शनिवार, सितंबर 28, 2019

लहना सिंह की सूबेदारनी और स्त्री के भीतर की स्त्री - डॉ शरद सिंह

लहना सिंह की सूबेदारनी और स्त्री के भीतर की स्त्री - डॉ शरद सिंह
    लिखे जाने के लगभग 105 वर्ष बाद भी प्रासंगिक लगती है गुलेरी जी की कहानी ‘‘उसने कहा था’’ .... सूबेदारनी का लहना के प्रति प्रेम किसी परिधि में बंधा हुआ नहीं था। उसके साथ न तो कोई सम्बोधन जुड़ा हुआ था और न कोई रिश्ता। वस्तुतः ‘उसने कहा था’’ कहानी में सूबेदारनी एक औरत का बाहरी स्वरूप था। उसके भीतर की औरत अपनी भावनाओं को दो तरह से जी रही थी। एक पति के प्रति समर्पिता और दूसरी अपने उस प्रेमी की स्मृति को संजोए हुए जिसको कभी उसने दुनियावी प्रेमी की दृष्टि से शायद देखा ही नहीं था।
      जिसने भी चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की ‘उसने कहा था’ पढ़ी है, उसे वह संवाद कभी नहीं भूल सकता कि लहना लड़की से पूछता है-‘तेरी कुड़माई हो गई?’ और लड़की ‘धत्’ कह कर शरमा जाती है। लहना का इस तरह पूछना लड़की के मन को गुदगुदाया तो अवश्य होगा, जब कभी अकेले में यह प्रश्न उसके मन में कौंधा होगा। ‘कुड़माई’ का न होना लहना के लिए सुखद था क्यों कि तब उसके मन में लड़की को पा लेने की सम्भावना थी। यह पा लेना ‘दैहिक’ नहीं ‘आत्मिक’ था। फिर भी लहना को वह लड़की नहीं मिली। लड़की ने एक दिन ‘तेरी कुड़माई हो गई’ का उत्तर दे दिया कि ‘हां, हो गई....!’ लहना विचलित हो गया। और वह लड़की? उस लड़की का विवाह जिससे हुआ, वह आगे चल कर सेना में सूबेदार बना और वह लड़की कहलाई सूबेदारनी। एक भरा-पूरा परिवार, वीर, साहसी पति, वैसा ही वीर, साहसी बेटा। आर्थिक सम्पन्नता। सामाजिक दृष्टि से सुखद पारिवारिक जीवन। सुबेदारनी ने अपना दायित्व निभाने में कहीं कोई कमी नहीं रखी। उससे न सूबेदार को शिकायत और न उसके परिवार के किसी अन्य सदस्य को। अपने सामाजिक रिश्तों को निभाने में सूबेदारनी ने अपने जीवन, अपनी भावनाओं को समर्पित कर दिया। मन बहुत कोमल होती है, चाहे स्त्री का हो या पुरुष का। मन अपना अलग जीवन रचता है, अपनी अलग दुनिया सजाता है और सबसे छिप कर हंस लेता है, रो लेता है।
यदि लहना सिंह उस लड़की को भुला नहीं सका तो ‘वह लड़की’ यानी सूबेदारनी के मन के गोपन कक्ष में लहना की स्मृतियां किसी तस्वीर की भांति दीवार पर टंगी रहीं। सूबेदारनी ने ही तो पहचाना था लहना सिंह को और सूबेदार से कह कर बुलवाया था अनुरोध करने के लिए। स्त्री अपने प्रति प्रकट की गई उस भावना को कभी नहीं भूलती है जो निष्कपट भाव से प्रकट किए गए हों। सूबेदारनी के बारे में सोचते हुए अकसर मुझे अपनी ये काव्य-पंक्तियां याद आती हैं-
'छिपी रहती है
हर औरत के भीतर एक औरत
अकसर हम देख पाते हैं सिर्फ़ बाहर की औरत को।'
- डॉ शरद सिंह

‘इंसाफ का तराजू’ और स्त्री-मुद्दे : वाया बॉलीवुड - डॉ शरद सिंह

 
इंसाफ का तराजू और स्त्री-मुद्दे - वाया बॉलीवुड - डॉ शरद सिंह
भारतीय सिनेमा में यदि सन् 1980 की बात की जाए तो उस वर्ष एक फिल्म रिलीज़ हुई थी-‘इंसाफ का तराजू’। बी. आर. चोपड़ा के द्वारा निर्देशित इस फिल्म की भारतीय स्क्रिटिंग की थी शब्द कुमार ने। वस्तुतः यह फिल्म हॉलीवुड की एक प्रसिद्ध मूवी ‘लिपिस्टिक’ पर आधारित थी। कहानी नायिका प्रधान थी और बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय पर आधारित थी। सौंदर्य प्रतियोगिता में सफल रहने वाली एक सुंदर युवती पर एक अय्याश पूंजीपति का दिल आ जाता है और वह यह जानते हुए भी कि युवती किसी और की मंगेतर है, उसके साथ बलात्कार करता है। वह युवती पुलिस में रिपोर्ट लिखाती है। मुक़द्दमा चलता है और भरी अदालत में प्रतिवादी का वकील अमानवीयता की सीमाएं तोड़ते हुए युवती से अश्लील प्रश्न पूछता है और अंततः युवती को बदचलन ठहराने में सफल हो जाता है। पीड़ित युवती उस शहर को छोड़ कर दूसरे शहर में जा बसती है। उसका जीवन ग्लैमर से दूर एकदम रंगहीन हो जाता है। फिर भी वह अपनी छोटी बहन के लिए जीवन जीती रहती है। दुर्भाग्यवश कुछ अरसे बाद उसकी छोटी बहन भी नौकरी के सिलसिले में उसी अय्याश पूंजीपति के चंगुल में फंस जाती है और बलात्कार का शिकार हो जाती है। एक बार फिर वहीं अदालती रवैया झेलने और अपनी छोटी बहन को अपमानित होते देखने के बाद वह युवती तय करती है कि अब वह स्वयं उस बलात्कारी को दण्ड देगी।
‘इंसाफ का तराजू’ पर यह आरोप हमेशा लगता रहा कि एक संवेदनशील मुद्दे को व्यावयासिक ढंग से फिल्माया गया। दूसरी ओर ‘चक्र’, ‘दमन’, ‘बाज़ार’ जैसी फिल्में पूरी सादगी से और अव्यवसायिक ढंग से स्त्री-मुद्दों को उठा रही थीं। लेकिन ‘इंसाफ का तराजू’ की अपेक्षा इनकी दर्शक संख्या न्यूनतम थी। ये फिल्में बुद्धिजीवियों और अतिसंवेदनशील दर्शकों की पहली पसंद बन पाई जबकि ‘इंसाफ का तराजू’ ने बॉक्स आफिस पर रिकार्ड तोड़ दिया।
- डॉ शरद सिंह