रविवार, जनवरी 12, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 18- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  अठारहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल- 18
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
देशबन्धु के शीर्ष (मास्टहैड) के साथ एक ध्येय वाक्य प्रतिदिन छपता है- पत्र नहीं मित्र। इसे हमने लगभग पचास वर्ष पहले अंगीकृत किया था। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष की स्थापना के पीछे शायद यह भावना भी काम कर रही थी। हमारा प्राथमिक उद्देश्य साधनहीन प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने का था। लेकिन जैसे-जैसे कोष की गतिविधियों का विस्तार हुआ तो उसमें कुछ नए आयाम भी जुड़ते गए। मैं उनके बारे में कुछ समय बाद लिखना चाहता था, किंतु पिछले गुरुवार को कॉलम छपने के तुरंत बाद कम से कम दो ऐसी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं मिलीं, जिन्होंने मुझे कोष के बारे में अधिक विस्तार से तत्काल लिखने प्रेरित किया। एक तो धमतरी के एक युवा मित्र ने कोष के बैंक खाते के विवरण मांगे और पच्चीस हजार रुपए की सहयोग राशि उसमें जमा कर दी, इस अनुरोध के साथ कि उनका नाम उजागर न किया जाए। इसी तरह एक सहृदय डॉक्टर मित्र ने अपने स्वर्गवासी पिताजी और पत्नी-इन दोनों की स्मृति में कोष के माध्यम से कोई ठोस कार्य करने की इच्छा प्रकट की।

देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष में अनेक सेवाभावी व्यक्तियों ने उदार भाव से छात्रवृत्तियां स्थापित करने हेतु सहयोग किया। इनमें डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का उल्लेख एक विशेष कारण से करना होगा। महरोत्राजी जाने-माने भाषाविज्ञानी थे। देशबन्धु में प्रकाशित उनके साप्ताहिक कॉलम का उल्लेख पहले हो चुका है। श्री-श्रीमती महरोत्रा ने अपने सामाजिक जीवन में और बहुत सी बातों के अलावा एक और मिशन ले लिया था। वे विधवा और परित्यक्ताओं के पुनर्विवाह के लिए तन-मन-धन से काम करते थे। पं. रविशंकर शुक्ल वि.वि. में जहां वे भाषाविज्ञान विभाग के प्रमुख थे, महरोत्रा दम्पति ने विधवा विवाह प्रोत्साहन के नाम पर स्वर्णपदक स्थापित किए। कोष में भी उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देने के लिए पांच छात्रवृत्तियां स्थापित कीं। रविशंकर वि.वि. में ही अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त समाजशास्त्री प्रो. इंद्रदेव विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर अपनी पत्नी के निधन के बाद उनका पुस्तक संग्रह देशबन्धु लाइब्रेरी को दे दिया था और कोष को चार लाख रुपए की एकमुश्त राशि छात्रवृत्तियां स्थापित करने प्रदान कीं। कोष को प्राप्त यह सबसे बड़ा निजी आर्थिक योगदान था। इसी कड़ी में एनआईटी रायपुर के पूर्व डायरेक्टर प्रो. के.के. सुगंधी का भी जिक्र करना होगा, जिन्होंने अपने माता-पिता की स्मृति में शिक्षक सम्मान निधि की स्थापना कोष के द्वारा की।

यह उल्लेख करना शायद उचित होगा कि यद्यपि कोष की स्थापना देशबन्धु के द्वारा की गई है, लेकिन उसका संचालन एक न्यासी मंडल द्वारा किया जाता है, जिसके सदस्यों में शिक्षा, स्वास्थ, उद्योग, व्यापार आदि क्षेत्रों के जाने-माने व्यक्ति होते हैं। कोष की गतिविधियों से संबंधित कोई भी निर्णय लेने का संपूर्ण अधिकार उनके पास है तथा देशबन्धु का उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। हमारी भूमिका न्यास को हर संभव सहयोग देने तक सीमित रहती है। यदि प्रेस की तरफ से कोई प्रस्ताव दिया जाए तो उस पर भी निर्णय उनका ही होता है। प्रसंगवश बता देना होगा कि वरिष्ठ अधिवक्ता बी.एस. ठाकुर ने एक लंबे समय तक न्यासी मंडल के अध्यक्ष का कार्यभार सम्हाला और 2003 में उनके निधन के बाद से सेवाभावी इंजीनियर शिव टावरी इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहे हैं। श्री ठाकुर के समय 1996 में न्यास ने छात्रवृत्ति देने से एक कदम आगे बढ़कर एक दूरगामी निर्णय लिया और साधनहीन बच्चों के लिए मानसरोवर विद्यालय की स्थापना की। प्रारंभ में यह स्कूल हमारे आवास पर ही प्रारंभ हुआ, लेकिन कालांतर में प्रेस काम्पलेक्स में कोष का अपना भवन बनने पर वहां स्थानांतरित हो गया। इस स्कूल में अभी दो सौ के लगभग बच्चे पढ़ रहे हैं। श्रीमती सविता लाल विगत तेईस वर्षों से लगातार प्रिंसिपल का पद संभाल रही हैं।

कोष का भवन प्रेस काम्पलेक्स में क्यों है, उसकी भी एक कहानी है। जब प्रेस काम्पलेक्स के लिए भूमि आबंटन हो रहा था, तब हमने भी इस हेतु आवेदन किया, लेकिन बाबूजी का स्पष्ट विचार था कि हमें प्रेस के व्यवसायिक प्रयोजन हेतु जमीन नहीं चाहिए। अगर भूखंड मिल जाए तो उसका उपयोग शैक्षणिक-सांस्कृतिक कार्यों के लिए किया जाए। 18 दिसंबर 1998 को गुरु घासीदास के जन्मदिन पर भूमिपूजन कार्यक्रम में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मुख्य अतिथि और रामकृष्ण मिशन रायपुर के स्वामी सत्यरूपानंद ने अध्यक्षता की। भवन निर्माण के पहले चरण का लोकार्पण गांधी जयंती 2 अक्टूबर 2009 को तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया और दूधाधारी व शिवरीनारायण मठों के महंत राजेश्री रामसुंदर दास ने अध्यक्षता की। यह सभी न्यासियों की एक राय थी कि भवन बाबूजी की स्मृति को समर्पित होना चाहिए। मेरे सुझाव पर इसका नामकरण ''मायाराम सुरजन स्मृति लोकायन भवन'' रखा गया। रजबंधा मैदान, जहां रजबंधा तालाब के नाम से एक विशाल जलाशय विद्यमान था, में भवन निर्माण आसान काम नहीं था। सबसे पहली कठिनाई तो दलदली जमीन पर नींव खड़ी करना था। बहरहाल, आर्किटेक्ट घाटे साहब के निर्देशन में यह काम सुचारू हुआ। कहना न होगा कि उन्होंने इस कार्य के लिए कोई फीस नहीं ली।

भवन निर्माण के लिए विशाल धनराशि की आवश्यकता पड़ना ही थी। यह भी सरल काम नहीं था, खासकर तब जबकि भूखंड का गैर-शैक्षणिक प्रयोजन हेतु उपयोग नहीं करना था। देशबन्धु के अपने साधनों से जितना संभव था, वह किया गया। लेकिन इसके साथ कोष को कई स्रोतों से सहायता मिली। राज्यसभा सदस्य श्रीमती मोहसिना किदवई, मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह, विधायक कुलदीप जुनेजा, विधायक श्रीचंद सुंदरानी इन सबने अपनी विकास निधि या स्वेच्छानुदान निधि से सहयोग किया। राजेश्री महंत रामसुंदर दास और न्यासी अधिवक्ता जीवेंद्रनाथ ठाकुर, अधिवक्ता टी.सी. अग्रवाल के सद्प्रयत्नों से भी काम इतना बना कि पहला चरण पूरा हो गया। ट्रस्टीगण प्रो. के.के. सुगंधी, इंजी. एल.एन. तिवारी, इंजी. ओपी अग्रवाल, पूर्व महापौर संतोष अग्रवाल, अग्रज मित्र नारायण जोतवानी आदि का भी भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। सरकार से शैक्षणिक प्रयोजन के लिए भूखंड मिला तो भवन का उपयोग उसी मंशा के अनुरूप हो रहा है। अभी एक बड़े सभाकक्ष आदि का काम जारी और न्यासीगण उस हेतु धनसंग्रह की मुहिम में व्यस्त हैं।

''पत्र नहीं मित्र'' ध्येय का पालन यहीं तक सीमित नहीं है। यह गांधीजी की एक सौ पचासवीं जयंती का वर्ष है तो उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत की याद आना स्वाभाविक है। जो समाज से अर्जित किया है, उसे समाजहित में ही विसर्जित करना है। इसे ध्यान में रखकर हम लगातार नए-नए उद्यम करते रहे हैं। मसलन देशबन्धु प्रदेश का पहला अखबार था जिसने रक्तदान की मुहिम आज से तीस साल पहले चलाई। रात-बिरात फोन आते थे और हम रक्तदान करने वालों से अस्पताल जाने का निवेदन करते थे। इसे हमने तब रोका जब मालूम पड़ा कि स्वार्थी लोग खुद रक्तदान करने से कतराते हैं। इसके बाद नेत्रदान की मुहिम भी लंबे समय तक चली और फिर देहदान की भी। इन सबका सुपरिणाम मिला। समाज में इस दिशा में जो जागरुकता आज देखने मिलती है, उसमें किंचित योगदान आपके अखबार का भी है। अखबार वितरकों के लिए भी हमने अपने साधनों से हॉकर कल्याण कोष की स्थापना की, ताकि गर्मी, सर्दी, बरसात हर मौसम में घर-घर तक पेपर पहुंचाने वाले उन जनों की वक्त जरूरत मदद की जा सके, जिनके पास कोई सुरक्षा कवच नहीं है। कारपोरेट मीडिया के वर्तमान युग में यह योजना अप्रासंगिक हो गई। 
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देशबंधु में 21 नवंबर 2019 को प्रकाशित 
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 प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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