रविवार, फ़रवरी 09, 2020

देशबन्धु के साठ साल-25 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  पच्चीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-25
 - ललित सुरजन
Lalit Surjan
आप इतना तो जानते हैं कि अखबार छापने के लिए न्यूजप्रिंट या कि अखबारी कागज का इस्तेमाल होता है। आपको इसके आगे शायद यह जानने में भी दिलचस्पी हो कि हम यह बुनियादी कच्चा माल कहां से और कैसे हासिल करते हैं। एक समय था जब देश के समाचारपत्र उद्योग की आवश्यकता का शत-प्रतिशत न्यूजप्रिंट सुदूर कनाडा से आयात किया जाता है। साठ के दशक के अंत-अंत में स्वीडन, फिनलैंड, नार्वे, सोवियत संघ से भी अखबारी कागज आने लगा। गौर कीजिए कि ये सारे देश उत्तरी गोलार्द्ध में हैं। हिमप्रदेशों में ऊंचाई पर पाए जाने वाले गगनचुंबी वृक्षों की लुगदी से ही न्यूजप्रिंट का उत्पादन किया जाता था। भारत में हजारों मील दूर से न्यूजप्रिंट लाने के रास्ते में कुछ व्यवहारिक अड़चने थीं। सबसे बड़ी दिक्कत विदेशी मुद्रा की थी। हमारे देश में आजादी मिलने के बाद से कई दशक तक निर्यात से कोई खास आय नहीं थी और जो भी विदेशी मुद्रा भंडार था, उसका उपयोग खाद्यान्न, पेट्रोल, आयुध सामग्री आदि विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राथमिकता के आधार पर करना होता था। समाचारपत्रों को न्यूजप्रिंट मिल सके, इस दिशा में भी सरकार का रुख सकारात्मक था, लेकिन उसके लिए कुछ बंदिशें लागू थीं।

हमें न्यूजप्रिट आयात करने के लिए केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय में आयात-निर्यात महानिदेशक के कार्यालय से वास्तविक उपभोक्ता (एक्चुअल यूजर या ए.यू) लाइसेंस हासिल करना होता था। भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक (आर.एन.आई.) अखबार की प्रसार संख्या प्रमाणित करते थे, उसी आधार पर ए.यू. लाइसेंस जारी होता था। यह लाइसेंस हम बंबई (अब मुंबई) में किसी आयात-निर्यात एजेंट (क्लीयरिंग एंड फॉरवर्डिंग फर्म)को दे देते थे। वे हमारी ओर से कनाडा या किसी अन्य देश को न्यूजप्रिट उत्पादक कंपनी को ऑर्डर देते, उसके लिए बैंक से विदेशी मुद्रा भुगतान की व्यवस्था करते, जहाज आ जाने पर माल उतारने और मालगाड़ी में चढ़ाकर हम तक भेजने का सारा प्रबंध करते थे। इसके लिए हम उन्हें एक निर्धारित कमीशन देते थे। अब देखिए कि फैक्टरी से कागज रवाना होते समय उसकी जितनी कीमत होती थी, लगभग उतनी ही राशि समुद्री जहाज के भाड़े में लग जाती थी। उसके बाद कमीशन और उस पर रेलभाड़ा। कुल मिलाकर पाठकों तक अखबार पहुंचाना सस्ता सौदा नहीं था। वह आज भी नहीं है।

बहरहाल, कनाडा से चलकर रायपुर तक न्यूजप्रिट आने की लंबी प्रक्रिया में कई बार अप्रत्याशित परेशानियां सामने आ जाती थीं। एक बार ऐसा हुआ कि बंबई डॉकयार्ड (बंदरगाह) से चली वैगन लगभग बीस दिन बाद भी रायपुर नहीं पहुंची। यहां हमारे गोदाम में रखा स्टॉक खत्म होते जा रहा था। तब हमने पहले तो भिलाई के पास चरौदा मार्शलिंग यार्ड में पता किया कि हमारी वैगन वाली मालगाड़ी कहीं वहां आकर तो नहीं खड़ी है। फिर बाबूजी ने राजू दा को वैगन खोज मिशन पर रवाना किया। नागपुर में पता किया तो वहां वैगन पहुंची ही नहीं थी। दा वहां से भुसावल गए। पता चला कि भुसावल के यार्ड में''सिक लाइन'' पर किसी कारण से वैगन कई दिन से खड़ी हुई है। वहां से वैगन को निकलवाया, रायपुर की तरफ आ रही किसी मालगाड़ी में उसे जोड़ा, और खुद गार्ड के डिब्बे में साथ बैठकर आए। दूसरे-तीसरे दिन ले-देकर वैगन रायपुर पहुंची। उस दिन अगर वैगन न आती तो अगले दिन अखबार छप नहीं सकता था, क्योंकि गोदाम में कागज बचा ही नहीं था।

एक बार और कुछ ऐसी ही स्थिति बनी, जब कलकत्ता से रवाना हुई वैगन राउरकेला के पास बंड़ामुंडा यार्ड में अकारण कुछ दिन रोक दी गई। खैर, बंबई में हमारे दो क्लीयरिंग एजेंटों से संबंध बन गए थे। एक थी इंडियन गुड्स सप्लाइंग कं., जिसके मालिक दो शाह बंधु थे। दूसरे थे- अब्दुल्ला भाई फिदाअली एंड कंपनी। इन दोनों ने लंबे अरसे तक हमारे लिए न्यूजप्रिंट आयात का काम किया। दूसरी फर्म के फिदाहुसैन सेठ ने तो वक्त-बेवक्त हमारी और भी मदद की। जैसे मोनोटाइप मशीनें खरीदने के लिए बैंक में मार्जिन मनी जमा करना थी। उनसे रकम उधार ली कि न्यूजप्रिंट की अगली खेप के बिल में इसे जोड़ लेना। 1986 में जब बाबूजी बंबई में अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. ए.बी. बावड़ेकर के अस्पताल में बारह दिन भर्ती थे तो उनका बिल चुकाने की प्रत्याशा में मैं इन्हीं दोनों एजेंसियों में गया और उनसे रुपए लेकर आया। यह एक मार्मिक प्रसंग है कि डॉ. बावड़ेकर ने पहली बार का परिचय होने के बावजूद बाबूजी के इलाज की फीस और अन्य खर्चे लेने से इंकार कर दिया। उनका ''विद कांप्लीमेंट्स'' (शुभकामनाओं सहित) का मात्र पांच हजार रुपए का बिल आज भी मेरे कागजातों में सुरक्षित रखा है।

बहरहाल, पं. नेहरू के कार्यकाल में ही भारत में न्यूजप्रिंट उत्पादन की योजना पर काम प्रारंभ हो गया था। बिड़ला घराने को अमलाई पेपर कारखाने का लाइसेंस इस शर्त पर दिया गया था कि वे पचास प्रतिशत न्यूजप्रिंट और पचास प्रतिशत व्हाइट पेपर या दूसरा कागज बनाएंगे। उन्होंने किसी तरकीब से इस शर्त को निरस्त कर शत-प्रतिशत व्हाइट पेपर बनाने की अनुमति हासिल कर ली। इस कारखाने में मध्यप्रदेश के जंगलों में प्रचुरता से होने वाले बांस की लुगदी से कागज का उत्पादन होना था। लगभग इसी समय बुरहानपुर के पास नेपानगर में सार्वजनिक उपक्रम के रूप में न्यूजप्रिंट कारखाने की स्थापना की गई। नेपा में बांस की लुगदी से बने कागज में वह गुणवत्ता नहीं थी, जो आयातित न्यूजप्रिंट में थी। कनाडा का कागज सफेद झक्क होता था, आसानी से फटता नहीं था, और वजन में भी अपेक्षाकृत हल्का था। इसलिए अधिकतर अखबार नेपा से कागज खरीदने से कतराते थे। लेकिन विदेशी मुद्रा की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण कुछ मात्रा में तो कागज लेना ही पड़ता था।
रुपए के अवमूल्यन व विदेशी मुद्रा के गहराते संकट के कारण भी समाचारपत्र संस्थान नेपा की ओर प्रवृत्त हुए। नेपा ने अपने उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने के प्रयत्न भी जारी रखे। एक समय तो यह स्थिति आई कि नेपानगर में कारखाने के बाहर ट्रकों की कई-कई दिनों तक कतारें लगने लगीं। आपूर्ति कम, मांग अधिक। इसी बीच भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र में तमिलनाडु पेपर मिल्स, मैसूर पेपर मिल्स एवं केरल में हिंदुस्तान पेपर मिल्स की स्थापना की। इनमें विदेशों से आयातित लुगदी से कागज बनाने के संयंत्र लगाए गए। बंबई, कलकत्ता या नेपा के मुकाबले इन सुदूर स्थानों से न्यूजप्रिंट खरीदना महंगा पड़ता था, लेकिन देश में अखबारों की संख्या बढ़ रही थी, पेजों की संख्या बढ़ रही थी और प्रसार संख्या भी बढ़ रही थी; तब जहां से, जैसे भी, जिस दाम पर भी, कागज मिले खरीदना ही था। जिन अखबार मालिकों के अपने दूसरे व्यवसाय थे, उन्हें कोई अड़चन नहीं थी। लेकिन मुश्किल देशबन्धु जैसे पत्रों के सामने थी, जिनके पास आय के अन्य स्रोत नहीं थे।

समाचारपत्र उद्योग पर पूंजीपतियों का वर्चस्व स्थापित होने की यह एक तरह से शुरुआत थी। यदि हम अपनी जगह पर टिके रह सके तो इसकी एक वजह थी कि विगत दो-ढाई दशकों में पुराने न्यूजप्रिंट को रिसाइकिल करने की प्रविधि विकसित हो जाने से न्यूजप्रिंट के अनेक नए कारखाने खुल गए हैं। अब न्यूजप्रिंट अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हो जाता है। यद्यपि आयातित न्यूजप्रिंट अथवा नेपानगर की गुणवत्ता उसमें नहीं है। आप जब इनामी योजनाओं के लालच में अखबार के ग्राहक बनते हैं, तब याद रखिए कि पूरी कीमत देकर अखबार खरीदने की आपको अनिच्छा भी कहीं न कहीं निष्पक्ष, निर्भीक पत्रकारिता का मार्ग अवरुद्ध करती है।
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#देशबंधु में 09 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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