रविवार, जनवरी 24, 2021

छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | कहानी संग्रह - बाबा फ़रीद अब नहीं आते

Chhutki, Dhoop Ke Tukade Aur Samvidhan - Story of Dr (Miss) Sharad Singh

कहानी

छुटकी, धूप के टुकड़े और संविधान

- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह



यूकेलिप्टस की डालियां हवा में धीरे-धीरे डोल रही थी। जिसके कारण आंगन में फैले धूप के टुकड़े-टुकड़े फुटकते हुए प्रतीत हो रहे थे। सात बरस की छुटकी को धूप के टुकड़ों को इस तरह फुदकते  हुए देखना अच्छा लगता था। उस समय ये धूप के टुकड़े उसके काल्पनिक दोस्त बन जाते और छुटकी का मन भी उन्हीं धूप के टुकड़ों के साथ फुदकने लगता। अम्मा के पास इतनी फ़ुर्सत कभी नहीं रहती कि छुटकी का ध्यान रख सके। वह तो जब स्कूल जाने का समय होने लगता है तब अम्मा को छुटकी की सुध आती है।


‘‘चल री, पढ़ाई बंद कर और जल्दी से सपर-खोर ले। नें तो देरी हो जे हे।’’ अम्मा आवाज़ देती और छुटकी धूप के टुकड़ों का साथ छोड़कर झटपट उठ बैठती। जब वह चार बरस की थी तभी से उसने अपने हाथों नहाना-धोना सीख लिया था। अब तो कंघी -चोटी भी खुद ही कर लेती है। दरअसल, जब वह चार वर्ष की थी तभी अम्मा ने उसकी तीसरी बहन को जन्म दिया था। अम्मा की तबीयत दो-तीन माह ख़राब रही। उसी दौरान छुटकी में एक विशेष प्रकार की समझदारी आ गई। वह अपना काम तो निपटा ही लेती बल्कि अपनी छोटी बहन ननकी के बालों में भी कंघा फेर दिया करती। भले ही उसके इस अबोध प्रयास में ननकी के सिर की कोमल त्वचा खुरच जाती और ननकी बुक्का फाड़कर रोने लगती। ननकी का रुदन सुनकर अम्मा बिस्तर पर पड़ी-पड़ी चिल्ला उठती। छुटकी ननकी को चुप कराने जुट जाती। ज़िम्मेदारियों के बोझ तले छुटकी का बचपन कहीं दब-कुचल गया होता अगर इन धूप के टुकड़ों का साथ उसे न मिला होता।


स्कूल से लौटने पर उसे चाय बनानी पड़ती। अम्मा को चाय का प्याला देने के बाद बसी में चाय डाल-डाल कर ननकी को पिलानी पड़ती। ननकी जब सुड़प-सुड़प की आवाज़ें करती हुई चाय पीती तो छुटकी को उस पर बड़ा लाड आता। वह सोचने लगती कि यदि धूप के टुकड़े भी चाय पीते होते तो इसी प्रकार की आवाजें करते। उसकी यह बचकानी कल्पना उसे अजीब-सा सुख देती। तरह तरह के विचार उसके नन्हे मस्तिष्क में कौंधते रहते। कभी-कभी वह सोचती कि जब बादल की छाया को ‘बदली’ कहते हैं तो आदमी की छाया को ‘अदली’ क्यों नहीं कहते? अपने ऐसे सवाल जब कभी वह अम्मा से पूछ बैठती तो अम्मा झुंझलाकर कहती-‘‘मोय नाय पतो। अपनी मैडम जी से पूछ लइयो।’’


मैडम जी से पूछने की कभी हिम्मत नहीं हुई। अब कल की ही बात है मैडम जी ने बताया कि कल 26 जनवरी है। कल गणतंत्र दिवस मनाया जाएगा। छुटकी के मन में सवाल जागा कि ये गणतंत्र क्या होता है? वह मैडम जी से पूछना चाहती थी किंतु उसे लगा कि वह मैडम जी से पूछेगी तो वे उसे मारेंगी नहीं तो डांटेंगी ज़रूर। मैडमजी छुटकी की पट्टी पर बैठने वाली शालू को डांट चुकी है-‘‘बहुत पटर पटर करती हो, चुप बैठो।’’

शालू तो फिर भी पटर-पटर करती रहती मगर छुटकी की बोलती पूरी तरह बंद रहती है। मैडमजी के कक्षा में प्रवेश करते ही छुटकी की जुबान तालू से जा चिपकती है। 


‘‘काय री छुटकी, स्कूल जाने के नाय? काय कितने बजे पहुंचने हैं?’’ अम्मा ने हाथ-मुंह धोती छुटकी को आवाज़ लगाई।

‘‘सात बजे लों पहुंचने है अम्मां।’’ छुटकी ने हड़बड़ा कर उत्तर दिया। फिर छुटकी भीतर की ओर दौड़ पड़ी। उसने अपना गणवेश निकाला। स्कर्ट की दशा तो फिर भी ठीक थी किंतु कमीज की दशा देखकर छुटकी रुंआसी हो गई। मैडमजी ने कहा था कि सभी को धुली हुई, प्रेस की हुई ‘ड्रेस’ पहन कर आना है। कोई अगर कुछ बोलना चाहे- जैसे कविता, भाषण आदि तो बोल सकता है। फिर बूंदी बटेगी और फिर सब परेड ग्राउंड जाएंगे। कविता और भाषण क्या होते हैं, छुटकी को ठीक-ठीक पता भी नहीं है। भाषण तो शायद वही होता है जो प्राचार्य जी बोला करते हैं। वह भला छुटकी कैसे बोल सकती है? रहा सवाल कविता का, तो उसे एक ही कविता आती है-‘‘मछली जल की रानी है...’’। दूसरी कोई कविता उसे अब तक ठीक से याद नहीं हुई। यह कविता भी उसे इसलिए याद हो गई क्योंकि उसने कई-कई बार कल्पना की है कि यदि वह भी मछली होती तो छुटकी नहीं बल्कि ‘रानी’ कहलाती। छुटकी अपनी बहनों में सबसे बड़ी होकर भी अपनी बित्ता भर की कद-काठी के कारण छुटकी कहलाती है। उसने एक बार अपनी अम्मा से कहा भी था,‘‘हमाओ नाम रानी रख देओ।’’

‘‘अपने बापू से कहियो। बेई तो लिवा ले गए रहे स्कूल। पढ़बे की न लिखबे की, बाकी स्कूल के नाम से जी चुराबे खों खूबई मिल जाता है।’’ अम्मा ने हुड़क दिया था।

छुटकी सकपका कर चुप हो गई थी। लेकिन मन ही मन उसने तय कर लिया था कि जब वह अम्मा जितनी बड़ी हो जाएगी तो अपना नाम छुटकी से बदल कर रानी रख लेगी। 


शायद आज पता चल जाएगा कि गणतंत्र क्या है?- छुटकी ने सोचा। छुटकी ने जब से स्कूल में दाखिला लिया है, तीन गणतंत्र दिवस पड़ चुके हैं। प्रत्येक गणतंत्र दिवस पर वह सवेरे से स्कूल गई है किन्तु आज तक उसकी समझ में यह नहीं आ सका है कि यह गणतंत्र दिवस है क्या? पिछले साल गणतंत्र दिवस पर प्राचार्य जी ने बताया था कि इसी दिन संविधान लागू किया गया था पर यह संविधान क्या है? इस बार वह ज़रूर पता लगाएगी कि यह संविधान है क्या बला? छुटकी ने मन ही मन निश्चय किया और कमीज पर हथेली फेर-फेर कर सिलवटों को दूर करने का प्रयास करने लगी।

‘‘काय री छुटकी, इते का कर रई है? स्कूल नई जाने का?’’ अम्मा ने छुटकी को चेताया। 

‘‘अम्मा, जे बुश्शर्ट....।’’ छुटकी ने सफ़ाई देनी चाही।

‘‘हौ तो, चल, जल्दी कर!’’ अम्मा ने छुटकी की बात काटते हुए कहा,‘‘चाय पी ले, चैका में उतई ढंकी धरी है।’’


छुटकी ने फटाफट स्कर्ट और कमीज पहनी। चोटियां पहले ही गूंथ चुकी थी। जल्दी से चैका में पहुंची और ननकी की तरह सुड़प-सुड़प कर के चाय पीने लगी। चाय गरम थी। बसी ढूंढने का ‘टेम’ नहीं बचा था। गरमा-गरम चाय गले से उतारते समय छुटकी की जीभ चटाक से जल गई। आंखों में आंसू छलछला आए। किन्तु स्कूल पहुंचने की जल्दबाज़ी ने उसके कष्टों की पीड़ा की कम कर दिया। चाय ख़त्म करते ही उसने अपने दाहिने हाथ की हथेली के उल्टे भाग से अपना मुंह पोंछा और अम्मा को आवाज़ देती हुई बोली-‘‘अम्मा दरवाज़ा भिड़ा लइयो!’’

‘‘तुमई भिड़ात जइयो! मोए तो इते दम मारबे खों फ़ुरसत नइयां।’’ अम्मा ने पलट कर आवाज़ दी।


छुटकी ने बाहर निकल कर दरवाज़े के पल्ले उढ़काए और स्कूल की ओर भाग चली। उसके तेज-तेज उठते पैरों के साथ-साथ उसकी हवाई चप्पलें फटर-फटर आवाज़ें करती रही थीं। चप्पलों के कारण उड़ती धूल सरसों का तेल लगे उसके पैरों पर चिपकती जा रही थी। पर छुटकी को इसकी परवाह नहीं थी। बल्कि कहना चाहिए कि छुटकी का ध्यान अपने पैरों की ओर था ही नहीं। 


स्कूल के दरवाज़े पर पहुंचते-पहुंचते छुटकी की सांसें भर आईं। वह हांफने-सी लगी। स्कूल का छोटा-सा मैदान लड़कियों से भरा हुआ था। झंडे वाले खंबे पर झंडा गुड़ीमुड़ी कर के बंधा था। प्राचार्य जी जब रस्सी खींच कर जब झंडे को खोलते हैं तो उसमें से गेंदा, गुलाब और चांदनी के फूल गिरते हैं। छुटकी की तीव्र इच्छा हुआ करती है कि वह झंडे के नीचे जा पहुंचे और सारे के सारे फूल बटोर ले। 


आज भी घंटा बजते ही सबकी सब लड़कियां कक्षावार पंक्ति में खड़ी हो गईं। मैडमजी लोग और प्राचार्य जी झंडे वाले खंबे के पास आ कर खड़े हो गए। प्राचार्य ने रस्सी खींची। झंडा फहराने लगा। फूल ज़मीन पर आ गिरे। सब लड़कियां जोर-जोर से ‘‘जन गण मन’’ गाने लगीं। छुटकी भी सभी के साथ होंठ हिला रही थी। किन्तु उसका ध्यान ज़मीन पर बिखरे फूलों पर केन्द्रित था। उसके हाथ उन फूलों को उठा लेने के लिए कुलबुलाने लगे। इतने में गान समाप्त हो गया। प्राचार्य जी भाषण देने के लिए आगे आए। छुटकी चैकन्नी हो गई। वह ध्यान से भाषण सुनने लगी। छुटकी को लगा कि वह यह सब तो नहले भी सुन चुकी है। शायद पिछले साल या फिर इसी साल पंद्रह अगस्त को। उसी समय उसे सुनाई पड़ा प्राचार्य जी कह रहे थे कि -‘‘संविधान का मतलब होता है नियम-क़ायदा। हमें नियम-क़ायदे से रहना चाहिए। किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए।’’


तो ये होता है संविधान, छुटकी ने सोचा। उसे खुशी हुई कि उसे संविधान का मतलब पता चल गया। उसने खुश हो कर इधर-उधर देखा। मैडमजी लोग प्राचार्य जी का भाषण सुनती हुई कुछ खुसुप-पुसुर कर रही थीं। प्राचार्य जी का भाषण समाप्त हुआ। मैंडमजी ने आगे बढ़ कर कहा। सग लड़कियां अपनी-अपनी जगह पर बैठ जाएं। अब दो-तीन लड़कियां गाना गाएंगी फिर बूंदी बांटी जाएगी। छुटकी भी बैठ गई। गाना ख़त्म होते ही बूंदी बंटनी शुरू हो गई। छुटकी की हथेली जितने छोटे-छोटे पैकेट में भरी हुई बूंदी। बूंदी ले कर सब लड़कियां परेड ग्राउंड चल दीं। छुटकी को घर लौटना था। अम्मा ने सीधे घर आने को कहा था। वह घर की ओर भागी।


घर के आंगन तक पहंुचते ही उसे ननकी का रोना और भीतर से गाली-गलौज़ की आवाज़ें एक साथ सुनाई पड़ीं। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बाबू अम्मा को मार रहे थे। रोज़ मारते हैं, गालियां देते हैं। अम्मा रोती है, चिल्लाती है और कुटती-पिटती रहती हैं। दरवाज़े पर रोती खड़ी ननकी को छुटकी ने उठा कर कइयां ले लिया। वह आंगन के उस कोने में पहुंच गई जहां धूप के टुकड़े फुदकते रहते हैं। उसने ननकी को कइयां से उतार कर ज़मीन पर बिठा दिया। खुद भी बैठ गई। और बूंदी का पैकेट खोलने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी ननकी की नन्हीं हथेली पर रख दी। ननकी रोना भूल कर बूंदी की ओर ताकने लगी। छुटकी ने आधी बूंदी खुद फांक ली। 


बूंदी की मिठास महसूस करती हुई छुटकी सोचने लगी कि आज प्राचार्य जी ने बताया कि संविधान का मतलब होता है, हमें लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए। पढ़ना-लिखना चाहिए। इसका मतलब हुआ कि संविधान पढ़ने-लिखने वालों के लिए होता है, अम्मा-बाबू के लिए संविधान नहीं होता, शायद। और इन धूप के टुकड़ों के लिए? ननकी के लिए? क्या सबके लिए नहीं होता संविधान? छुटकी अपने सवालों के जाल में उलझने लगी।    

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( मेरे कहानी संग्रह ‘‘बाबा फ़रीद अब नहीं आते’’ से )


6 टिप्‍पणियां:

  1. सवालों का जाल केवल छुटकी के लिए नहीं, सभी चिंतनशील लोगों के लिए है । बहुत अच्छी कहानी लिखी है आपने शरद जी ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद जितेन्द्र माथुर जी 🙏
      आपको मेरी कहानी पसंद आई, यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है।

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  2. शिक्षाप्रद और सुन्दर कथा।
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    गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. हार्दिक धन्यवाद एवं आभार आदरणीय डॉ रूपचन्द्र शास्त्री जी 🙏
    आपकी टिप्पणी मेरे लिए सदा उत्साहवर्द्धक रहती है।
    आपको भी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌹🙏🌹

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  4. बहुत सुंदर कहानी, आपकी भाषा में एक सहज लय है और भावों में गहराई, बहुत बहुत बधाई इस कहानी संग्रह के लिए !

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