मंगलवार, नवंबर 20, 2012

‘डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ का विमोचन के कुछ दृश्य...

अपनी पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ के बारे में बोलती हुई डॉ शरद सिंह
मेरी पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्शका विमोचन विगत 17.11.2012 को लखनऊ (उप्र) के प्रेस क्लब में अरूणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आदरणीय माता प्रसाद जी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ।
  

उक्त अवसर पर गुलाबचंद (अपर महानिदेशक प्रसार भारती लखनऊ) डॉ. परशुराम पाल (असोसिएट प्रोफेसर लखनऊ विश्वविद्यालय), सुरेश उजाला (संपादक ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका), महेन्द्र भीष्म (कथाकार), डॉ अमिता दुबे (साहित्यकार), वीरेन्द्र बाहरी (भारत बुक सेंटर), तरुण बाहरी (भारत बुक सेंटर) तथा  लखनऊ के जुझारू पत्रकारों एवं प्रेस छायाकारों सहित भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।  
उस महत्वपूर्ण पल को आप सब से साझा कर रही हूं .......

अपनी पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ के बारे में बोलती हुई डॉ शरद सिंह
पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ का विमोचन करते पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद जी एवं अतिथिगण

पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ के बारे में विचार प्रकट करते पूर्व राज्यपाल माता प्रसाद जी

पुस्तक डॉ. अम्बेडकर का स्त्री विमर्श’ के बारे में विचार प्रकट करते कवि एवं संपादक सुरेश उजाला
बाएं से...डॉ शरद सिंह, कथाकार महेन्द्र भीष्म, भारत बुक सेंटर के वीरेन्द्र बाहरी, साहित्यकार डॉ अमिता दुबे

बाएं से...डॉ शरद सिंह, कथाकार महेन्द्र भीष्म, भारत बुक सेंटर के वीरेन्द्र बाहरी, साहित्यकार डॉ अमिता दुबे

बुधवार, नवंबर 07, 2012

‘ पिछले पन्ने की औरतें ’ की समीक्षा साहित्य नेस्ट में.....

‘साहित्य नेस्ट’ पत्रिका , अक्टूबर 2012 में  डॉ.संदीप अवस्थी द्वारा की गई 
‘ पिछले पन्ने की औरतें ’ उपन्यास की समीक्षा यहां प्रस्तुत है......

Sahitya Nest,Cover Page, October 2012


Sahitya Nest,Back Cover, October 2012




मंगलवार, सितंबर 18, 2012

स्त्री के भीतर की आवाज़ का घोषणापत्र (पुस्तक-समीक्षा)


समीक्षक – डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

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पुस्तक   - आवाज़
लेखिका  - मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक  - सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, 
          नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज,नई दिल्ली-2
मूल्य     - 300रुपए
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एक स्त्री क्या चाहती है,यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर सभी अपने-अपने ढंग से देते हैं। जैसे कोई कहता है कि स्त्री को गृहस्थी मिल जाए, परिवार, पति, बच्चे मिल जाएं तो वह खुश रहती है और अपने-आप में पूर्णता का अनुभव करती हुई संतुष्ट रहती है। कोई कहता है कि स्त्री पुरुष की छाया बन कर जीना पसन्द करती है। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि कुछ उच्छृंखल औरतें दैहिक स्वतंत्राता पा कर प्रसन्न रहती हैं अर्थात् वे अपनी देह को अपने ढंग से जीना चाहती हैं। पुरुष प्रधान समाज में ऐसे उत्तर मिलना स्वाभाविक है। किन्तु सही उत्तर तो स्वयं स्त्री ही दे सकती है न, कि वह क्या चाहती है, अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने परिवार से या फिर अपनी देह या अपने विचारों से? स्त्री ने जब भी अपने अस्तित्व से जुड़े इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा तो उसे झिड़क दिया गया कि ‘बहुत बोलने लगी हो।’‘अपनी जबान पर लगाम दो।’‘आवारा हो चली हो। मुंह से आवाज़ भी निकाली तो ठीक नहीं होगा।’ आदि-आदि। आवाज़! हां, इसी आवाज़ को स्त्री के भीतर से बाहर आने की आवश्यकता सदैव रही है। कुछ भले पुरुषों और कुछ सजग स्त्रिायों ने स्त्री के भीतर आवाज़ को बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। यह प्रयास हर कालखण्ड, हर सदी में किया जाता रहा है। इसी प्रयास का सुपरिणाम है कि आज स्त्री स्वयं को पहचानने की ललक तो संजोने लगी है, वह अपने मन की आवाज़ सुनने को लालायित तो रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्त्री की आवाज़ को शब्द देने और लिपिबद्ध करने वाली लेखिकाओं में अग्रिम पंक्ति में नाम आता है मैत्रेयी पुष्पा का। उनके लेखन की धार अनेक बार पुरुषवादियों को लहूलुहान कर चुकी है। उनका लेखन अपने-आप में अनूठा है। क्योंकि वे खरी बात खरे-खरे शब्दों में लिख डालती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की ताज़ा पुस्तक ‘आवाज’ उनके इसी लेखकीय अनूठेपन का उल्लेखनीय उदाहरण है। ( 26 अगस्त 2012 को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित समीक्षा का अंश)

26 अगस्त 2012 को ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित समीक्षा----


सोमवार, अगस्त 06, 2012

बैठकी ........कहानी

    - डॉ. सुश्री शरद सिंह

              उसका नाम था सुखिया। ठीक उसी तरह जैसे अंधे का नाम नैनसुख। सुखिया के चेहरे पर खिंची हुई दुख की रेखाएं कोई भी देख सकता था। सुखिया पहले ऐसी नहीं थी। जन्म से ले कर बारह माह की उम्र तक उसने अपनी मां को कभी रो-रो कर परेशान नहीं किया। सुखिया की मां घर के काम निबटा कर बीड़ी बनाने बैठ जाती। मंा जब पास आती तो वह अपना बिना दांतों का नन्हा-सा मुंह खोल कर सुखिया हंस देती। मां क्षण भर को अपना दर्द भूल जाती। फिर दूसरे ही पल,  विषाद पूर्ण स्वर में बोल उठती-‘हंस ले कमरजली, हंस ले! मेरी कोख से जन्मी है, जनम भर तो रोना ही है।’
            हुआ भी यही। सुखिया अभी ठीक से बालिग भी नहीं हुई थी कि ब्याह दी गई। पूरी बालिग होते-होते तक एक बच्चे की मां भी बन गई। शादी के पांच साल गुज़रे और इन पांच सालों में सुखिया की गोद में एक के बाद एक पांच बच्चे आते गए। सेहत गिर गई, स्तनों में  दूध उतरना बंद हो गया। बड़ा परिवार और आमदनी अनिश्चित। अब, बच्चों की भूख मार-पीट से तो दबाई नहीं जा सकती। इसीलिए सुखिया ने अपनी पड़ोसन की मदद से बीड़ी बनाने का काम जुटा लिया। पांच बच्चों के बीच बैठ कर बीड़ी बनाना कोई हंसी-खेल तो था नहीं। एक को भूख लगती तो दूसरा टट्टी-पेशाब जाने के लिए निकर उतरवाने आ खड़ा होता। तीसरी संतान जो कि बेटी थी, वहीं बाजू में बैठ कर जुंए मारने लगती और चैथी तीसरी की पीठ पर    धौल जमा कर उसे झगड़े के लिए उकसाने लगती। पांचवी तो अभी गोद में ही थी। सुखिया गोद वाली बेटी को झूलने में डाल कर पास ही बैठ जाती मगर जब झूलने वाली बेटी झूलने में पड़ी-पड़ी पेशाब कर देती तो सुखिया को बीड़ी-पत्ते और तंबाकू का सूपा तत्काल हटाना पड़ता। वरना पत्ते या तंबाकू खराब हो सकते थे।
               इतनी सारी मुसीबतों से जूझती हुई सुखिया बीड़ी बना कर जब ठेकेदार के पास ले जाती तो वह उनमें दर्जनों खोट निकाल कर पैसे काट लेता। चालीस-पचास की जगह बीस-पचीस रुपयों तक नौबत आ जाती। झुंझलाई हुई सुखिया घर लौटती तो अपनी संतानों पर बरस पड़ती। आखिर उसकी खीझ और क्रोध कहीं तो निकलता ही। घर में चींख-पुकार भरा दारूण वातावरण निर्मित हो जाता। ऐसी परिस्थियों में सुखिया नाम भर की सुखिया रह गई थी। अब अगर उसका नाम सुखिया से बदल कर दुखिया कर दिया जाता तो किसी को आश्चर्य नहीं होता।
            यूं तो सुखिया अपनी जि़न्दगी से तंग आ गई थी लेकिन उसका हौसला अभी टूटा नहीं था। उसने सोचा कि ऐसे तो जि़न्दगी कटने से रही, कुछ और करना ही होगा। अपनी उसी पड़ोसन से सलाह-मशविरा करने के बाद सुखिया को यह विचार पसन्द आया कि साप्ताहिक हाट में जा कर सब्जी बेेची जाए। सुखिया ने अपने पति से कहा कि वह सवेरे सायकिल से सब्जी-मंडी जा कर सब्जी ले आया करे लेकिन पति को इस काम में अपनी इज़्जत कम होती प्रतीत हुई। एक ठेकेदार के कार्यस्थल पर चैकीदारी का काम करने वाले पति को यह मंज़ूर नहीं हुआ अतः सुखिया ने स्वयं सब्जी-मंडी जाने का निर्णय लिया। 

                                                 साप्ताहिक-हाट की सुबह सुखिया मंडी जा पहुंची। सब्जियों से भरे हुए बोरे और उन्हें खरीदने के लिए चल रही मारा-मारी को देख कर सुखिया घबरा गई। फिर साहस करके वह भी कूद पड़ी भाव-ताव के मैदान में। पन्द्रह मिनट में उसने वे सब्जियां खरीद लीं जिन्हें वह हाट में बेच सकती थी। अब समस्या थी सब्जियों को घर ले जाने की। हाट तो दोपहर से लगनी शुरू होती थी। चिन्ता में डूबी सुखिया सोच ही रही थी कि उसे किसी ने टोका।
              ‘अरे भौजी, तुम यहां कैसे?’ राजू था, उसी के मुहल्ले का लड़का।
              ‘हाट के लिए सब्जी लेने आई थी।’ सुखिया ने बताया।
              ‘ले ली?’ राजू ने पूछा।
              ‘हां, ले तो ली...मगर अब घर कैसे ले जाऊं कैसे? अॅाटो रिक्शा वाले बहुत मंाग रहे हैं और टेम्पो -स्टेंड दूर है।’ सुखिया चिन्तित स्वर में बोली।
             ‘बस, इतनी-सी बात? चलो, मैं ले चलता हूं तुम्हारी सब्जियंा। मोपेड है मेरे पास। चलो तुम भी पीछे बैठ जाओ।’ राजू मुस्कुरा कर बोला।
             ‘नहीं-नहीं, तुम सब्जियां भर ले जाओ, मैं टेम्पो से आ जाऊंगी।’ सुखिया सकुचा कर बोली।
           ‘टेम्पो में पैसे खर्च करोगी? इत्ते पैसे हो गए?’ राजू ने झिड़की भरे स्वर में कहा।
            इस पर सुखिया मना न कर सकी। वह डरती-सहमती राजू की मोपेड की पिछली सीट पर बैठ गई। वह जीवन में पहली बार किसी मोपेड पर सवार हुई थी। अच्छा लगा उसे।उसने सोचा कि सब्जियां बेच-बेच कर जब चार पैसे हो जाएंगे उसके पास तो वह भी अपने पति के लिए मोपेड खरीदेगी।
            ‘भौजी, चाय भी नहीं मिलाओगी क्या?’ घर पहुंचते ही राजू सुखिया से बोला। उंगली पकड़ने वाले को पहुंचा पकड़ते देर नहीं लगती। सुखिया को कुछ-कुछ समझ में तो आया लेकिन उसकी मजबूरी ने उसकी समझ पर पर्दा डाल दिया।
            ‘दोपहर को मिलते हैं।’ कह कर राजू चला गया। राजू का यूं हंस कर कहना सुखिया को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन यह सोच कर तसल्ली भी हुई कि वह पहली बार हाट में सब्जी ले कर बैठने जा रही है, वहंा कोई जान-परिचय वाला तो होगा जो वहंा उसकी मदद करेगा।
            दोपहर हुई। सुखिया सिर पर टोकरी जमाने का प्रयास कर रही थी कि राजू आ धमका।
           ‘भौजी, मैंने सोचा कि तुम मंडी से तो सब्जी ला नहीं पा रही थीं फिर हाट तक कैसे ले जाओगी? सो, मैं चला आया। ये सब्जियंा डालो बोरे में और खाली टोकरी हाथ में पकड़ कर आओ बैठो पीछे।’ राजू ने एक अनुभवी की तरह सलाह दी।
            सलाह मानने के अलावा और चारा ही क्या था। सुखिया राजू की मोपेड में बैठ कर हाट जा पहुंची।
            राजू ने अपनी दुकान सजाते हुए कहा- ‘मेरे साथ ही बैठ जाओ, भौजी! नहीं तो अलग से बैठकी देनी पड़ेगी।’
            ‘बैठकी?’ सुखिया के लिए यह शब्द नया था।
         ‘हंा, हाट में सामान बेचने के लिए बैठने की एवज में देनी पड़ती है। ....आठ, दस, पन्द्रह... ये तो वसूली वाले तय करते हैं। खैर, तुम छोड़ो ये झंझट, तुम तो मेरे साथ बैठो। मैं कह दूंगा कि तुम मेरे घर की हो.... घरवाली! ’ राजू बेशर्मी से हंस दिया।
             ‘क्या?’ सुखिया चैंकी।
            सुखिया को घबराया हुआ देख राजू ने हंस कर कहा- ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। बाकी, मेरे घर की हो, ये तो कहना ही पड़ेगा।’
              

मन मसोस कर रह गई सुखिया। ज़रूरत भी क्या-क्या दिन दिखा देती है। थोड़ी देर में बैठकी वसूलने वाले आए। राजू ने उसे अपने घर की बता कर उसकी बैठकी के पैसे बचवा दिए। इसके बाद तीन-चार घंटे हाट की गहमागहमी में डूबे रहे दोनों।
             शाम ढले सुखिया को हाट से वापस घर पहुंचाते समय सुखिया ने दस रुपए का नोट राजू को थमाते हुए कहा-‘ये रख लो, बैठकी के।’
             ‘गज़ब करती हो भौजी, तुमसे रुपए लूंगा बैठकी के? अगर कुछ देना ही है तो एक कप चाय दे दो।’ कहते हुए राजू ने दस का नोट वापस सुखिया की मुट्ठी में दबा दिया। इस प्रक्रिया में उसने अपने दोनों हाथों से सुखिया की मुट्ठी पकड़ी और अपने सीने से लगा लिया। सुखिया कंाप कर रह गई। संकेत स्पष्ट था। अनपढ़ ही सही लेकिन सुखिया थी तो औरत ही। राजू के जाने के बाद भी सुखिया के शरीर से कंपकपी गई नहीं। वह हताशा से भर कर ज़मीन पर बैठ गई।
           वह सोचने लगी। बैठकी तो देनी ही होगी उसे, अब हाट-वसूली वालों की बैठकी दे या राजू की ‘बैठकी’ ? राजू को ‘बैठकी’ नहीं देगी तो वह उसकी मदद नहीं करेगा लेकिन राजू की ‘बैठकी’ की वसूली का कोई अंत होगा क्या? वसूली वालों की बैठकी तो दस-पन्द्रह रुपयों पर जा कर ठहर ही जाएगी मगर राजू?
                                                 


सुखिया सोच-विचार कर ही रही थी कि उसकी दूसरी बेटी आ कर उसके कंधों से चिपट गई। बेटी के इस दुलार ने सुखिया को निर्णय पर पहुंचा ही दिया। उसने तय कर लिया कि अगले हाट में वह वसूली वालों को ही बैठकी देगी। भले ही उसे मंडी से सिर पर सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट तक सब्जी ढोनी पड़े, भले ही उसे हाट में बैठने को अच्छी जगह न मिले। बस, एक पल का निर्णय पूरी जि़न्दगी को स्वर्ग या नर्क बना सकता है और वह निर्णय सुखिया ने ले लिया था। निर्णय लेते ही सुखिया का दिल हल्का हो गया और वह अपनी बेटी को गोद में बिठा कर दुलारने लगी।
                                                                                  -----------------

                                            

सोमवार, जुलाई 30, 2012

ठाकुर का कुंआ....प्रेमचंद

लेखकः प्रेमचंद
ठाकुर का कुंआ (कहानी)
लेखकः प्रेमचंद
प्रस्तुतिः डॉ. शरद सिंह

(लेखक परिचयः कथा सम्राट प्रेमचंद का जन्म काशी से चार मील दूर बनारास के पास लमही नामक गांव में 31 जुलाई 1880 को हुआ था। उनका असली नाम श्री धनपतराय। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह माने जाते हैं। प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में हीकथा सम्राटकी उपाधि मिल गयी थी।
उनकी कृतियां हैः- उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान, मनोरमा, मंगलसूत्र(अपूर्ण)।
कहानी संग्रह - प्रेमचंद ने कई कहानियां लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे 300 के लगभग कहानियां है। प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित है। नाटक- संग्राम, कर्बला तथा प्रेम की वेदी।
जीवनियां- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कथात्मक)
बाल रचनाएं- राम चर्चा ,मनमोदक , जंगल की कहानियां, आदि।
8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद का निधन हुआ।)


जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई । गंगी से बोला-‘यह कैसा पानी है ? मारे बास के पिया नहीं जाता । गला सूखा जा रहा है और तू सडा़ पानी पिलाए देती है!’
       गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी । कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था । कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी । जरुर  कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहां से?
ठाकुर के कुंए पर
कौन चढ़ने देगा ? दूर से लोग डांट बताऍगे । साहू का कुआ गांव के उस सिरे पर है, परन्तु वहां कौन पानी भरने देगा ? कोई कुंआ गांव में नहीं है।
      जोखू कई दिन से बीमार हैं । कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-‘अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता । ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूं ।

     गंगी ने पानी न
दिया । खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं । बोली-‘यह पानी कैसे पियोगे ? न जाने कौन जानवर मरा हैं। कुंए से मैं दूसरा पानी लाए देती हूं।’
        जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-‘पानी कहां से लाएगी ?’
       ‘ठाकुर और साहू के दो कुंए तो हैं। क्यों एक लोटा पानी न भरने देंगे?’
       ‘हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा । बैठ चुपके से । ब्राहम्ण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक पांच लेगें । गराबी का दर्द कौन समझता हैं ! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएं से पानी भरने देंगे ?’ इन शब्दों में कड़वा सत्य था । गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया ।

         रात के नौ बजे थे । थके-मांदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पांच बेफिक्रे जमा थे मैदान में । बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं । कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे की नकल ले आए । नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थे, नकल नहीं मिल सकती । कोई पचास मांगता, कोई सौ। यहां बे-पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी । काम करने ढंग चाहिए ।
         इसी समय गंगी कुंए से पानी लेने पहुंची  कुप्पी की धुंधली रोशनी कुए पर आ रही थी । गंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके का इंतजार करने लगी । इस कुंए का पानी सारा गांव पीता हैं । किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते । गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊंचे हैं ? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं ? यहां तो जितने है, एक-से-एक छंटे हैं । चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें । अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है । काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है । किस-किस बात मे हमसे ऊंचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊंचे है, हम ऊंचे । कभी गांव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आंख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर सांप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊंचे हैं!
         कुंए पर किसी के आने की आहट हुई । गंगी की छाती धक-धक करने लगी । कहीं देख ले तो गजब हो जाए । एक लात भी तो नीचे न पड़े । उसाने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साए मे जा खड़ी हुई । कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी । इस पर ये लोग ऊंचे बनते हैं ?

कुंए पर स्त्रियां पानी भरने आयी थी। इनमें बात हो रही थीं ।
      ‘खान खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ । घड़े के लिए पैसे नहीं है।
      ‘हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती हैं ।
      ‘हां, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियां ही तो हैं।
       ‘लौंडियां नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं ? दस-पांच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडियां कैसी होती हैं!
        ‘मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता ! यहां काम करते-करते मर जाओ, पर किसी का मुंह ही सीधा नहीं होता
        दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुंए की जगत के पास आयी । बेफिक्रे चले गऐ थे । ठाकुर भी दरवाजा बंदर कर अंदर आंगन में सोने जा रहे थें । गंगी ने क्षणिक सुख की सांस ली। किसी तरह मैदान तो साफ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो । गंगी दबे पांव कुंए की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ ।
        उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला । दाएं-बाएं चौकन्नी दृष्टी से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो । अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं । अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुंए में डाल दिया ।
         घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता । जरा-सी आवाज न हुई गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे । घड़ा कुंए के मुंह तक आ पहुंचा । कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था।
      गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया । शेर का मुंह इससे अधिक भयानक न होगा।
            गंगी के हाथ रस्सी छूट गई । रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं ।
           ठाकुर ‘कौन है, कौन है ?’ पुकारते हुए कुंए की तरफ जा रहे थें और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी ।
      

 

घर पहुंचकर देखा कि लोटा मुंह से लगाए जोखू वही मैला गंदा पानी पी रहा है।