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मंगलवार, फ़रवरी 16, 2021

तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला | कहानी | डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Tum Pr Vasan Kyon Nahi Aaya Ela, Story by Dr. (Miss) Sharad Singh

कहानी

तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला !

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

 

कामदेव ! क्यों सचमुच  ऐसी ही गोमटो काया और छोटे-छोटे पंखों वाा होता है, कितना नुकीा है इसका बाण ! इा ने हथेी पर रखे हुए डेढ़-दो इंच  के कामदेव की ओर देखते हुए सोचा । क्रिस्ट के इस पारदर्शी कामदेव के आरपार भी देखा जा सकता है । इा ने कामदेव के बारे में इससे पहे कभी इस प्रकार से नहीं सोचा था ।

यह कामदेव कितना ही प्यारा और सुंदर क्यों न हो ेकिन उदय को यह कामदेव उपहार के रूप में इा को नहीं देना चाहिए था । आखिर किसी अविवाहिता को ऐसा उपहार नहीं दिया जाना चाहिए, वह भी किसी सहकर्मी द्वारा । वह इसे वापस कर देगी । इा ने सोचा ।

‘इला, मेरी कमीज़ कहां है ? ज़रा देखना तो !’ भाई की आवाज़ सुन कर इला हड़बड़ा गई। उसके मन के चोर ने उससे कहा, जल्दी छिपा इस कामदेव को, कहीं भैया ने देख लिया तो? ‘तुम्हारी भाभी जाने कब सीखेगी सामान को सही जगह पर रखना, उफ ! ’... और भैया सचमुच इा के कमरे के दरवाज़े तक आ गए । इा ने कामदेव को झट से अपने ब्लाउज़  में छिपा िया ।

‘आप नहाने जाइए,मैं शर्ट निकाल देती हूं ।’ इला उठ खड़ी हुई । यद्यपि कामदेव का नुकीला बाण उसके वक्ष में चुभ रहा था ।

भैया का हो-हल्ा मचाना इा के िए कोई नई बात नहीं है । बिा नागा प्रतिदिन सवेरे से यही चींख-पुकार मची रहती है । भाभी ड़कियों के स्कू में पढ़ाती हैं । उनकी सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी रहती है । वैसे सच तो ये है कि भाभी ने जानबूझ कर सुबह की शिफ्ट में अपनी ड्यूटी लगवा रखी है । इससे घर के कामों से बचत रहती है । भैया इतने ापरवाह हैं कि वे अपने सामान भी स्वयं नहीं सम्हा पाते हैं । िहाज़ा, घर सम्हाने से े कर भैया के समान सम्हाने तक की जिम्मेदारी इा पर रहती है । इा को अपनी इस जिम्मेदारी पर कोई आपत्ति भी नहीं है । वह अब तक में जान चुकी है कि दुनिया में हर तरह के ोग रहते हैं । भैया और भाभी भी ऐसे ही दो अग-अग प्रकार के व्यक्तित्व हैं ।

‘या रबबा ! तू कैसे सब मैनेज कर ेती है ? भैया-भाभी की गृहस्थी भी सम्हाती है और दफ्तर भी समय पर पहुंच  जाती है ... कमा करती है तू तो !’ सबरजीत कौर अकसर इा से कहा करती है । विशेष रूप से उस दिन जिस दिन सबरजीत कौर को दफ्तर पहुंच ने में देर हो जाती है । सबरजीत कौर को अकसर देर हो जाया करती है । वह अपने पति, बच्चों और सास-ससुर के असहयोग का रोना रोती रहती है ।

‘काश ! तेरे जैसी ननद मुझे मिी होती तो मैं तो उसकी ाख बाएं ेती ! ’ प्रवीणा शर्मा को इा की भाभी से ईर्ष्या होती और वह अपनी इस ईर्ष्या को सहज भाव से इा के आगे व्यक्त भी कर दिया करती।

‘तुझे क्या अपनी गृहस्थी नहीं बसानी है इला? लेकिन साथ में वे इला से यह भी पूछती रहतीं ।

‘करूंगी अग से गृहस्थी बसा कर? भैया-भाभी की गृहस्थी भी तो मेरी ही गृहस्थी है ।’ इा शांत भाव से उत्तर देती ।

हां ! अब इस उम्र में तो यही सोच  कर संतोष करना होगा ।’ इा से चिढ़ने वाी कांता सक्सेना मुंह बिचका कर कहती ।  कांता सक्सेना की  टिप्पणी सुन कर बुरा नहीं गता इा को । आखिर  शराबी  पति  की व्यथित पत्नी की टिप्पणी का क्या बुरा मानना ? यूं भी इा के  मन में  कभी अपनी निजी गृहस्थी बसाने का विचार दृढ़तापूवर्क नहीं आया । जब वह किसी के विवाह समारोह में जाती तो उसे गता कि अगर उसकी शादी होती तो वह भी इस दुल्हन की तरह सजाई जाती .... ेकिन विवाह समारोह से वापस घर आते तक उसे भैया-भाभी की गृहस्थी ही याद रह जाती ।

भैया-भाभी की गृहस्थी की जिम्मेदारी किसी ने उस पर थोपी नहीं थी वरन् इा ने स्वत: ही अपने ओढ़ ी थी । अब कोई जिम्मेदारी ओढ़ना ही चाहे तो दूसरा क्यों मना करेगा ? भाभी ने कभी मना नहीं किया । संभवत: उन्होंने कई बार मन ही मन प्राथर्ना भी की हो कि इा के मन में शादी करने का विचार न आए । इा ची जाएगी तो उनकी बसी-बसाई गृहस्थी की चूें हि जाएंगी । वे तो इस घर में आते ही आदी हो गई थीं इा की मदद की । इा को भी गता है कि उसकी भाभी उसकी मदद की बैसाखियों के बिना एक क़दम भी नहीं च सकती हैं ।

भाभी तो भाभी-भैया को भी इा के सहारे की जबदर्स्त आदत पड़ी हुई है । भैया इा से चार सा बड़े हैं ेकिन इा ने छुटपन में जब से ‘घर-घर’ खेना शुरू किया बस, तभी से भैया इा पर निर्भर होते चे गए । जब किसी व्यक्ति के नाज़-नखरे उठाने के िए मां के साथ-साथ बहन भी तत्पर हो तो परनिर्भरता का दुगुर्ण भैया में आना ही था । कई बार ऐसा गता गोया इा छोटी नहीं अपितु बड़ी बहन हो । भैया ने इा की शादी के बारे में कभी गंभीरता से विचार नहीं किया । पहे भैया पढ़ते रहे फिर नौकरी पाने की भाग-दौड़ में जुट गए । नौकरी मिते ही भैया की शादी कर दी गई । इा के बारे में कोई सोच  पाता इसके पहे मां का स्वगर्वास हो गया । मां के जाने के बाद भैया इा में ही मां की छवि देखने गे और रिश्तेदारों ने इस विचार से इा की शादी की चर्चा खु कर नहीं छेड़ी कि कहीं उन्हें ही सारी जिम्मेदारी वहन न करनी पड़ जाए । आखिर ड़की की शादी कोई हंसी-खे नहीं होती है, दान-दहेज में भी हाथ बंटाना होता है !

अपनी इस स्थिति के िए भा किसे दोष दे इ ?ा को दोष देना आता ही नहीं है। वह खुश है अपनी परिस्थितियों के साथ ।

जाने क्यों उदय  को इा का अकेापन नहीं भाता है । वह अपने साथ के द्वारा  ा के इस अकेेपन को भर देना चाहता है । जब से उदय  स्थानान्तरित हो कर इा के दफ्तर में आया है, तभी से वह इा के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया । इा उदय  के बारे में अधिक नहीं जानती है और न उसने कभी जानना चाहा किन्तु उदय ने थोड़े ही समय  में इा के बारे में गभग सब कुछ जान िया । इा को इस बात का अहसास तब हुआ जब एक दिन उदय  ने इा के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा - ‘ इा जी, आपके बारे में अगर आपके भैया-भाभी ने नहीं सोचा तो आपको चाहिए कि आप स्वयं अपने बारे में सोचें । ’

‘मैं समझी नहीं आपका आशय ? ’ इा सच मुच  नहीं समझ पाई थी कि उदय  क्या करना चाहता है । उसे अनुमान नहीं था कि उदय उसके बारे में दिन-रात सोचता रहता है ।

‘मेरा मतब यही है कि आपको घर बसाने के बारे में स्वयं विचार करना चाहिए । आप आत्मनिर्भर हैं और ऐसा कर सकती हैं ।’ उदय  ने कहा था और मौन रह गई थी इा ।

अब क शाम को दûतर से निकते समय  उदय  ने उसे छोटा-सा पैकेट पकड़ाते हुए कहा था, ‘ यह आपके िए ! वसंत के आगमन पर ! प्लीज़ मना मत करिएगा । ’

घर आ कर इा ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर के धड़कते दि पर काबू पाते हुए उस पैकेट को खो कर देखा । क्रिस्ट का बना हुआ एक नन्हा-सा कामदेव था पैकेट में । भौचक रह गई थी इा । प्रथम दृष्टि में उसे उदय की ये हरकत बुरी गी....बहुत बुरी। किन्तु रात को बिस्तर पर ेटे-ेटे उसने उदय  के बारे में गंभीरता से सोचा तो उसे गा कि उदय  को क्षमा किया जा सकता है। ेकिन क्या उसके संकेत को स्वीकार किया जा सकता है जो संकेत उसने क्रिस्ट  के कामदेव दे कर किया है ? वह तय  नहीं कर पाई । रात को नहीं, सवेरे भी नहीं ।

ा ने घर के काम जल्दी-जल्दी निपटाए और तैयार हो कर दफ्तर के िए निक पड़ी । दफ्तर से एक चौराहे पहे ही उदय  मि गया जो इा की प्रतीक्षा कर रहा था ।

‘इा रूको !’ उदय  ने इा को रूकने का संकेत करते हुए आवाज़ दी । इा ने अपनी मोपेड रोक दी ।

‘आप यहां क्या कर रहे है ? ’ इा ने उदय  से पूछा ।

‘तुम्हारी प्रतीक्षा ! मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारा क्या जवाब है ? ’ उदय ने उतावे होते हुए पूछा।

‘जवाब ?’ इा ने अनजान बनते हुए कहा ।

‘हां, क्या जवाब है तुम्हारा ? ’ उदय अधीर हो उठा ।

ेकिन फिर भी मैं कह रही हूं कि उम्र के जिस पड़ाव में हम हैं वहां किशोरों के उपहार मन गुदगुदा तो सकते हैं किन्तु ठोस निर्णय नहीं करने में मदद नहीं कर सकते हैं । इस उम्र में जीवन का हर निर्णय  ठोस निर्णय  होता है और वह किसी मेज पर आमने-सामने बैठ कर, गंभीरतापूवर्क चर्चा कर के ही िया जा सकता है । समझ रहे हैं न आप !’ इा ने पूरी गंभीरता के साथ कहा ।

उदय  को इा से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी । वह अवाक् रह गया । उसने तो दो ही प्रतिक्रियाओं की आशा की थी कि या तो इा नाराज़ हो जाएगी और उसे बुरा-भा कहेगी या फिर हंस कर उसके  मुजबंध स्वीकार कर ेगी ।

दफ्तर पहुंचते-पहुंचते इा को गने गा कि कहीं उसने उदय के साथ आवश्यकता से अधिक कठोरता तो नहीं बरत दी? यदि इा के पर वसंत नहीं आया तो इसमें उदय का क्या दोष? अपने-आप पर झुंझाती हुई इा को गा कि अगर वह इसी प्रकार सोच-विचार करती हुई अपनी कुर्सी पर बैठी रहेगी तो दूसरे ोग उसकी प्रसाधन-कक्ष में उससे तरह-तरह के सवा करने गेंगे । वह कुर्सी से उठ कर प्रसाधन-कक्ष की ओर च पड़ी ।

प्रसाधन-कक्ष में पहुंचते ही इा का दर्पण में खुद से आमना-सामना हो गया । उसे ऐसा गा जैसे उसका प्रतिबिम्ब उससे पूछ रहा हो, ‘तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इा ज़रा सोचो ! वसंत तो किसी भी इंसान पर कभी भी आ जाता है फिर तुम पर क्यों नहीं ...?

पसीना-पसीना हो उठी, इा । उसे अपना प्रतिबिम्ब अपरिचित गने गा ...संभवत: प्रतिबिम्ब पर वसंत पूरी तरह आ चुका था जबकि इा के मन में पतझर के सूखे पत्ते बुहार कर बाहर फेंके जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

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शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2021

टीवी चैनल आज तक के बुक कैफे में मेरे उपन्यास शिखण्डी पर चर्चा - डॉ शरद सिंह

 


प्रिय ब्लॉगर साथियों,  

 देश के चर्चित टीवी चैनल 'आजतक' के साहित्यिक कार्यक्रम BookCafe 'साहित्य तक' में 'आजतक' के साहित्यमर्मज्ञ, समीक्षक जयप्रकाश पाण्डेय जी ने बहुचर्चित पांच क़िताबों में मेरे उपन्यास 'शिखण्डी' पर भी विस्तृत चर्चा की है। इस पूरी प्रस्तुति को आप यू ट्यूब की इस लिंक पर देख सकते हैं - 

https://youtu.be/pQKX4jHXCtM

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