रविवार, फ़रवरी 02, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 24- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  चौबीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 24
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
आज नए साल का दूसरा दिन है। अपने तमाम पाठकों को शुभकामनाएं देते हुए मेरा ध्यान फिर उन सारे व्यक्तियों की ओर जाता है, जिनके सद्भाव और सहयोग के बल पर देशबन्धु की यात्रा जारी है। पिछली किश्तों में और ऐसे कुछ शुभचिंतकों से आपका परिचय हो चुका है, लेकिन यह एक लंबी सूची है जिसे मैं अपनी गति से पूरी करने की कोशिश में लगा हूं। आज सबसे पहले देशपांडे चाचा का नाम स्मृति पटल पर दस्तक दे रहा है।
एम.एन. देशपांडे वर्धा के वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से एक साल आगे थे। हम जब रायपुर आए, लगभग उसी समय वे भी इस प्रदेश के पहले चार्टर्ड एकाउंटेंट (सी.ए.) के रूप में अपना कार्यालय खोलने यहां आ गए थे। एक व्यापारिक उपक्रम होने के कारण अखबार को अपने लेखा प्रमाणित करने के लिए सी.ए. की आवश्यकता होना ही थी। विशेषकर इसलिए भी कि समाचारपत्रों की प्रसार संख्या प्रमाणित करने वाली संस्था एबीसी (ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) की सदस्यता के लिए भी एक आंतरिक लेखा परीक्षक (इंटरनल ऑडीटर) नियुक्त करना अनिवार्य शर्त थी। एबीसी द्वारा प्रसार संख्या प्रमाणित होने पर राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन मिलना सहज हो जाता था। उस प्रक्रिया की बारीकियां जानने में पाठकों को शायद दिलचस्पी न होगी। हमने काफी बाद में एबीसी की सदस्यता क्यों त्याग दी, वह किस्सा अवश्य कभी लिखूंगा।

बहरहाल, पुराने मध्यप्रदेश (सीपी एंड बरार) की प्रतिष्ठित ऑडिट फर्म के.के. मानकेश्वर एंड कंपनी की शाखा स्थापित करने उसके भागीदार देशपांडेजी रायपुर आए थे। उनकी फर्म को न सिर्फ देशबन्धु, बल्कि अन्य पत्रों ने भी ऑडिट का काम सौंपा। देशपांडे चाचा और बाबूजी दोनों राजनैतिक विचार से विपरीत ध्रुव पर थे, लेकिन इसका कोई प्रभाव न तो व्यवसायिक संबंधों पर पड़ा और न पारिवारिक मैत्री पर। चाचा भी पुस्तक व्यसनी थे तथा दोनों मित्रों के बीच पुस्तकों का विनिमय व उन पर जीवंत चर्चाएं होती थीं, जिनमें यदा-कदा भाग लेने का अवसर मुझे भी मिला। देशपांडेजी का बाबूजी पर पूरा विश्वास था और हमारे यहां से जो लेखा तैयार होता था, उसे सरसरी निगाह से देखकर ही वे उसे पास कर देते थे। एबीसी की ओर से हर तीन साल में आंतरिक लेखापाल द्वारा जारी प्रमाण पत्र का पुनर्परीक्षण करवाने का नियम था। उसमें भी कभी देशपांडेजी द्वारा प्रमाणित लेखा में त्रुटि नहीं पाई गई। वर्तमान समय में जब ऐसा परस्पर विश्वास और स्नेह दुर्लभ हो चुका है, इस मित्रता को रेखांकित किया जाना किसी दृष्टि से प्रासंगिक हो सकता है। मुझे प्रसन्नता है कि चाचा के सुयोग्य सुपुत्र किशोर देशपांडे ने अपनी संस्था की प्रामाणिकता और अपने संबंधों की ऊष्मा को बरकरार रखा है।

मैंने पिछली किश्तों में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का उल्लेख किया है। एक समय एन.एस.एस. राव रायपुर शाखा में मुख्य प्रबंधक नियुक्त होकर आए। आगे चलकर वे बैंक के सर्वोच्च पद महाप्रबंधक तक पहुंचे। एक दिन बाबूजी रायपुर में नहीं थे। बैंक खाता उनके ही हस्ताक्षर से चलता था। हमें किसी को चेक जारी करना था, लेकिन बाबूजी के दस्तखत बिना काम कैसे चले? मैं बैंक गया। राव साहब को समस्या बताई। उन्होंने मुझसे चेक पर दस्तखत करने कहा, उसे अपने दस्तखत और सील से प्रमाणित किया। बाबूजी लौटकर आए तो उन्हें उलाहना देते हुए सलाह दी- ललित काम संभालने लगा है। उसे आप हस्ताक्षर करने का अधिकार क्यों नहीं देते। यह तो एक छोटा प्रसंग है, लेकिन देशबन्धु के वित्तीय प्रबंधन में राव साहब की सलाह और सहयोग आगे भी बहुत काम आए। सेंट्रल बैंक में जी.डी. मनचंदा, एच.एल. बजाज, बृजगोपाल व्यास, एस.एस. पंड्या, एम. रहमान, श्रीधर उन्हेलकर, जयकिशन भट्टर 'भगतजी', जी.पी. शुक्ला आदि अनेक अधिकारियों ने हमारी नेकनीयत पर विश्वास कायम रखा और समय-समय पर हमारे मददगार सिद्ध हुए। इन सबके बारे में लिखूं तो एक अलग पुस्तक बन जाए।

यूं तो सेंट्रल बैंक ही हमारा मुख्य बैंक था, लेकिन बीच-बीच में आवश्यकता पड़ने पर अन्य बैंकों के साथ भी हमने संबंध बनाए। इनमें इलाहाबाद बैंक से जुड़ा एक प्रसंग खासा दिलचस्प है। हमने मालवीय रोड स्थित शाखा में खाता तो खोल लिया था, किंतु लेन-देन कुछ विशेष नहीं था। उन दिनों नहरपारा स्थित प्रेस से शाम के समय बाबूजी पैदल नगर भ्रमण करते हुए घर पहुंचते थे। एक शाम शाखा प्रबंधक गणेश प्रसाद लाल ने बैंक की बाल्कनी से बाबूजी को पैदल जाते हुए देखा। साथ में खड़े गोडाऊन कीपर राजेंद्र तिवारी से उन्होंने कहा- अखबार के मालिक हैं, लेकिन इतनी सादगी का जीवन है! वे बाबूजी से बहुत प्रभावित हुए और अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर हमारी जितनी सहायता कर सकते थे, उतनी की। उनके बाद शब्दस्वरूप श्रीवास्तव मैनेजर बनकर आए तो उन्होंने भी देशबन्धु को सहयोग देने में कोई कमी नहीं की। नेशनल हेराल्ड से जो छपाई मशीन हमने खरीदी थी, उसके लिए ऋण श्रीवास्तवजी के प्रयत्नों से ही मिला। इन प्रसंगों में नोट करने लायक बात यही है कि आज से चालीस-पचास साल पहले बैंक और ग्राहकों के रिश्ते किस तरह से बनते और निभते थे। वर्तमान में जब बैकों की डूबत रकम सारे कागज-पत्तर दुरुस्त होने के बावजूद अरबों-खरबों में पहुंच गई है, तब क्या ये उदाहरण कहीं दिशा संकेतक का काम कर सकते हैं?

व्यवसायिक बैंक ही नहीं, देसी बैंकर्स और गैर-औपचारिक तौर पर लेन-देन करने में भी हमें तरह-तरह के अनुभव हासिल हुए। रायपुर के जवाहर बाजार में देसी बैंकर्स के अनेक प्रतिष्ठान थे, जहां अमूमन नब्बे दिन की दर्शनी हुंडी पर ब्याज का कारोबार चलता था। इनके साथ लेन-देन में सामान्यत: कोई मुरव्वत या छूट की गुंजाइश नहीं होती थी। लेकिन लखमीचंद परमानंद फर्म के वरिष्ठ पार्टनर परमानंद भाई छाबड़िया एक अपवाद थे। वे बाबूजी के प्रति गहरा सम्मान भाव रखते थे और हमें आवश्यकता पड़ने पर यथासंभव सहयोग करते थे। 1994 में बाबूजी के निधन के बाद के बेहद कठिन दिनों में उन्होंने सीमा से परे जाकर हमारी जो मदद की, उसे मैं नहीं भुला सकता। उन्होंने अपना निजी कारोबार काफी समेट लिया था लेकिन वे अपनी गारंटी पर दूसरे महाजनों से हमें ऋण दिलवा देते थे।
परमानंद भाई मुझसे कहते भी थे- आपके बाबूजी जैसे सज्जन मैंने और नहीं देखे। सन् 2000 में जब मैंने आजीवन ग्राहक योजना पुन: प्रारंभ की तो वे मुझे अपने तमाम परिचितों के यहां ले गए और उन्हें ग्राहक बनवा दिया। उनके उपकारी स्वभाव के कारण किसी ने भी मना नहीं किया। उसी बीच मैं बीमार पड़ा तो एक दिन वे थोक फल मार्केट से चुनिंदा फलों का पिटारा लेकर दूसरी मंजिल चढ़कर मेरे घर आ गए। ऐसे उम्दा फल रायपुर में हमने न पहले और न बाद में कभी चखे। दुर्भाग्यवश कुछ वर्ष पूर्व उनकी असमय मृत्यु हो गई और मुझे एक सच्चे शुभचिंतक के साथ से वंचित होना पड़ा।

आज की कड़ी बृजगोपाल व्यास से जुड़े दो छोटे-छोटे प्रसंगों के जिक्र के साथ समाप्त होगी। श्री व्यास बूढ़ापारा में हमारे पड़ोसी थे। उनके अनुज प्रख्यात भजनगायक रविशंकर मेरे सहपाठी थे। इसलिए व्यासजी को मैं भैया का संबोधन देता था। वे सेंट्रल बैंक में मैनेजर थे। एक दिन ऐसा हुआ कि मैं एक शवयात्रा में शरीक होने के बाद सीधा बैंक पहुंचा। वह मेरे जीवन में शवयात्रा का पहला अनुभव था। मन विचलित था। व्यासजी ने ओवरड्राफ्ट देने से मना कर दिया तो उसी मनोदशा में उन्हीं के सामने चेक फाड़कर प्रेस आ गया। लेकिन आज का काम कैसे होगा, यह चिंता बनी हुई थी। इतने में स्वयं व्यासजी का फोन आ गया- तुम्हारा काम कर रहा हूं। नया चेक लेकर आओ। फिर डांट पड़ी- तुम क्या समझते हो; मुझे भी ऊपर जवाब देना पड़ता है; ''नैस्टी लैटर'' आते हैं। खैर, काम बन गया। एक शाम बैंक बंद होने के समय तक मैं उनके साथ बैठा था। उनके कक्ष में एक पांच फीट ऊंची दीवार का पार्टीशन कर दूसरी ओर रिकॉर्ड रूम था। चलने का समय हुआ तो व्यासजी ने पार्टीशन वाले दरवाजे पर ताला लगाया। मैंने विस्मय से पूछा- ताला क्यों? आपकी टेबल पर चढ़कर कोई भी पार्टीशन फांदकर उस ओर जा सकता है। उनका सारगर्भित उत्तर था- ''ताला साहूकार के लिए होता है, चोर के लिए नहीं।''
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#देशबंधु में 02 जनवरी 2020 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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