गुरुवार, जनवरी 30, 2020

देशबन्धु के साठ साल-23- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  तेईसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-23
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
आनंद भाटे रौबीले व्यक्तित्व के धनी थे। ऊंची पूरी कद-काठी। छह फुट से ऊपर के रहे होंगे। शुभ्र खादी का कुरता-पायजामा उन पर फबता था। प्रेस बूढ़ापारा में था तो उन्होंने भी पास में ही कहीं किराए पर घर ले लिया था। सड़क पर निकलते तो बारहां लोग उन्हें राजनीति के मशहूर शुक्ल बंधुओं का ही भाई समझने की गलती कर बैठते थे। भाटेजी पहले जबलपुर में बाबूजी के पास थे। फिर यहां-वहां घूमते-घामते शायद 1965 में रायपुर आ गए थे। हिंदी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। उनकी दोनों में टाइपिंग भी बढ़िया थी। पत्र लेखन की कला थी। इन्हीं गुणों के कारण बाबूजी ने उन्हें विज्ञापन प्रबंधक नियुक्त किया था। यदा-कदा वे बंबई व्यवसायिक दौरे पर भी जाते थे। बस, उनके जीवन में एक कमी थी कि वे नितांत अकेले थे। बाबूजी से कुछ ही बरस छोटे रहे होंगे, लेकिन विवाह नहीं किया था। रायपुर आए तो एक भोजनालय में मासिक ग्राहकी का अग्रिम शुल्क देकर सदस्य बन गए। फिर ऐसा हुआ कि अगले माह भोजनालय ने उनकी सदस्यता का नवीनीकरण करने से हाथ जोड़ लिए। तू नहीं और सही की तर्ज पर वे माह-दर-माह भोजनालय बदलते रहे। दरअसल, बात यह थी कि भाटेजी को क्षुधा तृप्ति के लिए जिस मात्रा में भोजन की आवश्यकता थी, वह तीन-चार ग्राहकों के बराबर होती थी। अग्रिम राशि ले ली तो एक माह सेवा करना मजबूरी थी, लेकिन उसके आगे नहीं। साल-डेढ़ साल बाद भाटेजी ने विवाह कर लिया और नागपुर से नवविवाहिता को साथ लेकर आ गए। उसके आगे न जाने क्या हुआ कि एक के बाद एक दोनों रायपुर छोड़कर चले गए। हमें बाद में उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। देशबन्धु के साठ साल के इतिहास का यह एक व्यक्तिपरक लेकिन रोचक अध्याय है।

आज कुछ ऐसी ही हल्के-फुल्के प्रसंग ध्यान आ रहे हैं। एक किस्सा राजनादगांव का है। यह साठ के दशक की बात है जब प्रदेश में रायपुर ही एकमात्र प्रकाशन केंद्र था और यहां से चार दैनिक समाचारपत्र प्रकाशित होते थे। स्वाभाविक है कि प्रदेश में अखबार जहां तक पहुंचते हों, वहां हर पत्र का अपना एक संवाददाता हो। इन दूरस्थ केंद्रों में पत्रकारों के बीच समाचार संकलन के लिए होड़ हो, स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो, यह भी स्वाभाविक अपेक्षा होती थी। लेकिन प्रदेश की संस्कारधानी के रूप में ख्यातिप्राप्त राजनादगांव इस मामले में एक अपवाद था। देशबन्धु (तब नई दुनिया रायपुर) में रानूलाल झाबक, नवभारत में मातादीन अग्रवाल, महाकौशल में दुलीचंद बरड़िया व युगधर्म में रामेश्वर जोशी क्रमश: कार्यरत थे। ये सभी मृदुभाषी, मिलनसार, व्यवहारकुशल सज्जन थे। खैर, यह मेरी ड्यूटी का अंग था कि सभी अखबारों का नितदिन तुलनात्मक अध्ययन करूं। इस प्रक्रिया में मैंने गौर किया कि राजनादगांव के समाचार चारों पत्रों में हू-ब-हू छपते हैं। मैंने झाबकजी से पूछा तो पता चला कि चारों मित्र एक साथ बैठकर समाचार तैयार करते हैं। लेखन का काम शायद जोशीजी सम्हालते थे। बाकी तीनों के अपने छोटे-बड़े व्यापार भी थे। एक ने लिखा, अन्य ने अपनी लिखावट में प्रतिलिपि तैयार की और लिफाफा रायपुर भेज दिया। मुझे मजबूरन आदर्श मैत्री संबंध को तोड़ने के अपराध का भागी बनना पड़ा। हमने नए संवाददाता की नियुक्ति की लेकिन अन्य पत्रों में यह सिलसिला कुछ और वर्षों तक चलता रहा। आज पचपन साल बाद हम फिर शायद उसी दौर में लौट आए हैं; बल्कि जो रिवाज़ सिर्फ एक केंद्र तक सीमित था, वह चारों तरफ फैल गया है। यह आज का व्यापक चलन है कि गांव में कोई एक पत्रकार, या शायद कंप्यूटर केंद्र का हिंदी ऑपरेटर ही सारी खबरें तैयार करता है और उसे अपने डेस्क टॉप से सभी पत्रों को भेज देता है। उसमें कई दफे हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मूलत: जो संवाददाता समाचार बनाता है, वह एक दिन या एक समाचार के लिए सभी पत्रों का संवाददाता बन जाता है।

बहरहाल, पाठक जानते हैं कि समाचारपत्रों को अनेक तरह के दबावों का सामना करना पड़ता है और इसके उद्गम भी अनेक हैं। उन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष चर्चा इस लेखमाला में बीच-बीच में होती रही है। आपके अखबार पर दबाव बनाने का एक दिलचस्प प्रसंग सत्तर के दशक में आया। उन दिनों छत्तीसगढ़ में सड़क परिवहन में कुछ कंपनियों का लगभग एकाधिकार था। अखबार के पार्सल दूर-दराज के गांवों तक बसों से ही भेजे जाते थे। इन बसों के परिचालन में बहुत सी धांधलियों की शिकायतें आती थीं- समय पर न चलना, कहीं भी रोक देना, टिकिट न देना, पैसे न लौटाना, ठसाठस सवारी भर लेना आदि। इस बारे में समाचार छपने से नाराज एक कंपनी मालिक ने बाबूजी को फोन-किया- आपका राजिम का संवाददाता ठीक नहीं है। उसे बदल दीजिए। मैं दूसरा बेहतर आदमी आपको देता हूं। बाबूजी ने जवाब दिया- मैं जिस दिन आपकी बस का ड्राइवर बदलने की सिफारिश करूं, उसी दिन आप मुझे, संवाददाता बदलने की सलाह दीजिए। उन्हें इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। उनका बस चलता तो शायद पेपर के पार्सल ले जाना ही बंद कर देते लेकिन वह दौर अपेक्षाकृत सहिष्णुता का था। आज की तरह अखबारों की भरमार नहीं थी। यह भी जानते थे कि देशबन्धु को झुकाना संभव नहीं है।

इसी से कुछ-कुछ मिलता-जुलता एक और प्रसंग संभवत् 1971 के आम चुनावों के समय घटित हुआ। संपादकीय विभाग में सारंगढ़ के आसपास किसी स्थान के एक श्री वाजपेयी कार्यरत थे। कविहृदय थे। हिंदी बहुत अच्छी थी। समाचारों की समझ भी वैसी ही थी। वे एक दिन लंबे अवकाश का आवेदन लेकर आए। इतनी लंबी छुट्टी किसलिए? मुझे अपने इलाके में चुनाव प्रचार के लिए जाना है। भैया का आदेश है कि छुट्टी लेकर आ जाऊं। बहुत काम करना है। मैंने अवकाश स्वीकृत नहीं किया। चुनाव का समय है। दफ्तर में ही इतना काम है। आपके जैसे कुशल साथी को छुट्टी दूंगा तो काम कैसे चलेगा? वे मन मसोस कर चले गए। दो दिन बाद भैया याने केंद्रीय राजनीति में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का फोन आया- अरे भाई ललित! वाजपेयीजी की जरूरत है। तुम उन्हें छुट्टी दे दो। यह तो संभव नहीं है। हमारे ऊपर ही इस वक्त काम का अतिरिक्त बोझ है। फिर वैसे भी हमारी घोषित नीति है कि हमारे पत्रकार किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं बन सकते। बात यहीं खत्म हो गई। श्री वाजपेयी बिना अवकाश स्वीकृत हुए चले गए। चुनाव समाप्त होने के बाद लौटे तो उनके लिए जगह खाली नहीं थी। फिर वे कहां गए, मालूम नहीं।

आज का अध्याय मैं एक बहुत मनोरंजक किस्सा बयान करके समाप्त करना चाहूंगा। यह घटना जबलपुर कार्यालय की है। साल 1962। एक सज्जन बाबूजी से मिलने आए। परिचय दिया- मैं कविताएं लिखता हूं। आपको सुनाना चाहता हूं। भाई, यह मेरे काम करने का समय है। इस वक्त कविता नहीं सुन सकता। किसी दिन गोष्ठी में आऊंगा तो सुन लूंगा। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कुरते की जेब से एक मोटा लिफाफा निकाला। इसे देख लीजिए। मेरे स्वलिखित गीत हैं। एकदम ताज़ा लिखे हैं। इनको पढ़ने का भी समय नहीं है। आप संपादकीय विभाग में हीरालाल जी गुप्त से मिल लीजिए। वे भी कवि हैं। आप उनको अपनी कविताएं दे दीजिए। छपने योग्य समझेंगे तो अवश्य छपेंगी। कवि महोदय ने इतना सुनकर भी न तो धैर्य खोया और न हिम्मत हारी। कुरते की दूसरी पॉकेट से एक पुड़ा निकाला। यह तो स्वीकार कीजिए। यह क्या है? जी, अपनी चौक पर पान की दूकान है। आपके लिए अपने हाथ से बनाकर लाया हूं। इतना सुनना था कि बाबूजी का पारा चढ़ गया। तुम कविता छपाने के लिए मुझे पान की रिश्वत देने आए हो। बाबूजी के तेवर देखकर कविजी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे चुपचाप बाहर आए और अपना रास्ता पकड़ा।
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#देशबंधु में 26 दिसंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

देशबन्धु के साठ साल-22 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बाईसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-22
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन में आए युवा अध्यापक बलराज साहनी को अंग्रेजी में लिखना छोड़कर मातृभाषा में लिखने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था- जब मैं मूलत: बांग्ला में लिख कर नाम कमा सका हूं तो तुम भी पंजाबी में क्यों नहीं लिख सकते? इस प्रसंग का उल्लेख करना आज की चर्चा में प्रासंगिक है।
देशबन्धु मेें 1969 में छत्तीसगढ़ी भाषा में स्तंभ लेखन प्रारंभ हो गया था। इस स्तंभ को सर्वप्रथम लिखने वाले थे- टिकेंद्रनाथ टिकरिहा। टिकरिहाजी वर्धा के गोविंदराम सेक्सरिया वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से जूनियर थे। इन लोगों ने मिलकर वर्धा हिंदी विद्यार्थी साहित्य समिति का गठन किया था और ''प्रदीप'' नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली थी। 1941-42 में प्रकाशित इस पत्रिका के दो अंक आज भी देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। मायाराम सुरजन संपादक थे। उनके साथ दो सह संपादक थे- सुखचैन बांसल व टिकेंद्रनाथ टिकरिहा।  हमारे पास जो प्रतियां हैं, उनमें ये तीनों नाम लिखे हैं और ये बाबूजी की हस्तलिपि में हैं। मेरा अनुमान है कि बांसलजी और टिकरिहाजी संपादन में सहयोग के अलावा हस्तलिखित प्रतियां भी तैयार करते होंगे! आगे चलकर श्री बांसल उसी जी.एस. कॉलेज की जबलपुर शाखा में वाणिज्य के प्राध्यापक और शायद प्राचार्य भी बने।  टिकरिहाजी भी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने घर रायपुर लौट आए होंगे।
मैं फिर अनुमान लगाता हूं कि रायपुर में अखबार स्थापित करने के समय बाबूजी और टिकरिहाजी के संपर्क दुबारा बने होंगे। यह संयोग था कि 1968-69 में ही मेरे आत्मीय मित्र, प्रसिद्ध रंगकर्मी व दुर्गा म.वि. में समाजशास्त्र के प्राध्यापक (स्व.) प्रदीप भट्टाचार्य ''बिल्लू'' ने अपने एक छात्र भूपेंद्र को मेरे पास संपादकीय विभाग में काम सीखने भेजा।  तभी मुझे मालूम पड़ा कि भूपेंद्र बाबूजी के छात्रजीवन के मित्र टिकरिहाजी के पुत्र हैं। बहरहाल, संपर्कों के इस नवीनीकरण का यह लाभ हुआ कि टिकेंद्रनाथ टिकरिहा की पत्रकारिता के प्रति रुचि फिर से जाग्रत हुई और उन्होंने हमारे लिए साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू कर दिया। मुझे फिलहाल याद नहीं आ रहा कि कॉलम का शीर्षक क्या था और उन्होंने स्वयं अपने लिए क्या छद्मनाम चुना था। जो भी हो, यह एक हिंदी समाचारपत्र में जनपदीय भाषा को प्रतिष्ठित करने का संभवत: पहला उपक्रम था। तब के मध्यप्रदेश के किसी भी अन्य अखबार में निमाड़ी, बघेली या बुंदेली में ऐसा कोई नियमित स्तंभ नहीं था और न शायद किसी अन्य प्रांत में किसी अन्य जनपदीय भाषा में। यह पहल छत्तीसगढ़ी भाषा में हुई और कहा जा सकता है कि इस तरह एक रिकॉर्ड बन गया।
टिकरिहाजी ने शायद अगले चार-पांच साल तक इस स्तंभ को जारी रखा। इस बीच परमानंद वर्मा हमारे संपादकीय विभाग में आए और किसी समय उन पर कॉलम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। परमानंद ने ''डहरचलती'' शीर्षक व ''डहरचला'' छद्मनाम से शायद बीस-पच्चीस साल तक छत्तीसगढ़ी का यह कॉलम लिखा। मैं अपनी स्मृति से ही ये सारे विवरण दे रहा हूं। (अफसोस कि अखबार की पुरानी फाइलें देखकर सही-सही समय लिखना संभव नहीं हो पा रहा है)।  ''डहरचलती'' देशबन्धु का एक अत्यन्त लोकप्रिय कॉलम तो था ही, साथ-साथ स्तंभ लेखक के लिए भी कई दृष्टियों से लाभकारी सिद्ध हुआ। कालांतर में उनकी छत्तीसगढ़ी रचनाओं की अनेक पुस्तकें पाठकों के सामने आईं जो इस कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित हो चुकी थीं। हमने छत्तीसगढ़ी भाषा का सम्मान करने के अपने प्रकल्प को एक साप्ताहिक स्तंभ तक ही सीमित न रख यथासमय उसे विस्तार देने की योजना पर भी काम किया।
1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ एक पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, लगभग उसी समय हमारे मन में एक विचार उठा कि देशबन्धु के संपादकीय पृष्ठ पर अग्रलेख के अलावा देश-दुनिया के मुद्दों पर एक संपादकीय छत्तीसगढ़ी में भी लिखा जाना चाहिए। इस दिशा में प्रयत्न हुआ, लेकिन यह प्रयोग अधिक दूर तक नहीं चल पाया। इसी दौरान देशबन्धु ने छत्तीसगढ़ी को राजभाषा घोषित करने व संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए भी एक हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस मुहिम में लगभग एक लाख हस्ताक्षर इकट्ठे हुए जो हमने भारत के राष्ट्रपति को प्रेषित कर दिए। यहां कहना होगा कि इस मुहिम को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी अपेक्षा हमने की थी। हस्ताक्षर संकलन के लिए शायद एक सघन अभियान की दरकार थी, जो किसी राजनैतिक दल के लिए ही मुमकिन था।
इसी दरमियान हमारे शुभेच्छु और रायपुर के भूतपूर्व लोकसभा सदस्य केयूर भूषण ने एक नया सुझाव सामने रखा, जिसे लागू करने में हमने देरी नहीं की। यह सुझाव था कि नए राज्य में एक साप्ताहिक कॉलम के बजाय हफ्ते में एक पूरा पेज छत्तीसगढ़ी भाषा को समर्पित करना चाहिए। इसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया। पन्ने का ''मड़ई'' नामकरण भी उन्होंने ही किया। मैं चाहता था कि स्वयं केयूर जी ही ''मड़ई'' का संपादन करें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी अहर्निश व्यस्तता के चलते यह संभव नहीं था सो शुरूआती दौर में परमानंद ने इसका संपादन भी किया। वे जब देशबन्धु से चले गए तो सुधा वर्मा ने यह दायित्व सम्हाल लिया। पिछले कई वर्षों से सुधा ही ''मड़ई'' का संपादन कर रही हैं। उसने भी इस तरह से एक नया रिकार्ड बना लिया है। इस साप्ताहिक फीचर के माध्यम से छत्तीसगढ़ी के अनेक लेखकों को अपनी रचनाशील प्रतिभा का परिचय देने का अवसर मिला है।
''मड़ई''  के नियमित प्रकाशन से मुझे प्रसन्नता तो है, लेकिन पूरी तरह संतोष नहीं है। हिंदी अखबार में छत्तीसगढ़ी को स्थान देने का निर्णय आकस्मिक और भावनात्मक नहीं, नीतिपरक और विचारात्मक था। हमारा मानना रहा है कि जनपदीय/ क्षेत्रीय/ आंचलिक/प्रादेशिक लघु भाषाओं का उन्नयन समाज के सर्वांगीण जनतांत्रिक विकास में सहयोगी होता है। इसलिए मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ी में लेखन का दायरा सिर्फ कविता-कहानी-व्यंग्य लेखन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसमें भी यदि नवोन्मेष न हो, किसी हद तक थोथा गौरव गान हो, वर्तमान की सच्चाईयों का वर्णन न हो तो ऐसा लेखन किस काम का?
एक कमी जो हिंदी में हमेशा महसूस की जाती है, वह अधिक बड़े रूप में छत्तीसगढ़ी में भी है। राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान इत्यादि तमाम विषयों में हमारी प्रादेशिक भाषा में लिखने की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। इस कमी को दूर करने पर ही छत्तीसगढ़ी का एक समृद्ध भाषा के रूप में विकास हो सकेगा। मुझे कभी-कभी यह शंका भी होती है कि छत्तीसगढ़ी के नाम पर एक ऐसी जमात बन गई है जो अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए भाषा के चतुर्मुखी विकास को रोक रही है। शायद हो कि हमारे वर्तमान नीति नियामकों का ध्यान इस ओर जाए!
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#देशबंधु में 19 दिसंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

गुरुवार, जनवरी 23, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 21- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  इक्कीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 21
- ललित सुरजन

   
Lalit Surjan
देशबन्धु के स्थापना वर्ष 1959 से लेकर 1979 तक प्रेस का संचालन पहले एक, फिर दूसरे किराए के भवन से संचालित होता रहा। 1977 में जब ऑफसेट प्रिंटिंग मशीन लगाने पर विचार हुआ तो साथ-साथ अपना प्रेस भवन होने की बात भी उठी। हमारे लिए यह एक महत्वाकांक्षी योजना थी। मशीन और भवन के लिए आवश्यक पूंजी का प्रबंध कैसे होगा? इस चिंता का समाधान करने में अनेक स्रोतों से मदद मिली। बैंकों से उन दिनों अखबारों को पूंजीगत ऋण नहीं दिया जाता था। बैंकों का एक तरह से अघोषित नियम था कि प्रेस, पुलिस, प्लीडर और पॉलिटीशियन- इन चार ''पी'' को क़र्ज़ न दिया जाए। डर होता था कि इनसे रकम वसूली करना टेढ़ी खीर साबित होगा। ऐसे समय म.प्र. वित्त निगम के रायपुर स्थित क्षेत्रीय प्रबंधक विश्वनाथ गर्ग सामने आए। आज 92 वर्ष की आयु में गर्ग भाई साहब का बाहर निकलना बंद हो गया है, लेकिन जब तक शरीर ने साथ दिया, वे पैदल ही नगर भ्रमण करते थे। बड़े पद पर होकर भी उन्होंने कार क्या, स्कूटर भी नहीं खरीदा। वे ऐसे वित्त प्रबंधक थे, जो कजर्दारों से कमीशन लेने के बजाय उन्हें स्वयं चाय पिलाते थे और दोपहर के भोजन का समय हो गया हो तो घर पर साथ भोजन के लिए ले जाते थे। उनका घर और दफ्तर एक ही जगह था। उन्होंने हमसे न सिर्फ ऋण प्रस्ताव बनवाया, बल्कि उसे स्वीकार कराने इंदौर मुख्यालय तक खुद गए। ऋण स्वीकृति में इंदौर में जो परेशानियां आईं, उनका विस्तृत विवरण बाबूजी ने आत्मकथा में किया है।

यह जिम्मेदारी मेरे ऊपर गर्ग साहब ने डाली कि मैं ऋण प्रस्ताव बनाऊं। मैं तीन-चार दिन बाद अपनी अकल से जैसा बना, प्रस्ताव लेकर गया तो उसे उन्होंने खारिज कर दिया। समझाया- सरकार में यह देखा जाता है कि फाइल कितनी मोटी है, यह नहीं कि सामने वाली की मंशा क्या है। उनके सुझाव के अनुसार मैंने दुबारा प्रस्ताव बनाया, जिसे देखकर वे खुश हुए। हमें मशीन व भवन के लिए त्रेपन लाख रुपए चाहिए, जिसमें लगभग पच्चीस प्रतिशत याने तेरह लाख की व्यवस्था हमें अपने स्रोतों से करनी थी। यह एक नई समस्या थी। हमारे पास तो तेरह हजार भी नहीं थे। यहां पर हमारे बैंक- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने मदद की। बैंक ने तेरह लाख रुपए का ब्रिज लोन याने अस्थायी ऋण देना मंजूर कर लिया, गो कि इसके लिए भी बाबूजी को बंबई मुख्यालय तक दौड़ लगाना पड़ी। शर्त ये थी कि एक साल के भीतर हम यह रकम लौटा देंगे। भवन बनने में एक साल तो लगेगा ही, मशीन उसके बाद ही आएगी, नए कलेवर में अखबार छपेगा, आमदनी बढ़ेगी, तब कर्ज पटाया जाएगा; ऐसे में बैंक की शर्त पर अमल कैसे होगा, यह एक नया सवाल खड़ा हो गया। इस मोड़ पर हमने जो प्रयोग किया, वह पत्र जगत में व छत्तीसगढ़ के जनसाधारण में तो चर्चा का विषय बना ही, स्वयं हमें हैरत हुई कि यह कैसा कारनामा हो गया!

इंग्लैंड के प्रसिद्ध पत्रकार क्लाड मॉरिस की आत्मकथा ''आई बॉट अ न्यूजपेपर'' (मैंने एक अखबार खरीदा) 1962 में प्रकाशित हुई थी। बाबूजी उसकी एक प्रति ले आए थे और मैंने भी तभी उस पुस्तक को पढ़ लिया था। मॉरिस ने वेल्स प्रांत के कस्बे में बंद होने की कगार पर खड़ा एक अखबार खरीदा और पाठकों व स्थानीय समाज के सहयोग से उसे वापिस प्रतिष्ठित किया। बाबूजी की तो प्रारंभ से ही यही सोच रही कि अखबार जनसाधारण के लिए जनता के सहयोग से ही चल सकता है। इस सोच को आजमाने का वक्त अब आ गया था। वरिष्ठ साथियों की बैठक में धीरज भैया ने सुझाव रखा कि हम दो हजार पाठकों को चिह्नित कर उनसे छह सौ रुपए की राशि स्थायी सदस्यता के नाम पर देने का आग्रह करें। उस समय छह सौ रुपए का सालाना ब्याज लगभग साठ-पैंसठ रुपए होता था और अखबार की एक प्रति का सालाना बिल भी लगभग इतनी ही राशि का बनता था। याने स्थायी सदस्य बन जाने से पाठक को नुकसान नहीं होगा। बाबूजी ने प्रस्ताव में संशोधन किया कि एक हजार रुपए लेना चाहिए। अखबार के मूल्य में आगे वृद्धि होगी ही, उसकी भरपाई के लिए इतना कुशन रखना चाहिए। और जो स्नेही पाठक छह सौ देगा, वह एक हजार भी दे सकेगा। यह बात सबको जंच गई। ''आजीवन ग्राहक योजना'' पर काम शुरू हो गया।

मुझे जहां तक याद पड़ता है- तब तक धार्मिक पत्रिका ''कल्याण'' ही शायद एकमात्र पत्रिका थी, जिसकी आजीवन सदस्यता उपलब्ध थी। संभव है कि कुछेक जातीय समाजों के मुखपत्रों में भी इस तरह की योजना रही हो! लेकिन एक दैनिक समाचारपत्र के लिए यह एक नई और किसी हद तक चौंकाने वाली पहल थी। इस पर तब ''टाइम्स ऑफ इंडिया'' में भी रिपोर्ट छपी। बहरहाल, प्रेस में लगभग हर वह सदस्य जिसके थोड़े-बहुत सामाजिक संपर्क थे, इस मुहिम को सफल बनाने में जुट गया। स्वाभाविक ही शुरूआत रायपुर से की, लेकिन अभियान पूरे प्रदेश में चला। जिला प्रतिनिधियों और संवाददाताओं ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। बाबूजी ने डोंगरगढ़ से लेकर रायगढ़ तक और बस्तर से लेकर सरगुजा तक जितना संभव हो सका दौरा किया। बाकी हम सब भी अपनी-अपनी संपर्क क्षमता की परीक्षा दे रहे थे। इस दौरान बहुत अच्छे अनुभव हुए। देशबन्धु को सहयोग देने में शायद ही किसी ने मना किया हो, बल्कि कई मित्रों ने आगे बढ़-चढ़कर सहायता की। कोई-कोई संभावित ग्राहक मजाक में पूछ बैठता था- आजीवन किसके लिए? हम भी हँसकर जवाब देते- अखबार चलते बीस साल हो गए हैं और आपके साथ हमारा जीवन भी लंबा चलने वाला है।

मैंने इस अभियान के दौरान प्रदेश के दूरदराज केंद्रों तक की यात्राएं कई-कई बार कीं जिनमें जिला प्रतिनिधियों ने बराबरी से साथ दिया। धीरज भैया, बलवीर खनूजा, भरत अग्रवाल, हरिकिशन शर्मा, ज्ञान अवस्थी, जसराज जैन आदि का यहां स्मरण हो आना स्वाभाविक है। रायपुर में तो सारे साथी थे ही। प्रतिष्ठित समाजसेवी व्यवसायी रामावतार अग्रवाल का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। उन्होंने एक दिन फोन किया- चलो घूमकर आते हैं। वे अभनपुर और नयापारा राजिम में अपने परिचित बंधुओं के यहां ले गए और आठ-दस ग्राहक बनवा दिए। एक रात मैं जगदलपुर से चार दिन बाद लौटा ही था कि फोन आया- कल सुबह चलना है। थका तो था, लेकिन मुहिम को कैसे छोड़ता? अगले दिन रामावतार भैया के साथ मैं खरोरा गया और वहां भी कुछ ग्राहक बन गए। मेरे बचपन के मित्र महेश पांडे पहले अंबिकापुर, फिर राजनांदगांव में पदस्थ थे। उनके मधुर संपर्कों का लाभ मिला। अंबिकापुर से एक दिन पत्थलगांव होकर जशपुर नगर गया। रात को लौटने में काफी देर हो गई थी। सीतापुर के पास एक झरने पर आधी रात पानी पीने आए बाघ के दर्शन भी हो गए। कह सकते हैं कि वह मेरे हिस्से का बोनस था।

इस तरह प्रतिदिन जो धनराशि एकत्र होती, उसे सीधे बैंक में जमा करते जाते थे। बैंक ने जो भरोसा किया था, वह गलत सिद्ध नहीं हुआ। यथासमय काम चलाने लायक भवन निर्माण हो गया, दिल्ली से बंधु मशीनरी कं. से ऑफसेट मशीन भी आ गई। दिलचस्प संयोग यह है कि अपने समय के गणमान्य पत्रकार देशबन्धु गुप्ता के पुत्रों ने ही ऑफसेट मशीन का कारखाना डाला था। प्रारंभ में जो सहयोग राशि एक हजार निर्धारित की थी, उसे कुछ वर्ष बाद बढ़ाकर दो हजार किया। उसमें भी पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। अधिकतर पुराने सदस्यों ने भी एक हजार की अतिरिक्त राशि खुशी-खुशी दे दी। सन् 2000 के आसपास आर्थिक संकट आने पर योजना को पुनर्जीवित किया और पांच हजार रुपए की सहयोग राशि तय की। तीसरे चरण में भी देशबन्धु के चाहने वालों ने निराश नहीं किया और कुछ मित्रों ने तो स्वयं रुचि लेकर अपने परिचितों को प्रेरित किया कि वे देशबन्धु की विकास यात्रा में सहभागी बनें। कुल मिलाकर यह एक हर तरह से लाभदायी अनुभव था। मुझे इस बात की प्रसन्नता तथा उससे बढ़कर संतोष है कि पाठकों के एक बड़े वर्ग ने देशबन्धु को एक विश्वसनीय समाचारपत्र माना और इसीलिए पत्र की प्रगति में योगदान करना उन्होंने उचित समझा। अपने इन सभी पाठकों व सहयोगियों का जो ऋण हम पर है, उसकी कीमत भला कौन आंक सकता है?
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#देशबंधु में 12 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

रविवार, जनवरी 19, 2020

देशबन्धु के साठ साल-20- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बीसवीं कड़ी....
देशबन्धु के साठ साल-20
- ललित सुरजन
समाचारपत्र जगत पर प्रारंभ से ही पुरुषों का वर्चस्व रहा है। अन्य अनेक व्यवसायों की भांति पत्रकारिता को महिलाओं के लिए निषिद्ध या अनुपयुक्त क्षेत्र माना जाता था। अखबार का स्वामित्व, संचालन, प्रबंधन, संपादन इन सभी विभागों की बागडोर पुरुषों के हाथ में ही हुआ करती थी। यह प्रवृत्ति भारत की नहीं, बल्कि समूची दुनिया में थी। किन्तु आश्चर्यजनक रूप से स्वाधीनता पूर्व भारत में कम से कम ऐसे तीन उदाहरण मिलते हैं, जहां स्त्रियों ने किसी पत्रिका का प्रकाशन-संपादन किया हो। हेमंत कुमारी चौधरी (रतलाम) ने 1888 में ''सुगृहिणी'' व सुभद्राकुमारी चौहान (जबलपुर) ने 1947 में ''नारी'' शीर्षक पत्रिका प्रारंभ की जबकि महादेवी वर्मा इलाहाबाद से प्रकाशित चांद के संपादक मंडल में थीं। आज़ादी मिलने के बाद इस परिपाटी को निभाने के लिहाज से मुझे एक ही नाम याद आता है- मनमोहिनी का, जिन्होंने अपने पति प्रकाश जैन के साथ बराबरी से चलते हुए अजमेर से प्रतिष्ठित पत्रिका ''लहर'' का संपादन किया। विदेशों के बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है, लेकिन एक महत्वपूर्ण अपवाद के रूप में कैथरीन ग्राहम का नाम है जिन्होंने पति फिलिप की मृत्यु के बाद वाशिंगटन पोस्ट का कारोबार सम्हाला था और जिनके निर्देशन में अखबार ने वाटरगेट कांड का खुलासा किया था। मेरे ध्यान में एक-दो नाम और भी हैं, लेकिन उनका प्रभाव उतना व्यापक नहीं था।

भारत में भी इसी तरह पारिवारिक घटनाचक्र के चलते अखबार का कामकाज अपने हाथों लेने वाली कुछ महिलाएं हुई हैं। हिंदुस्तान टाइम्स में शोभना भरतिया, महाराष्ट्र हेराल्ड (पुणे) में नलिनी गेरा और पुणे के ही मराठी पत्र सकाल में क्लॉड लीला परुलेकर- इन तीनों को ही अपने-अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का अवसर मिला। संचालन से हटकर संपादन की बात की जाए तो सबसे पहले प्रभा दत्त का नाम याद आता है, जिन्होंने 1964 में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादकीय विभाग में काम करना शुरू किया था। सामान्यत: उन्हें देश की पहली महिला पत्रकार माना जाता है। आज तो खैर, क्या अखबार और क्या टीवी चैनल, सब में स्त्री पत्रकारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। उनका वीमेंस प्रेस कोर ऑफ इंडिया नामक एक पृथक संगठन बन चुका है जिसका दिल्ली में एक सुव्यवस्थित दफ्तर भी चलता है। इसके साथ-साथ मीडिया संस्थानों के प्रबंध विभाग में महिला कर्मियों की नियुक्ति आम बात हो गई है। इतनी सब जानकारी और कहीं लिखने का प्रसंग आए या न आए, यह सोचकर यहां लिख दी है। यह पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए संदर्भ सामग्री के रूप में काम आ सकती है।
Lalit Surjan

इस पृष्ठभूमि में मुझे यह बताने में खुशी है कि देशबन्धु अविभाजित मध्यप्रदेश का संभवत् पहला अखबार था, जब 1970 में उसी समय कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर निकली उषा घोष हमारे व्यवस्था विभाग में काम करने आईं और लगभग तेरह साल तक अपनी सेवाएं इस संस्थान को दीं। मुझे जितना याद पड़ता है, भोपाल, ग्वालियर, इंदौर, जबलपुर के किसी भी पत्र में कोई महिला तब तक नियुक्त नहीं थी। मेरे सहयोगी रमेश शर्मा के माध्यम से उषा आईं थीं और उनको नियुक्ति देने में मुझे सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है, हमारा दफ्तर इस तरह की संकीर्णता से सदैव मुक्त रहा है। उषा घोष का आना रायपुर के पत्र जगत के लिए एक नई घटना थी, किंतु समय बदल रहा था। संपादकीय और व्यवस्था दोनों विभागों में धीरे-धीरे कर सभी अखबारों में महिलाओं का आगमन प्रारंभ हुआ और कहीं एकाध अपवाद छोड़कर इन सबने जिस भी पत्र में सेवाएं कीं, अपनी मेहनत, और काम के प्रति लगन से सहयोगियों की प्रशंसा अर्जित की। यहां कुछ सहकर्मियों का उल्लेख करना उचित होगा।

साठ के दशक में ''धर्मयुग'' में मास्को से हेमलता आंजनेयलु के संस्मरण छपते थे। तब पता नहीं था कि उनका पैतृक घर रायपुर में है। संभवत: आकाशवाणी से सेवानिवृत्ति के बाद वे घर वापिस लौटीं और देशबन्धु से जुड़ गईं। 1990 में भोपाल संस्करण प्रारंभ हुआ तो उन्हें फीचर संपादक बनाकर वहां भेजा गया। वीरा चतुर्वेदी एक लोकप्रिय अध्यापिका और कहानी लेखिका थीं। हिंदी-अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। वे भी रिटायर होने के बाद हमारे संपादकीय विभाग में आ गईं। उनके पढ़ाए अनेक छात्र प्रदेश की राजनीति और पत्रकारिता- इन दोनों क्षेत्रों में ख्यातिप्राप्त हैं। वीराजी ने बड़ी मेहनत से इंदर मलहोत्रा द्वारा लिखित इंदिरा गांधी की जीवनी का रोचक अनुवाद किया था। इंदरजी ने उसे धारावाहिक छापने की अनुमति भी दे दी थी, लेकिन प्रकाशक विदेशी मुद्रा में प्रकाशन अधिकार फीस चाहता था। उन दिनों यह एक असंभव सा काम था, सो हमारे हाथ निराशा ही लगी। मनोरमा शुक्ला से हमारे पारिवारिक संबंध हैं। घर-परिवार के दायित्वों से कुछ अवकाश मिला तो फीचर संपादक का गुरुतर दायित्व सम्हाल लिया। वे सुबह आठ बजे प्रेस आ जाती थीं और शाम चार बजे तक लगातार अपने काम में जुटी रहती थीं। उनके कार्यकाल में अवकाश अंक में खूब निखार आया। इन तीनों विदुषियों की अपनी प्रौढ़ावस्था में भी ऊर्जा और काम के प्रति लगन देखते बनती थी। प्रभा टांक कई भाषाओं की ज्ञाता थीं- गुजराती, अंग्रेजी, हिंदी, बांग्ला, मराठी आदि। उन्होंने देशबन्धु लाइब्रेरी को व्यवस्थित रूप दिया, कई युवाओं को इस काम में प्रशिक्षित किया, कुछ स्थायी स्तंभों का काम भी सम्हाला। इन सबका अमूल्य योगदान देशबन्धु की प्रतिष्ठा वृद्धि में सहायक हुआ।

शिवानी झा ने अपने कैरियर का प्रारंभ ही देशबन्धु से किया था। उसने संपादकीय विभाग की हर डेस्क पर समान दक्षता के साथ काम किया। अदालत की रिपोर्टिंग करने गई तो किसी बात पर खफ़ा एक जज साहब ने उसकी गिरफ्तारी का आदेश निकाल दिया। तत्कालीन डीआईजी आरएलएस यादव और सीएसपी रुस्तम सिंह की हिकमत से मामला सुलझा। जज ने प्रकरण वापस ले लिया। प्रेस के पास जवाहरनगर मोहल्ले में एक बालक के अपहरण और चतुराई से अपहरणकर्ताओं के चंगुल से भाग निकलने की खबर मिली तो शिवानी रिपोर्टिंग करने गईं। आकर बताया- बालक की कहानी मनगढ़ंत है। मैंने उसी तरह समाचार बनाने की अनुमति दे दी। अगली सुबह मोहल्ले के लोग देशबन्धु से बेहद नाराज हुए, लेकिन शाम होते-होते पुलिस ने हमारी रिपोर्ट की पुष्टि कर दी। विशेष बात यह कि शिवानी को काम सीखते हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे। उसने भारत अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी कई साल तक देशबन्धु के लिए रिपोर्टिंग की। शिवानी झा और आभा कोठारी, ऐसी दो युवा पत्रकार थीं, जिन्हें किसी भी पृष्ठ का काम सौंप दो, उसे अच्छे से करेंगी। उन दिनों प्रथम पृष्ठ के लिए रात्रि पाली में शायद ही महिलाएं कहीं काम करती थीं। इन दोनों ने बिना किसी संकोच के यह ड्यूटी भी पूरी की।

इन सबसे अलग और विशेष रूप से उल्लेखनीय गाथा सरिता धुरंधर की है। सरिता की कुछ माह पहले ही कैंसर से जूझते हुए पैंतालीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। सरिता ने बीस साल से कुछ अधिक समय तक देशबन्धु के संपादकीय विभाग में सेवाएं दीं। घर-परिवार की विषम परिस्थितियों के चलते हुए सरिता को इस कम उम्र में भी बहुत संघर्ष करना पड़ा। शिक्षक पिता की मृत्यु के बाद परिवार को सम्हालने की जिम्मेदारी उस पर ही थी।परिजनों की चिंता में सरिता ने कभी अपने स्वास्थ्य की परवाह नहीं की। अगर संयोगवश उसके पारिवारिक चिकित्सक डॉ. जवाहर अग्रवाल ने अपनी अनुभवी दृष्टि से अनुमान न लगाया होता तो उसे भान भी नहीं होता कि कैंसर उसकी जीवनशक्ति को क्षीण किए जा रहा था। बीमारी का पता चलने के बाद भी सरिता ने करीब चार साल तक काम किया। हर कीमोथैरिपी के अगले दिन ही, लाख मना करने के बावजूद वह ड्यूटी पर आ जाती। मेरे बाद मेरी माँ और अन्य लोगों का क्या होगा, उसे इसी बात की फिक्र लगी रहती थी। सरिता धुरंधर उन बिरले लोगों में थी, जिनके लिए अपना काम सर्वोपरि होता है। उसने कभी भी किसी काम के लिए मना नहीं किया, बल्कि सहज भाव से हर ड्यूटी निभाई। सरिता का इस तरह असमय चले जाना पूरे देशबन्धु परिवार के लिए शोक का विषय बन गया। बहरहाल, इस कड़ी में अभी कुछ और नाम बाकी हैं, जिन पर यथासमय चर्चा होगी।
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#देशबंधु में 05 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ. शरद सिंह

गुरुवार, जनवरी 16, 2020

देशबन्धु के साठ साल-19- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  उन्नीसवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-19
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
यह एक सामान्य धारणा बना दी गई है कि आरक्षण की व्यवस्था में प्रतिभा और योग्यता की अनदेखी होती है और अधिकतर अयोग्यजन उसका लाभ उठा ले जाते हैं। हम अपने साठ साल के सांस्थानिक अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यह धारणा गलत है। वर्चस्ववादी समूह आधे-अधूरे तथ्यों और आंकड़ों को सामने रख जानबूझ कर इस सोच को फैलाता है ताकि समाज के हाशिए पर पड़े समुदायों को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर मिलने में रुकावट पैदा की जा सके। देशबन्धु इसलिए आरक्षण नीति का स्पष्ट तौर पर समर्थन करते आया है, भले ही इस वजह से नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रधानमंत्री वीपी सिंह के कार्यकाल में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का देशबन्धु ने अनुमोदन किया था। मैंने स्वयं उस समय कुछ लेख लिखे थे। समाज के एक वर्ग की कई तरीकों की नाराजगी इस कारण से हमें झेलनी पड़ी। हमने विगत दशकों में आरक्षण को न सिर्फ वैचारिक समर्थन दिया है, बल्कि अपने प्रतिष्ठान में उसे व्यवहारिक तौर पर लागू भी किया है। इस दिशा में हम जितना कुछ करना चाहते थे, उतना नहीं कर पाए हैं, जिसके कारणों पर हमारा वश नहीं है।

छत्तीसगढ़ की जनता नरसिंह मंडल के नाम से भली-भांति परिचित है। रायपुर की पहचान बन चुका घड़ी चौक उनकी ही देन है, जब वे रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष थे। श्री मंडल को अधिकतर लोग प्रदेश की राजनीति के एक उभरते हुए सितारे के रूप में जानते आए हैं, जो असमय अस्त हो गया। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत देशबन्धु से ही की थी। वे कॉलेज में मुझसे शायद एक साल पीछे थे। राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे। 1966 में वे हमारे संपादकीय विभाग में आ गए थे। यहां वे दो साल के लगभग रहे। यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नरसिंह मंडल शायद रायपुर के पहले पत्रकार थे, जो किसी अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व करते थे। उन दिनों अन्य किसी हिंदी समाचारपत्र में या मध्यप्रदेश के किसी अखबार में कोई और भी दलित पत्रकार रहा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है।

भाई मंडल की सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी उन्हें पत्रकारिता की दुनिया से दूर ले गई, लेकिन अनुसूचित जाति या जनजाति के प्रतिभाशाली युवाओं का हमारे पेशे में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो उसका एक विशेष कारण है, जिस पर मीडिया की आलोचना करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। एक काबिल पत्रकार में जिन गुणों की तलाश की जाती है, वे गुण ही उसे अपेक्षाकृत सुरक्षित, संतोषजनक और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी सरकारी पद हासिल करने में सहायक होते हैं। किसी निजी मीडिया संस्थान में काम करने के बजाय ऐसे युवाओं की सामान्य रुझान प्राध्यापक, जनसंपर्क अधिकारी, यहां तक कि क्लर्क बन जाने की ओर होती है। हमने देशबन्धु में कई वर्षों तक संपादकीय विभाग में आवश्यकता के विज्ञापन जारी करते हुए हमेशा एससी/एसटी के लिए आरक्षण तथा प्राथमिकता का उल्लेख किया, लेकिन उसका कोई खास लाभ नहीं हुआ। जो आए भी, वे जल्दी ही किसी सरकारी अर्द्धसरकारी दफ्तर में काम करने का अवसर पा गए।

प्रेस के अन्य विभागों की स्थिति इस मामले में संपादकीय विभाग से हमेशा बेहतर रही है। विज्ञापन, प्रसार, लेखा, कंपोजिंग, मशीन आदि विभागों में जो भी सहकर्मी आए, उन्हें अपनी योग्यता के बल पर लगातार आगे बढ़ने का अवसर मिलता गया। संपादकीय विभाग में भी जिन साथियों को सरकारी नौकरी के सुरक्षित वातावरण की चाहत नहीं थी, उनके लिए भी प्रगति पथ पर कोई रुकावट नहीं थी। मुझे ऐसे साथी मिले हैं, जिन्होंने रात पाली में अखबार के बंडल बांधने से काम की शुरूआत की और आगे चलकर अखबार के संचालन में निर्णयकारी पद पर सेवा देकर यथासमय रिटायर हुए या फिर अखबार के बजाय कोई अन्य विकल्प चुन लिया। हमें इस बात का संतोष है कि देशबन्धु में जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर कभी भेदभाव नहीं किया गया। इतना ही नहीं, हमारे साथियों में बहुतायत उनकी रही जो छोटे-छोटे गांवों से या खेतिहर समाज से आगे आए। मुझे कई बार नरसिंह धुरंधर की याद आती है जो इसी तरह एक छोटे से गांव से आए थे। मुझसे आयु में दो-तीन वर्ष छोटे थे और प्रेस में क्लर्की से शुरूआत कर जनरल मैनेजर के पद तक पहुंचे थे। हमारा उन पर अटूट विश्वास था और नरसिंह ने उसे निभाया। उन्हें अक्सर लोग मेरा छोटा भाई ही समझते थे। न जाने कब-कैसे उन्हें मद्यपान की लत लग गई, जो उनकी सेवानिवृत्ति का कारण बनी, लेकिन उनके साथ आत्मीयता अंत तक बनी रही।

एक अलग किस्म का प्रकरण एक आदिवासी किशोर का है। उसकी मां कई घरों में चौका-बासन का काम करती थी। बड़ा भाई रिक्शा चलाता था। स्कूली शिक्षा किसी की भी नहीं हुई थी। बुधारू को उसकी मां के आग्रह पर हमने प्रेस में सुबह के समय साफ-सफाई करने के लिए रख लिया था। उन दिनों गत्ते के मैट्रिक्स से ब्लॉक बनाने की मशीन प्रेस में लग गई थी। उस पर भी सुबह के समय ही काम होता था। बुधारू वैसे भले ही अनपढ़ था, लेकिन मेहनती था, सीखने की ललक थी, और तकनीकी प्रतिभा थी। सुबह की अपनी ड्यूटी के समय वह मशीन पर ब्लॉक बनते देखता था। उसने कुछ ही समय में ब्लाक बनाना सीख लिया। स्वाभाविक ही उसकी पदोन्नति हो गई। कुछ साल बाद जब नहरपारा से वर्तमान भवन में आए तो यहां हमने छपाई के छोटे-मोटे कामों याने जॉब प्रिंटिंग के लिए ट्रेडल मशीनें डालीं। बुधारू ने यह काम भी सीख लिया और दक्ष मशीनमैन बन गया। उसका छोटा भाई राधेलाल भी इस बीच प्रेस में आ गया था। उसने ऑफसेट मशीन पर काम करना सीखा और हैड मशीनमैन के पद पर पहुंच गया। एक बार राधेलाल को जबलपुर की मशीन पर कुछ काम करने भेजा था। इधर रायपुर में ही मशीन में कुछ समस्या आ गई। मैंने रात ग्यारह बजे उसे फोन किया और उसके असिस्टेंट से बात करवाई। उसने समस्या समझी और फोन पर उसे सुलझाने के लिए आवश्यक निर्देश दे दिए। बात बन गई अन्यथा अगली सुबह अखबार न छप पाता।

एक और ऐसे प्रतिभाशाली सहयोगी की मृत्यु अभी कुछ माह पूर्व हुई है। वासुदेव मंडलवार ने लगभग पैंतीस-चालीस साल हमारे साथ काम किया और सेवानिवृत्ति के बाद भी पिछले दो साल से बदस्तूर काम कर रहे थे। वासुदेव ने भी प्रेस में साफ-सफाई और चाय-पानी पिलाने के काम से शुरूआत की थी। इस बीच हमने पाया कि वह अद्भुत स्मरणशक्ति का धनी है। फोन पर अगर कोई बात करो तो हू-ब-हू लिख लेगा। परिणाम यह हुआ कि उसे संपादकीय विभाग में टेलीफोन पर समाचार नोट करने की ड्यूटी दे दी गई। इस बीच विभिन्न केंद्रों के बीच टेलीप्रिंटर सेवा स्थापित की तो टाइपिंग ज्ञान के चलते उसे टेलीप्रिंटर विभाग की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। जब यह तकनीकी पुरानी पड़ गई और कंप्यूटर लग गए तो वासुदेव ने एक कुशल कंप्यूटर ऑपरेटर के रूप में अपनी योग्यता का परिचय देने में कसर बाकी नहीं रखी। इसी तरह किसी सहयोगी ने व्यवस्था विभाग में तो किसी ने समाचार लेखन में तो और किसी ने लेखा अधिकारी के पद तक पहुंचकर अपनी कर्मठता, परिश्रमशीलता और प्रतिभा की धाक जमाई। ये चमकदार अनुभव हमें निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की पैरवी करने प्रेरित करते हैं।
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#देशबंधु में 28 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

रविवार, जनवरी 12, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 18- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  अठारहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल- 18
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
देशबन्धु के शीर्ष (मास्टहैड) के साथ एक ध्येय वाक्य प्रतिदिन छपता है- पत्र नहीं मित्र। इसे हमने लगभग पचास वर्ष पहले अंगीकृत किया था। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना के पीछे शायद यह भावना भी काम कर रही थी। हमारा प्राथमिक उद्देश्य साधनहीन प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का था। लेकिन जैसे-जैसे कोष की गतिविधियों का विस्तार हुआ तो उसमें कुछ नए आयाम भी जुड़ते गए। मैं उनके बारे में कुछ समय बाद लिखना चाहता था, किंतु पिछले गुरुवार को कॉलम छपने के तुरंत बाद कम से कम दो ऐसी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिन्होंने मुझे कोष के बारे में अधिक विस्तार से तत्काल लिखने प्रेरित किया। एक तो धमतरी के एक युवा मित्र ने कोष के बैंक खाते के विवरण मांगे और पच्चीस हजार रुपए की सहयोग राशि उसमें जमा कर दी, इस अनुरोध के साथ कि उनका नाम उजागर न किया जाए। इसी तरह एक सहृदय डॉक्टर मित्र ने अपने स्वर्गवासी पिताजी और पत्नी-इन दोनों की स्मृति में कोष के माध्यम से कोई ठोस कार्य करने की इच्छा प्रकट की।

देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष में अनेक सेवाभावी व्यक्तियों ने उदार भाव से छात्रवृत्तियां स्थापित करने हेतु सहयोग किया। इनमें डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का उल्लेख एक विशेष कारण से करना होगा। महरोत्राजी जाने-माने भाषाविज्ञानी थे। देशबन्धु में प्रकाशित उनके साप्ताहिक कॉलम का उल्लेख पहले हो चुका है। श्री-श्रीमती महरोत्रा ने अपने सामाजिक जीवन में और बहुत सी बातों के अलावा एक और मिशन ले लिया था। वे विधवा और परित्यक्ताओं के पुनर्विवाह के लिए तन-मन-धन से काम करते थे। पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में जहां वे भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख थे, महरोत्रा दम्पति ने विधवा विवाह प्रोत्साहन के नाम पर स्वर्णपदक स्थापित किए। कोष में भी उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए पांच छात्रवृत्तियां स्थापित कीं। रविशंकर वि.वि. में ही अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाजशास्त्री प्रो. इंद्रदेव विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर अपनी पत्नी के निधन के बाद उनका पुस्तक संग्रह देशबन्धु लाइब्रेरी को दे दिया था और कोष को चार लाख रुपए की एकमुश्त राशि छात्रवृत्तियां स्थापित करने प्रदान कीं। कोष को प्राप्त यह सबसे बड़ा निजी आर्थिक योगदान था। इसी कड़ी में एनआईटी रायपुर के पूर्व डायरेक्टर प्रो. के.के. सुगंधी का भी जिक्र करना होगा, जिन्होंने अपने माता-पिता की स्मृति में शिक्षक सम्मान निधि की स्थापना कोष के द्वारा की।

यह उल्लेख करना शायद उचित होगा कि यद्यपि कोष की स्थापना देशबन्धु के द्वारा की गई है, लेकिन उसका संचालन एक न्यासी मंडल द्वारा किया जाता है, जिसके सदस्यों में शिक्षा, स्वास्थ, उद्योग, व्यापार आदि क्षेत्रों के जाने-माने व्यक्ति होते हैं। कोष की गतिविधियों से संबंधित कोई भी निर्णय लेने का संपूर्ण अधिकार उनके पास है तथा देशबन्धु का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। हमारी भूमिका न्यास को हर संभव सहयोग देने तक सीमित रहती है। यदि प्रेस की तरफ से कोई प्रस्ताव दिया जाए तो उस पर भी निर्णय उनका ही होता है। प्रसंगवश बता देना होगा कि वरिष्ठ अधिवक्ता बी.एस. ठाकुर ने एक लंबे समय तक न्यासी मंडल के अध्यक्ष का कार्यभार सम्हाला और 2003 में उनके निधन के बाद से सेवाभावी इंजीनियर शिव टावरी इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। श्री ठाकुर के समय 1996 में न्यास ने छात्रवृत्ति देने से एक कदम आगे बढ़कर एक दूरगामी निर्णय लिया और साधनहीन बच्चों के लिए मानसरोवर विद्यालय की स्थापना की। प्रारंभ में यह स्कूल हमारे आवास पर ही प्रारंभ हुआ, लेकिन कालांतर में प्रेस काम्पलेक्स में कोष का अपना भवन बनने पर वहां स्थानांतरित हो गया। इस स्कूल में अभी दो सौ के लगभग बच्चे पढ़ रहे हैं। श्रीमती सविता लाल विगत तेईस वर्षों से लगातार प्रिंसिपल का पद संभाल रही हैं।

कोष का भवन प्रेस काम्पलेक्स में क्यों है, उसकी भी एक कहानी है। जब प्रेस काम्पलेक्स के लिए भूमि आबंटन हो रहा था, तब हमने भी इस हेतु आवेदन किया, लेकिन बाबूजी का स्पष्ट विचार था कि हमें प्रेस के व्यवसायिक प्रयोजन हेतु जमीन नहीं चाहिए। अगर भूखंड मिल जाए तो उसका उपयोग शैक्षणिक-सांस्कृतिक कार्यों के लिए किया जाए। 18 दिसंबर 1998 को गुरु घासीदास के जन्मदिन पर भूमिपूजन कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मुख्य अतिथि और रामकृष्ण मिशन रायपुर के स्वामी सत्यरूपानंद ने अध्यक्षता की। भवन निर्माण के पहले चरण का लोकार्पण गांधी जयंती 2 अक्टूबर 2009 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया और दूधाधारी व शिवरीनारायण मठों के महंत राजेश्री रामसुंदर दास ने अध्यक्षता की। यह सभी न्यासियों की एक राय थी कि भवन बाबूजी की स्मृति को समर्पित होना चाहिए। मेरे सुझाव पर इसका नामकरण ''मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन भवन'' रखा गया। रजबंधा मैदान, जहां रजबंधा तालाब के नाम से एक विशाल जलाशय विद्यमान था, में भवन निर्माण आसान काम नहीं था। सबसे पहली कठिनाई तो दलदली जमीन पर नींव खड़ी करना था। बहरहाल, आर्किटेक्ट घाटे साहब के निर्देशन में यह काम सुचारू हुआ। कहना न होगा कि उन्होंने इस कार्य के लिए कोई फीस नहीं ली।

भवन निर्माण के लिए विशाल धनराशि की आवश्यकता पड़ना ही थी। यह भी सरल काम नहीं था, खासकर तब जबकि भूखंड का गैर-शैक्षणिक प्रयोजन हेतु उपयोग नहीं करना था। देशबन्धु के अपने साधनों से जितना संभव था, वह किया गया। लेकिन इसके साथ कोष को कई स्रोतों से सहायता मिली। राज्यसभा सदस्य श्रीमती मोहसिना किदवई, मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह, विधायक कुलदीप जुनेजा, विधायक श्रीचंद सुंदरानी इन सबने अपनी विकास निधि या स्वेच्छानुदान निधि से सहयोग किया। राजेश्री महंत रामसुंदर दास और न्यासी अधिवक्ता जीवेंद्रनाथ ठाकुर, अधिवक्ता टी.सी. अग्रवाल के सद्प्रयत्नों से भी काम इतना बना कि पहला चरण पूरा हो गया। ट्रस्टीगण प्रो. के.के. सुगंधी, इंजी. एल.एन. तिवारी, इंजी. ओपी अग्रवाल, पूर्व महापौर संतोष अग्रवाल, अग्रज मित्र नारायण जोतवानी आदि का भी भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। सरकार से शैक्षणिक प्रयोजन के लिए भूखंड मिला तो भवन का उपयोग उसी मंशा के अनुरूप हो रहा है। अभी एक बड़े सभाकक्ष आदि का काम जारी और न्यासीगण उस हेतु धनसंग्रह की मुहिम में व्यस्त हैं।

''पत्र नहीं मित्र'' ध्येय का पालन यहीं तक सीमित नहीं है। यह गांधीजी की एक सौ पचासवीं जयंती का वर्ष है तो उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की याद आना स्वाभाविक है। जो समाज से अर्जित किया है, उसे समाजहित में ही विसर्जित करना है। इसे ध्यान में रखकर हम लगातार नए-नए उद्यम करते रहे हैं। मसलन देशबन्धु प्रदेश का पहला अखबार था जिसने रक्तदान की मुहिम आज से तीस साल पहले चलाई। रात-बिरात फोन आते थे और हम रक्तदान करने वालों से अस्पताल जाने का निवेदन करते थे। इसे हमने तब रोका जब मालूम पड़ा कि स्वार्थी लोग खुद रक्तदान करने से कतराते हैं। इसके बाद नेत्रदान की मुहिम भी लंबे समय तक चली और फिर देहदान की भी। इन सबका सुपरिणाम मिला। समाज में इस दिशा में जो जागरुकता आज देखने मिलती है, उसमें किंचित योगदान आपके अखबार का भी है। अखबार वितरकों के लिए भी हमने अपने साधनों से हॉकर कल्याण कोष की स्थापना की, ताकि गर्मी, सर्दी, बरसात हर मौसम में घर-घर तक पेपर पहुंचाने वाले उन जनों की वक्त जरूरत मदद की जा सके, जिनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है। कारपोरेट मीडिया के वर्तमान युग में यह योजना अप्रासंगिक हो गई। 
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देशबंधु में 21 नवंबर 2019 को प्रकाशित 
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 प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

शनिवार, जनवरी 11, 2020

देशबन्धु के साठ साल-17- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  सत्रहवीं कड़ी....
देशबन्धु के साठ साल-17
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
स्वरूपसिंह पोर्ते 1983 में दुर्ग के जिलाधीश थे। उनकी प्रेरणा और निजी सहयोग से देशबन्धु ने एक नई पहल की, जिसके बारे में जानकर पाठकों को प्रसन्नता होगी। उस साल शायद मई-जून में कभी पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के बी.ए. के परीक्षा परिणाम घोषित हुए। उसके एक-दो दिन बाद बालोद (अब जिला मुख्यालय) की एक खबर देशबन्धु में प्रथम पृष्ठ पर छपी। दोनों हाथों से महरूम एक छात्र ने पैरों की उंगलियों से कलम पकड़ परीक्षा दी और बी.ए. में अच्छे नंबरों से सफलता हासिल की। खबर को पढ़ने के बाद जिलाधीश पोर्तेजी ने हमारे ब्यूरो प्रमुख धीरजलाल जैन से संपर्क किया और उसी दिन उनको साथ लेकर बालोद गए। वहां छात्र के घर जाकर उसे जनपद कार्यालय में नियुक्ति दे दी (छात्र का नाम यहां जानकर नहीं लिखा है)। बात यहां खत्म नहीं हुई। अगले दिन श्री पोर्ते रायपुर हमारे दफ्तर आए। उन्होंने मेरे सामने दो हजार रुपए रख दिए और मित्रभाव से सलाह दी- आप देशबन्धु की ओर से कोई फंड बनाइए, ताकि ऐसे होनहार जरूरतमंद लोगों की सही समय पर मदद की जा सके। सबसे पहले मैं इस फंड के लिए यह सहयोग राशि दे रहा हूं।

एक नेकदिल इंसान की इस पहल पर ना कहने का तो सवाल ही नहीं था। हमने जानकार लोगों से सलाह ली और जल्दी ही देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना हो गई। इन पैंतीस वर्षों में कोष के संचालन के दौरान अनेक नायाब अनुभव हुए। जब हमने कोष स्थापना का समाचार छापा और पाठकों से सहयोग की अपील की तो उसका उत्साहवर्द्धक प्रत्युत्तर हमें मिला। इसमें एक प्रसंग तो अत्यन्त मर्मस्पर्शी था। उन दिनों भारतीय डाकसेवा से ही चिठ्ठियां आती-जाती थीं। एक दिन डाक में एक लिफाफा आया। खोला तो भीतर दो रुपए का नोट और उसके साथ कॉपी के पन्ने पर टूटी-फूटी भाषा में लिखा पत्र था- हम रायगढ़ रेलवे स्टेशन के बाहर होटल में काम करने वाले बच्चे हैं। आप हम जैसे बच्चों की मदद कर रहे हैं। हमने अपने पास से दस-दस, बीस-बीस पैसे देकर यह दो रुपए इकट्ठा किए हैं जो आपको भेज रहे हैं। एक पन्ने के पत्र में ग्यारह-बारह बच्चों के दस्तखत थे। पत्र पढ़कर आंखों में आंसू आ गए। उन बालकों के भेजे दो रुपए बहुत कीमती थे, जिनका मोल कभी भी आंकना संभव नहीं होगा।

एक दिन सदर बाजार, रायपुर के प्रतिष्ठित नागरिक कस्तूरचंद पारख प्रेस आए। उनके कॉलेज में पढ़ रहे बेटे अभय का असमय निधन कुछ दिन पहिले हो गया था। पारखजी चाहते थे कि हम अभय की स्मृति में दुर्गा महाविद्यालय के लिए एक छात्रवृत्ति स्थापित करें। हमने उनकी शर्त मानने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। उन्हें हमारा तर्क समझ आया और वे पांच हजार रुपए की राशि भेंट कर गए, कि इससे वाणिज्य संकाय के किसी विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दी जाए। इस तरह अभय पारख स्मृति छात्रवृत्ति की स्थापना हुई। किसी के नाम से की जाने वाली यह पहली स्कॉलरशिप थी। कुछ अरसे बाद अंबिकापुर के प्रतिनिधि हरिकिशन शर्मा अपने परिचित श्री चंदेल के साथ आए। उन्होंने अपने पुत्र मणींद्र की स्मृति में छात्रवृत्ति देने हेतु राशि दी। इस तरह एक सिलसिला चल पड़ा। आज देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष से प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ सौ नामित छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। इनका निर्णय अध्यापकों की एक स्वतंत्र समिति करती है।

एक प्रेरणादायक प्रसंग प्रदेश के पहले राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय से संबंधित है। उनके ससुर मनोरंजन एम.ए. कविवर बच्चन के समकालीन एवं स्वयं समर्थ लेखक थे। सहाय साहब की रुचि से उनकी अनुपलब्ध पुस्तकों के नए संस्करण छपे। उन पर प्रकाशकों से अच्छी खासी रॉयल्टी भी मिली। सहायजी ने यह सारी राशि विभिन्न पारमार्थिक संस्थानों के बीच बांट दी। एक दिन उन्होंने फोन किया कि वे प्रेस आना चाहते हैं। प्रदेश के गवर्नर के तामझाम को कौन सम्हाले? मैंने निवेदन किया कि मैं खुद राजभवन आ जाता हूं। उन्होंने कहा कि काम तो मेरा है, मैं आऊंगा। फिर वे मेरी आनाकानी समझ गए। अपने एडीसी को मेरे पास भेजा। कोष के लिए पच्चीस हजार रुपए का निजी चैक साथ में पत्र। ससुरजी की किताबों से जो रॉयल्टी मिली है, वह समाज के काम में आना चाहिए। हमें इस धन की आवश्यकता नहीं है। उस राशि से कोष द्वारा एक और छात्रवृत्ति स्थापित हो गई। बाद में राज्यपाल शेखर दत्त और बलरामजी दास टंडन ने भी कोष की गतिविधियों की सराहना करते हुए सहयोग किया।

इस बीच एक रोचक प्रसंग और घटित हुआ। एक सेवानिवृत्त अधिकारी श्री चक्रवर्ती चाहते थे कि उनकी पत्नी की स्मृति में रायपुर के कालीबाड़ी स्कूल या फिर बंग समाज के किसी होनहार को छात्रवृत्ति दी जाए। हमने दोनों बातों के लिए इंकार कर दिया। यह काम आप सीधे संबंधित संस्था के माध्यम से कर सकते हैं। वे वापस चले गए। दो दिन बाद फिर आए। आपका कहना ठीक है। आप जैसा उचित समझें, छात्रवृत्ति दीजिए। चक्रवर्तीजी ने फिर एक नहीं, पांच छात्रवृत्तियों के लिए राशि दी। इसके बाद वे एक बार पुन: आए। मैं अपना निजी मकान कोष को दान करना चाहता हूं। उसमें आप वृद्धाश्रम चलाइए। उनके प्रस्ताव को न्यासी मंडल के सामने रखा। सबकी एक ही राय बनी कि यह अलग प्रवृत्ति का सेवाकार्य है, जिसे करने में हम समर्थ नहीं हैं। चक्रवर्तीजी को इस निर्णय से निराशा तो हुई, लेकिन क्या करते! देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की अपनी सीमाएं थीं।

इसी सिलसिले में रायपुर के पहिले वास्तुविद (आर्किटेक्ट) और अद्भुत व्यक्तित्व के धनी समाजसेवी टी.एम. घाटे का उल्लेख करना आवश्यक होगा। युवा वास्तुविद अक्षरसिंह मिन्हास का निधन हुआ तो घाटेजी की पहल पर रायपुर के सभी वास्तुविदों ने मिलकर शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) रायपुर में वास्तुशास्त्र के विद्यार्थियों हेतु एक पुरस्कार स्थापित किया। इसकी व्यवस्था का जिम्मा उन्होंने कोष पर डाल दिया और आवश्यक राशि यहीं जमा करवा दी। एक दिन घाटे साहब सुबह-सुबह प्रेस आए। यह शायद 1990 की बात है। आज रायपुर में प्रैक्टिस करते हुए मुझे पच्चीस साल पूरे हो गए हैं। मैंने जो कुछ भी अर्जित किया है, वह रायपुर के समाज की ही देन है। यह कहते हुए उन्होंने एक बड़ी रकम टेबल पर रख दी। इसे कोष में जमा कर लो। जिस काम में उचित समझो, इसका उपयोग कर लेना। हम कोष के आर्थिक सहयोग देने वालों के नाम अखबार में छापते थे। घाटे साहब ने इसके लिए भी स्पष्ट मना कर दिया। नाम छपने से अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है। मुझे किसी को प्रेरणा नहीं देना है। मुझे जो करना था, कर दिया है। मैं क्या करता? उनके स्वभाव को जानता था। लेकिन आज उनकी नाराजगी का खतरा उठाकर भी नामोल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा हूं।

देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की गतिविधियों के बारे में अभी बहुत कुछ लिखना बाकी है। यथासमय वह भी लिखने का 
प्रयत्न करूंगा।
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#देशबंधु में 14 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

रविवार, जनवरी 05, 2020

देशबन्धु के साठ साल-16- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  सोलहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-16
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
रायपुर नगरपालिका परिषद के आखिरी चुनाव 1957 में हुए थे। 1962 में नए चुनाव होना थे, लेकिन किसी कारण से नहीं हुए। 1967 में मध्यप्रदेश में संविद सरकार बनी। रायपुर के विधायक शारदाचरण तिवारी को स्थानीय स्वशासन मंत्री पद प्राप्त हुआ। नगरपालिका का दर्जा ऊंचा कर उसे नगर निगम होने का गौरव प्रदान किया गया, लेकिन दस साल से लंबित चुनाव फिर भी नहीं हुए। उल्टे प्रशासक बैठा दिया गया। दो साल बाद कांग्रेस सत्ता में लौटी। अब श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री पद हासिल हुआ, लेकिन नगर निगम चुनाव पर उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया। तब देशबन्धु ने चुनाव की मांग उठाते हुए अभियान छेड़ दिया। यह अभियान अखबार के पन्नों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि नगर में हम जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं आयोजित करने लगे। युवा वकील (स्व) रामावतार पांडेय इस मुहिम में प्रमुख तौर पर आगे आए। प्रभाकर चौबे, एडवोकेट जमालुद्दीन आदि अनेक मित्रों ने भी खूब साथ दिया। मुख्यमंत्री शुक्लजी परेशान हुए और नाराज भी। उन्होंने बाबूजी से शिकायत की- ललित हमारे खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। उत्तर में बाबूजी ने उन्हें चुनाव घोषित करने की सलाह दी। शुक्लजी ने कहा- अभी माहौल ठीक नहीं है, कांग्रेस हार जाएगी। इस पर बाबूजी की प्रतिक्रिया थी- चुनाव में हार-जीत तो चलती रहती है। बहरहाल, चुनाव टलते गए। देखते-देखते दस साल बीत गए। 1979 में जाकर चुनाव हुए और उसमें कानूनी दांवपेंचों के चलते नई परिषद को कार्यभार लेने में एक साल और लग गया।

इस प्रसंग की चर्चा करने का आशय यही है कि देशबन्धु ने एक तरफ जहां ग्रामीण पत्रकारिता पर विशेष ध्यान दिया, वहीं दूसरी ओर नगरीय क्षेत्रों का भी बराबर ख्याल रखा तथा बेहतर वातावरण कायम करने के लिए सकारात्मक व सक्रिय भूमिका निभाई। एक घटना और ध्यान आती है। 1938 में प्रो. जे. योगानंदम द्वारा स्थापित छत्तीसगढ़ कॉलेज प्रदेश का पहला महाविद्यालय था। इसमें एक से बढ़कर नामी प्राध्यापकों ने कभी अपनी सेवाएं दी थीं। भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे पेरी शास्त्री भी यहां व्याख्याता थे। कालांतर में जो भी स्थितियां बनीं, कॉलेज बंद होने के कगार पर पहुंच गया। 1967 में शिक्षासत्र प्रारंभ होने के पहले मात्र चालीस छात्र कॉलेज में बच गए थे। पुराने अध्यापकगण चिंतित हुए। प्रो. निर्मल श्रीवास्तव, शिवकुमार अग्रवाल, विपिन अग्रवाल आदि ने दौड़धूप करना शुरू की। हमने उनका खुलेमन से साथ दिया और कितने ही विद्यार्थियों को छत्तीसगढ़ म.वि. में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित किया। एक उदारमना सज्जन बाबू उग्रसेन जैन ने अपनी पत्नी की स्मृति में उसी कॉलेज भवन में चंपादेवी जैन रात्रिकालीन म.वि. स्थापित करने अच्छा-खासा दान दिया। उससे स्थिति कुछ सुधरी। फिर राज्य सरकार ने कॉलेज को शासनाधीन कर लिया तो संस्था बंद होने का संकट टल गया। कुछ साल बाद रात्रिकालीन म.वि. बंद कर दिया गया। चंपादेवी जैन का नाम लुप्त हो गया। दानदाता परिवार की आहत भावनाओं को हमने वाणी देने की कोशिश की लेकिन निष्फल।

कुछ दिन पहले प्रेस फोटोग्राफर गोकुल सोनी ने फेसबुक पर रायपुर नगर की एक पुरानी तस्वीर साझा की तो मुझे एक अन्य प्रसंग ध्यान आ गया, जिसमें देशबन्धु की भूमिका निर्णयकारी सिद्ध हुई। रायपुर का आज़ाद चौक वहां स्थापित गांधी प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है। प्रतिमा के पार्श्व में एक कुटीनुमा इमारत थी। यहां कभी रायपुर नगरपालिका का चुंगीनाका होता था। बाद में इसी इमारत में आजाद चौक पुलिस चौकी स्थापित कर दी गई थी। 1981-82 में पुलिस विभाग ने इकमंजिला पुराने मकान को तोड़कर पुलिस थाने की नई इमारत बनाना तय किया। वर्तमान में त्रिपुरा के राज्यपाल और अनुभवी राजनेता रमेश बैस निकटवर्ती ब्राह्मणपारा वार्ड से नगर निगम पार्षद तथा डाकू पानसिंह फेम विजय रमन रायपुर के जिला पुलिस अधीक्षक थे। हमने एक संपादकीय लिखकर सुझाव दिया था कि गांधी प्रतिमा के ठीक पीछे थाने होना वैसे भी अच्छा नहीं लगता। यहां बच्चों के लिए बगीचा विकसित करना बेहतर होगा। पुलिस थाना पास में ही रामदयाल तिवारी स्कूल के विस्तृत मैदान के एक कोने में ले जाया जा सकता है, जहां नगर निगम वैसे भी दूकानें निर्मित कर रहा है। रमेश बैस और विजय रमन दोनों को यह सुझाव जंच गया। थाने को भावी विस्तार के लिए मनमाफिक जगह मिल गई और गांधी प्रतिमा का बागीचा मोहल्लावासियों का फुरसत के पल बिताने का स्थान बन गया।

रायपुर के ऐतिहासिक स्वरूप को बचाने, विरासत स्थलों को संरक्षित रखने में भी देशबन्धु ने कई अवसरों पर कारगर पहल की है। रायपुर के हृदयस्थल जयस्तंभ चौक पर अवस्थित कैसर-ए-हिंद दरवाजा देशबन्धु की मुहिम के कारण ही बच सका है। ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया ने 1877 में "एम्प्रेस ऑफ इंडिया", भारत साम्राज्ञी या कैसर-ए-हिंद की पदवी धारण की, उस मौके पर तामीर यह विशाल द्वार भारत पर विदेशी हुकूमत का स्मृतिचिह्न है। यह दरवाजा संभवत: किसी सराय या खेल मैदान के प्रवेश द्वार के रूप में खड़ा किया गया था। युवा (तब) प्राध्यापक डॉ. रमेंद्रनाथ मिश्र ने इस बारे में देशबन्धु में फीचर लिखा था। जब यहां खुले प्लाट पर रवि भवन निर्माण का प्रकल्प बना तो इस ऐतिहासिक स्थान को तोड़ना भी योजना का हिस्सा था। तब हमने ''प्राणदान मांगता कैसर-ए-हिंद दरवाजा'' शीर्षक से रिपोर्ट प्रकाशित की और संबंधित पक्षों को हरसंभव उपाय से समझाया कि इसे संरक्षित रखा जाए। एक धरोहर स्थल बचने का संतोष तो मिला, लेकिन दूसरी ओर इस सच्चाई पर पीड़ा होती है कि रायपुर जाला अदालत का पुराना भवन, नलघर जैसी धरोहरों का संरक्षण करने में हम कामयाब नहीं हो सके। आनंद समाज लाइब्रेरी को मूल स्वरूप में बचाए रखने की हमारी अपील भी अनसुनी कर दी गई।

देशबन्धु ने एक अन्य सकारात्मक पहल रायपुर के व्यवस्थित यातायात को सुधारने की दिशा में की। यह भी 82-83 के आसपास की बात है। सिविल इंजीनियरिंग के अनुभवी प्राध्यापक प्रो. सी.एस. पिल्लीवार से बातों-बातों में इस बारे में चर्चा हो रही थी तो उन्होंने यातायात सुधारने की एक परियोजना ही तैयार कर ली। मैंने अपने एक सहयोगी की ड्यूटी लगा दी कि वह प्रतिदिन श्री पिल्लीवार से मिलकर उनसे सुझावों के आधार पर फीचर बनाए। इस तरह हमने कोई सत्रह-अठारह किश्तों की एक लेखमाला प्रकाशित की। कुछ सुझावों पर अमल हुआ, कुछ पर नहीं। लेकिन रायपुर पुलिस के लिए यह लेखमाला एक तरह की मार्गदर्शक नियमावली बन गई। जिसका उपयोग उसने कई बरसों तक किया। हमें भी यह सुकून मिला कि पुलिस की अक्षमता, भ्रष्टाचार, आतंक के बारे में तो आए दिन खबरें छपती ही रहती हैं, यह एक ऐसी पहल हुई जिससे समाज के सभी वर्गों का भला हुआ। दूसरे शब्दों में यह समाज और सत्ता के बीच एक अच्छे मकसद के लिए सेतु बनने की पहल थी।

एक अखबार लोकहित के किसी विषय पर आंदोलन तो छेड़ सकता है, किंतु उसकी सफलता अंततोगत्व जनता की भागीदारी व समझदारी पर निर्भर करती है। रायपुर के ऐतिहासिक और मनोरम बूढ़ातालाब को बीच से काटकर सड़क निकालने का हमने पुरजोर विरोध किया, लेकिन सत्ताधीशों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि जनता को वहां खाने-पीने की चौपाटी खड़ी करने का प्रस्ताव ज्यादा आकर्षक प्रतीत हो रहा था। बहरहाल, हमने जो भूमिका निभाई, उसकी हमें प्रसन्नता है।
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#देशबंधु में 07 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

गुरुवार, जनवरी 02, 2020

देशबन्धु के साठ साल-15- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh 
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  पंद्रहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-15
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
देशबन्धु में हमारी रुचि दीपावली विशेषांक के प्रकाशन में तो रहती थी, लेकिन दीवाली पर लक्ष्मीपूजन जैसे कर्मकांड में हमें न पहले दिलचस्पी थी, और न आज है। अलबत्ता जबलपुर में बाबूजी होली की शाम एक रंगारंग कार्यक्रम रखते थे और रायपुर में स्थापना दिवस रामनवमी पर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन सड़सठ-अड़सठ से करने लगे थे। इन दोनों में स्थानीय लेखक-कलाकार-रसिकजन बड़ी संख्या में शामिल होते थे। इस रवायत का एक संक्षिप्त अपवाद 1968 में हुआ। उसी साल प्रेस में पहिली फ्लैटबैड रोटरी मशीन लगी थी और जगह की ज़रुरत को देखते हुए हम बूढ़ापारा छोड़कर नहरपारा आ गए थे। उस साल दीवाली पर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि घर पर मैं अकेला था। बाबूजी सहित परिवार के सारे सदस्य जबलपुर में थे। प्रेस के साथियों का त्यौहार ठीक से मन जाए, इसकी भरसक व्यवस्था हमने की थी। मुझे अपने अकेले के लिए कोई खास आवश्यकता थी नहीं। इसलिए व्यवस्था में कुछ कसर बाकी रह गई तो जो छोटी-मोटी राशि मेरे पास बची थी, वह भी जेब से निकल गई। ऐसी परिस्थिति में रहने का पुराना अभ्यास था, इसलिए कोई चिंता नहीं हुई।

उन दिनों अखबारों में दीपावली पर तीन दिन का अवकाश रहता था। धनतेरस पर दिन का वक्त तो विशेषांक की थकान उतारने में बीत जाता था, लेकिन उसके बाद खाली समय बिताना मुझ जैसी बेचैन आत्मा के लिए कठिन होता था। खैर, तो 1968 में धनतेरस की शाम को मन में अचानक लहर उठी कि नई जगह, नई मशीन के लिए दीपदान करना चाहिए। मैंने साइकिल उठाई और अपने आत्मीय मित्र जमालुद्दीन के घर जा पहुंचा। जमाल और मैं कॉलेज के सहपाठी थे। रायपुर के दुर्गा म.वि. में 1964 में हमने साथ-साथ एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था और 66 में पास हुए थे। बाद में उन्होंने एलएलबी किया और वकालत के व्यवसाय में चले गए। एडवर्ड रोड और चूड़ीलाइन के संगम पर जमाल का घर था। नीचे चूड़ियों की छोटी सी दूकान और ऊपर रिहाइश। मैंने जमाल से इच्छा जाहिर की कि आज प्रेस में दिए जलाए जाएं। उस वक्त दूकान पर अम्मीं बैठी थीं। उनसे जमाल ने पांच रुपए लिए। पास ही गोलबाजार में सड़क किनारे किसी दूकान से हमने मोम के दिए खरीदे। उनका चलन नया-नया था। प्रेस जाकर मन की इच्छा पूरी की। दिए जलाकर वापिस आए और अम्मीं के हाथों का बना खाना खाकर मैं घर लौटा।

मुझे इक्यावन साल पुराना यह मार्मिक प्रसंग इस दीवाली पर बेसाख्ता याद आया। यह देश के बहुलतावादी सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के प्रति देशबन्धु की प्रतिबद्धता की एक बहुत छोटी मिसाल है, लेकिन मुझे लगा कि इसका संदेश जितनी दूर तक संभव हो, पहुंचाना चाहिए। जब दीवाली के दिन शुभकामनाओं के संदेश लगातार आ रहे थे तो उनके उत्तर में इस प्रसंग को ताजा करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पाया। फेसबुक, व्हाट्सअप पर फिर जो प्रतिक्रियाएं मिलीं, उनसे आश्वस्ति भी हुई कि भारतीय समाज का विश्वास जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद में बरकरार है। यद्यपि उसे पुष्ट करने की आवश्यकता है। बहरहाल, बात उत्सव की खुशियां मनाने की हो रही है तो कुछ अन्य बातें साझा करना उचित होगा। नहरपारा से जब 1979 में हम वर्तमान निज भवन में आए तो स्वाभाविक ही प्रेस में एक नए उत्साह का संचार हुआ। लक्ष्मी की कृपा पर विश्वास रखने वाले कुछेक वरिष्ठ साथियों ने धूमधाम से दीवाली मनाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन्हें मना नहीं किया।

नए परिसर में दीवाली पर पूजा करने का निश्चय हो गया। एक-दो साथी ऐसे थे, जिन्हें कर्मकांड का आधा-अधूरा ज्ञान था। उन्होंने ही पूजा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। स्टाफ के अनेक सदस्य परिवार के साथ दीवाली की शाम प्रेस आने लगे। पूजा के बाद दिया जलाने और फटाके चलाने का कार्यक्रम होता, जिसमें बड़े और बच्चे सभी उत्साह से भाग लेते। लेकिन यह नई परिपाटी रूढ़िबद्ध होती उसके पहले ही समाप्त हो गई। कर्मकांड में हमारी अरुचि ही शायद इसकी वजह रही हो! शायद साथियों की बढ़ती पारिवारिक व्यस्तता के कारण ऐसा हुआ हो! शायद धन की देवी को ही हमारे अनमनेपन से ठेस लगी हो! यूं तो राजेंद्र यादव ने ''जहां लक्ष्मी कैद है'' शीर्षक से रचना की, लेकिन लक्ष्मी क्या सचमुच कहीं टिक कर रह पाती है? महाकवि रहीम ने तो पांच सौ साल पहले कटाक्ष किया था- '' कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय/ पुरुष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय!'' इसलिए दीवाली प्रसंग को यहीं विराम लगाकर हम आगे बढ़ते हैं।

देशबन्धु की स्थापना रामनवमी के दिन हुई थी। उस दिन प्रेस में अवकाश भी रखा जाता था। किसी समय सहयोगियों के साथ बातचीत में प्रस्ताव आया कि रामनवमी पर सांस्कृतिक कार्यक्रम रखना चाहिए। इसमें यह भावना भी थी कि इस बहाने नगर के बुद्धिजीवी समाज के बीच अखबार की साख में वृद्धि होगी। अखबार निकलते सात-आठ साल हो चुके थे। अपने शुभचिंतकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के नाते भी यह एक उपयुक्त अवसर बन सकता था। मुझे अगर ठीक याद आता है तो 1969 की रामनवमी पर पहली बार हमने सुचारु आयोजन किया। वायलिनवादक दीपचंद पारख व मेरे मित्र गायक डॉ. चंद्रमोहन वर्मा इस आयोजन के प्रमुख कलाकार थे। श्रोताओं में समाज के सभी वर्गों के प्रमुख जन उपस्थित थे। इस आयोजन की खूब सराहना हुई। उससे आने वाले सालों में कार्यक्रम को और बेहतर तरीके से करने की प्रेरणा भी मिली। कार्यक्रम का रूप भी विकसित होते चला गया। पहले साल प्रेस के साथी ही थे तो अगले साल से परिवार के सदस्य भी आने लगे।

यह सालाना कार्यक्रम मुख्यत: संगीत संध्या के रूप में ही संपन्न होता था, जिसमें रायपुर के अलावा प्रदेश के अन्य नगरों के कलाकारों ने सहयोग देकर हमारा मान बढ़ाया। दिगंबर केलकर, मनोहर केलकर, तुलसीराम देवांगन, गुणवंत व्यास, रूपकुमार सोनी, कविता वासनिक, संजय गिजरे, अशोक श्रीवास्तव, मदन चौहान, सत्यरंजन गंगेले, जैसे अनेक गुणी कलावंतों ने इसे अपना कार्यक्रम मानकर ही प्रसन्न भाव से सहयोग किया। इसमें एक साल का उल्लेख विशेष रूप से करना होगा। पुणे से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ विनायकरावजी पटवर्द्धन रायपुर अपनी बेटी सुश्री कमलताई केलकर के घर आए थे। यह 1972 की बात है। उसी साल और उसी रामनवमी के दिन अखबार का नाम नई दुनिया से बदलकर देशबन्धु हुआ था। पटवर्द्धनजी ने हमारा आग्रह स्वीकार किया और अखबार को अपना आशीर्वाद देने शाम के आयोजन में शरीक हुए। यद्यपि पारिवारिक शोक के कारण उन्होंने गाने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी।

रामनवमी के दिन प्रेस में चहल-पहल का माहौल बन जाता था। प्रेस के सारे सदस्य सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित होते थे। संगीत संध्या के बाद अन्य अतिथि भी प्रीतिभोज में शामिल होते थे। जबलपुर में होली पर होने वाले आयोजन की अपनी अलग छटा थी। प्रसिद्ध कव्वाल लुकमान, मिमिक्री कलाकार कुलकर्णी बंधु और नायकर जैसे कलाकार भी इसमें शिरकत करते थे। 1963 की होली में इस मंच पर एक किशोर प्रतिभा का परिचय मिला। ये सुप्रसिद्ध बंशीवादक मुरलीधर नागराज थे, जो उस समय आठवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। रायपुर और जबलपुर के इन आयोजनों की रससिक्त स्मृतियां ही अब शेष हैं।
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#देशबंधु में 31 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह