- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक
- लेडीज क्लब
लेखिका
- नमिता सिंह
प्रकाशक
- सामयिक बुक्स, दरियागंज, नई दिल्ली-2,
मूल्य
- 360
रुपए
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जब हम भारत की आधी आबादी की बात करते हैं तो
इसका अर्थ होता है वे तमाम औरतें जो भारत में रह रही हैं। वे चाहे किसी भी वर्ग, जाति, धर्म
या समुदाय की हों। फिर भी हिन्दी साहित्य में मुस्लिम समुदाय की स्त्रियों के जीवन
को समग्रता से कम ही उकेरा गया है। जब कि मुस्लिम समुदाय के सतत् विकास में उनकी
स्त्रियों का अभिन्न योगदान रहता है। वे अन्य समुदाय की स्त्रियों की भांति अपने
परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति समर्पित रहती हैं। वे अपने बच्चों को
पालती-पोसती हैं और उन्हें जीवन में संघर्ष करने के योग्य बनाती हैं। किन्तु
प्रायः उनका यह योगदान अनदेखा रह जाता है क्योंकि वे स्वयं को सामने नहीं लातीं।
उनके सामने न आ पाने का कारण एक तो उनकी परम्परागत झिझक है और दूसरी सकल समाज की
भांति पुरुषवर्चस्व का दबाव। अपने जुझारु व्यक्तित्व के लिए सुविख्यात लेखिका
नमिता सिंह ने अपने ताज़ा उपन्यास ‘लेडीज़ क्लब’ में इस तथ्य को बखूबी सामने रखा है।
‘लेडीज़
क्लब’ के रूप में नमिता सिंह ने एक ऐसा
केन्द्र या ‘सिम्बॅल’ चुना
है जहंा विभिन्न समाज और विभिन्न धर्म की स्त्रियां परस्पर मिलती हैं, अपना-अपना मनोरंजन करने के साथ ही अपने-अपने
दुख-सुख भी परस्पर बांटती हैं जिसमें उनका स्नेह और उनकी ईर्ष्या-द्वेष भी शामिल
होते हैं। कुलमिला कर कोई भी लेडीज़ क्लब वह केन्द्र होता है जहां वे औरतें भी
स्वयं को अभिव्यक्त करने का प्रयास करती हैं जो कहीं अन्यत्र अभिव्यक्त नहीं कर
पाती हैं। ऐसे केन्द्र बिन्दु से ही ‘लेडीज़
क्लब’ उपन्यास के कथानक का आरम्भ होता है और
कथा के प्रवाह के साथ ही अनेक घटनाएं जुड़ती चली जाती हैं। इनमें से कई घटनाएं
चैंकाती हैं, स्तब्ध करती हैं, और कई घटनाएं ऐसी हैं जो मन को दुख और
सहानुभूति से भर देती हैं।
समाज में घटित होने वाली हर घटना या विचार का
प्रभाव स्त्री-जीवन पर भी पड़ता है। यदि समाज विभिन्न खानों में बंटता है तो
स्त्रियों से भी आशा की जाती है कि वे उस बंटवारे के अनुरूप जिएं। एक समुदाय की
स्त्रियां यदि उन्मुक्त और साधिकार जी रही
हों तो यह जरूरी नहीं है कि उसरे समुदाय का समाज अपनी स्त्रियों को वह स्वतंत्रता
और अधिकार प्रदान करने के बारे में सहज हो। समाज के विभिन्न जाति एवं धर्म में
बंटे होने के बारे में उपन्यास की नायिका क्षोभ व्यक्त करते हुए कहती है कि ‘‘मैं भूल गई थी कि हमारा हिन्दुस्तानी समाज
जाति-दर-जाति सैंकड़ों खानों में ऐसा बंटा है कि इसकी जड़ें दूर-दूर तक फैल गई
हैं। ज़मीन के नीच गहरे धंसी ये जड़ें उन बस्तियों और कुनबों तक जा पहुंची हैं, जहां इन विभाजन रेखाओं का अस्तित्व ही नहीं
होना चाहिए था। धर्म और जाति के ये विभाजन के दंश समाज की हर धड़कन में मौजूद हैं।’’ (पृ. 17)
शहनाज़ आपा, ग़ज़ाला, अजरा जैसी स्त्रिएं सामाजिक बंधनों से जूझती
दिखाई देती हैं। वहीं लेडीज़ क्लब भी सामाजिक दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रहता है।
शहर में साम्प्रदायिक कटुता बढ़ने पर क्लब की सदस्य लीला गुप्ता ने अपने घर बदलने
को एक बहाने के रूप में प्रयोग करते हुए क्लब में शामिल होना ही छोड़ दिया। लीला
के अनुसार जब वह कैंपस में थी तो आना सुगम था किन्तु अब घर दूर है अतः क्लब में
नहीं पहुंच पाती है। इस पर शहनाज़ आपा टोकती हैं कि ‘‘ क्या पढ़ाने नहीं आतीं तुम? रोज डिपार्टमेंट तक आती हो। महीने में एक दिन
गेस्टहाऊस तक आना अब इतनी मुसीबत का काम हो गया?’’ (पृ 33) लीला गुप्ता के क्लब में न पहुंचने और शहनाज़
आपा की पीड़ा के बहाने लेखिका ने उस अलगाव के रेखांकित किया है जो जाने-अनजाने
आकार लेता चला जाता है।
एक युवा लड़की ग़ज़ाला अमेरिका में पढ़ी और
बड़ी हुई। वह भारत के उस वातावरण में नहीं आना चाहती है जहां रूढि़यों के बंधन ही
बंधन हैं। वह विरोध करती है किन्तु उसके पिता मौलाना अपनी पैंतरेबाज़ी से उसे भारत
चलने को विवश कर देते हैं। भारत आ कर ग़ज़ाला कर मन हर पल छटपटाता रहता है और उसे
अपनी मंा के मौन पर आश्चर्य भी होता है।
‘‘कितना
कठिन होता है अपने-आप से लड़ते हुए जीवन बिताना। औरतों की जि़न्दगी में मूक-बधिर
की तरह हुकुम का पालन करना, रेवड़ के साथ चलते जाना क्यों होता है?’’ (पृ 93) लेखिका
इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढती हुई जिस दिशा में जाती हैं वहां साम्प्रदायिक कट्टरता, परस्पर अविश्वास, हिंसा, और वैमनस्य के ऐसे घिनौने रंग दिखाई देते हैं
कि मन में टीस उठती है-क्या हमने अपने सामाजिक वातावरण को इतना बदरंग कर दिया है? दुर्भाग्य से यही सच है। देश में औरतों की
प्रगति को मात्र चंद उदाहरणों से नहीं मापा जा सकता है, उनकी ओर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है जो घुटन
भरे माहौल में जीने को विवश हैं। लेखिका ने इस तथ्य को भी उजागर किया है कि
दकियानूसी सोच अपढ़ या आर्थिक रूप से निम्नवर्ग में ही नहीं भद्र और पढ़े-लिखे
वर्ग में भी कट्टरता से जमी हुई है।
स्त्री की दशा और समाज की जंग खाई बुनावट का
बारीकी से विश्लेषण करने में सक्षम उपन्यासकार नमिता सिंह ने अपने इस नए उपन्यास ‘लेडीज क्लब’ के द्वारा देश और समाज के उस कोने को भी उजागर कर
दिया है जहां मुस्लिम समाज की महिलाएं
पुरातन विचारों से उत्पन्न विसंगतियों को जीने के लिए विवश हैं। यह उपन्यास
मात्र एक कथानक नहीं वरन् एक साहसिक विमर्श है मुस्लिम स्त्रियों के जीवन पर।
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बहुत ही सुंदर विश्लेषण के साथ अच्छी समीक्षात्मक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार जमशेद आज़मी जी...
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