बुधवार, जून 18, 2014

सहजीवन पर विचारोत्तेजक उपन्यास

"इंडिया इनसाइड" के June 2014 अंक में मेरे उपन्यास "कस्बाई सिमोन" (सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित) की समीक्षा विख्यात युवा समीक्षक विजेन्द्र प्रताप सिंह ने की है। आप भी इसे पढ़ें और अपने विचारों से अवगत कराएं ....
India Inside-Review Kasbai Simon- june 2014


बुधवार, अप्रैल 23, 2014

कई-कई बार इस कृति को पढ़ना ज़रूरी

पुस्तक समीक्षा


कृति : पिछले पन्ने की औरतें(उपन्यास)
लेखिका - शरद सिंह
सामयिक प्रकाशन,
3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पृष्ठ : 304, मूल्य : 150 रुपये(पेपर बैक)


कई-कई बार इस कृति को पढ़ना ज़रूरी- परमानन्द श्रीवास्तव

रोमांस की मिथकीयता के लिए कोई भी कथा छलांग लगा सकती है। शरद सिंह का उपन्यास 'पिछले पन्ने की औरतें' बेड़िया समाज की देह व्यापार करने वाली औरतों की यातना भरी दास्तान है। शरद सिंह की प्रतिभा 'तीली-तीली आग' कहानी संग्रह से खुली। स्त्री विमर्श में उनका हस्तक्षेप और प्रामाणिक अनुभव अनुसंधान के आधार पर है। शरद सिंह वर्जना मुक्त हो कर इस अंधेरी दुनिया में धंसती हैं। उन्हें पता है कि स्त्री देह के संपर्क में हर कोई फायदे में रहना चाहता है। शरद सिंह ने ईश्वरचंद विद्यासागर, ज्योतिबाफुले आदि के स्त्री जागरण को समझते हुए इस नरककुंड से सीधा साक्षात किया है। शरद सिंह को दुख है कि जब देश में स्त्री उद्धार के आंदोलन चल रहे थे तब बेड़िया जाति की नचनारी, पतुरिया-जैसी स्त्रियों की मुक्ति का सवाल क्यों नहीं उठा? नैतिकता के दावेदार कहां थे?
विडम्बना यह कि जो पुरुष इन बेड़िया औरतों को रखैल बना कर रखते, उन्हीं के घर के उत्सवों में इन्हें नाचने जाना पड़ता था। कहानी में एक प्रसंग किन्हीं ठाकुर साहब की रखैल कौशल्याबाई का आता है जो दुगुनी आयु के हैं। पर पुरुष का तो मन है, चाहे जिस पर आ जाए। एक ग्रामीण लंबरदार दो बेड़नियों का 'सिंर ढंकना' कर चुका है। यह रस्म 'नथ उतराई' जैसी है जो वेश्यावृत्ति की स्वीकृति है। शरद सिंह के शोध के अनुसार पथरिया गांव में लगभग पचास राई नर्तकियां थीं। राई नृत्य भी बेड़िया जाति का अपना नृत्य है। कभी किसी बालाबाई पर फिरंगी का मन आ गया तो वह उसी की रखैल बन गई। उनका प्रेम परवान चढ़ता गया। चमन सिंह अपनी प्रेमिका को अंग्रेज की रखैल कैसे बनने देता, वह उसकी हत्या कर देता है। नचनारी को जब एक ठाकुर के संसर्ग से गर्भ रह गया, ठाकुर ने संसर्ग का सिलसिला बंद नहीं किया। यह लैंगिक कामोत्तेजन का परिणाम है।
शरद सिंह उपन्यास लिखते-लिखते इतिहास लिखने लगती हैं। बुन्देलखण्ड का बुन्देला विद्रोह अंग्रेजों के दमन की वजह बना। दो रोटी नसीब हो यह भी असंभव हो गया। फुलवा बेड़नी की सुन्दरता उत्तेजक थी। फुलवा को चोरी के नए ढंग-कुढंग मां ने ही बताए। रजस्वला होने के पहले ही साप्ताहिक हाट में बिछोड़े देखते-देखते मां के दबाव में अपनी योनि में छिपा लिए। वह सोने का फूल था। फुलवा का डेलन से ब्याह हुआ जिससे छ: बच्चे हुए। एक रसूबाई जो बेड़िन के रूप में प्रसिद्ध हुई। कभी इतिहास जान कर पुलिस रसूबाई के पीछे पड़ गई। दल के कई सदस्य पुलिस की चपेट में आ गए। उधर पुरुषों की स्त्री शोषण की प्रवृति ने कोई विकल्प नहीं छोड़ा। वे देह व्यापार में ही लिप्त रहने लगीं। बेड़िया जाति को भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति में गिना गया है। शरद सिंह इस बहाने जनजातियों का इतिहास बता जाती हैं। ये जातियां हैं- वधिक, बेड़िया, बैदिया, जादुआ, कंजर, खंगर, कोलो, गरैरी आदि। बेड़ियों के बारे में बताया गया है कि यह एक घुमक्कड़ खानाबदोश जाति है। बेड़िनों ने आर्थिक आधार पर पुरुषों से देहसंबंध तो बनाया बदले में किसी रिश्ते का अधिकार नहीं मांगा। अविवाहित मातृत्व निषिद्ध नहीं था। हां, बच्चों को जन्म देने के बाद पिता का नाम बताना जरूरी हो गया।
एक नचनारी ठाकुर की रखैल थी। उसकी प्रवसपूर्व अवस्था में भी ठाकुर संसर्ग से बाज नहीं आता। न्यौते बिचौलिया है पर उसका प्रेम बेड़िनी या नचनारी को सच्चा जान पड़ता है। नचनारी ने बेटी को जन्म दिया। ठाकुर की कल्पना में यह उसकी भावी संतान नहीं, भावी प्रेमिका या विलास चर्चा में सहयोगिनी बनेगी। ब्रिक्सटन के संपर्क में नचनारी का आना एक संयोग था। लाट साहब सागर चले गए तो नचनारी न्यौते के साथ उनकी खोज में गई। फिरंगी चकित था कि ठाकुर को छोड़ कर उसके प्रेम में पागल हो कर नचनारी उस तक आई। वह बताती है -'हम बेड़नियों का कोई न कोई ठाकुर होता ही है, हुजूर! वे हमें अपनी बना कर रखते हैं लेकिन खुद वे हमारे कभी नहीं होते।....बेड़नी के गले में पड़ा पट्टा किसी को दिखाई नहीं देता.....क्योंकि वह तो सोने से मढ़ दिया जाता है न!' बस, वह धंधा नहीं छोड़ सकती। नचनारी चकित थी कि उसके प्रेमी लाट साहब ने उसे छुआ भी नहीं, बस कोई और धंधा अपनाने के लिए प्रेरित करता रहा। शरद सिंह वेश्यावृत्ति के कारणों पर विचार करती हैं और जो मनोसामाजिक अध्ययन हुए हैं, उनके सूत्र बताती हैं, जैसे-दरिद्रता से ऊब कर, बहकावे में आ कर, महिला दलालों के प्रलोभन पा कर, पति द्वारा तलाक ले लेने पर, पति की प्रेरणा से, बुरी संगत के कारण। मां-बाप भी कम उम्र की लड़कियों से वेश्यावृत्ति करा सकते हैं। शरद सिंह के अनुसार वातावरण और सामाजिक दशाएं भी बेड़नियों के देह धंधे में लिप्त होने का एक प्रमुख कारण है। निर्मला देशपांडे जैसी समाजसेवी स्त्रियों ने इस स्थिति को बदलने के लिए अथक संघर्ष किया है। अब कई एनजीओ नए-नए काम उपलब्ध कराते हैं। शिक्षा अभियान चलाते हैं। उधर बेड़नियों के समाज में रखैल स्त्री की तरह रखैल पुरुष का भी चलन है। शरद सिंह फ्रायड, एडलर, युंग के सिद्धांतों के आधार पर भी स्त्री विमर्श का रास्ता बनाती हैं।
इधर कुछ नई घटनाएं सामने हैं। चुनाव में बेड़नी स्त्री जीत कर सरपंच तक बन सकती है। चंदा बेड़नी चुनाव में विजयी हुई पर वे बेड़नी जाति से देह धंधा खत्म नहीं करा पाई। शरद सिंह लिखती हैं -'नए रास्ते की खोज में श्यामा का भटकाव अब मैं जान चुकी थी। मंत्री के घर जा कर राई नाचने से ले कर चंद महीनों की रखैल बनने की कथा श्यामा की उस जिजीविषा को व्यक्त करती है जो अपनी जीवनधारा बदलने की प्रबल इच्छा के रूप में उसके मन में विद्यमान है।' संदेह है कि आगे श्यामा क्या करेगी। जब देह में कसावट नहीं रहेगी तो क्या-क्या कर पाएगी। यह जान कर खिन्न हुई कि ऐसे भी सामंत इसी समाज में है जो अपने शयनकक्ष में पत्नी के साथ बेड़नी रखैल को भी रख पाते हैं। उन्हें प्रेम नहीं सनसनी चाहिए।
शरद सिंह का बीहड़ क्षेत्रों में प्रवेश ही इतना महत्वपूर्ण है कि एक बार ही नहीं, कई-कई बार इस कृति को पढ़ना जरूरी जान पड़ेगा। अंत में शरद सिंह के शब्द हैं- 'लेकिन गुड्डी के निश्चय को देख कर मुझे लगा कि नचनारी, रसूबाई, चम्पा, फुलवा और श्यामा जैसी स्त्रियों ने जिस आशा की लौ को अपने मन में संजोया था, वह अभी बुझी नहीं है.....।' शरद सिंह ने जैसे एक सर्वेक्षण के आधार पर बेड़नियों के देहव्यापार का कच्चा चिट्ठा लिख दिया है। तथ्य कल्पना पर हावी है। शरद सिंह की बोल्डनेस राही मासूम रजा जैसी है। या मृदुला गर्ग जैसी। या लवलीन जैसी। पर शरद सिंह एक और अकेली हैं। फिलहाल उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी कथाक्षेत्र में नहीं है।
'पिछले पन्ने की औरतें' उपन्यास लिखित से अधिक वाचिक (ओरल) इतिहास पर आधारित है। इस बेलाग कथा पर शील-अश्लील का आरोप संभव नहीं है। अश्लील दिखता हुआ ज्यादा नैतिक दिख सकता है। भद्रलोक की कुरूपताएं छिपी नहीं रह गई हैं।
शरद सिंह के उपन्यास को एक लम्बे समय-प्रबंध की तरह पढ़ना होगा जिसके साथ संदर्भ और टिप्पणियों की जानकारी जरूरी होगी। पर कथा-रस से वंचित नहीं है यह कृति 'पिछले पन्ने की औरतें'।
जब दलित विमर्श और स्त्री विमर्श केन्द्र में हैं, संसद में स्त्री सीटों के आरक्षण पर जोर दिया जा रहा हो पर पुरुष वर्चस्व के पास टालने के हजार बहाने हों- यह उपन्यास एक नए तरह की प्रासंगिकता अर्जित करेगा।
जर्मन ग्रियर कहती हैं- 'स्त्रियों से अब रति का आनन्द उठाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन केन्द्र से निकल कर बुर्जुवा मंदिर में आने की नहीं। इसके बजाए रति को अनुष्ठान के जंग के रूप में मंदिर में लाया जा रहा है।' शरद सिंह को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे बिना फेमिनिस्ट या स्त्रीवादी होने का दावा किए स्त्री मुक्ति की अग्रिम पंक्ति में जगह बना सकीं।
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(साभारः साहित्य सृजन ... http://sahityasrijan.blogspot.in/2009/12/blog-post.html )

गुरुवार, मार्च 20, 2014

और हमने खो दिया खुशवंत सिंह को ....



Khushwant Singh

एक श्रद्धांजलि ... 



- डॉ. शरद सिंह



खुशवंत सिंह का जन्म 2 फ़रवरी, 1915, हदाली, पंजाब में हुआ था। वो एक प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, उपन्यासकार और इतिहासकार थे। एक पत्रकार के रूप में इन्होंने बहुत लोकप्रियता मिली।
उन्हें 1974 पद्म भूषण और 2007 में 'पद्म विभूषण' से भी इन्हें सम्मानित किया गया। खुशवंत सिंह ने कई अमूल्य रचनाएं अपने पाठकों को प्रदान की हैं। उनके पिता का नाम सर सोभा सिंह था, जो अपने समय के प्रसिद्ध ठेकेदार थे। खुशवंत सिंह जी ने 'गवर्नमेंट कॉलेज', लाहौर और 'कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी' में शिक्षा पाई थी। इसके बाद लंदन से ही क़ानून की डिग्री ली। उसके बाद तक वे लाहौर में वकालत करते रहे। खुशवंत सिंह जी का विवाह कंवल मलिक के साथ हुआ। इनके बेटे का नाम राहुल सिंह और पुत्री का नाम माला है।


एक पत्रकार के रूप में भी खुशवंत सिंह जी ने अच्छा नाम अर्जित किया और पत्रकारिता में बहुत ख्याति अर्जित की। 1951 में वो आकाशवाणी से जुड़े थे और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना' का संपादन किया। मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'इल्लस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया' के और 'न्यू डेल्ही' के संपादक वे 1980 तक थे।
 
1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के संपादक भी वही थे। तभी से वो प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय 'कॉलम' लिखते हैं, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता है। खुशवंत सिंह उपन्यासकार, इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में विख्यात हैं। 
उनके अनेक उपन्यासों में प्रसिद्ध हैं- 'डेल्ही', 'ट्रेन टू पाकिस्तान', 'दि कंपनी ऑफ़ वूमन' खुशवंत जितने भारत में लोकप्रिय थे उतने ही पाकिस्तान में भी लोकप्रिय थे। उनकी किताब ट्रेन टू पाकिस्तान बेहद लोकप्रिय हुई। इस पर फिल्म भी बनी। दो खंडों में प्रकाशित 'सिक्खों का इतिहास' उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है।



  साहित्य के क्षेत्र में पिछले सत्तर वर्ष में खुशवंत सिंह का विविध आयामी योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

शनिवार, मार्च 08, 2014

sharadakshara: विधवाओं की दुर्दशा कब तक?

Dr Sharad Singh

sharadakshara: विधवाओं की दुर्दशा कब तक? 

: Dr Sharad Singh महिला दिवस पर विशेष ...... मित्रो, ‘इंडिया इन साइड’ के March 2014 अंक में ‘वामा’ स्तम्भ में प्रकाशित मेरा लेख ...sharadakshara में पढ़ें...

शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

Vageshwari Samman .... वागेश्वरी सम्मान.....

मित्रो,
यह आपके, प्रिय पाठकों एवं मेरे शुभचिन्तकों के मेरे लेखन के प्रति प्रेम का सुखद परिणाम है... इसे मैं आप सब के साथ शेयर करना चाहती हूं ......
 
Friends,
It is a Marvelous result of Love of My Loving Readers, Friends and My Well Wishers......I would like to share it with all of You !


गुरुवार, जनवरी 16, 2014

chavanni chap (चवन्नी चैप): संग-संग : सुशांत सिंह और मोलिना

chavanni chap (चवन्नी चैप): संग-संग : सुशांत सिंह और मोलिना       (साभार)

संग-संग : सुशांत सिंह और मोलिना

-अजय ब्रह्मात्मज
- घर का मालिक कौन है?
मोलिना - कभी सोचा नहीं। कभी कोई निर्णय लेना होता है तो इकटृठे ही सोचते हैं। सलाह-मशवरा तो होता ही है। अगर सहमति नहीं बन रही हो तो एक-दूसरे को समझाने की कोशिश करते हैं। जो अच्छी तरह से समझा लेता है उसकी बात चलती है। उस दिन वह मालिक हो जाता है। ऐसा कुछ नहीं है कि जो मैं  बोलूं वही सही है या जो ये बोलें वही सही है।
सुशांत - हमने तो मालिक होने के बारे में सोचा ही नहीं। कहां उम्मीद थी कि कोई घर होगा। इन दिनों तो वैसे भी मैं ज्यादा बाहर ही रहता हूं। घर पर क्या और कैसे चल रहा है? यह सब मोलिना देखती हैं। कभी-कभी मेरे पास सलाह-मशविरे का भी टाइम नहीं होता है। आज कल यही मालकिन हैं। वैसे जब जो ज्यादा गुस्से में रहे, वह मालिक हो जाता है। उसकी चलती है।
मोलिना - मतलब यही कि जो समझा ले जाए। चाहे वह जैसे भी समझाए। प्यार से या गुस्से से।
सुशांत - मेरी पैदाइश बिजनौर की है। मैं पिता जी के साथ घूमता रहा हूं। बिजनौर तो केवल छुट्टियों में जाते थे। नैनीताल में पढ़ाई की। कॉलेज के लिए दिल्ली आ गया। किरोड़ीमल कॉलेज में एडमिशन ले लिया। स्कूल से ही नाटकों का शौक था। एक मित्र ने अलका जी का नाटक दिखा दिया। बाद में उनके लिविंग थिएटर एकेडमी में शामिल हो गया। 15 अक्टूबर 1992 से शुरुआत हुई। 1993 में एक मणिपुरी लडक़ी कथक सीखने दिल्ली आई थी। उसे एक्टिंग की धुन चढ़ी थी। वह मेरी तरफ पीठ किए शायद एडमिशन का फॉर्म भर रही थी। घुटने तक उसके बाल पहुंच रहे थे। झटका तो मुझे वहीं लग गया था।
मोलिना - मैं हूं मणिपुरी लेकिन मेरी पढ़ाई-लिखाई धनबाद में हुई थी। दिल्ली तो मैं कथक सीखने आई थी। मेरे माता-पिता दोनों डांसर थे। वे नहीं चाहते थे कि उनकी पांच बेटियों में कोई भी डांस फील्ड में आए। मेरा रुझान शुरू से डांस की तरफ था। पापा को मैंने राजी किया कि वे मुझे एक मौका आजमाने दें। मैंने चुपके से फॉर्म भरा। मुझे एडमिशन के साथ स्कॉलरशिप भी मिल गई। फिर पापा राजी हुए। कथक केन्द्र में दिन भर व्यस्तता रहती थी। शाम का समय खाली रहता था। उस समय के सदुपयोग के लिए मैंने लिविंग थिएटर ज्वाइन करने के लिए सोचा। जिस दिन मैं अलकाजी सर से मिलने गई थी उसी दिन सुशांत ने मुझे देखा था। अलकाजी सर ने सबसे पहले पूछा कि हिंदी आती है या नहीं? मेरे हां कहने पर उन्होंने सामने की आलमारी से कोई भी किताब निकाल कर पढऩे के लिए कहा। मैंने जो किताब निकाली वह ‘सखाराम बाइंडर’ उस किताब से मैंने कुछ अंश सुनाए। उन्होंने अगले दिन से आने के लिए कहा।
सुशांत - उसी दिन शाम में फिर से मुलाकात हुई।
मोलिना - अलकाजी सर ने ही कहा कि नीचे जाकर दूसरे छात्रों से मिल लो। नीचे एक चाय की दुकान थी। वहीं सभी मौजूद थे। मैंने अपना परिचय दिया और इन लोगों ने अपना। इन्होंने कहा - मैं सुशांत हूं। तब मेरी हिंदी में स और श का फर्क नहीं था। मैंने कह दिया सुसांत। सुशांत मेरा उच्चारण ठीक करते रहे और मैं चिढ़ती रही। फिर चाय के लिए पूछा और कहा मेरे पास दो रुपए हैं उसमें मेरी चाय आ जाएगी। तुम अपनी चाय खरीद लो। उसी दिन सुशांत थोड़े अलग लगे। ये अपने क्लास में बहुत पापुलर भी थी। इनको संवाद जल्दी याद हो जाती थी। सर नहीं होते तो सुशांत ही क्लास कंडक्ट करते थे। फिर मिलना-जुलना आरंभ हुआ।
सुशांत - परिचय बढ़ा और फिर उम्र का पता चला। दोस्तों ने कहा  कि सॉरी सुशांत नो चांस। वजह यह थी कि मोलिना उम्र में मुझसे बड़ी हैं।
मोलिना - बाद में इनके एक मित्र ने मुझे बताया कि सुशांत मेरे बारे में क्या सोचते हैं? उन्होंने बताया कि सुशांत प्रपोज करेंगे। उस समय मेरे सामने पापा का चेहरा आ गया। एक बार रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद पर बात चली। सुशांत ने बहुत विस्तार से बात की। उस दिन लगा कि ये सिर्फ दिलफेंक ही नहीं हैं दिमाग भी रखते हैं। हमारी मुलाकातें बढ़ गईं। एक दिन मुझे लगा कि मैं करने तो कुछ और आई थी। मैंने स्पष्ट शब्दों में अपनी फीलिंग सुशांत को बताई।
सुशांत - उस दिन माहौल पूरा फिल्मी था। दिल्ली में आंधियां चल रही थी। मुझे लगता है हमें फिल्मों में ही आना था।
मोलिना - इस बातचीत के बाद जब ये छोडऩे के लिए मुझे कथक केन्द्र तक आए तो मैंने रास्ते में कहा कि यह संभव नहीं है। उस समय सुशांत ने कहा था कि यहां से निकल कर मुझे अपना गांव चला जाना है।
सुशांत - तब मुझे लगता था कि मैंने दुनिया देख ली है। मेरे जैसे दार्शनिक व्यक्ति के लिए अब और कुछ नहीं बचा है। मु़झसे बड़ा ज्ञानी कोई नहीं है। मैं कविताएं लिखता और पेंटिग करता था। अपने साथ के लडक़ों को मैं तुछ मानव समझता था। उस समय यही लगता था कि खानाबदोसों की जिदंगी जीनी चाहिए। अजीब फैनटेसी में रहता था। शादी के लिए कमिट नहीं कर रहा था, लेकिन प्यार करते रहना चाहता था। प्यार के सारे लक्षण दिख रहे थे, लेकिन उसे मानने में दिक्कत हो रही थी। सच कहें तो जिसे मैं अपनी स्पष्टता समझ रहा था वह मेरे लाइफ का कंफ्यूजन था।
मोलिना - बाद में अलकाजी के नाटकों में मैं ही मेन लीड करने लगी। हमारा मिलना बढ़ता गया। हम साथ काम करते थे। प्यार की बातें तो शायद ही होती थी। हमें तो यह भी समझ में नहीं आता था कि हमारे दोस्त प्रेमी-पे्रमिकाओं से इतनी लंबी-लंबी क्या बातें करते हैं। हमलोग तो चाय पीते समय खामोश बैठे रहते थे। केवल एक-दूसरे को महसूस करते थे।
सुशांत - हमारे बीच नाटक और डांस के शोज की बातें होती थी। फिल्मों पर चर्चा होती थी। एक-दूसरे की तारीफ करना हमें नहीं आता था। जानू जानम जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल नहीं किया।
मोलिना - मैंने तो कहा था कि कभी ऐसे शब्द बोले तो मैं भाग जाऊंगी। मजाक में ये कहते थे चलो डार्लिंग दिल्ली घूमा लाऊं।
मोलिना - मुझे सुशांत की ईमानदारी बहुत अच्छी लगी। सुशांत तकलीफ की हद तक ईमानदार हैं। मैंने सुशांत को कभी किसी के लिए बुरा बोलते हुए नहीं सुना है। मैं कुछ बोल भी दूं तो समझाने लगते हैं। अगर सुशांत किसी की बुराई कर रहे हैं तो सचमुच उसने बहुत बुरा किया होगा। यह हमेशा माफ करने के मूड में रहते हैं।
सुशांत - मैं तो पहले ही दिन इनके बालों में उलझ गया। कोई एक बात बता पाना मेरे लिए मुश्किल होगा। मोलिना प्रतिभाशाली हैं। कला विधाओं को समझने और विश्लेषित करने की शक्ति है। डांसर अच्छी हैं। एक्टर भी अच्छी हो गई थीं। स्टेज पर एक-दो दफा इन्होंने ही मुझे धूल चटाई।
अनुशासित हैं। जिद्दी भी हैं। काम के लिए सकारात्मक जिद्द करती हैं।
सुशांत - हम दोनों ने पहले तो घर बसाने का सोचा ही नहीं था। सिर्फ इतना कुबूल हुआ था कि हमें प्यार है। मैंने कभी शादी करने का दबाव नहीं डाला। हां मैंने यह जरूर पूछा था कि क्या आप मेरे बच्चों की मां बनेंगी? शादी की रूढिय़ां हमारे दिमाग में नहीं थी। मेरा मानना है कि परस्पर सहमति हो जाना ही काफी है। अग्नि को साक्षी मानने के बाद भी तो मैं भाग सकता हूं।
मोलिना - हमारे देश में कई मामलों में शादी की सर्टिफिकेट की जरूरत होती है। बच्चे हो जाते हैं तो उनके लिए भी नाम और प्रमाण पत्र चाहिए। हमारी तो शादी करवा दी गई। तो हमने कर ली।
सुशांत - उत्तर भारत में मारपीट और दबाव से लोगों की शादी नहीं होने दी जाती है। हमारे साथ बिल्कुल उल्टा मामला था। हम लिवइन रिलेशन में थे मोलिना 1997 में मुंबई आ गई थी। इनका वहां मन नहीं लग रहा था, क्योंकि मैं मुंबई आ चुका था। एक शूटिंग के सिलसिले में मैं दिल्ली गया था। बातचीत हुई तो इन्होंने मुंबई चलने की बात कही। मैंने हामी भर दी। हमारे पास पैसे भी नहीं थे। बगैर रिजर्वेशन के ट्रेन में चढ़ गए। बाथरूम के पास की जगह पर बैठ कर मुंबई आए थे। तब मैं चार बंगला में रत्नाकर बिल्डिंग में चार दोस्तों के साथ रहता था। पहला डेरा वहीं बना। दोस्तों को थोड़ा अटपटा जरूर लगा। बाद हमलोग वहां से चार बंगला म्हाडा शिफ्ट किए।
मोलिना - तभी मुझे मंत्रालय से स्कॉलरशिप का चेक मिल गया था। कुछ पैसे आ गए थे। हम लोगों ने अलग ठिकाना बना लिया। 6 महीने का भाड़ा देकर हमलोग वहां शिफ्ट कर गए।
सुशांत - मेरी कोई खास कमाई नहीं थी। तब तो मैं घर से साढ़े सात हजार मंगवाता था। उसी से काम चलता था। कुछ समय के बाद मैं भी शिफ्ट कर गया। मैंने अपने घरवालों को बता दिया कि हमलोग साथ रहने लगे हैं। मेरा एक दोस्त भी अपनी गर्लफ्रेंंड के साथ साथ में रहता था। मेरे अलावा इन तीनों ने अपने घर वालों को नहीं बताया था कि वे किनके साथ रह रहे हैं। लैंड लाइन एक ही था। फोन बजने पर डर रहता था कि कौन उठाए। कहीं भेद न खुल जाए। परिवार वालों का दबाव बढ़ता गया। 29 नवंबर 1999 को हम लोगों ने शादी कर ली।
मोलिना - हमलोग अपने संबंधों को लेकर काफी खुले थे। कभी उसे ढंक कर या छिपा कर नहीं रखे। दिल्ली में सभी को मालूम था कि हमारे कैसे संबंध हैं। हमारे संबंध को लेकर लोगों के बीच आदर भी था, क्योंकि हम सिर्फ मटरगश्ती नहीं करते थे साथ में काम भी करते थे। हमें उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता था। अगर अपने इंस्टीट्यूट में कभी कह देती थी कि मैं सुशांत के साथ जा रही हूं तो कोई बुरा नहीं मानता था।
सुशांत - मैं किरोड़ीमल कॉलेज के हॉस्टल में था। वहां ब्वायज हॉस्टल में लड़कियां नहीं रुक सकती, लेकिन मोलिना को पूरी अनुमति मिल जाती थी।
सुशांत - शादी में एक मात्र अड़चन इनके परिवार से आई थी। ये हैं मणिपुर से। मातृ सत्तात्मक समाज है वहां पर। वहां लडक़े वालों को शादी का प्रस्ताव लेकर लडक़ी वालों के यहां जाना पड़ता है। इनका परिवार मुझे ज्यादा पसंद नहीं करता था।
मोलिना - वे जाट सुनकर थोड़े डर गए थे। जब मेरी शादी हुई तो सुशांत ‘जंगल’ के गेटअप में थे। दाढ़ी बढ़ हुई थी। बाल लंबे थे। सिर्फ आंखें चमकती थी।
सुशांत - समस्या यह थी कि इनकी नानी या अपने घरवालों को मैं कंटीन्यूटी क्या समझाता? ‘जंगल’ से सात दिनों की छुट्टी मिली थी। उसी में सब कुछ करना था। मां तो जोर देती रही कि कम से कम दाढ़ी छंटवा ले। उनको भी क्या समझाता।
मोलिना - मेरी नानी ने तो दोनों हाथों से सुशांत के गाल पकड़ के आंखों में देखा। उन्होंने कहा, मैंने उसकी आंखों में झांक कर देखा। लडक़ा शरीफ लगता है।
सुशांत - मुझे अपने घरवालों को समझाना पड़ा था कि आप एक चि_ी लिख कर इनके यहां शादी का प्रस्ताव भेज दें। फिर समस्या थी कि शादी कहां होगी? मेरे यहां से सभी मणिपुर नहीं जा सकते थे। भारी खर्चा आता। दूसरे मणिपुर की शादी सादी होती है। वहां तो भजन संध्या होता है।
मोलिना - शादी हुई तो इनके परिवार के लोग बंदूकें दाग रहे थे। मेरे घर वाले तो डर ही गए।
सुशांत - हां हमारी शादी बिजनौर में हुई थी। इनके परिवार को समझा दिया गया था कि यही ठीक रहेगा। बंदूकों का तांडव देख कर जरूर इनके परिवार के लोग डर गए थे।
मोलिना - तीन दिनों की शादी हुई थी।
मोलिना - दिल्ली में मेरा काम ठीक ठाक चल रहा था। सुशांत मुंबई आए तो सबसे पहले इन्हें चेतन आनंद की एक फिल्म मिल गई। फिर किसी कारण बस वह फिल्म नहीं हो पाई।
सुशांत - मुझे निकाल दिया गया। उसके निर्माता भरत शाह थे। उनकी समझ में आ गया था कि चेतन आनंद बुढ़ापे में सही फैसला नहीं ले पा रहे हैं। भरत शाह फिल्म को अटकाते रहे। ज्यादा दबाव पड़ा तो उन्होंने कहा कि हीरो की नाक बहुत लंबी है। आप यकीन करें मैं सर्जरी तक के लिए तैयार हो गया था। मैं तो नाक कटवाने तक के लिए तैयार हो गया था। उस समय 35 हजार रुपए लगते थे जो मेरे पास नहीं थे। विजय शर्मा सर्जन थे। यह सब तैयारी चल ही रही थी कि एक दिन चेतन आनंद का फोन आया। उन्होंने कहा बेटा वेरी सॉरी। मैं सारी बातें समझ गया। छह महीने तक हवा में उडऩे के बाद मैं धड़ाम से गिर गया। छोटे-मोटे काम करने के साथ मैं ट्रांसलेशन करने लगा।
मोलिना - तब सुशांत डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्रेफी चैनल के लिए अनुवाद करते थे। अंतिम समय में काम करने की इनकी पुरानी आदत रही है। इनके अनुवाद और स्क्रिप्ट को आदर्श माना जाता था। दूसरों को नमूने के तौर पर दिखाया जाता था। सुशांत डबिंग भी किया करते थे।
सुशांत - सन् 2000 में ‘जंगल’ रिलीज होने के समय मैं इन कामों से 20-30 हजार रुपया कमा लेता था। उस समय बत्ती वाला स्टोव था। दोस्तों ने कुछ बर्तन दे दिए थे। अपनी गृहस्थी चल जाती थी।
मोलिना - वे बर्तन मैंने अभी तक रखे हुए हैं। वे हमारी गृहस्थी के पहले बर्तन थे।
सुशांत - तब तो यह हालत रहती थी कि चेक आते ही उसे भुना लेने की हड़बड़ी हो जाती थी। हमने जिंदगी को कभी पैसों से तौला ही नहीं। पैसों के प्रति तुक्ष्य सा रवैया रहता था।
मोलिना - कभी डर नहीं रहा कि कल क्या होगा? कई दिन तो सिर्फ दो रुपयों में गुजर जाते थे।
सुशांत - अभी तक यही स्थिति है। बच्चों के आने के बाद थोड़ा सावधान हो गया हूं। थोड़ी प्लानिंग कर लेते हैं। जिम्मेदारी तो है ही जल्दबाजी में फैसला लेने पर गलत काम कर लेता हूं। बाद में उस पर हंसी आती है। हमेशा लगता है कि इससे बुरी स्थिति क्या होगी?
मोलिना - इसके बावजूद हम कभी डिप्रेशन में नहीं गए। ऐसा नहीं लगा कि अब दुनिया लुट गई। मेरे कुछ दोस्त करोड़ों में कमा रहे हैं। उससे भी अधिक कमाने के लिए वे परेशान रहते हैं। उनका माइंडसेट मेरी समझ में नहीं आता। शायद लाइफ को एनज्वॉय करने का उनका यही तरीका है। उनकी लालसा खत्म ही नहीं होती।
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सुशांत - माहौल से भी फर्क पड़ता है। हम उन्हें पूरी तरह से दोषी नहीं ठहरा सकते। हम अपने माहौल के परिणाम हैं। जैसी परवरिश और संगत रही वैसा विकास हुआ।
मोलिना - मेरे पापा की पीढ़ी हमें कहती है कि हम बहुत खर्च करते हैं।
सुशांत - ये लाइसेंस जमाने के लोग हैं। मैं सारे माता-पिताओं को बच्चों के भविष्य की चिंता करते देखता हूं। मेरे ख्याल में आपके पास इतना होना चाहिए कि जब तक बच्चा कमाने न लगे तब तक आप उसे सपोर्ट करें। इतना सक्षम तो होना ही चाहिए। क्या मेरे मां-बाप ने कभी सोचा था कि उनका बेटा एक्टर बनेगा? या क्या मेरे दादा ने सोचा था कि उनका बेटा इंजीनियर बनेगा। वे दोनों इसी हिसाब से पैसे जमा कर रहे थे कि उनके बेटे कुछ नहीं बनेंगे। यह गलत सोच है।
मोलिना - यह सोच ही गलत है कि मेरा बच्चा कुछ नहीं करेगा।
सुशांत - सचेत तो नहीं लेकिन अचेत रूप में यही सोच रहे हैं कि बच्चा निकम्मा होगा। शिक्षा-दीक्षा जरूर देनी चाहिए। मूल्य और संस्कार देनी चाहिए।
मोलिना -  मुझे याद है मेरे पापा आए थे अलकाजी से मिलने। उन्होंने कहा कि मेरी बेटी का ख्याल रखिएगा। सर सुनते रहे और उन्होंने इतना ही कहा कि मोलिना कहीं भी रहेगी तो अपने खाने-कमाने का इंतजाम कर लेगी। बाद में पापा ने मुझे बताया था। 
सुशांत - मुझे बच्चों में जो लक्षण दिख रहा है उससे ऐसा नहीं लगता कि मुझे कोई विरासत या पूंजी नहीं छोडऩी होगी।
मोलिना - पहले हम काफी अवॉर्ड फंक्शन में जाते थे। एक दिन अचानक लगा कि झूठी हंसी से जबड़े दर्द करने लगते हैं। जिन्हें जानते नहीं। जिन से कभी दोबारा मुलाकात नहीं होगी। उन सभी को देख कर झूठी हंसी हंसना।  संगीत और नृत्य की दुनिया में मिलने से आत्मिक खुशी होती है। अंदर से आदर आता है। फिल्मी लोगों के बीच लगता है कि अपना समय खोटा हो रहा है। ऐसी जगहों पर जाना मैंने छोड़ दिया। मैंने छोड़ा तो सुशांत भी कम जाने लगे। यह निर्णय लिया कि ही ही, हा हा, हू हू नहीं करना है। वाइन-डाइन, टाटा-बाय-बाय करने में मजा नहीं आता है।
सुशांत - हमारे फिल्मी दोस्त बने भी नहीं। मुझे कई बार गलतफहमी हो जाती थी। उनकी इज्जत और महफिलों से यह भ्रम होता था। धीरे-धीरे मुझे पता चला कि स्टार के दरबार लगते हैं। हमारी भूमिका दरबारी की हो जाती है। जाहिर सी बात है कि मैं उनके समकक्ष तो कभी था नहीं।
मोलिना - एक उदाहरण देती हूं। डैनी साहब हमलोगों को बहुत प्यार करते हैं। उम्र और स्टेटस में हम उनके बराबरी नहीं कर सकते हैं। सपने में भी उनकी बराबरी की बात नहीं सोच सकते। उनका बड़प्पन है कि वे बुलाते हैं। हमें लगने लगा कि हम क्यों जाएं? फिर छोड़ दिया।
सुशांत - वह एक दुख है। मुझे लगता है कि वह रिश्ता बरकरार रखना चाहिए था। उन्होंने जब दोस्त की तरह ट्रीट किया तो वाकई दोस्त समझा। इत्तफाकन वे मेरे स्कूल के सीनियर भी हैं। हमलोग अपनी ग्रंथि में उनसे मिलना बंद कर दिया।
मोलिना - मैं इसे ग्रंथि नहीं कहूंगी।  हमलोग रियलीस्टिक रहे। उनकी गाड़ी ले जाती और छोड़ती थी। यह सब अच्छा नहीं लगता था।
सुशांत - तब हमारे पास एक कमरे का फ्लैट था। गाड़ी भी नहीं थी। हम एहसान तले दबने लगे थे। वह हमारी हीन भावना ही थी।

सुशांत - हमारे लिए चीजें कभी सुगम नहीं रही। मैं बिल्कुल महत्वाकांक्षी नहीं हूं। कभी कोई इच्छा ही नहीं रखी। इगो इतना ज्यादा है कि काम क्यों मांगें। हालत खराब थी तो मांगा। मांग कर भी देख लिया। न इज्जत मिली न पैसे मिले और रोल मिला छोटा सा। जो लोग हर फिल्म में लेने का भरोसा दे रहे थे वे टीवी में काम करने का सलाह देने लगे। यहां के नियम-तरीके धीरे-धीरे सीखे। कभी पापा ने सलाह दी तो उन्हें ही समझाने लगा। सारे दुनिया की तरह यहां भी मेल-मिलाप और लेन-देन चलता है। पैसे आते-जाते रहे। दो साल पहले एकाउंट में सिर्फ तीन हजार रुपए बच गए थे। बच्चों की फीस देनी थी। फिर तय किया कि सीरियल कर लेता हूं। इतना समझ में आया कि टैलेंट है तो कुछ न कुछ कर ही लेंगे। बहुत बुरा होगा तो एक नाटक कर लेंगे। सफलता की बात करूं तो मैंने राजेश खन्ना को भी देख लिया। बच्चन साहब को देख रहे हैं। बुरे दौर के बाद वे वापस फिर से लौटे हैं। आज वे खुद बोलते हैं कि मैं कैरेक्टर एक्टर हूं। सच्चाई यह है कि वे आज भी सुपर स्टार हैं। अपने सामने ही कुछ स्टारों को उड़ कर आते हुए देखा। वे जैसे आए थे वैसे ही उड़ कर चले गए। भागूं तो कहां भागूं। पत्रकार पूछते हैं कि क्या अपने वर्तमान से खुश हूं? एक्टर को असुरक्षा मिलती ही मिलती है। वह खून में रहती है। मैं असुरक्षित न रहूं तो परफार्म ही न कर सकूंगा। असफलता की असुरक्षा से गुजर चुका हूं। तब कहता था यहां साजिश के तहत एक्टर को उभरने नहीं दिया जाता है। भाग्यशाली हूं कि अपनी इगो और एटीट्यूड के बाद भी मुझे घर बैठे काम मिल रहा है।
मोलिना - पारिवारिक जिम्मेदारी की वजह से मुझे विराम देना पड़ा। मैं खुद ही संभल गई और काम पर लौट आई। मुंबई आने पर समझ में आया कि यहां शास्त्रीय नृत्य में कम संभावनाएं हैं। यहां के माहौल में मायूसी थी। मुंबई रहते हुए दिल्ली जाकर काम नही किया जा सकता था। शेखर सुमन के साथ ‘मुवर्स एंड शेखर्स’ में कुछ काम किए। मुझे थिएटर में मजा आता है। थिएटर में पूरा कैरेक्टर आप जीते हैं। मुझे तो सुशांत को देख कर आश्चर्य होता है कि कैसे कैमरा ऑन होते ही इमोशन ले आते हैं। यह एक्टिंग मेरी समझ में नहीं आई। पूरा प्रोसेस ही अजीब सा लगता था। मेरा चेहरा अलग है। नॉर्थ ईस्ट के होने की वजह से रोल निश्चित कर दिए जाते हैं। कुछ फिल्में मिली भी तो उनमें रेड लाइट ऐरिया की लडक़ी का काम मिला। मैंने स्वयं सोचा और सुशांत ने भी कहा कि ऐसे काम मत करो। मुझे ऐसा काम नहीं करना था। शादी और बच्चों के बीच टाइम ही नहीं मिला। डांस करते रहने के लिए हर तरह से स्वस्थ रहना जरूरी है। अभी फिर से रियाज करना शुरू किया है। इधर एक-दो परफारमेंस किया। अभी नवरस के ऊपर अपना प्रोडक्शन किया है। यह लोगों को पसंद आया है। द्रौपदी पर एक स्क्रिप्ट लिखी है। वह महंगा प्रोडक्शन होगा। सकेंड प्रोडक्शन गौहर जान के ऊपर है।
मोलिना - मुझे घर भी संभालना है। बच्चों को भी देखना है। मैं संतुलन बिठाने की कोशिश कर रही  हूं।
सुशांत - मैं मदद करता हूं। बीच-बीच में फोन करता रहता हूं। मोलिना बड़े प्रोजेक्ट में अटकी थीं। मैंने समझाया कि कब इतने पैसे होंगे। 70-80 लाख का प्रोडक्शन कैसे करेंगे? समझाया कि छोटे पैमाने पर कुछ करो। ऐसा नहीं है कि मुझे डर नहीं लगता। ज्यादा बिजी हो जाएगी तो दिक्कत होगी।
मोलिना - शिवाक्ष के पैदा होने के पांच महीने के बाद अभ्यास आरंभ किया। पहले दिन अभ्यास के बाद सीढिय़ों से उतरते समय मेरे पांव कांपने लगे। किसी को नहीं बताया। यही लगा कि सुशांत को पता चला तो अभ्यास बंद हो जाएगा। सोचा कि सही कर रहूं या नहीं? फिर खयाल आया कि कमबैक करना है तो हिम्मत करनी होगी। दो साल ओडिशी की ट्रेनिंग ली। शिवाक्ष के जन्म के दस महीने बाद परफॉर्म किया था। बहुत सारे इंतजाम करने पड़े। मेड खोजना पड़ा। क्लास में भी बच्चे का ध्यान रहता था। दोस्तों के यहां आना जाना भी बंद हो गया था। पहली बार शिवाक्ष को छोड़ कर दो दिनों के लिए गई थी तो वह वापस देख कर घबरा गया था।
सुशांत - औरतों के लिए बच्चे, परिवार और करिअर में संतुलन बिठा पाना मुश्किल होता है। मैं उन औरतों को सलाम करता हूं। जो ऐसा कर पाती हैं। बच्चे के लालन-पालन के लिए मां की जरूरत पड़ती है। पिता वह नहीं कर सकता। शुरू के तीन साल मां चाहिए। आरंभ में आया के हवाले कर दिया तो परिणाम हमारे सामने है। मैंने देखे हैं।
मोलिना - जब तग 100 प्रतिशत निश्चित नहीं हों, तब तक शादी न करें। हस्बैंड मैटेरियल जैसी कोई चीज नहीं होती। कभी कोई नहीं मिल सकता। अगर मिल जाए तो चिपक जाओ। कठिन करो और आगे बढ़ो।
सुशांत - मेरे दो मापदंड हैं। एक्टर हूं। आउटडोर रहता हूं। इंडस्ट्री में सुंदर लड़कियों की कमी नहीं है। प्यार का क्या मतलब है। मीर और गालिब नहीं बता सके। हम क्या बताएं एक ही मापदंड है कि क्या किसी एक शख्स के लिए मैं सब कुछ छोड़ सकता हूं। अगर छोडऩे और बदलने के लिए तैयार हैं तो प्यार है। गंभीरता से सोचें। भावावेश में नहीं। तेरे लिए जान दे दूंगा कहने की जरूरत नहीं है। माता-पिता, भाई, बहन हैं परिवार में... किसी दुर्घटना में उनकी शक्ल बिगड़ गई। आप क्या करेंगे? नफरत शुरू कर देंगे। ऐसा होता नहीं है। मल-मूत्र तक साफ करना होता है। यही प्यार है। प्यार को सूरत में न खोजें। सीरत से प्यार करें।
सुशांत - आज से 50 साल बाद शादी अप्रासंगिक हो जाएगा। सोच और मूल्य बदल रहे हैं। जमाना तेजी से बदल रहा है। आज आप बगल में बैठे इंसान से वैसे नहीं जुड़े हैं, जैसे वचुर्अल वल्र्ड में जुड़े हैं। मैं दिन-रात देखता हूं कि लोग आपस में बातें नहीं कर रहे हैं? सभी मोबाइल पर लगे रहते हैं। यह तकनीक और विकसित होगी। संभव है साथ में हों लेकिन फेसबुक पर बातें कर रहे हों। शादी के मायने बदल जाएंगे? प्यार के भी मायने बदलेंगे, अकेलापन बढ़ गई है। सिर्फ सहानुभूति चाहिए।
मोलिना - सभी उलझे हुए हैं। चार लडक़े और एक लडक़ी थी। सभी अपने फोन में लगे थे। मेंने सोचा कि मेरी बेटी बड़ी होकर यही करेगी। प्यार बदल रहा है। मुझे शादी की संस्था अेनारेटेड लगती है। जब तक आप अंदर से खुश नहीं होंगे, तब तक साथ का मतलब नहीं है।
सुशांत - अच्छा यह होगा कि औरतें सामान नहीं जाएंगी। औरतें नेतृत्व करेंगी। कैसी बिडंबना है कि आज कहना पड़ रहा है कि औरत को इंसान समझिए।