शनिवार, फ़रवरी 29, 2020

गुरुवार, फ़रवरी 13, 2020

देशबन्धु के साठ साल-27- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की सत्ताइसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-27
- ललित सुरजन

आप यदि दिन के समय किसी अखबार के दफ्तर में जाएं तो आपको वहां अमूमन शांतिमय वातावरण मिलेगा। लेकिन शाम छह बजे के बाद से जो गहमागहमी शुरू होती है तो सुबह लगभग पांच बजे तक बनी रहती है। संपादन कक्ष से लेकर कंपोजिंग कक्ष तक, फिर मशीन रूम से लेकर अखबार की पार्सलें रवाना करने तक सब लोग दौड़ते-भागते नजर आते हैं। साठ साल पहले यह भागदौड़ आज की बनिस्बत दुगनी-तिगनी थी। नई तकनीकी के प्रयोग से पूर्वापेक्षा काम
Lalit Surjan
करना आसान जो हुआ है। इन दिनों देशबन्धु में जो छपाई मशीन है, उस पर एक बार में सोलह पेज एक साथ छप सकते हैं तथा उसकी गति एक घंटे में तीस हजार कॉपियां छापने की है। देश-विदेश के अनेक अखबारों में इससे भी अधिक क्षमता की मशीनों पर काम होता है। कई जगह तो ऐसी मशीनें भी हैं जो छपाई के बाद अखबार की पार्सल भी स्वचालित प्रक्रिया से बांध सकती हैं। मैं आपको उस दौर में ले जाना चाहता हूं जब फ्लैट बैड सिलिंडर मशीन पर मात्र एक हजार प्रति घंटा की गति से एक बार में सिर्फ दो पेज छापे जा सकते थे। याने आगे-पीछे चार पेज की एक हजार प्रतियां मुद्रित करने के लिए दो घंटे लगते थे। हमने कुछ समय तक वैसी ही एक और मशीन समानांतर स्थापित की ताकि इधर तरफ दो पृष्ठ मुद्रित हो जाने के बाद दूसरी तरफ के दो पेज लगभग साथ-साथ छापे जा सकें और समय की बचत हो।

गौर कीजिए कि आपके घर जो भी अखबार आता है, वह चौथाई मुड़े (क्वार्टर फोल्ड) आकार में आता है। शुरूआती दौर में अखबार की पूरी शीट को बीच से मोड़ना, फिर उसे आधा मोड़ना एक समयसाध्य और श्रमसाध्य कार्य था। अगर काम समय पर पूरा होना हो तो उसके लिए चपलता का गुण आवश्यक था। यह जिम्मेदारी फोल्डिंग विभाग के सहयोगियों पर होती थी। दो-दो करके चार पेज छपे, उन्हें लगातार मशीन की दूसरी ओर से उतार कर जमीन पर रखते जाओ, 22'' गुणा 33'' पूर्ण आकार के दो पन्नों की थप्पियां बनाओ, उन पर बीच में अंगूठे से सलवट बनाकर मोड़ो, एक-एक कर अलग करो, फिर एक बार बीच से मोड़ो और पेज के आधे आकार में लाओ। कहां, कितनी कॉपियों की पार्सल जाना है, उस हिसाब से अलग-अलग पार्सल बनाओ, उसे मोटे ब्राउन पेपर या न्यूजप्रिंट में पैक करो, ऊपर से सुतली या मोटे-मजबूत धागे (ट्वाइन) से बांध कर सुरक्षित करो और उसके ऊपर गंतव्य का लेबल चिपकाओ। इसके बाद स्टेशन और बस स्टैंड की ओर भागो।

इतना सब विवरण देने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन पढ़कर आपने जान लिया होगा कि आप तक अखबार पहुंचाने में पत्र के फोल्डिंग विभाग की कितनी अहम भूमिका होती है। प्रेस के अन्य विभागों में दिनपाली और रातपाली में अदला-बदली कर काम करने की सुविधा होती है, लेकिन फोल्डिंग में तो सारा काम रातपाली में ही होता है। एक बंधी-बंधाई यंत्रवत् किंतु अनिवार्य ड्यूटी। इसी विभाग से संबंधित एक मजदार प्रसंग उसी शुरूआती दौर का है। एक रात 2-3 बजे बाबूजी आकस्मिक निरीक्षण के लिए प्रेस पहुंचे। सब सहकर्मी अपने काम में जुटे थे, लेकिन एक व्यक्ति चारों तरफ से बेखबर सो रहा था। बाबूजी आए हैं जान हड़बड़ा कर उठा या उठाया गया। बाबूजी नाराज हुए। काम के समय सो रहे हो। तुम्हारी छुट्टी। दिन में आकर हिसाब कर लेना। क्या नाम है तुम्हारा? साहब, नाम मत पूछिए। बाबूजी का पारा और चढ़ा। तुमसे नाम पूछ रहे हैं, नाम बताओ। धीमे स्वर में जो जवाब आया तो उसे सुनकर गुस्सा खत्म। बाबूजी के ओठों पर मुस्कुराहट आई। तुम नालायक हो। नाम मायाराम और ऐसी लापरवाही। ठीक है, काम करो, लेकिन आइंदा ऐसी गलती नहीं होना चाहिए।

जिस जगह सौ-दो सौ लोग काम करते हों, वहां ऐसे खट्टे-मीठे प्रसंग घटित होना अस्वाभाविक नहीं है। एक प्रसंग 1964 का है। रमनलाल सादानी प्रसार प्रबंधक थे। फोल्डिंग विभाग का प्रबंध उनके ही जिम्मे थे। बूढ़ापारा की भव्य सादानी बिल्डिंग उनके पिताजी रायसाहब नंदलाल सादानी ने बनवाई थी। उसी नाम पर सादानी चौक कहलाया। एक शाम एक सुंदर युवती रमन भैया (उन्हें मेरा यही संबोधन था) से मिलने आई। मुझे उनका परिचय दिया गया- ये सूसन हैं। अखबार के बंडल पर जो लेबल चिपकाते हैं, उन्हें इनसे लिखवाते हैं। तीस रुपए महीना देते हैं। इनकी सहायता हो जाती है। मैंने सुन लिया और मान लिया। कुछ दिन बाद देखा कि लेबल तो रमन भैया की लिखावट में हैं। पूछा भेद खुला कि देवीजी उनकी प्रेमिका हैं। किसी स्कूल में शिक्षिका हैं। मैंने उन्हें दिया जाने वाला मानदेय बंद करवा दिया। लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती। रमन भैया ने कुछ साल बाद उनसे विधिवत विवाह किया और संतानों को अपना नाम दिया। रमन सादानी इकलौते पुत्र थे, बिंदास तबियत के थे, होशियार किंतु लापरवाह। जो भी हो, समय आने पर उन्होंने नैतिक दृढ़ता का परिचय दिया, यह बात मुझे अच्छी लगी। हमारे साथ संभवत: 1971-72 तक उन्होंने काम किया।

प्रसार विभाग से ही जुड़ा एक और रोचक प्रसंग ध्यान आ रहा है। यह मानी हुई बात है कि हर अखबार अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए अनेक प्रकार के उपक्रम करता है। इसमें अभिकर्ता या न्यूजपेपर एजेंट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आखिरकार, ग्राहक के दरवाजे तक वह स्वयं या उसका हॉकर ही जाता है। मुझे याद है कि 1967 में प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा दिल्ली में आयोजित प्रबंधन कार्यशाला में जब मैं भाग ले रहा था, तब दिल्ली की सेंट्रल न्यूज एजेंसी के प्रमुख कर्त्ताधर्ता श्री पुरी ने एक सत्र में हमें प्रसार संख्या में वृद्धि करने के गुर सिखाए थे। खैर, मैं जिस प्रसंग की चर्चा कर रहा हूं, वह इसके पहले का है। हमें ऐसा कुछ अनुमान हुआ कि रायपुर के कुछ अभिकर्त्तागण देशबन्धु की बिक्री बढ़ाने में खास दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यह 1965 की बात है। उस समय होलाराम बुधवानी नामक एक सज्जन ने हमारी एजेंसी ली और प्रसार वृद्धि के बारे में तमाम वायदे किए। आवश्यक धरोहर निधि या कि एडवांस डिपॉजिट भी उन्होंने जमा की। उनमें व्यापार बुद्धि तो थी, लेकिन अखबार की एजेंसी चलाने के लिए जिस जीतोड़ मेहनत की आवश्यकता होती है, वह उनमें नहीं थी। असफल होकर उन्होंने कुछ ही माह में एजेंसी छोड़ दी।

बुधवानीजी करीब एक साल बाद फिर प्रेस आए। उनके चेहरे पर सफलता की चमक थी। कहां थे आप इतने दिन? कभी दिखाई तक नहीं दिए! पता चला कि वे इस बीच मॉरीशस हो आए। वहां उन्होंने व्यापार की संभावनाएं तलाशीं और शीघ्र ही भारत से समुद्री मार्ग से बड़े-बड़े ड्रमों में भरकर गंगाजल मॉरीशस को निर्यात करने लगे। वे गंगाजल कहां से भरते हैं, यह गुप्त जानकारी भी उन्होंने हम लोगों के साथ साझा की। गंगा मैया की कृपा से उनका व्यापार चल निकला। देशबन्धु की एजेंसी में जो घाटा हुआ था, उसकी भरपाई तो जल्दी ही हो गई थी।

इसी सिलसिले में पाठकों को अपने एक अभिनव प्रयोग की जानकारी देना उचित होगा। प्रेस में मेरे हमउम्र जितने साथी थे, सबने मिलकर स्कूल में पढ़ने वाले अपने छोटे भाईयों को जोड़ा। अनुज न्यूज एजेंसी नाम से एजेंसी बनाई। मेरे छोटे भाई दीपक, वरिष्ठ साथी शरद जैन के छोटे भाई अनिल और इस तरह लगभग एक दर्जन किशोरों की टीम तैयार हो गई। इन्होंने घर-घर जाकर ग्राहक बनाए। जिनके घर जाते वे परिचय जानकर प्रसन्न हो जाते। खुशी-खुशी ग्राहक बनते। इस तरह 1973-74 मेंं प्रसार संख्या में लगभग एक हजार प्रतियों का इजाफा हुआ जो उस वक्त के लिहाज से बड़ी उपलब्धि थी।
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#देशबन्धु में 23 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

रविवार, फ़रवरी 09, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 26- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की छब्बीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 26
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
आज से साठ साल पूर्व के उस समय की कल्पना कीजिए जब स्मार्टफोन नहीं था, वाट्स अप नहीं था; पी. सी., लैपटॉप, टैबलेट नहीं थे; इंटरनेट नहीं था; डाकघर तो काफी थे, लेकिन तारघरों की संख्या उतनी नहीं थी (अब तो तारघर बंद ही हो गए हैं); और टेलीफोन भी एक दुर्लभ सेवा थी। अब तनिक विचार करिए कि उस समय के अखबार, समाचारों का संकलन किस विधि से करते थे! देश-विदेश की खबरें देने के लिए एकमात्र समाचार एजेंसी थी-प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया याने पीटीआई। अखबार के संपादकीय कक्ष में एक कोने में पीटीआई का टेलीप्रिंटर लगा होता था, जो सुबह नौ बजे चालू होता था और रात बारह-एक बजे तक उस पर समाचार आते रहते थे। जब कोई खास खबर हो तो प्रिंटर पर सामान्य टिक-टिक के अलावा तेज आवाज में घंटी बजने लगती थी। पीटीआई पर संवाद प्रेषण की भाषा अंग्रेजी होती थी, इसलिए संपादकों को अंग्रेजी ज्ञान होना लगभग एक अनिवार्य शर्त थी। उसके बिना समाचार का अनुवाद कैसे होता? जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी, उनका जीवन प्रांतीय समाचार डेस्क पर ही बीत जाता था। अपवाद स्वरूप ऐसे पत्रकार भी होते थे, जो अपने सामान्य ज्ञान और सहजबुद्धि के बलबूते कामचलाऊ अनुवाद कर लेते थे।

पीटीआई की सेवा भी सहज उपलब्ध नहीं थी। हमारे अखबार का जब प्रकाशन शुरू हुआ तो तकनीकी कारणों से प्रिंटर लगते-लगते छह माह बीत गए। इस दौरान आकाशवाणी से समाचार लेना ही एकमात्र उपाय था। 1963 में जब बाबूजी ने जबलपुर समाचार का प्रकाशन हाथ में लिया, तब भी यही मुश्किल पेश आई। हम लोग तब सुबह-दोपहर-शाम आकाशवाणी पर समाचार सुनते और द्रुत गति से उसे लिखते जाते। देवकीनंदन पांडेय, विनोद कश्यप, इंदु वाही आदि उस दौर के सुपरिचित समाचार वाचक थे। हममें से जिनके कान अंग्रेजी सुनने के अभ्यस्त थे, वे अंग्रेजी की बुलेटिन भी सुन लेते थे। इन दिनों संघ परिवार ने भी हिंदुस्तान समाचार नामक एक समाचार एजेंसी प्रारंभ की, लेकिन उसके समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। पीटीआई के मुकाबले एक नई सेवा यूएनआई (यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया) के नाम से 1968-69 में प्रारंभ हुई। वरिष्ठ पत्रकार जीडी मीरचंदानी इसके महाप्रबंधक व मुख्य संपादक थे। उनके आग्रह पर हमने शायद 1972 या 73 में पीटीआई बंद कर यूएनआई की सेवाएं ले लीं। रायपुर में हम अकेले ग्राहक थे तो उन्होंने अलग से दफ्तर नहीं खोला। नहरपारा के प्रेस में प्रिंटर लगा दिया गया। दिल्ली से एक युवा तकनीशियन सुधीर डोगरा को यूएनआई ने रायपुर भेज दिया, ताकि मशीन का रख-रखाव होता रहे। हंसमुख, मिलनसार और काम में मुस्तैद सुधीर कुछ ही समय में हमारे परिवार के सदस्य जैसे बन गए और वह आत्मीयता आज तक कायम है।

यह तो बात हुई देश-विदेश की खबरों की। प्रकाशन स्थल अर्थात रायपुर के समाचार लाने के लिए नगर संवाददाताओं की टीम होना ही थी। मुझे अगर ठीक याद आता है तो ''द स्टेट्समैन'' व ''हितवाद'' के संवाददाता मेघनाद बोधनकर के सिवाय किसी अन्य रिपोर्टर के पास स्कूटर या बाइक नहीं थी। हम सब साइकिल पर चलते थे। शारीरिक श्रम करने का अभ्यास था। भागते-दौड़ते काम करना दैनंदिन जीवन का अंग था। फिर शहर आज जैसा फैला हुआ भी नहीं था। पश्चिम में साइंस कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज; दक्षिण में टिकरापारा; उत्तर में फाफाडीह रेलवे क्रासिंग; और पूर्व में कृषि महाविद्यालय। रेलवे स्टेशन बहुत दूर नहीं था, बस स्टैंड शहर के बीचोंबीच था; आयुक्त, जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक कार्यालय; अस्पताल, सर्किट हाउस, जनसंपर्क विभाग, सब पास-पास ही थे। कहीं से खबर मिलने की संभावना बनी तो साइकिल उठाई और दस-पंद्रह मिनट में वहां पहुंच गए। उन दिनों भी प्रेस विज्ञप्तियां आती थीं, लेकिन वे अधिकतर सूचनात्मक होती थीं। आज की तरह रेडीमेड खबरें छापने का चलन नहीं था।

रायपुर के बाहर के केंद्रों से अखबार के दफ्तर तक समाचार पहुंचाना अपेक्षाकृत समयसाध्य और कष्टसाध्य था। जशपुर हो या अंबिकापुर, जगदलपुर हो या कवर्धा, अमूमन समाचार डाक से ही भेजे जाते थे। उन दिनों डाकघर में तीन दिन में तीन बार डाक छंटाई और वितरण की व्यवस्था थी। संवाददाताओं के भेजे हुए लिफाफे काफी कुछ तो अगले दिन मिल जाते थे, लेकिन बरसात के समय इसमें विलंब हो जाना स्वाभाविक था। फिर भी आज की खबर कल भेजी, परसों मिलीं, नरसों छपी-इस तरह एक खबर के छपने में तीन दिन लग जाना सामान्य बात थी। बहुत आवश्यक, तत्काल छपने लायक समाचार हुआ तो संवाददाता टेलीफोन का सहारा लेते थे, या तार भेजते थे। किंतु सब जगह न तो फोन थे और न तार की व्यवस्था। एक और विकल्प था- रेलवे स्टेशन अथवा बस स्टैंड पर रायपुर जा रहे किसी परिचित को खोजकर उसके हाथ में लिफाफा थमा देना- भैया, प्रेस तक पहुंचा देना। परिचित जन सहयोग देने में कोताही नहीं करते थे। फिर एक नई तरकीब निकाली, रायपुर बस स्टैंड पर हमने अपना मेल बॉक्स लगा दिया; ड्राइवर, कंडक्टर या परिचित यात्री रायपुर उतरकर उसमें खबरों का लिफाफा डाल देते। नियत समय पर कोई प्रेसकर्मी ऐसी डाक लेकर आ जाता।

उन दिनों देशबन्धु सहित सभी अखबारों में एक और प्रथा थी। अखबार के शीर्षक सहित संवादपत्र और साथ में अपना पता लिखे, डाकटिकिट लगे लिफाफे छापकर संवाददाताओं को देते थे। संवाददाता माह-दो माह में रायपुर आते तो संवादपत्र व लिफाफों का बंडल लेकर वापिस लौटते या फिर खबर आती कि स्टॉक समाप्त हो गया है, तब पेपर की पार्सल में उन्हें नया स्टॉक भेजा जाता था। संपादकीय कक्ष में हम लोग समाचार बनाने के लिए या तो न्यूजप्रिंट काटकर बनाए गए लगभग ए-4 आकार के पन्नों का या फिर अमेरिकी, सोवियत अथवा ब्रिटिश सूचना कार्यालय से आए लेखों के पृष्ठभाग का इस्तेमाल करते थे। सोवियत सूचना केंद्र से सामग्री चिकने कागज पर आती थी, जो हमारी पहली पसंद होती थी। कुछ साथी तो बच्चों के उपयोग के लिए रफ कॉपी बनाने भी ये कागज घर ले जाते थे।

एक तरफ संवाद संकलन की यह तस्वीर थी तो दूसरी तरफ मुद्रित समाचार पत्र को जगह-जगह तक पहुंचाना कम दिलचस्प नहीं था। लगभग सभी अखबार रेल या बस से गंतव्य तक भेजे जाते थे। रायपुर से रात 10 बजे हावड़ा एक्सप्रेस से रायगढ़ की पार्सल रवाना की जाती। उसी के भीतर घरघोड़ा, धर्मजयगढ़, पत्थलगांव, कुनकुरी, जशपुर तथा सीतापुर, अंबिकापुर की छोटी पार्सलें रखी जाती थीं। यह रायगढ़ के एजेंट की जवाबदेही थी कि तीन बजे स्टेशन पहुंचकर पार्सल उतरवाएं, उसमें से आगे पार्सल निकालें और चार बजे सीधे रेलवे स्टेशन से ही जशपुर और अंबिकापुर जाने वाली बसों में उन्हें चढ़ाएं। सुनने में आसान, लेकिन व्यवहार में कठिन। कभी प्रेस से ही पार्सल स्टेशन पहुंचाने में देर हो गई, कभी ट्रेन लेट हो गई, कभी एजेंट रायगढ़ स्टेशन समय पर नहीं पहुंचा। सब कुछ समय से चला तो आज रात दस बजे रवाना की गई पार्सल अगले दिन अपरान्ह तीन बजे जशपुर पहुंचेगी। वहां पेपर वितरित करते-करते शाम हो जाएगी। अगर किसी भी बिंदु पर विलंब हुआ, मान लीजिए रास्ते में बस ही बिगड़ गई, तो पेपर फिर एक दिन बाद ही बंटेगा। हम रेलवे से भेजे जाने वाली पार्सलों का एक मुद्रित फार्म रखते थे- जिसमें गंतव्य और वजन का उल्लेख करना होता था। एक कॉपी रेलवे के पार्सल ऑफिस को, एक अपने रिकॉर्ड में।

इसी तरह अनेक स्थानों पर बस से पार्सलें भेजी जातीं। यहां भी एजेंट को नियत समय पर बस स्टैंड आना होता था। दुर्ग, राजनादगांव, जगदलपुर, कांकेर की पार्सलों के भीतर आसपास के छोटे केंद्रों की पार्सलें आगे भेजने की जिम्मेदारी उन पर होती थी। देर-अबेर होती ही थी। हमें एक प्रतिस्पर्द्धी समाचार पत्र से हमेशा सतर्क रहना पड़ता था। उन्हें मौका मिलता तो रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड से वे हमारी पार्सल चोरी करवा लेते थे। संभवत: 1970 में सबसे पहले हमने सड़क मार्ग से भेजी जाने वाली पार्सलों के लिए राजनादगांव मार्ग पर बस के बजाय टैक्सी की व्यवस्था की। यह टैक्सी कांग्रेस के दो युवा कार्यकर्ताओं ने साझीदारी में खरीदी थी। वे दोनों आज प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। कभी ड्राइवर नहीं आया तो दफ्तर से फोन पर सूचना मिलने पर मैं या मेरे अनुज दिनेश अपनी कार से महोबाबाजार, टाटीबंद, कुम्हारी, चरौदा, भिलाई-3, भिलाई, सुपेला, सेक्टर- 4, दुर्ग, सोमनी में पार्सल उतारते हुए राजनादगांव तक जाते थे।
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#देशबंधु में 16 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

देशबन्धु के साठ साल-25 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  पच्चीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-25
 - ललित सुरजन
Lalit Surjan
आप इतना तो जानते हैं कि अखबार छापने के लिए न्यूजप्रिंट या कि अखबारी कागज का इस्तेमाल होता है। आपको इसके आगे शायद यह जानने में भी दिलचस्पी हो कि हम यह बुनियादी कच्चा माल कहां से और कैसे हासिल करते हैं। एक समय था जब देश के समाचारपत्र उद्योग की आवश्यकता का शत-प्रतिशत न्यूजप्रिंट सुदूर कनाडा से आयात किया जाता है। साठ के दशक के अंत-अंत में स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, सोवियत संघ से भी अखबारी कागज आने लगा। गौर कीजिए कि ये सारे देश उत्तरी गोलार्द्ध में हैं। हिमप्रदेशों में ऊंचाई पर पाए जाने वाले गगनचुंबी वृक्षों की लुगदी से ही न्यूजप्रिंट का उत्पादन किया जाता था। भारत में हजारों मील दूर से न्यूजप्रिंट लाने के रास्ते में कुछ व्यवहारिक अड़चने थीं। सबसे बड़ी दिक्कत विदेशी मुद्रा की थी। हमारे देश में आजादी मिलने के बाद से कई दशक तक निर्यात से कोई खास आय नहीं थी और जो भी विदेशी मुद्रा भंडार था, उसका उपयोग खाद्यान्न, पेट्रोल, आयुध सामग्री आदि विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर करना होता था। समाचारपत्रों को न्यूजप्रिंट मिल सके, इस दिशा में भी सरकार का रुख सकारात्मक था, लेकिन उसके लिए कुछ बंदिशें लागू थीं।

हमें न्यूजप्रिट आयात करने के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय में आयात-निर्यात महानिदेशक के कार्यालय से वास्तविक उपभोक्ता (एक्चुअल यूजर या ए.यू) लाइसेंस हासिल करना होता था। भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक (आर.एन.आई.) अखबार की प्रसार संख्या प्रमाणित करते थे, उसी आधार पर ए.यू. लाइसेंस जारी होता था। यह लाइसेंस हम बंबई (अब मुंबई) में किसी आयात-निर्यात एजेंट (क्लीयरिंग एंड फॉरवर्डिंग फर्म)को दे देते थे। वे हमारी ओर से कनाडा या किसी अन्य देश को न्यूजप्रिट उत्पादक कंपनी को ऑर्डर देते, उसके लिए बैंक से विदेशी मुद्रा भुगतान की व्यवस्था करते, जहाज आ जाने पर माल उतारने और मालगाड़ी में चढ़ाकर हम तक भेजने का सारा प्रबंध करते थे। इसके लिए हम उन्हें एक निर्धारित कमीशन देते थे। अब देखिए कि फैक्टरी से कागज रवाना होते समय उसकी जितनी कीमत होती थी, लगभग उतनी ही राशि समुद्री जहाज के भाड़े में लग जाती थी। उसके बाद कमीशन और उस पर रेलभाड़ा। कुल मिलाकर पाठकों तक अखबार पहुंचाना सस्ता सौदा नहीं था। वह आज भी नहीं है।

बहरहाल, कनाडा से चलकर रायपुर तक न्यूजप्रिट आने की लंबी प्रक्रिया में कई बार अप्रत्याशित परेशानियां सामने आ जाती थीं। एक बार ऐसा हुआ कि बंबई डॉकयार्ड (बंदरगाह) से चली वैगन लगभग बीस दिन बाद भी रायपुर नहीं पहुंची। यहां हमारे गोदाम में रखा स्टॉक खत्म होते जा रहा था। तब हमने पहले तो भिलाई के पास चरौदा मार्शलिंग यार्ड में पता किया कि हमारी वैगन वाली मालगाड़ी कहीं वहां आकर तो नहीं खड़ी है। फिर बाबूजी ने राजू दा को वैगन खोज मिशन पर रवाना किया। नागपुर में पता किया तो वहां वैगन पहुंची ही नहीं थी। दा वहां से भुसावल गए। पता चला कि भुसावल के यार्ड में''सिक लाइन'' पर किसी कारण से वैगन कई दिन से खड़ी हुई है। वहां से वैगन को निकलवाया, रायपुर की तरफ आ रही किसी मालगाड़ी में उसे जोड़ा, और खुद गार्ड के डिब्बे में साथ बैठकर आए। दूसरे-तीसरे दिन ले-देकर वैगन रायपुर पहुंची। उस दिन अगर वैगन न आती तो अगले दिन अखबार छप नहीं सकता था, क्योंकि गोदाम में कागज बचा ही नहीं था।

एक बार और कुछ ऐसी ही स्थिति बनी, जब कलकत्ता से रवाना हुई वैगन राउरकेला के पास बंड़ामुंडा यार्ड में अकारण कुछ दिन रोक दी गई। खैर, बंबई में हमारे दो क्लीयरिंग एजेंटों से संबंध बन गए थे। एक थी इंडियन गुड्स सप्लाइंग कं., जिसके मालिक दो शाह बंधु थे। दूसरे थे- अब्दुल्ला भाई फिदाअली एंड कंपनी। इन दोनों ने लंबे अरसे तक हमारे लिए न्यूजप्रिंट आयात का काम किया। दूसरी फर्म के फिदाहुसैन सेठ ने तो वक्त-बेवक्त हमारी और भी मदद की। जैसे मोनोटाइप मशीनें खरीदने के लिए बैंक में मार्जिन मनी जमा करना थी। उनसे रकम उधार ली कि न्यूजप्रिंट की अगली खेप के बिल में इसे जोड़ लेना। 1986 में जब बाबूजी बंबई में अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. ए.बी. बावड़ेकर के अस्पताल में बारह दिन भर्ती थे तो उनका बिल चुकाने की प्रत्याशा में मैं इन्हीं दोनों एजेंसियों में गया और उनसे रुपए लेकर आया। यह एक मार्मिक प्रसंग है कि डॉ. बावड़ेकर ने पहली बार का परिचय होने के बावजूद बाबूजी के इलाज की फीस और अन्य खर्चे लेने से इंकार कर दिया। उनका ''विद कांप्लीमेंट्स'' (शुभकामनाओं सहित) का मात्र पांच हजार रुपए का बिल आज भी मेरे कागजातों में सुरक्षित रखा है।

बहरहाल, पं. नेहरू के कार्यकाल में ही भारत में न्यूजप्रिंट उत्पादन की योजना पर काम प्रारंभ हो गया था। बिड़ला घराने को अमलाई पेपर कारखाने का लाइसेंस इस शर्त पर दिया गया था कि वे पचास प्रतिशत न्यूजप्रिंट और पचास प्रतिशत व्हाइट पेपर या दूसरा कागज बनाएंगे। उन्होंने किसी तरकीब से इस शर्त को निरस्त कर शत-प्रतिशत व्हाइट पेपर बनाने की अनुमति हासिल कर ली। इस कारखाने में मध्यप्रदेश के जंगलों में प्रचुरता से होने वाले बांस की लुगदी से कागज का उत्पादन होना था। लगभग इसी समय बुरहानपुर के पास नेपानगर में सार्वजनिक उपक्रम के रूप में न्यूजप्रिंट कारखाने की स्थापना की गई। नेपा में बांस की लुगदी से बने कागज में वह गुणवत्ता नहीं थी, जो आयातित न्यूजप्रिंट में थी। कनाडा का कागज सफेद झक्क होता था, आसानी से फटता नहीं था, और वजन में भी अपेक्षाकृत हल्का था। इसलिए अधिकतर अखबार नेपा से कागज खरीदने से कतराते थे। लेकिन विदेशी मुद्रा की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण कुछ मात्रा में तो कागज लेना ही पड़ता था।
रुपए के अवमूल्यन व विदेशी मुद्रा के गहराते संकट के कारण भी समाचारपत्र संस्थान नेपा की ओर प्रवृत्त हुए। नेपा ने अपने उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयत्न भी जारी रखे। एक समय तो यह स्थिति आई कि नेपानगर में कारखाने के बाहर ट्रकों की कई-कई दिनों तक कतारें लगने लगीं। आपूर्ति कम, मांग अधिक। इसी बीच भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में तमिलनाडु पेपर मिल्स, मैसूर पेपर मिल्स एवं केरल में हिंदुस्तान पेपर मिल्स की स्थापना की। इनमें विदेशों से आयातित लुगदी से कागज बनाने के संयंत्र लगाए गए। बंबई, कलकत्ता या नेपा के मुकाबले इन सुदूर स्थानों से न्यूजप्रिंट खरीदना महंगा पड़ता था, लेकिन देश में अखबारों की संख्या बढ़ रही थी, पेजों की संख्या बढ़ रही थी और प्रसार संख्या भी बढ़ रही थी; तब जहां से, जैसे भी, जिस दाम पर भी, कागज मिले खरीदना ही था। जिन अखबार मालिकों के अपने दूसरे व्यवसाय थे, उन्हें कोई अड़चन नहीं थी। लेकिन मुश्किल देशबन्धु जैसे पत्रों के सामने थी, जिनके पास आय के अन्य स्रोत नहीं थे।

समाचारपत्र उद्योग पर पूंजीपतियों का वर्चस्व स्थापित होने की यह एक तरह से शुरुआत थी। यदि हम अपनी जगह पर टिके रह सके तो इसकी एक वजह थी कि विगत दो-ढाई दशकों में पुराने न्यूजप्रिंट को रिसाइकिल करने की प्रविधि विकसित हो जाने से न्यूजप्रिंट के अनेक नए कारखाने खुल गए हैं। अब न्यूजप्रिंट अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हो जाता है। यद्यपि आयातित न्यूजप्रिंट अथवा नेपानगर की गुणवत्ता उसमें नहीं है। आप जब इनामी योजनाओं के लालच में अखबार के ग्राहक बनते हैं, तब याद रखिए कि पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने की आपको अनिच्छा भी कहीं न कहीं निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता का मार्ग अवरुद्ध करती है।
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#देशबंधु में 09 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

रविवार, फ़रवरी 02, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 24- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  चौबीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 24
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
आज नए साल का दूसरा दिन है। अपने तमाम पाठकों को शुभकामनाएं देते हुए मेरा ध्यान फिर उन सारे व्यक्तियों की ओर जाता है, जिनके सद्भाव और सहयोग के बल पर देशबन्धु की यात्रा जारी है। पिछली किश्तों में और ऐसे कुछ शुभचिंतकों से आपका परिचय हो चुका है, लेकिन यह एक लंबी सूची है जिसे मैं अपनी गति से पूरी करने की कोशिश में लगा हूं। आज सबसे पहले देशपांडे चाचा का नाम स्मृति पटल पर दस्तक दे रहा है।
एम.एन. देशपांडे वर्धा के वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल आगे थे। हम जब रायपुर आए, लगभग उसी समय वे भी इस प्रदेश के पहले चार्टर्ड एकाउंटेंट (सी.ए.) के रूप में अपना कार्यालय खोलने यहां आ गए थे। एक व्यापारिक उपक्रम होने के कारण अखबार को अपने लेखा प्रमाणित करने के लिए सी.ए. की आवश्यकता होना ही थी। विशेषकर इसलिए भी कि समाचारपत्रों की प्रसार संख्या प्रमाणित करने वाली संस्था एबीसी (ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) की सदस्यता के लिए भी एक आंतरिक लेखा परीक्षक (इंटरनल ऑडीटर) नियुक्त करना अनिवार्य शर्त थी। एबीसी द्वारा प्रसार संख्या प्रमाणित होने पर राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन मिलना सहज हो जाता था। उस प्रक्रिया की बारीकियां जानने में पाठकों को शायद दिलचस्पी न होगी। हमने काफी बाद में एबीसी की सदस्यता क्यों त्याग दी, वह किस्सा अवश्य कभी लिखूंगा।

बहरहाल, पुराने मध्यप्रदेश (सीपी एंड बरार) की प्रतिष्ठित ऑडिट फर्म के.के. मानकेश्वर एंड कंपनी की शाखा स्थापित करने उसके भागीदार देशपांडेजी रायपुर आए थे। उनकी फर्म को न सिर्फ देशबन्धु, बल्कि अन्य पत्रों ने भी ऑडिट का काम सौंपा। देशपांडे चाचा और बाबूजी दोनों राजनैतिक विचार से विपरीत ध्रुव पर थे, लेकिन इसका कोई प्रभाव न तो व्यवसायिक संबंधों पर पड़ा और न पारिवारिक मैत्री पर। चाचा भी पुस्तक व्यसनी थे तथा दोनों मित्रों के बीच पुस्तकों का विनिमय व उन पर जीवंत चर्चाएं होती थीं, जिनमें यदा-कदा भाग लेने का अवसर मुझे भी मिला। देशपांडेजी का बाबूजी पर पूरा विश्वास था और हमारे यहां से जो लेखा तैयार होता था, उसे सरसरी निगाह से देखकर ही वे उसे पास कर देते थे। एबीसी की ओर से हर तीन साल में आंतरिक लेखापाल द्वारा जारी प्रमाण पत्र का पुनर्परीक्षण करवाने का नियम था। उसमें भी कभी देशपांडेजी द्वारा प्रमाणित लेखा में त्रुटि नहीं पाई गई। वर्तमान समय में जब ऐसा परस्पर विश्वास और स्नेह दुर्लभ हो चुका है, इस मित्रता को रेखांकित किया जाना किसी दृष्टि से प्रासंगिक हो सकता है। मुझे प्रसन्नता है कि चाचा के सुयोग्य सुपुत्र किशोर देशपांडे ने अपनी संस्था की प्रामाणिकता और अपने संबंधों की ऊष्मा को बरकरार रखा है।

मैंने पिछली किश्तों में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का उल्लेख किया है। एक समय एन.एस.एस. राव रायपुर शाखा में मुख्य प्रबंधक नियुक्त होकर आए। आगे चलकर वे बैंक के सर्वोच्च पद महाप्रबंधक तक पहुंचे। एक दिन बाबूजी रायपुर में नहीं थे। बैंक खाता उनके ही हस्ताक्षर से चलता था। हमें किसी को चेक जारी करना था, लेकिन बाबूजी के दस्तखत बिना काम कैसे चले? मैं बैंक गया। राव साहब को समस्या बताई। उन्होंने मुझसे चेक पर दस्तखत करने कहा, उसे अपने दस्तखत और सील से प्रमाणित किया। बाबूजी लौटकर आए तो उन्हें उलाहना देते हुए सलाह दी- ललित काम संभालने लगा है। उसे आप हस्ताक्षर करने का अधिकार क्यों नहीं देते। यह तो एक छोटा प्रसंग है, लेकिन देशबन्धु के वित्तीय प्रबंधन में राव साहब की सलाह और सहयोग आगे भी बहुत काम आए। सेंट्रल बैंक में जी.डी. मनचंदा, एच.एल. बजाज, बृजगोपाल व्यास, एस.एस. पंड्या, एम. रहमान, श्रीधर उन्हेलकर, जयकिशन भट्टर 'भगतजी', जी.पी. शुक्ला आदि अनेक अधिकारियों ने हमारी नेकनीयत पर विश्वास कायम रखा और समय-समय पर हमारे मददगार सिद्ध हुए। इन सबके बारे में लिखूं तो एक अलग पुस्तक बन जाए।

यूं तो सेंट्रल बैंक ही हमारा मुख्य बैंक था, लेकिन बीच-बीच में आवश्यकता पड़ने पर अन्य बैंकों के साथ भी हमने संबंध बनाए। इनमें इलाहाबाद बैंक से जुड़ा एक प्रसंग खासा दिलचस्प है। हमने मालवीय रोड स्थित शाखा में खाता तो खोल लिया था, किंतु लेन-देन कुछ विशेष नहीं था। उन दिनों नहरपारा स्थित प्रेस से शाम के समय बाबूजी पैदल नगर भ्रमण करते हुए घर पहुंचते थे। एक शाम शाखा प्रबंधक गणेश प्रसाद लाल ने बैंक की बाल्कनी से बाबूजी को पैदल जाते हुए देखा। साथ में खड़े गोडाऊन कीपर राजेंद्र तिवारी से उन्होंने कहा- अखबार के मालिक हैं, लेकिन इतनी सादगी का जीवन है! वे बाबूजी से बहुत प्रभावित हुए और अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर हमारी जितनी सहायता कर सकते थे, उतनी की। उनके बाद शब्दस्वरूप श्रीवास्तव मैनेजर बनकर आए तो उन्होंने भी देशबन्धु को सहयोग देने में कोई कमी नहीं की। नेशनल हेराल्ड से जो छपाई मशीन हमने खरीदी थी, उसके लिए ऋण श्रीवास्तवजी के प्रयत्नों से ही मिला। इन प्रसंगों में नोट करने लायक बात यही है कि आज से चालीस-पचास साल पहले बैंक और ग्राहकों के रिश्ते किस तरह से बनते और निभते थे। वर्तमान में जब बैकों की डूबत रकम सारे कागज-पत्तर दुरुस्त होने के बावजूद अरबों-खरबों में पहुंच गई है, तब क्या ये उदाहरण कहीं दिशा संकेतक का काम कर सकते हैं?

व्यवसायिक बैंक ही नहीं, देसी बैंकर्स और गैर-औपचारिक तौर पर लेन-देन करने में भी हमें तरह-तरह के अनुभव हासिल हुए। रायपुर के जवाहर बाजार में देसी बैंकर्स के अनेक प्रतिष्ठान थे, जहां अमूमन नब्बे दिन की दर्शनी हुंडी पर ब्याज का कारोबार चलता था। इनके साथ लेन-देन में सामान्यत: कोई मुरव्वत या छूट की गुंजाइश नहीं होती थी। लेकिन लखमीचंद परमानंद फर्म के वरिष्ठ पार्टनर परमानंद भाई छाबड़िया एक अपवाद थे। वे बाबूजी के प्रति गहरा सम्मान भाव रखते थे और हमें आवश्यकता पड़ने पर यथासंभव सहयोग करते थे। 1994 में बाबूजी के निधन के बाद के बेहद कठिन दिनों में उन्होंने सीमा से परे जाकर हमारी जो मदद की, उसे मैं नहीं भुला सकता। उन्होंने अपना निजी कारोबार काफी समेट लिया था लेकिन वे अपनी गारंटी पर दूसरे महाजनों से हमें ऋण दिलवा देते थे।
परमानंद भाई मुझसे कहते भी थे- आपके बाबूजी जैसे सज्जन मैंने और नहीं देखे। सन् 2000 में जब मैंने आजीवन ग्राहक योजना पुन: प्रारंभ की तो वे मुझे अपने तमाम परिचितों के यहां ले गए और उन्हें ग्राहक बनवा दिया। उनके उपकारी स्वभाव के कारण किसी ने भी मना नहीं किया। उसी बीच मैं बीमार पड़ा तो एक दिन वे थोक फल मार्केट से चुनिंदा फलों का पिटारा लेकर दूसरी मंजिल चढ़कर मेरे घर आ गए। ऐसे उम्दा फल रायपुर में हमने न पहले और न बाद में कभी चखे। दुर्भाग्यवश कुछ वर्ष पूर्व उनकी असमय मृत्यु हो गई और मुझे एक सच्चे शुभचिंतक के साथ से वंचित होना पड़ा।

आज की कड़ी बृजगोपाल व्यास से जुड़े दो छोटे-छोटे प्रसंगों के जिक्र के साथ समाप्त होगी। श्री व्यास बूढ़ापारा में हमारे पड़ोसी थे। उनके अनुज प्रख्यात भजनगायक रविशंकर मेरे सहपाठी थे। इसलिए व्यासजी को मैं भैया का संबोधन देता था। वे सेंट्रल बैंक में मैनेजर थे। एक दिन ऐसा हुआ कि मैं एक शवयात्रा में शरीक होने के बाद सीधा बैंक पहुंचा। वह मेरे जीवन में शवयात्रा का पहला अनुभव था। मन विचलित था। व्यासजी ने ओवरड्राफ्ट देने से मना कर दिया तो उसी मनोदशा में उन्हीं के सामने चेक फाड़कर प्रेस आ गया। लेकिन आज का काम कैसे होगा, यह चिंता बनी हुई थी। इतने में स्वयं व्यासजी का फोन आ गया- तुम्हारा काम कर रहा हूं। नया चेक लेकर आओ। फिर डांट पड़ी- तुम क्या समझते हो; मुझे भी ऊपर जवाब देना पड़ता है; ''नैस्टी लैटर'' आते हैं। खैर, काम बन गया। एक शाम बैंक बंद होने के समय तक मैं उनके साथ बैठा था। उनके कक्ष में एक पांच फीट ऊंची दीवार का पार्टीशन कर दूसरी ओर रिकॉर्ड रूम था। चलने का समय हुआ तो व्यासजी ने पार्टीशन वाले दरवाजे पर ताला लगाया। मैंने विस्मय से पूछा- ताला क्यों? आपकी टेबल पर चढ़कर कोई भी पार्टीशन फांदकर उस ओर जा सकता है। उनका सारगर्भित उत्तर था- ''ताला साहूकार के लिए होता है, चोर के लिए नहीं।''
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#देशबंधु में 02 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह