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे हैं।
वस्तुतः मुक्तिबोध के विचारों को समझना सरल नहीं हैं। उनके शब्द सरल प्रतीत हो सकते हैं किन्तु उन शब्दों की गहराई उस तल तक ले जाती है जहां वाद-विवाद से परे मानवधर्म सम्वाद करता मिलता है। मुक्तिबोध का काव्य छायावादी शैली से आरम्भ हो कर यथार्थवाद की ओर अग्रसर हुआ। वे अपनी कविताओं में कबीर की तरह मुखर दिखाई देते हैं। ‘खतरे उठाने ही होंगे’ में समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। यदि मुक्तिबोध के समग्र साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो हम पाएंगे कि आज जिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों के उत्तर हम ढूंढ रहे हैं, उन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हैं मुक्तिबोध के साहित्य में। समय की नब्ज़ को थामने और धड़कनें गिनने की क्षमता अपने समकालीन साहित्यकारों की अपेक्षा मुक्तिबोध में कहीं अधिक थी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध अपने साहित्य को ले कर अपने जीवनकाल में उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितने कि मरणोपरांत।
सन् 1980 में जबलपुर में राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ का महाअधिवेशन हुआ। अनेक लेखक उसमें उपस्थित हुए। उस समय मध्यप्रदेश के शिक्षा एवं संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी थे तथा मुख्यमंत्रा थे अर्जुन सिंह। अर्जुन सिंह ने उस सम्मेलन में लेखकों का स्वागत करने के लिए आने की इच्छा जताई। लेखकों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। शिव कुमार मिश्र नाराज़ हो कर गुजरात लौट गए और विश्वंभर उपाध्याय ने भी विरोध किया। सम्मेलन की अध्यक्षता हरिशंकर परसाई ने की, उद्घाटन केदारनाथ अग्रवाल ने किया तथा संचालन ज्ञानरंजन एवं कमला प्रसाद ने किया। बहरहाल, इसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाए। इसके लगभग महीने भर बाद मुख्यमंत्रा की ओर से घोषणा कर दी गई कि सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाएगी। पीठ की जिम्मेदारी सौंपी गई हरिशंकर परसाई को। हरिशंकर परसाई इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं थे किन्तु उनके मित्रों ने उन पर दबाव बनाया और तब उन्हें मुक्तिबोध पीठ का दायित्व स्वीकार करना ही पड़ा।
त्रिलोचन शास्त्रा ने दो बार मुक्तिबोध पीठ का कार्यभार सम्हाला। अपने पहले कार्यकाल में वे अत्यंत सक्रिय रहे किन्तु दूसरे कार्यकाल तक वे अपनी अर्द्धांगिनी को खो चुके थे जिसके कारण भीतर ही भीतर उन्हें अवसाद घेरने लगा था। इसीलिए दूसरा कार्यकाल, पहले कार्यकाल की अपेक्षा शिथिल रहा। इस पीठ का दायित्व नरेश सक्सेना तथा श्याम सुंदर दुबे ने भी सम्हाला।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। उन्होंने अपने जीवन को सक्रियता से जिया तथा साहित्य सृजन के प्रति समर्पित रहे किन्तु विडम्बना यह कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुआ। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का दूसरा संस्करण भी उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध की कविताओं में भावनाओं की एक अलग ही आंच रही। इस आंच की तपिश को महसूस करते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।’’
मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वानों ने मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित कहा, तो कुछ ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित ठहराया। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया। लेकिन प्रत्येक वाद-विवाद के सार में मुक्तिबोध मानववादी मूल्यों पर खड़े दिखाई दिए।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववादी दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। मुक्तिबोध की कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
आजकल उच्चशिक्षा केन्द्रों में राजनीति का जो रूप देखने को मिल रहा है उसके तारतम्य में याद आती है मुक्तिबोध की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस’ जिसमें उन्होंने भारतीय शिक्षा परम्परा को अपने अनूठे ढंग से रेखांकित किया है। यह एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। गुरु का अपना एक भेद था किन्तु समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
मुक्तिबोध न तो साम्यवादी विचारधारा के थे और न पूंजीवादी विचारधारा के, वे मूलरूप में मानवतावादी थे, मात्रा मानवतावादी। मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानववाद की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लॉड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्रा-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियों में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं तो वहीं, संत बने रहने के लिए अपनी जननेंद्रीय को चाकू से काट देने वाले एबीलार्ड का भी स्मरण कराते हैं। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। वे ‘क्लॉड ईथरली’ में खुल कर लिखते हैं-‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते।कृतो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है। इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है।’’ इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।
‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में मुक्तिबोध के कवि, लेखक, आलोचक, कहानीकार एवं पत्राकार पक्ष का परिचय तो मिलेगा ही साथ ही उनके जीवन से जुड़े रोचक संस्मरणों से गुज़रने का भी अवसर मिलेगा। इस विशेषांक के अतिथि संपादक हैं युवा साहित्यकार एवं समीक्षक दिनेश कुमार।
मुझे विश्वास है कि यह अंक ‘सामयिक सरस्वती’ के सुधी पाठकों को पसंद आएगा।
और अंत में मुक्तिबोध के सृजन के प्रति समर्पित मेरी एक कविता ....
मुक्तिबोध !
तुम्हें बोध था
मुक्ति के द्वार का
तभी तो ‘अंधेरे में’ तुमने
उजाले के रख दिए कुछ बिन्दु
टिमटिमाते हुए
फिर जुगनुओं की खेप
उपजा दी स्याही से, कागज़ पर
ताकि अंधेरे में रह कर भी
हम पा सकें उजाले की
असीमित संभावनाएं
और जी सकें अपने यथार्थ को।
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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati - April-June-2017

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रंग जाएगा हर लम्हा अपने आप - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जनवरी-मार्च 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj) जनवरी-मार्च 2017 अंक )
रंग जाएगा हर लम्हा अपने आप
- शरद सिंह
‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ यही है वर्ष 2017 का अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अभियान। ‘स्त्री’ के परिप्रेक्ष्य में जब ‘बोल्ड’ शब्द आए तो पुरुष प्रधान समाज चौंकता है। ऐसे समाज का पूर्वाग्रह स्त्री की वैचारिक बोल्डनेस को भी देह के सांचे में ढाल कर देखने लगता है और उसके मानस में कौंधती रहती है ‘सेक्सुअल बोल्ड वूमेन’। इसी बीमारू विचार के विरुद्ध है यह नारा ‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ अर्थात् दुनिया की सारी औरतें सकारात्मक परिवर्तन के लिए साहसी बनें। यूनाइटेड नेशन्स वूमेन की कार्यकारी निदेशक फुमज़िले मलाम्बो-नकूका ने अपने संदेश में कहा है कि ‘‘समूची दुनिया में अनेक स्त्रियां हैं जो अपने जीवन का अधिकांश समय घरेलू जिम्मेदारियों को निभाते हुए काट देती हैं। जो घर के बाहर काम करती हैं यानी कामकाजी हैं वे घोर असुरक्षा में जीने को विवश हैं, कभी घर में, तो कभी सड़क पर तो कभी कार्यस्थल पर। .... हमें स्त्रियों के लिए कामकाजी क्षेत्र की एक अलग दुनिया बनानी है जिसमें घरेलू और घर के बाहर किए जाने वाले कामों को शामिल रखा जाए जिससे एक स्वस्थ, सुरक्षित वातावरण सभी महिलाओं को मिल सके।’’
‘बी बोल्ड फॉर चेंज’ के तहत् जिन परिवर्तनों का आह्वान किया गया है उनमें हैं- पूर्वाग्रह और असमानता के माहौल को बदलना, स्त्रियों पर हिंसा का डट कर विरोध करना, अशिक्षा को दूर करना, स्वास्थ्य और कुपोषण के प्रति जागरूक होना, स्त्रियों की चहुंमुखी उन्नति के हरसंभव प्रयास करना तथा स्त्रियों की उपलब्धि पर उत्सव मना कर प्रोत्साहित करना।
उत्सव...हां, यदि सबकुछ सुखद हो तो उत्सवी लगता है वसंत...ऋतुओं में ऋतुराज...हृदय के आह्लाद की ऋतु। कवि त्रिलोचन ने वसंत पर एक छोटी, कोमल-सी कविता लिखी थी जो सन् 1980 में प्रकाशित ‘ताप के ताए हुए दिन’ में संग्रहीत हैः- ‘सीधी है भाषा बसन्त की/कभी आंख ने समझी/कभी कान ने पाई/कभी रोम-रोम से/प्राणों में भर आई/और है कहानी दिगन्त की।’।
वसंत अपने आप में जादुई और करिश्माई होता है। मौसम शीतकाल में जितना ठिठुरा हुआ, ठंडा और अवसादी लगता है, वसंत उसे अपनी गरमाहट से दुलार कर उतने ही ताप से भर देता है। जीवन का आरम्भ और समापन एक धुरी से दूसरी धुरी की यात्रा ही तो है। ‘श्रीमद्भागवत गीता’ की यह बात मन को ढाढस बंधाती है कि मृत्यु है ही नहीं। मृत्यु एक मिथ्या है, निरा मिथ्या। जो न कभी हुआ, न कभी हो सकता है। जो है, वह सदा है। रूप बदलते हैं। रूप परिवर्तन को मृत्यु समझ लिया जाता है। दिन और रात समय के ही रूपांतरण हैं। जैसे बीज में वृक्ष छिपा है। जमीन में डाल दो, वृक्ष पैदा हो जाएगा। जीवन जब तक बीज में छिपा रहता है, दिखाई नहीं देता। अंकुरित होते और पौधे के रूप में विकसित होते ही जीवन दिखाई देने लगता है। मृत्यु में मनुष्य छिप जाता है, गोया बीज में समा जाता है। पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार फिर किसी गर्भ में पहुंच कर, फिर प्रकट होता है। मरता कभी कुछ भी नहीं, जीवन सतत् प्रवाहमान रहता है। यह बात उस समय भी मन को उद्विग्नता से बचाती है जब हम अपने पितृपुरुष को याद करते हैं। जगदीश भारद्वाज (14.03.1935 - 18.03.2010) सामयिक प्रकाशन परिवार के पितृपुरुष जिनका स्मरण आज भी वटवृक्ष की शीतल छांह-सा अनुभव देता है। सीमित साधन और असीमित उत्साह का सुंदर मेल उस समय फलीभूत हुआ जब जगदीश भारद्वाज जी द्वारा सन् 1967-68 में सामयिक प्रकाशन की आधारशिला रखी गई। ‘सामयिक प्रकाशन’ का नामकरण किया था तत्कालीन प्रकाशन जगत् के आधार-स्तम्भ ओमप्रकाश जी ने। आज यही सामयिक प्रकाशन साहित्य के सागर तट पर लाईट हाऊस की तरह खड़ा है क्यों कि इसमें संस्कार हैं जगदीश भारद्वाज जी की जीवटता के, दृढ़ निश्चय के और संघर्षों से जूझने के। हम नमन करते हैं अपने पितृपुरुष को उनकी सातवीं पुण्यतिथि पर।
स्मरण ! हां, स्मरण ही तो है जो हमें अतीत से जोड़े रखता है। अतीत में मिलन के साथ-साथ विछोह के भी पन्ने होते हैं। इन पन्नों पर लिखी इबारत हमें भाव-विह्वल कर देती है। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था कि ‘‘यदि चाहते हो कि तुम्हारे मरते ही लोग तुम्हें भूल न जाय, तो पठनीय लिखो या कुछ ऐसा करो जो लिखने योग्य हो।’’ विगत वर्ष जाते -जाते हिन्दी साहित्य जगत् को ऐसे महत्वपूर्ण दो साथियों का विछोह दे गया जिनका लिखा हुआ उनके स्मरण को सदा रेखांकित करता रहेगा। वीरेन्द्र सक्सेना और देवेन्द्र उपाध्याय। वीरेन्द्र सक्सेना साहित्यकार थे, पत्राकार थे। उन्होंने कई समालोचनात्मक शोधग्रंथ लिखे, जैसे- ‘काम-संबंधों का यथार्थ और समकालीन हिंदी कहानी’, ‘आवारा मानुष : विष्णु प्रभाकर’, ‘थोथा देय उड़ाय’, ‘सर्जन के साथ-साथ’ तथा ‘सर्जन के आप-पास’। जहां तक समकालीन हिंदी कहानी का प्रश्न है तो काम-संबंधों के यथार्थ चित्राण को ले कर सदैव विवाद रहा है। इस प्रकार का यथार्थ साहित्य में आना चाहिए या नहीं आना चाहिए? यदि आना चाहिए तो किस सीमा तक? आदि-आदि। वीरेन्द्र सक्सेना ने एक सुलझे हुए साहित्य मनीषी की भांति इस विषय पर गंभीर लेखन किया। ‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग ने वीरेन्द्र सक्सेना के साहित्य एवं व्यक्तिव का जिस शैली में स्मरण किया है वह उन्हें एकबार फिर मानो सामने ला खड़ा करती है...उनके उसी बेलौसपन के साथ जो ठेठ मौलिक थी। मृदुला गर्ग ने वीरेन्द्र सक्सेना को याद करते हुए लिख है-‘‘सत्य से उन्हें काफी या काफी से ज्यादा लगाव था। एक उपन्यास लिखा, ‘सर्वोत्तम सच’ के नाम से तो फिर हाल में लिखा, ‘अद्यतन सच’ उनके लिए इस ‘सच’ में तथ्यों का मिश्रण लाजिमी था। अपनी-अपनी शैली है सच को देखने की।’’
देवेन्द्र उपाध्याय की दो पीढ़ियां आजादी के आंदोलन में शामिल रहीं। पहले उनके दादा पुरुषोत्तम उपाध्याय महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जेल में रहे। फिर उनके पिता रघुवर दत्त उपाध्याय भी स्वतंत्राता आंदोलन से जुड़ गए। अपने दादा और पिता के उसूलों पर चलते हुए देवेन्द्र उपाध्याय ने एक पत्राकार और लेखक के रूप में जीवन जिया। वे ‘जनयुग’, ‘देशबंधु’ और ‘पंजाब केसरी’ जैसे समाचारपत्रों से लंबे समय तक जुड़े रहे। उनकी पत्राकारिता बहुआयामी थी। आकाशवाणी के लिए संसदीय रिपोर्टिंग भी करते थे। अपनी जन्मभूमि से अटूट लगाव होने के नाते पहाड़ से निकलने वाले सभी पत्रा-पत्रिकाओं में वे नियमित लिखते थे। उन्होंने उत्तराखंड की राजस्व व्यवस्था पर महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। प्रदीप पंत का लेख देवेन्द्र उपाध्याय के समग्र पहलू से परिचित कराता है।
प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी मानवीय चरित्रा के समुच्चय को प्रस्तुत करती है। घीसू, माधव और बुधिया... मात्रा ये तीन पात्रा मानवीय दुर्बलता से दृढ़ता तक की बेजोड़ कहानी कह जाते हैं। जहां घीसू और माधव परिस्थितियों से हार कर जीने वाले पुरुषों के प्रतीक हैं वहीं बुधिया भारतीय स्त्री की पारम्परिक छवि की द्योतक है। सहते हुए प्राण दे देना पर ‘उफ़!’ न करना। समाज के गाल पर करारे तमाचे की तरह हैं ये तीनों पात्रा। किन्तु ‘कफन’ का कथानक मात्रा इतना ही नहीं है। कमल किशोर गोयनका इस कथानक में जीवन की विसंगतियों, विडम्बनाओं, निरर्थकताओं और अन्तर्विरोधों की एक विभिन्न परिपक्व व्याख्या करते हैं। इसीलिए तो अशोक मिश्र कमल किशोर गोयनका को प्रेमचंद विशेषज्ञ मानते हैं। इस अंक में कमल किशोर गोयनका से सुधा ओम ढींगरा का दिलचस्प साक्षात्कार है जिसमें गोयनका जी ने माना है कि साहित्य में वर्जनाओं की जंजीरें टूट चुकी हैं। साहित्य हो या समाज, वर्जनाओं का प्रश्न हमेशा ज्वलंत रहा है। बड़ा ही विवादास्पद मसला है कि जो एक की दृष्टि में अच्छा हो वह दूसरे की दृष्टि में बुरा हो सकता है या फिर जो एक की दृष्टि में बुरा हो वह दूसरे की दृष्टि में अच्छा हो सकता है। अच्छे या बुरे को परिभाषित करना आसान नहीं है।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उस बोली को अन्य बोलियों से अलग कर उसे स्वतंत्रा अस्तित्व का स्वामी बनाती है।  प्रत्येक बोली की अपनी एक भूमि होती है जिसमें वह पलती, बढ़ती और विकसित होती है। लेकिन क्या हर बोली को भाषा का दर्ज़ा दिया जा सकता है? भाषा और बोली की अपनी-अपनी स्वायत्तता कैसे बनी रह सकती है? इन दोनों प्रश्नों को खंगालते रहते हैं विख्यात भाषाविज्ञ प्रो. अमरनाथ। इस समय वे ‘हिन्दी बचाओ मंच’ के माध्यम से हिन्दी क्षेत्र के सांस्कृतिक पतन के खिलाफ संघर्षरत हैं। बोली और भाषा के अस्तित्व पर उनसे सार्थक चर्चा की है डॉ. जितेन्द्र गुप्ता ने।
चर्चा विमर्श को जन्म देती है और विमर्श विषय को विस्तार देता है। इन सबके बीच छोटा सा ही सही लेकिन वसंत जैसा महकता, चहकता जीवन नए अर्थ गढ़ता है, ठीक वैसे ही जैसे वसंत के बाद फागुन का आना और होलिकाना रंग-अबीर का छा जाना। इसी तारतम्य में मेरी ये क्षणिका -
आसमान गुलाल हो जाए
और ज़मीन फागुन
रंग जाएगा हर लम्हा
अपने आप
गोपी और हुरियारे की तरह !
------------------------------------- 

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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati January-March 2017

Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati January-March 2017

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उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’ - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक में मेरा संपादकीय ...

("सामयिक सरस्‍वती", संपादक Mahesh Bhardwaj, कार्यकारी संपादक Sharad Singh) अक्टूबर-दिसम्बर 2016 अंक )
उत्तर आधुनिकता का ‘सेकेंड फेज़’
- शरद सिंह
परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो कल था, वह आज नहीं है। जो आज है, वह कल नहीं रहेगा। बड़ी से बड़ी शिलाओं का भी जल के प्रवाह से आकार बदल जाता है। स्टीफन हॉकिंग ने भविष्यवाणी की है कि पृथ्वी का भविष्य संकट में है और मानवजाति का जीवन लगभग एक हज़ार साल का बचा है। सुनने-पढ़ने में यह किसी साई-फाई फिक्शन जैसा लगता है। इसमें कोई शक़ नहीं कि मनुष्य ने कुछ सार्थक परिवर्तन किए और प्रागैतिहासिक जीवन से आगे बढ़ कर सभ्यताओं के सोपान पा लिए। लेकिन कुछ घातक परिवर्तन भी किए जैसे खनिज संपदा का अधैर्यपूर्ण दोहन, जंगलों की कटाई और वायु में ज़हरीली गैसों का निरंतर निष्पादन। किसने सोचा था कि दिल्ली में वायु प्रदूष्शण का स्तर मापने की क्षमता से भी कहीं अधिक पाया जाएगा। शाम होते-होते धुंधलका छा जाना कई वर्षोंं से दिल्ली के लिए आम बात रही है। सभी ने इसे लगभग अनदेखा किया। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में छाई धुंध ने जता दिया कि हम अपनी सांसों के प्रति कितने लापरवाह हैं।
विकसित देशों का प्रत्येक नागरिक भी जान बचाने के लिए मंगलग्रह नहीं जा सकता है तो हमारी तो कोई बिसात ही नहीं है। हमें यहीं इसी पृथ्वी पर, इन्हीं शहरों, गांवों और कस्बों में सांस लेना है और हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी, यदि वे सांस की बीमारियों से ग्रसित हो कर भी एक हज़ार साल तक प्रवाहमान रहीं तो। गंभीरता से सोचा जाए तो यक़ीनन स्थिति भयावह है। मगर इस स्थिति को बदला अथवा कुछ आगे भी बढ़ाया जा सकता है यदि हम अभी भी चेत जाएं और पर्यावरण के प्रति खुद की लापरवाहियों के विरुद्ध कुछ कठोर क़दम उठाएं।
जैसे एक कठोर कदम उठाया गया कालेधन के विरुद्ध। देश की जनता ही नहीं, वैश्विक जगत ने भी नहीं सोचा था कि एक रात अचानक लगभग साढ़े तीन घंटे की अवधि में भारतीय मुद्रा की दो महत्वपूर्ण इकाइयां रद्दी के टुकड़े में बदल जाएंगी। यह एक इतना बड़ा निर्णय था जिसने सम्पूर्ण विश्व को चौंका दिया। भारत विपुल जनसंख्या का देश है और यहां वास्तविक साक्षरता का प्रतिशत भी विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है। ऐसे में ‘लिक्विड मनी’ की ओर तेजी से क़दम बढ़ाना किसी जोखिम से कम नहीं है। फिर भी इस दिशा में इतना बड़ा डग धरा गया कि जैसे त्रोता युग में वामन ने अपने एक डग से एक लोक नाप लिया था। दफ़्तर के झगड़े, घरेलू पचड़े इन सब को भूल कर आमजन बैंकों के, एटीएम के दरवाज़ों पर कतारबद्ध हो गए। हज़ार और पांच सौ के पुराने नोट जमा करा देने के बाद पचास, बीस और दस के नोट इतनी संख्या में किसी के पास भी नहीं बचे कि वह दो-तीन महीने के लिए आश्वस्त हो सके। कालाधन बाहर आने के उत्साह के बीच घबराहट और तनाव का माहौल। इस परिवर्तन से साहित्य जगत भी प्रभावित हुआ है। मुद्रा की बात छोड़ दी जाए तो तथ्य और कथ्य साहित्य की हर विधा पर अपना प्रभाव छोड़ कर रहेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस दौर के साहित्य में इस पूरे माहौल को स्थान मिलेगा। किसी कहानी में कसमसाता हुआ कालाबाज़ारी करने वाला दिखाई देगा तो वहीं किसी कविता में वह बेचैन पिता मिलेगा जिसने बेटी की शादी के लिए बैंक से बड़े नोट निकलवाए थे और आपाधापी में उसे उन्हें वापस जमा कराना पड़ा। वह चिन्तित खाली हाथ पिता किसी न किसी कविता में अपनी जगह जरूर बना लेगा। या फिर वह दिहाड़ी मज़दूर जो ‘नोटबंदी’ से उपजी आर्थिक समस्या के कारण कई रात भूखा सोया। साहित्य में सबके लिए जगह है। इतिहास से कहीं अधिक उदार होता है साहित्य।
साहित्य में परिवर्तनकारी तत्व सदैव परिलक्षित होते रहे हैं। इन तत्वों से उपजनेवाली प्रवृत्तियों में अब तक हम सबसे नूतन प्रवृत्ति उत्तर आधुनिकता को मानते आए हैं। इतिहासकार अर्नाल्ड जे.टायनबी के अनुसार आधुनिकता के बाद उत्तर आधुनिकता तब शुरू होती है जब लोग कई अर्थों में अपने जीवन, विचार एवं भावनाओं में तार्किकता एवम् संगति को त्याग कर अतार्किकता एवम् असंगतियों को अपना लेते हैं। इसकी चेतना विगत को एवम् विगत के प्रतिमानों को भुला देने के सक्रिय उत्साह में दीख पड़ती है। इस प्रकार उत्तर आधुनिकतावाद आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की समाप्ति के बाद की स्थिति है।
जबकि पाउलोस मार ग्रगोरिओस ने उत्तर आधुनिकता को एक विचारधारा या लक्ष्य केंद्रित या नियम अनुशासित आंदोलन न मान कर पश्चिमी मानवतावाद की दुर्दशा माना। आज पश्चिम जगत में अनेक मानक टूट रहे हैं। जबकि हमारा देश नए मानक गढ़ रहा है। ये नए मानक उनसे भी ऊपर उभर कर आने की राह बना रहे हैं जो कल तक यू इलीट, कारपोरेट बुल, ब्यूरोक्रेट्स पावर, मीडिया मुगल्स, मॉस प्रोडक्शन, मॉस डिस्ट्रीब्यूशन, मॉस एजूकेशन, मॉस कम्यूनिकेशन तथा मॉस डेमोक्रेसी जैसे शब्दों से पहचाने जाते रहे हैं। ये सभी उत्तर आधुनिकता की ही देन हैं। अमेरिकी लेखक एवं भविष्यवादी एल्विन टाफ्लर ने तीन पुस्तकें लिखीं -‘फ्यूचर-शॉक’, ‘दि थर्ड वेब’, ‘पॉवर शिफ्ट’। इन तीनों पुस्तकों में उत्तर-आधुनिकतावाद के विभिन्न पक्षों का नवीन परिवर्तन के रूप में विवेचन किया गया है।  ‘फ्यूचर शॉक’ बेस्टसेलर रही, जिसकी विश्व भर में 6 मिलियन से अधिक प्रतियां बिकीं। 27 जून, 2016 को 87 वर्ष की आयु में लास एंजेल्स में उनका निधन हो गया। एल्विन टाफ्लर का कहना था कि ‘‘समाज को ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो बुजुर्गों की देखभाल करें और उनके प्रति दयालु और ईमानदार रहें। अस्पताल में काम करने वालों की आवश्यकता है। विभिन्न प्रकार के कौशल वाले व्यक्तियों की आवश्यकता है। समाज भावना और कौशल के संयोग से चल सकता है, डाटा और कम्प्यूटर मात्रा से नहीं।’’
कुछ विद्वान उत्तर-आधुनिकतावाद को बहुलतावाद और नवसंस्कृतिवाद से जोड़ कर देखते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भूमंडलीकरण, उदारवाद और बाजारवाद अपने पूरे लक्षणों के साथ समाज पर असर डालता दिखाई पड़ता है। वहीं जब मैं टायनबी, पाउलोस मार ग्रगोरिओस और एल्विन टाफ्लर के विचारों के आधार पर हिन्दी साहित्य में उत्तर आधुनिकता को परखने का प्रयास करती हूं तो मुझे लगता है कि हम अब उत्तर आधुनिकता के ‘सेकेंड फेज़’ में प्रवेश कर चुके हैं। हम पारिवारिक विखण्डन को अपना चुके हैं, परिवार की नैनो इकाइयों की ओर बढ़ रहे हैं, लिव इन रिलेशन और समलैंगिकता को सहज रूप में लेने का मन बनाते जा रहे हैं, आर्थिक तौर पर प्लास्टिक मनी और लिक्विड मनी को आत्मसात करने के लिए कटिबद्ध हैं और इन सबसे अधिक परिवर्तनकारी प्रवृत्ति कि हम पहले की अपेक्षा अधिक आत्मकेन्द्रित हो चले हैं। यह उत्तर आधुनिकता का द्वितीय चरण ही कहा जा सकता है।
रचना, आलोचना और साक्षात्कार में इस बार मैनेजर पाण्डेय हैं, जो गम्भीर और विचारोत्तेजक आलोचनात्मक लेखन के लिए शीर्षस्थ साहित्यकारों में गिने जाते हैं। मैनेजर पाण्डेय ने हिन्दी साहित्य में बोध, विश्लेषण तथा मूल्यांकन के महत्व को स्थापित करने के साथ ही हिन्दी भाषा में साहित्य की समाजशास्त्राय नूतन दृष्टि को विकसित कियाई है। वे आलोचना-कर्म में परम्परा के विश्लेषणात्मक पुनर्मूल्यांकन के पक्षधर रहे हैं। उन्होंने भक्त कवि सूरदास के साहित्य की समकालीन सन्दर्भों में व्याख्या कर भक्तियुगीन काव्य की परंपरागत प्रचलित धारणा से अलग एक सर्वथा नयी तार्किक प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। दलित साहित्य और स्त्रा-स्वतन्त्राता के समकालीन प्रश्नों पर भी मैनेजर पाण्डेय की अपनी एक स्वतंत्रा दृष्टि है।
आलोचना संदर्भ के क्रम में भारत यायावर का लेख नन्दकिशोर नवल की आलोचनात्मकता के तारतम्य में हिन्दी साहित्य में आलोचना के नए पक्षों को सामने रख रहा है जिन पर चिंतन-मनन किया जाना आवश्यक है। यूं भी एक अरसे से यह माना जा रहा है कि हिन्दी का आलोचनात्मक पक्ष कमजोर होता जा रहा है।
तमाम पठनीय सामग्रियों के साथ दो महत्वपूर्ण लेख। पहला ‘स्त्रा लेखन में निरूपित पुरुष छवि’ और दूसरा ‘मीराबाई के काव्य में स्त्रा विमर्श के स्वर’। रोहिणी अग्रवाल इस प्रश्न को उठा कर झकझोरती हैं कि ‘क्या समूचा हिन्दी साहित्य गहरे राग या उदग्र द्वेष से बन्धे भावोच्छ्वासों का अखाड़ा है, जो अपने-अपने द्वीपों में कैद रचयिता को अपने-अपने हिसाब चुकता करने का अवसर देता है?’ उन्होंने इस तथ्य को भी याद दिलाया है कि मीराबाई के बाद हिन्दी साहित्य में स्त्रा अभिव्यक्ति के स्वर आधुनिक काल में सुनाई पड़ते हैं। वहीं सुषमा सहरावत भी यही मानती हैं कि स्त्रा विमर्श के बीज हमें मीराबाई के काव्य में मिलते हैं। इन्हीं बीजों ने प्रस्फुटित होकर आगे चलकर स्त्रा विमर्श को व्यापक धरातल पर स्वरूप प्रदान किया।
समाज बदल रहा है, स्त्रा का जीवन बदल रहा है, विचार और प्रवृत्तियां बदल रही हैं। यह साल भी बदल जाएगा।
परिवर्तन पर अपनी ये पंक्तियां याद आ रही हैं मुझे -
अब न वो वन है न कानन
न पेड़, न झुरमुट
न नदी के स्वच्छ किनारे
कोलाहल में गुम वंशीस्वर
और उजड़े हुए हमारे मिलन स्थल
कहो कान्हा! 
मैं तुमसे कहां मिलू?
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Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati October-December-2016
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati October-December-2016
Samayik Ssaraswati - October-December 2016 Cover

शुक्रवार, नवंबर 03, 2017

हमारी कल्पनाओं के सांचे में .... डॉ शरद सिंह

 My Quotes ... Sharad Singh
जो हमारी कल्पनाओं के सांचे में फिट नहीं बैठता वह मिलता है और हमारी कल्पनाओं के सांचे में फिट बैठता है वह मिलता नहीं। 
- डॉ शरद सिंह

Who does not fit our imagination, meets and gets fit in the mold of our fantasies, he does not meet us.
- Dr Sharad Singh