Dr (Ms) Sharad Singh |
पुस्तक समीक्षा
- डॉ.
शरद सिंह
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पुस्तक
- नारद की चिन्ता (व्यंग)
लेखक
- सुशील सिद्धार्थ
प्रकाशक- सामयिक बुक्स,
3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
मूल्य - रुपए 395
मात्र
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Narad ki Chinta |
समकालीन परिदृश्य बेहद जटिल है। आज मानव जीवन
का प्रत्येक यथार्थ उपभोक्तावादी यथार्थ बन कर रह गया है। अपनी इच्छा पूरी करने के
लिए सारे नियम-कायदे ताक में रखना आम बात हो गई है। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति ने
जोड़-तोड़ के द्वारा इच्छित वस्तु अथवा स्थिति को पाना दैनिक व्यवसाय बना दिया है।
जब प्रत्येक व्यक्ति अग्रघर्षण प्रेरणा शक्ति (एग्रेसिव पावर) के अपरिमार्जित रूप
से प्रेरित हो कर परम अहम् (सुपर ईगो) और इदम (इड) के प्रभाव में अविवेकी चेष्टाओं
को बिना झिझक अपनी जीवन शैली में आत्मसात करने लगता है तब इससे उत्पन्न दूषित
मनोवृत्तियों पर चोट करने का सबसे सशक्त माध्यम होती है-व्यंग विधा। यह लेखक के
लिए चुनौती के रूप में सामने आती है। एक संवेदनशील, सजग, पैनीदृष्टि रखने वाला विवेकशील लेखक ही व्यंग
को उसके सही रूप में साध सकता है। सुशील सिद्धार्थ एक ऐसे ही सिद्धहस्त व्यंगकार
हैं जो अपने व्यंगों के माध्यम से जहंा अव्यवस्थाओं, विषमताओं
एवं दुरभि चेष्टाओं पर करारी चोट करते हैं वहीं उनका कथ्य पूरी कोमलता के साथ
प्रवाहित होता है। ‘नारद की चिन्ता’ सुशील सिद्धार्थ का नवीनतम व्यंग संग्रह है।
इसमें वे पुस्तक की भूमिका लिखते हुए भूमिका कोे ‘आत्मश्लाघा’ का नाम देते हैं। जो स्वयं पर व्यंग कर सकता है
वही सशक्त एवं प्रभावी ढंग से तमाम विसंगतियों पर व्यंग कर सकता है। यही से संग्रह
में संग्रहीत व्यंगों के पैनेपन और चुटीलेपन का अहसास शुरू हो जाता है।
व्यंग समाज में व्याप्त उन विसंगतियों, विषमताओं एवं विद्रूपों की ओर ध्यान आकृष्ट
करता है जो मानवीय आचरण के विकारों अथवा मनोविकारों से उत्पन्न होते हैं। व्यंग
लेखन एक ऐसी साहित्यिक कला है जो रोचक, आकर्षक
होने के साथ ही साथ मनोचेतना पर प्रहार भी करती हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
के अनुसार-‘‘व्यंग वह है, जहां कहने वाला अधरोष्ठ में हंए रहा हो और
सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी
उपहासात्मक बना लेना हो जाता हो।’’
द्विवेदी जी ने व्यंग को जहंा कटाक्ष करने का
अचूक अस्त्र माना वहीं हरिशंकर परसाई ने इसे जीवन का परिचायक माना। परसाई के
अनुसार जीवन मात्र अच्छाइयों से भरा हुआ नहीं है, इसमें
बुराइयां भी हैं, झूठ भी है और विसंगतियां भी हैं। परसाई
ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि -‘‘व्यंग जीवन से साक्षात्कार कराता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, मिथ्याचारों
और पाखण्डों का पर्दाफाश करता है......यह नारा नहीं है।’’ वहीं अमृत राय मानते हैं कि ‘‘व्यंग पाठक के क्रोध या क्षोभ को जगा कर
प्रकारान्तर से उसे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सन्नद्ध करता है।’’
हिंदी साहित्य में व्यंग लेखन के क्षेत्र में
अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। इसलिए यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा रहा है और अक्सर व्यंग
के नाम पर बेहद सतही चीजें ही सामने आती रही हैं। हिन्दी व्यंग लेखन को समृद्ध
करने वाले हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद इस क्षेत्र में श्रीलाल शुक्ल का नाम
लिया जाता है। श्रीलाल शुक्ल के नाम राग दरबारी जैसा उपन्यास है जिसकी स्थिति
व्यंग की उनकी अपनी भंगिमा के कारण हिन्दी उपन्यासों में बिल्कुल अलग रही है। इसी
क्रम में व्यंग लेखन के क्षेत्र में सुशील सिद्धार्थ एक विश्वास भरा नाम है।
सुशील सिद्धार्थ के व्यंग भी पाठक के अंतर्मन
को झकझोर कर उसे जगाने और उसकी चेतना लौटा लाने का माद्दा रखते हैं। उनके ताजा
व्यंग संग्रह ‘नारद की चिन्ता’ में कुल पचहत्तर व्यंग संग्रहीत हैं।
संस्कृति के संरक्षण की आड़ में स्वार्थ की
पैंतरेबाजी को लेखक ने खूब ताड़ा है। लोक संस्कृति और लोक साहित्य के नाम पर किए
जाने वाले छद्म यानी तथाकथित प्रोजेक्ट्स योजनाओं के सच को सामने लाते हुए सुशील
सिद्धार्थ लिखते हैं कि ‘‘जीप लोकतंत्र की तरह किसी गंाव की ओर
भागी जा रही थी। मिशन लोक साहित्य। लोक काल के गुलगुले गाल में समा जाए, इससे पहले उसे पकड़ कर प्रोजेक्ट के पिंजरे में
डाल देना था।’’ (लोक साहित्य के अहेरी, पृ.15)
सुशील सिद्धार्थ की व्यंग्य रचनाएं मन में
गुदगुदी मात्र पैदा नहीं करतीं बल्कि उन सामाजिक वास्तविकताओं से रूबरू कराती हंै, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग
संभव नहीं है। लगातार खोखली और भ्रष्ट होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक
व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को लेखक ने बहुत ही निकटता से
पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढि़वादी जीवन-मूल्यों पर चोट करते हुए लेखक ने विषय
की गंभीरता को सदा ध्यान में रखा है और आधारभूत जीवन मूल्यों को सकारात्मक रूप में
प्रस्तुत किया है।
साहित्य जगत में आलोचना की पैतरेबाजी पर भी
लेखक ने जम कर कलम चलाई है। स्वनामधन्य आलोचक किसी नए लेखक को किस प्रकार बनाते और
बिगाड़ते हैं तथा किस प्रकार अपनी हठधर्मिता को दूसरों पर आरोपित करने का प्रयास
करते हैं, यह कटु सच्चाई व्यंग लेख ‘नए को नापो’ में
बड़े ही रोचक ढंग से सामने रखी गई है। एक आत्ममुग्ध आलोचक उद्घोष करता है कि ‘‘मैं हूं आलोचक।’’ फिर
वह अपनी बड़ाई इन शब्दों में करता है कि ‘‘मैं
अनथक अनवरत लिखे जा रहा हूं। सारी पत्रिकाएं खंगालता हूं और रचनाओं, लेखक-लेखिकाओं रूपी मोती सूचियों में बिखेर
देता हूं। मेरी ग्रहणशीलता और संवेदनशीलता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। कई बार तो
रचना छपने से पहले ही मेरे द्वारा महाकाव्यात्मक घोषित कर दी जाती है, भले ही छपने के बाद वह गुटका संस्करण ही साबित
हो।’’ (पृ.39-40) नए
लेखकों की रचनाओं को नापने का स्वयंभू आलोचकों का पूर्वाग्रही सांचा कुछ इस प्रकार
रहता है-‘‘मेरे लिए कसौटी यह है कि इसे किसने
लिखा है। लिखने वाला उचित है तो कहानी भी समुचित होगी।’’ (पृ.41)
लेखक की भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा है, जिससे पाठक को यही लगेगा कि लेखक उसके सामने ही
बैठा उससे संवाद कर रहा है। ‘एक पटु पटकथा’ में साहित्य और धारावाहिकों की पटकथा लेखन के
विषयगत समीकरण का रेशा-रेशा खोल कर रख दिया गया है। इसी व्यंग से एक उदाहरण देखें-‘‘आपके साहित्य में भी तो सुपारी लेने-देने का
रिवाज है। मैं खुद कई सुपारी लेखकों को जानता हूं। आप सहर्ष धारावाहिक की सुपारी
लें। धारावाहिक का नाम है-गुण्डाकथा वाया तड़ीपार।’’ (पृ.69)
सामाजिक विसंगतियो के प्रति गहरा सरोकार रखने
वाला ही लेखक सच्चा व्यंगकार हो सकता है। सामाजिक सिद्धांतों के नाम पर दोहरापन
ओढ़ कर जीने वालों पर करारी चोट करता है व्यंग लेख ‘ए
सुटेबल ब्वाय’’। स्त्री स्वतंत्रता पर बढ़-चढ़ कर बात
करने वालों के घर में स्त्री शोषित रहती है और ऐसे ही लोग अपने बच्चों के दोषों को
बड़ी सफाई से गोलमाल कर के उन्हें ‘सुटेबल’ के
रूप में स्थापित कर देते हैं -‘‘अब मेरी समझ में आ रहा है कि सुटेबल
ब्वाय या सुटेबल गर्ल होने के लिए आवश्यक है कि सुटेबल फादर या मदर भी हो।’’ (पृ़.87)
परंपरागत अध्यापकीय बोझिलता से परे उनके व्यंग
सहज संवाद करते हैं और अपनी बात को पाठक के मन-मस्तिष्क में उतार देने में
पूर्णतया सक्षम हैं। शैली का प्रवाह और भाषा का बोधगम्यता उनके व्यंगों को और अधिक
मुखरता प्रदान करती है। विचारों को सरलता से सामान्य जगत से गहनता में उतार ले
जाने वाला कौशल लेखक की कलात्मक क्षमता एवं विद्वता को भी प्रमाणित करता है। कहीं
भी बनावटी भाषा नहीं दिखाई देती। व्यंग्य में जो बिंब होने चाहिए, जो रूपक और चित्र-विधान होने चाहिए, वे सब स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं। सतर्कता
और विवेक व्यंग्य रचना के लिए अनिवार्य है। इस सतर्कता और विवेक के अभाव में छद्म
को न तो अनुभव किया जा सकता है और न जांचा सकता। सुशील सिद्धार्थ के व्यंगों में
समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है।
‘साठ
पार की कुछ योजनाएं’, ‘भूतपूर्व प्रेमिका से मुठभेड़’, ‘मेरा ज्योतिष प्रेम’, ‘मुखड़ा क्या देखे दर्पण में’ हास्य का भाव लिए गुदगुदाने वाले व्यंग हैं। ‘कामलगाओपनिषद से साभार’ भी एक ऐसा ही रोचक व्यंग है जो विघ्नसंतोषियों
के जीवन दर्शन से साक्षात्कार कराता है। ‘‘अपना
जीवन सरल बनाने और नजदीकी लोगों का जीवन कठिन बनाने की कला को ‘काम लगाना’ कहते
हैं।’’
देश की वर्तमान दशा पर पर चोट करता है व्यंग -‘कृपया पैर मजबूत करें’। अपने इस लेख में सुशील सिद्धार्थ बड़ी बारीकी
से विवरण प्रस्तुत करते हैं-‘‘मेरे भाई, अपना देश कब से अपने पैरों पर खड़ा होने की
कोशिश कर रहा है। लोगों के महल खड़े हो गए, कारखाने
खड़े हो गए, बैंक बैलेंस खड़े हो गए मगर देश? कुछ लोगों के अनुसार देश के पैरों पर बहस जारी
है। इनको किस कंपनी, किस नंबर का जूता पहनाया जाए, जूतों का रंग कैसा हो, इन तमाम बातों पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाई
है।’’ (पृ.170) इसी
प्रकार ‘मृत्युबोध’ में व्यंजनात्मकता की वह सुन्दर छटा देखने को
मिलती है, जो अंतर्मन को झकझोरे बिना नहीं रहती
है-‘‘जानम समझा करो, हम उस देश के वासी है, जहां जीवन नहीं मृत्यु की पूजा होती है। कई
लोगों के मरने की खबर अखबार में छपती है तो मालूम होता है कि ये भी जीवित थे।
जिन्दगी की खोज खबर लेना हमारी संस्कृति को रास नहीं आता।’’ (पृ.171)
‘नारद
की चिन्ता’ एक चु टीला
व्यंग है। ‘‘भारत में जो होता है, बस होता है या यूं कहो कि भारत में सब कुछ ‘कुछ कुछ होता है।’’ इस एक वाक्य में देश वर्तमान दशा और दिशा का
अनावरण हो जाता है। सुशील सिद्धार्थ के व्यंग लेखन की यह विशेषता है कि वे सजग
वेत्ता की भांति अपने चारो ओर के वातावरण को परखते, जांचते
हैं और फिर उन्हें विश्लेषणात्मक ढंग से अपने व्यंग में पिरोते हैं। संग्रह के लेख
सत्य पर आधारित हैं। इनकी केन्द्रीय वस्तु पाठक को सोचने पर विवश करती है।
प्रत्येक व्यंग कही गुदगुदाते हुए शुरू होता है , समाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक
कुप्रथाओं पर प्रहार करता है और अंत में सहमतियों से भरा एक गंभीर चिन्तन छोड़
जाता है। बहुत सीमित शब्दों में अपनी बात इस सुंदर शैली में कह पाना सुशील
सिद्धार्थ की विशेषता है। दैनंदनी जीवन की वे अनेक विसंगतियां जिन्हें देखकर भी हम
अनदेखा कर देते हैं , सुशील सिद्धार्थ की अन्वेषक दृष्टि से
बच नही पाई हैं। इसलिए प्रत्येक व्यंग के कथ्य में पर्याप्त विविधता है। ‘नारद की चिन्ता’ में
संग्रहीत व्यंग नावक के तीरों की भांति देखने में छोटे भले हों किन्तु उनमें चोट
करने की क्षमता भरपूर है। यही खूबी इस पुस्तक को बार-बार पढ़ने के लिए उत्साहित
करती है।
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