सोमवार, नवंबर 18, 2019

देशबंधु के साठ साल -1 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
 प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक ल
गेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है        

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की पहली कड़ी....


देशबंधु के साठ साल पूरे होने पर मैं एक लेखमाला लिख रहा हूँ। इसकी पहली कड़ी यहाँ प्रस्तुत है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का यह अध्याय आपको शायद पसंद आए।
शुभकामनाएं
ललित सुरजन, रायपुर 
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Lalit Surjan

देशबंधु के साठ साल -1
- ललित सुरजन

देशबन्धु ने साठ साल का सफर तय कर लिया है। हीरक जयंती के लिए बस दो दिन शेष हैं। शुभ मुहूर्त के हिसाब से रामनवमी संवत् 2016 को रायपुर से देशबन्धु का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था। प्रचलित कैलेण्डर के हिसाब से तारीख थी 17 अप्रैल 1959। वह तारीख भी छह दिन बाद ही है। हमारे घर में मालूम नहीं कब से यह मान्यता चली आ रही है कि ऐसी पांच तिथियां हैं जिनमें मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। ये हैं- बसंत पंचमी, रामनवमी, अक्षय तृतीया, दशहरा और धनतेरस। बाबूजी ने इसी विचार से शायद रामनवमी का दिन अपना स्वतंत्र व्यवसाय प्रारंभ करने के लिए चुना था। जैसा कि किसी भी उपक्रम में, और किसी भी व्यक्ति के जीवन में स्वाभाविक है, देशबन्धु को साठ साल की इस यात्रा में बहुत से उतार-चढ़ाव देखना पड़े हैं। बाबूजी को जानने वाले कहते थे कि मायाराम जी रेत में नाव चला रहे हैं। यह टिप्पणी सही भी थी और गलत भी। नाव चलाने के लिए पानी और पतवार दोनों चाहिए और आज वह क्षण है जब हम उन लोगों को याद करें जिन्होंने हमें स्नेह दिया, आत्मीयता दी, विश्वास दिया और जो समय-समय पर हमारे संबल बने।

देशबन्धु को पत्रकारिता का विश्वविद्यालय कहा जाता है। हमारे खाते में बहुत कुछ है जिस पर हमें संतोष होता है और जिस पर हम गर्व भी कर सकते हैं, लेकिन आज मैं उन लोगों का उल्लेख करना चाहता हूं जो देशबन्धु को इस मुकाम तक पहुंचाने में सहायक बने। बाबूजी के लिए रायपुर एक लगभग अपरिचित स्थान था। 1958 के अंत में जब उन्होंने एक समाचार पत्र समूह से दुखी मन से विदा ली तब उनके पास दिल्ली और बंबई के बड़े अखबारों में काम संभालने के ऑफर थे। स्व. देवदास गांधी ने उन्हें हिन्दुस्तान टाइम्स में आने का निमंत्रण दिया था। बाबूजी इसे शायद स्वीकार भी कर लेते, लेकिन सामने उन चालीस लोगों की आजीविका का प्रश्न था जो उनके साथ ही उस पत्र समूह से इस्तीफा देकर अलग हो गए थे। बाबूजी यदि चाहते तो जबलपुर, भोपाल, नागपुर में कहीं से नया अखबार निकाल सकते थे। इसके लिए भी उनके पास निमंत्रण थे। लेकिन वे अपने पूर्व नियोक्ता के साथ स्पर्द्धा करने के बजाय किसी ऐसी जगह जाना चाहते थे जहां उन्हें मानसिक शांति मिल सके।

1958 का रायपुर एक उभरता हुआ नगर था। यहां कुछ पुराने सहपाठियों के अलावा बाबूजी दो-तीन लोगों को विशेषकर जानते थे। इनमें रायपुर के विधायक और प्रभावी नेता शारदाचरण तिवारी थे जिनसे काफी पहले से पहचान थी। जब बाबूजी अखबार निकालने के लिए रायपुर आए तो कुछ दिनों के लिए तिवारीजी के घर पर ही रहे। आवास के लिए बैरन बाजार में किराए का मकान भी उन्होंने ही दिलाया और प्रेस के लिए सद्दानी चौक से श्याम टाकीज की सड़क पर प्रभुलाल हलवाई का मकान भी उनके ही सौजन्य से मिला। बाबूजी के साथ आए अधिकतर लोग ड्यूटी करने के बाद निकट स्थित तिवारीजी के श्याम टाकीज में ही जाकर विश्राम और स्नान-ध्यान करते थे।

दूसरे परिचित थे धमतरी के केशरीमल लुंकड़ जो सिने वितरक और सिने मालिक थे। केशरीमलजी बाबूजी को बहुत सम्मान देते थे। बड़ा भाई जैसा मानते थे और बाबूजी के निधन के बाद भी हम पर उनका स्नेह अंत तक बना रहा। उस शुरूआती दौर में कार नहीं थी तो केशरीमलजी ने अपनी गाड़ी भिजवा दी थी कि जब पैसा होगा तब इसकी कीमत चुका देना। मुझे यहां तीसरे सिने व्यवसायी सतीश भैया याने स्व. सतीशचंद्र जैन का ध्यान आता है। बाबूलाल टाकीज संभालने वाले सतीश भैया एक प्रबुद्ध नागरिक और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे विरल व्यापारियों में से थे जो पुस्तकें खरीदते और पढ़ते थे और जिनके साथ घंटों देश-दुनिया के विषयों पर चर्चा की जा सकती थी।

देशबन्धु का प्रकाशन इंदौर नई दुनिया के रायपुर संस्करण के रूप में प्रारंभ हुआ था। इंदौर में उसके तीन भागीदार थे- लाभचंद छजलानी याने बाबूजी, नरेन्द्र तिवारी याने चाचाजी और बसंतीलाल सेठिया याने भैयाजी। यह अपने समय की एक बेमिसाल भागीदारी थी। इंदौर वाले बाबूजी और उनके दोनों साथियों ने न सिर्फ रायपुर से अखबार निकालने में प्रारंभिक मदद की बल्कि लंबे समय तक उनका सहयोग इस अखबार को मिलता रहा। 1972 की रामनवमी को नई दुनिया रायपुर का नाम बदलकर देशबन्धु रखा गया। उसी साल देशबन्धु चितरंजन दास की जन्मशती भी थी। भागीदारी खत्म होने के बाद भी इंदौर के साथ हमारे पारिवारिक संबंध बने रहे। जब अखबार शुरू हुआ तो इंदौर से बाबूजी के पुत्र अभय छजलानी और बाद में रामचंद्र नेमा यहां काम जमाने में मदद हेतु कुछ समय के लिए आकर रहे।

जिन चालीस लोगों ने बाबूजी के साथ अपनी जमी जमाई नौकरी छोड़ दी थी उनमें से कुछ के नाम मुझे कभी नहीं भूलते। जैसे मशीनमैन छोटेलाल, कंपोजिंग फोरमैन दुलीचंद, जीतनारायण राय, गुलाब सिंह, रामप्रसाद यादव, ड्राइवर मारुतिराव, बाबूजी के स्वघोषित अंगरक्षक बाबूसिंह, फिर मोतीलाल गुप्ता इत्यादि। रामप्रसाद मुझसे उम्र में दो-एक साल बड़े थे। उद्यमी थे। उन्होंने कंपोजिंग के साथ-साथ सुबह अखबार बांटना भी शुरू किया और आगे चलकर यादव न्यूज एजेंसी भी खोली जिसे अब छोटे भाई व बेटे संभाल रहे हैं। मारुतिराव बिना कार के ड्राइवर थे और दफ्तर में जो काम समझ आए करते थे। उनकी मां जिन्हें हम सब आई कहते थे ने कठिन समय में जो हमारी मदद की उस पर बाबूजी का मार्मिक संस्मरण पठनीय है।

देशबन्धु की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता उसकी संपादकीय रीति-नीति और प्रयोगधर्मिता के कारण बनी है। बाबूजी स्वयं सिद्धहस्त पत्रकार थे और उन्होंने कुशल पत्रकारों की एक चमकदार टीम तैयार कर ली थी। पंडित रामाश्रय उपाध्याय एक तरह से इस टीम के वायस कैप्टन थे। मुझे के.आई. अहमद अब्बन, पंकज शर्मा और श्री सिद्दीकी की तिकड़ी का ध्यान आता है जो प्रारंभिक वर्षीें में सहयोगी थे और जिनकी प्रतिभा का अखबार को भरपूर लाभ मिला। पंडितजी के साथ दा याने राजनारायण मिश्र और कुछ दिन बाद सत्येन्द्र गुमाश्ता भी जुड़ गए थे। इन्होंने अखबार की धाक जमाने के लिए जो काम किया वह अविस्मरणीय है। सत्येन्द्र तो ताउम्र हमारे साथ ही काम करते रहे। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे जिन्होंने अनेक देशों की यात्रा की थी। कैंसर ने उन्हें हमसे असमय छीन लिया।

देशबन्धु के आंचलिक प्रतिनिधियों और संवाददाता में दुर्ग के धीरज भैया याने धीरजलाल जैन का नाम सर्वोपरि है। वे व्यवहार कुशल पत्रकार होने के साथ व्यापार कुशल भी थे। मुझे उनका बहुत मार्गदर्शन मिला। तखतपुर के दर्शन सिंह, दल्लीराजहरा के ओंकारनाथ जायसवाल, बागबाहरा के विष्णुराम परदेसी उर्फ भगतजी के नाम भी मुझे इस क्षण याद आ रहे हैं। मैं यहां गिरधर दास डागा का उल्लेख भी करना चाहता हूं। वे सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी थे। बैंक में हमारी साख जमाने का बड़ा श्रेय उनको जाता है। आज हम जहां हैं उसमें सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का बहुत योगदान रहा है। इस बारे में मैं आगे कभी लिखूंगा। अभी बहुत से व्यक्ति हैं जिनके नाम मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं उनकी भी चर्चा आगे होगी। अभी तो देशबन्धु की हीरक जयंती के अवसर पर हम अपने सभी पाठकों, अभिकर्ताओं, विज्ञापनदाताओं, मित्रों, सहयोगियों, सहकर्मियों और शुभचिंतकों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। हमें विश्वास है कि आपका स्नेह और सहयोग आने वाले समय में भी हमें मिलता रहेगा।
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#देशबंधु में 11 अप्रैल 2019 को प्रकाशित
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( प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

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