सोमवार, अप्रैल 18, 2022

कहानी | थोड़ा सा पागलपन | डॉ ,सुश्रीशरदसिंह | भास्कर | रसरंग

प्रिय मित्रो, आज दैनिक भास्कर के "रसरंग" परिशिष्ट में (यानी सभी संस्करणों में) मेरी कहानी प्रकाशित हुई है- "थोड़ा-सा पागलपन"... 
💁मुझे लगता है कि यह थोड़ा सा पागलपन हम सब में होना चाहिए!.. तो मेरी कहानी पढ़िए और बताइए कि आप इससे सहमत है या नहीं...
मेरी कहानी प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार #दैनिकभास्कर  🙏
दैनिक भास्कर के "रसरंग" में प्रकाशित कहानी पठन सुविधा के लिए साभार यहां दे रही हूं....   
थोड़ा-सा पागलपन
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह
        सब उसे एक ही नाम से पुकारते थे - बूढ़ी माई। बूढ़ी माई की उम्र कितनी थी, यह बताना कठिन है। काले-सफेद खिचड़ी बाल, उसकी उम्र का अनुमान लगाने में बाधा बनते थे।  
बूढी माई सुबह होते ही पता नहीं कहां से हमारी कॅालोनी में आती और रात होते-होते पता नहीं कहां चली जाती। शुरू-शुरू में सबने उसके इस आने-जाने को संदेह की दृष्टि से देखा। कोई कहता कि वह उठाईगीर है। तो कोई कहता कि वह बच्चे उठाने वाले गिरोह से है। मगर इस तरह की अटकलबाजियां धीरे-धीरे समाप्त हो गईं और बूढ़ी माई के प्रति सबके मन में दया उपजने लगी। एक दिन किसी ने बताया कि उसने बूढ़ी माई को रात के समय रेलवे स्टेशन के बाहर गुड़ीमुड़ी हो कर सोते देखा हैं तब से रहा-सहा संदेह भी दूर हो गया।
कॅालोनी की औरतें बूढ़ी माई को बचा हुआ खाना दे दिया करतीं। खाना अच्छा हो या बुरा बूढ़ी माई बड़ी रुचि से खाती। उसे इस तरह खाना खाती देख कर मन भर आता। यही लगता कि अगर बूढ़ी माई का कोई अपना सगा होता तो क्या उसे इस तरह सब के घर के बचे हुए खाने पर निर्भर रहना पड़ता? कभी लगता कि बूढ़ी माई को जरूर उसके घरवालों ने निकाल दिया होगा। छिः! आज के जमाने में रिश्ते-नातों भी स्वार्थी हो चले है।
बूढ़ी माई ने मेरे मन में जाने कब जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला। वह मुझे देखती और उसकी अंाखों में ममता छलकने लगती। जल्दी ही उसने मेरे घर के खुले बरामदे में रात बिताना शुरू कर दिया।
रात भर वह मेरे घर के बरामदे में सोती और सुबह होते ही काॅलोनी परिसर में लगे नीम के पेड़ के नीचे जा बैठती। फिर दिन भर वहीं बैठी रहती। क्या गरमी, क्या जाड़ा, क्या बरसात। वह नीम के पेड़ के नीचे से हिलने का नाम नहीं लेती। वह नीम का पेड़ काफी पुराना था। इस कॅालोनी के बनने के दौरान पता नहीं कैसे वह कटने से बचा रह गया। वरना इस इलाके के सारे पेड़ काट कर कॅालोनी बना दी गई थी। कॅालोनी में रहने वाले किसी को भी इससे कोई अन्तर भी नहीं पड़ता था। फिर गमलों में उगने वाले पौधे या इनडोर प्लांट तो थे ही बागवानी प्रेम के लिए। यह बात अलग है कि वह नीम का पेड़ बूढ़ी माई की भांति सबके जीवन का अनिवार्य अंग बन गया था। कॅालोनी की धर्मप्रिय स्त्रियां नीम को जल चढ़तीं। उसके तने में धागा बंाध कर मन्नतें मंागती। यही नीम का पेड़ बूढ़ी माई की दिन भर की आश्रयस्थली बन गया था।
जब कभी बूढ़ी माई की चर्चा चलती तो लोग यही कहते-‘होगी वहीं, उसी नीम के पेड़ के नीचे।’
जल्दी ही बुढ़ी माई हमारे जीवन का ऐसा हिस्सा बन गई कि हमने उसकी ओर अलग से ध्यान देना ही छोड़ दिया। उसे बचा हुआ खाना देना, पुराने कपड़े देना आदि एक सामान्य-सा व्यवहार बन गया। बूढ़ी माई ने कब मेरे घर के बरामदे छोड़ कर नीम की छांव को पूरी तरह अपना लिया, इस पर मेरा भी ध्यान नहीं गया।
ज़िन्दगी यूं ही चलती रहती अगर उस दिन शोर न मचता। सुबह के यही कोई नौ-साढ़े नौ का समय था। लगभग हर घर में आपाधापी मची हुई थी। दफ़्तर जाने वालों के तैयार होने का समय। स्कूल-बस आने का समय। कामवाली बाई के लेट करने से बेहाल महिलाओं के बड़बड़ाने का समय। लेकिन एक शोर ने सबके कामों पर ब्रेक लगा दिया। ऐसा लगा कि जैसे कोई आत्र्तनाद कर रहा है, चींख रहा है, झगड़ रहा है। मैं हड़बड़ा कर दरवाजे की ओर लपकी। बाहर दरवाजे पर ही इला मिल गई।
‘क्या हुआ इला? ये शोर कैसा?’ मैंने इला से पूछा।
‘सुना है, बूढ़ी माई पागल हो गई है। लोगों को पत्थर मार रही है।’ इला ने बताया।
‘‘कहां है बूढ़ी माई?’’
‘‘वहीं नीम के नीचे।’’
‘चलो, चल कर देखते हैं।’ मैंने इला से कहा।
वहां भीड़ एकत्र थी। नीम के पेड़ के नीचे खड़ी बूढ़ी माई चिल्ला रही थी और बुलडोजर जैसी डिगिंग मशीन पर पत्थर मार रही थी। वहां खड़े लोगों से पूछने पर पता चला कि वह जगह बिक गई है और उसे खरीदने वाला पेड़ हटा कर वहां अपनी दूकान बनवाना चाहता है। इसीलिए वह पेड़ उखाड़ने के लिए मशीन ले कर आया है। हमेशा गुमसुम रहने वाली बूढ़ी माई मशीन देखते ही भड़क गई। मशीन चालक ने जितनी बार नीम के पेड़ की ओर बढ़ने का प्रयास किया उतनी बार बूढ़ी माई ने न केवल उस पर पत्थर बरसाए बल्कि मशीन के इतने करीब आ खड़ी हुई कि मशीन चालक ने घबरा कर मशीन बंद कर दी। उसने मशीन चलाने से साफ़ इनकार कर दिया।
नीम के पेड़ के चारो ओर अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। मगर सबके सब तमाशाबीन थे। वे मानो किसी खेल को टकटकी लगाए देख रहे थे। सभी को यही लग रहा था कि अभी पुलिस आएगी और बूढ़ी माई को पकड़ ले जाएगी। हो सकता है उसे पागलखाने भेज दिया जाए।  
मगर हुआ कुछ ऐसा जो किसी ने सोचा ही नहीं था। बूढ़ी माई के इस हंगामे की ख़बर किसी ने मीडियावालों को दे दी। देखते ही देखते वहां रिपोर्टर्स की भीड़ लग गई। एक रिपोर्टर आंखों देखा हाल सुनाते हुए कैमरे पर कहने लगा,‘‘यहंा इतनी भीड़ के बावजूद कोई भी इंसान नीम के पेड़ को बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। मगर एक पागल औरत जिसे लोग बूढ़ी माई कहते हैं, पेड़ से लिपटी हुई है अब आप ही बताएं कि पागल कौन है, बूढी माई या यहंा मौजूद भीड़?’’
रिपोर्टर की बात सूनते ही माहौल बदल गया। भीड़ ‘बूढ़ी माई ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने लगी। अब भीड़ आगे बढ़ कर नीम के पेड़ और मशीन के बीच अपनी दीवार की भांति खड़ी हो गई। अंततः जमीन मालिक ने हार मान ली और मामला यूं तय हुआ कि वह अपनी दूकान तो बनवाएगा लेकिन नीम के पेड़ को कटवाए बिना।
धीरे-धीरे भीड़ छंट गई। लोग अपने-अपने घरों को चले गए। मशीन लौट गई। लेकिन बूढ़ी माई उसी तरह पेड़ से लिपट कर खड़ी रही। मैं बूढ़ी माई के निकट पहुंची। उसने आहट पा कर पलट कर मेरी ओर देखा। उसकी अंाखें अभी भी क्रोध से जल रही थीं, लेकिन अपने सामने मुझे पा कर उन आंखों में शीतलता छा गई। अचानक बूढ़ी माई ने मुझे अपने गले से लगा लिया। शायद वह अपनी खुशी जाहिर करना चाहती थी। मेरी भी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। हम दोनों के सिर के ऊपर नीम का पेड़ अपनी नन्हीं हरी पत्तियों को हिला-हिला कर अपनी ठंडक बिखेर रहा था। उस समय बूढ़ी माई क्या सोच रही थी ये तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं यही सोच रही थी कि काश ! बूढ़ी माई जैसा थोड़ा-सा पागलपन हर इंसान में होता तो ऐसे न जाने कितने नीम के पेड़ कटने से बच गए होते।  
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रविवार, अप्रैल 10, 2022

संस्मरण | गर्मी के दिन - 1 बचपन की ठांव, तारों की छांव - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

संस्मरण | गर्मी के दिन - 1
 बचपन की ठांव, तारों की छांव
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वे दिन कितने अच्छे थे जब पन्ना के हिरणबाग वाले अपने सरकारी घर में हम रहते थे। छोटे-छोटे दो कमरों, एक भीतरी आंगन और एक छोटे-से बरामदे वाला बहुत छोटा-सा घर। लेकिन मेरे लिए वह राजमहल से कम नहीं था क्योंकि वहीं मैंने आंखें खोली थीं और वहीं रहते हुए मैंने दुनिया को जानना और समझना शुरू किया था। 
       मैं और मेरी वर्षा दीदी ! हम गर्मियों में शाम से ही घर के बाहरी आंगन में पानी का छिड़काव करके और नारियल से गुंथी हुई खटियां बिछा दिया करते थे। ज़रा ठंडापन होने पर बिस्तर बिछा देते थे और खाना बनने का इंतज़ार करते हुए बिस्तर पर पड़े-पड़े तारे देखा करते थे। बुधवार की रात को रेडियो सिलोन से बिनाका गीतमाला सुना करते थे और शनिवार की शाम को विविध भारती से जयमाला कार्यक्रम सुना करते थे। कभी-कभी हवा महल कार्यक्रम के नाटक भी सुना करते थे, जब मैं भी वहां मौजूद होती और रेडियो लगा देतीं। यह सब सुना जाता खुले आसमान के नीचे बिस्तर पर लेट कर। 
      हम दोनों ही छोटे थे । स्कूल में पढ़ते थे। वैसे, दीदी मुझ से 5 साल बड़ी थीं और मुझसे अधिक समझदार थीं।  उस समय दीदी मुझे तारों के बारे में बताया करती थीं। वे जानती थीं कि कौन सा मेजर उर्सा है यानी बड़ी सप्तऋषि और कौन सा माईनर उर्सा यानी छोटी सप्तऋषि। हम सप्तऋषि तारों को 'बड़ी चोर खटिया' और 'छोटी चोर खटिया' भी कहा करते थे क्योंकि उन तारों के साथ कथाएं भी जुड़ी हुई थीं, जो हमारे नाना जी ने हमें सुनाई थीं। वर्षा दीदी को ध्रुवतारे का भी पता था। मुझको बताया करती थीं कि " वो देखो नीम के पेड़ के ठीक ऊपर जो तारा चमक रहा है वहीं ध्रुवतारा है। देखना, सुबह तक वह वही रहेगा।। वहां से हिलेगा भी नहीं।" सचमुच वह तारा वहां से नहीं हिलता क्योंकि वह ध्रुव तारा जो था। उन्हीं दिनों से मेरी खगोल विज्ञान के प्रति रुचि जागी। उन दिनों हमारे घर वाराणसी से प्रकाशित होने वाला दैनिक "आज" अखबार डाक से आया करता था, जिसमें कभी-कभी रात्रिकालीन आकाश का नक्शा यानी तारों की स्थिति प्रकाशित की जाती थी।  मैं उसकी कटिंग काट के रख लेती थी और बाद में टॉर्च की रोशनी में उसे देखते हुए आकाश की ओर देखकर पहचानने की कोशिश करती थी कि इसमें से वृषभ की आकृति कौन-से तारे बना रहे हैं और सिंह का आकार कौन सितारे बना रहे हैं? बृहस्पति कहां पर स्थित है और मंगल कहां दिपदिपा रहा है? मुझे उन दिनों पता चल चुका था कि शुक्र को भोर का तारा कहा जाता है। वैसे वह संध्या का तारा भी कहलाता था क्योंकि संध्या होने के समय ही वह क्षितिज पर दिखाई देने लगता था जबकि सुबह होने के समय भी वह क्षितिज पर दिखता था। बृहस्पति सबसे अधिक चमकने वाला तारा और मंगल हल्की लालिमा लिए हुए। इन सबके बीच चमकता शुक्र अपने आप में बड़ा खूबसूरत लगता था। तब पता नहीं था कि शुक्र यानी वीनस गर्म और जहरीली गैसों से भरा हुआ है। उस समय बस, मंगल के बारे में पता था कि वह एक गर्म ग्रह है।   
        आज जब गर्मी के दिन आते हैं और रात को कमरे के अंदर पंखा, कूलर चलाकर घुटन भरे माहौल में सोना पड़ता है तो खुले आसमान के नीचे गुज़ारी गई वे रातें  बहुत अधिक याद आती हैं। वे निश्चिंत राते़ं। चमकते तारों के नीचे बिस्तर पर लेट कर कल्पनाओं में डूबी हुई रातें। और हां, जब शुक्ल पक्ष होता था तो हम चंद्रमा की स्थिति को गौर से देखा करते थे। पूर्णिमा आते-आते उस पर दिखाई देने वाला धब्बा गहराने लगता था। जिससे कभी चंद्रमा पर चरखा चलाती बुढ़िया तो कभी बड़े क्रेटर का एहसास जाग उठता था। यानी फिक्शन और रियलिटी के बीच एक द्वंद चलता था। जब परस्पर विद्वता दिखानी होती तो हम आपस में क्रेटर्स की बातें करते और जब कल्पना लोक में विचरण करने का मन होता तो चरखा चलाती बुढ़िया की बातें करते। वर्षा दीदी बताती थीं ये जो चांद की किरणें हैं, वे उस बुढ़िया के द्वारा काते जा रहे रेशमी चांदी के धागे हैं जो पृथ्वी तक लटकते रहते हैं। उन्होंने यह कहानी नानाजी से सुनी थी और जिसमें अपनी तरफ से कुछ और काल्पनिकता का समावेश करके मुझे सुना दिया करती थीं। जब मां आकर हमें टोंकती कि "चलो, खाने का समय हो गया है, उठो! खाना खा लो फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े बतियाना।" तब हमारी आकाश लोक की यात्रा थम जाती। लेकिन सिर्फ़ रात्रि भोजन करने तक के लिए। उसके बाद फिर हम अपने बिस्तरों पर आ लेटते।
      शुरू से ही मैं और दीदी अलग-अलग खटियों पर सोया करते थे। लेकिन हमारी खटियां परस्पर सटी हुई बिछी रहती थीं। हम आजू-बाजू लेटे हुए ढेर सारी बातें करते रहते थे। दीदी मुझे बहुत-सी कहानियां सुनाया करती थीं। शायद उसी समय से मेरे मन में कहानियों के बीज रोपित हो चुके थे जो धीरे-धीरे प्रस्फुटित, पल्लवित होते गए। दीदी ने तो ग़ज़ल की राह पकड़ी लेकिन मैंने घूम फिर कर उन कहानियों की राह पर ही कदम बढ़ाए जो कहीं मेरे मानस में बहुत गहरे दबी हुई थी। 
      काश! वे दिन लौट आते। खुले आसमान के नीचे, तारों की छांव में, खुली हवा में सांस लेते हुए, चांद और तारों वाली वे चमकीली रातें। किसी तरह का कोई भय नहीं। पन्ना के उस छोटे कस्बाई शहर का उस समय का निरपराध-सा वातावरण। यद्यपि हमारी कॉलोनी के अहाते की दीवार से ही सटा हुआ था ज़िला जेल का परिसर। शाम होते ही जहां से कैदियों के सामूहिक प्रार्थना किए जाने का स्वर सुनाई देता। वहां किन अपराधों के कैदी रखे जाते थे यह मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन इतना जरूर याद है कि उन दिनों भी मुझे उन से डर नहीं लगता था। हम बाहर टेबल फैन भी लगाते थे। जब मैं छोटी थी तो घर में नानाजी थे, मां थीं, कमल सिंह मामा थे वर्षा दीदी थीं और मैं थी। फिर मामा जी की नौकरी लग गई और वे ट्राईबल वेलफेयर के हायरसेकंडरी स्कूल में बतौर शिक्षक तत्कालीन शहडोल जिले के बेनीबारी नामक स्थान में पोस्टिंग में चले गए। तब नानाजी, मां, दीदी और मैं - हम चार लोग रह गए। लेकिन उन दिनों स्कूलों में गर्मी की 2 माह की छुट्टी और  दशहरे से दीपावली तक की 1 माह की छुट्टी हुआ करती थी। जिसमें मामाजी पन्ना आ जाया करते थे। वह हमारी छोटी सी सुंदर दुनिया थी जिसमें उस कॉलोनी में रहने वाले शेष पांच परिवार भी शामिल थे। कोई कृत्रिमता नहीं, बस सच्ची आत्मीयता!
         आज घरों में दुबकी गर्मी की रातें, उन दिनों की खुली हवा की रातों के सामने कुछ भी नहीं हैं। हमने बहुत कुछ गवां दिया है पिछले 30-40 वर्षों में। दुख है कि वह स्वच्छ प्रकृति और वह निर्भयता, शायद अब कभी लौट कर नहीं आएगी।
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(09.04.2022)