गुरुवार, जनवरी 02, 2020

देशबन्धु के साठ साल-15- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh 
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  पंद्रहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-15
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
देशबन्धु में हमारी रुचि दीपावली विशेषांक के प्रकाशन में तो रहती थी, लेकिन दीवाली पर लक्ष्मीपूजन जैसे कर्मकांड में हमें न पहले दिलचस्पी थी, और न आज है। अलबत्ता जबलपुर में बाबूजी होली की शाम एक रंगारंग कार्यक्रम रखते थे और रायपुर में स्थापना दिवस रामनवमी पर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन सड़सठ-अड़सठ से करने लगे थे। इन दोनों में स्थानीय लेखक-कलाकार-रसिकजन बड़ी संख्या में शामिल होते थे। इस रवायत का एक संक्षिप्त अपवाद 1968 में हुआ। उसी साल प्रेस में पहिली फ्लैटबैड रोटरी मशीन लगी थी और जगह की ज़रुरत को देखते हुए हम बूढ़ापारा छोड़कर नहरपारा आ गए थे। उस साल दीवाली पर कुछ ऐसा संयोग हुआ कि घर पर मैं अकेला था। बाबूजी सहित परिवार के सारे सदस्य जबलपुर में थे। प्रेस के साथियों का त्यौहार ठीक से मन जाए, इसकी भरसक व्यवस्था हमने की थी। मुझे अपने अकेले के लिए कोई खास आवश्यकता थी नहीं। इसलिए व्यवस्था में कुछ कसर बाकी रह गई तो जो छोटी-मोटी राशि मेरे पास बची थी, वह भी जेब से निकल गई। ऐसी परिस्थिति में रहने का पुराना अभ्यास था, इसलिए कोई चिंता नहीं हुई।

उन दिनों अखबारों में दीपावली पर तीन दिन का अवकाश रहता था। धनतेरस पर दिन का वक्त तो विशेषांक की थकान उतारने में बीत जाता था, लेकिन उसके बाद खाली समय बिताना मुझ जैसी बेचैन आत्मा के लिए कठिन होता था। खैर, तो 1968 में धनतेरस की शाम को मन में अचानक लहर उठी कि नई जगह, नई मशीन के लिए दीपदान करना चाहिए। मैंने साइकिल उठाई और अपने आत्मीय मित्र जमालुद्दीन के घर जा पहुंचा। जमाल और मैं कॉलेज के सहपाठी थे। रायपुर के दुर्गा म.वि. में 1964 में हमने साथ-साथ एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था और 66 में पास हुए थे। बाद में उन्होंने एलएलबी किया और वकालत के व्यवसाय में चले गए। एडवर्ड रोड और चूड़ीलाइन के संगम पर जमाल का घर था। नीचे चूड़ियों की छोटी सी दूकान और ऊपर रिहाइश। मैंने जमाल से इच्छा जाहिर की कि आज प्रेस में दिए जलाए जाएं। उस वक्त दूकान पर अम्मीं बैठी थीं। उनसे जमाल ने पांच रुपए लिए। पास ही गोलबाजार में सड़क किनारे किसी दूकान से हमने मोम के दिए खरीदे। उनका चलन नया-नया था। प्रेस जाकर मन की इच्छा पूरी की। दिए जलाकर वापिस आए और अम्मीं के हाथों का बना खाना खाकर मैं घर लौटा।

मुझे इक्यावन साल पुराना यह मार्मिक प्रसंग इस दीवाली पर बेसाख्ता याद आया। यह देश के बहुलतावादी सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के प्रति देशबन्धु की प्रतिबद्धता की एक बहुत छोटी मिसाल है, लेकिन मुझे लगा कि इसका संदेश जितनी दूर तक संभव हो, पहुंचाना चाहिए। जब दीवाली के दिन शुभकामनाओं के संदेश लगातार आ रहे थे तो उनके उत्तर में इस प्रसंग को ताजा करने से मैं स्वयं को नहीं रोक पाया। फेसबुक, व्हाट्सअप पर फिर जो प्रतिक्रियाएं मिलीं, उनसे आश्वस्ति भी हुई कि भारतीय समाज का विश्वास जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद में बरकरार है। यद्यपि उसे पुष्ट करने की आवश्यकता है। बहरहाल, बात उत्सव की खुशियां मनाने की हो रही है तो कुछ अन्य बातें साझा करना उचित होगा। नहरपारा से जब 1979 में हम वर्तमान निज भवन में आए तो स्वाभाविक ही प्रेस में एक नए उत्साह का संचार हुआ। लक्ष्मी की कृपा पर विश्वास रखने वाले कुछेक वरिष्ठ साथियों ने धूमधाम से दीवाली मनाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन्हें मना नहीं किया।

नए परिसर में दीवाली पर पूजा करने का निश्चय हो गया। एक-दो साथी ऐसे थे, जिन्हें कर्मकांड का आधा-अधूरा ज्ञान था। उन्होंने ही पूजा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। स्टाफ के अनेक सदस्य परिवार के साथ दीवाली की शाम प्रेस आने लगे। पूजा के बाद दिया जलाने और फटाके चलाने का कार्यक्रम होता, जिसमें बड़े और बच्चे सभी उत्साह से भाग लेते। लेकिन यह नई परिपाटी रूढ़िबद्ध होती उसके पहले ही समाप्त हो गई। कर्मकांड में हमारी अरुचि ही शायद इसकी वजह रही हो! शायद साथियों की बढ़ती पारिवारिक व्यस्तता के कारण ऐसा हुआ हो! शायद धन की देवी को ही हमारे अनमनेपन से ठेस लगी हो! यूं तो राजेंद्र यादव ने ''जहां लक्ष्मी कैद है'' शीर्षक से रचना की, लेकिन लक्ष्मी क्या सचमुच कहीं टिक कर रह पाती है? महाकवि रहीम ने तो पांच सौ साल पहले कटाक्ष किया था- '' कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय/ पुरुष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय!'' इसलिए दीवाली प्रसंग को यहीं विराम लगाकर हम आगे बढ़ते हैं।

देशबन्धु की स्थापना रामनवमी के दिन हुई थी। उस दिन प्रेस में अवकाश भी रखा जाता था। किसी समय सहयोगियों के साथ बातचीत में प्रस्ताव आया कि रामनवमी पर सांस्कृतिक कार्यक्रम रखना चाहिए। इसमें यह भावना भी थी कि इस बहाने नगर के बुद्धिजीवी समाज के बीच अखबार की साख में वृद्धि होगी। अखबार निकलते सात-आठ साल हो चुके थे। अपने शुभचिंतकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के नाते भी यह एक उपयुक्त अवसर बन सकता था। मुझे अगर ठीक याद आता है तो 1969 की रामनवमी पर पहली बार हमने सुचारु आयोजन किया। वायलिनवादक दीपचंद पारख व मेरे मित्र गायक डॉ. चंद्रमोहन वर्मा इस आयोजन के प्रमुख कलाकार थे। श्रोताओं में समाज के सभी वर्गों के प्रमुख जन उपस्थित थे। इस आयोजन की खूब सराहना हुई। उससे आने वाले सालों में कार्यक्रम को और बेहतर तरीके से करने की प्रेरणा भी मिली। कार्यक्रम का रूप भी विकसित होते चला गया। पहले साल प्रेस के साथी ही थे तो अगले साल से परिवार के सदस्य भी आने लगे।

यह सालाना कार्यक्रम मुख्यत: संगीत संध्या के रूप में ही संपन्न होता था, जिसमें रायपुर के अलावा प्रदेश के अन्य नगरों के कलाकारों ने सहयोग देकर हमारा मान बढ़ाया। दिगंबर केलकर, मनोहर केलकर, तुलसीराम देवांगन, गुणवंत व्यास, रूपकुमार सोनी, कविता वासनिक, संजय गिजरे, अशोक श्रीवास्तव, मदन चौहान, सत्यरंजन गंगेले, जैसे अनेक गुणी कलावंतों ने इसे अपना कार्यक्रम मानकर ही प्रसन्न भाव से सहयोग किया। इसमें एक साल का उल्लेख विशेष रूप से करना होगा। पुणे से सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ विनायकरावजी पटवर्द्धन रायपुर अपनी बेटी सुश्री कमलताई केलकर के घर आए थे। यह 1972 की बात है। उसी साल और उसी रामनवमी के दिन अखबार का नाम नई दुनिया से बदलकर देशबन्धु हुआ था। पटवर्द्धनजी ने हमारा आग्रह स्वीकार किया और अखबार को अपना आशीर्वाद देने शाम के आयोजन में शरीक हुए। यद्यपि पारिवारिक शोक के कारण उन्होंने गाने में असमर्थता व्यक्त कर दी थी।

रामनवमी के दिन प्रेस में चहल-पहल का माहौल बन जाता था। प्रेस के सारे सदस्य सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित होते थे। संगीत संध्या के बाद अन्य अतिथि भी प्रीतिभोज में शामिल होते थे। जबलपुर में होली पर होने वाले आयोजन की अपनी अलग छटा थी। प्रसिद्ध कव्वाल लुकमान, मिमिक्री कलाकार कुलकर्णी बंधु और नायकर जैसे कलाकार भी इसमें शिरकत करते थे। 1963 की होली में इस मंच पर एक किशोर प्रतिभा का परिचय मिला। ये सुप्रसिद्ध बंशीवादक मुरलीधर नागराज थे, जो उस समय आठवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। रायपुर और जबलपुर के इन आयोजनों की रससिक्त स्मृतियां ही अब शेष हैं।
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#देशबंधु में 31 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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