सोमवार, नवंबर 20, 2023

कहानी "ट्रेंडिंग लव वाया मलूकदास" - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, जनसत्ता वार्षिक अंक (दीपावली 2023) में प्रकाशित

कहानी
ट्रेंडिंग लव वाया मलूकदास
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

    उसने सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट डाली, साथ में दर्जन भर हैशटैग लगा दिए। उनमें एक हैशटैग ‘‘लव’’ भी है, जो तुरंत ट्रेंडिंग करने लगता है। लौकिक  हो  या अलौकिक हो, बस, प्रेम का विषय चुन कर उसमें ‘‘हैशटैग लव’’ चिन्हित कर देना इसीलिए उसे अच्छा लगता है। यद्यपि वह कभी-कभी सोचती है कि उसके इस हैशटैग को कोई गौर करता भी या नहीं? क्योंकि अकसर ट्रेंडिंग  के पीछे कोई चिंतन-मनन नहीं हुआ करता है। खै़र, कोई हैशटैग के खूंटे पर लटके प्रेम के बारे में सोचे या न सोचे, उसे सोशल मीडिया का ‘‘फेक लव’’ चाहिए भी नहीं।
मगर क्या उसे सच्चा सौ टका प्रेम भी नहीं चाहिए? उसने अपने आप से प्रश्न किया। फिर तत्काल निष्कर्ष पर भी पहुंच गई।
‘‘मुझे अब किसी से प्यार करना चाहिए।’’ उसने अपने आप से कहा, ’’शादी का तो कुछ कहा नहीं जा सकता है किन्तु प्यार तो कर ही सकती हूं।’’ वह मोबाईल वहीं सोफे पर छोड़ कर आईने के सामने जा बैठी। प्रेम करने के इरादे का निष्कर्ष भले ही तात्कालिक लगे किन्तु वर्षों से मन को कुरेदता अकेलापन उसे इस निष्कर्ष कीे ओर शनैः शनैः निरंतर धकेल रहा था।
कितने वसंत निकले हैं, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता, दिल में प्रेम की चाहत तो अभी ज़िन्दा है। प्यार करने की यही तो असली उम्र तो वयस्कता के साथ ही आती है। सोलहवें साल में यही समझ में नहीं आता है कि हम प्यार कर रहे हैं या ‘घर-घर’ की तर्ज़ में ‘प्यार-प्यार’ खेल रहे हैं। उस समय तो बड़े भी दुत्कारते हुए कह देते हैं कि यह उम्र प्यार करने की नहीं है या फिर यह प्यार नहीं लड़कपना है। ये सब उसके अपने तर्क थे।
‘‘कौन कहता कि तुम बुढ़ा रही हो? ये काले-काले बाल, वे गौरवर्ण! ऐ विपुला! इनके बारे में तुम आज तक बेखबर क्यों रहीं ?’’ उसने आईने में दिखाई पड़ रहे अपने प्रतिबिम्ब से पूछा।
प्रतिबिम्ब भी उसी के समान उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। वह हंस पड़ी। हंसी उसे इसलिए आई कि अपनी सुंदरता तो वह लगभग रोज ही सेल्फी में निहार कर संतुष्ट हो लेती है।

हां! उसका नाम है विपुला । मां-बाप ने रखा था। अगर वे अचला, विमला, कमला भी रख देते तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। नाम नियति नहीं बदला करते हैं। यदि उसकी नियति में किसी का प्रेम रंच मात्र नहीं लिखा है, तो नाम विपुला होने भर से क्या हो सकता है? ये तो अच्छा हुआ कि उसकी अभी तक शादी नहीं हुई वरना उसे शायद अपने पति के प्यार से भी वंचित रहना पड़ता। वैसे दुनिया में कितनी औरतें हैं जो अपने पति का प्रेम हासिल कर पाती हैं? बहुतों को तो पता ही नहीं होता है कि पति का प्यार होता क्या है, फिर भी अच्छी कटती है ज़िन्दगी। कभी-कभी बहुत कुछ जानने से, न जानना भी अच्छा होता है। खैर, ये बिलकुल अलग मसला है। कम से कम विपुला के मामले से एकदम अलग।
 खैर, उसने कभी सोचा नहीं था कि उसे भी कभी प्यार करने की ‘‘तलब’’ होगी। ऐसा नहीं है कि वह कभी पुरुषों के संपर्क में नहीं आई लेकिन यह संपर्क न तो काम-क्रीड़ा के रूप में रहा और न प्रेम के। वह घंटो बैठी-उठी है पुरुषों के साथ। उसने उनके कंधों पर हाथ रखा है, पीठ पर धौल जमाया है, उंगलियों की तेज हरकत से उनके बालों को माथे पर बिखेरा। हां, एक-दो अवसर ऐसे भी आए जब उसने अपने गाल पर चुम्बन लेने दिया। बस, दोस्ताना। अब अगर कोई इसे भी वासना या प्रेम से जोड़े, तो विपुला के हिसाब से ये नासमझी ही होगी। नहीं-नहीं, ये मत समझिए कि वह फ्लर्ट करती है। वह फ्लर्ट करने वाली लड़कियों में से नहीं है। आज भी उसके दिल में फ्लर्ट करने की नहीं अपितु प्यार करने की इच्छा जागी है। इस मामले में वह फाईव-जी के जमाने में थ्री-जी है।

किससे प्यार करे वह? विपुला सोचने लगी। विनय। हां, विनय कैसा रहेगा? हर समय उसके चक्कर लगाया करता है। अपनी बीवी के सामने भी उसी की तारीफ के पुल बांधता रहता है ।
ये पुरूष भी बड़े विचित्र जीव होते हैं। उन्हें अपनी बीवी के सामने पराई औरत की प्रशंसा करने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता है लेकिन उनकी बीवी उनके सामने किसी पराए पुरुष की प्रशंसा में एक वाक्य ही बोल दे तो पति नामक पुरुष अंगारों पर लोट जाता है। अवैध संबंधों के समीकरण गढ़ने लगता है। अब विनय को ही ले लो, वह अपनी बीवी के सामने विपुला की तारीफ करते नहीं अघाता । वह तो अपनी बीवी से यहां तक कह देता है कि तुम विपुलाजी से कुछ सीखती क्यों नहीं ?
क्या सोचती होगी विनय की बीवी? उंह, कुछ भी सोचे! जब विनय को अपनी बीवी की परवाह नहीं है तो वह क्यों सोचे ? वह शादीशुदा है तो क्या हुआ, कौन उससे शादी करनी है, विपुला ने सोचा और विनय का नंबर डायल करने लगी।
‘‘हैलो ! हां, विनय! मैं विपुला, तुम अभी मेरे घर आ जाओ।’’
‘‘अभी?’’
‘‘हां-हां, अभी!’’
‘‘कोई इमर्जेन्सी है क्या?’’
‘‘हां जी, इमर्जेन्सी ही समझो।’’
‘‘ऐसा क्या? बताओ न!’’
‘‘बता दूं? नहीं, फोन पर नहीं, यहां आने पर बताऊंगी।’’
‘‘तबीयत तो ठीक है, न ?’’
‘‘हां, तबीयत ठीक है!’’
‘‘वो क्या है कि मैं दोपहर बाद अगर आऊं तो चलेगा? दरअसल, अभी वाईफ को शॉपिंग पर ले जाना है।’’
‘‘क्या कहा, दोपहर बाद तक आ सकोगे? अगर अभी आ जाते....’’ विपुला का मन तनिक बुझा किन्तु उसे तत्क्षण विचार आया कि वह विनय को साफ-साफ कह दे कि वह उसे प्यार करना चाहती है फिर तो दौड़ा चला आएगा। कह कर देखे?
‘‘अच्छा सुनो !’’
‘‘हां बोलो !’’
‘‘अं... कुछ नहीं, जाने दो!’’
‘‘क्या छिपा रही हो?’’
‘‘ऊंहूं। कुछ भी तो नहीं। मन नहीं लग रहा था सो तुमसे बाते करना चाह रही थी। खैर, छोड़ो!’’ अपने मन की बात सचमुच छिपा गई विपुला। उसे डर लगा कि कहीं वह प्रेम का कोई और अर्थ न निकाल बैठे।
‘‘ठीक है। शाम से पहले आने की कोशिश करता हूं।’’
‘‘अरे नही... आराम से आना!’’ विपुला ने फोन बंद करते हुए टिकाते मुंह बनाया। उसका चेहरा उत्तर गया था। उसे विनय से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। उसे लगा था कि विनय उसकी बात सुन कर दौड़ा चला आएगा।

खैर, मुझे निराश नहीं होना चाहिए, हर इंसान की अपनी अपनी व्यस्तता होती है। विनय को फ़ुर्सत नहीं है तो अनिमेष को ट्राई करती हूं। विपुला ने अपने आप से कहा और अनिमेष का नंबर डायल करने लगी।
‘‘हेलो!’’
‘‘हेलो, मैं मिनी बोल रही हूं आंटी!’’ फोन अनिमेष की बेटी ने उठाया था।
‘‘कैसी हो मिनी? पापा घर पर हैं?’’
‘‘आई एम फाईन! एक मिनट में, अभी पापा को बुलाती हूं, होल्ड प्लीज।
‘‘हां, हलो विपुला, कहो कैसे याद किया?’’
‘‘क्या कर रहे हो?’’
‘‘बस कुछ खास नहीं, बच्चो की प्रोग्रेस रिपोर्ट चेक कर रहा था।’’
‘‘घर आ सकते हो?’’
‘‘कब?’’
‘‘अभी!’’
‘‘अभी? ओ.के. आता हूं। मिनी कल शाम को ही कह रही थी कि विपुला आंटी के घर चलना है। आधे घंटे के भीतर पहुंचता हूं।’’
‘‘अरे, अभी नहीं! मैं तो मज़ाक कर रही थी। किसी दिन शाम को आना मिनी, सरोज भाभी वगैरह सभी को लेकर। सब इत्मीनान से बैठेंगे, गप्पे-शप्पें करेंगे।’’
‘‘ठीक है, जैसा तुम कहो!’’
‘‘हां, यही ठीक रहेगा।’’
‘‘वो वासुदेव की क्रमोन्नति का क्या हुआ?’’ अनिमेंष ने पूछा।  
‘‘पता नहीं। कोई दरवाजे पर आया है.... फिर बात करूंगी... शायद दूधवाला है। ओके बाय!’’ विपुला ने अनिमेंष का उत्तर सुने बिना झट से फोन काट दिया।
कोई नहीं आया था दरवाजे पर, लेकिन अनिमेष की बातें ही विपुला झुंझलाने लगी थीं। अपनी बेटी को साथ लेकर आने वाले से कैसे कहे कि वह उसे मिलने के लिए नहीं बल्कि प्यार करने को बुला रही है। माना कि उसके मन में अनिमेष को लेकर कामासक्ति नहीं है, लेकिन उसकी बेटी के सामने उससे कैसे कह पाएगी- ‘‘आई लव यू!’’
उसे दैहिक प्रेम नहीं मानसिक प्रेम की तीव्र इच्छा हो रही है। कोई हो उसके क़रीब, जो उसे अहसास करा सके कि कोई उसकी चिंता करता है, कोई उसे सचमुच पसंद करता है। एक भरेपन का अहसास, और कुछ नहीं!
अब क्या किया जाए? झुंझलाती हुई विपुला अपनी तर्जनी के नाखून का छोर कुतरने लगी।

उसे याद आने लगा चिराग नाम का वह लड़का जो कालेज के प्रथम वर्ष में उसके साथ पढ़ता था। सेठ दयालचंद के खानदान का रोशन चिराग था वह। कई लड़कियां उस पर मरती थीं, मगर वह विपुला के इर्द-गिर्द फेरे लगाया करता था। उसने अनेक बार विपुला को डेट पर चलने का आमंत्रण दिया किन्तु विपुला को फ्लर्ट करने वालों से सख्त नफरत रही। इसी नफरत के चलते उसने चिराग को खूब उल्लू बनाया। उससे जी भर कर ट्रीट ली। सहेलियों के साथ सिनेमा देखने को उससे टिकटें भी खरीदवाई। लेकिन, जब चिराग ने अपना प्रस्ताव विपुला के सामने रखा तब उसने चिराग को शुष्क सैद्धांतिक व्याख्यान दे डाला । चिराग में पेशंस की कमी थी। वह दूसरे ही दिन दूसरी लड़की को चारा डालने लगा। तो क्या चिराग उसे प्यार करता था? नहीं, चिराग जैसे लड़के कभी किसी से प्यार कर ही नहीं सकते हैं, अपनी पत्नी से भी नहीं।
यदि आज चिराग मिल जाए तो? विपुला ने सोचा। दूसरे ही पल उसने अपने इस विचार को यह कहते हुए अपने मन से निकाल फेंका कि ‘‘तुझे प्यार करना है या फ्लर्ट’’?’’
वह अपने आप में सिमट गई।
उसे याद आया कि उसके छप्पन वर्षीय बॉस ने संजीदा होते हुए उससे कहा था ‘‘विपुला, मैं तुम्हें चाहता हूं। मुझे अपनी जिन्दगी में सब कुछ मिला फिर भी कोई कमी महसूस होती रही है। लेकिन जब से तुम्हें देखा है तो ऐसा लगता है कि वो कमी तुम हो। क्या तुम मुझे मिल सकती हो ?’’
‘‘क्यों नहीं। पर, क्या आप अपनी वाइफ से तलाक लेंगे?’’ विपुला ने दो टूक शब्दों में पूछा था।
बॉस ने हाथ बढ़ाया था तो वह पीछे हट गई थी लेकिन मुस्कुराकर और कुछ-कुछ अपने चेहरे पर विवशता ला कर। विपुला का मुस्कुराना भी विवशता थी और विवशता का प्रदर्शन करना भी विवशता ही थी। असमंजस में रह गया था उसका बॉस और इससे अधिक कठोर नहीं हो पाई थी विपुला । कामकाजी औरतों के अधिकार कानून की किताबों में ही अधिक सहज, सरल लगते हैं. वास्तविकता में उन अधिकारों को पाना बड़ा कठिन होता है, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे कबीर ने कहा था- ‘‘जो घर बारे आपना, आए हमारे साथ।’’
उसे अपना बॉस एक लिजलिजा प्राणी लगता है। मोटा, थुलथुल, बिकुल किसी गंदे टोड के समान। वह तो उसे छूने की कल्पना मात्र से सिहर उठती है। शायद, उसके बॉस जैसा ही निकलता गिरीश। अचानक मिला था वह। पहचान हुई। दोस्ती हुई। दोस्ती लम्बी नहीं चली क्योंकि वह नौकरी बदल कर दूसरे शहर चला गया वह कम्युनिस्ट था। वह भी उन दिनों कम्युनिस्ट हुआ करती थी। जैसे आजकल का युवा जैसे सर्फर या चैटर हुआ करता है। उस दौर का लगभग युवा कम्युनिस्ट हुआ करता था, विपुला का तो यही मानना है। गिरीश के साथ लम्बी-लम्बी अंतहीन बहसे होतीं। उसका जोश, उसकी उत्तेजना अच्छी लगती। वह जब उत्तेजित हो कर पूंजीवाद की खामियां गिनाता तो विपुला को बड़ा भला लगता । अच्छा लगता था उसे गिरीश का साथ। यह साथ छूटा तो लगभग चार साल बाद फिर जुड़ा। उस समय तक गिरीश कम्युनिस्ट नहीं रहा था, वह एक उच्चपद पर पदासीन हो चुका था, उसकी रंगों में पूंजीवादी रक्त हिलोरे लेने लगा था। अगर रफ-टफ शब्दों में कहा जाए तो वह ‘‘हराम की कमाई खा-खा कर मुटा गया’’ था।
‘‘मुझसे शादी करोगी?’’ गिरीश ने एक छोटी-सी मुलाकात के दौरान पूछा था।
‘‘मैंने तुम्हारे बारे में इस दृष्टिकोण से कभी सोचा नहीं।’’विपुला ने कहा था।
‘‘अब सोचना। मैं तो शुरू से ही तुम्हे चाहता हूं।’’
‘‘तो पहले क्यों नहीं कहा?’’
‘‘बस, यूं ही। शायद, मैं विवाह की आवश्यकता को नहीं समझ पाया था।’’
‘‘अब कैसे समझ लिया?’’
‘‘मेरी बाहों में आ जाओ तो समझा दूं।’’ धृष्टतापूर्वक कहा था गिरीश ने।
‘‘सचमुच शादी करोगे मुझसे? तुम्हें दहेज में कुछ नहीं मिलेगा। तुम्हारी मां, तुम्हारे पिताजी, तुम्हारे रिश्तेदार मान जाएंगे?’’ विपुला ने अपनी सारी शंकाएं व्यक्त कर दी थीं।
‘‘नहीं मानेंगे तो मना लूंगा।’’ गिरीश का उत्तर सुन कर वह उसकी बाहों में समा गई थी। उसने जीवन में पहली बार अपने अधरों का चुम्बन लेने दिया था। एक ऐसा दग्ध चुम्बन जिसने उसके सारे शरीर को झंकृत कर दिया था। इस प्रथम चुम्बन का प्रथम अनुभव आगामी बहुत दिनों तक उसे रोंमांचित करता रहा। फिर भी इससे आगे बढ़ने की अनुमति नहीं दी थी उसने। अगली मुलाकातों में भी गिरीश चुम्बनों से आगे नहीं बढ़ पाया। गोया चुम्बन को विपुला ने लक्ष्मणरेखा बना दिया। हां, यह जरूर पूछती रही कि शादी कब करोगे? इस पर गिरीश का व्यवहार बदलने लगा। गिरीश कभी विपुला को दकियानूसी ठहराता, तो कभी विचित्र से उलाहने देने लगता ।
‘‘तुम मोटी क्यों होती जा रही हो?’’
‘‘कोई लेन-देन करने वाला घर पर आ गया तो उसे भगा तो नहीं दोगी?’’
‘‘तुम्हारे दांत कुछ टेढ़े-मेढ़े हैं, इन्हें कॉस्मेटिक से ठीक क्यों नहीं करवातीं?’’
‘‘खुले बाल क्यों रखती हो? इससे तुम्हारा सिर बड़ा दिखाई देता है, तुम आईना ठीक से नही देखती हो क्या?’’
‘‘तुम्हारे निकट के रिश्तेदारों में विवाह के नेग करने वाले तो हैं ही नहीं फिर विवाह के बाद के नेग कौन पूरे करेगा ?’’
गिरीश के इन नए प्रश्नों से थक गई वह और उसने मौन की चादर लपेटनी शुरू कर दी । शीघ्र ही वह समय भी आ गया जब इस सारे किस्से का अंत हो गया। गिरीश ने एक उच्चाधिकारी की लड़की के साथ ‘‘अरैंजमैरिज’’ कर ली। बाद में विपुला को अहसास हुआ कि गिरीश वाले मामले में प्यार का कोई सरोकार नहीं था। जो था, वह भ्रम था। गोया कोई अज्ञात को ज्ञात मान कर उससे चैंटिंग और शेयरिंग करता रहे।
इसके बाद उसे प्यार करने की आवश्यकता कभी महसूस ही नहीं हुई। अपने आप में डूबी हुई थी वह। पर, आज अचानक न जाने क्या हुआ कि मानो, नींद से जागते ही उसे लगने लगा कि उसे भी किसी से प्यार करना चाहिए। हो सकता है कि प्यार करने के बाद उसके अंदर भी काम भावना सिर उठाने लगे। कौन मानेगा कि पुरुषों के साथ उठने बैठने वाली अकेली जान विपुला अभी तक काम-भावना से प्रेशराईज़ नहीं है ? लोग यह क्यों मानते हैं कि एक लड़की युवा होते ही रतिदेवी की जेरॉक्स कॉपी बन जाती है और उसके रोम-रोम से काम-भावनाएं फूटने लगती हैं? है न अजीब फंडा?

विपुला अपने विचारों की दिशा बदल कर सोचने लगी कि अब किसके सामने प्यार का प्रस्ताव रखे? उसका दिल प्यार करने को कुलाचंे भरने लगा। अगर रूना के पति के सामने प्रस्ताव रखे तो? प्रशंसा तो उसकी आंखों में भी झलकती है। लेकिन कह सकेगी अपनी प्रिय सहेली के पति से? रूना कहीं हिन्दी फिल्मों की नायिका की भांति यह न कहने लगे कि ‘‘डाका डालने को तुझे मेरा ही घर मिला था।’’
रुना के लुटे-पिटे चेहरे की कल्पना कर के हंसी आ गई विपुला को।
‘‘हाऊ फुलिश।’’विपुला के मुंह से निकला ।
घुटनों को बाहों में बांध कर बैठे-बैठे खूब सोचा विपुला ने। कोई नाम नहीं सूझने पर उसने कपड़े बदले और दरवाज़े पर ताला डाल कर निकल पड़ी। मुख्य सड़क पर आते ही उसे पुरुषों की भीड़ दिखाई पड़ने लगी। सायकिल पर पुरुष, स्कूटर पर पुरुष, बाईक पर पुरुष, कार में पुरुष, खोमचों पर पुरुष। गर्दन तान कर चलते पुरुष, सिर झुका कर चलते पुरुष, फब्तियां कसते पुरुष, घूर-घूर कर देखते हुए पुरुष। गोया ये दुनिया मात्र पुरुषों की हो।
किससे करे प्रेम निवेदन वह ? सभी पुरुष हैं लेकिन सभी अपरिचित। अब, रास्ता चलते किसी पुरुष से तो वह कह नहीं सकती है कि मैं तुमसे प्यार करना चाहती हूं!
क्यों जागी प्यार करने की इच्छा उसके मन में ? वह झुंझलाने लगी। इस वृहतर समाज में प्यार कहां है? किस रूप में है? समाज है क्या. भावनाओं, विचारों, एक दूसरे के प्रति उपलब्धता- अनुपलब्धता का गुणा-भाग ही तो है। फिर भी प्रभावी रहती है समाजिक नियमों की अदृश्य आकृति। प्यार हमेशा इस आकृति के पांवों तले ही क्यों होता है?
हर औरत को कभी न कभी प्यार की चाहत होती होगी। प्यार भी किससे एक पुरुष से। उसी पुरुष से जिसके बेज़ा दबाव से वह आजाद रहना चाहती। उफ ! कितने सारे अंतर्विरोधों को अपने दिल में समेटे घूमती है एक औरत। यह सब कुछ कितना उलझा हुआ है। अकेलापन तो वह कई वर्षों से झेल रही है फिर अब ये अकुलाहट क्यों ? क्या उसकी बढ़ती उम्र उसे डरा रही है ? उसे अंतस से उठने वाले प्रश्नों का धुंआ उसकी आंखों पर छाने लगा फिर भी वह रुकी नहीं, चलती रही।
‘‘मैम. जरा देख के!’’
‘‘आह!!!’’ विपुला चिंहुक उठी। उसके बायें घुटने में ठोकर लगी थी। सामने बीस-बाईस साल का लड़का अपनी बाईक पर बैठा हुआ था। उसके चेहरे पर खेद के भाव थे।
‘‘मैम आपको लगी तो नहीं? सॉरी, मैं ब्रेक नहीं लगा पाया। यूं भी कुछ लूज है ब्रेक! रियली सॉरी!’’ लड़के ने क्षमायाचना की मानो झड़ी लगा दी।
‘‘इट्स ओ. के.!’’ विपुला ने कहा।
उस लड़के के चेहरे की ताज़गी देखकर अचानक वह अपने आप को थका-थका सा महसूस करने लगी। जाने कितनी दूर निकल आई थी वह, उसे तो होश ही नहीं था। ठोकर तो एक पैर में लगी थी लेकिन दुख रहे थे दोनों पैर। निश्चित रूप से कई किलोमीटर चल चुकी थी वह। उसने महसूस किया कि वह हांफ भी रही है। उसे अपना चेहरा धुआं-धुआं सा होता महसूस होने लगा। क्या उसे घर बैठ कर नंबर डायल करते रहना चाहिए था ? उसने अपने आप से प्रश्न किया और तत्काल ही उसके मन ने उत्तर दिया,‘‘पता नहीं!’’
और विपुला अपने आप से बतियाने लगी गोया वह अपने भीतर ही भीतर प्यार के अस्तित्व को बूझ लेना चाहती हो। ये बात दूसरी है कि उसके मन को एक सशक्त पलायनवादी उत्तर ‘‘पता नहीं’’ के रूप मे मिल गया था।
‘‘प्यार कहा मिलेगा?’’
‘‘पता नहीं!’’
‘‘प्यार किससे किया जाए?’’
‘‘पता नहीं!’’
‘‘प्यार क्यों किया जाए?’’
‘‘पता नहीं।’’
यदि वह सामने से आते किसी भी पुरुष को रोक कर कहे कि वह उससे प्यार करना चाहती है तो वह पुरुष उसके बारे में क्या सोचेगा ? क्या कहेगा ?
‘‘पता नहीं !’’
चौराहे पर खड़े हो कर प्रेम की खोज, क्या यही है असली हैशटैग लव?
आटो रिक्शा ले लेना चाहिए, अपने सिर को झटकते हुए उसने सोचा और एक आटोरिक्शा रोकने के लिए जैसे ही हाथ उठाया वैसे ही एक और बाईक उसके सामने आ कर रुकी।
‘‘तुम यहां कहां घूम रही हो?’’यह विनय था। ‘‘चलो बैठो! तुम्हारे ही घर जा रहा था। वाईफ को उसके भाई के घर पहुंचा कर। मगर तुम यहां कहां भटक रही हो ?’’ विनय ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा।
‘‘बस, यूं ही!’’ भला और क्या कहती विपुला?
“चलो, बैठो पीछे घर चलते हैं।’’ विनय ने संकेत किया।
‘‘किसके घर ?’’
‘‘तुम्हारे! और किसके ? घर नहीं जाना है क्या ? ऐसे क्या देख रही हो ? चलो, बैठो।’’
‘‘तुम तो अपनी पत्नी को शॉपिंग पर ले जाने वाले थे ?’’ विपुला ने पूछा।
‘‘हा, लेकिन उसका मूड बदल गया। उसके भाई का फोन आ गया तो वह भाई के घर जाने की जिद करने लगी। अब छोड़ो भी उसे। बैठो, पेट्रोल फुंका जा रहा है.।’’ विनय हंसा।
‘‘ठीक है चलो।’’ विपुला विनय के स्कूटर पर सवार हो गई। रास्ते भर विनय बोलता रहा जिसे विपुला ने सुना भी नहीं क्योंकि उसका मन सिर्फ एक प्रश्न पर अटका हुआ था, कैसा प्यार चाहिए उसे? कैसा?
घर पहुंच कर विपुला को विनय की जो पहली बात सुनाई दी, वह थी- ‘‘क्यों बुला रही थीं मुझे? कोई खास बात है?’’
‘‘अं... नहीं, बस, यूं ही।’’ एक बार फिर विपुला अपने यह कहने की लालसा को दबा गई कि मुझे तुमसे प्यार करना है। कोई लाभ भी तो नहीं है अब कहने का, उसके मन में उठा ज्वार अब उतर चुका है। लहरों के पीछे छूट गई है मरी हुई मछलियों-सा बुझा हुआ उत्साह और निर्जीव सीपियों सी ठंडी देह। इस पूर्ण वयस्क आयु में देह की आंच को आत्मनियंत्रण की ठंडी राख के नीचे दबाए रहने की आदत पड़ चुकी है। अब आसान नहीं है इस आंच को हवा देना । और फिर.. सिर्फ एक बार हवा दे कर ही क्या होगा. क्या वह इस आंच को सुलगाए रख सकेगी?
‘‘क्या सोचने लगीं?’’
‘‘कुछ नहीं!’’
‘‘फिर भी!’’
‘‘और सुनाओ? वो वासुदेव की क्रमोन्नति का क्या हुआ ?’’ विपुला सहसा औपचारिक होते हुए पूछ बैठी।
विनय से बातें करती-करती न जाने कब उसने सोशल मीडिया पर मलूकदास का यह दोहा लिख दिया कि -
‘‘जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि-कहि न सुनाव।
 अंतरजामी जानि है, अंतरगत का भाव।।’’
फिर एक बड़ा-सा इस्माईली लगाया। हैशटैग लव लगा कर पोस्ट कर दिया और मशगूल हो गई विनय के साथ दुनियादारी की बातों में। प्रेम उसके भीतर ही भीतर देर तक उमड़ता-घुमड़ता रहा और उसकी पोस्ट पर देर तक लाईक, कमेंट्स आते रहे। विपुला प्रेम के अंतरंग की शिक्षा दे कर एक अदद हैशटैग से उसे बहिरंग कर चुकी थी। आभासीय दुनिया के चौराहे पर प्रेम विहीन प्रेम एक बार फिर ट्रेंडिंग कर रहा था, वह भी वाया मलूकदास    
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