Tum Pr Vasan Kyon Nahi Aaya Ela, Story by Dr. (Miss) Sharad Singh
कहानी
तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
कामदेव ! क्यों सचमुच ऐसी ही गोलमटोल काया और छोटे-छोटे पंखों वाला
होता है, कितना नुकीला है इसका बाण ! इला
ने हथेली पर रखे हुए डेढ़-दो इंच
के कामदेव की ओर देखते हुए सोचा । क्रिस्टल के इस पारदर्शी कामदेव के आरपार भी देखा जा
सकता है । इला ने कामदेव के बारे में इससे पहले
कभी इस प्रकार से नहीं सोचा था ।
यह कामदेव कितना ही
प्यारा और सुंदर क्यों न हो लेकिन उदय को यह कामदेव उपहार के रूप में इला
को नहीं देना चाहिए था । आखिर किसी अविवाहिता को ऐसा उपहार नहीं दिया जाना चाहिए, वह
भी किसी सहकर्मी द्वारा । वह इसे वापस कर देगी । इला
ने सोचा ।
‘इला, मेरी कमीज़ कहां है ? ज़रा देखना तो !’ भाई की आवाज़ सुन
कर इला हड़बड़ा गई। उसके मन के चोर ने उससे कहा, जल्दी छिपा इस कामदेव को, कहीं
भैया ने देख लिया तो? ‘तुम्हारी
भाभी जाने कब सीखेगी सामान को सही जगह पर रखना, उफ ! ’... और भैया सचमुच इला
के कमरे के दरवाज़े तक आ गए । इला ने कामदेव को झट से अपने ब्लाउज़ में छिपा लिया
।
‘आप नहाने जाइए,मैं शर्ट निकाल देती हूं ।’ इला उठ खड़ी हुई
। यद्यपि कामदेव का नुकीला बाण उसके वक्ष में चुभ रहा था ।
भैया का हो-हल्ला
मचाना इला के लिए कोई नई बात नहीं है । बिला
नागा प्रतिदिन सवेरे से यही चींख-पुकार मची रहती है । भाभी लड़कियों
के स्कूल में
पढ़ाती हैं । उनकी सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी रहती है । वैसे सच तो ये है कि भाभी ने
जानबूझ कर सुबह की शिफ्ट में अपनी ड्यूटी लगवा रखी है । इससे घर के कामों से बचत
रहती है । भैया इतने लापरवाह हैं कि वे अपने सामान भी स्वयं नहीं
सम्हाल पाते
हैं । लिहाज़ा, घर सम्हालने से ले
कर भैया के समान सम्हालने तक की जिम्मेदारी इला
पर रहती है । इला को अपनी इस जिम्मेदारी पर कोई आपत्ति भी नहीं है । वह अब
तक में जान चुकी है कि दुनिया में हर तरह के लोग
रहते हैं । भैया और भाभी भी ऐसे ही दो अलग-अलग प्रकार के व्यक्तित्व हैं ।
‘या रबबा ! तू कैसे
सब मैनेज कर लेती है ? भैया-भाभी
की गृहस्थी भी सम्हालती है और दफ्तर भी समय पर पहुंच जाती है ... कमाल करती है तू तो !’ सबरजीत कौर अकसर इला
से कहा करती है । विशेष रूप से उस दिन जिस दिन सबरजीत कौर को दफ्तर पहुंच ने में
देर हो जाती है । सबरजीत कौर को अकसर देर हो जाया करती है । वह अपने पति, बच्चों
और सास-ससुर के असहयोग का रोना रोती रहती है ।
‘काश ! तेरे जैसी
ननद मुझे मिली होती तो मैं तो उसकी लाख
बलाएं लेती ! ’ प्रवीणा शर्मा को इला
की भाभी से ईर्ष्या होती और वह अपनी इस ईर्ष्या को सहज भाव से इला
के आगे व्यक्त भी कर दिया करती।
‘तुझे क्या अपनी
गृहस्थी नहीं बसानी है इला?’ लेकिन साथ में वे इला
से यह भी पूछती रहतीं ।
‘करूंगी अलग
से गृहस्थी बसा कर? भैया-भाभी
की गृहस्थी भी तो मेरी ही गृहस्थी है ।’ इला शांत भाव से उत्तर देती ।
हां ! अब इस उम्र
में तो यही सोच कर संतोष करना होगा ।’ इला
से चिढ़ने वाली कांता सक्सेना मुंह बिचका कर कहती । कांता सक्सेना की टिप्पणी सुन कर बुरा नहीं लगता
इला को । आखिर
शराबी पति की व्यथित पत्नी की टिप्पणी का क्या बुरा मानना ? यूं भी इला
के मन में कभी अपनी निजी गृहस्थी बसाने का विचार दृढ़तापूवर्क
नहीं आया । जब वह किसी के विवाह समारोह में जाती तो उसे लगता
कि अगर उसकी शादी होती तो वह भी इस दुल्हन की तरह सजाई जाती .... लेकिन
विवाह समारोह से वापस घर आते तक उसे भैया-भाभी की गृहस्थी ही याद रह जाती ।
भैया-भाभी की
गृहस्थी की जिम्मेदारी किसी ने उस पर थोपी नहीं थी वरन् इला
ने स्वत: ही अपने ओढ़ ली थी । अब कोई जिम्मेदारी ओढ़ना ही चाहे तो
दूसरा क्यों मना करेगा ? भाभी
ने कभी मना नहीं किया । संभवत: उन्होंने कई बार मन ही मन प्राथर्ना भी की हो कि इला
के मन में शादी करने का विचार न आए । इला चली जाएगी तो उनकी बसी-बसाई गृहस्थी की चूलें
हिल जाएंगी
। वे तो इस घर में आते ही आदी हो गई थीं इला की मदद की । इला
को भी लगता है कि उसकी भाभी उसकी मदद की बैसाखियों के बिना एक क़दम
भी नहीं चल सकती
हैं ।
भाभी तो भाभी-भैया
को भी इला के सहारे की जबदर्स्त आदत पड़ी हुई है । भैया इला
से चार साल बड़े
हैं लेकिन इला ने छुटपन में जब से ‘घर-घर’ खेलना
शुरू किया बस, तभी से भैया इला पर निर्भर होते चले
गए । जब किसी व्यक्ति के नाज़-नखरे उठाने के लिए
मां के साथ-साथ बहन भी तत्पर हो तो परनिर्भरता का दुगुर्ण भैया में आना ही था । कई
बार ऐसा लगता गोया इला छोटी नहीं अपितु बड़ी बहन हो । भैया ने इला
की शादी के बारे में कभी गंभीरता से विचार नहीं किया । पहले
भैया पढ़ते रहे फिर नौकरी पाने की भाग-दौड़ में जुट गए । नौकरी मिलते
ही भैया की शादी कर दी गई । इला के बारे में कोई सोच पाता इसके पहले मां
का स्वगर्वास हो गया । मां के जाने के बाद भैया इला
में ही मां की छवि देखने लगे और रिश्तेदारों ने इस विचार से इला
की शादी की चर्चा खुल कर
नहीं छेड़ी कि कहीं उन्हें ही सारी जिम्मेदारी वहन न करनी पड़ जाए । आखिर लड़की
की शादी कोई हंसी-खेल नहीं
होती है, दान-दहेज में भी हाथ बंटाना होता है !
अपनी इस स्थिति के लिए
भला किसे दोष दे इला ? इला को दोष देना आता ही नहीं है। वह खुश है
अपनी परिस्थितियों के साथ ।
जाने क्यों उदय को इला का अकेलापन
नहीं भाता है । वह अपने साथ के द्वारा इला
के इस अकेलेपन को भर देना चाहता है । जब से उदय स्थानान्तरित हो कर इला
के दफ्तर में आया है, तभी से वह इला के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया । इला
उदय के बारे में अधिक नहीं जानती है और न उसने
कभी जानना चाहा किन्तु उदय ने थोड़े ही समय
में इला के बारे में लगभग सब कुछ जान लिया
। इला को इस बात का अहसास तब हुआ जब एक दिन उदय ने इला के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा - ‘ इला
जी, आपके बारे में अगर आपके भैया-भाभी ने नहीं सोचा तो आपको
चाहिए कि आप स्वयं अपने बारे में सोचें । ’
‘मैं समझी नहीं आपका
आशय ? ’ इला
सच मुच नहीं समझ पाई थी कि उदय क्या करना चाहता है । उसे अनुमान नहीं था कि
उदय उसके बारे में दिन-रात सोचता रहता है ।
‘मेरा मतलब यही
है कि आपको घर बसाने के बारे में स्वयं विचार करना चाहिए । आप आत्मनिर्भर हैं और
ऐसा कर सकती हैं ।’ उदय ने कहा था और मौन
रह गई थी इला ।
अब कल शाम को दûतर
से निकलते समय उदय ने उसे छोटा-सा पैकेट पकड़ाते हुए कहा था, ‘ यह
आपके लिए ! वसंत के आगमन पर ! प्लीज़ मना मत करिएगा । ’
घर आ कर इला
ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर के धड़कते दिल पर काबू पाते हुए उस पैकेट को खोल कर देखा । क्रिस्टल का बना हुआ एक नन्हा-सा कामदेव था पैकेट
में । भौचक रह गई थी इला । प्रथम दृष्टि में उसे उदय की ये हरकत
बुरी लगी....बहुत बुरी। किन्तु रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे
उसने उदय के बारे में गंभीरता से सोचा तो
उसे लगा कि उदय को क्षमा
किया जा सकता है। लेकिन क्या उसके संकेत को स्वीकार किया जा सकता है जो संकेत
उसने क्रिस्टल
के कामदेव दे कर किया है ? वह तय
नहीं कर पाई । रात को नहीं, सवेरे भी नहीं ।
इला
ने घर के काम जल्दी-जल्दी निपटाए और तैयार हो कर दफ्तर के लिए
निकल पड़ी
। दफ्तर से एक चौराहे पहले ही उदय
मिल गया
जो इला की प्रतीक्षा कर रहा था ।
‘इला
रूको !’ उदय ने इला
को रूकने का संकेत करते हुए आवाज़ दी । इला ने अपनी मोपेड रोक दी ।
‘आप यहां क्या कर
रहे है ? ’ इला
ने उदय से पूछा ।
‘तुम्हारी प्रतीक्षा
! मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारा क्या जवाब है ? ’ उदय ने उतावले
होते हुए पूछा।
‘जवाब ?’ इला
ने अनजान बनते हुए कहा ।
‘हां, क्या जवाब है
तुम्हारा ? ’
उदय अधीर हो उठा ।
‘लेकिन
फिर भी मैं कह रही हूं कि उम्र के जिस पड़ाव में हम हैं वहां किशोरों के उपहार मन
गुदगुदा तो सकते हैं किन्तु ठोस निर्णय नहीं करने में मदद नहीं कर सकते हैं । इस
उम्र में जीवन का हर निर्णय ठोस निर्णय होता है और वह किसी मेज पर आमने-सामने बैठ कर, गंभीरतापूवर्क चर्चा कर के ही लिया
जा सकता है । समझ रहे हैं न आप !’ इला ने पूरी गंभीरता के साथ कहा ।
उदय को इला से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी । वह अवाक्
रह गया । उसने तो दो ही प्रतिक्रियाओं की आशा की थी कि या तो इला
नाराज़ हो जाएगी और उसे बुरा-भला कहेगी या फिर हंस कर उसके मुजबंध स्वीकार कर लेगी
।
दफ्तर पहुंचते-पहुंचते
इला को लगने लगा
कि कहीं उसने उदय के साथ आवश्यकता से अधिक कठोरता तो नहीं बरत दी? यदि इला
के पर वसंत नहीं आया तो इसमें उदय का क्या दोष? अपने-आप पर झुंझलाती हुई इला
को लगा कि अगर वह इसी प्रकार सोच-विचार करती हुई अपनी कुर्सी पर
बैठी रहेगी तो दूसरे लोग उसकी प्रसाधन-कक्ष में उससे तरह-तरह के
सवाल करने
लगेंगे । वह कुर्सी से उठ कर प्रसाधन-कक्ष की ओर चल पड़ी ।
प्रसाधन-कक्ष में
पहुंचते ही इला का दर्पण में खुद से आमना-सामना हो गया । उसे ऐसा लगा
जैसे उसका प्रतिबिम्ब उससे पूछ रहा हो, ‘तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला ज़रा
सोचो ! वसंत तो किसी भी इंसान पर कभी भी आ जाता है फिर तुम पर क्यों नहीं ...? ’
पसीना-पसीना हो उठी,
इला । उसे अपना प्रतिबिम्ब अपरिचित लगने
लगा ...संभवत: प्रतिबिम्ब पर वसंत पूरी तरह आ चुका था जबकि इला
के मन में पतझर के सूखे पत्ते बुहार कर बाहर फेंके जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
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