गुरुवार, जनवरी 16, 2020

देशबन्धु के साठ साल-19- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  उन्नीसवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-19
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
यह एक सामान्य धारणा बना दी गई है कि आरक्षण की व्यवस्था में प्रतिभा और योग्यता की अनदेखी होती है और अधिकतर अयोग्यजन उसका लाभ उठा ले जाते हैं। हम अपने साठ साल के सांस्थानिक अनुभव के आधार पर कह सकते हैं कि यह धारणा गलत है। वर्चस्ववादी समूह आधे-अधूरे तथ्यों और आंकड़ों को सामने रख जानबूझ कर इस सोच को फैलाता है ताकि समाज के हाशिए पर पड़े समुदायों को आगे बढ़ने के लिए समान अवसर मिलने में रुकावट पैदा की जा सके। देशबन्धु इसलिए आरक्षण नीति का स्पष्ट तौर पर समर्थन करते आया है, भले ही इस वजह से नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रधानमंत्री वीपी सिंह के कार्यकाल में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने का देशबन्धु ने अनुमोदन किया था। मैंने स्वयं उस समय कुछ लेख लिखे थे। समाज के एक वर्ग की कई तरीकों की नाराजगी इस कारण से हमें झेलनी पड़ी। हमने विगत दशकों में आरक्षण को न सिर्फ वैचारिक समर्थन दिया है, बल्कि अपने प्रतिष्ठान में उसे व्यवहारिक तौर पर लागू भी किया है। इस दिशा में हम जितना कुछ करना चाहते थे, उतना नहीं कर पाए हैं, जिसके कारणों पर हमारा वश नहीं है।

छत्तीसगढ़ की जनता नरसिंह मंडल के नाम से भली-भांति परिचित है। रायपुर की पहचान बन चुका घड़ी चौक उनकी ही देन है, जब वे रायपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष थे। श्री मंडल को अधिकतर लोग प्रदेश की राजनीति के एक उभरते हुए सितारे के रूप में जानते आए हैं, जो असमय अस्त हो गया। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत देशबन्धु से ही की थी। वे कॉलेज में मुझसे शायद एक साल पीछे थे। राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहे थे। 1966 में वे हमारे संपादकीय विभाग में आ गए थे। यहां वे दो साल के लगभग रहे। यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि नरसिंह मंडल शायद रायपुर के पहले पत्रकार थे, जो किसी अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व करते थे। उन दिनों अन्य किसी हिंदी समाचारपत्र में या मध्यप्रदेश के किसी अखबार में कोई और भी दलित पत्रकार रहा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है।

भाई मंडल की सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी उन्हें पत्रकारिता की दुनिया से दूर ले गई, लेकिन अनुसूचित जाति या जनजाति के प्रतिभाशाली युवाओं का हमारे पेशे में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो उसका एक विशेष कारण है, जिस पर मीडिया की आलोचना करने वाले विद्वानों को ध्यान देना चाहिए। एक काबिल पत्रकार में जिन गुणों की तलाश की जाती है, वे गुण ही उसे अपेक्षाकृत सुरक्षित, संतोषजनक और आर्थिक दृष्टि से लाभकारी सरकारी पद हासिल करने में सहायक होते हैं। किसी निजी मीडिया संस्थान में काम करने के बजाय ऐसे युवाओं की सामान्य रुझान प्राध्यापक, जनसंपर्क अधिकारी, यहां तक कि क्लर्क बन जाने की ओर होती है। हमने देशबन्धु में कई वर्षों तक संपादकीय विभाग में आवश्यकता के विज्ञापन जारी करते हुए हमेशा एससी/एसटी के लिए आरक्षण तथा प्राथमिकता का उल्लेख किया, लेकिन उसका कोई खास लाभ नहीं हुआ। जो आए भी, वे जल्दी ही किसी सरकारी अर्द्धसरकारी दफ्तर में काम करने का अवसर पा गए।

प्रेस के अन्य विभागों की स्थिति इस मामले में संपादकीय विभाग से हमेशा बेहतर रही है। विज्ञापन, प्रसार, लेखा, कंपोजिंग, मशीन आदि विभागों में जो भी सहकर्मी आए, उन्हें अपनी योग्यता के बल पर लगातार आगे बढ़ने का अवसर मिलता गया। संपादकीय विभाग में भी जिन साथियों को सरकारी नौकरी के सुरक्षित वातावरण की चाहत नहीं थी, उनके लिए भी प्रगति पथ पर कोई रुकावट नहीं थी। मुझे ऐसे साथी मिले हैं, जिन्होंने रात पाली में अखबार के बंडल बांधने से काम की शुरूआत की और आगे चलकर अखबार के संचालन में निर्णयकारी पद पर सेवा देकर यथासमय रिटायर हुए या फिर अखबार के बजाय कोई अन्य विकल्प चुन लिया। हमें इस बात का संतोष है कि देशबन्धु में जाति, धर्म, भाषा, लिंग के आधार पर कभी भेदभाव नहीं किया गया। इतना ही नहीं, हमारे साथियों में बहुतायत उनकी रही जो छोटे-छोटे गांवों से या खेतिहर समाज से आगे आए। मुझे कई बार नरसिंह धुरंधर की याद आती है जो इसी तरह एक छोटे से गांव से आए थे। मुझसे आयु में दो-तीन वर्ष छोटे थे और प्रेस में क्लर्की से शुरूआत कर जनरल मैनेजर के पद तक पहुंचे थे। हमारा उन पर अटूट विश्वास था और नरसिंह ने उसे निभाया। उन्हें अक्सर लोग मेरा छोटा भाई ही समझते थे। न जाने कब-कैसे उन्हें मद्यपान की लत लग गई, जो उनकी सेवानिवृत्ति का कारण बनी, लेकिन उनके साथ आत्मीयता अंत तक बनी रही।

एक अलग किस्म का प्रकरण एक आदिवासी किशोर का है। उसकी मां कई घरों में चौका-बासन का काम करती थी। बड़ा भाई रिक्शा चलाता था। स्कूली शिक्षा किसी की भी नहीं हुई थी। बुधारू को उसकी मां के आग्रह पर हमने प्रेस में सुबह के समय साफ-सफाई करने के लिए रख लिया था। उन दिनों गत्ते के मैट्रिक्स से ब्लॉक बनाने की मशीन प्रेस में लग गई थी। उस पर भी सुबह के समय ही काम होता था। बुधारू वैसे भले ही अनपढ़ था, लेकिन मेहनती था, सीखने की ललक थी, और तकनीकी प्रतिभा थी। सुबह की अपनी ड्यूटी के समय वह मशीन पर ब्लॉक बनते देखता था। उसने कुछ ही समय में ब्लाक बनाना सीख लिया। स्वाभाविक ही उसकी पदोन्नति हो गई। कुछ साल बाद जब नहरपारा से वर्तमान भवन में आए तो यहां हमने छपाई के छोटे-मोटे कामों याने जॉब प्रिंटिंग के लिए ट्रेडल मशीनें डालीं। बुधारू ने यह काम भी सीख लिया और दक्ष मशीनमैन बन गया। उसका छोटा भाई राधेलाल भी इस बीच प्रेस में आ गया था। उसने ऑफसेट मशीन पर काम करना सीखा और हैड मशीनमैन के पद पर पहुंच गया। एक बार राधेलाल को जबलपुर की मशीन पर कुछ काम करने भेजा था। इधर रायपुर में ही मशीन में कुछ समस्या आ गई। मैंने रात ग्यारह बजे उसे फोन किया और उसके असिस्टेंट से बात करवाई। उसने समस्या समझी और फोन पर उसे सुलझाने के लिए आवश्यक निर्देश दे दिए। बात बन गई अन्यथा अगली सुबह अखबार न छप पाता।

एक और ऐसे प्रतिभाशाली सहयोगी की मृत्यु अभी कुछ माह पूर्व हुई है। वासुदेव मंडलवार ने लगभग पैंतीस-चालीस साल हमारे साथ काम किया और सेवानिवृत्ति के बाद भी पिछले दो साल से बदस्तूर काम कर रहे थे। वासुदेव ने भी प्रेस में साफ-सफाई और चाय-पानी पिलाने के काम से शुरूआत की थी। इस बीच हमने पाया कि वह अद्भुत स्मरणशक्ति का धनी है। फोन पर अगर कोई बात करो तो हू-ब-हू लिख लेगा। परिणाम यह हुआ कि उसे संपादकीय विभाग में टेलीफोन पर समाचार नोट करने की ड्यूटी दे दी गई। इस बीच विभिन्न केंद्रों के बीच टेलीप्रिंटर सेवा स्थापित की तो टाइपिंग ज्ञान के चलते उसे टेलीप्रिंटर विभाग की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। जब यह तकनीकी पुरानी पड़ गई और कंप्यूटर लग गए तो वासुदेव ने एक कुशल कंप्यूटर ऑपरेटर के रूप में अपनी योग्यता का परिचय देने में कसर बाकी नहीं रखी। इसी तरह किसी सहयोगी ने व्यवस्था विभाग में तो किसी ने समाचार लेखन में तो और किसी ने लेखा अधिकारी के पद तक पहुंचकर अपनी कर्मठता, परिश्रमशीलता और प्रतिभा की धाक जमाई। ये चमकदार अनुभव हमें निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की पैरवी करने प्रेरित करते हैं।
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#देशबंधु में 28 नवम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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