ग्यारह के साल को मिसाल इक बनाना है....
समकालीन कथा यात्रा - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह Journey Of Contemporary Hindi Story By Dr (Miss) SHARAD SINGH
गुरुवार, दिसंबर 30, 2010
सोमवार, दिसंबर 20, 2010
मंगलवार, दिसंबर 14, 2010
इस बार......लायक राम ‘मानव’ की कहानी ‘पगलिया’
लाली नाम था उसका। यही नाम गुदा हुआ था उसकी कलाई पर, जो जमें हुए मैल के साथ मिलकर उसी में गुम हो गया था। उसका कोई चूल्हा-चौका नहीं था, कोई बिस्तर नहीं था। कोई तथाकथित धर्म नहीं था, कोई जाति नहीं थी। कोई अपनी पसंद नहीं थी। कोई हमदर्द नहीं था। वह सबके लिए बस पगलिया थी, सिर्फ पगलिया। उसकी पूरी दुनिया उसके अंदर थी।
कितनी तेजी से बदल जाता है सब कुछ। लखनऊ जंक्शन के ठीक सामने टैम्पो स्टैण्ड नम्बर नौ, जहाँ से मैं कभी टैम्पो चलाया करता था। ये अट्ठाइस साल पहले की बात है। इन अट्ठाइस सालों में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। न तो अब मैं ड्राइवर हूँ, न यहाँ अब टैम्पो स्टैण्ड है। पर अभी तक सब कुछ याद है। स्टैण्ड के ठीक नुक्कड़ पर गुलमोहर का कुबड़ा सा पेड़ था। उस पर सिर्फ डेढ़ शाखाएँ थीं, जो गर्मियों में सुर्ख फूलों से लद जाती थी। गुलमोहर के नीचे सीताराम की पान की दुकान थी। कोई गुमटी नहीं, कोई ठेला नहीं, कोई कुर्सी-मेज नहीं, सीताराम जमीन पर ही दुकान लगाता था। पान, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट के साथ भाँग की गोलियाँ भी रखता था वह। वैसे आस-पास गुमटियों से सजी-धजी पान की दुकानें भी थीं, लेकिन स्टैण्ड के सारे ड्राइवर सीताराम के पास ही पान खाते थेे। कौन ड्राइवर कैसा पान खाता है, कौन सी बीड़ी या सिगरेट पीता है, यह सब सीताराम के दिमाग में छपा हुआ था।
‘पगलिया’ कहानी के शेष भाग के लिए यहां क्लिक करें
कितनी तेजी से बदल जाता है सब कुछ। लखनऊ जंक्शन के ठीक सामने टैम्पो स्टैण्ड नम्बर नौ, जहाँ से मैं कभी टैम्पो चलाया करता था। ये अट्ठाइस साल पहले की बात है। इन अट्ठाइस सालों में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। न तो अब मैं ड्राइवर हूँ, न यहाँ अब टैम्पो स्टैण्ड है। पर अभी तक सब कुछ याद है। स्टैण्ड के ठीक नुक्कड़ पर गुलमोहर का कुबड़ा सा पेड़ था। उस पर सिर्फ डेढ़ शाखाएँ थीं, जो गर्मियों में सुर्ख फूलों से लद जाती थी। गुलमोहर के नीचे सीताराम की पान की दुकान थी। कोई गुमटी नहीं, कोई ठेला नहीं, कोई कुर्सी-मेज नहीं, सीताराम जमीन पर ही दुकान लगाता था। पान, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट के साथ भाँग की गोलियाँ भी रखता था वह। वैसे आस-पास गुमटियों से सजी-धजी पान की दुकानें भी थीं, लेकिन स्टैण्ड के सारे ड्राइवर सीताराम के पास ही पान खाते थेे। कौन ड्राइवर कैसा पान खाता है, कौन सी बीड़ी या सिगरेट पीता है, यह सब सीताराम के दिमाग में छपा हुआ था।
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शुक्रवार, नवंबर 26, 2010
महिला साक्षरता (लघुकथा )
- डॉ. शरद सिंह
साक्षरता केन्द्र में गुरू जी ने महिलाओं को पढ़ाना प्रारम्भ किया। आज जो पाठ वे पढ़ाने जा रहे थे उसका शीर्षक था-‘महिलाओं के अधिकार’।
पढ़ाते-पढ़ाते गुरू जी ने देखा कि पढ़ने वाली महिलाओं के बीच माथे तक घूंघट काढ़े उनकी बीवी भी बैठी है। उसे देखते ही गुरू जी झल्ला पड़े और उन्होंने अपनी बीवी को डपटते हुए कहा-‘क्यों री! तू यहां क्या कर रही है? यहां तेरा क्या काम है? तू अगर यहां बैठी रहेगी तो वहां घर पर बच्चों को कौन सम्हालेगा? गाय-गोरू को कौन चारा-पानी देगा? कौन खाना पकाएगा? जा, भाग यहां से!’
गुरू जी के क्रोध से डर कर उनकी बीवी चुपचाप वहां से उठ कर चली गई और गुरू जी ने अपने केन्द्र की साप्ताहिक रिपोर्ट में लिखा-‘इस सप्ताह का साक्षरता कार्यक्रम शतप्रतिशत सम्पन्न हुआ।’
साक्षरता केन्द्र में गुरू जी ने महिलाओं को पढ़ाना प्रारम्भ किया। आज जो पाठ वे पढ़ाने जा रहे थे उसका शीर्षक था-‘महिलाओं के अधिकार’।
पढ़ाते-पढ़ाते गुरू जी ने देखा कि पढ़ने वाली महिलाओं के बीच माथे तक घूंघट काढ़े उनकी बीवी भी बैठी है। उसे देखते ही गुरू जी झल्ला पड़े और उन्होंने अपनी बीवी को डपटते हुए कहा-‘क्यों री! तू यहां क्या कर रही है? यहां तेरा क्या काम है? तू अगर यहां बैठी रहेगी तो वहां घर पर बच्चों को कौन सम्हालेगा? गाय-गोरू को कौन चारा-पानी देगा? कौन खाना पकाएगा? जा, भाग यहां से!’
गुरू जी के क्रोध से डर कर उनकी बीवी चुपचाप वहां से उठ कर चली गई और गुरू जी ने अपने केन्द्र की साप्ताहिक रिपोर्ट में लिखा-‘इस सप्ताह का साक्षरता कार्यक्रम शतप्रतिशत सम्पन्न हुआ।’
शुक्रवार, नवंबर 05, 2010
मंगलवार, सितंबर 28, 2010
स्त्री विमर्श की कसौटी पर नागार्जुन की गौरी
- डॉ. शरद सिंह
नागार्जुन मानवीय संवेदना के चितेरे उपन्यासकार थे। उनके कथा साहित्य में जहां एक ओर बिहार के मिथिलांचल के ग्राम्य जीवन, सामाजिक समस्याओं, राजनीतिक आन्दोलनों एवं सांसकृतिक जीवन की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है वहीं उनके उपन्यासों में मानवीय दशाओं एवं चरित्रों का अद्भुत खरापन उभर कर सामने आता है। जिस वातावरण से उनके कथा-पात्र आते हैं उसी वातावरण का निर्वहन समूची कथावस्तु-विस्तार में होता चलता है। नागार्जुन के कथा समाज में स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां, वर्ण और जातिगत भेद , सम्पन्न-विपन्न तथा पोषण एवं शोषण के ऐसे पारदर्शी चित्र चित्रित मिलते हैं कि जिनके आर-पार देखते हुए समाज की बुनियादी दशाओं को बखूबी टटोला तथा परखा जा सकता है।
समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। नागार्जुन के उपन्यासों में स्त्री विमर्श का एक परिष्कृत रूप दिखाई पड़ता है।
नागार्जुन के साहित्य में ग्राम्य जीवन की प्रमुखता है। ग्रामीण परिवेश में जीवनयापन करने वाली स्त्रियों की दशा को रेखांकित करने में नागार्जुन ने अपनी पैनी दृष्टि का भरपूर उपयोग किया है। उनके उपन्यासों की नायिकाएं परम्परागत भारतीय स्त्री होते हुए भी अपने भीतर अनेक प्रश्न समेटे हुए दिखाई देती हैं। उनका बाह्य कलेवर भले ही शोषित स्त्री का हो किन्तु उनके भीतर एक विद्रोहणी की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। यही कारण है कि बाबा नागार्जुन के उपन्यासों की नायिकाएं व्यवस्था को ललकारती हुईं समाज के समक्ष सवालों की तरह आ खड़ी होती हैं।
गौरी ‘रतिनाथ की चाची’ उपन्यास की नायिका है। गौरी के व्यक्तित्व में विपरीतध्रुवीय दो पक्ष दिखायी देते हैं। एक पक्ष में गौरी एक परम्परागत् गृहस्थ स्त्री के रूप में सामने आती है। जो अधेड़ रोगी पति की मृत्यु के कारण विधवा हो जाती है। अपने दुष्कर्मी देवर जयनाथ की कामवासना की शिकार होती है। यह वह घरेलू अपराध है जिसे घर की चार दीवारों के भीतर दबा कर रखा जाता है। यदि औरत इस बारे में अपना मुंह खोलती है तो वही दोषी मानी जाती है। अपने देवर की कुचेष्टा के संबंध में गौरी कहती है- ‘ मैं और कुछ नहीं जानती, वह भादों का महीना था। अमावस्या की रात थी। एक घनी और अंधेरी छाया मेरे बिस्तर की तरफ बढ़ आयी, उसके बाद क्या हुआ इस बात का होश अपने को नहीं रहा । ’
गर्भवती गौरी को सामाजिक अपमान सहन करना पड़ता है। अन्य औरतें उसे व्यभिचारिणी और कुलटा कहती हैं। इतना ही नहीं उसका अपना बेटा उमानाथ अपने पिता की बरसी पर जब घर आता है तो वह मां को चरित्रहीन मान कर उसके बाल पकड़ कर खींचता है तथा पैरों से ठोकर मारता है। गौरी एक परम्परागत गृहणी की भांति सारा मान अपमान एवं मार-पीट सहती रहती है। उसका दान-धर्म में भी अगाध विश्वास है।
गौरी का दूसरा पक्ष ठीक विपरीत है। अपने दूसरे पक्ष में वह एक जागरूक स़्त्री के रूप में दिखायी पड़ती है। गांव में मलेरिया फैलने पर दवा की मुफ्त दवा बंाटती है, जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रांतिकारी किसान सभा संगठन में अपना दो साल पुराना फटा कम्बल दे कर सहायता करती है तथा अखिल भारतीय सूत प्रतियोगिता में अव्वल आती है। यह जागरूक गौरी अपने सगे पुत्र से मिलने वाला अपमान पी कर अपने भतीजे रतिनाथ पर ममता उंढ़ेलती है। इस प्रकार नागार्जन ने गौरी के रूप में स्त्री के व्यक्तित्व को एक सामाजिक प्रश्न के रूप में सामने रखते हुए स्वयं उसका उत्तर दिया है कि एक भारतीय स्त्री अपने व्यक्तित्व को अलग-अलग कई खानों में बंाट कर भी संघर्षरत रहती है। वस्तुतः यह संघर्ष ही उसके व्यक्तित्व के तमाम हिस्सों को एक सूत्र में बांधे रहता है।
शुक्रवार, सितंबर 17, 2010
स्व. रामानंद तिवारी स्मृति सम्मान सुश्री डॉ.शरद सिंह को
स्व. रामानंद तिवारी स्मृति सम्मान सुश्री डॉ.शरद सिंह को
(दैनिक ‘नई दुनिया’ , भोपाल, 17 सितम्बर 2010)
(दैनिक ‘नई दुनिया’ , भोपाल, 17 सितम्बर 2010)
सोमवार, सितंबर 13, 2010
बुधवार, सितंबर 08, 2010
किस-किस को कटवाओगे, केशू !
-डॉ. सुश्री शरद सिंह
”तुम्हारे लिए एक बुरी ख़बर है..ललित का फोन था. उसने बताया कि हिम्मा मर गई.“ केशू ने फोन क्रेडिल पर रखते हुए मुझे बताया.
”हिम्मा मर गई? कब? कैसे?“ मैंने चकित होते हुए पूछा. ख़बर सचमुच बहुत बुरी थी,सुनते ही दिल पर बोझ-सा आ गिरा.
”अब कैसे मर गई? ये तो नहीं बताया उसने बहरहाल,चलो जान छूटी उससे.“ केशूने जिस उपेक्षा भरे स्वर में कहा उससे मेरा मन वितृष्णा से भर उठा. कुछ भी हो, हिम्मा एक इंसान थी और एक इंसान की मौत पर उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है.फिर हिम्मा तो एक इंसान ही नहीं बल्कि एक कमजोर औरत थी जिसकी मौत सारी दुनिया की औरतों के जीवन पर प्रश्नचिन्ह लगाने की ताक़त रखती है.उस हिम्मा की मौत पर ऐसी उपेक्षा भरा स्वर?
”क्या सोचने लगीं? भई, मैंने नहीं मारा है तुम्हारी हिम्मा को. मुझे यूं घूर-घूर कर मत देखो.“ केशू ने ठिठोली करते हुए कहा.
वे ऐसी ठिठोली कर सकते हैं क्योंकि हिम्मा की मौत ने उनके दिल का बोझ जो हल्का कर दिया है. वे सोच रहे होंगे कि अब मैं किसका पक्ष लूंगी? न रहा बंास,न बजेगी बंासुरी! उनकी दृष्टि में तो हिम्मा की मृत्यु एक ऐसी कथा का अंत है जो फिर कभी दोहराई नहीं जायेगी कि इस कथा के समापन के साथ-साथ कथा का प्रभाव भी समाप्त हो जायेगा.वे क्यों भूल जाते हैंकि जले हुए पेड़ में भी कहीं न कहीं से अंकुर फूट पड़ते हैं.
”अरे मेम सॉब, इस ग़रीब को नाश्ता-वाश्ता मिलेगा या नहीं?“ केशू ने अपना चुहल भरा अंदाज़ जारी रखते हुए कहा.
”लगाती हूं नाश्ता...आप झटपट नहा लीजिए.“ मैंने अपने मनोभावों पर काबू पाते हुए कहा.
”हां,सोच रहा हूं कि ललित से मिलते हुए दफ्तर जाउंगा.“ केशू ने तौलिया कंधे पर डालते हुए कहा.
”क्यों? अब ललित से क्यों मिलना है?“ यह पूछने के साथ ही मैंने अपना होंठ काट लिया.क्या आवश्यकता थी ऐसा प्रश्न पूछने की? हम कई बार ऐसे सवाल कर बैठते हैं, जिन पर तत्क्षण पछतावा भी होता है.यद्यपि पछतावे से बात तो वापस नहीं होती.
”बहुत खूब! तोे क्या अब ललित से भी रिश्ता तोड़ लें हम?“ केशू ने विनोदी स्वर में पूछा.फिर समझाते हुए बोले,”यक़ीन मानो कि मुझे हिम्मा की मौत को लेकर सिर्फ इस बात की खुशी हैकि अब उसे ले कर तुम परेशान नहीं होगी,वरना मुझे तो लगने लगा थाकि उसके मामले को लेकर हमारे बीच दूरियंा बढ़ने लगी हैं.भगवान के लिए, अब भूल जाओ इस सारे किस्से को.“
”सच कहते हो,हिम्मा हमारी थी ही कौन? चिन्ता मत करो जल्दी ही भूल जाउंगी सब कुछ.तुम जल्दी करो नहीं तो तुम्हें देर हो जायेगी.“ केशू का मन रखने के लिए मैंने कह तो दिया लेकिन मेरा दिल जानता हैकि हिम्मा या उससे जुड़ी घटनाओं को भुला देना असंभव है.इसके साथ ही मुझे महसूस हुआ कि कितने दिनों बाद मैंने केशू के मन रखने वाली कोई बात कही है.वरना जब से हिम्मा का प्रकरण मुझ पर प्रभावी हुआ था तब से मेरे और केशू के बीच आपसी तालमेल या एक-दूसरे का मन रखने वाली एक भी बात नहीं हुई. कम-से-कम मेरी तरफ से तो हरगिज़ नहीं. शा
केशू नहाने चले गए और मैं अपने-आप में उमड़ती-घुमड़ती नाश्ता तैयार करने में जुट गई.बाहर नीम के पेड़ पर बैठा कौवा निरन्तर कांव-कांव किए जा रहा था.कौवे की आवाज़ से चिढ़ है केशू को.वे अकसर पेड़ कटवाने की बात करने लगते हैं.मैं हमेशा उन्हें रोक देती हूं.इस नीम के पेड़ और कौवों की कांव-कांव से इस व्यस्त जीवन में कुछ तो प्राकृतिकता का अहसास होता रहता है वरना बनावटीपन तो लगा ही है जीवन के साथ, उससे तो किसी भी तरह से बचा नहीं जा सकता है.यह नीम का पेड़ मेरी संवेदनाओं को स्पंदन प्रदान करता रहता है,भला मैं कैसे कटने दे सकती हूं इसे.
अभी कामवाली बाई चंदा के आने में अभी देर थी. प्रायः वो केशू के दफ्तर जाने के बाद ही आती थी. इस लिए भी मेरे और उसके बीच लंबे-लंबे संवाद होते रहते. हिम्मा के बारे में शूरुआत उसी ने की थी. चंदा अंागन में बैठ कर बरतन मांज रही थी और मैं ऊनी कपड़ों को धूप दिखाने के लिए उनकी घड़ी खोल-खोल कर फैला रही थी. मैंने महसूस किया था कि चंदा आते ही कुछ कहने को उत्सुक थी किन्तु उस समय मेरा ध्यान बच्चोें की क़िताबें और कपड़े समेटने में था. यही मेरी दिनचर्या भी है. बच्चे स्कूल जाने के पहले अपना सारा सामान इधर-उधर बिखरा जाते हैं और मैं उनके जाते ही उनके सामान व्यवस्थित करने में जुट जाती हूं. बच्चों के सामान व्यवस्थित करके जैसे ही मैं ऊनी कपड़े लेकर अंागन में पहुंची कि चंदा की जुबान में दबी ख़बर धारा बन कर बह निकली.
”बाई’सा, आप हिम्मा को तो जानती हैं न! “ चंदा के स्वर में जानने का आग्रह कम, अनिवार्यता अधिक थी.
”कौन हिम्मा?“ मुझे सचमुच किसी हिम्मा की याद नहीं आइ
”आपको याद नहीं है हिम्मा की?“ चंदा ने ऐसे आश्चर्यसे भर कर कहा जैसे हिम्मा को याद रखना मेरे लिए सबसे अहम काम था और मुझे अपने काम में चूकना नहीं चाहिए था.
”अब इतने लोग आते रहते हैं,मैं भला किस-किस की याद रखूं.क्या वो तुम्हारे साहब के ऑफिस में है?“मैं अपनी असमर्थता चंदा के सामने स्वीकार करते हुए कहा. बात भी सही थी, केशू सिंचाई विभाग में हैं अतः दसियों कर्मचारियों और मज़दूरों की घर में आवाजाही बनी रहती है. उनमें से अधिकतर अपना नाम बताते-बताते दुखड़ा सुनाने लगते हैं.न चाहते हुए भी उनकी बातें सुननी पड़ती हैं. केशू तो मेरे इस रवैये का मज़ाक उड़ते रहते हैं लेकिन मैं यही सोचकर केशू के मज़ाक को अनदेखा कर देती हूं कि अगर मैं इन मुसीबत के मारों के लिए कुछ कर नहीं सकती हूं तो कम से कम इनका दुखड़ा तो सुन सकती हूं. कहते हैं न कि कहने-बोलने से दुख हल्का हो जाता है.
”नहीं,हिम्मा साबजी के दफ्तर में नहीं है.उसकी मां मेरी चचिया सास लगती है.पिछले साल मैं जब मैहर गई थी,देवी के दर्शन को तब मेरे बदले हिम्मा की मंा काम करने आती थी और एक दिन हिम्मा की मंा को दस्त लगने लगे थे तब अपनी मां की जगह हिम्मा आई थी काम करने.मेरे मैहर से लौटने पर आपने ही मुझे बताया था और हिम्मा के काम की तारीफ करते हुए कहा था कि चंदा अब तो मुझे तेरे से अच्छी कामवाली का पता चल गया है,अब तो तू चाहे तो चारो धाम का तीरथ करने को चली जा.“ चंदा ने मुझे हिम्मा का स्मरण कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
”अच्छा वो हिम्मा ! वैसे मैंने तो तुझे चिढ़ाने के लिए उसकी तारीफ की थी वरना तेरे जैसा अच्छा काम भला और कोई कर सकता है?“मैंने उसे मस्का लगाते हुए कहा. आखिर दुनिया की हर गृहिणी अपनी कामवाली बाई को नाराज़ करने के पहले सौ बार सोचती है.भला मैं भी केैसे ये दुस्साहस करती?
”हमाओ मतबल जो नईयंा.“अपनी तारीफ सुनकर खुश होती हुई चंदा बुंदेली में बोल उठी,”काय, का हम जानत नईयंा का के आपको हमाओ काम भोत साजो लगत है.“
”खैर, अब मुझे हिम्मा की याद आ गई है,तो क्या हुआ हिम्मा को?“मैंने बात बदलने की गरज से कहा.
”न पूछो बाई’सा, हिम्मा तो बरबाद हो गई.बो ई दुनिया में मूं दिखाबे के जोग नई रही.कछु नई बचो ऊके लाने.“ चंदा एक संास में बोल उठी.
”अरे, ऐसा क्या हुआ उसको? उसके पति ने उसे छोड़ दिया क्या?“मैंने षॅाल को फैलाते हुए अपनी पहली अटकल व्यक्त की. मैं जानती हूंकि निचले तबके में अकसर ये घटनाएं घटित होती रहती हैं.हिम्मा के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा जिस पर तब तक षोक-संवेदनाओं का दौर चलता रहेगा जब तक कि हिम्मा किसी और घर के जाकर नहीं बैठ जाएगी.निश्चित रूप से हिम्मा पर उसके पति ने उल्टे-सीधे आरोप लगाए होंगे तभी तो चंदा उसके ”मूं न दिखा पाने “की बात कर रही है.
”ऐसी बात नईयंा. ऊको तो अबे ब्याओ तक नई भओ.“ चंदा ने उंसास भरते हुए कहा.
”अरे? फिर क्या हुआ हिम्मा को?“ मेरे मन में हिम्मा को लेकर पहलीबार सच्ची जिज्ञासा कुलबुलाई.
”ऊकी इज्जत लूट ली गई है,बाई!“,चंदा ने विस्फोट-सा करते हुए कहा.
”क्या??“मैं चंदा की बात सुनकर सकते में आ गई. मुझे ऐसी ख़बर की तो ख़्वाब में भी आषा नहीं थी.
चंदा मेरे आश्चर्यपर कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की बजाए अपने पल्लू से अपनी अंाखें पोंछने लगी.उसकी अंाखों में अंासू थे या नहीं ये तो मुझे पता नहीं चला किन्तु एक रिष्तेदार और एक औरत होने के नाते उसका दुखी होना स्वाभाविक था.
”किसने किया ये सब?“एक स्वाभाविक-सा प्रश्न मेरे होंठों से फिसला.
”दाऊ साहब के लड़के ने.“चंदा ने बताया.
”पकड़ा गया क्या वो?“दाऊ साहब के लड़के का जिक्र सुन कर मुझे कोई आश्चर्यनहीं हुआ.ये तो सदियों से होता चला आ रहा है. दाऊ साहबों के लड़के इसी प्रकार निचले तबके की बहू-बेटियों की इज्जत से खेलते चले आ रहे हैं.वैसे दाऊ साहब का लड़का लगता तो नहीं है ऐसा लेकिन किस भेड़ की खाल में भेड़िया छुपा है,यह दावा कभी कोई नहीं कर सकता है.हो सकता हैकि वो इसी तरह का हो.नीम के पेड़ पर बैठे कौवे को भी तो सिर्फ देख कर यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कौन-सी आंख से काना है.
”ऐसे लोग कहंा पकड़े जाते हैं?वे लोग तो कह रहे हैंकि लड़के को झूठ-मूठ फंसाया जा रहा है. “ चंदा ने मुंह बनाते हुए कहा.
”ऐसा नहीं है,चंदा! औरत आखिर औरत होती है और हर औरत की अस्मत कोई न कोई मर्द ही लूटता है,इसमें अमीर या ग़रीब औरत का क्या फर्क़?“मैंने चंदा को समझाना चाहा.
”अच्छा! अगर दाऊ साहब की बिटिया या बहू की कोई इज्जत लूटता तो गोलियंा न चल जातीं?“चंदा भड़क कर बोली.
”वो तो ठीक है,चंदा! लेकिन इससे फर्क़ क्या पड़ता है? आखिर औरत की लुटी हुई अस्मत तो लौट नहीं आती है. औरत औरत है,चंदा! चाहे वह दाऊ साहब के घर की हो या हिम्मा हो.कोई अंतर नहीं है दोनों की नियति में.“मैंने चंदा को अपनी बात मनवानी चाही लेकिन वह मेरे किसी भी तर्क को मानने को तैयार नहीं थी.
कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही, हवा की सरसराहट और चिड़ियों-कौवों की चींख-पुकार ही सुनाई दे रही थी.
”आप बुरा न मानना बाई’सा, मगर आप तो ऐसा कहोगी ही आखिर आप लोग सोई दाऊ साहब मेल के ठहरे.“ चंदा का यह सीधा आरोप सुन कर मैं सन्न रह गई.
”क्या मतलब तुम्हारा?“ मैंने कठोर स्वर में पूछा.
”आप लोग भी तो ऊंची जात के हो.“ चंदा ने धीमें स्वर में जवाब दिया.
”तो इससे क्या हम लोग भी बलात्कारी हो गए?“ मैंने लगभग डंाटते हुए कहा.
”नई बाई’सा, हमाओ मतबल जे नइयंा. वो तो तरफदारी करने की बात पे हमने कही.“ चंदा ने सकपका कर अपनी बात की सफाई दी.
”अच्छा-अच्छा, तुम अपना काम करो.“मैंने अपने स्वर में नर्मी नहीं आने दी और मैं अंागन से उठ कर कमरे में चली आई.जी चाह रहा था कि दरवाजों-खिड़कियों को कसकर बंद कर दूं जिससे एक भी ध्वनि कमरे में प्रवेष न कर सके.मुझे हर ध्वनि में चंदा का आरोप सुनाई दे रहा था.
चंदा ने काम निपटाने के बाद मुझे आवाज़ देकर जाने की सूचना दी. मैंने कमरेके भीतर से ही ”ठीक है“ कह कर काम चला लिया.
मेरा माथा घूम गया था उसकी अनर्गल बातें सुन कर. आखिर उसने क्या सोच कर ऐसा गंदा आरोप लगाया? क्या मैं ओर केशू भी उसे अत्याचारी नज़र आते हैं? ”मैं कल ही दूसरी काम वाली तलाष करूंगी,ये बहुत सिर चढ़ गई है,“ये सोच कर मैंने अपने मन के बोझ को हल्का करना चाहा.
शाम को केशू के दफ्तर से वापस आने पर मैंने चाय बनाई और चाय पीने के दौरान ही केशू को चंदा का पूरा किस्सा कह सुनाया.
”बहुत खूब! और बतकाव करो कामवाली बाइयों से.“केशू ने मेरा मज़ाक उड़ाते हुए कहा.
”आप समझ नहीं रहे हैं.“मैं झुंझला उठी.
”मैं तो समझ रहा हूं मगर तुम नहीं समझ रही हो.“केशू ने संजीदा होते हुए कहा,”जिसके घर में डाका पड़ता है उसे हर इंसान डाकू नज़र आता है.अब ऐसे हालात में तुम उसे काम से निकाल दोगी तो उसके मन में मौजूद धारणा और पक्की हो जाएगी.बेहतर यही होगा कि इन सब चर्चाओं में तुम मत पड़ो.“
केशू की बात अपनी जगह सही थी लेकिन मेरा जी चाहा कि केशू से कहूं कि चर्चा उसने षुरू की थी, मैंने नहीं. लेकिन जानेअनजाने चंदा की बातें और हिम्मा की छवि मेरे मन-मस्तिष्क पर छाती जा रही थी.
प्रतिदिन की भांति चंदा दूसरे दिन फिर काम पर आई. शूरुआत में अबोलापन रहा किन्तु फिर चंदा ने ही बात छेड़ी.चर्चा घरेलू काम-काज को लेकर ही षुरू हुई.दो-चार संवादों के बाद हम दोनों ही सहज हो गए.ऐसा नहीं लग रहा थाकि कल ही हम दोनों के बीच कोई कटु बात हुई हो. यद्यपि मैं मन ही मन उत्सुक थी हिम्मा और उसके अपराधी के बारे में कुछ और जानने को.मेरे मन की झिझक मुझे कुछ भी पूछने से रोक रही थी. आखिर समस्या का अंत हुआ चंदा की ओर से.
”बाई’सा, कल की बात का बुरा तो नहीं माना आपने? मेरी भी मत मारी गई थी जो आप लोगन खों सोई दाऊ साहब के बरोबर बोल दिया.“चंदा के स्वर में पश्चाताप की कितनी मात्रा थी, यह तो मैं समझ नहीं पाई लेकिन उसके इस कथन ने मेरे भीतर की झिझक को जरूर तोड़ दिया.
”दाऊ साहब का लड़का पकड़ा गया क्या?“ मैंने अपने मन की बात पूछ ही डाली.
”नहीं, कछु ओरें कह रये थे के ऊने जमानत करवा ली है. अब पुलिस कछु ने कर पेहे.“ चंदा ने थके स्वर में उत्तर दिया,”अब देखो का होत है आगे?“
”धीरे-धीरे सब ठीक होगा,चंदा! पापियों को अपने पाप की सज़ा अवश्य मिलती है.“ मैंने चंदा को तसल्ली दी.
”का जाने बाई’सा, का हुइयेे!“ एक ठंडी संास भरी चंदा ने.
चंदा काम करके चली गई लेकिन मेरे मन-मस्तिष्क पर एक बवंडर छोड़ गई.दोपहर को जब मैं आराम करने के लिए बिस्तर पर लेटी तो बिस्तर मुझे कांटों की सेज के समान चुभने लगा.मुझे रह-रह कर हिम्मा की याद आने लगी.उसका चेहरा तो मुझे बहुत अच्छे-से याद नहीं था लेकिन रह-रह कर एक छवि मेरी अंाखों में उभर रही थी जो हिम्मा की नहीं तो हिम्मा जैसी ज़रूर थी.लोग कैसे कर लेते हैंकिसी औरत के साथ बलात्कार? बलात् सहवास में भला क्या सुख मिलता होगा उन्हें?एक चींखती-चिल्लाती,प्रलाप करती,विरोध करती औरत...कौन-सा आनन्द कमल जाता है उन्हें? पक्षियों का षोर भी मुझे हिम्मा की चीत्कार-सा प्रतीत हो रहा था. ऐसे में मुझे भी लगा कि इस नीम के पेड़ को कटवा देना चाहिए ताकि प्रलापपूर्ण ध्वनियंा आना बंद हो जाएं. फिर मुझे तत्क्षण सुध आई कि अरे, ये मैं क्या सोच रही हूं? क्या मेरे विचार ,मेरी प्रकृति बदलने लगी है?
अप्रत्याषित,अपरिचित प्रश्नों से घिरी मैं कब नींद की आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.बच्चों के स्कूल से वापस आने पर मेरी नींद खुली.सपने में क्या-क्या देखा ये तो मुझे याद नहीं रहा किन्तु कुछ बुरा-बुरा अवश्य देखा होगा तभी मेरा सिर भारी था.मेरी उड़ी-उड़ी रंगत और सुस्तपन को देख कर बच्चों ने समझदारी का परिचय दिया. उन्होंने फ्रिज से स्वयं ही नाश्ता निकाल लिया और खा-पीकर खेलने चले गए.मैं सोफे पर लेट गई.रात का भोजन बनाना था लेकिन न हाथ-पंाव साथ देते महसूस हो रहे थे और न मन. ऐसा लग रहा था मानो घर में ही कुछ बुरा घट गया हो.केशू के आने तक मैं वैसी ही लेटी रही.
केशू ने देखा तो चिंतित हो उठे.उन्हें लगा कि मैं बीमार हूं.मैंने उन्हें विष्वास दिलाया कि मैं बीमार नहीं हूं बस यूं ही मन खराब है.इस पर केशू ने प्रस्ताव रखा कि घूमने चलते हैं,होटल से खाना भी खा आएंगे.थोड़ी-सी ना-नुकुर के बाद मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया.केशू ने ही बच्चों को आवाज़ दी और उन्हें तैयार हो जाने को कहा. बच्चे अपने पिता के इस प्रस्ताव पर बेहद उत्साहित हुऔर पलक झपकते तैयार हो गए.
हम लोग काफी देर तक पब्लिक पार्क में बैठे रहे.केशू जानते हैं कि मुझे प्रकृति से लगाव है इसीलिए जब कभी मेरा मन विचलित होता है वे तत्काल पार्क घूमने का कार्यक्रम बना डालते हैं. पार्क में आ कर बच्चे खेल-कूद का आनन्द लेते लगेे और केशू आने नए प्रोजेक्ट के बारे में मुझे बताते लगेे.जब केशू को महसूस हुआ कि उनकी बातों में मेरा ध्यान नहीं जा रहा है तो उन्होंने उस समय की घटनाओं की चर्चा छेड़ दी जब हमारे जीवन में बच्चों का पदार्पण नहीं हुआ था. मुझे उन रोमंाचित कर देने वाले दिनों की यादें भी बहला नहीं पा रही थीं. वे अपनी तरफ से हर संभव प्रयास कर रहे को मुझे बहलाने का लेकिन मेरा मन जीवन की बुनियादी बातों पर अटका हुआ था.
”तुम औरतों के साथ यही दिक्कत है कि जो बात एक बार अपने मन में बैठा लेती हो फिर उसे किसी भी क़ीमत पर निकलने नहीं देती हो.टेक इट ईज़ी,यार!“केशू अब झुंझला उठे.
यह स्वाभाविक था क्योंकि जो बात मुझे चुभ रही थी उसका न तो उन्हें पता था और न ही उससे उनका कोई सरोकार था.एक औरत की पीड़ा जितनी गहराई से कोई औरत समझ सकती है,उतनी गहराई से कोई पुरुष नहीं.हंा, यदि कोई औरत चाहे तो... .
”आप समझ नहीं रहे हैं.“मैंने प्रतिवाद करना चाहा
”अब इसमें न समझ पाने वाली बात कौन-सी है? ज़ाहिर है कि तुम हिम्मा के साथ घटित हादसे को लेकर परेशान हो लेकिन माला, ऐसी घटनाएं तो आए दिन होती रहती हैं,तुम किस-किस के लिए षोक मनाती रहोगी? और फिर इसमें भी सच और झूठ का पता करना मुश्किल होता है.क्या पता दाऊ याहब के लड़के को फंसाने के लिए हिम्मा को मोहरा बनाया गया हो?वरना जग हंसाई से बचने के लिए औरत हर दुख चुपचाप पी जाती है.हिम्मा ऐसी तीरंदाज़ कहंा से निकल आई?इन छोटे तबके की औरतों का कोई भरोसा नहीं,ये पैसे के लिए कुछ भी कर सकती हैं.“
केशू ने समझाने के अंदाज़ में कहा लेकिन उसकी ये बातें सुन कर मैं भीतर तक खौल गई.
”आप इतना गंदे ढंग से कैसे सोच सकते हैं,केशू? हिम्मा के साथ बलात्कार सचमुच हुआ है.“मैंने लगभग चींखते हुए कहा.
मेरे स्वर की तीव्रता से केशू घबरा गए और उन्होंने इधर-उधर नज़रें दौड़ा कर देखा कि किसी ने मेरी आवाज़ तो नहीं सुनी.उन्हें यह महसूस करके संतोष हुआ कि बच्चों के षोर से भरे इस पार्क में किसी को मेरी आवाज़ सुनने की फुर्सत नहीं थी.
”तुम बौरा गई हो.चंदा की बातें तुम पर कुछ ज़्यादा ही असर कर गई हैं.“केशू ने दबे किन्तु तीखे स्वर में कहा.
”चंदा की नहीं की बातें नहीं लोगों का दृष्टिकोण चुभ रहा है मुझे.“मैंने भी उसी तीखे ढंग से उत्तर दिया.
”कैसा दृष्टिकोण?“ केशू ने पूछा.उन्होंने यह नहीं पूछा कि किसका दृष्टिकोण? निश्चित रूप से उन्होंने मेरे कटाक्ष को अपने ऊपर ही लिया था, लेना भी चाहिए था अ्रगर वे भी और लोगों की भंाति ही सोचते हैं तो.आखिर जब वे किसी पेड़ को कटवाने की बात बिना हिचक कर सकते हैं तो उन्हें मानवीय संवेदनाओं से भला क्या सरोकार हो सकता है?
”मैं आपकी बात नहीं कर रही हूं“मैंने जानबूझ कर यह जताया और कर आगे बोली,”आपनेआज का अख़बार नहीं पढ़ा क्या? लोग औरत की पीड़ा को भी वर्गों में बंाटने पर क्यों तुले हुए हैं?
बलात्कार की पीड़ा हर औरत के लिए एक-सी होती है चाहे वह किसी भी बर्ग की क्यों न होे फिर यह क्यों लिखा जाता है कि ‘हरिजन महिला के साथ बालात्कार या आदिवासी महिला के साथ बलात्कार’? क्या इसी लिए कि आप जैसी सोच वाले व्यक्ति मामले को आसानी से झूठा ठहरा सकें!“
उत्तेजनावश मैं कब व्यक्तिगत आक्षेप पर उतर आई, मुझे पता नहीं चला.
”माला! ये तो तुम हद से बाहर जा रही हो. तुम भला मुझे क्यों दोष दे रही हो? मैंने क्या अपराध किया है?“केशू के स्वर में आश्चर्य और क्रोध का मिला-जुला भाव था.
”सॉरी!“ हम दोनों के बीच उभरती कटुता को विराम देने के उद्देष्य से कहा.
हम लोग उठ खड़े हुए.पार्क का आह्लादित करने वाला वातावरण अचानक बोझिल लगने लगा था.जितने उत्साह से बच्चे हमारे निकट आए थे उतनी ही जल्दी शांत भी हो गए शायद उन्हें हमारे ‘खराब मूड’ का अहसास हो गया था.बच्चों के सामने हम लोग आपस में कभी लड़ते नहीं हैं लेकिन आपसी अबोलापन जाने कैसे उन्हें अहसास करा देता हैकि मेरे और केशू के बीच कोई ‘बात’ हुई है.भोजनालय तक का रास्ता चुप्पी ओढ़े हुए गुज़र गया.
हम लोग चार कुर्सियों वाली मेज के इर्द-गिर्द बैठ गए.बैरे ने ‘मीनू’ ला कर रखा ही थाकि मेरे पीठ पीछे से आवाज़ आई,”हलो! तो ये टीम यहंा जमी है!“
स्वर सुन कर ही मैं समझ गई कि यह ललित है.मैंने सोचाकि चलो अच्छा हुआ,अभी इसी से पूछती हूं.देखूं,क्या सफाई देता है ललित अपने दृष्टिकोण के बारे में? आखिर ये अखबार वाले भी जो जी में आए लिखते रहते हैं.
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”क्या बात है भाभी, मूड ठीक नहीं है क्या? बड़ी गुमसुम नज़र आ रही हैं,केशूजी से लड़ाई हो गई है क्या?“ललित ने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में पूछा.
”तुम्हारी भाभी का तो दिमाग़ चलता हो गया है.“केशू ने चुभते स्वर में ललित को जानकारी दी.यह सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा.दुनिया भर की आक्रामकता मेरे भीतर आ समाई.मैं कुछ बोल पाती इसके पहले ही केशू बोल उठे,”तुम जानते नहीं हो, वो हिम्मा वाले प्रकरण में बेकार दूसरों को दोषी बनाया जा रहा है,असली दोषी तो मैं हूं, मैं!“
”ऐसा तो नहीं कहा मैंने!“मैंने प्रतिवाद किया.
”ओफ्फो,ये मामला तो बड़ा ही संगीन नज़र आ रहा है.“ललित ने चिंतित होने का अभिनय करते हुए कहा.कोई और समय होता तो मुझे उसके अभिनय पर हंसी आ जाती लेकिन इस समय
मुझे उसके अभिनय में सरासर भद्दापन नज़र आया.
”तो कल के अख़बार में इस अपराधी की स्वीकारोक्ति छाप दूं?“ललित ने फिर चुहल की.
”क्यों नहीं, तुम्हारी भाभी का बस चले तो दुनिया के सभी मर्दोंंको फंासी चढ़वा दें.“ केशू ने व्यंग किया.
”इट इज़ टू मच!“ मैं तिलमिला उठी.
”लगता है मैं ग़लत वक़्त पर आ गया हूं.“ हम दोनों की वार्तालाप की षैली देख कर ललित बोला.
”नहीं,ऐसी कोई बात नहीं है.बस, यूं ही ज़रा मैंने कह दियाकि हिम्मा जैसे किसी भी मामले
में लोगों के दृष्टिकोण सही नहीं रहता है.पता नहीं क्यों इन्हें बुरा लग गया.“ मैंने ललित से कहा.
”तुम्हीं बताओ ललित, क्या ऐसे मामलों में सच-झूठ का पता आसानी से लगाया जा सकता है?“केशू ने ललित से पूछ डाला.
”अरे छोड़िए भी,आप लोग कहंा का विवाद पाल बैठे? ऐसे प्रश्न तो संसद तक में हल नहीं हो पाते हैं, फिर बहस करने के लिए हमारे नेतागण ही काफी हैं,आप लोगों को कष्ट करने की ज़रूरत नहीं है,भई! “ललित ने पल्ला झाड़ते हुए कहा.
केशू की भंगिमा देखते हुए मैंने बात वहीं समाप्त कर देना उचित समझा,आखिर बच्चे भी साथ में थे और मैं नहीं चाहती थी कि हिम्मा का नाम बार-बार उनके सामने आए. उसी क्षण मेरे मन में विचार आया कि हर बार औरत को ही क्यों चुप हो जाना पड़ता है? बहरहाल, मैंने बात बदलने का प्रयास किया.ललित ने मेरी मदद की.कुछ ही देर में सब कुछ ठाक-ठाक होने लगा.बच्चों के चुटकुले और फरमाइषें लौट आईं.खाना-खाकर लौटते समय तक केशू के चेहरे पर मुस्कान तैरने लगी थी.मैं भी मुस्कुरा रही थी लेकिन मन की फांस अभी निकली नहीं थी.
बच्चे सो चुके थे.केशू के खर्राटों की भी ध्वनि बता रही थीकि वे गहरी नींद में हैं.सिर्फ़ मैं जाग रही थी.घर के बाहर से कुत्तों के भौंकने और रोने के स्वर सुनाई पड़ रहे थे.माहौल में भारीपन था.मैं भी सोना चाह रही थी लेकिन नींद मेरी अंाखों से कोसों दूर थी.मेरे दिमाग़ में एक ही बात बार-बार घूम रही थीकि सब के सब कायर हैं,सच को स्वीकारने से भी डरते हैं.इसीलिए तो किसी भी अमानवीय घटना को भी जाति-वर्ग के षिकंजे में जकड़ कर छोटा साबित करने पर तुल जाते हैं और फिर हर प्रश्न से मुंह चुराने की कोषिष करते रहते हैं.भला अंतर है केशू और ललित की सोच में? अंतर तो मुझमंे और हिम्मा में भी नहीं है.वह भी औरत है और मैं भी.बस,अंतर है तो इतना ही कि मैैं किसी की पत्नीं हूं, किसी की भाभी हूं और हिम्मा आज किसी की कुछ भी नहीं,वह मात्र एक प्रकरण है.वह आज किसी भी वर्ग में खड़ी की जा सकती है.वह आज एक औरत नहीं, शतरंज की बिसात का एक मोहरा मात्र है लेकिन केशू की तरह यह मान लेना भी तो ग़लत होगा कि हिम्मा निचले तबके की होने के कारण बिक गई होगी.न जाने क्यों मेरा मन हिम्मा की तरफदारी पर उतारू था.बाहर नीम के पेड़ पर उल्लू के चींखने की आवाज़ आई.मुझे लगाकि पुरूशों के लिए औरतें इस नीम के पेड़ के समान ही तो हैं,जब तक चाहा उनकी षीतलता का आनन्द लिया और जब चाहा कटवा डाला.
रात लगभग अंाखों-अंाखों में ही कटी. देर से सोकर उठने वाले केशू के पास सुबह इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे मेरी अंाखों में रतजगे की लालिमा देख पाते.केशू दफ्तर चले गए और बच्चे स्कूल. चंदा आई.पता नहीं केस अंतः प्रेरणा के वशीभूत हो कर मैंने हिम्मा से मिलने की इच्छा प्रकट की.यह इच्छा मेरे मन में कब जागी, मुझे स्वयं भी पता नहीं.चंदा तुरंत राजी हो गई. चंदा के काम समाप्त कर लेने के बाद मैं उसके साथ हिम्मा के घर की ओर चल पड़ी.
घर से निकलते समय मन में कोई दुविधा नहीं थी किन्तु जैसे ही चंदा ने बताया कि ”बस बाई’सा,इस गली के नुक्कड़ पर ही हिम्मा रहती है.“ -सुन कर मेरे पैरों का वज़न एकाएक बढ़ गया. मन में प्रश्न कौंधा कि मैं हिम्मा से मिलने क्यों जा रही हूं? मैं अपने इस प्रश्न का उत्तर अपने भीतर नहीं खोज पाई कि दूसरा प्रश्न मेरे मन में कौंधा, मैंने यहंा आ कर कोई गलती तो नहीं की?
लगातार निरूत्तर होती हुई मैं अपने-आप पर झुंझलाने लगी.
हिम्मा के झुग्गी-झोपड़ीनुमा घर में सन्नाटा-सा खिंचा था.मैं तो सोच रही थीकि गहमागहमी होगी.चंदा हिम्मा की मंा को पुकार लगाती हुई घर के भीतर दाखिल हो गई.मुझे दरवाज़े पर ठिठकती देख,उसने मुझे भी आने का इशारा किया.चंदा की आवाज़ सुन कर हिम्मा की मंा पता नहीं कहंा से सामने आ खड़ी हुई.उसने मुझे देखते ही रोना षुरू कर दिया. चंदा उसे चुप कराने लगी.वहंा का वातावरण इतना बोझिल हो गया था कि मुझे पहली बार आने यहंा आने का पछतावा हुआ.
”काय बाई,कैसी हो?“चंदा ने वहीं खटिया पर गुड़ीमुड़ी हो कर लेटी हुई लड़की से पूछा.लड़की ने उत्तर नहीं दिया.फिर चंदा ने मुझसे प्रश्न किया,”बाई’सा,आपने पहचाना? यही है हिम्मा.देखो तो बाई कैसी गत हो आई है.“
मैंने हिम्मा को ध्यान से देखा,वाकई मैं उसे पहचान नहीं पाई.उसका मुरझाया चेहरा मेरी काल्पनिक हिम्मा से अधिक मैला और अवसाद भरा लग रहा था.मैं हिम्मा को दिलाया देने को षब्द चुन ही रही थीकि हिम्मा का पिता आ गया.शायद बाहर किसी ने उसे मेरे आने के बारे मे बता दिया था.उसने अपना परिचय खुद ही दिया.
”मैं इस करमजली का बाप हूं...कीड़े पड़ें उस पापी को जिसने मेरी बच्ची को बिगाड़ा...बाई’सा, अब आप तो इतनी कृपा कर दो कि मेरी बच्ची को मुआवजा जल्दी मिल जाए क्यों उसी से अब इसका गुज़ारा होगा,अब कोई षादी तो करने से रहा इसके साथ.“ हिम्मा का पिता बिना किसी लाग-लपेट के बोला. उसका इस तरह बोलना मुझे रूचा नहीं.हिम्मा की मंा लगातार सुबक रही थी.मैं जल्दी-से-जल्दी वहंा से निकल पड़ने के लिए उद्यत हो उठी.
हिम्मा से बोल पाने के लिए शब्दों का टोटा महसूस कर रही थी मैं.मैंने हिम्मा के माथे पर
हाथ रख दिया. मेरे हाथ का स्पर्ष पा कर हिम्मा की मृतप्राय देह में हरकत हुई. उसने मेरा हाथ पकड़ते हुए मुझसे पूछा, ”हमने थाने जा के कछु गलत करो का?“
उसके स्वर के कंपन ने मुझे सिहरा दिया.मेरा मन कमजोर पड़ने लगा. लेकिन मैंने अपने मन पर नियन्त्रण पाते हुए कहा,”नहीं, तुमने बिलकुल ठीक किया!“
घर लौटने पर भी मैं अपने अन्दर एक अनजानी घबराहट का अनुभव करती रही.नीम के पेड़ पर पक्षी चहचहा रहे थे लेकिन मुझे ऐसा लग रही थाकि अभी कोई कौवा कोई अषुभ सूचना दे जाएगाा. शाम होते-होते मुझे बुखार आ गया.मैं हिम्मा को निरन्तर अपने आसपास उपस्थित पा रही थी. केशू देर से घर आए. घर आने पर जब उन्होंने मुझे बुखार में तपता हुआ पाया तो वे परेशान हो उठे.उनकी परेशानी देख कर मुझे ग्लानि का अनुभव होने लगा.जब मन की अकुलाहट सीमा पार करने लगी तो मैंने केशू को बता दिया कि मैं हिम्मा से मिलने गई थी.मुझे डर थाकि यह सुन कर केशू मुझ पर बरस पड़ेंगे लेकिन शायद मेरी बीमारी को देख कर वे अपना क्रोध पी गए. उनके व्यवहार की ऊष्णता ने मेरे षरीर की तपन को कम कर दिया. मैं बड़े अजीब मानसिकता से घिर गई थी,कभी मैं उन्हें दोषी मानती तो कभी अपने-आपको.
दूसरे दिन मेरा बुखार उतर गया.तनिक कमजोरी अवश्य महसूस होती रही.हिम्मा को लेकर केशू से फिर कोई बात नहीं हुई.ऊपर से मेरी दिनचर्या व्यवस्थित भले ही दिखाई देने लगी किन्तु हिम्मा की हताष छवि मेरी अंाखों से मिटी नहीं.मैं यह सोच कर अवश्य निष्चिन्त हो गई थी कि केशू ने हिम्मा और उसको लेकर हम दोनों के बीच हुए विवाद को भुला दिया है.बस, मैं चंदा से हिम्मा के बारे में चर्चा कर लिया करती.वह यही बताती रही कि आज अखबार वाले आए थे,कल फलंा नेता आए थे और परसों कोई महिला नेता आई थी.
एक दिन ललित केशू से मिलने आया तो दोनों के बीच चर्चा के दौरान हिम्मा की बात होने लगी. उस समय मैं रसोईघर में थी अतः दोनों ने यही समझा कि मैं उनकी बातें नहीं सुन रही हूं.जबकि हिम्मा का नाम मेरे कानों में पड़ते ही मेरे कान खड़े हो गए थे.
”लगता है विधानसभा में बात उठेगी. हंालाकि दाऊ साहब ने भी अपनी लामबंदी कर ली है.“ललित बता रहा था.
”इस मामले को आखिरकार जाना तो ठंडे बस्ते में ही है लेकिन इसकी अंाच ने तो मेरे घर को भी झुलसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.तुम्हारी भाभी तो बस.. .“यह केशू का स्वर था.
”छोड़ो भी यार, महिलाएं होती ही अधिक संवेदनशील हैं.वे तो सिनेमा के पर्दे पर हिरोइन को रोता देख कर रो पड़ती हैं.“ललित ने केशू को समझाया.
इसके बाद मुझे और कुछ भी नहीं सुना गया क्योंकि मेरा मन एक बार फिर विद्रोह करने लगा.मेरा जी किया कि मैं ललित से पूछूं कि क्या उसकी नज़र में कल्पना और यथार्थ में कोई फर्क नहीं है जो वह हिम्मा की पीड़ा की तुलना सिनेमाई कल्पना से करके औरतों की संवेदना का माखौल बना रहा है? मगर मैंने नहीं पूछा क्योंकि कोई लाभ नहीं था तर्क-वितर्क से,मात्र कटुता ही जाग उठती मेरे और केशू के बीच.
उस दिन के बाद से मैंने चंदा से भी हिम्मा की चर्चा करनी बंद कर दी.मैं हिम्मा के विचार से भी अपने आपको दूर कर लेने का प्रयास करने लगी.किन्तु सदैव सही होता हैकि हम जिस विचार से बाहर आना चाहते है,उतने ही अधिक उसमें समातेे जाते हैं.मैं भी हिम्मा के विचार से खुद को उबार नहीं सकी.मेरा यह खयाल भी गलत निकला कि केशू ने हिम्मा के मामले को दिल से निकाल दिया है.बिना किसी कारण एक अबोलापन हम दोनों के बीच तैरने लगता.
इसी दौरान एक घटना और घटित हो गई.मेरी चचिया सास जो राजधानी में रहती हैं और किसी नारी संगठन की अध्यक्षा हैं,अचानक आ गईं.मैंने उनकी आवभगत की.सासजी ने बताया कि वे अपने संगठन के जरिए हिम्मा के प्रति आवाज़ उठाना चाहती हैं और इस काम में उन्हें मेरी मदद चाहिए.मैं किसी से कहना नहीं चाहती थी लेकिन विवशतावश उन्हें बताना पड़ा कि हिम्मा के मामले में मेरा कोई भी क़दम केशू को बुरा लगेगा.‘प्रोग्रेसिव’ विचारों की हिमायती सास ने मुझे आड़े हाथों लिया.उन्होंने मुझे ‘पिछड़े हुए विचारों वाली’,‘दकियानूसी’,‘लिजलिजी’ और न जाने क्या-क्या कह डाला किन्तु उनके आरोप चुपचाप पी जाने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था मेरे पास.काश, वे मेरी स्थिति समझ पाती.बलात्कार हिम्मा के साथ हुआ था लेकिन उससे उत्पन्न मानसिक पीड़ा मैं भी झेल रही है. मैं तो हिम्मा की तरह किसी का हाथ पकड़ कर यह भी नहीं पूछ सकती थीकि मैं जो कर रही हूं,वह ठीक है अथवा नहीं.पूछने से कोई लाभ भी नहीं है,सब वही कहेंगे जो मेरी चचिया सास ने मुझसे कहा.उपदेश देना सरल जो होता है.सासजी से मैं न कुछ कह सकती थी और न कहा,वरना जी में तो आया थाकि पूछूंकि मेरे मंा-बाप से दहेज लेते समय कहां चली गई थी उनकी यह ”प्रोग्रेसिवनेस“ चचिया सास हिम्मा से मिल कर उससे किसी कागज़ पर अंगूठा वगैरह लगवा कर चली गईं. हिम्मा की छवि नीम के पेड़ के समान मेरी दिनचर्या की विषय-वस्तु बन गई. उसकी चर्चा प्रत्यक्षतः न हो कर भी होती रहती.
हिम्मा मर गई! यह खबर मुझे झकझोर गई.मुझे ऐसा लगा कि जैसे हिम्मा के मृत्यु-पत्र पर मैंने भी हस्ताक्षर किए हों.मेरा शरीर पसीने से भीगने लगा.बाहर नीम के पेड़ पर कौआ कांव-कांव कर रहा था.
”मैं इस पेड़ को ही कटवा दूंगा. न रहेगा पेड़, न चींखेगा कौआ!“ केशू ने कौवे की कांव-कांव पर झुंझलाते हुए कहा.
”किस-किस को कटवाओगे, केशू?“ सहसा मेरे मुंह से निकला और मेरी आंखों के आगे धुंए का एक बादल तैर गया.
(सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित ‘तीली-तीली आग’ कहानी संग्रह से )
शुक्रवार, सितंबर 03, 2010
बुन्देली लोक व्रत-कथाओं में स्त्री-विमर्श
(डॉ.हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर से प्रकाशित पत्रिका ‘ईसुरी’ से मेरा यह लेख साभार)
- डॉ.शरद सिंह
स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।
देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रसदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।
एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है। घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।
बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रें से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रें से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।
किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत,प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं। लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस गं्रथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
कर्नल टॉड के बाद कुछ और गं्रथ आए जिनमें भारतीय लोकथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में जनजातीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक ग्रंथों में विभिन्न क्षेत्रें एवं समाजों में प्रचलित लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया।
व्रत कथाओं को प्रायः धार्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत पढ़ी, सुनी जानेवाली कथाएं मान लिया जाता है जबकि व्रत कथाओं का एक और रूप होता हैं जो कि लोक विश्वास अथवा लोक आस्था के रूप में लोक मानस में व्याप्त रहता है और इसी रूप में ग्रहण किया जाता है। जैसे भैया-दूज की व्रत कथा । काल्पनिक ‘दोज महारानी’ की आस्थायुक्त यह कथा ईश्वरीय चमत्कारों तथा धार्मिक आग्रह से परे भाई की रक्षा को ले कर बहन की चिन्ता का लौकिक स्वरूप है। इसमें स्त्री का वह रूप उभर कर सामने आता है जिसे पारिवारिक एवं सामाजिक ताने-बाने में ‘बहन’ का संबोधन दिया गया है।
मुख्य रूप से लोक व्रत कथाएं श्रोताओं के सम्मुख कही (बंाची)जाती हैं। इनमें सभी स्त्री पात्रें का विशेष महत्व रहता है। इस तथ्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि लोक व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री ही रहती है। इसके दो कारण माने जा सकते हैं। पहला कारण यह कि समाज को धर्म के माध्यम से लोक हित से जोड़ने वाली स्त्री ही होती है, वह मां के रूप में भावी पीढ़ी को साहस का पाठ पढ़ाती है , संकट से जूझने की क्षमता प्रदान करती है और उसकी तमाम शक्ति को समाज हित में लगाने की शिक्षा देती है। इस प्रकार वह भावी पीढ़ी को लोक हित का अर्थ समझाती है ,सिखाती है और उसमें आस्था उत्पन्न करती है। दूसरा कारण यह कि जिस ग्रामीण लोक से इन कथाओं को स्थापन मिलता है उसमें स्त्री की अपनी अलग सत्ता होती है। भले ही प्रायः वह आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर हो किन्तु पुरुष की स्त्री पर निर्भरता भी निर्विवाद रहती है। मसलन, यदि स्त्री घर की चौखट के भीतर रखी जाती है, विशेष रूप से वह स्त्री जो अर्थोपार्जन से जुड़ी न हो कर खांटी घरेलू स्त्री होती है तो पुरुष भी रसोईघर की चौखट लांघ कर उसमें प्रवेष नहीं करते हैं। अन्न जुटाने का दायित्व पुरुष का रहता है तो अन्न पका कर खिलाने का दायित्व स्त्री का।
व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री के रहने के ये दोनों कारण बुंदेली व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का विशिष्ट रूप सामने रखते हैं। इनमें स्त्री धैर्य , साहस और कर्म का प्रतिरूप बन कर एक ऐसी छवि प्रस्तुत करती है जिसके अभाव में समाज का सतत बने रहना कठिन है।
यहां प्रमुख नौ बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का आंकलन किया जा रहा है। यथा- भैया दूज की व्रत कथा, दसामाता की व्रत कथा, गनगौर की व्रत कथा, आसमाई की व्रत कथा, ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा, गाजबीज की व्रत कथा, करवाचौथ की व्रत कथा, वटसावित्री की व्रत कथा एवं तुलसी नवमी की व्रत कथा।
भैया दूज की व्रत कथा- फागुन के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की द्वितिया को भैया दूज मनाया जाता है। इस अवसर पर भाई बहन के परस्पर प्रेम पर आधारित व्रत कथा बांची जाती है। ‘सात बैनन को बीर’ नामक व्रत कथा में सात बहनों के इकलौते भाई के प्रति बड़ी बहन का अपने भाई के प्रति अगाध प्रेम और चिन्ता का विवरण है। बड़ी बहन इस कथा में भाई पर सात प्रकार के प्राण घातक संकट आते हैं जैसे भोजन में संाप का विष मिल जाना, सेही के कांटों से व्यवधान उत्पन्न होना, नदी मे बाढ़ आ जाना , कांटों भरे रास्ते पर से गुजरना , द्वार का गिरना, मंडप का गिरना तथा डंसने के लिए नागिन का आ जाना। बड़ी बहन इन सभी संकटों से अपने भाई की हर संभव रक्षा करती है। सहायता के लिए वह एक और स्त्री शक्ति का आह्वान करती है जिसे ‘दोज महारानी’ का नाम दिया गया है। कथा के अंत में भी इसी स्त्री शक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह ठीक उसी प्रकार सब का कल्याण करे जिस प्रकार सात बहनों के भाई की रक्षा करने में बड़ी बहन को सहायता देने का कल्यााणकारी कार्य किया-‘ पनमेसरी दोज महारानी जैसी इनकी राखी , सो सबकी राखियो’। यही कथा दीपावली के बाद मनाए जाने वाले भैया दूज में भी कही सुनी जाती है।
भैया दूज की इस कथा में स्त्री का एक रूप बहन का है जो अपने भाई के लिए सर्वस्व लुटाने को तत्पर दिखाई पड़ती है। यह स्त्री का वह रूप है जो पारिवारिक संबंधों की महत्ता को सर्वोपरि मानती है और हर सम्भव प्रयास से इन्हें बनाए रखना चाहती है। यह भारतीय स्त्री का परिवार के प्रति, अपनों के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है। इस कथा में स्त्री का दूसरा रूप दोज महारानी का है जो दूसरों की भावनाओं तथा पारिवारिक मूल्यों के प्रति अति सम्वेदनशील है और उस स्त्री के प्रति उदारमना है जो अपने पारिवारिक संबंधों की रक्षा करने के लिए तत्पर है। दोज महारानी और बड़ी बहन के परस्पर पूरक अथवा सहायक स्वरूप से वह धारणा मिथ्या दिखाई पड़ती है जिसमें स्त्री को स़्त्री का प्रतिद्वन्द्वी माना जाता है। इसमें एक स्त्री दूसरी स्त्री की सहायता करती है। यह स्त्री का वास्तविक एवं लोक हितकारी रूप है।
दसामाता की व्रत कथा- चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को दसामाता का व्रत रखा जाता है। इसे पिपरदसा व्रत भी कहते हैं क्योंकि इस अवसर पर पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है और उसी समय व्रत कथा बंाची जाती है। दसामाता की व्रत कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्र के अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्र व्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की बहू को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चौपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। चौपड़ खेलने के दौरान उस पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की। पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित ‘वीरांगना स्त्री’ नहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी ‘नियोग’द्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में ‘नियोग’ के बदले ‘पीपरदेव ’एवं ’दसामाता’ के चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खेा चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि बंुदेली स़्त्री विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप ‘दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो।
गनगौर की व्रत कथा- चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को गनगौर व्रत रखा जाता है। यह मुख्य रूप से विवाहिताओं का व्रत-त्यौहार है। इस व्रत में शिव पार्वती की पूजा की जाती है तथा गनगौर की व्रत कथा का वाचन किया जाता है। इस कथा में पार्वती द्वारा स्त्रियों को अखंड सौभाग्यवती बनाने का वर्णन है। कथा के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को शिव ओर पार्वती भ्रमण के लिए निकले। पृथ्वी पर निवास करने वाली स्त्रियों को जैसे ही इस बात की सूचना मिली वे पार्वती की पूजा की तैयारी करने लगीं। निर्धन स्त्रियों के पास पूजा करने की सामग्री कम होने के कारण वे जल्दी से तैसार हो कर पूजा करने लगीं। पार्वती ने उनकी पूजा से प्रसन्न हो कर उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का सम्पूर्ण वरदान दे डाला। तब तक धनी वर्ग की स्त्रियों ने सोने -चांदी की थाल में बहुमूल्य सामग्री सजा कर पूजा प्रारम्भ कर दी। पार्वती उनकी पूजा से भी प्रसन्न हो गईं और उन्हें अपनी उंगली में चीरा लगा कर रक्त के छींटों के द्वारा अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान दिया।
यह कथा स्त्रीशक्ति द्वारा समाज की सभी वर्गों की स्त्रियों के सुख की कामना करने का आदर्श सामने रखती है। इस कथा में स्त्री का वह समर्पित, उदारमना रूप वर्णित है जो सदा पुरुष के प्रति सहयोग भाव रखता है तथा पति के रूप में सहगामी पुरुष की सभी संकटों से (मृत्यु से भी) रक्षा की कामना करता है। भले ही पुरुष (पति) का व्यवहार उसके प्रति अमानवीय अथवा असंतुलित ही क्यों न हो।
आसमाई की व्रत कथा - आषाढ़ माह के तीसरे रविवार को आसमाई का व्रत रखा जाता है। इस व्रत मे लकड़ी के पटे पर चंदन से भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई की आकृतियां बनाई जाती हैं। इस अवसर पर जो व्रत कथा कही जाती है उसमें एक ऐसे जुआरी राजा का उल्लेख हैं जो आसमाई के सहारे अपने जीवन की दिशा बदलता है। राजा को जुए में अपना राज-पाट खेाना पड़ा और वह देश छोड़ कर जाने को विवश हुआ। जब वह वन मार्ग से जा रहा था तो उसे रास्ते में चार स्त्रियां दिखाई दीं। उसी समय राजा के पंाव में कंाटा चुभ गया जिसे निकालने के लिए वह झुका । चारो स्त्रियों ने समझा कि वह उन चारों मे से किसी को प्रणाम कर रहा है। उन्होने राजा से पूछा कि वह किसे प्रणाम कर रहा है। निराशा के सागर में गोते लगा रहा राजा बोल उठा कि वह आसमाई (आशा) के सहारे जी रहा है और आसमाई को ही प्रणाम कर रहा है। वे चारो औरतें वस्तुतः भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई थीं। आसमाई राजा की बात सुन कर प्रसन्न हो गई ओैर उसने विजय दिलाने वाली कौड़ियां राजा को दीं। उन कौड़ियों की सहायता से राजा ने एक बार फिर जुआ खेला और अपना राज-पाट वापस प्राप्त कर लिया।
इस कथा में स्त्री के दैवीय रूपों को सामने रखा गया है। यदि इन्हीं रूपों को लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आशावादी स्त्री पुरुष के जीवन को सही दिशा दे सकती है। वह पुरुष के अवगुण को गुणों में परिवर्तित कर सकती है। यही आसमाई का मूल चरित्र है।
ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को हरछठ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत पुत्र की मंगलकामना के लिए रखा जाता है। इस अवसर पर छः कथाएं कहीं जाती हैं, जिनमें मालन की व्रत कथा प्रमुख है। कथा के अनुसार एक ग्वालिन अपने नवजात पुत्र को पलाश की छाया में लिटा कर दूध-दही बेचने चली जाया करती थी। एक दिन जब वह पुत्र को छोड़ कर गई उसी समय एक किसान अपने हल -बैल सहित उधर से निकला। बैलों के विचलित हो जाने से हल की नोंक पुत्र के पेट में घुस गया। किसान ने उसके पेट को कांस (एक प्रकार की लम्बी घास) से सिल दिया। जब ग्वालन लैाटी तो वह अपने पुत्र की दशा देख कर रोने लगी। उसे लगा कि यह उसके द्वारा दूध में मिलावट करने का कुपरिणाम है। वह रोती हुई गांव की स्त्रियों के पास गई और उन्हें सच्चाई बता कर उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगी । गांव की स्त्रियांे ने उसे क्षमा करते हुए उसके पुत्र को आशीष दिया जिससे उसका पुत्र स्वस्थ हो गया।
इस कथा में मात्त्व के दो रूपों को उनकी अच्छाइयो और बुराइयों के साथ प्रस्तुत किया गया है। यदि स्त्री नवजात शिशु के प्रति लापरवाही बरते तो उसे अपने शिशु से वंचित भी होना पड़ सकता है किन्तु दूसरे रूप में वही स्त्री अपने शिशु की जीवन रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है। इस कथा में एक अखरने वाला तथ्य भी है कि शिशु के लालन-पालन एवं जीवन रक्षा का सम्पूर्ण दायित्व स्त्री का ही माना गया है। वहीं पिता रूपी पुरुष का दायित्व निभाने वाले के रूप में उल्लेख नहीं है।
गाजबीज की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि को गाजबीज का व्रत रखा जाता है। जिसमें गाजबीज की व्र्र्रत कथा कही जाती है। इस कथा के अनुसार एक राजा था जो शिकार खेलने जाने वाला था । उसने अपनी रानी से कहा कि रास्ते के लिए रोटियां सेंक कर रख दो। रानी आलसी स्वभाव की थी । उसने स्वयं रोटियां बनाने के बदले दासी को रोटियां बनाने का आदेश दिया । दासी ने रोटियां बना कर राजा को दे दीं। राजा शिकार खेलने निकल पड़ा। जंगल पहुंचने पर घनघेार वर्षा होने लगी। राजा को सिर ढ़कने के लिए वही पोटली हाथ लगी जिसमें रोटियां बंधी थीं। अचानक राजा के ऊपर गाज गिरी। किन्तु सिर पर रखी रोटियों के कारण वह बच गया। वापस महल आने पर राजा ने रानी से पूछा कि तुम्हारी बनाई रोटियों में तुम्हारा कौन सा पुण्य था जिसने गाज गिरने पर मेरी जान बचाई। रानी उत्तर न दे सकी क्योंकि रोटियां तो दासी ने बनाई थी। इस पर राजा ने वही प्रश्न दासी से किया। दासी ने राजा से कहा कि ‘मुझे अपने पुण्य के बारे में तो नहीं पता किन्तु मुझे जो एक किलो चना अन्न के रूप में दिया जाता है उससे अपने लिए रोटियां बनाती हूं। उन रोटियों में से एक रोटी या तो कन्या को या गाय को देती हूं।’
दासी की बात सुन कर राजा समझ गया कि अपने सीमित साधन के बावजूद दासी कन्या और पशुओ के प्रति दयाभाव रखती है। यही उसका पुण्य है जिसने उसके हाथों बनाई हुई रोटियों के माध्यम से राजा के प्राणों की रक्षा की। राजा दासी पर प्रसन्न हुआ और उसे अपनी रानी बना लिया तथा रानी को दासी बना दिया।
भारतीय समाज के वर्तमान परिवेश में कन्या भ्रूण की हत्या किए जाने के परिणामस्वरूप स्त्रियों और पुरुषों के अनुपात में चिन्ताजनक असंतुलन आता जा रहा है। ऐसी स्थिति में गाजबीज की यह व्रत कथा स्त्री के उस स्वरूप को स्थापित करने में सक्षम है जो अपनी दृढ़ता के द्वारा कन्याभ्रूण की रक्षा कर सकती हैं। वह स्त्री जाति पर छा रहे संकट को दूर कर सकती है। यदि वह दृढ़ हो जाए तो परिवार, समाज में पुत्री को जन्म लेने दिया जाएगा, बोझ नहीं समझा जाएगा तथा स्त्री-पुरुष का आनुपातिक संतुलन बना रहेगा। यह कथा स्त्री से उसकी दृढ़ता का आग्रह करती है साथ ही दृढ़ न रहने अथवा स्थिति को अनदेखा करने पर होने वाली हानि की ओर भी संकेत करती है।
करवा चौथ की व्रत कथा - कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत विवाहिताओं के लिए निर्धारित है। इस अवसर पर करवा चौथ की व्रत कथा बंाची जाती है। एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी। बेटी विवाहिता थी और उन दिनों अपने मायके में थी। करवा चौथ के दिन अपने पति की दीर्घायु के लिए उसने व्रत रखा। भाइयों से अपनी बहन का इस प्रकार भूखे रहना देखा नहीं गया और उन्हेंने अपनी बहन को नकली चन्द्रमा दिखा कर व्रत समाप्त करा दिया। बहन ने अभी भोजन आरम्भ ही किया था कि तीसरे कौर में ही ससुराल में उसके पति के बहुत बीमार होने का संदेश आ गया। बेटी उसी क्षण ससुराल के लिए निकल पड़ी। ससुराल पहुच कर उसने साल भर पति की सेवा की और अगले करवा चौथ पर चौथ माता से पिछला व्रत खंडित होने की क्षमा मांगी एवं निर्जला व्रत रखा। इस पर प्रसन्न हो कर चौथ माता ने उसके पति को पूर्ण स्वस्थ कर दिया।
करवा चौथ का व्रत बुन्देलखण्ड सहित लगभग देश की सभी हिन्दू विवाहिताओं द्वारा रखा जाता है। यह कथा अपने पति के लिए स्त्री के त्याग -बलिदान का विचित्र आदर्श सामने रखती है। क्या पत्नी के भूखे-प्यासे रहने से पति दीर्घायु स्वस्थ हो सकता है ? यह कथा विवाहिता के मन में यह अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा अज्ञानवश व्रत के खंडित होने से पति के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं। अतः मूल रूप से यह व्रत कथा स्त्री को अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेड़ियों में जकड़ने को प्रेरित करती है। यदि इस कथा में पति के अहित का भय न दिखाया गया होता तो यह कथा आस्था तथा समर्पण तक सीमित रहती और तब स्त्री के संवेदनशील स्वभाव के निकट रहती।
वटसावित्री की व्रत कथा - वटसावित्री का व्रत जेठ मास की अमावस्या को रखा जाता है। इस अवसर पर बंाची जाने वाली कथा बहुप्रचलित सावित्री-सत्यवान की कथा है। इस कथा में सावित्री के पति सत्यवान की मृत्यु हो जाती है तब सावित्री अपने पति की आत्मा के साथ-साथ यमदूत के पीछे चलती हुई यमराज के पास जा पहुचती है। वह यमराज से अपने पति को पुनर्जीवित करने की विनती करती है किन्तु यमराज ऐसा करने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। इस पर सावित्री उनसे सौ संतानों को जन्म देने का वर मांगती है। यमराज उसे वर दे देते हैं। तब सावित्री उनसे कहती है कि जब तक आप मेरे पति सत्यवान को पुनर्जीवित नहीं करेंगे तब तक आपका वरदान फलीभूत नहीं हो सकेगा क्योंकि मैं किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करूंगी। अतः यमराज को सत्यवान को जीवनदान देना पड़ता है। इस प्रकार सावित्री यमराज के घर से भी अपने मृत पति को को जीवित करा लाती है।
इस कथा को पति के प्रति पत्नी के समर्पण के रूप में लिया जाता है किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। यह है स्त्री की दृढ़ इच्छाशक्ति। स्त्री जब कोई काम करने की ठान लेती है तो वह उसे पूरा कर के ही रहती है, भले ही उसे किसी भी सीमा तक जोखिम उठाना पड़े। सावित्री को इस बात का भय नहीं था कि पति के साथ रहने की ज़िद करने पर यमराज उसे भी मार सकते थे। अपितु उसके भीतर इस बात का विश्वास था िकवह सत्यवान को पुनर्जीवित करा कर रहेगी। यह प्रिय के प्रति प्रेम के साथ-साथ स्त्री की अदम्य इच्छाशक्ति और साहस की कथा है।
तुलसी नवमी की व्रत कथा - यह व्रत कार्तिक शुक्ल की नवमी तिथि को रखा जाता है। इस अवसर पर जो कथा बांची जाती है वह इस प्रकार है कि- एक निःसंतान बुढ़िया प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा-अर्चना किया करती थी। एक दिन पूजा के दौरान उसके अंगूठे में एक फफोला हो गया। वह फफोला नौ माह तक रहा। ठीक नौ माह बाद उस फफोले से एक मेंढक ने जन्म लिया। बालक को पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई। वह अपने पुत्र के रूप में उस मेंढक का लालन-पालन करने लगी। कुछ समय बाद उस राज्य की राजकुमारी का स्वयंवर रचा गया। मेंढक भी उस स्वयंवर में पहुंच गया। स्वयंवर प्रारम्भ होने पर राजकुमारी ने वहंा उपस्थित राजकुमारों को छोड़ कर उस मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारों में खलबली मच गई। उन्होंने राजा से कहा कि राजकुमारी घबराहट के कारण ऐसा कर बैठी होगी अतः एक बार फिर राजकुमारी से माला डलवाई जाए। राजकुमारी को उन राजकुमारों में कोई भला नहीं लग रहा था अतः उसने पुनः मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारी का निर्णय सभी को स्वीकार करना पड़ा। राजकुमारी अपने मेंढक पति के साथ बुढ़िया के घर आ गई। राजकुमारी को बहू के रूप में पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई किन्तु उसे इस बात का दुख भी था कि उसका पुत्र मेंढक था, मनुष्य नहीं। राजकुमारी ने बुढ़िया को ढाढस बंधाया और मेंढक के साथ रहने लगी। राजकुमारी ने पाया कि वह मेंढक रात्रि को मेंढक की खोल उतार कर सुंदर युवक में बदल जाता है और सुबह होते ही पुनः मेंढक बन जाता है। एक रात राजकुमारी ने अवसर पा कर मेंढक की खोल जला दी। अब युवक सदा के लिए मनुष्य के रूप में रह गया। बुढ़िया को जब इस बात का पता चला तो वह भी युवक को अपने पुत्र के रूप में पा कर अत्यंत प्रसन्न हुई। राजा को पता चला तो वह भी खुश हो गया और उसने अपने दामाद को अपना राज-पाट सौंप दिया।
यह कथा स्त्री के आस्था, ममत्व और अधिकार की कथा है। इसमें बुढ़िया के रूप में स्त्री की आस्था और ममत्व का वर्णन है। स्त्री जिसके प्रति आस्था रखती है, उससे कोई शिक़ायत नहीं करती है। बुढ़िया को तुलसी के प्रति आस्था थी तो उसने पुत्र के रूप में मेंढक मिलने पर भी तुलसी से शिक़ायत नहीं की। स्त्री ममत्व की पर्याय इसीलिए मानी गई है कि भले ही उसकी संतान बदसूरत, दुर्गुणों से युक्त हो फिर भी उसे अत्यंत प्रिय होती है। जैसी कि कहावत भी है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। बुढ़िया इसी सघन मातृत्व का उदाहरण है। स्त्री के अधिकारों एवं उसकी स्वतंत्रता राजकुमारी द्वारा मेंढक को पति के रूप में चुने जाने से स्पष्ट है। वह सामाजिक स्वरूप कितना उत्कृष्ट है जिसमें स्त्री को अपना जीवनसाथी चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। यदि कोई स्त्री अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनती है तो वह अन्य लोगों की दृष्टि में भले ही अनुपयुक्त हो किन्तु उस स्त्री के लिए सर्वोपयुक्त सिद्ध होता है तथा आगे चल कर समाज भी इसे मानने को विवश होता है। इस प्रकार यह कहानी स्त्री स्वातंत्र्य का संुदर उदाहरण सामने रखती है।
तथ्य - भारतीय समाज में स्त्री का स्थान शेष दुनिया की भांति दोयम दर्जे का तो है ही किन्तु पारिवारिक संबंधों के आधार पर वह तृतीय और चतुर्थ स्थान पर भी खड़ी दिखाई देती है। अधिकांश धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं और परम्पराएं स्त्रियों के कारण जीवित हैं। स्त्री अपने पति की लम्बी आयु के लिए ‘करवां चौथ’ का व्रत रखती है, पुत्र के लिए ‘छठ’ की श्रमसाध्य पूजा करती है और स्त्री के ये दोनों रूप महिमामंडित हो कर सामने आते हैं। परिवार में स्त्री अपने दायित्व का पालन करती हुई परिवार के सभी सदस्यों के भेजन कर लेने के बाद भोजन करती है जिसमें कई बार उसे आधापेट भोजन करके रह जाना पड़ता है। यदि घर में अनाज के दो दाने हैं तो वे घर के पुरुष के हिस्से में जाते हैं, स्त्री के नहीं।
उपर्युक्त बुन्देली व्रत कथाओं में स्त्री की सहज प्रकृति को वर्णित किया गया है। इन कथाओं में उसके सम्पूर्ण गुण ही नहीं अवगुण है क्योंकि स्त्री मनुष्य है और मनुष्य में गुण तथा अवगुण दोनों होते हैं। पुरुषवादी समाज में स्त्री से उनके उन गुणों की अपेक्षा की जाती है जिसमें वह पुरुष के प्रति समर्पित, स्वविवेक को भूल कर आज्ञा माननेवाली, स्वनिर्णय क्षमता रहित तथा पूर्णतया पुरुष पर निर्भर रहे। जबकि उदाहरण के लिए चुनी गई इन नौ व्रत कथाओं में स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम, समर्पण तथा निष्ठा तो है किन्तु साथ ही यह स्त्री इच्छित पति चुन सकती है, यमराज अर्थात् सबसे निष्ठुर व्यक्ति से भी लड़ कर जीत सकती है, उसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की क्षमता है, वह स्त्रीजाति के अस्तित्व के प्रति सजग है। अर्थात् इन कथाओं की स्त्री एक पूर्ण मनुष्य की भांति पूर्ण स्त्री है। मात्र करवाचौथ की व्रत कथा एक ऐसी व्रत कथा है जिसमें स्त्री का वह दलित रूप वर्णित किया गया है जो अपने पति रूपी पुरुष के लिए आत्मपीड़न का रास्ता चुनने का आदर्श प्रस्तुत करती है। प्रेम और सहजीवी होने के नाते पति की सेवा का आदर्श ग्राह्य हो सकता है किन्तु भूखे-प्यासे रहने वाला व्रत भाइयों के बहन के प्रति प्रेम के कारण टूट जाने से पति को हानि पहुंचने वाला तर्क मानसिक दबाव बनाने वाली एवं पाखण्डयुक्त कथा है। आश्चर्य तो तब होता है जब इस प्रकार की कथा को पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी भावविभोर हो कर सुनती हैं तथा अपने स्वास्थ्य की अवहेलना कर के भूखी-प्यासी रह कर करवाचौथ का व्रत करती हैं, महज यह जताने को कि वे अपने पति की दीर्घायु की कामना कर रही हैं। जो स्त्रियां इस व्रत को नहीं करती हैं क्या वे अपने पति की दीर्घायु की कामना नहीं करती हैं?
मैत्रेयी पुष्पा की यह बात समीचीन लगती है कि ‘देश जब आजाद हुआ तो वह पूरी तरह आजाद नहीं थी, क्योंकि उससे स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। हांलाकि स्वतंत्रता आंदोलनों के दौरान पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जैसी मुहिमें भी चलीं, लेकिन जिस तरह के नतीजे आने चाहिए थे, वे नहीं आए। इसका नतीजा तो हम अब तक जारी पर्दा प्रथा, दहेज हत्या और इक्का-दुक्का सती हत्या के रूप में देख ही रहे हैं। इन संदर्भों में देखा जाए तो स्त्रियों को कई स्तरों पर आजाद होने की जरूरत है।’(चर्चा हमारा,पृष्ठ 75)
बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री के अधिकारिणी एवं दलित दोनों रूपों का मिलना भारत के सामाजिक विकास में स्त्री की भूमिका के सतत् क्षरण का परिणाम कहा जा सकता है। इसे परखने के लिए निम्नांकित बिन्दुओं का अवलोकन किया जाना चाहिए-
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ वैदिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों का समाज में बहुत आदर था। परिवार में भी स्त्रियों को उचित स्थान दिया जाता था। स्त्रियों के विचारों का भी सम्मान किया जाता था। वे सभी सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में अपने पति के साथ सम्मिलित होती थीं। विदुषी स्त्रियां पुरुषों के साथ शास्त्रर्थ करती थीं तथा उन्हें समाज में श्रेष्ठ समझा जाता था। विदुषी स्त्रियां अविवाहित रहती हुई अध्ययन तथा अध्यापन कार्य करने को स्वतंत्र रहती थीं।
ऽ संयुक्तनिकाय के अनुसार-‘ अवगुण भरे पुत्र की अपेक्षा गुणवती पुत्री आधिक श्रेष्ठ है।’
ऽ किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भांति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।
ऽ वैदिक युग में स्त्रियों को धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित होने का अधिकार था। ऋग्वेद में देवताओं से जो प्रार्थना की गई हैं वे पति-पत्नी दोनों की ओर से हैं। पति की अनुपस्थिति में पत्नी अकेली धार्मिक कृत्य करती थी। ऋग्वेद के अनुसार पत्नी को यज्ञ करने और अग्नि में आहुतियां देने का अधिकार था। पति-पत्नी दोनों गार्हपत्य अग्नि की रखवाली करते थे। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था। वे वैदिक ग्रंथों का पठन-पाठन कर सकती थीं।
ऽ ब्राह्मण ग्रंथों के काल में स्त्रियों के धार्मिक अधिकारों में अन्तर आ गया। इस काल में धार्मिक क्रियाओं में जटिलता आ गई थी अतः धार्मिक क्रियाओं पर पुरुषों का वर्चस्व बढ़ गया। फिर भी कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना पति नहीं कर सकता था। पत्नी की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। धीरे-धीरे पत्नियों के स्थान पर पुरोहितों के द्वारा धार्मिक कार्य किए जाने लगे। पत्नी का कुछ धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित होना अनिवार्य नहीं समझा जाने लगा। फिर भी कुछ यज्ञ ऐसे थे जो पत्नी की उपस्थिति के बिना नहीं कराए जा सकते थे जैसे -अश्वमेध, वाजपेय तथा राजसूय यज्ञों में पत्नी का सम्मिलित होना अनिवार्य था। शतपथ ब्राह्मण से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों को वैदिक ग्रंथ पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार था। यज्ञ करने के पूर्व उनका उपनयन संस्कार किया जाता था। तैत्तरीय ब्राह्मण में भी एक धार्मिक क्रिया का उल्लेख है जिसको करने के बाद स्त्री वैदिक ग्रंथों का पाठ और यज्ञ कर सकती थी।
ऽ सूत्रकाल में भी स्त्रियों को धार्मिक कृत्य करने का अधिकार थे। पत्नी को अकेले ही सीता यज्ञ, रुद्र बलि, और रुद्रयाग करने का अधिकार था। यह प्रथा सातवाहन काल तक प्रचलित रही। सातकर्णी प्रथम की पत्नी नागनिका ने अनेक वैदिक यज्ञ किए थे। स्त्रियों को वैदिक मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार नहीं रहा। सूत्रकाल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया था। उन्हें प्रातःकालीन तथा संध्याकालीन आहुतियां देने और संध्या करने का अधिकार था। रामायण में सीता के संध्या करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रियों का उपनयन संस्कार नहीं होना चाहिए। धार्मिक कार्य करने स्त्रियों के अधिकारों में तेजी से कमी आ गई।
ऽ गुप्त काल में स्त्रियों को धार्मिक क्रियाएं करने के अवसर एक बार फिर गए किन्तु इन कार्यों का स्वरूप पहले से भिन्न था। स्त्रियों के लिए उपवास, व्रत, दान, पूजा, तीर्थयात्रा आदि का विधान किया गया। इनमें वैदिक मंत्रों के उच्चारण की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । इन्हीं उपवास, व्रत पूजा आदि ऐसी कथाओं का समावेश किया गया जो मात्र स्त्रियों को पति एवं परिवार की सेवा की शिक्षा देती थीं। इन्हीं कथाओं का प्रचलन लोक व्रत कथाओं के रूप में वाचिक उपयोग होता रहा जो वर्तमान में वाचिक एवं मुद्रित रूप में प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड में पढ़ी, सुनी जाने वाली लोक व्रत कथाओं का भी यही स्वरूप है।
वस्तुतः इन व्रत कथाओं में से उन तथ्यों को चुन लिया जाता है जो सामाज की बहुप्रचलित धारणाओं के अनुरूप हैं और उन तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है जिनमें स्त्री अपने अधिकारों से युक्त आत्मनिर्भर मनुष्य के रूप में है। अतः दोषी ये कथाएं नहीं, न ही ये पुरातनपंथी है, यदि कहीं गड़बड़ है तो वह सामाजिक सोच हैं। इसीलिए उस कथा का अनुकरण तो किया जाता है जिसमें चांद को चलनी से देख कर ही अन्न-जल ग्रहण करते हैं (उसी चांद को देख कर जिस पर मनुष्य बस्तियां बसाने की तैयारी कर रहा है और प्लाटिंग कर चुका है)। वहीं उस कथा का अनुकरण नहीं किया जाता है, सिर्फ़ बंाचा जाता है, जिसमें स्त्री को पति के रूप में मेंढक को चुनने और अपनाने का अधिकार है। आमतौर पर यह अधिकार उन्हें सचमुच दिया नहीं जाता है।
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संदर्भ:
1. ऋग्वेद, सं श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा 1960 ।
2. अथर्ववेद, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, 1960 ।
3. आदि पुराण, जिनसेन कृत, सं. पन्नालाल, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रंथ माला, संस्कृत ग्रंथ संख्या-8, वाराणसी, 1963 ।
4. ऐतरेय ब्राह्मण, आनंद आश्रम, संस्कृत सिरीज, पूना, 1956 ।
5. रामायण, वाल्मीकि, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत् 2017 ।
6. महाभारत, भंडारकर, ओरियन्टल रिसर्च इंसटीट्यूट, पूना 1927-66
7. पिछले पन्ने की औरतें, उपन्यास - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2005, 2007, 2009 ।
8. पत्तों में क़ैद औरतें, स्त्री विमर्श - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010।
9. प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास - डॉ. शरद सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, संस्करण-2008।
10. भारत के आदिवासी क्षेत्रें की लोककथाएं - डॉ. शरद सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली, ंसंस्करण-2009 ।
11. चर्चा हमारा, स्त्री विमर्श- मैत्रेयी पुष्पा, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010 ।
12. दशामाता व्रत कथा, लक्ष्मी प्रकाशन, बल्ली मारान, दिल्ली, संस्करण-2001 ।
13. चतुर्मास व्रत कथा, धार्मिक पुस्तक भंडार रानी महल, झांसी ।
14. नगरीय एवं ग्रामीण अंचलों के वाचिक स्रोत।
- डॉ.शरद सिंह
स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।
देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रसदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।
एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है। घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।
बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रें से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रें से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।
किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत,प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं। लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस गं्रथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
कर्नल टॉड के बाद कुछ और गं्रथ आए जिनमें भारतीय लोकथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में जनजातीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक ग्रंथों में विभिन्न क्षेत्रें एवं समाजों में प्रचलित लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया।
व्रत कथाओं को प्रायः धार्मिक अनुष्ठान के अंतर्गत पढ़ी, सुनी जानेवाली कथाएं मान लिया जाता है जबकि व्रत कथाओं का एक और रूप होता हैं जो कि लोक विश्वास अथवा लोक आस्था के रूप में लोक मानस में व्याप्त रहता है और इसी रूप में ग्रहण किया जाता है। जैसे भैया-दूज की व्रत कथा । काल्पनिक ‘दोज महारानी’ की आस्थायुक्त यह कथा ईश्वरीय चमत्कारों तथा धार्मिक आग्रह से परे भाई की रक्षा को ले कर बहन की चिन्ता का लौकिक स्वरूप है। इसमें स्त्री का वह रूप उभर कर सामने आता है जिसे पारिवारिक एवं सामाजिक ताने-बाने में ‘बहन’ का संबोधन दिया गया है।
मुख्य रूप से लोक व्रत कथाएं श्रोताओं के सम्मुख कही (बंाची)जाती हैं। इनमें सभी स्त्री पात्रें का विशेष महत्व रहता है। इस तथ्य को इन शब्दों में भी कहा जा सकता है कि लोक व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री ही रहती है। इसके दो कारण माने जा सकते हैं। पहला कारण यह कि समाज को धर्म के माध्यम से लोक हित से जोड़ने वाली स्त्री ही होती है, वह मां के रूप में भावी पीढ़ी को साहस का पाठ पढ़ाती है , संकट से जूझने की क्षमता प्रदान करती है और उसकी तमाम शक्ति को समाज हित में लगाने की शिक्षा देती है। इस प्रकार वह भावी पीढ़ी को लोक हित का अर्थ समझाती है ,सिखाती है और उसमें आस्था उत्पन्न करती है। दूसरा कारण यह कि जिस ग्रामीण लोक से इन कथाओं को स्थापन मिलता है उसमें स्त्री की अपनी अलग सत्ता होती है। भले ही प्रायः वह आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भर हो किन्तु पुरुष की स्त्री पर निर्भरता भी निर्विवाद रहती है। मसलन, यदि स्त्री घर की चौखट के भीतर रखी जाती है, विशेष रूप से वह स्त्री जो अर्थोपार्जन से जुड़ी न हो कर खांटी घरेलू स्त्री होती है तो पुरुष भी रसोईघर की चौखट लांघ कर उसमें प्रवेष नहीं करते हैं। अन्न जुटाने का दायित्व पुरुष का रहता है तो अन्न पका कर खिलाने का दायित्व स्त्री का।
व्रत कथाओं के केन्द्र में स्त्री के रहने के ये दोनों कारण बुंदेली व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का विशिष्ट रूप सामने रखते हैं। इनमें स्त्री धैर्य , साहस और कर्म का प्रतिरूप बन कर एक ऐसी छवि प्रस्तुत करती है जिसके अभाव में समाज का सतत बने रहना कठिन है।
यहां प्रमुख नौ बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री विमर्श का आंकलन किया जा रहा है। यथा- भैया दूज की व्रत कथा, दसामाता की व्रत कथा, गनगौर की व्रत कथा, आसमाई की व्रत कथा, ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा, गाजबीज की व्रत कथा, करवाचौथ की व्रत कथा, वटसावित्री की व्रत कथा एवं तुलसी नवमी की व्रत कथा।
भैया दूज की व्रत कथा- फागुन के बाद चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की द्वितिया को भैया दूज मनाया जाता है। इस अवसर पर भाई बहन के परस्पर प्रेम पर आधारित व्रत कथा बांची जाती है। ‘सात बैनन को बीर’ नामक व्रत कथा में सात बहनों के इकलौते भाई के प्रति बड़ी बहन का अपने भाई के प्रति अगाध प्रेम और चिन्ता का विवरण है। बड़ी बहन इस कथा में भाई पर सात प्रकार के प्राण घातक संकट आते हैं जैसे भोजन में संाप का विष मिल जाना, सेही के कांटों से व्यवधान उत्पन्न होना, नदी मे बाढ़ आ जाना , कांटों भरे रास्ते पर से गुजरना , द्वार का गिरना, मंडप का गिरना तथा डंसने के लिए नागिन का आ जाना। बड़ी बहन इन सभी संकटों से अपने भाई की हर संभव रक्षा करती है। सहायता के लिए वह एक और स्त्री शक्ति का आह्वान करती है जिसे ‘दोज महारानी’ का नाम दिया गया है। कथा के अंत में भी इसी स्त्री शक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह ठीक उसी प्रकार सब का कल्याण करे जिस प्रकार सात बहनों के भाई की रक्षा करने में बड़ी बहन को सहायता देने का कल्यााणकारी कार्य किया-‘ पनमेसरी दोज महारानी जैसी इनकी राखी , सो सबकी राखियो’। यही कथा दीपावली के बाद मनाए जाने वाले भैया दूज में भी कही सुनी जाती है।
भैया दूज की इस कथा में स्त्री का एक रूप बहन का है जो अपने भाई के लिए सर्वस्व लुटाने को तत्पर दिखाई पड़ती है। यह स्त्री का वह रूप है जो पारिवारिक संबंधों की महत्ता को सर्वोपरि मानती है और हर सम्भव प्रयास से इन्हें बनाए रखना चाहती है। यह भारतीय स्त्री का परिवार के प्रति, अपनों के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव है। इस कथा में स्त्री का दूसरा रूप दोज महारानी का है जो दूसरों की भावनाओं तथा पारिवारिक मूल्यों के प्रति अति सम्वेदनशील है और उस स्त्री के प्रति उदारमना है जो अपने पारिवारिक संबंधों की रक्षा करने के लिए तत्पर है। दोज महारानी और बड़ी बहन के परस्पर पूरक अथवा सहायक स्वरूप से वह धारणा मिथ्या दिखाई पड़ती है जिसमें स्त्री को स़्त्री का प्रतिद्वन्द्वी माना जाता है। इसमें एक स्त्री दूसरी स्त्री की सहायता करती है। यह स्त्री का वास्तविक एवं लोक हितकारी रूप है।
दसामाता की व्रत कथा- चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि को दसामाता का व्रत रखा जाता है। इसे पिपरदसा व्रत भी कहते हैं क्योंकि इस अवसर पर पीपल के वृक्ष की पूजा की जाती है और उसी समय व्रत कथा बंाची जाती है। दसामाता की व्रत कथा इस प्रकार है कि एक सेठ और सेठानी थे जिनकी कोई संतान नहीं थी। सेठानी लोकाचार के वशीभूत एक बहू लाना चाहती थी। पुत्र के अभाव में यह सम्भव नहीं था। अतः उसने वधू पक्ष से छल करते हुए यह कह दिया कि पुत्र व्यापार के सिलसिले में परदेस गया है तथा शुभ मुहूर्त को ध्यान में रखते हुए विवाह को टाला नहीं जा सकता है । इस पर एक कटार के साथ वधू का विवाह करा दिया गया। ससुराल आने पर सेठानी की बहू को सच्चाई का पता चला। बहू ने सास की अनुमति से एक कमरे में पीपल की पूजा शुरू कर दी । प्रतिदिन उस बंद कमरे में पूजा के बाद एक सुंदर पुरुष पीपल से निकलता और चौपड़ खेल कर पीपल में समा जाता। चौपड़ खेलने के दौरान उस पुरुष के संसर्ग से बहू गर्भवती हो गई। इससे सेठ-सेठानी घबरा गए किन्तु बहू ने उन्हें ढाढस बंधाते हुए सभी परिचितों को निमंत्रित करने के लिए कहा सेठ-सेठानी ने ऐसा ही किया। सभी परिचितों के आ जाने पर बहू ने पीपल की पूजा प्रारम्भ की। पूजा समाप्त होते ही दसामाता एवं पीपरदेव की कृपा से पीपल से वह पुरुष प्रकट हो गया जो प्रतिदिन पूजा के उपरांत सामने आया करता था। सब के सामने प्रकट होने से वह पुरुष शापमुक्त हो कर सदा के लिए सेठ-सेठानी के घर पर रह गया तथा बहू ने अपना पति एवं अपने होने वाले बच्चे का पिता पा लिया।
यह कथा सामाजिक संरचना एवं स्त्री के लिए निर्धारित कठोर बंधनों से मुक्ति का एक रास्ता दिखाती है। इस कथा में बहू के रूप में छल द्वारा छद्म विवाह के बंधन में बांध दी गई स्त्री का बंधन को तोड़ कर अपने अस्तिस्व को स्थापित करने का सफल प्रयास है। इस कथा की नायिका राजपूत काल में कटार से विवाह करा दिए जाने पर कटार के साथ जीवन बिताने तथा कटार के साथ सती हो जाने वाली तथाकथित ‘वीरांगना स्त्री’ नहीं है वरन् विवाहेत्तर पुरुष से संतान उत्पन्न कर के उसे पति के रूप में तथा संतान को वैध संतान के रूप में समाज में स्थान दिलाने वाली दृढ़ स्त्री है। वह जानती है कि इस असंभव कार्य को किस प्रकार संभव किया जा सकता है। यूं भी ‘नियोग’द्वारा संतान उत्पन्न करना प्राचीन भारतीय समाज में स्वीकार्य था विशेष रूप से उच्च वर्ग में । किन्तु इस कथा में ‘नियोग’ के बदले ‘पीपरदेव ’एवं ’दसामाता’ के चमत्कारी सहयोग को माध्यम बनाया गया है। इस कथा में ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि यह स्त्री के प्रति बुंदेली समाज के उदार एवं लचीले आचरण की ओर भी संकेत करता है। अन्यथा समाज का कट्टरपंथी कठोर आचरण किसी स्त्री को इस प्रकार पति पाने और उससे उत्पन्न संतान को वैधानिक दर्जा पाने की छूट नहीं देता है। यद्यपि ऐसे उदाहरण समाज में मुक्त रूप से नहीं मिलते हैं क्योंकि कथा का वाचन और श्रवण भले ही बहुलता से किया जाता हो किन्तु कथा के मर्म को यथास्थिति स्वीकार करने का साहस समाज कहीं खेा चुका है। फिर भी यह कथा इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि बंुदेली स़्त्री विषम परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाने एवं समाज में परिवर्तन लाने का माद्दा रखती है बशर्ते उसे परिवार तथा वह जिस पर विश्वास करती हो उसकी ओर से सहायता मिले, चाहे उसका रूप ‘दसामाता’,‘पीपरदेव’, अथवा सास-ससुर का हो।
गनगौर की व्रत कथा- चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को गनगौर व्रत रखा जाता है। यह मुख्य रूप से विवाहिताओं का व्रत-त्यौहार है। इस व्रत में शिव पार्वती की पूजा की जाती है तथा गनगौर की व्रत कथा का वाचन किया जाता है। इस कथा में पार्वती द्वारा स्त्रियों को अखंड सौभाग्यवती बनाने का वर्णन है। कथा के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतिया को शिव ओर पार्वती भ्रमण के लिए निकले। पृथ्वी पर निवास करने वाली स्त्रियों को जैसे ही इस बात की सूचना मिली वे पार्वती की पूजा की तैयारी करने लगीं। निर्धन स्त्रियों के पास पूजा करने की सामग्री कम होने के कारण वे जल्दी से तैसार हो कर पूजा करने लगीं। पार्वती ने उनकी पूजा से प्रसन्न हो कर उन्हें अखंड सौभाग्यवती होने का सम्पूर्ण वरदान दे डाला। तब तक धनी वर्ग की स्त्रियों ने सोने -चांदी की थाल में बहुमूल्य सामग्री सजा कर पूजा प्रारम्भ कर दी। पार्वती उनकी पूजा से भी प्रसन्न हो गईं और उन्हें अपनी उंगली में चीरा लगा कर रक्त के छींटों के द्वारा अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान दिया।
यह कथा स्त्रीशक्ति द्वारा समाज की सभी वर्गों की स्त्रियों के सुख की कामना करने का आदर्श सामने रखती है। इस कथा में स्त्री का वह समर्पित, उदारमना रूप वर्णित है जो सदा पुरुष के प्रति सहयोग भाव रखता है तथा पति के रूप में सहगामी पुरुष की सभी संकटों से (मृत्यु से भी) रक्षा की कामना करता है। भले ही पुरुष (पति) का व्यवहार उसके प्रति अमानवीय अथवा असंतुलित ही क्यों न हो।
आसमाई की व्रत कथा - आषाढ़ माह के तीसरे रविवार को आसमाई का व्रत रखा जाता है। इस व्रत मे लकड़ी के पटे पर चंदन से भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई की आकृतियां बनाई जाती हैं। इस अवसर पर जो व्रत कथा कही जाती है उसमें एक ऐसे जुआरी राजा का उल्लेख हैं जो आसमाई के सहारे अपने जीवन की दिशा बदलता है। राजा को जुए में अपना राज-पाट खेाना पड़ा और वह देश छोड़ कर जाने को विवश हुआ। जब वह वन मार्ग से जा रहा था तो उसे रास्ते में चार स्त्रियां दिखाई दीं। उसी समय राजा के पंाव में कंाटा चुभ गया जिसे निकालने के लिए वह झुका । चारो स्त्रियों ने समझा कि वह उन चारों मे से किसी को प्रणाम कर रहा है। उन्होने राजा से पूछा कि वह किसे प्रणाम कर रहा है। निराशा के सागर में गोते लगा रहा राजा बोल उठा कि वह आसमाई (आशा) के सहारे जी रहा है और आसमाई को ही प्रणाम कर रहा है। वे चारो औरतें वस्तुतः भूखमाई, प्यासमाई, नींदमाई और आसमाई थीं। आसमाई राजा की बात सुन कर प्रसन्न हो गई ओैर उसने विजय दिलाने वाली कौड़ियां राजा को दीं। उन कौड़ियों की सहायता से राजा ने एक बार फिर जुआ खेला और अपना राज-पाट वापस प्राप्त कर लिया।
इस कथा में स्त्री के दैवीय रूपों को सामने रखा गया है। यदि इन्हीं रूपों को लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आशावादी स्त्री पुरुष के जीवन को सही दिशा दे सकती है। वह पुरुष के अवगुण को गुणों में परिवर्तित कर सकती है। यही आसमाई का मूल चरित्र है।
ग्वालिन (हरछठ) की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के कृष्ण पक्ष की छठवीं तिथि को हरछठ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत पुत्र की मंगलकामना के लिए रखा जाता है। इस अवसर पर छः कथाएं कहीं जाती हैं, जिनमें मालन की व्रत कथा प्रमुख है। कथा के अनुसार एक ग्वालिन अपने नवजात पुत्र को पलाश की छाया में लिटा कर दूध-दही बेचने चली जाया करती थी। एक दिन जब वह पुत्र को छोड़ कर गई उसी समय एक किसान अपने हल -बैल सहित उधर से निकला। बैलों के विचलित हो जाने से हल की नोंक पुत्र के पेट में घुस गया। किसान ने उसके पेट को कांस (एक प्रकार की लम्बी घास) से सिल दिया। जब ग्वालन लैाटी तो वह अपने पुत्र की दशा देख कर रोने लगी। उसे लगा कि यह उसके द्वारा दूध में मिलावट करने का कुपरिणाम है। वह रोती हुई गांव की स्त्रियों के पास गई और उन्हें सच्चाई बता कर उनसे अपनी करनी की क्षमा मांगी । गांव की स्त्रियांे ने उसे क्षमा करते हुए उसके पुत्र को आशीष दिया जिससे उसका पुत्र स्वस्थ हो गया।
इस कथा में मात्त्व के दो रूपों को उनकी अच्छाइयो और बुराइयों के साथ प्रस्तुत किया गया है। यदि स्त्री नवजात शिशु के प्रति लापरवाही बरते तो उसे अपने शिशु से वंचित भी होना पड़ सकता है किन्तु दूसरे रूप में वही स्त्री अपने शिशु की जीवन रक्षा के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है। इस कथा में एक अखरने वाला तथ्य भी है कि शिशु के लालन-पालन एवं जीवन रक्षा का सम्पूर्ण दायित्व स्त्री का ही माना गया है। वहीं पिता रूपी पुरुष का दायित्व निभाने वाले के रूप में उल्लेख नहीं है।
गाजबीज की व्रत कथा - भाद्रपद (भादों ) माह के शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि को गाजबीज का व्रत रखा जाता है। जिसमें गाजबीज की व्र्र्रत कथा कही जाती है। इस कथा के अनुसार एक राजा था जो शिकार खेलने जाने वाला था । उसने अपनी रानी से कहा कि रास्ते के लिए रोटियां सेंक कर रख दो। रानी आलसी स्वभाव की थी । उसने स्वयं रोटियां बनाने के बदले दासी को रोटियां बनाने का आदेश दिया । दासी ने रोटियां बना कर राजा को दे दीं। राजा शिकार खेलने निकल पड़ा। जंगल पहुंचने पर घनघेार वर्षा होने लगी। राजा को सिर ढ़कने के लिए वही पोटली हाथ लगी जिसमें रोटियां बंधी थीं। अचानक राजा के ऊपर गाज गिरी। किन्तु सिर पर रखी रोटियों के कारण वह बच गया। वापस महल आने पर राजा ने रानी से पूछा कि तुम्हारी बनाई रोटियों में तुम्हारा कौन सा पुण्य था जिसने गाज गिरने पर मेरी जान बचाई। रानी उत्तर न दे सकी क्योंकि रोटियां तो दासी ने बनाई थी। इस पर राजा ने वही प्रश्न दासी से किया। दासी ने राजा से कहा कि ‘मुझे अपने पुण्य के बारे में तो नहीं पता किन्तु मुझे जो एक किलो चना अन्न के रूप में दिया जाता है उससे अपने लिए रोटियां बनाती हूं। उन रोटियों में से एक रोटी या तो कन्या को या गाय को देती हूं।’
दासी की बात सुन कर राजा समझ गया कि अपने सीमित साधन के बावजूद दासी कन्या और पशुओ के प्रति दयाभाव रखती है। यही उसका पुण्य है जिसने उसके हाथों बनाई हुई रोटियों के माध्यम से राजा के प्राणों की रक्षा की। राजा दासी पर प्रसन्न हुआ और उसे अपनी रानी बना लिया तथा रानी को दासी बना दिया।
भारतीय समाज के वर्तमान परिवेश में कन्या भ्रूण की हत्या किए जाने के परिणामस्वरूप स्त्रियों और पुरुषों के अनुपात में चिन्ताजनक असंतुलन आता जा रहा है। ऐसी स्थिति में गाजबीज की यह व्रत कथा स्त्री के उस स्वरूप को स्थापित करने में सक्षम है जो अपनी दृढ़ता के द्वारा कन्याभ्रूण की रक्षा कर सकती हैं। वह स्त्री जाति पर छा रहे संकट को दूर कर सकती है। यदि वह दृढ़ हो जाए तो परिवार, समाज में पुत्री को जन्म लेने दिया जाएगा, बोझ नहीं समझा जाएगा तथा स्त्री-पुरुष का आनुपातिक संतुलन बना रहेगा। यह कथा स्त्री से उसकी दृढ़ता का आग्रह करती है साथ ही दृढ़ न रहने अथवा स्थिति को अनदेखा करने पर होने वाली हानि की ओर भी संकेत करती है।
करवा चौथ की व्रत कथा - कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत रखा जाता है। यह व्रत विवाहिताओं के लिए निर्धारित है। इस अवसर पर करवा चौथ की व्रत कथा बंाची जाती है। एक साहूकार के सात बेटे और एक बेटी थी। बेटी विवाहिता थी और उन दिनों अपने मायके में थी। करवा चौथ के दिन अपने पति की दीर्घायु के लिए उसने व्रत रखा। भाइयों से अपनी बहन का इस प्रकार भूखे रहना देखा नहीं गया और उन्हेंने अपनी बहन को नकली चन्द्रमा दिखा कर व्रत समाप्त करा दिया। बहन ने अभी भोजन आरम्भ ही किया था कि तीसरे कौर में ही ससुराल में उसके पति के बहुत बीमार होने का संदेश आ गया। बेटी उसी क्षण ससुराल के लिए निकल पड़ी। ससुराल पहुच कर उसने साल भर पति की सेवा की और अगले करवा चौथ पर चौथ माता से पिछला व्रत खंडित होने की क्षमा मांगी एवं निर्जला व्रत रखा। इस पर प्रसन्न हो कर चौथ माता ने उसके पति को पूर्ण स्वस्थ कर दिया।
करवा चौथ का व्रत बुन्देलखण्ड सहित लगभग देश की सभी हिन्दू विवाहिताओं द्वारा रखा जाता है। यह कथा अपने पति के लिए स्त्री के त्याग -बलिदान का विचित्र आदर्श सामने रखती है। क्या पत्नी के भूखे-प्यासे रहने से पति दीर्घायु स्वस्थ हो सकता है ? यह कथा विवाहिता के मन में यह अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा अज्ञानवश व्रत के खंडित होने से पति के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं। अतः मूल रूप से यह व्रत कथा स्त्री को अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेड़ियों में जकड़ने को प्रेरित करती है। यदि इस कथा में पति के अहित का भय न दिखाया गया होता तो यह कथा आस्था तथा समर्पण तक सीमित रहती और तब स्त्री के संवेदनशील स्वभाव के निकट रहती।
वटसावित्री की व्रत कथा - वटसावित्री का व्रत जेठ मास की अमावस्या को रखा जाता है। इस अवसर पर बंाची जाने वाली कथा बहुप्रचलित सावित्री-सत्यवान की कथा है। इस कथा में सावित्री के पति सत्यवान की मृत्यु हो जाती है तब सावित्री अपने पति की आत्मा के साथ-साथ यमदूत के पीछे चलती हुई यमराज के पास जा पहुचती है। वह यमराज से अपने पति को पुनर्जीवित करने की विनती करती है किन्तु यमराज ऐसा करने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। इस पर सावित्री उनसे सौ संतानों को जन्म देने का वर मांगती है। यमराज उसे वर दे देते हैं। तब सावित्री उनसे कहती है कि जब तक आप मेरे पति सत्यवान को पुनर्जीवित नहीं करेंगे तब तक आपका वरदान फलीभूत नहीं हो सकेगा क्योंकि मैं किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करूंगी। अतः यमराज को सत्यवान को जीवनदान देना पड़ता है। इस प्रकार सावित्री यमराज के घर से भी अपने मृत पति को को जीवित करा लाती है।
इस कथा को पति के प्रति पत्नी के समर्पण के रूप में लिया जाता है किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। यह है स्त्री की दृढ़ इच्छाशक्ति। स्त्री जब कोई काम करने की ठान लेती है तो वह उसे पूरा कर के ही रहती है, भले ही उसे किसी भी सीमा तक जोखिम उठाना पड़े। सावित्री को इस बात का भय नहीं था कि पति के साथ रहने की ज़िद करने पर यमराज उसे भी मार सकते थे। अपितु उसके भीतर इस बात का विश्वास था िकवह सत्यवान को पुनर्जीवित करा कर रहेगी। यह प्रिय के प्रति प्रेम के साथ-साथ स्त्री की अदम्य इच्छाशक्ति और साहस की कथा है।
तुलसी नवमी की व्रत कथा - यह व्रत कार्तिक शुक्ल की नवमी तिथि को रखा जाता है। इस अवसर पर जो कथा बांची जाती है वह इस प्रकार है कि- एक निःसंतान बुढ़िया प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा-अर्चना किया करती थी। एक दिन पूजा के दौरान उसके अंगूठे में एक फफोला हो गया। वह फफोला नौ माह तक रहा। ठीक नौ माह बाद उस फफोले से एक मेंढक ने जन्म लिया। बालक को पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई। वह अपने पुत्र के रूप में उस मेंढक का लालन-पालन करने लगी। कुछ समय बाद उस राज्य की राजकुमारी का स्वयंवर रचा गया। मेंढक भी उस स्वयंवर में पहुंच गया। स्वयंवर प्रारम्भ होने पर राजकुमारी ने वहंा उपस्थित राजकुमारों को छोड़ कर उस मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारों में खलबली मच गई। उन्होंने राजा से कहा कि राजकुमारी घबराहट के कारण ऐसा कर बैठी होगी अतः एक बार फिर राजकुमारी से माला डलवाई जाए। राजकुमारी को उन राजकुमारों में कोई भला नहीं लग रहा था अतः उसने पुनः मेंढक के गले में माला डाल दी। राजकुमारी का निर्णय सभी को स्वीकार करना पड़ा। राजकुमारी अपने मेंढक पति के साथ बुढ़िया के घर आ गई। राजकुमारी को बहू के रूप में पा कर बुढ़िया बहुत प्रसन्न हुई किन्तु उसे इस बात का दुख भी था कि उसका पुत्र मेंढक था, मनुष्य नहीं। राजकुमारी ने बुढ़िया को ढाढस बंधाया और मेंढक के साथ रहने लगी। राजकुमारी ने पाया कि वह मेंढक रात्रि को मेंढक की खोल उतार कर सुंदर युवक में बदल जाता है और सुबह होते ही पुनः मेंढक बन जाता है। एक रात राजकुमारी ने अवसर पा कर मेंढक की खोल जला दी। अब युवक सदा के लिए मनुष्य के रूप में रह गया। बुढ़िया को जब इस बात का पता चला तो वह भी युवक को अपने पुत्र के रूप में पा कर अत्यंत प्रसन्न हुई। राजा को पता चला तो वह भी खुश हो गया और उसने अपने दामाद को अपना राज-पाट सौंप दिया।
यह कथा स्त्री के आस्था, ममत्व और अधिकार की कथा है। इसमें बुढ़िया के रूप में स्त्री की आस्था और ममत्व का वर्णन है। स्त्री जिसके प्रति आस्था रखती है, उससे कोई शिक़ायत नहीं करती है। बुढ़िया को तुलसी के प्रति आस्था थी तो उसने पुत्र के रूप में मेंढक मिलने पर भी तुलसी से शिक़ायत नहीं की। स्त्री ममत्व की पर्याय इसीलिए मानी गई है कि भले ही उसकी संतान बदसूरत, दुर्गुणों से युक्त हो फिर भी उसे अत्यंत प्रिय होती है। जैसी कि कहावत भी है कि पुत्र कुपुत्र हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। बुढ़िया इसी सघन मातृत्व का उदाहरण है। स्त्री के अधिकारों एवं उसकी स्वतंत्रता राजकुमारी द्वारा मेंढक को पति के रूप में चुने जाने से स्पष्ट है। वह सामाजिक स्वरूप कितना उत्कृष्ट है जिसमें स्त्री को अपना जीवनसाथी चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। यदि कोई स्त्री अपनी इच्छा से अपना जीवनसाथी चुनती है तो वह अन्य लोगों की दृष्टि में भले ही अनुपयुक्त हो किन्तु उस स्त्री के लिए सर्वोपयुक्त सिद्ध होता है तथा आगे चल कर समाज भी इसे मानने को विवश होता है। इस प्रकार यह कहानी स्त्री स्वातंत्र्य का संुदर उदाहरण सामने रखती है।
तथ्य - भारतीय समाज में स्त्री का स्थान शेष दुनिया की भांति दोयम दर्जे का तो है ही किन्तु पारिवारिक संबंधों के आधार पर वह तृतीय और चतुर्थ स्थान पर भी खड़ी दिखाई देती है। अधिकांश धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं और परम्पराएं स्त्रियों के कारण जीवित हैं। स्त्री अपने पति की लम्बी आयु के लिए ‘करवां चौथ’ का व्रत रखती है, पुत्र के लिए ‘छठ’ की श्रमसाध्य पूजा करती है और स्त्री के ये दोनों रूप महिमामंडित हो कर सामने आते हैं। परिवार में स्त्री अपने दायित्व का पालन करती हुई परिवार के सभी सदस्यों के भेजन कर लेने के बाद भोजन करती है जिसमें कई बार उसे आधापेट भोजन करके रह जाना पड़ता है। यदि घर में अनाज के दो दाने हैं तो वे घर के पुरुष के हिस्से में जाते हैं, स्त्री के नहीं।
उपर्युक्त बुन्देली व्रत कथाओं में स्त्री की सहज प्रकृति को वर्णित किया गया है। इन कथाओं में उसके सम्पूर्ण गुण ही नहीं अवगुण है क्योंकि स्त्री मनुष्य है और मनुष्य में गुण तथा अवगुण दोनों होते हैं। पुरुषवादी समाज में स्त्री से उनके उन गुणों की अपेक्षा की जाती है जिसमें वह पुरुष के प्रति समर्पित, स्वविवेक को भूल कर आज्ञा माननेवाली, स्वनिर्णय क्षमता रहित तथा पूर्णतया पुरुष पर निर्भर रहे। जबकि उदाहरण के लिए चुनी गई इन नौ व्रत कथाओं में स्त्री का पुरुष के प्रति प्रेम, समर्पण तथा निष्ठा तो है किन्तु साथ ही यह स्त्री इच्छित पति चुन सकती है, यमराज अर्थात् सबसे निष्ठुर व्यक्ति से भी लड़ कर जीत सकती है, उसमें अपने अधिकारों के लिए लड़ने की क्षमता है, वह स्त्रीजाति के अस्तित्व के प्रति सजग है। अर्थात् इन कथाओं की स्त्री एक पूर्ण मनुष्य की भांति पूर्ण स्त्री है। मात्र करवाचौथ की व्रत कथा एक ऐसी व्रत कथा है जिसमें स्त्री का वह दलित रूप वर्णित किया गया है जो अपने पति रूपी पुरुष के लिए आत्मपीड़न का रास्ता चुनने का आदर्श प्रस्तुत करती है। प्रेम और सहजीवी होने के नाते पति की सेवा का आदर्श ग्राह्य हो सकता है किन्तु भूखे-प्यासे रहने वाला व्रत भाइयों के बहन के प्रति प्रेम के कारण टूट जाने से पति को हानि पहुंचने वाला तर्क मानसिक दबाव बनाने वाली एवं पाखण्डयुक्त कथा है। आश्चर्य तो तब होता है जब इस प्रकार की कथा को पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी भावविभोर हो कर सुनती हैं तथा अपने स्वास्थ्य की अवहेलना कर के भूखी-प्यासी रह कर करवाचौथ का व्रत करती हैं, महज यह जताने को कि वे अपने पति की दीर्घायु की कामना कर रही हैं। जो स्त्रियां इस व्रत को नहीं करती हैं क्या वे अपने पति की दीर्घायु की कामना नहीं करती हैं?
मैत्रेयी पुष्पा की यह बात समीचीन लगती है कि ‘देश जब आजाद हुआ तो वह पूरी तरह आजाद नहीं थी, क्योंकि उससे स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। हांलाकि स्वतंत्रता आंदोलनों के दौरान पर्दा प्रथा, सती प्रथा, जैसी मुहिमें भी चलीं, लेकिन जिस तरह के नतीजे आने चाहिए थे, वे नहीं आए। इसका नतीजा तो हम अब तक जारी पर्दा प्रथा, दहेज हत्या और इक्का-दुक्का सती हत्या के रूप में देख ही रहे हैं। इन संदर्भों में देखा जाए तो स्त्रियों को कई स्तरों पर आजाद होने की जरूरत है।’(चर्चा हमारा,पृष्ठ 75)
बुन्देली लोक व्रत कथाओं में स्त्री के अधिकारिणी एवं दलित दोनों रूपों का मिलना भारत के सामाजिक विकास में स्त्री की भूमिका के सतत् क्षरण का परिणाम कहा जा सकता है। इसे परखने के लिए निम्नांकित बिन्दुओं का अवलोकन किया जाना चाहिए-
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ महाभारत काल में अविवाहित मातृत्व को उचित नहीं समझा जाता था। इस काल में नियोग की प्रथा प्रचलित थी। महाभारत में नियोग द्वारा संतान प्राप्त करने के अनेक प्रसंग हैं।
ऽ वैदिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों का समाज में बहुत आदर था। परिवार में भी स्त्रियों को उचित स्थान दिया जाता था। स्त्रियों के विचारों का भी सम्मान किया जाता था। वे सभी सामाजिक तथा धार्मिक उत्सवों में अपने पति के साथ सम्मिलित होती थीं। विदुषी स्त्रियां पुरुषों के साथ शास्त्रर्थ करती थीं तथा उन्हें समाज में श्रेष्ठ समझा जाता था। विदुषी स्त्रियां अविवाहित रहती हुई अध्ययन तथा अध्यापन कार्य करने को स्वतंत्र रहती थीं।
ऽ संयुक्तनिकाय के अनुसार-‘ अवगुण भरे पुत्र की अपेक्षा गुणवती पुत्री आधिक श्रेष्ठ है।’
ऽ किसी भी सभ्य समाज अथवा संस्कृति की अवस्था का सही आकलन उस समाज में स्त्रियों की स्थिति का आकलन कर के ज्ञात किया जा सकता है। विशेष रूप ये पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्रियों की स्थिति सदैव एक-सी नहीं रही। वैदिक युग में स्त्रियों को उच्च शिक्षा पाने का अधिकार था, वे याज्ञिक अनुष्ठानों में पुरुषों की भांति सम्मिलित होती थीं। किन्तु स्मृति काल में स्त्रियों की स्थिति वैदिक युग की भांति नहीं थी। पुत्री के रूप में तथा पत्नी के रूप में स्त्री समाज का अभिन्न भाग रही लेकिन विधवा स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण कालानुसार परिवर्तित होता गया।
ऽ वैदिक युग में स्त्रियों को धार्मिक अनुष्ठानों में सम्मिलित होने का अधिकार था। ऋग्वेद में देवताओं से जो प्रार्थना की गई हैं वे पति-पत्नी दोनों की ओर से हैं। पति की अनुपस्थिति में पत्नी अकेली धार्मिक कृत्य करती थी। ऋग्वेद के अनुसार पत्नी को यज्ञ करने और अग्नि में आहुतियां देने का अधिकार था। पति-पत्नी दोनों गार्हपत्य अग्नि की रखवाली करते थे। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था। वे वैदिक ग्रंथों का पठन-पाठन कर सकती थीं।
ऽ ब्राह्मण ग्रंथों के काल में स्त्रियों के धार्मिक अधिकारों में अन्तर आ गया। इस काल में धार्मिक क्रियाओं में जटिलता आ गई थी अतः धार्मिक क्रियाओं पर पुरुषों का वर्चस्व बढ़ गया। फिर भी कोई भी धार्मिक कार्य पत्नी के बिना पति नहीं कर सकता था। पत्नी की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी। धीरे-धीरे पत्नियों के स्थान पर पुरोहितों के द्वारा धार्मिक कार्य किए जाने लगे। पत्नी का कुछ धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित होना अनिवार्य नहीं समझा जाने लगा। फिर भी कुछ यज्ञ ऐसे थे जो पत्नी की उपस्थिति के बिना नहीं कराए जा सकते थे जैसे -अश्वमेध, वाजपेय तथा राजसूय यज्ञों में पत्नी का सम्मिलित होना अनिवार्य था। शतपथ ब्राह्मण से यह स्पष्ट है कि स्त्रियों को वैदिक ग्रंथ पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार था। यज्ञ करने के पूर्व उनका उपनयन संस्कार किया जाता था। तैत्तरीय ब्राह्मण में भी एक धार्मिक क्रिया का उल्लेख है जिसको करने के बाद स्त्री वैदिक ग्रंथों का पाठ और यज्ञ कर सकती थी।
ऽ सूत्रकाल में भी स्त्रियों को धार्मिक कृत्य करने का अधिकार थे। पत्नी को अकेले ही सीता यज्ञ, रुद्र बलि, और रुद्रयाग करने का अधिकार था। यह प्रथा सातवाहन काल तक प्रचलित रही। सातकर्णी प्रथम की पत्नी नागनिका ने अनेक वैदिक यज्ञ किए थे। स्त्रियों को वैदिक मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार नहीं रहा। सूत्रकाल में स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया था। उन्हें प्रातःकालीन तथा संध्याकालीन आहुतियां देने और संध्या करने का अधिकार था। रामायण में सीता के संध्या करने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। याज्ञवल्क्य के अनुसार स्त्रियों का उपनयन संस्कार नहीं होना चाहिए। धार्मिक कार्य करने स्त्रियों के अधिकारों में तेजी से कमी आ गई।
ऽ गुप्त काल में स्त्रियों को धार्मिक क्रियाएं करने के अवसर एक बार फिर गए किन्तु इन कार्यों का स्वरूप पहले से भिन्न था। स्त्रियों के लिए उपवास, व्रत, दान, पूजा, तीर्थयात्रा आदि का विधान किया गया। इनमें वैदिक मंत्रों के उच्चारण की आवश्यकता नहीं पड़ती थी । इन्हीं उपवास, व्रत पूजा आदि ऐसी कथाओं का समावेश किया गया जो मात्र स्त्रियों को पति एवं परिवार की सेवा की शिक्षा देती थीं। इन्हीं कथाओं का प्रचलन लोक व्रत कथाओं के रूप में वाचिक उपयोग होता रहा जो वर्तमान में वाचिक एवं मुद्रित रूप में प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड में पढ़ी, सुनी जाने वाली लोक व्रत कथाओं का भी यही स्वरूप है।
वस्तुतः इन व्रत कथाओं में से उन तथ्यों को चुन लिया जाता है जो सामाज की बहुप्रचलित धारणाओं के अनुरूप हैं और उन तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है जिनमें स्त्री अपने अधिकारों से युक्त आत्मनिर्भर मनुष्य के रूप में है। अतः दोषी ये कथाएं नहीं, न ही ये पुरातनपंथी है, यदि कहीं गड़बड़ है तो वह सामाजिक सोच हैं। इसीलिए उस कथा का अनुकरण तो किया जाता है जिसमें चांद को चलनी से देख कर ही अन्न-जल ग्रहण करते हैं (उसी चांद को देख कर जिस पर मनुष्य बस्तियां बसाने की तैयारी कर रहा है और प्लाटिंग कर चुका है)। वहीं उस कथा का अनुकरण नहीं किया जाता है, सिर्फ़ बंाचा जाता है, जिसमें स्त्री को पति के रूप में मेंढक को चुनने और अपनाने का अधिकार है। आमतौर पर यह अधिकार उन्हें सचमुच दिया नहीं जाता है।
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संदर्भ:
1. ऋग्वेद, सं श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा 1960 ।
2. अथर्ववेद, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, 1960 ।
3. आदि पुराण, जिनसेन कृत, सं. पन्नालाल, ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रंथ माला, संस्कृत ग्रंथ संख्या-8, वाराणसी, 1963 ।
4. ऐतरेय ब्राह्मण, आनंद आश्रम, संस्कृत सिरीज, पूना, 1956 ।
5. रामायण, वाल्मीकि, गीताप्रेस, गोरखपुर, संवत् 2017 ।
6. महाभारत, भंडारकर, ओरियन्टल रिसर्च इंसटीट्यूट, पूना 1927-66
7. पिछले पन्ने की औरतें, उपन्यास - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2005, 2007, 2009 ।
8. पत्तों में क़ैद औरतें, स्त्री विमर्श - डॉ. शरद सिंह, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010।
9. प्राचीन भारत का सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास - डॉ. शरद सिंह, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, संस्करण-2008।
10. भारत के आदिवासी क्षेत्रें की लोककथाएं - डॉ. शरद सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नेहरू भवन,5, इंस्टीट्यूशनल एरिया,फेज़-2, वसंत कुंज, नई दिल्ली, ंसंस्करण-2009 ।
11. चर्चा हमारा, स्त्री विमर्श- मैत्रेयी पुष्पा, सामयिक प्रकाशन, जटवाड़ा, नई दिल्ली, संस्करण-2010 ।
12. दशामाता व्रत कथा, लक्ष्मी प्रकाशन, बल्ली मारान, दिल्ली, संस्करण-2001 ।
13. चतुर्मास व्रत कथा, धार्मिक पुस्तक भंडार रानी महल, झांसी ।
14. नगरीय एवं ग्रामीण अंचलों के वाचिक स्रोत।
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