Dr (Miss) Sharad Singh |
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के अप्रैल-जून 2017 अंक में मेरा संपादकीय ...
("सामयिक
सरस्वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj अप्रैल-जून 2017 अंक )
मुक्तिबोध ! तुम्हें बोध था मुक्ति के द्वार का
- शरद सिंह
गजानन माधव मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष इसी वर्ष अर्थात् 2016 के नवंबर माह में आरम्भ हो जाएगा। शताब्दी वर्ष आरम्भ होते ही मुक्तिबोध की रचनाशीलता और सृजन पर चर्चा-परिचर्चा, संगोष्ठियों तथा आकलन का दौर भी आरम्भ हो जाएगा। इस कोलाहल से पहले ‘सामयिक सरस्वती’ का यह अंक ‘मुक्तिबोध विशेषांक’ के रूप में रखने का उद्देश्य मात्रा यही है कि मुक्तिबोध के तमाम सृजन को आत्मसात करते हुए शताब्दी वर्ष तक पहुंचा जाए... ताकि हम उन्हें भली-भांति जान, समझ लें जिनका शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे हैं।
वस्तुतः मुक्तिबोध के विचारों को समझना सरल नहीं हैं। उनके शब्द सरल प्रतीत हो सकते हैं किन्तु उन शब्दों की गहराई उस तल तक ले जाती है जहां वाद-विवाद से परे मानवधर्म सम्वाद करता मिलता है। मुक्तिबोध का काव्य छायावादी शैली से आरम्भ हो कर यथार्थवाद की ओर अग्रसर हुआ। वे अपनी कविताओं में कबीर की तरह मुखर दिखाई देते हैं। ‘खतरे उठाने ही होंगे’ में समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। यदि मुक्तिबोध के समग्र साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो हम पाएंगे कि आज जिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों के उत्तर हम ढूंढ रहे हैं, उन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हैं मुक्तिबोध के साहित्य में। समय की नब्ज़ को थामने और धड़कनें गिनने की क्षमता अपने समकालीन साहित्यकारों की अपेक्षा मुक्तिबोध में कहीं अधिक थी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध अपने साहित्य को ले कर अपने जीवनकाल में उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितने कि मरणोपरांत।
सन् 1980 में जबलपुर में राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ का महाअधिवेशन हुआ। अनेक लेखक उसमें उपस्थित हुए। उस समय मध्यप्रदेश के शिक्षा एवं संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी थे तथा मुख्यमंत्रा थे अर्जुन सिंह। अर्जुन सिंह ने उस सम्मेलन में लेखकों का स्वागत करने के लिए आने की इच्छा जताई। लेखकों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। शिव कुमार मिश्र नाराज़ हो कर गुजरात लौट गए और विश्वंभर उपाध्याय ने भी विरोध किया। सम्मेलन की अध्यक्षता हरिशंकर परसाई ने की, उद्घाटन केदारनाथ अग्रवाल ने किया तथा संचालन ज्ञानरंजन एवं कमला प्रसाद ने किया। बहरहाल, इसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाए। इसके लगभग महीने भर बाद मुख्यमंत्रा की ओर से घोषणा कर दी गई कि सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाएगी। पीठ की जिम्मेदारी सौंपी गई हरिशंकर परसाई को। हरिशंकर परसाई इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं थे किन्तु उनके मित्रों ने उन पर दबाव बनाया और तब उन्हें मुक्तिबोध पीठ का दायित्व स्वीकार करना ही पड़ा।
त्रिलोचन शास्त्रा ने दो बार मुक्तिबोध पीठ का कार्यभार सम्हाला। अपने पहले कार्यकाल में वे अत्यंत सक्रिय रहे किन्तु दूसरे कार्यकाल तक वे अपनी अर्द्धांगिनी को खो चुके थे जिसके कारण भीतर ही भीतर उन्हें अवसाद घेरने लगा था। इसीलिए दूसरा कार्यकाल, पहले कार्यकाल की अपेक्षा शिथिल रहा। इस पीठ का दायित्व नरेश सक्सेना तथा श्याम सुंदर दुबे ने भी सम्हाला।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। उन्होंने अपने जीवन को सक्रियता से जिया तथा साहित्य सृजन के प्रति समर्पित रहे किन्तु विडम्बना यह कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुआ। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का दूसरा संस्करण भी उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध की कविताओं में भावनाओं की एक अलग ही आंच रही। इस आंच की तपिश को महसूस करते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।’’
मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वानों ने मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित कहा, तो कुछ ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित ठहराया। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया। लेकिन प्रत्येक वाद-विवाद के सार में मुक्तिबोध मानववादी मूल्यों पर खड़े दिखाई दिए।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववादी दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। मुक्तिबोध की कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
आजकल उच्चशिक्षा केन्द्रों में राजनीति का जो रूप देखने को मिल रहा है उसके तारतम्य में याद आती है मुक्तिबोध की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस’ जिसमें उन्होंने भारतीय शिक्षा परम्परा को अपने अनूठे ढंग से रेखांकित किया है। यह एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। गुरु का अपना एक भेद था किन्तु समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
मुक्तिबोध न तो साम्यवादी विचारधारा के थे और न पूंजीवादी विचारधारा के, वे मूलरूप में मानवतावादी थे, मात्रा मानवतावादी। मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानववाद की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लॉड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्रा-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियों में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं तो वहीं, संत बने रहने के लिए अपनी जननेंद्रीय को चाकू से काट देने वाले एबीलार्ड का भी स्मरण कराते हैं। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। वे ‘क्लॉड ईथरली’ में खुल कर लिखते हैं-‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते।कृतो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है। इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है।’’ इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।
‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में मुक्तिबोध के कवि, लेखक, आलोचक, कहानीकार एवं पत्राकार पक्ष का परिचय तो मिलेगा ही साथ ही उनके जीवन से जुड़े रोचक संस्मरणों से गुज़रने का भी अवसर मिलेगा। इस विशेषांक के अतिथि संपादक हैं युवा साहित्यकार एवं समीक्षक दिनेश कुमार।
मुझे विश्वास है कि यह अंक ‘सामयिक सरस्वती’ के सुधी पाठकों को पसंद आएगा।
और अंत में मुक्तिबोध के सृजन के प्रति समर्पित मेरी एक कविता ....
मुक्तिबोध !
तुम्हें बोध था
मुक्ति के द्वार का
तभी तो ‘अंधेरे में’ तुमने
उजाले के रख दिए कुछ बिन्दु
टिमटिमाते हुए
फिर जुगनुओं की खेप
उपजा दी स्याही से, कागज़ पर
ताकि अंधेरे में रह कर भी
हम पा सकें उजाले की
असीमित संभावनाएं
और जी सकें अपने यथार्थ को।
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Also can read on this Link ...
https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-april-june-2017
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_april-june_2017
- शरद सिंह
गजानन माधव मुक्तिबोध का शताब्दी वर्ष इसी वर्ष अर्थात् 2016 के नवंबर माह में आरम्भ हो जाएगा। शताब्दी वर्ष आरम्भ होते ही मुक्तिबोध की रचनाशीलता और सृजन पर चर्चा-परिचर्चा, संगोष्ठियों तथा आकलन का दौर भी आरम्भ हो जाएगा। इस कोलाहल से पहले ‘सामयिक सरस्वती’ का यह अंक ‘मुक्तिबोध विशेषांक’ के रूप में रखने का उद्देश्य मात्रा यही है कि मुक्तिबोध के तमाम सृजन को आत्मसात करते हुए शताब्दी वर्ष तक पहुंचा जाए... ताकि हम उन्हें भली-भांति जान, समझ लें जिनका शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे हैं।
वस्तुतः मुक्तिबोध के विचारों को समझना सरल नहीं हैं। उनके शब्द सरल प्रतीत हो सकते हैं किन्तु उन शब्दों की गहराई उस तल तक ले जाती है जहां वाद-विवाद से परे मानवधर्म सम्वाद करता मिलता है। मुक्तिबोध का काव्य छायावादी शैली से आरम्भ हो कर यथार्थवाद की ओर अग्रसर हुआ। वे अपनी कविताओं में कबीर की तरह मुखर दिखाई देते हैं। ‘खतरे उठाने ही होंगे’ में समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट दिखाई देती है। यदि मुक्तिबोध के समग्र साहित्य का पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो हम पाएंगे कि आज जिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों के उत्तर हम ढूंढ रहे हैं, उन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हैं मुक्तिबोध के साहित्य में। समय की नब्ज़ को थामने और धड़कनें गिनने की क्षमता अपने समकालीन साहित्यकारों की अपेक्षा मुक्तिबोध में कहीं अधिक थी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध अपने साहित्य को ले कर अपने जीवनकाल में उतने लोकप्रिय नहीं हुए जितने कि मरणोपरांत।
सन् 1980 में जबलपुर में राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ का महाअधिवेशन हुआ। अनेक लेखक उसमें उपस्थित हुए। उस समय मध्यप्रदेश के शिक्षा एवं संस्कृति सचिव अशोक वाजपेयी थे तथा मुख्यमंत्रा थे अर्जुन सिंह। अर्जुन सिंह ने उस सम्मेलन में लेखकों का स्वागत करने के लिए आने की इच्छा जताई। लेखकों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। शिव कुमार मिश्र नाराज़ हो कर गुजरात लौट गए और विश्वंभर उपाध्याय ने भी विरोध किया। सम्मेलन की अध्यक्षता हरिशंकर परसाई ने की, उद्घाटन केदारनाथ अग्रवाल ने किया तथा संचालन ज्ञानरंजन एवं कमला प्रसाद ने किया। बहरहाल, इसी सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाए। इसके लगभग महीने भर बाद मुख्यमंत्रा की ओर से घोषणा कर दी गई कि सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध पीठ की स्थापना की जाएगी। पीठ की जिम्मेदारी सौंपी गई हरिशंकर परसाई को। हरिशंकर परसाई इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार नहीं थे किन्तु उनके मित्रों ने उन पर दबाव बनाया और तब उन्हें मुक्तिबोध पीठ का दायित्व स्वीकार करना ही पड़ा।
त्रिलोचन शास्त्रा ने दो बार मुक्तिबोध पीठ का कार्यभार सम्हाला। अपने पहले कार्यकाल में वे अत्यंत सक्रिय रहे किन्तु दूसरे कार्यकाल तक वे अपनी अर्द्धांगिनी को खो चुके थे जिसके कारण भीतर ही भीतर उन्हें अवसाद घेरने लगा था। इसीलिए दूसरा कार्यकाल, पहले कार्यकाल की अपेक्षा शिथिल रहा। इस पीठ का दायित्व नरेश सक्सेना तथा श्याम सुंदर दुबे ने भी सम्हाला।
मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। उन्होंने अपने जीवन को सक्रियता से जिया तथा साहित्य सृजन के प्रति समर्पित रहे किन्तु विडम्बना यह कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हुआ। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ का दूसरा संस्करण भी उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध की कविताओं में भावनाओं की एक अलग ही आंच रही। इस आंच की तपिश को महसूस करते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।’’
मुक्तिबोध को कविताओं के लिए अधिक ख्याति मिली किन्तु उनकी कहानियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। मुक्तिबोध की कहानियों में कथानकों की विविधता और कथन की तीक्ष्णता को देखते हुए इस बात की कसक रह जाती है कि यदि वे और कहानियां लिख पाए होते तो हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने में उनकी एक अलग पहचान होती। जहां तक मुक्तिबोध की विचारधारा का प्रश्न है तो कुछ विद्वानों ने मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित कहा, तो कुछ ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित ठहराया। डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया। लेकिन प्रत्येक वाद-विवाद के सार में मुक्तिबोध मानववादी मूल्यों पर खड़े दिखाई दिए।
एक लेखिका एवं एक पाठिका दोनों ही दृष्टि से मैंने जब मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ा तो मैंने अनुभव किया कि मुक्तिबोध कविताओं में भले ही वामपंथी अथवा अस्तित्ववादी दिखाई दें किन्तु कहानियों में वे विशुद्ध मानवतावादी और स्वस्थ सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण विचारों की पैरवी करते दिखाई देते हैं, और यही तथ्य उनकी मूल्यवत्ता को सौ गुना बढ़ा देता है। मुक्तिबोध की कहानियों से हो कर गुजरने के बाद मुक्तिबोध के कथा संसार के मानवतावादी मूल्यों को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
आजकल उच्चशिक्षा केन्द्रों में राजनीति का जो रूप देखने को मिल रहा है उसके तारतम्य में याद आती है मुक्तिबोध की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस’ जिसमें उन्होंने भारतीय शिक्षा परम्परा को अपने अनूठे ढंग से रेखांकित किया है। यह एक अभिशप्त गुरु की कथा है। एक ऐसे गुरु की कथा जो अपने प्रत्येक शिष्य में उस योग्य शिष्य की तलाश करता है जो उसकी समस्त विद्या को ग्रहण कर ले। अंततः उसे एक ऐसा शिष्य मिल ही जाता है जो उसकी समस्त आज्ञाओं का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करता है। गुरु का अपना एक भेद था किन्तु समस्या यह थी कि वह केवल निष्णात शिष्य से ही अपना भेद साझा कर सकता था। जब उसका परम आज्ञाकारी शिष्य शिक्षा में निष्णात हो गया तब उसने अपने शिष्य के सामने अपना भेद खोलते हुए बताया कि वह शापित ब्रह्मराक्षस है और अब वह अपने सबसे योग्य शिष्य अर्थात् उसे अपना गुरुपद सौंप कर मुक्त हो रहा है। वह अपने शिष्य से कहता है-‘‘मैंने अज्ञान से तुम्हारी मुक्ति की। तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का पाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया तुम किसी और को न दोगे तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं।’’
मुक्तिबोध न तो साम्यवादी विचारधारा के थे और न पूंजीवादी विचारधारा के, वे मूलरूप में मानवतावादी थे, मात्रा मानवतावादी। मुक्तिबोध एक उच्चकोटि के कवि ही नहीं वरन् एक कुशल कहानीकार भी थे जिन्होंने अपनी प्रत्येक कहानी में जीवन की सार्थकता के लिए मानववाद की पैरवी की। चाहे ‘ब्रह्मराक्षस’ हो या ‘दीमक और पक्षी’, चाहे ‘काठ का सपना’ हो या ‘क्लॉड ईथरली’ या फिर ‘प्रश्न’- मुक्तिबोध संबंधों की ईमानदारी, स्त्रा-पुरुष पारस्परिक संवेगों के महत्व, समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरोध को प्राथमिकता देते हैं। वे अपनी कहानियों में जहां एक ओर स्वाद रूपी दीमक के लिए अपने पंख बेचने वाले पक्षी की नीतिकथा को अंतर्निहित करते हैं तो वहीं, संत बने रहने के लिए अपनी जननेंद्रीय को चाकू से काट देने वाले एबीलार्ड का भी स्मरण कराते हैं। मुक्तिबोध अपनी कहानियों में साम्यवादी विचारों के अंधानुकरण पर चोट करते दिखाई पड़ते हैं। वे ‘क्लॉड ईथरली’ में खुल कर लिखते हैं-‘‘क्या हमने इंडोनेशियाई या चीनी या अफ्रीकी साहित्य से प्रेरणा ली है या लुमुंबा के काव्य से? छिः छिः ! वह जानवरों का, चौपायों का साहित्य है! और रूस का? अरे! यह तो स्वार्थ की बात है! इसका राज और ही है। रूस से हम मदद चाहते हैं, लेकिन डरते भी हैं।’’
मुक्तिबोध ने ‘जनता का साहित्य क्या है?’, इस विषय पर ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में लिखा है कि- ‘‘साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक। किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है। दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। ऐसा होता तो किस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते।कृतो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है। इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिस्थापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है।’’ इस दृष्टि से देखा जाए तो मुक्तिबोध की कहानियों का आकलन उनके ‘वामपंथी प्रेरित होने’ के विचार से हट कर, किसी भी ध्रुवीय वादविशेष को आधार न मानते हुए मानवतावादी कहानीकार होने के रूप में किए जाने पर ये कहानियां अपेक्षाकृत अधिक बड़े फलक की कहानियां सिद्ध होती हैं।
‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक में मुक्तिबोध के कवि, लेखक, आलोचक, कहानीकार एवं पत्राकार पक्ष का परिचय तो मिलेगा ही साथ ही उनके जीवन से जुड़े रोचक संस्मरणों से गुज़रने का भी अवसर मिलेगा। इस विशेषांक के अतिथि संपादक हैं युवा साहित्यकार एवं समीक्षक दिनेश कुमार।
मुझे विश्वास है कि यह अंक ‘सामयिक सरस्वती’ के सुधी पाठकों को पसंद आएगा।
और अंत में मुक्तिबोध के सृजन के प्रति समर्पित मेरी एक कविता ....
मुक्तिबोध !
तुम्हें बोध था
मुक्ति के द्वार का
तभी तो ‘अंधेरे में’ तुमने
उजाले के रख दिए कुछ बिन्दु
टिमटिमाते हुए
फिर जुगनुओं की खेप
उपजा दी स्याही से, कागज़ पर
ताकि अंधेरे में रह कर भी
हम पा सकें उजाले की
असीमित संभावनाएं
और जी सकें अपने यथार्थ को।
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https://www.slideshare.net/samyiksamiksha/samayik-saraswati-april-june-2017
https://issuu.com/samyiksamiksha/docs/samayik_saraswati_april-june_2017
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati - April-June-2017 |
Editorial of Dr Sharad Singh in Samayik Saraswati - April-June-2017 |
Samayik Saraswati - April-June-2017 Cover |
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