बुधवार, जुलाई 29, 2020

भारतीय कथा लेखन की आधुनिक प्रवृत्तियां और हिन्दी कथालेखन - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist and Social Activist

भारतीय कथा लेखन की आधुनिक प्रवृत्तियां और हिन्दी कथालेखन  - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
Bhartiya Katha Lekhan Ki Adhunik Pravrittiyan Aur Adhunik Katha Lekhan - Dr (Miss) Sharad Singh

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डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह के चार उपन्यास - 
पिछले पन्ने की औरतें, पचकौड़ी, कस्बाई सिमोन, शिखण्डी ....
Pichhale Panne Ki Auraten पिछले पन्ने की औरतें - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Pachakaudi पचकौड़ी - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Kasbai Simon कस्बाई सिमोन - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Shikhandi शिखण्डी - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Dr (Miss) Sharad Singh st Madya Pradesh Sahitya Academy Alankaran Samaroh, Bhopal MP



मंगलवार, जुलाई 28, 2020

एक पुनर्पाठ आलेख कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का ... संवेदनाओं का आकलन वाया ‘समय सरगम’ - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

 
Dr (Miss) Sharad Singh
एक पुनर्पाठ आलेख कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का ...


संवेदनाओं का आकलन वाया ‘समय सरगम’ 

         - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
                                           

समय यदि संगीत है तो आयु उसका आरोह और अवरोह है। जन्म से ले कर चरम युवा काल तक आरोह और फिर प्रौढ़ावस्था के लघु ठहराव के बाद अवरोह का स्वर फूटने लगता है। समय और आयु किसी की के लिए ठहरती नहीं है। समय का राग अपने अनेक स्वरों के साथ ध्वनित होता रहता हैै और आशाओं, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं की स्वरलिपि आयु अनुरूप राग छेड़ती रहती है। तार सप्तक के बाद मंद सप्तक पर लौटना अनुभवों से भरे जीवन का गुरुतम स्वरूप होता है जिसे आरोही स्वर अवरोह का थका हुआ स्वर मान लेते हैं और अपनी स्फूर्ति पर इठलाते हुए मंद-सप्तक स्वरों को बोझ समझने लगते हैं। यही समय और आयु का सत्य है और मानव के सामाजिक जीवन का भी। 
‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक अनूठा उपन्यास है। यह समय की गति को उसकी नब्ज़ और सामाजिक दुरावस्थाओं के साथ जांचता है। 18 फरवरी, 1925, पंजाब के शहर गुजरात में (अब पाकिस्तान में) जन्मीं कृष्णा सोबती पचास के दशक में ही लेखन से जुड़ गई थीं। उनकी पहली कहानी ‘लामा’ 1950 में प्रकाशित हुई। इसके बाद की प्रमुख कृतियां हैं- ‘डार से बिछुड़ी’, ‘ज़िन्ंदगीनामा’, ‘ए लड़की’,  ‘मित्रो मरजानी’,  ‘हम हशमत’,  ‘दिलो-दानिश’ और ‘समय सरगम’। सन् 2000 में प्रकाशित उपन्यास ‘समय सरगम’ को के.के. बिरला फाउंडेशन ने वर्ष 2007 के व्यास सम्मान प्रदान किया।
Samay Sargam - Krishna Sobati
      ‘समय सरगम’ को पढ़ते हुए सहसा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का संस्मरणात्मक निबंध ‘वृद्धावस्था’ याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है -‘‘काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन निर्मला से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूं।’’ 
अवस्था चाहे कोई भी हो प्रायः किसी अन्य व्यक्ति के बोध कराने पर अनुभव होती है, वृ़़द्धावस्था तो विशेषरूप से। बच्चे आयु में कितने भी बड़े हो जाएं किन्तु माता-पिता की दृष्टि में बच्चे ही रहते हैं। पचास वर्षीय संतान को भी चोट लगती है तो मां को ठीक उतनी ही पीड़ा होती है जितनी कि उसे शैशवावस्था में चोट लगने पर पीड़ा होती थी। इसके विपरीत मां की गोद में छिप कर सारे संसार के भय, निराशा और क्रोध से मुक्ति पा लेने वाली संतान जब आत्मनिर्भर हो जाती है तब उसे अपनी वही मां अनापेक्षित लगने लगती है। वह अपनी अशक्त हो चली मां को वह संरक्षण, वह सहारा, वह स्नेह देने को तैयार नहीं होता है जो उसने अपनी मंा से पाया था।
Krishna Sobati
      वृद्धावस्था का अहसास उस पल पहली बार होता है जब अपनी ही संतान द्वारा अवहेलना का शिकार होना पड़ता है वहीं वृद्धावस्था समाज द्वारा ‘बेचारी’ अवस्था के रूप में देखे जाने के कारण भी व्यक्ति को तोड़ने लगती है। ‘समय सरगम’ में दो प्रमुख पात्र हैं- आरण्या और ईशान। दोनों वृद्धावस्था में पहुंच चुके हैं। वह अवस्था जिसे ‘सीनियर सिटिजन’ के सम्बोधन से खोखला सम्मान तो दे दिया जाता है किन्तु सत्यता इससे परे कटु से कटुतर होती है। ईशान बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं किन्तु उनके बेटे उन्हें अपने साथ नहीं रखते हैं। ईशान अकेले रहते हैं और इस बात की प्रतीक्षा रहती है उन्हें कि उन्हीं पोती अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उन्हें फोन करेगी और बुलाएगी। यह अल्प सुख ईशान के भीतर जीवित रहने की जिजिविषा बनाए रखता है। यह सच है कि आरण्या के साथ ने उनके जीवन में उत्साह का संचार किया। वहीं आरण्या एकाकी महिला है। जीवन जीने की दिशा में ईशान से कहीं अधिक स्फूत्र्त। वह लेखिका है। शायद इसी लिए उसका एकाकीपन उसे नैराश्य से बचाए रखता है। दोनों व्यक्ति दिल्ली महानगर में रहते हैं। दोनों दिल्ली विकास प्राधिकरण के आभारी हैं जिसने ऐसे पार्क बना रखे हैं जहां जवान, बूढ़े हर कोई घूम सकता है, हल्के-फुल्के व्यायाम करते हुए परस्पर एक दूसरे से परिचित हो सकता है। वृद्धों के लिए ऐसी जगह सबसे आरामदेह है। ‘‘बूढ़ों सयानों की टोली हर शाम इस छोटे से बगीचे में पहले टहलती है, फिर बतियाती है। डी.डी.ए. की बदौलत। नागरिक कृतज्ञ हैं इस छुटके से बगीचे में बिछी हरियाली घास के लिए। फूलों की क्यारियों और लतरों के लिए। न होता ये सुहाना टुकड़ा तो देखती रहती यह अंाखें सीमेंट के अपार्टमेंट जंगल को।’’ (पृ.89) 
 खुली हवा में सांस लेते हुए अपने हमउम्रों के दुख-सुख को बंाटने का एक अलग ही आनन्द है। लेकिन पार्क से लौटते ही वही एकाकीपन। इस एकाकीपन के पास कृष्णा सोबती कैसे पहुंची? कैसे उन्हें उस पीड़ा का अहसास हुआ कि अकेले वृद्ध किस तरह खुशियों के एक-एक कतरे के लिए तरसते हैं? इस तारतम्य में उनका स्वयं का कथन बहुत अर्थ रखता है-‘‘मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया। यानी एक थी आजादी और एक था विभाजन। मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ़ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता और न ही सिर्फ़ अपने दुख-दर्द और खुशी का लेखा-जोखा पेश करता है। लेखक को उठना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ, इतिहास के फैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैंने देखा, जो मैंने जिया वही मैंने लिखा ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘समय सरगम’, ‘यारों का यार’ में।’’ (बीबीसी हिन्दी डाॅट काॅम, 18 अगस्त 2004)  
कथानक भले ही एकाकी वृद्धों के जीवन पर केन्द्रित हो किन्तु देश के बंटवारे का दर्द ‘समय सरगम’ में भी अपनी सम्पूर्णता के साथ दिखाई पड़ता है। ‘‘नई पुरानी दिल्ली अपनी घनी सजीली छब में हर हाल में अपनी सूरत और सीरत सम्हाले रहती। आज़ादी के साथ ही राजधानी में बाढ़ की तरह रेला उठ आया। आक्रामक विस्थापितों के ठट्ठ के ठट्ठ। यहां-वहां सब जगह। शहर के हर इलाके में। दिल्ली निवासी शरणार्थियों की भीड़ से परेशान और गंाव-कस्बों और शहरों से उखड़े हुए आक्रामक शरणार्थी-दिल्ली के सुसंस्कृत मिज़ाज में घूल भरी आंधियां चलने लगीं।’’ (पृ.43)
शरणार्थी अपने और अपनों के जीवन के लिए आक्रामक मुद्रा में भले ही थे किन्तु अधिकांश ऐसे थे जो अकेले रह गए थे। अतः अकेलेपन की चर्चा के समय देश के बंटवारे के दौरान उपजा अकेलापन भी विषयानुकूल है। पहले भरपूरा परिवार पारम्परिक और संस्कृति से ओतप्रोत फिर एक लम्बा अकेला जीवन। यह बंटवारे के समय परिस्थिति का परिणाम रहा किन्तु वर्तमान में यह प्रारब्ध बन गया है। दिल्ली जैसे महानगरों की गंगनचुम्बी इमारतों के छोटे-छोटे फ्लैट्स में एकल परिवार और अकेले बूढ़ों की वो दुनिया बस गई है जिनके बीच स्नेह की बेल सूख चुकी है। आरण्या और ईशान संयुक्त परिवार की अवधारणा के समाप्त होने पर चर्चा करते हैं तो आरण्या बोल उठती है-‘‘ईशान, मुझे संयुक्त परिवार का अनुभव नहीं। दूर-पास से जो इसकी आवाज़ें सुनीं वह सुखकर नहीं थीं। इतना जानती हूं कि परिवार की सुव्यवस्थित अस्मिता ओर गरिमा का मूल्य भी उनहें ही चुकाना होता है जिनका खाता दुबला हो। परिवार की सांझी श्री पैसे के व्यापारिक प्रबंधन में निहित है। उसकी आंतरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है। घनी छांह की जगह घिसी हुई पुरानी चिन्दियां फरफरा रही हैं। जानती हूं ईशान, आपको यह बात ठीक नहीं लग रही, पर मैं अपनी कीमत पर इसकी पड़ताल कर रही हूं और ‘सत्य’ के नाू-रूप में संचारित छोटे-बड़े झूठ और झूठों से बनाए गए स्वर्णिम सत्यों की ठोंक-पीट ही इस सात्विक संसार की प्रेरणा है।’’ (पृ.64) 
यदि वृद्धावस्था आ गई है तो क्या चैबीस घंटे ईश्वर की स्तुति एवं धर्म-दर्शन में व्यतीत करना चाहिए? ईशान आरण्या का परिचय दमयंती से कराता है। वह भी उनकी हमउम्र है। किन्तु वह इन दोनों की भांति एकाकी नहीं है वरन् अपने बेटों-बहुओं के साथ रह रही है। उसने समाज एवं परिवार की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप स्वयं को एक गुरु की शिष्या बना कर सत्संग के हवाले कर दिया है। ऊपर से देखने से यही लगता है कि वह अपनी इस स्थिति से प्रसन्न एवं संतुष्ट है। वास्तविकता इससे परे है। दमयंती का खान-पान गुरू के निर्देशानुसार बदल चुका है। पहनावा भी उन्हीं के अनुसार अपना लिया है। लेकिन बेटे, बहू फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। दमयंती मानो किसी भुलावे में जी रही है। वह कहती है-‘‘आरण्या, मैं सूती कपड़ा तन को छुआती न थी। एक दिन सत्संग के बाद मेरी गुरूजी ने टोक दिया। अब सूफियाने-से सूती जोड़े बनवाए हैं। मेरे बेटों और बहुओं की सुनो। रेशम पहनो तो कहते हैं, इस उम्र में ये मचक-दमक अच्छी नहीं लगती। सूती पहनूं तो वह भी पसंद नहीं। कहते हैं कि इनमें आप हमारी मां नहीं लगतीं। तुम्हीं बताओ क्या करूं?’’ (पृ.72) लेखन और समाजहित के कार्यों के संबंध में यही दमयंती आगे कहती है-‘‘बहन, यह काम तो यहीं धरे रह जाएंगे ओर कभी पूरे न होंगे। हमें आगे का भी सोचना है।’’ कितनी दिग्भ्रमित है दमयंती। जिसने अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्हें सही और गलत का अर्थ समझाया। सही रास्ता दिखाया। जीवन का अर्थ समझाया। वहीं दमयंती वृद्धावस्था में आते ही अपने बच्चों के व्यवहार से इतनी भयाक्रांत हो गई कि उसने सही और गलत में भेद करना ही भुला दिया। परलोक के अस्तित्व के विचारों ने उसे इहलोक के उन दायित्वों से विमुख कर दिया जो अभी वह भली-भांति निभा सकती थी। अपितु ये कहा जाए कि यही वृद्धावस्था की दायित्वमुक्त आयु स्वयं को जीने की आयु होती है जिसे दमयंती जैसे व्यक्ति जीने का न तो साहस कर पाते हैं और न दसके बारे में सोच पाते हैं। परलोक के अस्तित्व की एक भेड़चाल या फिर वृद्धों को भयभीत कर रखने की वह चाल जिसमें उलझ कर वे युवाओं के जीवन में हस्तक्षेप न कर सकें। 
आरण्या परलोक-भय की भेड़चाल से परे अपने रास्ते पर चल रही है। वह अपने तयशुदा दायित्वों के प्रति न केवल सजग है अपितु उन्हें निष्ठापूर्वक पूरे भी करना चाहती है। आयु को ले कर ईशान के ऊहापोह के उत्तर में आरण्या कहती है-‘‘मैं अपने को उम्र में इतना बड़ा महसूस नहीं करती जितना आप मान रहे हैं। मेरे आसपास मेरा परिवार नहीं फैला हुआ कि मैं अपने में मंा, नानी, दादी की बूढ़ी छवि ही देखने लगूं। ईशान, मुझे मेरा अपनापन निरंतरता का अहसास देता है।’’ (पृ.80) यही तो वह तथ्य है कि आयु को अनुभव करना ही आयु को से समझौता कर लेना है। आरण्या को यह समझौता स्वीकार नहीं है। वह बड़ी-बूढ़ी छवियों में उलझ कर स्वयं को बूढ़ी मान कर थकाना नहीं चाहती है। क्योंकि वह जानती है कि एकाकीपन उन रिश्तों की बूढ़ी छवियों के बीच और अधिक गहरा जाता है। 
रिश्तों के एकाकीपन के तारतम्य में उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ सहसा स्मरण हो आती है। एक व्यक्ति जब रिटायर हो कर घर लौटता है तो घर में खलबली मच जाती है। उसे सदा के लिए कोई अपने बीच नहीं पाना चाहता है। घर का प्रत्येक सदस्य, यहां तक कि उसकी पत्नी भी चाहती है कि वह उसकी तरह समझौतावादी बन कर रहे अथवा फिर कहीं चला जाए। उसकी घर वापसी उसके घरवालों के लिए ही खटकने वाली हो जाती है। यही है अपनों के बीच का परायापन जो सेवानिवृत्त व्यक्ति को अकेला कर देता है। ईशान इसी अकेलेपन को जी रहा है। किन्तु आरण्या नहीं। आरण्या मंा, नानी, दादी नहीं बल्कि एक स्वावलम्बी स्त्री के रूप में जीवन जी रही है, वृद्धावस्था के फेंटे में आने के बावजूद भी। वह उन लोगों जैसी समझौतावादी नहीं है जो स्वयं को अशक्त मान लेते हैं और बहू-बेटों के तिरस्कार में भी अपने सुखों की तलाश करते शेष जीवन बिता देते हैं। बहुमंजिला इमारत में अपने फ्लैट (जो उनका अपना नहीं रहा, बहुओं-बेटों का हो चुका ) के ठीक बाहर सड़क के उस पार बने नन्हें से पार्क में उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। वे यही सोच कर स्वयं को ढाढस बंधाते हैं कि ‘‘कामकाज से छुट्टी पा इसे भोगना भी सुख है जीने का। बहू-बेटों की नज़रों में रुखाई, अवज्ञा, उदासीनता कुछ भी दीखती रहे-परिवार के साथ हाने का सुख है गहरा। रहती है आत्मा शांत कि सभी कोई पास हैं। अपने साथ हैं।.....यह बात अलग है कि परिवारों में बड़े-बूढ़ों के अधिकार कमतर और ‘हां’ ‘न’ का संकोच ज्यादा है। पीढ़ी सरक जाए तो अख्तियार खुद ही आधे-पौने हो जाते हैं। बहू -बेटों की मरजी मुताबिक चलना। वे जैसा चाहें रहते रहें। हम क्यों तानाशाह बने हुक्म चलाते रहें।’’ (पृ.89-90) अपनी स्थिति को नियति मान लेना और अपने बहू-बेटों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना इतना भी बुरा नहीं है जितना कि रिश्तेदारों के होते हुए भी अकेले पड़ जाना। ईशान की परिचित कामिनी इसी विडम्बना को जी रही है। कामिनी का भाई अपने परिवार के साथ अलग रहता है। कामिनी की सेवा-टहल के लिए ‘खूकू’ नाम की नौकरानी है। नौकरानी भी ऐसी जो कामिनी की अवस्था से तादात्म्य नहीं बिठा सकी है। वह आलमारी की चाबी के बारे में पूछने पर ईशान से कहती है-‘‘कभी मेम साहिब के पास होती है, कभी मेरे पास। उन्हें कुछ याद नहीं रहता। कहीं रख देती हैं और मुझ पर बरसने लगती हैं। क्या करूं साहिब, मुझे ऐसी नौकरी छोड़ देनी चाहिए पर इनकी हालत पर तरस आता है।’’ (पृ.99) ईशान और आरण्या दोनों समझ जाते हैं कि यह ‘तरस’ वास्तविक ‘तरस’ नहीं है। इसके पीछे निहित स्वार्थ की गंध उन्होंने स्पष्ट महसूस की। किन्तु वे उस लाचार वृद्धा के रिश्तेदार नहीं हैं जो कोई ठोस कानूनी क़दम उठा सकें। जो रिश्तेदार है अर्थात् कामिनी का भाई उसे अपनी बहन से अधिक अपनी बहन के घर से प्यार है। कामिनी ईशान और आरण्या को बताती है कि ‘‘मुझे दलाल बता गया है कि भाई ने मेरे घर का सौदा कर लिया है। बयाना ले चुका है। खूकू ने मुझे नहीं बताया पर बिल्डर घर को दो बार आगे-पीछे और अंदर से देख गया है। मैं तब सोई पड़ी थी।’’ कामिनी आगे बताती है कि ‘‘एक रात देखा तो मेरी डाक्यूमेंट फाईल में घर के पेपर नहीं थे। अगली रात यह (खूकू) बाहर ताला डाल कर चली गई तो फिर आलमारी खोली। सब खाने छान मारे फाईल खोली तो असली की जगह फोटोस्टेट काॅपी रखी थी।....असली अब मेरे पास नहीं है।’’ (पृ. 98) यह छल, वह भी अपने सगे भाई और अपनी नौकरानी के हाथों। कामिनी को यह सब सहन करना पड़ रहा था। क्यश एक वृद्धा के लिए जिसने अपना जीवन शान से सिर उठा कर, निद्र्वन्द्व हो कर जिया हो, आसान हो सकता था? कामिनी के लिए कुछ भी आसान नहीं था। 

आरण्या के अपने अनुभव भी कम कटु नहीं थे। यदि वृद्ध व्यक्ति अकेला हो तो क्या उसे सुगमता से किराए का घर मिल सकता है? वह न तो युवाओं जैसी पार्टियां करेगा, न तो लड़कियों अथवा लड़कों को अपने घर लाएगा, युवाओं में प्रचलित कोई भी असमाजिक हरकत नहीं करेगा चाहे वह वृद्ध हो या वृद्धा। फिर तो मकान मालिक को ऐसे वृद्धों को किराए से मकान देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति से सुरक्षित वृद्ध का तो और पहले स्वागत किया जाना चाहिए। किन्तु इस सिक्के का दूसरा पहलू अत्यंत भयावह है। आरण्या को मकान बदलने की नौबत आती हैं वह एक अदद किराए का मकान ढूंढने निकल पड़ती है। 

‘‘एक अच्छे खासे घर को दो-तीन बार देख कर उसका एडवांस देना चाहा तो ऐजेंट के साथ खड़े बुजुर्ग ने पूछा-यह बताएं कि आपकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
जिम्मेदारी? क्या मतलग?
आप अकेली रहेंगी कि कोई और भी साथ में होगा? 
मैं रहूंगी और मैं ही अपने लिए जिम्मेदार हूं।
आपकी जन्म तारीख किस सन् की है?
यह क्यों पूछ रहे हैं आप? इसलिए कि हमें पूछना चाहिए। कल को चली-चलाई को कुछ चक्कर हो तो हम झमेले में क्यों पड़ें।’’ (पृ. 122)
यानी मृत्यु का आकलन करके मकान किराए पर देना तय करना। एकदम अमानवीय विचार। एकदम अमानवीय कृत्य। किन्तु यही सामाजिक सत्य है, घिनौना, स्वाभाविक सोच से परे। मृत्यु वृद्धावस्था की सगी-संगिनी हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आयु का उतार चढ़ाव नहीं देखती है। बस, अपने मतलब की संासें गिनती है और आ धमकती है। शिशु भी युवा भी, वृद्ध भी सभी इसी की छांह में सांसे लेते हैं। यदि पल भर को मान लिया जाए कि मृत्यु और वृद्धावस्था सगी बहनें हैं तो ऐसी दशा में तो वृद्ध को सहारा और सिर पर छत मिलनी ही चाहिए। किन्तु स्वार्थ और आर्थिक लोभ इंसान को पाषाणहृदय बना देता है। तभी तो जब एक अन्य फ्लैट को तय करने के लिए आरण्या एजेंट से बातचीत करती है।
‘‘एजेंट ने कंपनी लीज़ की मांग की।
कुछ देर सोचती रही फिर हामी भरी। हां, दे सकूंगी।
नाम बताइए कंपनी का। कौन है?
मेरे प्रकाशक हैं। 
क्या आप लेखक हैं! किताबें लिखती हैं? ऐसा है तो कहां से ला कर देंगी किराया?
आरण्या बिना जबाव दिए नीचे उतर गई।’’ (पृ. 122) 
Dr (Miss) Sharad Singh

कृष्णा सोबती यहां एक साथ दो बिन्दुओं पर प्रहार करती हैं। एक तो वृद्धों के प्रति मकानमालिक और ऐजेंट के मानवतारहित व्यवहार पर और दूसरा भारत में लेखकों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा पर। भारत में आदिकाल से लेखन को चैंसठ कलाओं में से एक कला माना जाता रहा है। किन्तु मान्यता और यथार्थ के बीच की गहरी खाई यहां हमेशा रही है। राजाओं के जमाने में राजाश्रय पा जाने वाले साहित्यकार अर्थ और समाज से प्रतिष्ठित रहते थे जबकि राजाश्रयविहीन साहित्यकार यदि पूछे भी जाते रहे हैं तो अपनी मृत्यु के सदियों बाद। आधुनिक युग में भी यही स्थिति है। पाश्चात्य जगत में ऐसा नहीं है। वहां साहित्यकार सिर्फ साहित्य सृजन कर के रायल्टी के दम पर अपनी रोजी-रोटी चला सकता है। किन्तु भारत में नहीं। यहां लेखक को बुद्धिजीवी की श्रेणी में भले ही गिना जाए परन्तु उसकी ‘लक्ष्मीप्रिया’ नहीं मानी जाती है। जो बुद्धि सीधे धनार्जन में लगे उसकी साख है, साहित्य में लगने वाली बुद्धि की नहीं। साहित्य का ‘मार्केट वेल्यू’ साहित्य व्यवसायी के लिए भले हो पर साहित्यकार के लिए नहीं होता है। अस्तु एक साहित्यकार की आर्थिक साख और उसके साहित्य के बल पर उसके जीवन की मूल्यवत्ता होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
आरण्या को अपनी सहेली के घर शरण लेनी पड़ती है। तब ईशान के मन में आता है कि क्यों न आरण्या उसके घर में आ कर रहे एक साथी की तरह। आरण्या कुछ हिचकते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है। दो वृद्धजन परस्पर एक-दूसरे का सहारा बन कर जीने लगते हैं। विपरीत लिंगी होते हुए भी एक वासना रहित जीवन। विशुद्ध मैत्री पर आधारित साथ जिसमें एक-दूसरे का सुख-दुख, चिन्ता, आवश्यकताएं और पूरकता निहित है। ‘‘कितने बरस गुज़र गए। हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गए। कहां मालूम था कि पतझर के इस मौसम में हम लोग मिल जाएंगे, पुराने परिचितों की तरह नहीं-नए मित्रों की तरह। लंबा अरसा हो गया है इस शहर में रहते। अपने-अपने खातों को देंखें तो कहां जान पाएंगे कि कितना खोया और कितना पाया। हां, आरण्या, तुम्हें जान लेने पर यह तो लगता है कि जीना बैंक का अकाउंट नंबर नहीं, जिसका कुल जोड़ कुछ आंकड़ों में हो। मैं अब किसी असमंजस में नहीं हूं। क्यों न अपने जाने को सहज-सरल कर लें। हम दोनों में से किसी को दिक्कत न होगी।’’ (पृ.147) 
जीवन से एक साझापन ही आयु के समय को आसान बना सकता है बशर्ते
यह साझापन विवशता का नहीं सहजता और उत्फुल्लता का हो। अन्यथा एकाकी वृद्धों के पास अपनी बचीखुची सांसें गिनते हुए दिन काटने के सिवा कोई चारा नहीं बचता है। एक ओर कामिनी, दमयंती जैसे वृद्ध हैं जो पारिवारिक दबाव के चलते आयु के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं या फिर एक निःश्वास की भांति मंथर गति से घिसटते रहते हैं मृत्यु की ओर। ईशान जैसे वृद्ध व्यक्ति भी हैं जो परिस्थितियों को एक मध्यममार्गी की भांति स्वीकार करते हैं। वहीं आरण्या जैसे वृद्ध हैं जो बिना किसी को कष्ट पहुंचाए अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं। स्वावलंबी और स्वाभिमानी ढंग से। यद्यपि ऐसे मार्ग में अवरोध ही अवरोध हैं। एक तो स्त्री, वह भी अकेली और उस पर लेखिका। न कोई आर्थिक साख, न कोई सामाजिक सहारा। फिर भी अडिग रह कर जीवन के शेष दिनों को अपनी इच्छानुरुप ढालने का साहस। यही साहस उसे ईशान की निर्विकार मित्रता उपलब्ध कराता है। कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ में इसी सत्य को बखूबी सामने रखती हैं कि जीवन उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण है। यदि तार-स्वर हैं तो मंद-स्वर भी हैं। फिर भी ये सभी एक रागों में निबंद्ध हैं। 
ःसमय सरगम’ की भाषा पाठक से सीधा संवाद करती है। अपनी भाषा के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती ने कहा था कि-‘‘ पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।’’ उनकी भाषा की यही विशेषता कृष्णा जी के सृजन में आत्मीयता पैदा करती है। इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उनका कथानक जो ‘समय सरगम’ में ढल कर समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता है, महसूस कराता है।
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(डाॅ. शरद सिंह)
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गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
लेख

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

(साहित्यकार, स्तम्भकार एवं संपादक। लेखिका ने महात्मा गांधी, महामना मदनमोहन मालवीय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय तथा अटल बिहारी वाजपेयी सहित छः राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों की जीवनियां लिखी हैं।)
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भारतीय इतिहास में एक ऐसा वैश्विक व्यक्ति हुआ जिसने राजनीति को सात्विक बनाने के लिए अपने जीवन की कभी परवाह नहीं की। वे व्यक्ति थे महात्मा गांधी अर्थात् मोहन दास करमचंद गांधी अर्थात् राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। गांधी जी गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु मानते थे। यह मान्यता उन्होने गोखले के सानिंध्य में तीन माह व्यतीत करने के बाद दी। गांधी जी प्रथम दृष्टि में धारणा बना लेने वाले व्यक्तियों में से नहीं थें वे जांच-परख कर, परिस्थितियों एवं विचारों को अनुभूत करने के बाद ही कोई धारणा निर्धारित करते थे। 
Rashtravadi Vyaktitva Mahatma Gandhi written by Dr (Miss) Sharad Singh
सन् 1906 को दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के बाइसवें अधिवेशन में शामिल होने के लिए गांधी जी कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता अधिवेशन के अनुभव उनके लिए प्रियकर तो नहीं रहे किन्तु उन्हें अनेक ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उनके सम्पूर्ण जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। अधिवेशन के उपरांत अन्य कांग्रेसी नेता अपने-अपने क्षेत्रों में लौट गए किन्तु गांधी जी कलकत्ता में ही रुके रहे। वे वहां रुककर दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में समर्थन जुटाना चाहते थे। गांधी जी कुछ दिन ‘इंडिया क्लब’ में ठहरे। गोपाल कृष्ण गोखले ने युवा गांधी की योग्यता को पहचान लिया। वे गांधी जी को हठपूर्वक अपने साथ अपने निवास पर ले गये। लगभग तीन माह तक गांधी जी गोखले के घर रुके। इस दौरान गांधी जी ने जो अनुभव प्राप्त किए, वे उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। उन अनुभवों ने गांधी जी के विचारों को एक नया मोड़ दिया। गोखले के निवास पर व्यतीत किए गए अपने तीन महीनों के अनुभवों के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
Mahatma Gandhi with Gopal Krishna Gokhale

पहला महीना 
‘‘पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेहमान हूं। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताएं जान लीं और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकताएं थोड़ी ही थीं। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी, इसलिए मुझे दूसरों से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की, उस समय की मेरी पोशाक आदि की, सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उन पर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।
‘मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते, उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयांे में आज मेरी आंखांे के सामने सबसे अधिक डाॅ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते हंै। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूं कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।
‘ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालीस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नहीं किया है और न करना चाहते हैं।’ इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।
‘आज के डाॅ. राय और उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूं। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वही आज भी है। हां, आज वे खादी पहनते हैं, उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होंगे। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थीं अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थीं क्योंकि उनमें नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैंने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।
‘गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ, उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैंने अनुभव किया कि उनके सारे काम देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चाएं भी देशकार्य की खातिर ही होती थीं। उनकी बातों में मुझे कहीं मलिनता, दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नहीं हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों में उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, आप यह काम कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नहीं बचता।
‘रानाडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। ‘रानाडे यह कहते थे’, ये शब्द तो उनकी बातचीत में लगभग ‘सूत्र वाक्य’ जैसे हो गए थे। मैं वहां था, उन्हीं दिनों रानाडे की जयन्ती (अथवा पुण्यतिथि, इस समय ठीक याद नहीं है) पड़ी थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहां मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसर पर उन्होंने हमें रानाडे के अनेक संस्मरण सुनाए। रानाडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंने तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रूप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रूप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशल ट्रेन से अदालत पहुंचे थे और इस तरह रानाडे की चैमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं में उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानाडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे, अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की सीमा न रहती थी।
गोखले घोड़ागाड़ी रखते थे। मैंने उनसे इसकी शिकायत की। मैं उनकी कठिनाइयां समझ नहीं सका था। पूछा, ‘‘आप सब जगह ट्राम में क्यांे नहीं जा सकते? क्या इससे नेतावर्ग की प्रतिष्ठा कम होती है?’’
कुछ दुःखी होकर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम भी मुझे पहचान न सके? मुझे बड़ी धारासभा से जो रुपया मिलता है, उसे मैं अपने काम में नहीं लाता। तुम्हें ट्राम में घूमते देखकर मुझे ईष्र्या होती है पर मैं वैसा नहीं कर सकता। जितने लोग मुझे पहचानते हैं, उतने ही जब तुम्हें पहचानने लगेंगे, तब तुम्हारे लिए भी ट्राम में घूमना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाएगा। नेता जो कुछ करते हैं, सो मौज-शौक के लिए ही करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं है। तुम्हारी सादगी मुझे पसन्द हैं। मैं यथासम्भव सादगी से रहता हूं पर तुम निश्चित मानना कि मुझ जैसों के लिए कुछ खर्च अनिवार्य है।’’
‘‘इस तरह मेरी यह शिकायत तो ठीक ढंग से रद्द हो गयी पर दूसरी जो शिकायत मैंने की, उसका कोई सन्तोषजनक उत्तर वे नहीं दे सके। मैंने कहा पर आप टहलने भी तो ठीक से नहीं जाते। ऐसी दशा में आप बीमार रहे तो इसमें आश्चर्य क्या? क्या देश के काम में से व्यायाम के लिए भी फुरसत नहीं मिल सकती?’’
जवाब मिला, ‘‘तुम मुझे किस समय फुरसत में देखते हो कि मैं घूमने जा सकूं?’’
मेरे मन में गोखले के लिए इतना आदर था कि मैं उन्हें प्रत्युत्तर नहीं देता था। ऊपर के उत्तर से मुझे सन्तोष नहीं हुआ था, फिर भी चुप रहा। मैंने यह माना है और आज भी मानता हूं कि कितने ही काम होने पर भी जिस तरह हम खाने का समय निकाले बिना नहीं रहते, उसी तरह व्यायाम का समय भी हमें निकालना चाहिए। मेरी यह नम्र राय है कि इससे देश की सेवा अधिक ही होती है, कम नहीं।
Gopal Krishna Gokhale

दूसरा महीना
‘गोखले की छायातले रहकर मैंने सारा समय घर में बैठकर नहीं बिताया। दक्षिण अफ्रीका के अपने ईसाई मित्रें से मैंने कहा था कि मैं हिन्दुस्तान के ईसाइयों से मिलूंगा और उनकी स्थिति की जानकारी प्राप्त करूंगा। मैंने कालीचरण बैनर्जी का नाम सुना था। वे कांग्रेस के कामों में अगुआ बनकर हाथ बंटाते थे, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर था। साधारण हिन्दुस्तानी ईसाई कांग्रेस से और हिन्दू-मुसलमानों से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति मेरे मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बैनर्जी के प्रति नहीं था। मैंने उनसे मिलने के बारे में गोखले से चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वहां जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी हैं पर मेरा विचार है कि वे तुम्हें सन्तोष नहीं दे सकेंगे। मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। फिर भी तुम्हें जाना हो तो शौक से जाओ।’’
‘‘मैंने समय मांगा। उन्होंने तुरन्त समय दिया और मैं गया। उनके घर उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पड़ी थीं। घर सादा था। कांग्रेस अधिवेशन में उनको कोट-पतलून में देखा था पर घर में उन्हें बंगाली धोती और कुर्ता पहने देखा। यह सादगी मुझे पसन्द आई। उन दिनों मैं स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनता था, फिर भी मुझे उनकी यह पोशाक और सादगी बहुत पसन्द आई। मैंने उनका समय न गंवाते हुए अपनी उलझनें पेश कीं।
उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते हैं?’’
मैंने कहा, ‘‘जी हां।’’
‘‘तो इस मूल पाप का निवारण हिन्दू धर्म में नहीं है, जबकि ईसाई धर्म में है।’’ यूं कहकर वे बोले, ‘‘पाप का बदला मौत है। बाइबल कहती है कि इस मौत से बचने का मार्ग ईसा की शरण है।’’
मैंने ‘भगवद्गीता’ के भक्तिमार्ग की चर्चा की पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।
मैं यह कह सकता हूं कि इसी महीने मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनांे मैंने राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी के भी दर्शन किए।
कालीचरण बैनर्जी ने मुझसे काली-मन्दिर की चर्चा की थी। वह मन्दिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहां जा पहुंचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मन्दिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लम्बी कतार चली जा रही थी। मन्दिर की गली में पहंुचते ही मैंने भिखारियांे की भीड़ लगी देखी। वहां साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनांे भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियांे को कुछ न देने का था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।
एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, ‘‘क्यों बेटा, कहां जाते हो?’’
मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियों को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गए।
मैंने पूछा, ‘‘इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते हैं?’’
‘‘जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?’’
‘‘तो आप यहां बैठकर लोगों को समझाते क्यांे नहीं?’’
‘‘यह काम हमारा नहीं है। हम तो यहां बैठकर भगवद् भक्ति करते हैं।’’
‘पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?’
बाबाजी बोले, ‘‘हम कहीं भी बैठंे, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो भेंड़ांे के झुंड की तरह हैं। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते हैं, उसी रास्ते वे चलते हैं। हम साधुआंे को इससे क्या मतलब?’’
मैंने संवाद आगे नहीं बढ़ाया। हम मन्दिर में पहुंचे। सामने लहू की नदी बह रही थी। दर्शनांे के लिए खड़े रहने की मेरी इच्छा न रही। मैं बहुत अकुलाया, बेचैन हुआ। वह दृश्य मैं अब तक भूल नहीं सका हूं। उसी दिन मुझे एक बंगाली सभा का निमंत्रण मिला था। वहां मैंने एक सज्जन से इस क्रूर पूजा की चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘हमारा खयाल यह है कि वहां जो नगाड़े वगैरह बजते हैं, उनके कोलाहल में बकरों को चाहे जैसे भी मारो उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती।’’
‘उनका यह विचार मेरे गले न उतरा। मैंने उन सज्जन से कहा कि यदि बकरांे को जबान होती तो वे दूसरी ही बात कहते। मैंने अनुभव किया कि यह क्रूर रिवाज बंद होना चाहिए। बुद्धदेव वाली कथा मुझे याद आयी पर मैंने देखा कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। उस समय मेरे जो विचार थे, वे आज भी हैं। मेरे ख्याल से बकरों के जीवन का मूल्य मनुष्य के जीवन से कम नहीं है। मनुष्य देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न होऊंगा। मैं यह मानता हूं कि जो जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने का अधिक अधिकार है, पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है। बकरांे को इस पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्मशुद्धि और जितना त्याग मुझमें है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है। जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं यह प्रार्थना निरन्तर करता रहता हूं कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य को बचाए, निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे और मन्दिर को शुद्ध करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवृत्तिवाला और भावना-प्रधान बंगाल यह सब कैसे सहन करता है?
Rashtravadi Vyaktitva - Mahatma Gandhi - Book of Dr (Miss) Sharad Singh

तीसरा महीना 
‘कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गयी। ब्रह्मसमाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था। मैं प्रतापचन्द्र मजूमदार का जीवनवृतान्त थोड़ा जानता था। उनके व्याख्यान मैं सुनने गया था। उनका लिखा केशवचन्द्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैंने प्राप्त किया और उसे अत्यन्त रसपूर्वक पढ़ गया। मैंने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किए। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के दर्शनों के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे, इससे उनके दर्शन न हो सके। उनके यहां ब्रह्मसमाज का उत्सव था। उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर हम लोग वहां गए थे और वहां उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाए थे। तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया।
‘ब्रह्मसमाज का यथासम्भव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानन्द के दर्शन न करूं? मैं अत्यन्त उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल पहुंचा। मुझे इस समय ठीक से याद नहीं है कि मैं पूरा चला था या आधा। मठ का एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगा था। यह समाचार सुनकर मैं निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं, उनसे मिला नहीं जा सकता और वे अपने कलकत्तेवाले घर में हैं। मैंने भगिनी निवेदिता के निवास स्थान का पता लगाया। चैरंगी के एक महल मैं उनके दर्शन किए। उनकी तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत में भी हमारा मेल नहीं बैठा।
गोखले से इसकी चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वह बड़ी तेज महिला हैं। अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठा, इसे मैं समझ सकता हूं।’’
फिर एक बार उनसे मेरी भेंट पेस्तन जी के घर हुई थी। वे पेस्तन जी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी, इतने में मैं उनके घर जा पहुंचा था। अतएव मैंने उनके बीच दुभाषिए का काम किया था। हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिन्दू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था। उनकी पुस्तकों का परिचय मैंने बाद में किया।
मैंने दिन के दो भाग कर दिए थे। एक भाग में दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले मैं कलकत्ते में रहनेवाले नेताआंे से मिलने में बिताता था, और दूसरा भाग कलकत्ते की धार्मिक संस्थाओं और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखने में बिताता था।
एक दिन बोअर-युद्ध में हिन्दुस्तानी शुश्रूषा-दल में जो काम किया था, उस पर डाॅ. मलिक के सभापतित्व में मैंने भाषण किया। ‘इंग्लिशमैन’ के साथ मेरी पहचान इस समय भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। मि. सांडर्स उन दिनों बीमार थे पर उनकी मदद तो सन् 1896 में जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली। यह भाषण गोखले को पसन्द आया था और जब डाॅ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे।
यूं, गोखले की छाया में रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था। बंगाल के अग्रगण्य कुटुम्बांे की जानकारी मुझे सहज ही मिल गयी और बंगाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध जुड़ गया। इस चिरस्मरणीय महीने के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उस महीने में मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था। मैंने स्वर्ण-पैगोडा के दर्शन किए। मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं। वे मुझे अच्छी नहीं लगी। मन्दिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानन्द के अनुभव का स्मरण हो आया। ब्रह्मदेश की महिलाआंे की स्वतंत्रता, उनका उत्साह और वहां के पुरुषों की सुस्ती देखकर मैंने महिलाओं के लिए अनुराग और पुरुषांे के लिए दुःख अनुभव किया। उसी समय मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बम्बई हिन्दुस्तान नहीं हैं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है और जिस प्रकार हम हिन्दुस्तान में अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए हैं, उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजांे के साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियांे को कमीशन एजेंट बनाया है।
‘ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से विदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा पर बंगाल अथवा सच कहा जाए तो कलकत्ते का मेरा काम पूरा हो चुका था।
‘‘मैंने सोचा था कि धन्धे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूंगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूंगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँसकर उड़ा दिया पर जब मैंने इस यात्र के विषय मैं अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहां पहुंचकर विदुषी ऐनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस समय बीमार थीं।’’
कलकत्ता में गोपाल कृष्ण गोखले के साथ कुछ दिन व्यतीत करना  गांधी जी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। सन् 1912 में गांधी जी के आमंत्रण पर गोखले स्वयं दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद का विरोध किया। गांधी जी ने गोखले को हमेशा अपना ‘राजनीतिक गुरु’ माना। 
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(डाॅ. शरद सिंह)
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Mahatma Gandhi with Gopal Krishna Gokhale in a Group Photo

स्त्री, प्रेम, अधिकार और समाज अर्थात् विमर्श ‘लिव इन रिलेशन’ का - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
लेख

स्त्री, प्रेम, अधिकार और समाज
अर्थात् विमर्श ‘लिव इन रिलेशन’ का

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्र पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है....और वह क्या खोती है ? और प्रेम की भावना का क्या होता है? यही तो विमर्श है ‘लिव इन रिलेशन’ का।

‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं।
मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती। निःसंदेह प्रेम एक निराकार भावना है किन्तु देह में प्रवेश करते ही यह आकार लेने लगती है। एक ऐसा आकार जिसमें स्त्री मात्र स्त्री हो जाती है और पुरुष मात्र पुरुष। इसीलिए स्त्री और पुरुष का बिना किसी सामाजिक बंधन के भी साथ-साथ रहना आसान हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि पृथ्वी गोल है इसलिए दो विपरीत ध्रुव टिके हुए हैं अथवा दो विपरीत ध्रुवों के होने से पृथ्वी अस्तित्व में है? ठीक इसी तरह प्रश्न जागता है कि प्रेम का अस्तित्व देह से है या देह का अस्तित्व प्रेम से? कोई भी व्यक्ति अपनी देह को उसी समय निहारता है जब वह किसी के प्रेम में पड़ता है अथवा प्रेम में पड़ने का इच्छुक हो उठता है। वह अपनी देह का आकलन करने लगता और उसे सजाने-संवारने लगता है। या फिर प्रेम के वशीभूत वह अपनी या पराई देह पर ध्यान देता है। पक्षी भी अपने परों को संवारने लगते हैं प्रेम में पड़ कर । यूं बड़ी उलझी हुई भावना है प्रेम। इस भावना को लौकिक और अलौकिक के खेमे में बांट कर देखने से सामाजिक दबाव कम होता हुआ अनुभव होता है। इसीलिए कबीर बड़ी सहजत से यह कह पाते हैं कि -
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, हुआ न पंडित कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

प्रेम कोई पोथी तो नहीं जिसे पढ़ा जा सके, फिर प्रेम को कैसे पढ़ा जा सकता है? यदि प्रेम को पढ़ा नहीं जा सकता, बूझा नहीं जा सकता तो समझा कैसे जा सकेगा?

कहा तो यही जाता है कि प्रेम सोच-समझ कर नहीं किया जाता है। यदि सोच-समझ को प्रेम के साथ जोड़ दिया जाए तो लाभ-हानि का गणित भी साथ-साथ चलने लगता है। बहरहाल सच्चाई तो यही है कि प्रेम बदले में प्रेम ही चाहता है और इस प्रेम में कोई छोटा या बड़ा हो ही नहीं सकता है। जहां छोटे या बड़े की बात आती है, वहीं प्रेम का धागा चटकने लगता है।‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।’ प्रेम सरलता, सहजता और स्निग्धता चाहता है, अहम की गांठ नहीं। इसीलिए जब प्रेम किसी सामाजिक संबंध में ढल जाता है तो प्रेम करने वाले दो व्यक्तियों का पद स्वतः तय हो जाता है। स्त्री और पुरुष के बीच का वह प्रेम जिसमें देह भी शामिल हो पति-पत्नी का सामाजिक रूप लेता है। जिसमें पति प्रथम होता है और पत्नी दोयम। यहीं पहली बार चटकता है प्रेम का सूत।
यदि पति-पत्नी के रूप में नामांकित हुए बिना ही साथ-साथ रहा जाए, खालिस सहजीवी के रूप में किन्तु इस सहजीवन में देह की अहम भूमिका हो तो प्रेम कब तक अपने मौलिक आकार में टिका रह सकता है, कठोर खुरदरे यथार्थ और शुष्क पांडित्य के धनी दिखने वाले विद्वान भी जीवन में प्रेम की पैरवी करते हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्रा और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि ‘प्रेम एक  संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’
क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने लगता है, निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं। सांभवतः यही वह बिन्दु है जहां आ कर प्रेम आधारित सहजीवन भी ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की मांग करने लगता है और सहजीवन अर्थात् ‘लिव इन रिलेशन’ की बुनियाद दरकती दिखाई पड़ती है।
प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक़, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’

‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्र पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है....और वह क्या खोती है ? क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है?
‘लिव इन रिलेशन’ प्रेम का एक परम लौकिक रूप है। दो विपरीत लिंगी एक-दूसरे को परस्पर पसंद करते हैं, एक-दूसरे के प्रेम में भी पड़ते हैं और फिर बिना किसी सामाजिक बंधन में बंधे साथ-साथ रहने लगते हैं। एक सुखद सहजीवन। प्रेमी जोड़े के रूप में ही जीवन यापन का प्रण। 
प्रेम की परिभाषा बहुत कठिन है क्योंकि इसका सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति  पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं। यह एक अविवेकी भावना है जिसका कोई आधार नहीं होता और यह थोड़े समय के लिए ही कायम रहती है लेकिन यह बहुत सघन, तीव्र होती है अक्सर जुनून की तरह होती है। प्रेम वह अनुभूति है, जिससे मन-मस्तिष्क में कोमल भावनाएं जागती हैं, नई ऊर्जा मिलती है व जीवन में मीठी यादों की ताजगी का समावेश हो जाता है।  इसीलिए कहा जाता है कि पति-पत्नी के बीच प्यार ही वह डोर है, जो उन्हें एक-दूसरे से बांधे रखती है। तो फिर विवाह, फिर विवाह के बंधन की क्या आवश्यकता ?
प्रेम के बिना विवाह स्थाई बना रह सकता है और विवाह के बिना प्रेम। किन्तु कितने दिन, कितने महीने, कितने वर्ष, कुछ सच्चाइयों को जानना और मानना बहुत कष्टप्रद होता है, प्रेम को टूटते देखना भी....और उससे भी कष्टप्रद होता है प्रेम को विद्रूप होते देखना।
इसी जीवन, इसी समाज के दो प्राणी - एक सुगंधा और दूसरा रितिक। दोनों अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहते थे। बिना किसी सामाजिक बंधन के। वे महानगर में नहीं थे कि उन्हें जानने-पहचानने वाले कम होते। वे कस्बे के वासी थे। ढेर सारे परिचित उनके। दोनों ने साहसिक क़दम उठाया। वे विवाह किए बिना साथ-साथ, एक ही छत के नीचे, एक ही घर, एक ही कमरे में रहने लगे, सोने, बैठने लगे। दोनों में अटूट प्रेम था। दोनों में एक-दूसरे के प्रति पर्याप्त दैहिक आकर्षण था। दोनों अपने सहजीवन से खुश थे। किन्तु उनके परिवार और समाज को यह नहीं भाया कि वे दोनों बिना किसी सामाजिक बंधन के पति-पत्नी की तरह एक साथ रहें।
दोनों ने न तो परिवार की परवाह की और न समाज की। दोनों एक दूसरे से संतुष्ट थे तो जमाना उनके ठेंगे से। मगर वास्तविकता में सब कुछ ठेंगे पर रखना इतना आसान नहीं होता है। इस सच्चाई का सामना सुगंधा और रितिक को आए दिन होने लगा। परिवारजन ने आपत्ति की, पड़ोसियों ने आपत्ति की, जिसकी उन दोनों ने परवाह नहीं की। लेकिन समाज का अत्यधिक दबाव, पीढ़ियों से चले आ रहे संस्कारों का तकाज़ा और प्रकृति प्रदत्त आकांक्षा ने उन दोनों के बीच मौजूद प्रेम के बेल के पत्ते नोंचने शुरू कर दिए। पत्तों के बिना कोई बेल भला जीवित कैसे रह सकती है, यदि प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया नहीं होगी तो बेल को जीवन-खुराक कहां से मिलेगी, यदि जीवन-खुराक नहीं मिली तो वह धीरे-धीरे एक दिन सूख जाएगा।
Dr (miss) Sharad Singh with her novel - Kasbai Simon - based on Live In Relation

सुगंधा और रितिक जब ‘लिव इन रिलेशन’ में एक हुए थे उस समय वे प्रेमी-प्रेमिका थे। लेकिन आसपास के वातावरण ने सुगंधा के भीतर मातृत्व की इच्छा और रितिक के भीतर पति का भाव जगा दिया। सुगंधा यदि मां बने तो उसके बच्चे को पिता के वैधानिक नाम की आवश्यकता पड़ेगी। यह अहसास हुआ सुगंधा को। जबकि रितिक को लगने लगा कि पत्नी के समान साथ रहने वाली सुगंधा आम पत्नी की भांति उसके कमीज़ के बटन क्यों नहीं टांकती, उसकी सेवा क्यों नहीं करती अर्थात् उनका अस्तित्व पति-पत्नी संस्करण में ढलने लगा, जबकि वे विवाह करने के विरुद्ध थे।
मानसिक दबाव प्रेम को कुचल देता है। सुगंधा और रितिक प्रेम भी कुचल गया। प्रेम का रूप विद्रूप हो गया।वह अब पहले जैसा प्रेम नहीं रहा जो चट्टान पर रखे ताज़े सुर्ख लाल गुलाब की भांति महसूस होता था। गुलाब मुरझाता गया और सुगंध विलीन होती गई। एक दिन शेष रहा गुलाब के फूल का सूखा हुआ अस्तित्व जो इस बात की गवाही दे रहा था कि कभी वह किसी के प्रेम में महका था।
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ ऑफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्रा भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। वहीं, दो प्रेमियों के बीच कामवासना प्रेम का अंश हो सकती है सम्पूर्ण प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आल्हाद कैसे देगा, वह दुख देगा, खिझाएगा और निरन्तर हठधर्मी बनाता चला जाएगा। प्रेम की इसी विचित्रता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।।   
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।

सिमोन द बोउवार और ज्यां पाल सात्र्र सन् 1929 में पहली बार एक-दूसरे से मिले थे। दोनों का बौद्धिक स्तर परस्पर अनुरुप था। वे प्रेम में समता स्वतंत्रता और सहअस्तित्व में विश्वास रखते थे। सिमोन का कहना था कि समाज स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बना देता है। ‘स्त्री पैदा नहीं होती’ उसे बनाया जाता है’। सिमोन ग़लत नहीं थीं। नन्हीं बच्ची को खेलने के लिए बार्बी डॉल दी जाती है तो नन्हें बच्चे को क्रिकेट का बल्ला या खिलौने की बंदूक। थोड़ा बड़ा होने पर निर्धारित कर दिया जाता है कि बच्ची को घर से बाहर खेलने नहीं जाना है, उसे अकेले भी कहीं नहीं जाना है जबकि बच्चा बाहर जा कर खेल सकता है, वह अकेले कहीं भी आ-जा सकता है। लो, तैयार हो गई एक स्त्री और एक पुरुष। सामाजिक सांचे में ढल कर तैयार। सिमोन को यह सांचा कभी पसंद नहीं आया। वे ज्यां पाल सात्र्र के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ को जिया। वे आदर्श बनीं हर आधुनिक स्त्री की। किन्तु भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की घनी बुनावट में विवाह की अनिवार्यता आज भी यथावत बनी हुई है।
भारतीय सामाजिक परिवेश में दो ही तबके ‘लिव इन रिलेशन’ को दबंगई से जी पाते हैं, या तो एलीट वर्ग या फिर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले स्त्री-पुरुष। मध्यम वर्ग अपने ही बनाए नियमों की चक्की में पिसता रहता है। एलीट वर्ग एक फैशन की तरह प्रेम और सहजीवन के तादात्म्य को बनाए रखता है। वहीं दूसरी ओर झुग्गी बस्ती की स्त्री अपने प्रेमी के घर जा ‘बैठने’ से नहीं हिचकती है। निःसंदेह, पीड़ा उसे भी होती है, मन उसका भी दुखता है। लेकिन उसके भीतर प्रेम को पा लेने का वह जुनून होता है जो उसके भीतर समाज से टकराने की ताक़त पैदा कर देता है। बिना विवाह किए वैवाहिक जैसे संबंध में रहने के लिए प्रेम के सूफ़ियाना स्तर का होना आवश्यक है।
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया।
‘बाहर कौन है...’गुरु ने पूछा।
‘मैं।’शिष्य ने उत्तर दिया।
‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’ भीतर से गुरू की आवाज आई।
दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी।
‘कौन है..’फिर वही प्रश्न किया गुरु ने।
‘आप ही हैं।’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया और द्वार खुल गया।
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’
यह ‘मैं’ का चोला यदि न उतारा जाए और दो के अस्तित्व को प्रेम में मिल कर एक न बनने दिया जाए तो प्रेम में विद्रूपता आए बिना नहीं रहती है फिर चाहे विवाहित संबंध में रहा जाए या लिव इन रिलेशन में या फिर महज प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अलग-अलग छत के नीचे रहते हुए प्रेम को जीने का प्रयास किया जाए।
जब दो व्यक्ति प्रेम की तीव्रता को जुनून की सीमा तक अपने भीतर अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ रहने में असीम आनन्द और पूर्णता को पाएं तो वही प्रेम का अटूट और समग्र रूप कहा जा सकता है। इस प्रेम के तले कोई सामाजिक बंधन हो या न हो।
सूफी संत कवि लुतफी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के  मैं  मोम की बाती हूं
यक पांव पर  खड़ी हूं  जलने पिरत पाती हूं
सब निस  घड़ी जलूंगी  जागा सूं न हिलूंगी
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।
Kasbai Simon - Novel Of Dr (Miss) Sharad Singh based on Live in Relation 
      किन्तु जब बात ‘‘लिव इन रिलेशन’’ की हो तो मोम की बाती बन कर दोनों पक्ष को जलना होगा दोनों को एक-दूसरे के लिए एक पांव पर खड़े होना होगा और सभी प्रकार के कष्ट सहते हुए अडिग रहना होगा अन्यथा रिलेशन से प्रेम कपूर की तरह उड़ जाएगा और साथ रहने का आधार ही बिखर जाएगा। परस्पर संबंधों में प्रेम की यही तो महत्ता है। मैंने जब अपना उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ लिखा तो इसी बात की पड़ताल की कि भारतीय सामाजिक परिवेश में ‘लिव इन रिलेशन’ कितना सही है, कितना ग़लत। अपने उपन्यास का एक बहुत छोटा-सा अंश यहां विचारार्थ रख रही हूं -
‘ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं? कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं.....बस, इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।’ मैंने कहा था।
‘फिर पसंद? प्रेम नहीं?’
‘हां-हां, वहीं...प्रेम....प्रेम करती हूं तुमसे।’
‘मेरे साथ रहोगी...बिना शादी किए? लिव इन रिलेशन?’ रितिक ने चुनौती-सी देते हुए पूछा था और मैं रितिक के जाल में फंस गई थी। कारण कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहती थी और ‘लिव इन रिलेशन’ वाला फंडा मुझे अपने ढंग जैसा लगा था। बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे रोमांचित कर दिया था। इसमें मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी। मैं जब चाहे तब मुक्त हो सकती थी....वस्तुतः मुझे तो मुक्त ही रहना था....बंधन तो वहां होता जहां किसी नियम का पालन किया जाता।
बंधन!...... बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्री को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंध कर भी उन्मुक्त था...पूर्ण उन्मुक्त। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां-वहां फ्लर्ट कर सकता था...फिर भी समाज की दृष्टि में वह क्षमा योग्य ही बना रहता। सच तो यह है कि मैंने अपने बचपन में ही बंधन को तार-तार होते देखा था। वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही तो था वह जो किसी फॉसिल के समान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित। 
- तो यह है एक छोटा-सा अंश मेरे उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ का, जो अनेक प्रश्न सामने रख जाता है।                           
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री यदि ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है?... और वह क्या खोती है?....क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है? उस किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं? बड़ा ही कठिन विमर्श है यह।
यह माना जाता है कि स्त्री को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन यदि वह आर्थिक रूप से समर्थ हो, स्वयं कमाती हो तो क्या उसे समाज में सम्मान मिल सकता है? यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता। 
  स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।                       
हर औरत अपने अस्तित्व को जीना चाहती है, पुरुष के साथ किन्तु अपने अधिकारों के साथ। पुरुष से अधिक नहीं तो पुरुष से कम भी नहीं। क्योंकि कम होने की पीड़ा सदियों से झेलती आ रही है और अब बराबर होने का सुख पाना चाहती है। यही ललक उसे ‘लिव इन रिलेशन’ के प्रति आकर्षित करती है। किन्तु यह तो जांचना आवश्यक है कि इसमें भी स्त्री क्या-क्या खोती है और क्या-क्या पाती है?  ‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्री के लिए आवश्यक है। इस प्रकार के संबंधों का एक पक्ष और है जो अकसर समाचारपत्रों में समाचार बन कर सामने आता है-‘‘युवक ने युवती को शादी का झांसा देकर लिव इन रिलेशन में रखा और महीनों तक दैहिक शोषण करता रहा और जब उसने शादी से इनकार कर दिया तो युवती बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज़ कराने थाने जा पहुंची।’’
ऐसे समाचारों को पढ़ कर तय करना कठिन हो जाता है कि यह प्रेम से उत्पन्न लिव इन रिलेशन की भावना थी अथवा विवाह का उद्देश्य ले कर सोची-समझी व्यूह रचना। यानी जो पक्ष इस व्यूह रचना में असफल हुआ उसने दूसरे को कटघरे में खड़ा कर दिया। वस्तुतः ऐसे मामलों में ‘लिव इन रिलेशन’ की संकल्पना कहीं होती ही नहीं है। लिव इन रिलेशन के विमर्श को अपना महत्व समझाने के लिए ही भारतीय समाज में अभी लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी। क्योंकि लिव इन रिलेशन की वास्तविक संकल्पना यौनिक नहीं मानसिक है जिसमें पारस्परिक प्रेम ही केन्द्र में स्थापित है और देह अनुपस्थित है। यह स्वच्छंदता नहीं है जैसा कि अकसर मान लिया जाता है, यह तो मानसिक परिपक्वता की चरमस्थिति है। किन्तु जो इसे इसके इस अर्थ में नहीं समझ सकता है उसे ऐसे संबंध में पड़ कर संत्रास ही झेलना पड़ेगा। 

भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में पहली बार सन् 1927 और फिर सन् 1929 में लिव इन रिलेशनशिप के सवाल पर प्रीवी काउंसिल ने न्यायिक व्यवस्था दी थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीवी काउंसिल की व्यवस्था के आलोक में ही सन् 1952 और सन् 1978 में एक बार फिर न्यायिक व्यवस्था दी। माननीय उच्चतम न्यायालय यह कह चुका है कि विवाह के बिना साथ रहना और सहमति के साथ शारीरिक सबंध बनाना कोई भारतीय दंड संहिता में ”अपराध” ” नहीं है। वहीं, भारतीय दंड संहिता में एक पति पत्नि के बीच बिना सहमति के सहवास को बलात्कार माना गया है जो पत्नी के रूप में रहने वाली स्त्री के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा पर आधारित है। इसके लिए आवाश्यकतानुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 375 एवं 376 में संशोधन किया जा चुका है। सन् 2018 मंे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने लिव इन रिलेशनशिप को वैध मानते हुए इस पर अपना फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शादी के बाद भी वर या वधू दोनों में से किसी की उम्र विवाह योग्य नहीं होती है तो वे लिव इन रिलेशनशिप में एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं। जिससे उनकी शादी पर कोई असर नहीं पड़ेगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी युवक की उम्र शादी योग्य यानि 21 साल नहीं हुई है और उसकी शादी कर दी जाती है तो वह अपनी पत्नी के साथ लिव इन रह सकता है। साथ ही यह भी फैसला सुनाया है कि यह लड़का-लड़की पर निर्भर है कि जब उनकी उम्र शादी योग्य हो जाए तो वे फिर से विवाह करना चाहते है या नहीं। या ऐसे ही इस रिश्ते को निभाना चाहेंगे। पारिवारिक संबंधों के नवसंरचना की दिशा में यह एक कानूनी छलांग थी जिसने एक ही झटके में कई दरवाजे खोल दिए। लिव इन रिलेशनशिप को आज भी हमारा समाज एक कुरिवाज के रूप में मानता है। जिसपर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार युवक-युवती से कोई नहीं छीन सकता। चाहे फिर वह कोर्ट हो, कोई संस्था या कोई संगठन ही क्यों न हो। जिसके लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का कानून सार्थक साबित होगा। कोर्ट ने कहा कि अदालत का काम है कि वह निष्पक्ष निर्णय ले, न कि एक मां की तरह भावनाओं में बहे और न ही एक पिता की तरह अंहकारी बने।
Kasbai Simon - Novel Of Dr (Miss) Sharad Singh 
समाज के भय से कई बार प्रेम संबंधों को कानून का सहारा लेना पड़ता है। ऐसा ही के मामला अप्रैल 2017 को केरल में देखने को मिला था। जहां एक 19 वर्षीय युवती की शादी 20 साल के युवक के साथ हुई। शादी के योग्य होने में लड़के की उम्र एक साल कम थी। इस पर लड़की के पिता ने दूल्हे पर अपहरण का केस दर्ज करवा दिया था। केस केरल हाईकोर्ट पहुंची तो अदालत ने शादी को रद्द कर दिया और लड़की को वापिस पिता के पास भेज दिया। इसके बाद वर पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। पीड़ित पक्ष की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन पर अहम फैसला सुनाया और केरल हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया। कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को वैध मानते हुए कहा कि दोनों की शादी हिंदू धर्म के मुताबिक हुई है। इसलिए इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में लिव इन ही इसका उचित विकल्प है।
लेकिन प्रश्न उठता है कि प्रेम संबंध को समाज या कानून क्यों तय करे?  ये वे दो ध्रुव हैं जो प्रेम संबंधों पर स्त्री के पक्ष में अपना दृष्टिकोण और अपनी-अपनी व्याख्या रखते हैं। दोनों स्त्रियों के मान, सम्मान और सुरक्षा का दावा करते हैं लेकिन एकदम उत्तर और दक्षिण की भांति। वस्तुतः अभी भारतीय समाज इस तरह के संबंधों को समझने और आत्मसात करने में अभी पूरी तरह सक्षम नहीं है और तब तक नहीं होगा जब तक कि स्त्रियों में अपने अधिकारों को ले कर असुरक्षा की भावना रहेगी। जहां असुरक्षा की भावना रहेगी वहां प्रेम सशंकित अवस्था में रहेगा। यदि प्रेम विश्वास के धरातल पर खड़ा हो तो विवाह संबंध भी मात्र समझौता (एडजेस्टमेंट) नहीं होता है। वह एक स्थाई संबंध होता है जो जीवन को सामाजिक सहजता प्रदान करता है। लेकिन बात फिर घूमफिर कर वही आती है कि यदि स्त्री को उसका सम्मान और अधिकार वास्तविक रूप में न मिले तो वह विकल्पों की ओर बढ़ने को विवश होती रहेगी और छली जाती रहेगी तथा लिव इन रिलेशन के रास्ते में अपनी स्वतंत्रता ढूढती रहेगी। मात्र लांछन कोई हल नहीं है। यदि यह भटकाव रोकना है तो समाज को एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी और एक मां के रूप में मौजूद स्त्री के वास्तविक अधिकारों को समझना और स्थापित करना होगा, तभी सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर पर स्त्री-पुरुष का पारस्परिक प्रेम जीवित रहेगा और संबंधों की सुगंध समाज में प्राणवायु का संचार करती रहेगी।
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डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
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