पुस्तक-समीक्षा
समीक्षक - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक
- आवाज़
लेखिका
- मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक
- सामयिक प्रकाशन,
3320-21,जटवरड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई
दिल्ली-2
मूल्य
- 300
रुपए
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एक स्त्री क्या चाहती है? यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर
सभी अपने-अपने ढंग से देते हैं। जैसे कोई कहता है कि स्त्री को गृहस्थी मिल जाए, परिवार, पति, बच्चे मिल जाएं तो वह खुश रहती है और अपने-आप
में पूर्णता का अनुभव करती हुई संतुष्ट रहती है। कोई कहता है कि स्त्री पुरुष की
छाया बन कर जीना पसन्द करती है। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि कुछ उच्छृंखल औरतें
दैहिक स्वतंत्राता पा कर प्रसन्न रहती हैं अर्थात् वे अपनी देह को अपने ढंग से
जीना चाहती हैं। पुरुष प्रधान समाज में ऐसे उत्तर मिलना स्वाभाविक है। किन्तु सही
उत्तर तो स्वयं स्त्री ही दे सकती है न, कि
वह क्या चाहती है, अपने जीवन से, अपने समाज से, अपने
परिवार से या फिर अपनी देह या अपने विचारों से? स्त्री
ने जब भी अपने अस्तित्व से जुड़े इस प्रश्न का उत्तर देना चाहा तो उसे झिड़क दिया
गया कि ‘बहुत बोलने लगी हो!’, ‘अपनी जबान पर लगाम दो!’, ‘आवारा हो चली हो!’, मुंह से आवाज़ भी निकाली तो ठीक नहीं होगा!’ आदि-आदि। आवाज़! हां, इसी आवाज़ को स्त्री के भीतर से बाहर आने की
आवश्यकता सदैव रही है। कुछ भले पुरुषों और कुछ सजग स्त्रियों ने स्त्री के भीतर
आवाज़ को बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। यह प्रयास हर कालखण्ड, हर सदी में किया जाता रहा है। इसी प्रयास का
सुपरिणाम है कि आज स्त्री स्वयं को पहचानने की ललक तो संजोने लगी है, वह अपने मन की आवाज़ सुनने को लालायित तो रही
है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में स्त्री की आवाज़ को शब्द देने और लिपिबद्ध करने
वाली लेखिकाओं में अग्रिम पंक्ति में नाम आता है मैत्रेयी पुष्पा का। उनके लेखन की
धार अनेक बार पुरुषवादियों को लहूलुहान कर चुकी है। उनका लेखन अपने-आप में अनूठा
है। क्योंकि वे खरी बात खरे-खरे शब्दों में लिख डालती हैं। मैत्रेयी पुष्पा की
ताज़ा पुस्तक ‘आवाज़’ उनके
इसी लेखकीय अनूठेपन का उल्लेखनीय उदाहरण है।
‘आवाज़’ स्त्री विमर्श की पुस्तक है। इसमें मैत्रेयी
पुष्पा ने स्त्री जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं को विविध उदाहरणों के साथ
व्याख्यायित किया है और स्त्री के मन की आवाज़ को मुखर करते हुए इस तथ्य को पूरी
तार्किकता के साथ सामने रखा है कि आखिर स्त्री क्या चाहती है? विमर्श का आरम्भ वे इन काव्य पंक्तियों से करती
हैं कि ‘मेरे हमसफ़ीरो, न ख़ामोश रहना/ मैं आवाज़ दूं, तो तुम आवाज़ देना।’ एक आवाज़ के समर्थन में जब तक दूसरी आवाज़ न
उठे तब तक उस पहली आवाज़ के उठने का असर दिखाई नहीं देता है। इसीलिए लेखिका उन
कारणों को टटोलती है जो आवाज़ से आवाज़ मिलाने के साहस के रास्ते में रोड़ा बन
जाते हैं। लेखिका को पहला और बुनियादी रोड़ा मिलता है संस्कारों के रूप में। सभी
संस्कार नहीं अपितु वे संस्कार जो अपना स्वरूप गंवा चुके हैं, वीभत्स बन चुके हैं और जो समाज में सड़े-गले
विचारों की दुर्गन्ध फैलाते रहते हैं। ऐसे दूषित संस्कारों को छोड़ देने का आह्वान
किया है पुस्तक के प्रथम अध्याय में। निःसंदेह बुनियाद को सुधार कर ही समूची इमारत
को मजबूती प्रदान की जा सकती है। मैत्रेयी भारतीय संस्कृति के अतीत चुन कर वे
उदाहरण सामने लाती हैं जो आमजन और विशेष रूप से आमस्त्रियों के सुपरिचित हैं, फिर वे लिखती हैं-‘मालूम हो कि हमारा सामाजिक माहौल एक नक्कारखाना
है, जहां आवाज़ें नहीं सुनी जातीं, हुक्मनामे का घंटा बजता है- चुप रहो या हमारे
स्वर में स्वर मिलाओ- यह ईश्वर के आदेश की तरह पवित्रा, मगर कड़ी घटना है। अविस्मरणीय उपदेश है। इन
उपदेशों को सतियों ने सुना और माना,
वे
देवी की तरह प्रतिष्ठापित हुईं,
मगर
सीता, द्रौपदी, मैत्रेयी, गार्गी, अहिल्या
और मंदोदरी ने सतियों के अनुसार सतीधर्म निभाया क्या? वे देवी नहीं बनीं, यह हमारा दावा है। तभी तो पुरुष प्रवरों में
प्रवर अवतारी, ऋषि, मुनि, देवता और राक्षसों के बीच अपनी आवाज़ बुलन्द
करती हुई स्त्री भूमिका में आई और सजाएं पाईं। यहीं से तो स्त्री के इतिहास ने
मोड़ लिया।’ (पृ.11)
इसके आगे लेखिका उस मोड़ की चर्चा करती हैं
जिसमें स्त्री स्वयं को साबित करने के लिए जूझती हुई दिखाई देती है। ‘पितृ सत्ता ने जिये कंगाल करके छोड़ा था, वह समृद्धि के रास्ते पर दिखने लगी। इसलिए कि
भरमाने वाले लोकाचार, सुरक्षा के दावे और सुशील, सीधी गऊ जैसी बेटी के संबोधनों के बदले उसके
हक़ छीनने की साजि़श क्षीण होने लगी। पारिवारिक शुभकामनाएं उसे बेदखल करती रही हैं, तो अब अपने हक़ों से रिश्ता जोड़ना लाजमी है।’ (पृ.18)
तीसरे अध्याय में मैत्रेयी के तेवर और अधिक
आक्रामक हो उठते हैं। यह आक्रामकता ठीक उस तरह कि है जैसे किसी जोरदार प्रहार के
बिना खण्डहर हो चली इमारत को भी नहीं गिराया जा सकता है, यानी यह आक्रामकता उस प्रहार की भांति है जो
दूषित पुरुषवादी सोच की इमारत को गिरा देना चाहती है। जब द्रौपदी का चीरहरण किया
जा रहा था तब जितने दोषी दुर्योधन और दुःशासन थे, उतने
ही दोषी युधिष्ठिर और अर्जुन भी थे। वे सभासद भी दोषी थे जो एक स्त्री के सम्मान
को सार्वजनिक रूप से आहत होते देख रहे थे। जो नहीं देख सके, उन्होंने नेत्रा झुका लिए। क्या यही पौरुष था
दोनों पक्ष का? महाभारतकालीन इस प्रसंग को वर्तमान
परिवेश में तौलती हुई लेखिका इस तथ्य को उजागर करती है कि यदि आज स्त्री सुरक्षित
नहीं है तो क्यों? समाज और समाज में रहने वाली स्त्री की
सुरक्षा के लिए थाने हैं, कोतवालियां हैं। किन्तु -‘यह तो थाने-कोतवालियों में जा कर देखा जा सकता
है कि वहां पुलिस की हवस की कैसी शिकारगाह हैं।’ (पृ 30) फिर जब थाने और कोतवालियों में सत्राी की अस्मत
तार-तार होती है तो समाज कौरवों की राजसभा के सभासद की भांति मौन रहता है या
नज़रें चुराता है। मैत्रेयी इस ओर भी ध्यान देती हैं कि जिस देश में सारी व्यवस्था
राजनीति से संचालित होती है और जहां की राजनीति में स्त्रियों को स्थान दिया जाने
लगा है तो उन राजनीतिक स्त्रियों की स्त्री के पक्ष में क्या भूमिका है? वे निःसंकोच लिखती हैं कि -‘अपनी राजनेत्रियों की तो बात ही क्या करें, वे स्त्री उत्थान के शिखर सिंहासनों पर विराजती
हैं, बलात्कार की मारी लड़कियों से बेख़बर
हैं।’ यहां मैत्रेयी के उन विचारों की
वास्तविकता मुखर होती है जिसमें वे निरा स्त्रीवादी नहीं बल्कि मानवतावादी हो कर स्त्री
के हित के बारे में सोचती हैं। वे उन स्त्रियों को भी ललकारती हैं जो स्त्री हो कर
स्त्रियों के हित के बारे में कोई कदम नहीं उठा पाती हैं। यहां मैत्रेयी दो टूक
तरीके से कहती हैं-‘सेक्स, गर्भ
और प्रसव से गुजरती ये राजनीतिक स्त्रियां आखिर कितनी राजनीतिक हैं? इतनी ही जितनी राजनीति के क्षेत्रा में जमे
पुरुष इनको छूट दें या कसें? ये कठपुतलियां साबित हुईं, जिनके गले में बंधी रस्सियों का संचालन हर हालत
में पुरुषों के हाथ में है।’ (पृ.43)
लेखिका स्त्री की दुरावस्था के लिए स्वयं स्त्रियों
को ही दोषी पाती हैं। दोषी इस अर्थ में कि स्त्रियों के गले में जो ‘पति परमेश्वर’, ‘मालिक’ जैसे शब्द बांध दिए गए हैं, स्त्रियां उन्हें गुलामी के पट्टे की भांति ढोए
जा रही हैं। बराबरी और अधिकार की बात करना
अभी भी उन्हें ठीक से नहीं आया है। इस बिन्दु पर वेश्याओं और विवाहिताओं के बीच के
अंतर को मैत्रेयी ने इन शब्दों में रेखांकित किया है-‘वेश्याओं ने आपत्ति दजऱ् कराई कि हम पराधीन
नहीं, अपने धंधे का खाते हैं। हमें किसी मर्द
की सुरक्षा या संरक्षण की जरूरत नहीं, अपनी
जिम्मेदारी खुद उठाना जानते हैं- हमें गृहणियों के बराबर न रखा जाए, वे कतई बेगारिनें हैं।’ (पृ.53) यह
तुलना बहुत कठोर है किन्तु गहराई तक सोचने को विवश करती है।
मैत्रेयी पुष्पा ने ‘आवाज़’ के
माध्यम से स्त्री-शिक्षा, पैत्रिक संपत्ति पर स्त्रियों के
अधिकार, घरेलू हिंसा आदि के साथ ही ‘सेरोगेट मदर’ पर
भी धारदार टिप्पणी की है। बहुत ही बारीकी से ‘सेरोगेट
मदर’ पर लेखनी चलाई गई है। यह विशय उस समय
अतिसंवेदनशील हो उठता है जब एक स्त्री कोख खरीद रही हो, एक स्त्री कोख बेच रही हो और एक स्त्री लेखिका
के रूप में इस ‘व्यवसाय’ का
आकलन कर रही हो। मैत्रेयी लिखती हैं-‘यहां
दृश्य में दो औरतें हें, एक जो किसी रईस की पत्नी है और दूसरी
वह जो रोटी-कपड़ा से मोहताज़ है और बेचने के लिए अपना शरीर ही उसके पास है, उसका जो भी अंग बिक पाए। ये दोनों औरतें उसी
समाज का हिस्सा हैं, जो मर्यादा, नैतिकता और स्त्री की पवित्राता के पक्ष में
ढेाल-नगाड़े बजाता है। पतिव्रत को स्त्री का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताता है।’ (पृ.161-162) खरीदने वाली स्त्री अपने पति के लिए, अपने परिवार के लिए वंशज खरीदती है वहीं बिकने
वाली स्त्री अपने उस मातृत्व का सौदा करने को विवश रहती है जो स्त्री के रूप में
उसकी सबसे बड़ी जैविक विशेषता मानी जाती है। लाभ में रहता है पुरुष और सिर्फ
पुरुष। पुस्तक के अंतिम अध्याय को मैत्रेयी पुष्पा ने ‘एक स्त्री का घोषणपत्र’ के रूप में लिखा है। इस अध्याय में अतीत और
वर्तमान की दशाओं के आधार पर भविष्य के प्रति आशाएं व्यक्त की गई हैं। इसमें
आह्वान है उन स्त्रियों का जो आज भी नहीं जानती हैं कि वे किस दशा में जी रही हैं।
हिन्दी में स्त्रीविमर्श की अब तक प्रकाशित
पुस्तकों में यह पुस्तक मील का पत्थर साबित होगी क्यों कि इसमें स्त्री के भीतर की
आवाज़ बिना किसी लाग-लपेट या बिना किसी झिझक के सहज ओर प्रभावी ढंग से उद्घाटित की
गई है जिसमें यह महाप्रश्न भी शामिल है कि स्त्री का समय कब बदलेगा? यह पुस्तक प्रश्न के साथ-साथ परिवर्तन के
रास्ते की ओर स्पष्ट संकेत भी करती है। वस्तुतः ‘आवाज़’ में मैत्रेयी पुष्पा का वह तेवर जो उनकी
प्रत्येक साहित्यिक कृति में रहा है और जिसके लिए वे जानी जाती हैं, ‘आवाज़’ में
यह तेवर अपने समग्र रूप में है। इसलिए इस पुस्तक को ही स्त्री के भीतर की आवाज़ का
घोषणपत्र कहा जा सकता है।
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