बुधवार, जनवरी 06, 2016

पुस्तक-समीक्षा.... बर्फ में दबी आग महसूस करने जैसा उपन्यास - डॉ. शरद सिंह


पुस्तक-समीक्षा....   
- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक  - बर्फ-आशना परिन्दें (उपन्यास) 

लेखिका  - तरन्नुम रियाज   

प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज,  
              नई दिल्ली-110002 
मूल्य    - रुपए 795 मात्र
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Barf ashna parindey
तरन्नुम रियाज़ कश्मीरी मूल की उर्दू की ख्यातिलब्ध रचनाकार हैं। ‘‘बर्फ आशना-परिन्दें’’ उनका उर्दू में लिखा गया उपन्यास है जिसका हिन्दी लिप्यांतरण डॉ. वाहिद नसरू ने किया है। कश्मीर को ले कर एक अलग ही संवेदनशीलता सभी के मन में पाई जाती है। स्वर्ग-सी सुन्दर कश्मीर की भूमि में प्रकृति ने तो अपनी छटाएं बिखेरी ही हैं, वहां एक उच्चकोटि का इतिहास भी रचा गया है। यह दुख की बात है कि आज अलगाववादी ताक़तें उस इतिहास और सकल संवेदनाओं को ताक में रख कर वादियों की शांति भंग कर रही हैं लेकिन इन वादियों में ही एक किरदार ने जन्म लिया जिसका नाम है शीबा।
‘‘बर्फ आशना-परिन्दें’’ का कथानक पन्द्रह अध्यायों में प्रवाहमान है। प्रथम अध्याय है अखरोट के बाग़ात’, दूसरा शोर करती नदी’, तीसरा उम्मींद के आशियाने’, चैथा चांदनी महवे ख़्वाब हो जैसे’, पांचवां हीमाल और नागराय’, छठा नौहाख़्वां फ़ख़्ताएं’, सातवां खि़ज़ां तवील हुई जाती है चिनारों में’, आंठवां सूखे पत्तों से झांकती नरगिसें’, नौवां अंखियों को समझाए कोई’, दसवां झीलों पर अबाबीलें’, ग्यारवां दर्द ज़र्द पत्तों का’, बारहवां जादूगर’, तेरहवां सोज़ो-साज़ो-दर्द-ए-दाग़’, चौदहवां दर्द-आशना परिंदेतथा पन्द्रहवां वो रगे-जां के क़रीब। ये पन्द्रहों अध्याय उपन्यास की नायिका के बचपन से आरम्भ होकर उसकी परिपक्वता के सफ़र को कुछ इस तरह से बयान करते हैं जैसे कोई पहाड़ी नहीं अपने उद्गम से निकल कर निरन्तर वेगमान होती हुई बह चली हो।
उपन्यास का कथानक शुरू होता है नन्हीं बालिका शीबा की उन उत्सुकताओं के साथ जो अपने बालसुलभ ढंग से सबकुछ जान लेने को आतुर है। चेरी के पकने का समय उसकी मां को कच्ची चेरी चख कर ही कैसे पता चल जाता है, यह भी उसकी उत्सुकता का विषय है। जहां उसकी बहन में खिलंदड़ापन अधिक है और वह पढ़ाई के स्थान पर खेल को अधिक महत्व देती है, वहीं शीबा में पढ़ाई के प्रति एक अनूठा लगाव है। गोया उसे पता है कि पढ़ाई ही उसकी तमाम जिज्ञासाओं को शांत कर सकती है। उसे गुड्डे-गुडि़या का ब्याह भी विचित्र लगता है। यह कैसा ब्याह? न दूल्हें के होठों पर मुस्कुराहट और न दुल्हन के चेहरे पर चमक। बेजान गुड्डे-गुडि़यों को लेकर शीबा की सोच बचपन से ही अलग थी -‘‘बलिश्त भर चैड़े गुडि़याघर में नन्हें-नन्हें मुर्दों की तरह अकड़े हुए लेटे दूल्हा-दुल्हन शीबा को सचमुच मुर्दे से नज़र आते। दिल के अंदर एक न बयान कर सकने वाला नागवार-सा तनाव बेकरार किए रहता, गोया ख़ौफ़ और बेवकूफ़ी ने मसनूईपन और खुदफ़रेबी से मिल कर कोई ख़याली महल तामीर करने की कोशिश की हो, जो सिवाय इस खामखयाली में जीने वालों के किसी और को नज़र ना आ सकता हो।’’ (पृ.43)
शीबा के बचपन की घटनाओं के समांतर कश्मीरी ज़मींदारों और काश्तकारों के पारस्परिक संबंध भी उभर कर सामने आते हैं। कश्मीर का इतिहास भी गर्व के साथ सामने रखा जाता है जो शीबा के पिता ने उसे बताया और पढ़ाया था कि किस तरह कश्मीर की भूमि पर लगभग सभी धर्मांे ने पनाह पाई और परवान चढ़े। ‘‘क़दीमतरीन ज़बानों-तहज़ीब का मरकज कश्मीर, ऋाियों-मुनियों का कश्मीर, शेखुल आलम और ललद्य का कश्मीर, शाक्य मुनि की पेशनगोई का बौद्ध गहवारा कश्मीर, ललितादित्य और सुइयाह का कश्मीर, अर्नीमाल का कश्मीर’’(पृ.57) यह सर्वधर्म समभाव की भावना शीबा के हृदय को मानव मात्र के प्रति असीमा कोमलता और आत्मीयता से भर देती है जो आगे चल कर उसके जीवन की दिशा को निर्देशित, निर्धारित करती चलती है।
शीबा के लड़कपन में ही उसके आगे यह सच भी सामने आ जाता है कि उसकी अपनी बहन उससे ईष्र्या करती है। दोनों बहनों के बीच की कड़वाहट छोटी, ग़ैरमामूली लगने वाली बातों के माध्यम से दिखाई देती हैं और जल्दी ही यह कड़वाहट बढ़ने लगी। अपने से अधिक पढ़ जाने का पछतावा बाजी यानी शीबा की बड़ी बहन के लिए सहन करना कठिन था। एक तरह से स्वयं को कम महसूस करने की भावना ने उन्हें शीबा से दूर कर दिया। स्वयं शीबा भी इस दूरी को भली-भांति समझ रही थी। ‘‘खयालों में गुम ख़ामोश खड़ी शीबा का दिल दफ़अतन धक-धक करने लगा था। हर बात में मनमानी करने वाली बाजी ये हार बर्दाश्त नहीं करेगी और ये गुस्सा किसी और भयानक तरीके से उतारेगी। फिर अचानक इसे खयाल आया कि अब तो वो उनकी दस्तरस में नहीं होगी। इसके दिल को इत्मीनान-सा हुआ। वो वैसे ही खड़ी रही, जैसे किसी ड्रामे के आखिरी सीन की मुंतजि़र हो।’’(पृ. 87) दोनों बहनों के बीच की दरार जब तब और चैड़ी हो जाती। शीबा पर छींटाकशीं करने में बाजी को आनन्द आता। ‘‘शीबा तुम, तुम तो ओवरऐज़ लगने लगी हो....बाजी ने आवाज़ में तश्वीश का ऐसा उनसुर मिला लिया कि इसमें शामिल तज़हीक का पहलू नुमाया हो सके, मगर चेहरे पर हैरतअंगेज़ से तास्सुरात भी सजा लिए।’’ (पृ.94) शीबा और उसकी बहन के बीच दरार और दूसरी ओर शीबा का अपने मार्गनिर्देशक प्रो. दानिश के प्रति सहानुभूति, ममत्व एवं आत्मीयता की भावना।
वह ग्यारवां अध्याय है जिसमें दर्द ज़र्द पत्तों काबयान करते हुए प्रो. दानिश की निरन्तर गिरते स्वास्थ्य और उनके प्रति शीबा की आतुरता भरी असीम चिन्ता का विवरण है। शीबा निर्विकार भाव से प्रो. दानिश की सेवा करती है जबकि उसकी बहनें उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगाती हैं। मगर इससे पहले के घटनाक्रम में बहुत कुछ है। शीबा अपने परिजनों के द्वारा पहुंचाई जाने वाली इस पीड़ा को पीते हुए भी अपने उस प्रोफेसर की सेवा में जुटी रहती है जिसकी पत्नी अपने उच्चपद की व्यस्तताओं के कारण समुचित समय नहीं दे पाती है। बेगम शहला दानिश छुट्टियां समाप्त होने पर अपने कंधों को हल्का-सा झटका देकर, हाथ फैला कर कहती हैं-‘‘सोचती हूं कि जाने से पहले सब इंतिजाम कर जाऊं कि वहां फिक्र न लगी रहे, हां, छुट्टियां बढ़ तो सकेगी, मगर कितनी? बहुत हुआ तो हफ्ता-दस दिन, और फिर किसके भरोसे, अगर ये तन्दुरुस्त न हुए और छुट्टी भी जाया हुई तो क्या करूंगी, ये छुट्टियां मैंने सर्दियों के लिए सोच रखी थीं।’’ शीबा को उत्तर देते हुए बेगम दानिश मानो अपने बीमार पति को भी मना लेना चाहती हों -‘‘न चाहते हुए भी जाना पड़ता है, क्या किया जाए, नौकरी है, सीनियर पोस्ट पर हूं मैं वहां, और छह महीने बाद मेरा प्रमोशन होने वाला है, है न दानिश?’’ (पृ.101) प्रो. दानिश खामोश रहते हैं और शीबा उन्हें अपने उत्तरदायित्व की भांति स्वीकार कर लेती है।
अपनी सहेली मयूरी से शीबा की लगभग हर विषय पर वर्तालाप होती रहती है। प्रति दिन बढ़ती सामाजिक और राजनैतिक अशांति एवं अस्थिरता पर दोनों सहेलियां एक दूसरे से अपनी पीड़ा का साझा करती हैं। शाीबा मयूरी से कहती है-‘‘मगर हम कहां जाएं, न अपने मुल्क में चैन न बाहर सुकून, इतनी तबाहियां हो गईं, जिससे किसी का भी भला नहीं हुआ, बिगड़ता ही गया।’’ शीबा आगे कहती है-‘‘सोचती हूं कि सब मालोमत्ता, जान व सुकून लुट गया, मगर जो थोड़ा बचा है, उसे संभाला जा सकता है, फिर से बसाया जा सकता है ये उजड़ा खित्ता।’’ (पृ. 236-37) इधर दुनिया के बिगड़ते हालात का दुख और उधर चिन्ता प्रो. दानिश की गिरती तबीयत की।
प्रो. दानिश गहन बीमारी की अवस्था में मात्र शीबा को ही पहचान पाते हैं, अपनी पत्नी शहला को भी नहीं। एक अनकहा रिश्ता दोनों के बीच जि़न्दा था जिसे अपने ही हाथों मार कर शीबा सुख-चैन नहीं पा सकती थी। विवाह कर लेने का घरवालों का दबाव भी उसे प्रो. दानिश की सेवा से विमुख नहीं कर पा रहा था। मयूरी भी उससे पूछती है कि विवाह के बारे में उसका इरादा क्या है? तो शीबा बेझिझक कहती है-‘‘दानिश सर जब तक तन्दुरुस्त नहीं होते, मैं उनको अकेला नहीं छोड़ सकती, शादी के बारे में मैंने सोचा भी नहीं है।’’ (पृ. 377) शीबा के इस निर्णय को निरा दुनियादार भला कैसे समझ पाते? ये एक अबूझ-सा रिश्ता था। प्रो. दानिश की दुनिया शीबा तक सिमट कर रह गई थी, वे शीबा में ही अपना संरक्षक, अपना आत्मीय और अपने जीने का बहाना पाते थे। वहीं शीबा के लिए ये रिश्ता आत्मसंतोष से भरा हुआ था, भले ही शब्दों से परे था-‘‘प्रो. ये उसका कुछ ऐसा ही रिश्ता रहा है, जैसा किसी कमजोर के साथ किसी सरपरस्त का होता है। शीबा ने जरा गौर से सोचा और सिर हल्के से झटका, वरना उसका प्रोफेसर के साथ क्या रिश्ता हो सकता था, मगर गहरा रिश्ता...।’’ (पृ.404) इस अनाम रिश्ते के बारे में उसके पास उत्तर था, एक ठोस उत्तर- ‘‘वो हमारे उस्ताद हैं, हम सब तुलबा की जि़न्दगी संवारी है उन्होंने। मेरे सिवा उनका ख़याल रखने वाला कोई नहीं है। हम सब उनकी खि़दमत करते रहे हैं कई वर्ष, मगर अब सिर्फ़ मैं हूं, अब वो अच्छे हो जाएं तो फिर, फिर....।’’ (पृ. 434) हम अपनी इच्छाओं के कारणों को किस तरह ढूंढ कर अकाट्य बना लेते हैं, इसका बेहतरीन उदाहरण शीबा के इस उत्तर में देखा जा सकता है। हम जो चाहते हैं, वहीं करना चाहते हैं, किन्तु कितने लोग हैं जो मनचाहा कर पाते हैं? एकदम उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। सामाजिक दबाव हम पर इतना अधिक प्रभावी और हावी रहता है कि उससे उबर पाना हममें से सभी के लिए संभव नहीं हो पाता है। फिर भी कुछ लोग हैं जो बेजान गुड्डे-गुडि़या का खेल बन कर जीने के बजाए इंसान की तरह सांस लेते हुए जीना पसंद करते हैं, शीबा भी उन्हीं से से एक है, एक सशक्त इंसान। वह उपन्यास का सबसे सशक्त चरित्र भी है।
तरन्नुम रियाज़ की भाषा शैली में एक सुन्दर प्रवाह है जो पाठका को कथानक के साथ बंाधे रखता है। उपन्यास की नायिका शीबा, प्रो. दानिश, बेगम शहला दानिश, प्रो. दानिश का नौकर सलीम मियां, मयूरी, प्रशांत, शीबा की बहनें, उसके माता-पिता जैसे कंट्रास्ट लेकिन सशक्त पात्रों के जरिए गोया लेखिका ने एक आख्यान ही रच डाला है। यूं तो यह उपन्यास मूल उर्दू में लिखा गया किन्तु हिन्दी लिप्यांतर करते हुए लिप्यांतरकार डाॅ. वाहिद नसरू ने प्रत्येक अध्याय के अंत में उर्दू के कठिन शब्दों के अर्थ भी दे दिए हैं जिससे निश्चित रूप से हिन्दी पाठकों को सुविधा होगी। तरन्नुम रियाज़ के इस उपन्यास ‘‘बर्फ आशना-परिन्देंअपने आप में कश्मीर के इतिहास, भूगोल, संस्कृति एवं विचारों के साथ ही दिल-दिमाग़ में गहरे तक उतर जाने वाले कथानक को समेटे हुए वह बेहतरीन उपन्यास है। इस उपन्यास से हो कर गुज़रना ठीक वैसा ही अनुभव है, जैसे बर्फ में दबी आग को महसूस करना।
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