बुधवार, अक्तूबर 28, 2020

कठिन है समझना राजेन्द्र यादव होने का अर्थ | डाॅ शरद सिंह


28 अक्टूबर-पुण्यतिथि 
कठिन है समझना राजेन्द्र यादव होने का अर्थ
   - डाॅ शरद सिंह
         हिंदी साहित्य की मशहूर पत्रिका ‘‘हंस’’ के संपादक, हिंदी में नई कहानी आंदोलन के प्रवर्तकों में एक, कहानीकार, उपन्यासकार राजेंद्र यादव ने हिन्दी साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श को मजबूती से खड़ा करने में अपना जो योगदान दिया वह अद्वितीय है। बेशक वे हमेशा विवादों से घिरे रहे लेकिन विवादों से घबराने के बजाए उन्होंने विवादों से प्रेम किया। राजेन्द्र यादव के जाने के बाद हिन्दी साहित्य जगत में जो शून्य उत्पन्न हुआ है उसे अभी तक कोई भर नहीं सका है। गोया ज्वलंत विचारों की एक चिंनगारी थी जो बुझ गई लेकिन उसकी तपिश भविष्य के गर्त में कहीं दबी हुई है। 
हिन्दी साहित्य के ‘मील का पत्थर’ कहे जाने वाले राजेन्द्र यादव जी से मेरी पहली मुलाक़ात सन् 1998 में सागर में ही हुई थी जब वे एक साहित्यिक समारोह में सागर आए थे। स्थानीय रवीन्द्र भवन में समारोह के उद्घाटन के दिन उनसे मेरी प्रथम भेंट हुई। इससे पूर्व मात्र पत्राचार था। उन्होंने मेरा परिचय पाते ही कहा-‘‘ ऐसी भी क्या नाराज़गी, हंस के लिए और कहानी भेजो!’’ उस समय भी उन्हें सागर नगर और विश्वविद्यालय के साहित्य प्रेमियों ने घेर रखा था। मगर वे किसी घेराव के परवाह करने वाले व्यक्ति थे ही नहीं। मैंने उनसे कहा कि आप जानते हैं मेरी नाराज़गी का कारण। राजेन्द्र जी बोले -‘‘ ठीक है आइन्दा ध्यान रखा जाएगा।’’ इतना कह कर वे हंसने लगे। हमारे बीच हुई वार्ता का सिर-पैर वहां उपस्थित लोगों के समझ से परे था। दरअसल हुआ यूं था कि मेरी एक कहानी ‘‘हंस’’ में प्रकाशित हुई और उस कहानी के साथ कुछ ज़्यादा ही बोल्ड रेखाचित्र प्रकाशित कर दिए गए। जो देखने में तो अटपटे थे ही और जिनसे कहानी की गंभीरता को भी चोट पहुंच रही थी। मैंने फोन कर के अपनी आपत्ति से उन्हें अवगत कराया था और साथ ही जोश में आ कर यह भी कह दिया था कि आइन्दा मैं ‘‘हंस’’ के लिए अपनी कोई कहानी नहीं भेजूंगी। बस, इसी बात पर वे मुझे टोंक रहे थे। सिर्फ़ मुझे ही नहीं, मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह से भी कहा था,‘‘आप तो अपनी ग़ज़लें भेज दिया करिए और इसे भी समझाइए।

दोबारा लखनऊ में ‘‘कथाक्रम’’ के आयोजन में राजेन्द्र यादव जी से भेंट हुई। उस समय तक वे मेरी कुछ और कहानियां ‘‘हंस’’ में प्रकाशित कर चुके थे और मेरा प्रथम उपन्यास ‘‘पिछले पन्ने की औरतें’’ प्रकाशित हो चुका था। मुझे भी वहां बोलना था। मैंने अपनी बात रखते हुए कहा कि "साहित्य जगत में उठाने-गिराने का खेल चल रहा है, उससे साहित्य को ही क्षति पहुंच रही है।’’ और भी बहुत कुछ बोला था मैंने, लेकिन इस बात को राजेन्द्र यादव जी ने पकड़ लिया। दोपहर के भोजन के दौरान उन्होंने मुझसे कहा-‘‘बहुत ज़्यादा खरा-खरा बोल दिया तुमने। अब कई लोग तुमसे नाराज़ हो जाएंगे।’’ फिर हंस कर बोले-’’यह खरापन ही तुम्हें सबसे अलग बनाता है, इसे ऐसे ही ज़िन्दा रखना।’’ उनका यह कथन मेरे लिए चौंकाने वाला था। ‘‘उठाने-गिराने’’ का आरोप राजेन्द्र जी पर भी लगता रहा था इसलिए मुझे लगा था कि उन्हें भी मेरी बात बुरी लगी होगी लेकिन इसके विपरीत उन्होंने मेरा उत्साहवर्द्धन किया। उस समय मुझे लगा था कि जो दावा करते हैं कि वे राजेन्द्र यादव को समझते हैं, दरअसल उन्हें कोई नहीं समझ सकता है। वस्तुतः यह अबूझपन ही राजेन्द्र यादव को एक ऐसा संपादक बनाता था जो हिन्दी साहित्य को अपनी मनचाही दिशा देता जा रहा था। राजेन्द्र यादव जी ने स्वीकार किया था कि उन्हें मेरा पहला उपन्यास बहुत पसंद आया। ‘‘लीक से हट कर है’’ यही कहा था उन्होंने। 
समय-समय पर अन्य समारोहों में राजेन्द्र यादव जी से संक्षिप्त भेंट होती रही। किन्तु सन् 2013 में जब मैं एक आयोजन के सिलसिले में दिल्ली गई तो पता चला कि राजेन्द्र यादव जी अस्वस्थ चल रहे हैं। दिल्ली के ही एक मित्र के साथ मैं उनके निवास पर पहुंची। मैं पहली बार उनके घर गई थी। तब मुझे पता नहीं था कि यह मेरी उनसे अंतिम भेंट है। वे बीमार थे लेकिन उनका उत्साह देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वे बीमार हैं। मुझे देख कर वे बहुत खुश हुए। काफी साहित्यिक चर्चाएं हुईं। उनसे विदा लेते हुए मैंने कहा था कि-‘‘आप जल्दी स्वस्थ हों। अगली बार दिल्ली आऊंगी तो फिर भेंट होगी।’’

मगर 28 अक्टूबर 2013 को रात्रि में टीवी समाचारों से ज्ञात हुआ कि राजेन्द्र यादव अब नहीं रहे। विश्वास करना कठिन था, मगर विश्वास करना पड़ा। मानो एक युग समाप्त हो गया था। 

28 अगस्त 1929 को आगरा में जन्मे राजेंद्र यादव ने आगरा विश्वविद्यालय से 1951 में हिन्दी विषय से एमए की डिग्री हासिल की थी। वे काफी दिनों तक कोलकाता में रहे। बाद में दिल्ली आ गए और और राजधानी के बौद्धिक जगत का एक अहम हिस्सा बन गए। उनका विवाह सुपरिचित हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी के साथ हुआ था। संयुक्त मोर्चा सरकार में वह प्रसार भारती के सदस्य भी बनाए गए थे। वे हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक थे। ‘‘नयी कहानी’’ के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया। उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सन् 1930 में स्थापित साहित्यिक पत्रिका ‘‘हंस’’ का पुनर्प्रकाशन प्रेमचन्द की जयन्ती के दिन 31 जुलाई 1986 को उन्होंने प्रारम्भ किया। इसके प्रकाशन का दायित्व पूरे 27 वर्ष यानी जीवनपर्यन्त निभाया। हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान (शलाका सम्मान) प्रदान किया गया था।

राजेन्द्र यादव जी की यह विशेषता थी कि उनसे वैचारिक मतभेद होते हुए भी उनके कार्यों को अनदेखा नहीं किया जा सकता था। राजेन्द्र यादव के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे मैनेजर पांडेय ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘राजेंद्र यादव पिछली आधी सदी से हिंदी साहित्य में सक्रिय रहे। उन्होंने तीन-चार क्षेत्रों में बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। नई कहानी के लेखकों में महत्वपूर्ण थे राजेंद्र यादव। उन्होंने कुछ अच्छे उपन्यास भी लिखे जिस पर ‘‘सारा आकाश’’ जैसी फिल्म भी बनी। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने ‘‘हंस’’ पत्रिका निकाली, जो हिंदी की लोकप्रिय और विचारोत्तेजक पत्रिका मानी जाती है। इसके जरिए उन्होंने दो काम किए, पहला यह कि उन्होंने स्त्री दृष्टि और लेखन को बढ़ावा दिया। स्त्री दृष्टि पर उनकी राय विवादास्पद लेकिन विचारणीय रही। उन्होंने दूसरा काम यह किया कि हंस के जरिए उन्होंने दलित चिंतन और दलित साहित्य को बढ़ावा दिया। दलित साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित करने में राजेंद्र यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिंदी में दलित साहित्य को आगे बढ़ाने में राजेंद्र यादव का बहुत बड़ा योगदान है। मेरी जानकारी में हिंदी में दलित साहित्य पर पहली गोष्ठी उन्होंने 1990 के दशक में कराई थी। उसके माध्यम से लोग यह जान सके कि हिंदी में दलित साहित्य की धारा विकसित हो रही है। उन्होंने दलित लेखकों की रचनाओं को हंस में प्रमुखता से छापा। दलित साहित्य पर हंस के कई विशेषांक निकाले। इसके जरिए दलित साहित्य को समझने और आगे बढ़ाने का काम राजेंद्र यादव ने किया। इसकी बदौलत दलित साहित्य हिंदी में स्थापित धारा बन पाया। युवा लेखकों को आगे बढ़ाने में भी राजेंद्र यादव का बड़ा योगदान है।  

सन् 2014 में स्त्रीविमर्श पर मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई थी-‘‘औरत तीन तस्वीरें’’। उसमें मेरा एक लेख है-‘‘स्त्रीविमर्श के माईलस्टोन पुरुष’’। इस लेख में मैंने स्त्रीविमर्श के प्रति राजेन्द्र यादव के योगदान की चर्चा की है। लेख का अंश इस प्रकार है-‘‘स्त्री-विमर्श के संदर्भ में एक सुखद तथ्य यह भी है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श को एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में एक पुरुष ने स्थापित किया और उसमें स्त्रियों की सहभागिता को हरसंभव तरीके से बढ़ाया। यह नाम है राजेन्द्र यादव का। यह सच है कि स्त्रीविमर्श के अपने वैचारिक आन्दोलन के कारण उन्हें समय-समय पर अनेक कटाक्ष सहने पड़े हैं तथा लेखिकाओं के लेखन को ‘बिगाड़ने’ का आरोप भी उन पर लगाया जाता रहा है किन्तु सभी तरह के कटाक्षों और आरोपों से परे राजेन्द्र यादव ने साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के पटल पर लेखिकाओं को अपने विचारों को खुल कर सामने रखने का भरपूर अवसर दिया। राजेन्द्र यादव अपने सामाजिक सरोकार रखने वाले साहित्यक विचारों और उद्देश्य को ले कर सदा स्पष्ट रहे। उन्होंने कभी गोलमोल या बनावटी बातों का सहारा नहीं लिया। यूं भी अपनी स्पष्टवादिता के लिए वे विख्यात रहे हैं।  
राजेन्द्र यादव ने स्त्री स्वातंत्र्य की पैरवी की तो उसे अपने जीवन में भी जिया। एक बार जयंती रंगनाथन को साक्षात्कार देते हुए उन्होंने स्त्री विमर्श पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘मैंने हमेशा स्पष्ट कहा है कि स्त्री विमर्श पर बात करनी है तो मां, बेटी और बहन इन तीन संबंधों पर बात नहीं करूंगा। घर के अंदर भी स्त्री को जितनी आजादी चाहिए, बहन-बेटी को जो फ्रीडम चाहिए, एजुकेशन चाहिए,  मैंने दी है। बेटी को ज़िन्दगी में एक बार थप्पड़ मारा, आज तक उसका अफसोस है। बाद में ज़िन्दगी के सारे निर्णय उसने खुद ही लिए, यह फ्रीडम तो देनी ही पड़ेगी।’ वे स्त्री-लेखन और पुरुष लेखन के बुनियादी अन्तर को हमेशा रेखांकित करते रहे हैं। उनके अनुसार ‘जो पुरुष मानसिकता से लिखा गया है और जो स्त्री की मानसिकता से लिखा गया है, बेसिक अंतर है। दो अलग एप्रोच हैं। उस चीज को तो हमें मानना होगा।’ 

निःसंदेह, यह एक ऐसा तथ्य है जिसको नकारा नहीं जा सकता है कि हिन्दी साहित्य में लेखिकाओं को यदि किसी ने सही अर्थ में मुखरता प्रदान की तो वह हैं राजेन्द्र यादव। यह हिन्दी साहित्य जगत में सतत् परिवर्तन की प्रक्रिया थी जो  कभी न कभी, कहीं से तो शुरू होनी ही थी। इस यात्रा का प्रस्थान बिन्दु बना राजेन्द्र यादव का वह साहस जो उन्हें यश-अपयश के बीच अडिग बनाए रखा।
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद भी मानते हैं कि तमाम विवादों के बावजूद राजेन्द्र यादव के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था-‘‘हंस साहित्यिक पत्रिका का पुनर्प्रकाशन उनका सबसे बड़ा योगदान माना जाएगा। इसे उन्होंने एक ऐसे मंच का रूप दिया, जिस पर कई नए कहानीकार आए, जिन्हें कोई जानता तक नहीं था। राजेंद्र यादव ने उन्हें जगह दी। विवादों को जानबूझकर जन्म देते हुए और विवाद झेलते हुए भी उन्होंने नए लोगों को मौका दिया। इसके लिए उन्होंने इस बात की चिंता नहीं की कि इसका परिणाम क्या होगा। हंस में उन्होंने साहित्य के इर्द-गिर्द सामाजिक विषयों पर बहस शुरू की। दलितों के सवाल पर, स्त्रियों के सवाल पर और यौन वृत्तियों के सवाल पर। यह भी उनका बड़ा योगदान है। राजेंद्र यादव उस त्रयी के सदस्य थे, जिनमें कमलेश्वर और मोहन राकेश का नाम आता है। इस त्रयी ने हिंदी कहानी को एक नई दिशा दी और उसके तेवर को बदलकर रख दिया।’’ 

दरअसल राजेन्द्र यादव ने उन सभी को मुखर होने का भरपूर अवसर दिया जो शायद कभी मुखर नहीं हो पाते यदि राजेन्द्र यादव न होते। लेकिन स्वयं राजेन्द्र यादव स्वयं विवाद और विमर्श के रूप में ही मुखर होते रहे। आज के साहित्यिक परिवेश में जिसे राजेन्द्र यादव के युग के बाद का समय कहा जा सकता है, राजेन्द्र यादव होने का अर्थ समझ पाना बहुत कठिन है। 
                   
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(दैनिक सागर दिनकर में 28.10.2020 को प्रकाशित)
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मंगलवार, अक्तूबर 06, 2020

आलेख | नागार्जुन की दृष्टि में समाज और स्त्रियां | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 

Dr (Miss) Sharad Singh

आलेख

नागार्जुन की दृष्टि में समाज और स्त्रियां

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


बाबा के नाम से पुकारे जाने वाले नागार्जुन का मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। वे अपने बचपन में ही मां की ममता से वंचित हो गए थे। पिता स्वभाव से लापरवाह होने के कारण पुत्र की ओर समुचित ध्यान नहीं देते थे। पोस्ट मधुबनी, जिला दरभंगा में जन्में नागार्जुन ने अपनी आरम्भिक रचनाएं मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से लिखीं। फिर हिन्दी में ‘नागार्जुन’ के उपनाम से लेखन किया। नागार्जुन ने सदा न्यायपूर्ण समाज का सपना देखा। उन्हें आमजन के दुख एवं पीड़ा से गहन लगाव था। वे जनसंघर्ष में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि जब आमजन अपनी पीड़ा को पहचान कर अपने हित में आवाज उठाएगा तभी उसे उसका अधिकार मिल सकेगा। बाबा सही अर्थो में जनकवि थे। जिस समय वे जनता के बारे में चिन्तन करते थे उस समय वे स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी मानने लगते थे। आमजन के प्रति ऐसा जुड़ाव हिन्दी काव्य साहित्य में विरल ही देखने को मिलता है।

Baba Nagarjun


नागार्जुन प्राचीन संस्कृति के अध्येता थे किन्तु उन्होंने रूढ़ियों और आडम्बरों का खुल कर विरोध किया। अपनी कविता में ‘‘ओम्’’ को अभिव्यंजना का आधार बनाते हुए कटाक्ष किया है -

ओम् शब्द ही ब्रह्म है

ओम् शब्द और शब्द

..................................

ओम् गुटनिरपेक्ष, सत्ता सापेक्ष जोड़-तोड़

ओम् छल-छंद, ओम् मिथ्या, ओम् होड़ माम होड़।


नागार्जुन ने समाज की विसंगतियों पर प्रहार करने के लिए अपने काव्य में तीखे व्यंग को अस्त्र बनाया। ‘‘अकाल और उसके बाद’’ कविता में नागार्जुन अत्यंत भावुक किन्तु सजग स्वर में कटाक्ष करते हैं कि -

दाने  आए  घर के  अन्दर  कई दिनों के बाद

धुंआ उठा  आंगन  से ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठीं घर भर की आंखें कई दिनों के बाद

कौए ने    खुजलाई पांखें   कई दिनों के बाद


नागार्जुन की संवेदना का केन्द्र गंाव रहा। किसानों और मजदूरों की दुर्दशा नागार्जुन से छिपी नहीं थी। उन्होंने आजादी के तेरह वर्ष पूरे होने के समय ग्रामीण क्षेत्र में शक्ति के दुरुपयोग और कमजोरों के प्रति दुव्र्यवहार को बड़ी ही दृश्यात्मकता के साथ वर्णित किया। 

मरो  भूख से,  फौरन  आ धमकेगा  थानेदार

लिखवा लेगा  घरवालों से,  वह तो थ बीमार

जीभ कटी है  भारत माता  मचा न पाती शोर

देखो धंसी-धसीं ये आंखें, पिचके-पिचके गाल

कौन कहेगा, आजादी के बीते तेरह साल।। 


‘‘जनशक्ति’’ के 14 अगस्त 1960 के विशेषांक में प्रकाशित कविता में नागार्जुन के भीतर का निर्भीक कवि अन्याय करने वालों को ललकारते हुए पूछता है-

लाख-लाख श्रमिकों की गरदन कौन रहा है रेत

छीन चुका हे कौन करोड़ों खेतिहरों के खेत

किसके बल पर कूद रहे हैं सत्ताधारी प्रेत.......


ग्रामीण परिवेश और मां के प्रेम के अभाव ने नागार्जुन को समाज और स्त्रियों के प्रति विशेष दृष्टिकोण दिया। जब वे किसी खेतिहर मजदूर का शोषण होते देखते तो व्याकुल हो उठते कि एक सबल मनुष्य दूसरे निर्बल मनुष्य का शोषण क्यों कर रहा है? दोनों मनुष्य होकर भी एक-दूसरे से इतने भिन्न क्यों हैं? इसी प्रकार विधवा स्त्रियों की दीन-दशा देख कर उन्हें लगता कि यह स्त्री भी मनुष्य है, फिर यह अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कयों नहीं करती है? यह समाज से अपने अधिकार क्यों नहीं मांगती है? यह सभी प्रश्न नागार्जुन के मन को जीवनपर्यन्त उद्वेलित करते रहे जिससे उनकी प्रत्येक रचना पहले से अधिक धारदार होती गई। उन्होंने अपनी कविताओं में वामपंथी विचारों का अनुमोदन किया किन्तु इससे उनके भावबोध, भाषा एवं लालित्य पर तनिक भी आंच नहीं आई। 

नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जिस प्रकार सामाजिक विकृतियों पर प्रहार किया है वह समाज दर्शन की गहन दृष्टि के बिना संभव नहीं था। उन्होंने आमजन के जीवन को निकट से देखा और अनुभव किया था। उन्होंने ग्रामीण परिवेश में स्त्री के कष्टप्रद जीवन को मानवीय स्तर पर जांचा और परखा था। गांव में स्त्री के रहन-सहन का सूक्ष्म चित्रण नागार्जुन के गद्य साहित्य में भी देखने को मिलता है। जहां परिवार के पुरुष सदस्य इकट्ठे हों वहां स्त्री की उपस्थिति स्वीकार नहीं की जाती है। पुरुषों के बीच स्त्रियों का क्या काम? जैसी मानसिकता के कारण ग्रामीण स्त्री पारिवारिक मसलों में भी शामिल नहीं हो पाती है। जहां पुरुष हों वहां पुरुष का ही कब्जा रहता है, चाहे घर का आंगन ही क्यों न हो। इस तथ्य को ‘वरुण के बेटे में ’ नागार्जुन ने बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है-‘‘प्रायमरी स्कूल का वह मितहा मकान गंाव के पूर्वी छोर पर था, तीन तरफ से घिरा हुआ। अंगनई का अगला हिस्सा तग्गर कनेर, बेला हरसिंगार के बाड़ों से घिरा था। बिरादरी के बालिग मेम्बरान जुटे थे, भोला, खुरखुन, बिलुनी, रंगलाल....नंदे वगैरह-सारे के सारे। पचास-साठ जने होंगे। औरत एक भी नहीं।’’


Ratinath Ki Chachi - Novel of Nagarjun

‘‘ रतिनाथ की चाची’’ और जमुनिया का बाबा’’ जैसे उपन्यासों में नागार्जुन भारतीय समाज में स्त्रियों के शोषण के विरुद्ध डट कर खड़े मिलते हैं।

Dukhmochan - Novel of Nagarjun

‘‘दुख मोचन’’ की माया विधवा है। लेकिन उसमें अदम्य साहस है। वह अपने प्रेमी से अपने पुनर्विवाह के बारे में स्पष्ट शब्दों में चर्चा करने का माद्दा रखती है। उसे समाज के कोप का भय नहीं है। हिन्दी उपन्यासों में संभवतः वह पहली स्त्री पात्र है जो इस प्रकार के साहस का प्रदर्शन करती है। यह नागार्जुन के स्त्रियों के प्रति सम्मान भाव के साथ ही स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा का भी भाव था। वे मानते थे कि जिस प्रकार पुरुष समग्रतापूर्वक अपना जीवन जीना चाहता है उसी प्रकार स्त्री को भी जीवन जीने के समग्र अधिकार मिलने चाहिए। 

Paro - Novel of Nagarjun

‘‘पारो’’ में नागार्जुन वैचारिक स्तर पर स्त्री के विद्रोह को सामने रखते हैं। पन्द्रह वर्ष की पारों का विवाह पैंतालीस वर्ष के चौधरी से होता है। एक बच्चे को जन्म दे कर पारो की मृत्यु हो जाती है। ऊपर से शिष्ट और शालीन दिखने वाले चौधरी जी पशुवत् आचरण करते हैं। जिससे मृत्युपूर्व का अल्पकालिक वैवाहिक जीवन पारो के लिए नर्क की भांति कष्टदायक रहता है। भारतीय विवाहिता स्त्री के ‘पति परमेश्वर’ वाले संस्कारों से रची-बसी पारो भी चौधरी को पशु ही मानती है। नागार्जुन ने विवाह के संदर्भ में नाबालिग चौदह वर्षीया पारो के भय को इस संवाद के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से उकेरा है, जिसमें वह बिरजू से कहती है-‘‘भाई-बहन में ही शादी होती तो कितना अच्छा रहता, जहां-तहां के अनजान को लोग उठा लाते हैं। इसमें कहां की अकलमंदी है।’’

Kumbhipak - Novel of Nagarjun

‘‘कुम्भीपाक’’ में स्त्रियों को बेचने वालों के विरुद्ध स्त्रियों के संघर्ष की गाथा है। नागार्जुन ने ‘‘कुम्भीपाक’’ के स्त्रीपात्रों के माध्यम से जता दिया कि जो स्त्रियां समाज द्वारा प्रताड़ित हैं वे समाज के ठेकेदारों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी बजा सकती हैं। 

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At World Book Fair Delhi, From Left- Pooja Pandey, Ms Vyas, Dr Sharad Singh, Susham Bedi, Sunita Shanoo and Sushil Siddharth