मंगलवार, दिसंबर 29, 2020

कथाकार शरद सिंह का स्त्री विमर्श | पुस्तक | डॉ. ममता एच. शिरगंबी

प्रिय ब्लॉग पाठकों, सुखद लगता है जब एक अपरिचित अहिन्दीभाषी लेखिका के शोध और अथक मेहनत के केंद्र में अपना सृजन दिखाई देता है 🙋
हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक शुभकामनाएं डॉ. ममता एच. शिरगंबी ! मैं आपके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूं 🌹💐🌹
Book Publisher : Vinay Prakashan Kanpur UP

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सोमवार, दिसंबर 28, 2020

धूपवाली सुबह की उम्मींद | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | लघुकहानी | ऑनलाइन कथापाठ

Dr (Miss) Sharad Singh

मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई द्वारा आयोजित ऑनलाइन कथापाठ में मेरे द्वारा पढ़ी गई लघुकहानी

लघुकहानी

                    धूपवाली सुबह की उम्मींद

                                     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 

जाड़े की रात अपना कहर बरपा रही थी। ठंड मानो आसमान से बरस रही थी और किसी बाढ़ आई नदी की तरह उस फ्लाई ओव्हर के नीचे से गुज़र रही थी जहां दर्जन भर से ज़्यादा परिवार सिकुड़े पड़े थे। उनके फटे कंबल और चीकट हो चली कथरियां उस ठिठुराते जाड़े से मुक़ाबला करने में असमर्थ थीं। वे लोग ठंड से अपनी जान बचाने की कोशिश में सिकुड़े जा रहे थे, एक-दूसरे से सटे जा रहे थे लेकिन जाड़े की थरथरा देने वाली रात मानों उनकी जान लेने पर उतारू थी। उन बेघर इंसानों और जाड़े के बीच जीने-मरने का यह संघर्ष जिस फ्लाई ओव्हर के नीचे चल रहा था। देश की राजधानी में बने अनेक फ्लाई


ओव्हर्स में से एक था यह। दिन भर रोज़ी-रोज़गार के लिए भटकने वाले मज़दूर रात को यहां सिमट आते। यही फ्लाई ओव्हर उनके लिए छत थी और उस फ्लाई ओव्हर के पाए उनके घर की दीवार। ऐसा घर न जिसमें खिड़की थी और न दरवाज़ा। एक काल्पनिक घर जो रात होते-होते उन्हें अपनी आगोश में बुलाने लगता। कमला भी उन्हीं में से एक थी। उसे जाड़े की मार से अपने पांच साल के नन्हें बच्चे को बचाते हुए एक पल अपना गांव याद आता तो दूसरे पल वह झुग्गी-झोपड़ी जिसमें लगभग छः माह पहले तक वे रहा करते थे। जाडा उसे झुग्गी में भी सताता था लेकिन इतना नहीं। वहां कम से कम चार दीवारें तो थीं, भले ही पक्की नहीं थीं लेकिन ठडी हवाओं बचाती तो थीं। इस फ्लाई ओव्हर के नीचे तो कोई बचाव नहीं है। 

कमला ने देखा उसका पति नत्थू इस तरह गुड़ीमुड़ी हो कर सोया हुआ था कि उसके घुटने उसके सीने से सटे हुए थे और सिर भी सीने की ओर झुका हुआ था, मानो वह गोल-मोल हो कर ठंड को चकमा देना चाहता हो। इतनी कठिन परिस्थिति में भी कमला उसे देख कर मुस्कुरा दी। उसे याद आ गया वह दृश्य जब लाॅकडाउन के दौरान यही दिल्ली छोड़ कर उन्हें वापस अपने गांव लौटना पड़ा था। आगरा तक एक ठेला मिल गया था। फिर आगरा से आगे पैदल सफ़र था। जितनी तीखी ठंड इन दिनों है, उतनी ही तीखी गरमी पड़ रही थी उन दिनों। बिलकुल झुलसा देने वाली। रात वे लोग गंावों के बाहर सड़क के किनारे गुज़ारते और तब थका-मांदा नत्थू हाथ-पांव फैला कर पसर जाता। पलक झपकते ही उसे नींद आ जाती। वही हाथ-पावं फैला कर सोने वाला नत्थू आज कपड़े की गेंद की तरह गोल हुआ जा रहा था।

 कमला को याद आया कि कोरोना आपदा के चलते रोजगार छूटा तो सारे मज़दूर महानगर छोड़ अपने-अपने गांवों की ओर निकल पड़े थे। कमला और नत्थू भी। अपार कष्ट सहते हुए, बड़ी उम्मींद ले कर वे लोग अपने गांव लौटे थे कि वहां उन्हें उन लोगों से सहारा मिल जाएगा जिनके लिए वे लोग अपना पेटकाट कर रुपए भेजा करते थे। मगर गांव पहुंचते ही सारे भ्रम टूट गए। पहले तो गांव में घुसने नहीं दिया गया। कोरोना की जंाच-पड़ताल के बाद जब उन्हें गांव में घुसने की इजाज़त मिली तो नत्थू के सगे छोटे भाई को यह रास नहीं आया कि उसका बेरोज़गार भाई अपनी बीवी और बच्चे के साथ उस पर बोझ बने। नत्थू और कमला अपने ही घर में गुलामों से बदतर हालत में जीने को मज़बूर हो गए। मानाकि भाई का दूकानदारी मंदी थी लेकिन इतनी भी नहीं कि वे सहारा न दे सकें। 


नत्थू और कमला दो निवालों के लिए खून का घूंट पीते रहते। जो कुछ दिल्ली में जोड़ा था वह लौटते समय रास्ते में सब खर्च हो गया था। इस कंगाल दशा में वे उस भाई पर निर्भर थे। चंद महीनों में लाॅकडाउन खुला तो नत्थू ने फिर एक बार महानगर की राह पकड़ना तय किया। कमला अपने पति के इस निर्णय से न तो सहमत थी और न असहमत। उसे पता था कि वह झुग्गी जिसे वे छोड़ आए हैं, लौटने पर नहीं मिलेगी। वह काम भी वापस नहीं मिलेगा। लेकिन गांव में भी तो कोई राहत नहीं थी। बस, उस महानगर में एक उम्मींद थी जो गांव में वह भी नहीं थीं। एक दिन छोटे भाई की बीवी ने किसी बात पर गुस्सा हो कर कमला के बच्चे के हाथ से रोटी छीन कर उसे एक चांटा जड़ दिया। यह असहनीय था कमला के लिए। वह हर किस्म का अपमान और कष्ट सह सकती थी लेकिन उसके भीतर की मां अपने बच्चे के हाथ से रोटी छीने जाते नहीं देख सकती थी। उसी दिन नत्थू और कमला अपने बच्चे को अपने सीने से लगाए वापस दिल्ली के लिए निकल पड़े। इस बार उनके पास पैसे भी नहीं थे लेकिन एक ठेकदार उन्हें साथ ले जाने को तैयार था। दिल्ली पहुंच कर उसी ठेकेदार के लिए महीना भर काम किया। वह ठेकेदार उन्हें वहीं छोड़ की कहीं और चला गया। तब से नत्थू सुबह उजाला होते ही निकल पड़ता है। दिन भर में छोटे-मोटे जो भी काम मिलते हैं, वह करता है ताकि दो रोटी का जुगाड़ हो सके। उस दौरान कमला अपनी गठरी बंाधे उसी फ्लाई ओव्हर के नीचे बच्चे की उंगली थामें डोलती रहती है। दिन के उजाले में उनकी वह छत उनसे छिन जाती है। 

कमला अपने गांव और अपनी छूटी हुई झुग्गी के बारे में सोच ही रही थी कि बच्चा ठंड से बचने के लिए उससे और चिपट गया। मानों वह एक बार फिर अपनी मां के गर्भ में समा जाना चाहता हो ताकि दुनिया की मुसीबतों से बचा रह सके। कमला ने भी उसे अपने से और सटा लिया और बुदबुदाई,‘‘डर मत बेटा! सुबह होगी तो सूरज उगेगा और तू खूब धूप तापना।’’ कमला की बात सुन कर शीत लहर मानों अट्टहास कर उठी। तापमान और गिर गया ...और फ्लाई ओव्हर के नीचे पड़े उन इंसानों का जीवन संघर्ष और तेज हो गया ....एक धूप वाली सुबह की उम्मींद में।

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 इस आयोजन के समाचार को सागर के प्रमुख समाचार पत्रों ने आज दिनांक 28.12.2020 को प्रकाशित किया है। मैं अपने सुधी ब्लाॅग पाठकों के अवलोकनार्थ यहां प्रस्तुत कर रही हूं-

On line Katha Paath by Dr (Miss) Sharad Singh - Deshbandhu, 28.12.2020

On line Katha Paath by Dr (Miss) Sharad Singh - Aacharan, 28.12.2020


शनिवार, दिसंबर 19, 2020

बुधवार, दिसंबर 16, 2020

बाबू जी मायाराम सुरजन, पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और प्रो. कमला प्रसाद: जिनसे मिलना मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहा | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | संस्मरण

 

Dr (Miss) Sharad Singh

बाबू जी मायाराम सुरजन, पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी और प्रो. कमला प्रसाद: जिनसे मिलना मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण रहा


 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


सन् 1988 में पूर्णतया सागर में निवासरत होने से पूर्व सन् 1983 मैं व्यक्तिगत काम से पन्ना से सागर विश्वविद्यालय आई थी। वहां अर्थशास्त्र विभाग के सामने अचानक डाॅ. कमला प्रसाद जी से मुलाक़ात हो गई। इससे पहले मैं उनसे पन्ना में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में मिल चुकी थी। उन दिनों जैसे कि हर युवा कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़ा होता था, मैं भी थी। सोवियत कम्युनिज़्म और भारतीय कम्युनिज़्म पर मेरी उनसे लम्बी-चौड़ी वार्ता भी हुई थी। ज़ाहिर है कि वे भी मुझे भूले नहीं थे। मुझे देखते ही वे बोल उठे,‘‘अरे, शरद सिंह तुम यहां कहां? तुमसे तो मैं पन्ना में मिला था।’’

Pro. Kamla Prasad

मैंने उनका अभिवादन किया और अपने आने का कारण बताया। 

‘‘कोई मदद करूं?’’ उन्होंने पूछा। 

मैंने कहा ‘‘नहीं’’। 

तो बोले, ‘‘अगर समय हो तो चलो फिर मैं तुम्हें एक विशेष व्यक्ति से मिलवाता हूं। मैं उन्हीं के पास जा रहा हूं।’’ डाॅ. कमला प्रसाद जी बोले।

‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा 

...और मैं और मेरी दीदी वर्षा सिंह उनके साथ कार में सवार हो कर चल पड़े। मुझे अच्छी तरह याद है कि वह सफ़ेद रंग की एम्बेस्डर कार थी। किसकी थी, यह पता नहीं। कम से कम कमला प्रसाद जी की नहीं थी। यूनीवर्सिटी की पहाड़ी से उतर कर बसस्टेंड, परकोटा होते हुए, शहर की किसी गली से गुज़रते हुए एक घर के सामने रुके। उस समय मुझे सागर के मोहल्लों का नाम भी ठीक से पता नहीं था और न ही नगरीय क्षेत्र के अंदरुनी हिस्सों की जानकारी थी।

हम कार से उतरे। सीढ़ियां चढ़ कर उनके पास पहुंचे जिनसे मिलने गए थे। एक बुजुर्ग व्यक्ति सामने थे। कमला प्रसाद जी ने उनका परिचय कराते हुए कहा,‘‘ये ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी हैं। जानती हो इनके बारे में?’’

‘‘हो, मां सागर के संदर्भ में हमेशा इनका जिक्र करती हैं।’’ मैं कहा और मैंने तथा दीदी ने आगे बढ़ उनके पैर छुए।

‘‘नहीं, नहीं! बेटियां पिता के पैर नहीं छूतीं। सदा सफलता प्राप्त करो।’’ ये उद्गार थे ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी के। 

‘‘मैं आपको दादा कह कर संबोधित कर सकती हूं?’’ मैंने पूछ लिया।

‘‘अवश्य!’’ उन्होंने मुस्कुरा कर कहा।

Pt. Jwala Prasad Jyotishi

फिर कमला प्रसाद जी और ज्वाला प्रसाद जी बातों में मशगूल हो गए। ज्वाला प्रसाद जी बीच-बीच में हम दोनों बहनों से भी कुछ न कुछ बात कर लिया करते। इसी दौरान पोहा और चाय का नाश्ता आया। ज्वाला प्रसाद जी ने पानी भरे गिलास में रखी अपनी बत्तीसी (डेंचर) निकाल कर मुंह में लगाया। इससे पहले मैंने कभी किसी को डेंचर लगाते अपनी आंखों से नहीं देखा था। अज़ीब-सी अनुभूति हुई। शयद मेरी मनोदशा ज्योतिषी दादा भांप गए। वे हंस कर बोले,‘‘मेरे ये दांत नकली हैं, इसलिए मैं इन्हें लगा कर भी अहिंसक ही हूं।’’

उनके इस कथन से उनके विनोदी स्वभाव का भी मुझे परिचय मिला। मुझे सहज होने में भी सहायता मिली। हम सभी ने पोहा खाया और चाय पी। कुछ देर और चर्चा के बाद हम लोग वहां से विदा हुए। विदा लेते समय ज्योतिषी दादा ने हम दोनों बहनों के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था,‘‘जब भी सागर आओ, जरूर मिलना और अपनी माता जी डाॅ विद्यावती ‘मालविका’ को भी मेरा नमस्कार कहना।’’

चर्चा के दौरान ही पता चला था कि ज्योतिषी दादा मेरी मां को ही नहीं अपितु मेरे नाना संत श्यामचरण सिंह को भी जानते थे। मेरे नाना जी भी गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। ज्योतिषी दादा से पहली बार मिल कर ऐसा नहीं लगा था कि उनसे हम लोग पहली बार मिल रहे हैं। मुझे यही लगा था कि मेरे स्वर्गीय नाना जी एक बार फिर सजीव मेरे सामने बैठे हुए हैं। यदि उन दिनों दूरभाष या मोबाईल हमारी पहुंच में होता तो मैं अकसर उनसे बात करती रहती। लेकिन वे चिट्ठी-पत्री के दिन थे। मैंने एक-दो बार उन्हें पत्र लिखा जिसका तत्परता से उन्होंने जवाब भी दिया किन्तु फिर जीवन के उतार-चढ़ाव में पत्राचार छूट गया। 

उस दिन ज्योतिषी दादा से मिलने के बाद कमला प्रसाद जी ने हमें सरकारी बसस्टेंड पहुंचा दिया था जहां से हमें पन्ना के लिए बस पकड़नी थी। उन दिनों बसस्टेंड अपनी पुरानी जगह पर था और सागर झील भी बहुत बड़ी थी।

मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई में रम गई। उन्हीं दिनों मुझे पत्रकारिता का भूत भी सवार हो गया और पढ़ाई के साथ जबलपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘‘नवीन दुनिया’’ और ‘‘ज्ञानयुग प्रभात’’ के लिए स्वतंत्र पत्रकार के रूप में रिपोर्टिंग करने लगी। दमोह से प्रकाशित होने वाले ‘‘साप्ताहिक दमोह संदेश’’ के लिए कार्डधारी रिपोर्टर का भी काम किया। ‘जनसत्ता’ और ‘रविवार’ के लिए भी रिपोर्टिंग की। तब मुझे नहीं पता पता था कि एक दिन मैं किताबें लिखूंगी और दिल्ली से पहली पुस्तक प्रकाशन की भूमिका के साक्षी बनेंगे ज्योतिषी दादा। हां, उस समय तक यह अवश्य तय होने लगा था कि मां की संवानिवृत्ति के बाद हम लोग सागर में बस जाएंगे। स्कूल शिक्षा विभाग का संभागीय कार्यालय सागर में होने के कारण तथा परीक्षा काॅपी जांचने के लिए मां को पन्ना से सागर आना-जाना पड़ता था। यहां सुश्री लक्ष्मी ताम्रकार जो महारानी लक्ष्मीबाई शा.उ.मा. विद्यालय में पीटीआई थीं, उनकी अच्छी सहेली बन गई थीं। मां को सागर बहुत पसंद आ गया था, उस पर ताम्रकार आंटी ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया और हम सन् 1988 में सागर में आ बसे। सागर आने के बाद कभी मां के साथ तो कभी दीदी के साथ मैं ज्योतिषी दादा से मिलने गई। 

सन् 1990 में, माह तो मुझे याद नहीं है लेकिन बारिश के दिन थे। रायपुर से मायाराम सुरजन जी का पत्र मिला कि वे सागर आने वाले हैं और विश्वविद्यालय के गेस्टहाउस में ठहरेंगे। दरअसल, सन् 1988 में स्थानीय मुकेश प्रिंटिंग प्रेस से मैंने अपनी पहली पुस्तक छपवाई थी। इसे छपवाने की प्रेरणा दी थी त्रिलोचन शास्त्री जी ने। यह नवगीत संग्रह था। नाम था-‘‘आंसू बूंद चुए’’। काव्य जगत ने तो मेरे पहले नवगीत संग्रह का स्वागत किया लेकिन पुस्तक की बिक्री को ले कर मेरा अनुभव आंसू बहाने वाला ही रहा। इसी दौरान मैं साक्षरता मिशन से जुड़ी और मेरी कहानियां मिशन की पत्रिका में प्रकाशित हुई। मेरे मन में विचार आया कि काश! मेरी वे कहानियां पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो जातीं। डाॅ राजमती दिवाकर जी ने मुझे सलाह दी कि शिवकुमार श्रीवास्तव जी का कई प्रकाशकों से परिचय है अतः मैं उनसे बात कर के देखूं। मैंने शिवकुमार श्रीवास्तव जी से चर्चा की। उन्होंने मुझसे पांडुलिपि मांगी। मैंने उन्हें दे दी। लगभग डेढ़ साल व्यतीत हो गए लेकिन शिवकुमार भाई साहब ने पांडुलिपियों के बारे में कोई चर्चा ही नहीं की। मुझे स्पष्टवादिता हमेशा अच्छी लगती है। यदि आप से कोई काम नहीं हो सकता है तो आप स्पष्ट मना कर दें। किंतु राजनीति में दखल रखने वाले शिवकुमार भाई साहब के लिए शायद कठिन रहा होगा कि वे स्पष्ट मना कर दें। 

Mayaram Surajan Babu Ji

उन्हीं दिनों ‘‘देशबंधु’’ समाचारपत्र ने प्रकाशन संस्थान आरम्भ किया था जिसके तहत वे पुस्तकें प्रकाशित करने वाले थे। मैंने मायाराम सुरजन जी को पत्र लिखा कि मैं अपनी साक्षरता विषयक कहानियों का संग्रह प्रकाशित करना चाहती हूं। उसी तारतम्य में उन्होंने मुझे पत्र लिख कर अपने सागर आने के कार्यक्रम के बारे में सूचित किया था।

उन दिनों हम लोग नरसिंहपुर रोड स्थित मध्यप्रदेश विद्युत मंडल की आवासीय काॅलोनी में रहते थे। वहां से मकरोनिया चौराहा काफी दूर था और उस ओर ऑटो भी नहीं मिल पाती थी। हमारे पास दूरभाष का कोई साधन नहीं था। अतः गेस्टहाउस पहुंचने से पूर्व हम लोग (मैं और वर्षा दीदी) सुरजन दादा से बात भी नहीं कर सके। उन्होंने सुबह दस बजे तक गेस्टहाउस में मिलने का समय चिट्ठी में लिखा था। साधन के अभाव में हमें वहां पहुंचने में तनिक देर हो गई। वहां पहुंच कर पता चला कि बाबू जी (मायाराम सुरजन जी) अभी-अभी ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी से मिलने उनके घर के लिए निकल गए हैं। पल भर को हताशा तो हुई किंतु फिर हमने तत्काल गेस्टहाउस से निकल कर ऑटो की और ज्योतिषी दादा के घर जा पहुंचे। बाबू जी भी वहां मिल गए। 

‘‘अरे, तुम लोगों की प्रतीक्षा करते-करते मैं निकल आया।’’ बाबू जी ने कहा। फिर उन्होंने बताया कि साक्षरता विषय किताबें प्रकाशित करना अभी देशबंधु प्रकाशन की योजना में शामिल नहीं है लेकिन वे दिल्ली के किसी प्रकाशक से इस बारे में बात कर सकते हैं। अंधा क्या चाहे, दो आंखे। मैं खुश हो गई उनकी बात सुन कर। लेकिन उन्होंने जब पांडुलिपि मांगी तो मैंने उन्हें सारा किस्सा सुना दिया कि लगभग डेढ़-दो साल से मेरी पांडुलिपियां शिवकुमार भाई साहब के पास रखी हैं।

‘‘शिवकुमार से वापस ले लो। वह नहीं छपाएगा।’’ ज्योतिषी दादा ने मेरी बात सुनते ही कहा। बाबू जी ने भी उनकी बात का समर्थन करते हुए मुझे सलाह दी कि मैं शिवकुमार भाई साहब से अपनी पांडुलिपियां वापस ले कर डाक द्वारा उनके पास रायपुर भेज दूं। 

‘‘मुझसे पूछा होता तो मैं पहले ही कहता कि शिवकुमार को पांडुलिपियां मत दो।’’ ज्योतिषी दादा ने पुनः मुझसे कहा। मुझे उस समय यह पछतावा हुआ कि मैंने ज्योतिषी दादा से इस बारे में पहले ही सलाह क्यों नहीं ली। 

दूसरे ही दिन मैंने शिवकुमार श्रीवास्तव भाई साहब से अपनी पांडुलिपियां वापस मांग ली। उन्होंने ने भी इस भाव से वापस कीं मानों उन्हें मेरे द्वारा वापस मांगे जाने की ही प्रतीक्षा थी। लेकिन जैसे कहा जाता है न कि हर अवरोध के बाद एक नया रास्ता खुलता है। इस बार अवरोधक नहीं, मार्गदर्शक मुझे मिले थे। ज्योतिषी दादा ने मेरी कहानियों को पढ़ा था। उन्हें वे पसंद आई थीं। अतः उन्होंने भी मायाराम सुरजन बाबू जी के निर्णय का समर्थन किया था। वे उन लोगों में से नहीं थे कि मुंह के सामने तारफ़ करें और पीठ पीछे कटाई करें। वे सभी का भला चाहने और सभी का भला करने वाले व्यक्ति थे। यह मैं अपने अनुभव के आधार पर दावे से कह सकती हूं। आज ऐसे लोगों की अनुपस्थिति बहुत खटकती है। सामाजिक वातावरण में गिरावट की एक वजह यह भी है कि आज  ज्योतिषी दादा जैसे सरल स्वभाव, युवाओं के पथप्रदर्शक एवं परोपकारी व्यक्तियों की कमी हो चली है। 

बहरहाल, मैंने अपनी पांडुलिपियां सुरजन दादा के पास भेज दीं। कुछ समय बाद सीधे दिल्ली से सामयिक प्रकाशन के मालिक जगदीश भारद्वाज जी का पत्र मेरे पास आया जिसमें उन्होंने मेरी साक्षरता विषयक कहानियों की किताबें छापना स्वीकृति दी थी। दरअसल मायाराम सुरजन बाबू जी ने मेरी पांडुलिपियां जगदीश भारद्वाज जी के पास दिल्ली भेज दी थीं। सन् 1993 में एक साथ दो किताबें प्रकाशित हुईं- ‘‘बधाई की चिट्ठी’’ और ‘‘बेटी-बेटा एक समान’’। उस समय मैंने दो ही लोगों को सबसे पहले अपनी किताबें दिखाई थीं। सबसे पहले ज्योतिषी दादा को और उसके बाद कपिल बैसाखिया जी को जिन्होंने मित्रवत सदा मेरा भला चाहा।

Badhi Ki Chitthi - Dr Sharad Singh


अच्छे लोगों के हाथों अच्छे भविष्य की नींव रखी जाती है, यह कहावत मेरे जीवन में चरितार्थ होती मैंने स्वयं अनुभव की है। उस समय मुझे पता नहीं था कि एक दिन सामयिक प्रकाशन मेरी ‘‘सिग्नेचर उपन्यासों’’ का प्रकाशक बनेगा। या वाणी प्रकाशन, साहित्य अकादमी, नेशनलबुक ट्रस्ट आदि से मेरी पुस्तकें प्रकाशित होंगी।

Beti Beta Ek Saman -  Dr Sharad Singh

 मायाराम सुरजन बाबू जी ने जो मार्ग प्रशस्त किया मानो उसका शिलान्यास स्वयं ज्योतिषी दादा ने किया था। बड़ों का आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता है। मैं वे दोनों किताबें ले कर ज्योतिषी दादा के पास गई। उन दिनों वे अस्वस्थ चल रहे थे। किन्तु मेरी किताबें देख कर वे बहुत खुश हुए। उस समय उन्होंने मुझे जो आशीर्वाद दिया वह मेरे लिए पथ प्रदर्शक की तरह है। उन्होंने कहा था-‘‘अब इस यात्रा को जारी रखना और पीछे मुड़ कर कभी मत देखना।’’

दादा ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जी, मायाराम सुरजन बाबू जी और कमला प्रसाद जी भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उन तीनों का आर्शीवाद सदा अपने साथ महसूस करती हूं जिससे मुझे हमेशा आत्मिक संबल मिलता है। 

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सोमवार, दिसंबर 07, 2020

डॉ शरद सिंह ने 'पिछले पन्ने की औरतें' उपन्यास में.... | बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति | डॉ. अवधेश चंसौलिया

Dr (Miss) Sharad Singh, Novelist, Columnist, Historian & Poetess

 ★डा0 शरद सिंह ने पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में चंदेरी (गुना) में लगने वाले बेड़नियों के मेले में ‘राई नृत्य’ का सुंदर चित्रण किया है-‘‘मशाल के इर्द-गिर्द पचासों दलों के रूप में सैकड़ों पुरुषों की भीड़ और उन दलों के मध्य पूरी सज-धज के साथ पचासों बेड़नियां...। रंग पंचमी की रात को ग्राम करीला में बेड़नियों का विराट मेला लगता है। समूची पहाड़ी बेड़नियों और उनके सोहबतियों के नाच रंग से नहा जाती है।’’ ★
....प्रस्तुत लेख से...

यह लेख  "बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति"  "स्पंदन" में 17सितम्बर 2009 को प्रकाशित किया गया था ...इसके लेखक हैं डॉ. अवधेश चंसौलिया। इसमें मेरे उपन्यास का भी उल्लेख है अतः साभार यह लेख मूल लिंक सहित अपने इस ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रही हूं-
Spandan Magazine

बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति
- डॉ. अवधेश चंसौलिया
       बुंदेली माटी में जन्मी महिला कथाकार आज भले ही बुन्देलखण्ड से दूर अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हांे लेकिन उनके संस्कारों में, उनके मन में, रोम-रोम में बुन्देली जन-जीवन रचा-बसा है। यही कारण है कि जन्म से मरण तक के संस्कारों, रीतिरिवाजों एवं यहाँ के तीज त्यौहारों का जीवंत चित्रण इनके कथा साहित्य में सहजता से प्राप्त हो जाता है। बुंदेली महिला कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा का नाम सर्वोपरि है। मैत्रेयी जी ने बुदेली समाज को बहुत नजदीकी से देखा-परखा है। इसलिए इनके कथा साहित्य में बुंदेली जन-जीवन पूरी सूक्ष्मता, गहन आत्मीयता के साथ रूपायित हुआ है। बुंदेलखण्ड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में पुत्री की अपेक्षा पुत्र जन्म पर लोगों को अधिक प्रसन्नता होती है। पुत्र जन्म पर दिल खोलकर खर्च किया जाता है, नेग बाँटे जाते हैं, जबकि पुत्री जन्म पर लोग जन्म संस्कार से जुड़ी दाई का मेहनताना देने में भी संकोच करते हैं। ऐसी स्थिति में दाई, पुत्र-पुत्री में भेद न करती हुई सोहर गाती है -
‘‘जसोदा जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
नंदरानी जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
रातैं तो मैं लली जनाय गयी,
लालन कहाँ से लाई। जसोदा जी से....।’’ 1
रूढ़ियों से ग्रस्त बंदेली समाज में पुत्र को जन्म देने वाली माता को जो सम्मान प्राप्त है, वह पुत्री जन्मने वाली माता को नहीं है। तुम किसकी हो बिन्नी कहानी में पुत्री की माँ की मानसिक संघर्ष की स्थिति दृष्टव्य है-‘‘बिना पुत्र की जननी बने, वे माँ के गौरवान्वित पद को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी।...अधूरेपन का एहसास मकड़ी के जाले सा मन पर चारों ओर लिपट गया। सामाजिक परिवेश कटीला सा हो चला। तीज त्यौहार चिढ़ाते-बिराते से निकलने लगे। कलेजे में हीनता की हूक सी उठती, तो बेचारगी में पलट जाती.....यह एक बात उनके कलेजे को निरंतर उधेड़ती रहती कि-वे बेटे को जन्म नहीं दे सकी।’’ 2
पुत्र जन्म की प्रसन्न्ता अवर्णनीय होती है। ‘‘चाची आ गयीं। गोमा ने बालक को जनम दिया है। चाची थाली बजाने लगीं.....घर-घर बुलावे दिये जा रहे हैं। चैक पूरकर सांतियां घरे जायेंगे। चाची कोरा चरुआ भर रहीं हैं। बत्तीसा डालकर उबालने धरेगीं। गोमा को बत्तीसा का पानी पीना है। नेग सगुन हो रहे हें।....सोहर गाये जा रहे हैं-
ऐसे फूले सालिग राम डोलें, हाथ लिये रुपइया,
ए लाला के बाबा, आज बधाई बाजी त्यारे।।’’ 3
मैत्रेयी पुष्पा के अल्मा कबूतरी में बच्चे की छठी संस्कार का चित्रण यथार्थपरक है। ‘कदमबाई कबूतरी ने बेटे को जन्म दिया है। कबूतरे के डेरों पर गाँव के पंडित जी तो आते नहीं अतः पंडिताई का कार्य मलियाकाका ही करते हैं। बच्चे का पालना बाहर निकाला गया। चैक जगमगाने लगा। सरमन की औरत देवर को गालियाँ देकर, हल्की हो चुकी थी, सो सोहर गाने लगी। आधा गज नया कपड़ा भी ले आयी। कुर्ता टोपी के लिए।' 4
मैत्रेयी पुष्पा के कथा संसार में सामाजिक रीति-रिवाजों का जैसा विशद और सुन्दर चित्रण है वैसा अन्य किसी बुन्देली कथालेखिका के कथा लेखन में नहीं है। इस दृष्टि से उनके उपन्यास इदन्नमम्, बेतवा बहती रही, अल्मा कबूतरी, झूला नट तथा कहानी संग्रह ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कहानी ललमनिया तो बारात चित्रण का विहंगम एवं मनमोहन दृश्य उपस्थित करने में बेजोड़ है। इदन्नमम् उपन्यास में ‘नव वधू की रोटी छुआई’ का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जिसमें बुढ़िया, जब पुराना नाम ले लेकर नव वधू को बुलाती हैं तो वह कमरे से बाहर नहीं निकलती। लेकिन जैसे ही मंदा, बहू को नर्मदा नाम से पुकारती है तो वह झट से बाहर निकल आती है और उसका नाम ससुराल में नर्मदा पड़ जाता है। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में बुन्देली वाद्य यंत्रों को भी यथास्थान महत्व प्राप्त हुआ है। मंगल अवसरों पर यहाँ रमतूला बजाया जाता है। ‘मन्दाकिनी की पक्यात में रमतूला बजा टू ऊं टू ऊं बुलउवा दिये गये। कुसुमा का स्वर मंगल गीतों में सबसे ऊपर है।
‘‘सिया बारी बनरी, रघुनन्दन बनरे।
को को बरातें जाय मोरो लाल।।’ 5
बुन्देलखण्ड में जब नववधू आती है तब उसकी गोद में छोटे देवर को बिठाया जाता है। इस रस्म का सजीव चित्रण मैत्रेयी पुष्पा झूला नट उपन्यास में विस्तार से करती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के लोक कवि ईसुरी पर आधारित उपन्यास कही ईसुरी फाग में बुंदेली लोक-संस्कृति में रची-बसी फागों के अनेक दृश्य जीवंत हो उठे हैं। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में नौटंकी, रास, राई नृत्य, सुअटा खेल आदि लोक नृत्यों का दृश्यांकन बहुत ही आकर्षक रूप में हुआ है। ‘नारे सुअटा’ बुंदेली क्वांरी कन्याओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है। अगनपाखी उपन्यास में क्वार के महीने में इस पर्व की मनोरम झाँकी प्रस्तुत हुई है। क्वांरी कन्याओं के द्वारा सुअटा की मूर्ति के सामने पूजा-अर्चना कर प्रभाती गाये जाने का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है -
‘‘उठो सूरजमल भैया भोर भये
उठो-उठो चन्दुमल भइया भोर भये
नारे सुअटा, मालिनी खड़ी तेरे द्वार
इन्दरगढ़ की, मालिनी नारे सुअटा, हाटा ई हाअ बिकाय।’’ 6
इन्हीं के उपन्यास इदन्नमम् में बुंदेली लोकनृत्य दिवारी का मनोहारी चित्रण बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है-
‘‘दिबरिया लोग, गाते हुए नाचते हैं। होऽऽ! होऽऽ! होऽऽ! होऽऽऽऽ!
दिबारी माय लक्ष्मी माय। हो मोरे गनपत महाराजऽऽऽज!
नाच जमने लगा। मोर पंख हिल रहे हैं। लोग डूबे हुए हैं रेग में। एक दिबरिया भागता हुआ आया और जा मिला समूह में.....बऊ थाली में खील बतासा गुड़ धरकर ले आयीं।’’ 7
मैत्रेयी पुष्पा के अतिरिक्त अन्य लेखिकाओं ने भी अपने साहित्य में बुंदेली रीति-रिवाजों, परम्पराओं को उकेरा है। डा0 छाया श्रीवास्तव की कहानी असगुनी में भी पुत्र जन्म पर खुशी में सोहर गाते हुए स्त्रियों के मनमोहक दृश्य हैं। ननद के कहने पर छोटी भाभी गाती है-‘‘हमको तो पीर आवें, ननद हँसत डोलें।’’ 8
डा0 कामिनी ने गुलदस्ता कहानी में सातवें महीने के गर्भ के समय लड़की के मायके से आने वाले पच की बात इस प्रकार की ‘बिटिया के अगर लड़का हुआ तो पच के लिए दो धोती, अच्छा ब्लाउज, बच्चे को कपड़े, दामाद को कुर्ता-धोती चाहिए। मिठाईयाँ, गेहूँ, दालें, चावल अलग। सोने की नहीं तो चाँदी की हाथ की पुतरिया, तबिजिया चाहिए। गिरिजा को तीन-तीन बिछिया नहीं तो गाँव वाले नाम धरेंगे। कोई क्या कहेगा कि घर में जुआरा बंधा है। खेती भी है और कुछ न भेजा।’’ 9
सामाजिक रीति-रिवाजों की विस्तृत और यथार्थपरक जानकारी होने के कारण लेखिकाओं के चित्रण अधिक सजीव और यथार्थ बन पड़े हैं। डा0 छाया श्रीवास्तव कहानी विकल्प में लड़की देखने का दृश्य इस प्रकार उपस्थित करती हैं-‘‘कानपुर के सब-इंजीनियर आये थे, दलबल सहित माँ, दो बहिनें, एक भाई के साथ। पिता ने आदर सत्कार में कमी नहीं रखी थी। लड़के ने भांति-भांति से इंटरव्यू लिया था। बहिनों ने तो नचाकर देखा था। पूरे दो दिन में वे महीनों का हिसाब बिगाड़ गये थे।’’ 10 जीवन पथ कहानी में भी छाया श्रीवास्तव ने वर-वधू के विवाह की रस्म के सुन्दर चित्रांकन के साथ बेटी की विदाई का बहुत ही कारुणिक दृश्य उपस्थित कर पाठकों को द्रवित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है।’’ 11
डा0 पद्मा शर्मा ने रेत का घरोंदा कहानी में वधू के ससुराल आने पर कंकन खोलने के रिवाज का बड़ा ही मनोरंजक चित्र उपस्थित किया है। इसी कहानी में ससुराल में नई वधू से गाना गाने को कहा जाता है, इस प्रथा को दादरे गाने की रस्म कहा जाता है। नई वधू के समक्ष यह बहुत ही दुविधा की घड़ी होती है। वह सोचती है क्या गाऊँ क्या न गाऊँ। कहानी की नव वधू स्मिता ढोलक पर थाप देकर गा उठती है-
‘‘राजा की ऊँची अटरिया, दइया मर गई, मर गई
सासू कहे बहू रोटी कर लो, सब्जी कर लो,
राजा कहे मेरी रामकली की उंगली जल गई।’’ 12
विवाह में मामा द्वारा भात लाने की परम्परा बुन्देली समाज में बहुत महत्व रखती है। इस अवसर पर मामा अपनी सामथ्र्य के अनुसार सामान आदि की व्यवस्था करते हैं। भतैयों के स्वागत में बहिनें गाती हैं-
‘‘सुनो भैया करूँ विनती समय पर भात दे जाना।
ससुर को सूट सिलवाना, सास को साड़ी ले आना।
अगर इतना न हो भैया तो खाली हाथ आ जाना।
मण्डप की शोभा रख जाना।।’’ 13
बुंदेली महिला कथाकारों ने बुंदेली संस्कृति का अपने कथा साहित्य में जिस गहराई के साथ संरक्षण किया है, संस्कृति के प्रति वैसा समर्पण भाव, पुरुष कथा लेखन में लगभग अप्राप्त है। मेले, दंगल, पर्वों, त्यौहारों की विशेष सजधज तथा ग्रामीण संस्कृति की झलक पूरी तन्मयता और तीव्रता के साथ हमें महिला कथाकारों के कथा साहित्य में दृष्टिगत होती है। करवाचैथ भारतीय नारियों का विशेष पर्व है। इसका चित्राकन रजनी सक्सेना ने अपनी कहानी अन्तर संवाद में बहुत ही अच्छी तरह से किया है। इसी कहानी में शारदीय नवरात्रि का दृश्य भी अवलोकनीय है। 
Pichhale Panne Ki Auraten | Novel of Dr (Miss) Sharad Singh

डा0 शरद सिंह ने पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में चंदेरी (गुना) में लगने वाले बेड़नियों के मेले में ‘राई नृत्य’ का सुंदर चित्रण किया है-‘‘मशाल के इर्द-गिर्द पचासों दलों के रूप में सैकड़ों पुरुषों की भीड़ और उन दलों के मध्य पूरी सज-धज के साथ पचासों बेड़नियां...। रंग पंचमी की रात को ग्राम करीला में बेड़नियों का विराट मेला लगता है। समूची पहाड़ी बेड़नियों और उनके सोहबतियों के नाच रंग से नहा जाती है।’’ 14
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि बुंदेली महिला कथाकार बुंदेली संस्कृति के लुप्त होते स्वरूप को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। उनका कथा लेखन सोउद्देश्य है और वे इसमें पूरी तरह सफल भी हो रही हैं। महिलाएँ सचमुच लोक संस्कृति की सच्ची वाहिकाएँ हैं। लोक संस्कृति के संरक्षण में बुंदेली महिला कथाकारों के इस योगदान को निरंतरता मिलनी चाहिए।
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संदर्भ-
1. मैत्रेयी पुष्पा-रिजक, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह) पृ0 18
2. वही पृ0 126
3. मैत्रेयी पुष्पा-गोमा हंसती है, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ(कहानी संग्रह) पृ0 167-168
4. मैत्रेयी पुष्पा-अल्मा कबूतरी पृ0 34 राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2004
5. मैत्रेयी पुष्पा-इदन्नमम पृ0 106, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1999
6. मैत्रेयी पुष्पा, अगनपाखी, पृ0 24-25, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 2003
7. वही पृ0 312
8. डा0 छाया श्रीवास्तव-असगुनी, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 40, राजीव प्रकाशन, टीकमगढ़, 1997-98
9. डा0 कामिनी-गुलदस्ता पृ0 46 आराधना ब्रदर्स, गोविन्द नगर, कानपुर 1991
10. डा0 छाया श्रीवास्तव-विकल्प, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 60
11. डा0 छाया श्रीवास्तव-परित्यक्ता पृ0 8 अमन प्रकाशन 1/20, महरौली दिल्ली 1981
12. वही पृ0 32
13. वही पृ0 105-106
14. डा0 शरद सिंह, पिछले पन्ने की औरतें, पृ0 278 सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली,2005
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बुधवार, दिसंबर 02, 2020

चिरविदा ललित सुरजन जी | डॉ शरद सिंह

स्तब्ध हूं आदरणीय ललित सुरजन जी (प्रधान संपादक देशबंधु समाचार समूह) के निधन का समाचार पा कर !!! 
उनकी अग्रजवत आत्मीयता एवं स्नेह सदा स्मरण रहेगा ...
विनम्र श्रद्धांजलि 🙏
ऊं शांति..शांति..शांति...
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

देशबंधु समाचार समूह के प्रधान संपादक व वरिष्ठ पत्रकार ,कवि ललित सुरजन को ब्रेन हैमरेज होने के कारण  निधन हो गया। 74 वर्षीय श्री सुरजन को 01 दिसम्बर 2020, मंगलवार को  नोयडा स्थित एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया था।  02 दिसम्बर 2020 को उन्होंने यह संसार त्याग दिया।

वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत थे। साथ ही वे एक जाने माने कवि व लेखक रहे। ललित सुरजन जी स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते थे। पत्रकारिता उनके लिए एक मिशन थी। उनकी साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता रही।

हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिखी जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। उनकी अनुमति से इसे धारावाहिक रूप से मैंने भी अपने इसी ब्लॉग में शेयर किया था ...

ललित सुरजन जी ट्विटर पर भी सक्रिय रहते थे। उन्होंने इसी वर्ष 'मदर्स डे 2020' की मेरी ट्वीट पर बड़ी ही आत्मीय टिप्पणी की थी...
स्मृतियां अनेक हैं जो मुझे सदा ऊर्जा और मार्गदर्शन देती रहेंगी 🙏
पुनः नमन 🙏 पुनः विनम्र श्रद्धांजलि 🙏

मंगलवार, दिसंबर 01, 2020

संगीत रूपक | जनमानस के आत्मीय कवि : बाबा नागार्जुन | डॅा. सुश्री शरद सिंह

   

Dr (Miss) Sharad Singh

 संगीत रूपक

      जनमानस के आत्मीय कवि: बाबा नागार्जुन 

     - डॅा. सुश्री शरद सिंह

     एम-111,शांतिविहार,रजाखेड़ी,

     सागर (म.प्र.)-470004

     drsharadsingh@gmail.com                              

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      कवि बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित संगीत रूपक।

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Baba Nagarjun, Hindi Poet

                   संगीत रूपक

      जनमानस के आत्मीय कवि: बाबा नागार्जुन

    - डॅा. सुश्री शरद सिंह

                                                          

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अवधि     : 30 मिनट

सूत्रधार   : स्त्री स्वर 

             पुरुष स्वर 

सस्वर काव्यपाठ कर्ता एवं गायक-गायिका       

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                             दृश्य प्रारम्भ


      नदी-तट का वातावरण, मद्धिम संगीत के साथ, पक्षियों के कलरव की आवाज़, खेत में बैलों को हकालते हरवाहे का स्वर.........पार्श्व से उभरता स्त्री स्वर। (फेड इन-फेड आउट)


 स्त्री स्वर -(मुग्ध स्वर में) कितना अच्छा लगता है गांव में सुबह का वातावरण.....ये पक्षियों का कलरव....खेतों में अपने बैलों को ले जाते हरवाहे.....वाह! सबकुछ कितना मन को मोह लेने वाला है!


पुरुष स्वर -(कवितापाठ करता हुआ)

अपने खेत में हल चला रहा हूँ

इन दिनों बुआई चल रही है

इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही

मेरे लिए बीज जुटाती हैं

हाँ, बीज में घुन लगा हो तो

अंकुर कैसे निकलेंगे !


जाहिर है

बाजारू बीजों की

निर्मम छटाई करूँगा

खाद और उर्वरक और

सिंचाई के साधनों में भी

पहले से जियादा ही

चौकसी बरतनी है..........


स्त्री स्वर -(प्रशंसात्मक स्वर में) अरे वाह! यह किसकी कविता है? (हंस कर) कम से कम तुम्हारी तो कदापि नहीं है, है न!


पुरुष स्वर - हां, तुमने सही कहा....यह मेरी कविता नहीं है....


स्त्री स्वर -(जिज्ञासा के स्वर में) तो फिर किसकी कविता है यह? ऐसा लगता है मानो इन चंद पंक्तियों में एक किसान का पूरा चिन्तन व्यक्त कर दिया गया हो....


पुरुष स्वर -यह कविता है हिन्दी साहित्य जगत् के यशस्वी कवि नागार्जुन की जिन्हें सभी प्यार से बाबा नागार्जुन कह कर पुकारते थे।


स्त्री स्वर -बाबा नागार्जुन? हां, मैंने भी उनकी अनेक कविताएं पढ़ी हैं...परन्तु वे तो तीखे व्यंगों से ओतप्रोत और करारा कटाक्ष करने वाली कविताओं के लिए जाने जाते हैं....यह तो उनकी कविताओं का एक और पक्ष है....वैसे मुझे उनके बारे में अधिक पता भी तो नहीं है....मुझे अपने इस अल्प ज्ञान पर संकोच का अनुभव हो रहा है..... मुझे उनके बारे में विस्तार से बताओ न!


पुरुष स्वर -ठीक है...तो सुनो!

..........बाबा नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को मिथिला के तरउनी ग्राम में हुआ था। उनका असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। इनके पिता श्री गोकुल मिश्र एक किसान थे और खेती के अलावा पुरोहिताई का कार्य भी करते थे।  पुरोहिताई  के सिलसिले में आस-पास के इलाकों में आया-जाया करते थे। उनके साथ-साथ नागार्जुन भी बचपन से ही “यात्री” हो गए। आरंभिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से संस्कृत में हुई किन्तु आगे स्वाध्याय पद्धति से ही शिक्षा बढ़ी। राहुल सांकृत्यायन के “संयुक्त निकाय” का अनुवाद पढ़कर बाबा नागार्जुन की इच्छा हुई कि यह ग्रंथ मूल पालि में पढ़ा जाए। इसके लिए वे श्रीलंका चले गए जहां वे स्वयं पालि पढ़ते थे और बदले में मठ के “भिक्खुओं” को संस्कृत पढ़ाते थे। श्रीलंका में उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।

गांव के वातावरण में पले-बढ़े बाबा नागार्जुन ने प्रकृति एक-एक रंग को , एक-एक भाव को बहुत निकट से जांचा परखा और महसूस किया।

इसीलिए बाबा नागार्जुन की कविताओं में प्रकृति का स्वरूप कैनवास पर उकेरे गए सुन्दर, सजीव चित्र की भांति दिखाई देता है।


प्रथम गीत -गायक अथवा गायिका के स्वर में -


          अमल धवल गिरि के शिखरों पर

बाबा नागार्जुन

          बादल को घिरते देखा है......

        

                  (नरेशन जारी)


स्त्री स्वर - बाबा नागार्जुन पर्वत शिखरों और बादलों के चितेरे कवि होने के साथ ही खेतों और किसानों के कवि भी थे.....


पुरुष स्वर - हां, तुमने ठीक कहा! .....बाबा नागार्जुन के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है। वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं। उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है। इसलिए प्रकृति, संस्कृति और  राजनीति,  तीनों को समान भाव से उनकी कविता के विषय बने।


बाबा को फसलों का पक कर सुनहरा हो जाना बहुत लुभाता था क्योंकि वे जानते थे कि पकी हुई फसलों से भरे हुए खेत जीवन में धन और धान्य की पूर्ति करते हैं।


द्वितीय गीत -गायक अथवा गायिका के स्वर में -


          बहुत दिनों बाद

          अब की मैंने जी भर देखीं

          पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान

          बहुत दिनों के बाद.........

        

                  (नरेशन जारी)


पुरुष स्वर - बाबा नागार्जुन छः से अधिक उपन्यासों, एक दर्जन कविता-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिलीय कविता-संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य की रचना की।

उनके कविता हैं - अपने खेत में, युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियां, खिचड़ी विपल्व देखा हमने, हजार-हजार बाहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, तुमने कहा था, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुबार की छाया में, ओम मंत्र, भूल जाओ पुराने सपने, और रत्नगर्भ।

उपन्यास हैं - रतिनाथ की चाची, बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नयी पौध, वरुण के बेटे, दुखमोचन, उग्रतारा, कुंभीपाक, पारो, आसमान में चाँद तारे। व्यंग्य- अभिनंदन तथा एक निबंध संग्रह जिसका नाम है - अन्न हीनम क्रियानाम। उनकी मैथिली कविताएं - पत्रहीन नग्न गाछ के नाम से संग्रहीत हैं।


स्त्री स्वर - गद्य और पद्व लेखन में समान अधिकार रखने वाले कवि बाबा नागार्जुन ने जब लिखना शुरू किया था तब हिन्दी साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहां से अचानक तेज ढलान शुरू हो जाती है, और जब उन्होंने लिखना बंद किया तब काव्य जगत में सभी प्रकार के वादों के अंत का दौर चल रहा था। बाबा अपने जीवन और सर्जन के लंबे कालखंड में चले सभी राजनीतिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे फिर भी वे किसी वाद से जुड़ने के बजाए मेहनतकश किसानों और मजदूरों के पक्ष में कलम चलाते रहे।


तृतीय गीत -गायक अथवा गायिका के स्वर में -


          नए गगन में  नया सूर्य  जो  चमक रहा है

          यह विशाल भू खण्ड आज जो दमक रहा है

          मेरी भी आभा है इसमें .........

        

                  (नरेशन जारी)

बाबा नागार्जुन

स्त्री स्वर -एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते थे। वे मानते थे कि जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं। वे इस दुविधा में कभी नहीं पड़े। इसीलिए सदा स्पष्टवादी रहे।


पुरुष स्वर -नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है। उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे जनहित दर्शन के व्यावहारिक रूप को सहज ढंग से प्रस्तुत करता है। 


स्त्री स्वर -आमजन जीवन की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव के कारण उनके काव्य में जो तीखा तेवर था वह काव्यमंचों से भी श्रोताओं को अपनी ओर खींचता था। तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है। 


पुरुष स्वर -बाबा नागार्जुन को उनके काव्य-सृजन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1994 में उन्हें साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर के भी  सम्मानित किया था।


चतुर्थ गीत -गायक अथवा गायिका के स्वर में -


गीत के दो पद -          

    बहती है जीवन की धारा......

          मलिन कहीं पर, विमल कहीं पर,

          थाह कहीं पर अतल कहीं पर

          कहीं उगाती, कहीं डुबोती, 

          अपना दोनों कूल किनारा

          बहती है जीवन की धारा ......... 


          तैर रहे कुछ, सीख रहे कुछ

          हंसते हैं कुछ, चींख रहे कुछ

          कुछ निर्भय हैं लदे नाव पर

          खेता है  मल्लाह  बिचारा

     बहती है जीवन की धारा .........

        

                  (नरेशन जारी)



पुरुष स्वर -मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है। उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है। नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि थे।

स्त्री स्वर -जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी देखे जा सकते हैं। नागार्जुन ने छंदमुक्त और छंदबद्ध दोनों शैलियों में समान रूप से प्रभावी कविताएं लिखीं। पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ प्रयोग करने और नए काव्य कौशलों को संभव करनेवाले वे अद्वितीय कवि कहे जा सकते हैं।

ऐसे अप्रतिम प्रतिभा के धनी लोकजनमानस के कवि बाबा नागार्जुन ने 05 नवम्बर 1998 को इस दुनिया से विदा ले ली किन्तु जनमानस में वे एक ओजस्वी और आत्मीय कवि के रूप में सदा जीवित रहेंगे और उनकी कविताएं जीवन को सार्थक ढंग से जीने का संदेश देती रहेंगी।


गीत का तीसरा पद -


          सांस-सांस पर थकने वाले

          पार नहीं जा सकने वाले

          उब-डुब, उब-डुब करने वाले

          तुम्हें मिलेगा कौन सहारा

      बहती है जीवन की धारा .........  

           

         गायन स्वर समापन संगीत में डिज़ाल्व होता हुआ

                        (समाप्त) 

                     

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( साभार: आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित )   

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बाबा नागार्जुन