शुक्रवार, जनवरी 07, 2022

कहानी | तुम कहां हो, पुरुरवा? | डॉ.(सुश्री) शरद सिंह

मेरी यह कहानी प्रकाशित हुई है भोपाल (म.प्र.) से वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र दीपक के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका "पहला अंतरा" अक्टूबर-दिसंबर 2021 अंक में।
कहानी
तुम कहां हो, पुरुरवा?
            - डॉ.(सुश्री) शरद सिंह

‘‘मुझे कुछ समय से ऐसा लगने लगा है कि हम सब मर चुके हैं। हम सब मृतक हैं। हमारा अमरत्व केवल एक भ्रम है ...देवराज!  हमारे स्वर्ग में ऐसी व्यवस्था क्यों है कि हम अपने हृदय के उल्लास को मात्र नृत्य गान से उद्घाटित कर सकते हैं, हम अपनी देह से दूसरे की देह का उपभोग करते हुए कामवासना में लिप्त रह सकते हैं, किंतु हम प्रेम नहीं कर सकते। ऐसा क्यों देवराज इंद्र, ऐसा क्यों?’’ उर्वशी के प्रश्न की तीक्ष्णता  ने सभागार की सभी ध्वनियों को काट कर गिरा दिया। सभागार में सन्नाटा छा गया। उर्वशी ने एक ऐसा प्रश्न उठाया था जो वहां उपस्थित लगभग सभी के मन में कभी न कभी अवश्य उपजा था किंतु कोई भी पूछने का साहस नहीं कर सका था उर्वशी ने यह साहस दिखा दिया।
‘‘तुम्हारा मूल प्रश्न क्या है, उर्वशी?’’ इंद्र ने सन्नाटे को तोड़ते हुए पूछा।
‘‘मेरा मूल प्रश्न यही है देवराज, कि पृथ्वी लोक में मनुष्य के युवा होते ही उसके हृदय में प्रेम स्पंदित होने लगता है किंतु हम चिर युवा होते हुए भी प्रेम नहीं कर सकते, ऐसा क्यों?’’ उर्वशी ने पूछा।
‘‘तुम यहां किस से प्रेम करोगी, हमसे? किंतु हम देवता हैं, हम प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम करने के लिए हमें भी अवतार लेना पड़ता है। जब हम प्रेम नहीं कर सकते तो भला तुम कैसे प्रेम कर सकती हो?‘‘ इंद्र ने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया।
‘‘किंतु आप प्रेम क्यों नहीं कर सकते हैं?‘‘ उर्वशी ने पूछा।
‘‘हम इसलिए प्रेम नहीं कर सकते हैं क्योंकि प्रेम व्यक्ति को अंधा कर देता है और हम देवता अपनी दृष्टि गवा नहीं सकते हैं।
- क्योंकि प्रेम पागल कर देता है और हम देवता सोचने-समझने की अपनी शक्ति को खो नहीं सकते हैं। इसी के बल पर तो हम देवता बने हुए हैं। 
- क्योंकि प्रेम में पड़ा हुआ व्यक्ति प्रेम के बदले सब कुछ त्याग देने को उद्यत हो उठता है। जबकि हम देवता प्रेम के बदले कुछ भी त्याग नहीं सकते हैं। स्वर्ग भी नहीं।‘‘ इंद्र ने उर्वशी के एक प्रश्न के उत्तर में प्रेम न करने के तीन-तीन कारण गिना दिए।
‘‘आप देवता हैं। आप अपनी विवशताओं को जीने के लिए विवश हैं, देवराज ! किंतु मैं अप्सरा, मुनियों का तप भंग करने वाली रूपसी, सात सुरों को अपने घुंघरुओं में बांधकर नृत्य करने वाली नृत्यांगना... मैं विवश नहीं हूं। मैं प्रेम करना चाहती हूं। यदि स्वर्ग में मुझे किसी से प्रेम करने की अनुमति नहीं है तो मैं पृथ्वीलोक जाऊंगी। वहां प्रेम करूंगी। कृपया, मुझे पृथ्वीलोक जाने की अनुमति दीजिए।‘‘ उर्वशी ने अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट कर दी।
इन्द्र समझ गया कि अब उर्वशी को रोकना उचित नहीं होगा। यदि उसके हृदय में प्रेम पाने की लालसा जाग उठी है तो यह लालसा प्रेम पा लेने पर ही थमेगी। प्रेम है ही ऐसी मायावी भावना जो पृथ्वीलोक के वासियों को अपने संकेत पर सुख-दुख के हिंडोले पर झूले झुलाती रहती है। उर्वशी भी बार-बार पृथ्वीलोक जा कर प्रेम के प्रति जिज्ञासु हो उठी है। उसकी जिज्ञासा का शांत होना अब आवश्यक है। फिर भी इन्द्र ने उर्वशी को समझाने का एक और प्रयास किया।
‘‘तुम नहीं जानती हो उर्वशी कि पृथ्वीलोक में प्रेम अग्नि-सरिता की भांति है। हर किसी के वश में नहीं होता है उस सरिता को पार कर पाना।’’ इन्द्र ने कहा।
‘‘आप मुझे व्यर्थ भयभीत कर रहे हैं।’’ उर्वशी के स्वर में हठ था।
‘‘पृथ्वी में स्त्री-पुरुष के लिए प्रेम समभाव का विषय नहीं है, उर्वशी! तुम्हें कहीं पीड़ा न पहुंचे।’’ इन्द्र ने फिर कहा।
‘‘आप मुझे पृथ्वीलोक नहीं जाने देना चाहते हैं तो स्पष्ट कहिए। यूं प्रेम को पीड़ा का कारण मत ठहराइए। यह उचित नहीं है।’’ उर्वशी ने प्रतिरोध किया।
‘‘ठीक है उर्वशी! तुम पृथ्वीलोक जा कर किसी भी पृथ्वीवासी से प्रेम कर सकती हो। मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। लेकिन यदि तुम प्रेम को भली-भांति समझना और अनुभव करना चाहती हो तो तुम्हें वही करना होगा जो मैं कहूंगा। इसे चाहे तो मेरी शर्त मान सकती हो।‘‘ इंद्र ने कहा। 
‘‘कैसी शर्त, देवराज?‘‘ उर्वशी ने चकित होकर पूछा। 
‘‘शर्त यह है कि तुम जिस पुरुष को प्रेम करोगी उसे अपना वास्तविक परिचय किसी भी दशा में नहीं दोगी और यदि उसने प्रेम के उपरांत तुमसे तुम्हारा परिचय जानना चाहा तो तुम्हें उसे सदा के लिए छोड़ कर तत्काल वापस आना होगा।‘‘ इंद्र ने उर्वशी से कहा।
‘‘मुझे शर्त स्वीकार है, देवराज! ‘‘ उर्वशी ने प्रसन्नतापूर्वक शर्त स्वीकार कर ली। उसने सोचा कि अरे, वाह ! यह शर्त कितनी व्यर्थ है। अरे एक प्रेमी को अपने प्रिय से सरोकार रहता है, उसके परिचय या अतीत से नहीं। यह शर्त दुरूह नहीं है, कदापि नहीं। वह जिस पुरुरूा से प्रेम करेगी वह कभी इतनी-सी बात के लिए हठ नहीं करेगा। भला प्रेम की भावना से भी बढ़ कर कोई भावना हो सकती है पृथ्वीलोक में? 

इंद्र से अनुमति लेकर उर्वशी पृथ्वी पर आ गई।

पृथ्वी पर आकर उसकी दृष्टि पुरुरवा पर पड़ी। पुरुरवा को देखते ही उर्वशी का मन उसके वश में नहीं रहा। पुरुरवा ने भी उर्वशी की ओर देखा प्रथम दृष्टि में ही दोनों में परस्पर प्रेम हो गया। पुरुरवा उर्वशी से सौंदर्य को देखकर मानो अपना अस्तित्व भुला बैठा और उर्वशी तो आई ही थी किसी सुपात्र से प्रेम करने। 
‘‘तुम कौन हो सुंदरी? मेरा मन तुम पर आसक्त हो उठा है। मैं तुमसे प्रथम दृष्टि में ही प्रेम कर बैठा हूं।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी को मुक्त भाव से निहारते हुए कहा।
 ‘‘हे पुरुष ! मैं भी तुम्हारे प्रति अपने हृदय में प्रेम का अनुभव कर रही हूं। हम दोनों परस्पर प्रेम का आदान-प्रदान कर सकते हैं किंतु .....।‘‘ उर्वशी कहते कहते रुक गई। 
‘‘किंतु क्या सुंदरी?‘‘ पुरुरवा ने व्याकुल होकर पूछा ।
‘‘हमारा प्रेम प्रगाढ़ नहीं हो सकता है।‘‘ उर्वशी ने कहा। 
‘‘क्यों? क्यों नहीं हो सकता? क्या तुम मुझे इस योग्य नहीं समझती हो?‘‘ पुरुरवा ने आश्चर्य से पूछा। 
‘‘नहीं यह बात नहीं है। बात यह है कि मेरी कुछ विवशताएं हैं।‘‘ उर्वशी कहते- कहते रुक गई।
‘‘कैसी विवशता, रूपसी? मुझे बताओ। संकोच मत करो।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी का उत्साहवर्द्धन करते हुए कहा। 
‘‘यही कि हमारा प्रेम कितना भी प्रगाढ़ता पर क्यों न पहुंच जाए, फिर भी तुम मुझसे मेरा परिचय कभी नहीं पूछोगे। मैं कौन हूं? कहां से आई हूं? यह जानने का प्रयत्न नहीं करोगे। स्वप्न में भी नहीं। यदि तुमने ऐसा किया तो मैं उसी पल तुमको छोड़ कर चली जाऊंगी। हे पुरुष! यही मेरी विवशता है। यदि तुम्हें मेरे साथ मेरी विवशता भी स्वीकार्य है तो मैं आज इसी क्षण से तुम्हारी हूं।‘‘ उर्वशी ने पुरुरवा से कहा।
‘‘बस, इतनी सी बात? मुझे यह स्वीकार है, सुंदरी ! तुम जो कहो वह सब मुझे स्वीकार है। बस, तुम मुझे स्वीकार कर लो। अंगीकार कर लो।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी की विवशता को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। उर्वशी का ह्रदय प्रेम के गर्व से लबालब भर गया। 
प्रेम के तीव्र आह्लाद में डूबते-उतराते उर्वशी और पुरुरवा वन-उपवन में विचरण करने लगे। पुरुरवा के मस्तिष्क से कर्तव्यों का बोध जाता रहा। वह आठों पहर उर्वशी के रूप सौंदर्य और प्रेम का रसपान करता रहा। पुरुरवा के लिए उर्वशी के मुख का उजाला ही दिन था और उर्वशी के  केशराशि की छाया ही रात थी। उर्वशी के सानिध्य में वह स्वर्गिक सुख का अनुभव करता। उर्वशी भी पुरुरवा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी। वह प्रेम की गहराइयों का अनुभव कर रही थी। वह प्रेम की उत्तुंगता का अनुभव कर रही थी। वह जिस प्रेम की लालसा में पृथ्वी लोक आई थी, वह प्रेम पुरुरवा के रूप में उसे अपने भुजबंद में कसे हुए था। जिस प्रकार आकाश में तैरते कपासी बादल तेज हवा में गतिमान होकर एक दिशा से दूसरे दिशा की ओर बढ़ते चले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार दिन पर दिन सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष और महीने पर महीने व्यतीत हो गए तथा समय अपना आभास कराए बिना तीव्रता से सरकता गया।

उधर कुटिल दांवपेच के धनी इन्द्र ने स्वर्गलोक में यह प्रचारित करा दिया कि पुरुरवा ने उर्वशी को असुरों से बचाया था अतः उर्वशी पुरुरवा के उस ऋण से मुक्त होने पुरुरवा के पास गई है।

पुरुरवा उर्वशी पर मुग्ध था किंतु इस मुग्धावस्था में भी उसे कभी-कभी यह बात सालती थी कि ‘मैं उर्वशी के बारे में उसके नाम के अतिरिक्त और जानता ही क्या हूं? क्या पता यह नाम भी वास्तविक है या छद्म है? कौन है यह उर्वशी? कहां से आई है? किसकी पुत्री है? यह प्रेम के अतिरिक्त और कुछ चाहती भी नहीं है। और कुछ मांगती भी नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं है?  लेकिन मैं इससे पूछ भी तो नहीं सकता हूं। इसने पहले ही कह रखा है कि जिस क्षण में इससे पूछ लूंगा कि तुम कौन हो, यह उसी पल मुझे छोड़ कर चली जाएगी।‘
एक ओर पुरुरवा का प्रेम उसे प्रश्न करने से रोकता और दूसरी ओर उसका पुरुषत्व उसे उर्वशी के अतीत और उसका परिचय जानने के लिए उकसाता रहता, जिसे जानना पुरुरवा के लिए कतई आवश्यक नहीं था।
समय व्यतीत होने के साथ-साथ पुरवा के मन में प्रश्न का नाग फन उठाने लगा। उसे लगने लगा कि वह पूछने की इच्छा के वशीभूत होकर जागृत अवस्था में नहीं तो सोते समय स्वप्न में उर्वशी से प्रश्न कर बैठेगा। यदि ऐसा हुआ तो उर्वशी उसे छोड़ कर चली जाएगी। इस भय के कारण पुरुरवा रात्रि को उर्वशी का आंचल थाम कर सोता। उर्वशी ने पुरवा के अंतर्द्वंद्व को ताड़ लिया।

‘‘पुरुरवा! मुझे लगता है कि इन दिनों तुम अंतर्द्वंद्व में जी रहे हो। यदि यह सच है तो अपने मन को, अपने हृदय को और अपने मस्तिष्क को टटोल कर देखो कि तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है मेरा प्रेम या मेरा परिचय?‘‘ उर्वशी ने कहा।
‘‘नहीं-नहीं! मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानना चाहता हूं। मुझे तुम्हारे परिचय से नहीं तुमसे प्रेम है।‘‘ पुरुरवा ने तत्क्षण उत्तर दिया। 

एक बार फिर दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष और मास पर मास व्यतीत होने लगे। पुरुरवा के मन में गुंजलक मार कर बैठे जिज्ञासा के नाग का विष भी शनैः शनैः बढ़ता जा रहा था। उस विष की कालिमा में पुरुरवा को यह भी जानने की इच्छा होने लगी कि आज तो उर्वशी उसके प्रति पूर्ण समर्पिता है किंतु अतीत में किसी और से प्रेम तो नहीं करती थी? उर्वशी ने भले ही उससे उसकी रानियों के बारे में नहीं पूछा किंतु वह तो स्त्री है। एक स्त्री को इस पर आपत्ति करने का अधिकार नहीं है कि उसका सर्वस्व-पुरुष अन्य स्त्रियों से दैहिक संबंध रखता है या नहीं? किंतु मैं? मैं तो पुरुष हूं मुझे यह जानने और आपत्ति करने का पूरा-पूरा अधिकार है कि मेरी समर्पिता स्त्री के अतीत में किसी अन्य पुरुष के साथ दैहिक संबंध तो नहीं थे? कहीं इसीलिए उर्वशी ने अपने अतीत के प्रश्न-द्वार पर ताला तो नहीं डाल रखा है? उर्वशी के बारे में जानने की व्याकुलता पुरुरवा को पीड़ा देने लगी।

‘‘किस चिंता से व्याकुल हो, प्रिय?‘‘ उर्वशी ने पुरवा से प्रश्न किया था। 
हुआ यूं कि उर्वशी और पुरुरवा एक वृक्ष की शीतल छांव में बैठे हुए थे। उर्वशी ने वार्तालाप करते-करते अपना शीश पुरवा के वक्ष पर टिका दिया। उसी क्षण पुरुरवा के हृदय को यह विचार कचोट ने लगा कि हो सकता है इसी प्रकार कभी, किसी और पुरुष के वक्ष पर भी उर्वशी ने अपना शीश टिकाया हो। कौन जाने?
पुरुरवा वार्ता को विराम देकर मौन हो गया। जबकि उर्वशी समझ ही नहीं सकी कि पुरुरवा को अचानक किस चिंता ने ग्रस लिया। वह उस पल प्रेम के आनंद में डूबी हुई थी। यदि चैतन्य होती तो समझ जाती। पुरुषों के मन की बातें जानना उसके लिए कठिन नहीं था। पर उस समय तो वह प्रेम के अतिरिक्त और किसी विषय में सोच भी नहीं रही थी।
मन की व्याकुलता उचित और अनुचित के भेद को भुला देती है। एक दिन पुरुरवा उर्वशी के साथ प्रेमालाप में निमग्न था कि उसी समय उसके मन में बैठे जिज्ञासा के नाग ने फुंफकारे मारना आरम्भ कर दिया। पुरुरवा ने सोचा कि मुझे उर्वशी के साथ प्रेम संबंध स्थापित किए बहुत समय हो गया है। उर्वशी भी मेरे साथ की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि अब वह किसी भी दशा में मुझे छोड़कर नहीं जाएगी। अब मुझे उर्वशी से उसके बारे में पूछ लेना चाहिए। 
‘‘तुम कौन हो उर्वशी?‘‘ और पुरुरवा ने पूछ ही लिया।
‘‘ओह! अभागे पुरुष! ...तो तुम अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाए। तुम ने सिद्ध कर दिया कि तुम मानसिक दुर्बलता के पोषक हो। हे पुरुरवा ! तुमने अंततः मेरे वर्तमान और मेरे अतीत में से मेरे अतीत को ही चुना। तुम पुरुष स्त्री के अतीत में क्यों जीना चाहते हो? स्त्री के अतीत को लेकर किस बात से भयभीत रहते हो? यही भय रहता है न तुम्हें कि तुम्हारी आज की स्त्री ने अपने अतीत में किसी और पुरुष से दैहिक संसर्ग तो नहीं किया था? आज जो है उसे उस अतीत पर क्यों वारते हो जो न आज है और न भविष्य में कभी होगा। अतीत कभी न लौटने वाला समय होता है, उसके पीछे भागने से भला क्या लाभ? पुरुरवा! मेरे प्रिय! मेरा मन इस क्षण अपने प्रेम के लिए दुखी है। तुम्हारे लिए दुखी है। तुम्हारे पुरुषत्व के खोखले दम्भ पर लज्जित है। विदा पुरुरवा, चिरविदा !!‘‘ उर्वशी ने पुरुरवा से कहा और उसी पल वह स्वर्ग लौट गई।
प्रश्न पूछते समय भी पुरुरवा की मुट्ठी में उर्वशी का आंचल भिंचा हुआ था। इस भय से कि कहीं उर्वशी छोड़कर न चली जाए। उर्वशी चली गई किंतु आंचल का टुकड़ा फटकर पुरुरवा की मुट्ठी में दबा रह गया। पुरुरवा मुट्ठी में दबे रह गए आंचल के टुकड़े को देख कर व्याकुल हो उठा। उसे अपने प्रश्न पर पश्चाताप होने लगा। किंतु उर्वशी तो जा चुकी थी। पुरुरवा विलाप करता हुआ वनप्रांतर में भटकने लगा। वह उर्वशी का नाम ले लेकर पुकारने लगा। पुरुरवा का आत्र्तनाद स्वर्ग की अप्सरा तक पहुंच नहीं पा रहा था। यदि पहुंचता तो भी उर्वशी उस शंका को निर्मूल कैसे कर पाती जो पुरवा के हृदय में जड़ें जमा चुका था। विरह की ज्वाला से शंका का वृक्ष झुलस कर मृतप्राय पहले ही हो गया था किंतु अनुकूल वातावरण पाते ही उन्हें प्रस्फुटित भी तो हो सकता था। प्रेम के लिए शंका मृत्युदंड के समान होती है, निःसंदेह।

एक बार फिर वही दृश्य इंद्र के सभागार की रंगशाला का। जिसमें अप्सराएं नृत्यरत थीं। वादक वाद्ययंत्रों का वादन कर रहे थे और सोमरस का पान किया रहा था।
‘‘उर्वशी तुमने प्रेम का आनंद लिया?‘‘ उर्वशी इंद्र की उस रंगशाला में पहुंची तो इंद्र ने उससे पूछा। 
‘‘हां देवराज! ‘‘ उर्वशी ने उत्तर दिया। 
‘‘तो अब तो तुम जान गई होगी कि प्रेम क्या है?‘‘ इंद्र ने फिर पूछा। 
‘‘हां देवराज! ‘‘ उर्वशी ने स्वीकार किया। 
‘‘तो मुझे भी बताओ उर्वशी, प्रेम क्या है?‘‘ इंद्र ने प्रश्न किया। 
‘‘प्रेम वह सुगंधित, कोमल और सुंदर पुष्प है देवराज, जिसे यदि शंका की आग न झुलसाए तो वह सदैव पुष्पित रहता है अन्यथा पल भर में मुरझाकर भस्म हो जाता है।‘‘ उर्वशी ने व्यथित स्वर में उत्तर दिया।
उर्वशी इंद्र से पूछना चाहती थी कि क्या देवता भी मनुष्य का जन्म लेने पर स्त्री के प्रति शंकालु हो जाते हैं? किंतु उसने नहीं पूछा कि कहीं इंद्र उसकी भावनाओं पर कटाक्ष न करने लगे। तब उर्वशी को क्या पता था कि आने वाले सतयुग में विष्णु जब मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जन्म लेंगे तो उसे उसके इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। उसे तो यह भी पता नहीं था कि उसकी इस व्यथा-कथा को पुराणों में अपनी-अपनी पौरुषेय अभिलाषा के अनुरूप उद्धृत किया जाएगा और उसका उल्लेख भी ऐसी विचित्र स्त्री के रूप में किया जाएगा जो पुरवा के समक्ष शर्त रखती है कि ‘‘जिस घड़ी मैं तुम्हें नग्न देख लूंगी उसी क्षण तुम्हें छोड़ कर चली जाऊंगी।‘‘ 
जो उर्वशी काम कला में निपुण थी, जो उर्वशी पुरुरवा की अंकशयनी थी, उसे भला पुरुरवा की नग्न देह देखने में क्या आपत्ति हो सकती थी? कालिदास जैसे लेखनी के धनी व्यक्ति ने भी तो उर्वशी के साथ न्याय नहीं किया। उन्होंने उर्वशी को अपनी भावनाओं के अनुरूप ढालते हुए उसे ‘‘भेड़िए के समान हृदय वाली स्त्री‘‘ कह दिया। उस समय उर्वशी को क्या मालूम था कि पृथ्वीलोक में एक स्त्री की भांति रहने का उसे क्या-क्या मूल्य चुकाना होगा। 
कहते हैं कि पुरुरवा का व्याकुल हृदय अपनी शंकालु प्रवृत्ति पर लज्जित होते हुए आज भी उर्वशी को ढूंढता फिर रहा है, भटक रहा है युगों-युगों से....भटकता रहेगा युगों-युगों तक। भले ही अब उर्वशी कभी नहीं पूछेगी कि ‘‘तुम कहां हो पुरुरवा?’’ वह अब कभी किसी पृथ्वीलोकवासी से प्रेम नहीं कर सकेगी। उस अप्सरा के भीतर का स्त्रीत्व आहत् जो हो चुका है।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०८-०१ -२०२२ ) को
    'मौसम सारे अच्छे थे'(चर्चा अंक-४३०३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. प्रिय अनीता सैनी जी, चर्चा मंच में मेरी कहानी की पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार 🌷🙏🌷

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  2. कई प्रश्न उठाती और अनेक सवालों के हल खोजती सुंदर कहानी

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  3. बहुत ही उम्दा व शानदार कहानी मैम!
    बहुत ही खूबसूरती से एक एक शब्दों से बुनी गई है,
    शब्दों का चयन काबिल-ए-तारीफ है!
    कभी वक़्त निकाल कर हमारे ब्लॉग पर भी आइए और हमारी लेखनी पर अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया दीजिए आदरणीय मैम🙏

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