गुरुवार, जनवरी 23, 2020

देशबन्धु के साठ साल- 21- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  इक्कीसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल- 21
- ललित सुरजन

   
Lalit Surjan
देशबन्धु के स्थापना वर्ष 1959 से लेकर 1979 तक प्रेस का संचालन पहले एक, फिर दूसरे किराए के भवन से संचालित होता रहा। 1977 में जब ऑफसेट प्रिंटिंग मशीन लगाने पर विचार हुआ तो साथ-साथ अपना प्रेस भवन होने की बात भी उठी। हमारे लिए यह एक महत्वाकांक्षी योजना थी। मशीन और भवन के लिए आवश्यक पूंजी का प्रबंध कैसे होगा? इस चिंता का समाधान करने में अनेक स्रोतों से मदद मिली। बैंकों से उन दिनों अखबारों को पूंजीगत ऋण नहीं दिया जाता था। बैंकों का एक तरह से अघोषित नियम था कि प्रेस, पुलिस, प्लीडर और पॉलिटीशियन- इन चार ''पी'' को क़र्ज़ न दिया जाए। डर होता था कि इनसे रकम वसूली करना टेढ़ी खीर साबित होगा। ऐसे समय म.प्र. वित्त निगम के रायपुर स्थित क्षेत्रीय प्रबंधक विश्वनाथ गर्ग सामने आए। आज 92 वर्ष की आयु में गर्ग भाई साहब का बाहर निकलना बंद हो गया है, लेकिन जब तक शरीर ने साथ दिया, वे पैदल ही नगर भ्रमण करते थे। बड़े पद पर होकर भी उन्होंने कार क्या, स्कूटर भी नहीं खरीदा। वे ऐसे वित्त प्रबंधक थे, जो कजर्दारों से कमीशन लेने के बजाय उन्हें स्वयं चाय पिलाते थे और दोपहर के भोजन का समय हो गया हो तो घर पर साथ भोजन के लिए ले जाते थे। उनका घर और दफ्तर एक ही जगह था। उन्होंने हमसे न सिर्फ ऋण प्रस्ताव बनवाया, बल्कि उसे स्वीकार कराने इंदौर मुख्यालय तक खुद गए। ऋण स्वीकृति में इंदौर में जो परेशानियां आईं, उनका विस्तृत विवरण बाबूजी ने आत्मकथा में किया है।

यह जिम्मेदारी मेरे ऊपर गर्ग साहब ने डाली कि मैं ऋण प्रस्ताव बनाऊं। मैं तीन-चार दिन बाद अपनी अकल से जैसा बना, प्रस्ताव लेकर गया तो उसे उन्होंने खारिज कर दिया। समझाया- सरकार में यह देखा जाता है कि फाइल कितनी मोटी है, यह नहीं कि सामने वाली की मंशा क्या है। उनके सुझाव के अनुसार मैंने दुबारा प्रस्ताव बनाया, जिसे देखकर वे खुश हुए। हमें मशीन व भवन के लिए त्रेपन लाख रुपए चाहिए, जिसमें लगभग पच्चीस प्रतिशत याने तेरह लाख की व्यवस्था हमें अपने स्रोतों से करनी थी। यह एक नई समस्या थी। हमारे पास तो तेरह हजार भी नहीं थे। यहां पर हमारे बैंक- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया ने मदद की। बैंक ने तेरह लाख रुपए का ब्रिज लोन याने अस्थायी ऋण देना मंजूर कर लिया, गो कि इसके लिए भी बाबूजी को बंबई मुख्यालय तक दौड़ लगाना पड़ी। शर्त ये थी कि एक साल के भीतर हम यह रकम लौटा देंगे। भवन बनने में एक साल तो लगेगा ही, मशीन उसके बाद ही आएगी, नए कलेवर में अखबार छपेगा, आमदनी बढ़ेगी, तब कर्ज पटाया जाएगा; ऐसे में बैंक की शर्त पर अमल कैसे होगा, यह एक नया सवाल खड़ा हो गया। इस मोड़ पर हमने जो प्रयोग किया, वह पत्र जगत में व छत्तीसगढ़ के जनसाधारण में तो चर्चा का विषय बना ही, स्वयं हमें हैरत हुई कि यह कैसा कारनामा हो गया!

इंग्लैंड के प्रसिद्ध पत्रकार क्लाड मॉरिस की आत्मकथा ''आई बॉट अ न्यूजपेपर'' (मैंने एक अखबार खरीदा) 1962 में प्रकाशित हुई थी। बाबूजी उसकी एक प्रति ले आए थे और मैंने भी तभी उस पुस्तक को पढ़ लिया था। मॉरिस ने वेल्स प्रांत के कस्बे में बंद होने की कगार पर खड़ा एक अखबार खरीदा और पाठकों व स्थानीय समाज के सहयोग से उसे वापिस प्रतिष्ठित किया। बाबूजी की तो प्रारंभ से ही यही सोच रही कि अखबार जनसाधारण के लिए जनता के सहयोग से ही चल सकता है। इस सोच को आजमाने का वक्त अब आ गया था। वरिष्ठ साथियों की बैठक में धीरज भैया ने सुझाव रखा कि हम दो हजार पाठकों को चिह्नित कर उनसे छह सौ रुपए की राशि स्थायी सदस्यता के नाम पर देने का आग्रह करें। उस समय छह सौ रुपए का सालाना ब्याज लगभग साठ-पैंसठ रुपए होता था और अखबार की एक प्रति का सालाना बिल भी लगभग इतनी ही राशि का बनता था। याने स्थायी सदस्य बन जाने से पाठक को नुकसान नहीं होगा। बाबूजी ने प्रस्ताव में संशोधन किया कि एक हजार रुपए लेना चाहिए। अखबार के मूल्य में आगे वृद्धि होगी ही, उसकी भरपाई के लिए इतना कुशन रखना चाहिए। और जो स्नेही पाठक छह सौ देगा, वह एक हजार भी दे सकेगा। यह बात सबको जंच गई। ''आजीवन ग्राहक योजना'' पर काम शुरू हो गया।

मुझे जहां तक याद पड़ता है- तब तक धार्मिक पत्रिका ''कल्याण'' ही शायद एकमात्र पत्रिका थी, जिसकी आजीवन सदस्यता उपलब्ध थी। संभव है कि कुछेक जातीय समाजों के मुखपत्रों में भी इस तरह की योजना रही हो! लेकिन एक दैनिक समाचारपत्र के लिए यह एक नई और किसी हद तक चौंकाने वाली पहल थी। इस पर तब ''टाइम्स ऑफ इंडिया'' में भी रिपोर्ट छपी। बहरहाल, प्रेस में लगभग हर वह सदस्य जिसके थोड़े-बहुत सामाजिक संपर्क थे, इस मुहिम को सफल बनाने में जुट गया। स्वाभाविक ही शुरूआत रायपुर से की, लेकिन अभियान पूरे प्रदेश में चला। जिला प्रतिनिधियों और संवाददाताओं ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। बाबूजी ने डोंगरगढ़ से लेकर रायगढ़ तक और बस्तर से लेकर सरगुजा तक जितना संभव हो सका दौरा किया। बाकी हम सब भी अपनी-अपनी संपर्क क्षमता की परीक्षा दे रहे थे। इस दौरान बहुत अच्छे अनुभव हुए। देशबन्धु को सहयोग देने में शायद ही किसी ने मना किया हो, बल्कि कई मित्रों ने आगे बढ़-चढ़कर सहायता की। कोई-कोई संभावित ग्राहक मजाक में पूछ बैठता था- आजीवन किसके लिए? हम भी हँसकर जवाब देते- अखबार चलते बीस साल हो गए हैं और आपके साथ हमारा जीवन भी लंबा चलने वाला है।

मैंने इस अभियान के दौरान प्रदेश के दूरदराज केंद्रों तक की यात्राएं कई-कई बार कीं जिनमें जिला प्रतिनिधियों ने बराबरी से साथ दिया। धीरज भैया, बलवीर खनूजा, भरत अग्रवाल, हरिकिशन शर्मा, ज्ञान अवस्थी, जसराज जैन आदि का यहां स्मरण हो आना स्वाभाविक है। रायपुर में तो सारे साथी थे ही। प्रतिष्ठित समाजसेवी व्यवसायी रामावतार अग्रवाल का विशेष उल्लेख करना चाहूंगा। उन्होंने एक दिन फोन किया- चलो घूमकर आते हैं। वे अभनपुर और नयापारा राजिम में अपने परिचित बंधुओं के यहां ले गए और आठ-दस ग्राहक बनवा दिए। एक रात मैं जगदलपुर से चार दिन बाद लौटा ही था कि फोन आया- कल सुबह चलना है। थका तो था, लेकिन मुहिम को कैसे छोड़ता? अगले दिन रामावतार भैया के साथ मैं खरोरा गया और वहां भी कुछ ग्राहक बन गए। मेरे बचपन के मित्र महेश पांडे पहले अंबिकापुर, फिर राजनांदगांव में पदस्थ थे। उनके मधुर संपर्कों का लाभ मिला। अंबिकापुर से एक दिन पत्थलगांव होकर जशपुर नगर गया। रात को लौटने में काफी देर हो गई थी। सीतापुर के पास एक झरने पर आधी रात पानी पीने आए बाघ के दर्शन भी हो गए। कह सकते हैं कि वह मेरे हिस्से का बोनस था।

इस तरह प्रतिदिन जो धनराशि एकत्र होती, उसे सीधे बैंक में जमा करते जाते थे। बैंक ने जो भरोसा किया था, वह गलत सिद्ध नहीं हुआ। यथासमय काम चलाने लायक भवन निर्माण हो गया, दिल्ली से बंधु मशीनरी कं. से ऑफसेट मशीन भी आ गई। दिलचस्प संयोग यह है कि अपने समय के गणमान्य पत्रकार देशबन्धु गुप्ता के पुत्रों ने ही ऑफसेट मशीन का कारखाना डाला था। प्रारंभ में जो सहयोग राशि एक हजार निर्धारित की थी, उसे कुछ वर्ष बाद बढ़ाकर दो हजार किया। उसमें भी पाठकों का भरपूर सहयोग मिला। अधिकतर पुराने सदस्यों ने भी एक हजार की अतिरिक्त राशि खुशी-खुशी दे दी। सन् 2000 के आसपास आर्थिक संकट आने पर योजना को पुनर्जीवित किया और पांच हजार रुपए की सहयोग राशि तय की। तीसरे चरण में भी देशबन्धु के चाहने वालों ने निराश नहीं किया और कुछ मित्रों ने तो स्वयं रुचि लेकर अपने परिचितों को प्रेरित किया कि वे देशबन्धु की विकास यात्रा में सहभागी बनें। कुल मिलाकर यह एक हर तरह से लाभदायी अनुभव था। मुझे इस बात की प्रसन्नता तथा उससे बढ़कर संतोष है कि पाठकों के एक बड़े वर्ग ने देशबन्धु को एक विश्वसनीय समाचारपत्र माना और इसीलिए पत्र की प्रगति में योगदान करना उन्होंने उचित समझा। अपने इन सभी पाठकों व सहयोगियों का जो ऋण हम पर है, उसकी कीमत भला कौन आंक सकता है?
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#देशबंधु में 12 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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