बुधवार, अप्रैल 12, 2023

कहानी | प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | पहला अंतरा

कहानी
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

उसकी उम्र यही कोई अट्ठारह-उन्नीस साल की रही होगी। अपनी सहेलियों के साथ बैठी हंस रही थी, खिलखिला रही थी। एकदम मस्तमौला जीव दिख रही थी। हाथ-हिला कर बात करना और बीच-बीच में अपनी कुर्सी से उठ-उठ पड़ना मेरे सहित वहां मौजूद सभी का ध्यान खींच रहा था। इसका अनुभव मुझे तब हुआ जब मेरे पास वाली मेज पर बैठी महिला ने कुढ़ कर कहा,‘‘ओवहर स्मार्ट बन रही है।’’
‘‘सही है, आज कल के बच्चों को होश ही नहीं रहता है कि उनके आस-पास भी कोई मौजूद है या फिर वे किसी पब्लिक प्लेस में हैं।’’ उस महिला के साथ वाली महिला ने टिप्पणी की। वे दोनों परस्पर रिश्तेदार थीं या वे भी सहेलियां थीं, पता नहीं। अनुमान लगाना कठिन था। पल भर को मेरा ध्यान उस लड़की से भटक कर उन महिलाओं पर अटक गया। दोनों को देख कर कोई भी बता सकता था कि उनका बहुत सारा समय ब्यूटीपार्लर में व्यतीत होता होता होगा। दोनों ने चाईनीज़ फूड मंगा रखा था और दोनों ही कांटे के सहारे बड़े सलीके से उसे खा रही थी। विशेषणयुक्त मुहावरे में कहूं तो - ‘‘इन फुल एटीकेट’’। वे अपना यह सलीका किसे दिखा रही थीं? शायद परस्पर एक-दूसरे को, अन्यथा वहां मौजूद सबका ध्यान उन लड़कियों की ओर था। जिनके लिए दो युवा लड़कों ने वहां से जाते-जाते टिप्पणी की थी-‘‘ये तितलियां’’। 
एक ज़ोरदार उन्मुक्त हंसी का स्वर गूंजा और मेरा ध्यान एक बार फिर उन तितलियों यानी उन लड़कियों की ओर चला गया। कितनी खुश, कितनी उन्मुक्त, कितनी जीवंत। ऊर्जा से भरपूर। 
मेरे भीतर से एक आवाज़ उठी कि तुम भी इस दौर से गुज़री हो। और मैंने अपने भीतर की आवाज़ को स्वीकार कर लिया। स्कूल के दिनों में तो नहीं लेकिन काॅलेज के दिनों में मैं भी इन्हीं लड़कियों की तरह चंचल हुआ करती थी। यद्यपि अब और तब में बहुत अंतर था। मेरे छोटे से शहर के छोटे से काॅलेज में एक अदद कैण्टीन हुआ करती थी। जहां लड़कों का जमावड़ा रहता था। हम लड़कियों के लिए वहां जाना प्रतिबंधित था। मजे की बात यह कि यह प्रतिबंध न तो काॅलेज प्रशासन ने लगाया था और न किसी  व्यक्ति ने। यह प्रतिबंध अपनी परंपरागत कस्बाई मानसिकता के चलते स्वयं लड़कियों लगा रखा था। मैं शुरू से को-एजुकेशन में पढ़ी थी इसलिए लड़के मेरे लिए अजूबा नहीं थे। मुझे कुछ अजूबा लगता था तो लड़कियों की ऐसी अनावश्यक झिझक। अरे, अगर हम लड़कियां कैण्टीन में पहुंच जातीं तो लड़के हमें खा थोड़े ही जाते। 
हां, एक ख़ूबसूरत डिप्लोमेसी जरूर चलती थी मेरे साथ की लड़कियों की। उनमें से कुछ ऐसी थीं जिनकी कनखियां और संकेत अपने पसंद के लड़कों की ओर सक्रिय रहते थे। हम लोगों का पांच लड़कियांे का अघोषित ग्रुप था। मुझे छोड़ कर दो लड़कियों के चोरी-छिपे वाले ब्वायफ्रेंड थे और बाकी दो के उजागर ब्वायफ्रेंड। मेरा कोई उस तरह का ब्वायफ्रेंड नहीं था। जिस लड़के से मुझे कोई बात करना होती तो मैं सीधे-सीधे कर लेती। कोई दुराव-छिपाव नहीं। जबकि उजागर वाली लड़कियां बारी-बारी से अपने मित्रों से कैण्टीन से हम सभी के लिए चाय मंगवा लिया करती थीं। एक संकेत प्रस्थानित होता और पांच मिनट में कैण्टीन वाला छोकरा हाथ में चाय के गिलासों का झाला पकड़े हुए आ खड़ा होता और इशारा करते हुए कहता,‘‘भैया ने भिजवाई है चाय!’’
छोकरे से चाय का गिलास लेने के बाद वे लड़कियां आपस में एक-दूसरे को छेड़तीं कि ‘‘भैया ने या सैंया ने?’’ और जिसके ‘‘सैंया’’ ने चाय भिजवाई होती वह इतरा कर कैण्टीन के बाहर अपनी मित्रमण्डली के साथ खड़े अपने ‘‘सैंया’’ की ओर देख कर मुस्कान फेंकती। वह ‘‘सैंया’’ छात्र भी झेंपता, मुस्कुराता और तन कर खड़ा हो जाता। यह सब देखना मुझे विचित्र अनुभूति से भर देता। मैं लड़कों से सहज रूप से बात करने की आदी थी। मैंने अपने बचपन में भी अपनी काॅलोनी के लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा ओर कंचे खेले थे। मात्र दो वर्ष छोड़ दिया जाए तो कच्ची पहली से मेरी काॅलेज में प्रथम वर्ष में पहुंचने तक सहशिक्षा में ही पढ़ाई हुई थी। वहीं मेरे साथ की उन चारो लड़कियों की पूरी शिक्षा बालिका विद्यालय में हुई थी अतः उन्हें वास्तविक प्रतिबंधित क्षेत्र में चोरी-छिपे प्रवेश का सुखद अनुभव हो रहा था और वे इस अनुभव को लेने में कोताही भी नहीं बरतती थीं। उनमें से दो के तो बड़े सपने भी नहीं थे। वे आगे चल कर शादी कर अपना घर-संसार बसाने की अदम्य अभिलाषा रखती थीं। कैरियर जैसी बात उनके लिए बेमानी थी। 
समय एक छलांग में कितनी परिवर्तन नाप लेता है यह सोचना वामन अवतार की पौराणिक कथा के बारे में सोचने के समान है। बौना रूप धर कर तीन पग में तीन लोक नापने जैसा। पहले टीवी फिर कम्प्यूटर फिर अबाध इंटरनेट। दुनिया चंद सालों में ही बदल गई। जो विषय चर्चा में भी निषिद्ध थे, वे मोबाईल के आयाताकर पर्दे पर सजीव देखे जा सकते हैं। मेरी पीढ़ी और वर्तमान युवापीढ़ी में जैविक रूप से कोई अधिक दूरी नहीं है लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी दूरी है। आज मेरे सामने जो तितलियों जैसी लड़कियां खिलखिला रही थीं, उन्हें जीवन का दीर्घ अनुभव नहीं है लेकिन वे सजग हैं अपने कैरियर को ले कर। 
‘‘मैं तो प्लस टू कर के अपनी आंटी के पास सिएटल चली जाऊंगी। यहां रह कर लाईफ स्प्वाईल करने से क्या फायदा।’’ एक लड़की ने चहकते हुए कहा था।
‘‘हां री! तू लकी है कि तेरी आंटी एब्राॅड में हैं, लेकिन देखना मैं भी किसी मल्टीनेशनल कंपनी को ज्वाइन कर के तेरे पास आ जाऊंगी।’’ सबसे ज्यादा चहकने वाली उस लड़की ने कहा था। 
उनकी बातें सुन कर मैं सोच में पड़ गई थी कि कितने बड़े-बड़े सपने हैं इसके पास, एकदम स्पष्ट और नपेतुले। शायद मेरे कल शाम का अनुभव इन्हें एक ‘टैबू’’ जैसा लगे। मेरे पुराने शहर से ये शहर बड़ा है। यहां परिवर्तन की लहर महानगरों के बराबर तो नहीं लेकिन उसके पीछे-पीछे दौड़ रही है। आज नेटिंग, चैटिंग, बैटिंग आदि सब कुछ होता है यहां। ये लड़कियां दुस्साहसी हैं। ये दुनिया के जिन ख़तरों को जानती हैं, उनमें भी कूद पड़ने को तत्पर हैं। अगर ये मेरे कल शाम की दास्तान सुन लें तो मेरी प्रतिक्रिया पर और भी बड़ा वाला ठहाका मार कर हंस पड़ेंगी। लेकिन मैं क्या करूं, मैं हूं ही ऐसी। संबंधों को हल्के में लेना मुझे आता ही नहीं है। या तो मैं डूब कर नाता जोड़ती हूं, अन्यथा बच कर निकल जाना पसंद करती हूं। 
कल शाम मेरे लिए एक दुर्घटना के समान थी। मन के कोने-कोने तक बहुत देर स्तब्धता छाई रही। ऊपर से भले ही मैंने मुस्कुरा कर स्वयं को सहज बनाए रखने का प्रयास किया किन्तु अंदर से सहजता के सारे धागे चटक कर टूट गए थे। 
हुआ यूं कि मेरे एक परिचित जो पेशे से अधिवक्ता हैं। मेरे घर आए। कुछ देर यहां-वहां की बातें होती रहीं।
‘‘आजकल आपकी समाजसेवा कैसी चल रही है?’’ उन्होंने पूछा था।
‘‘ठीक है। बढ़िया। अब स्वयं को और व्यस्त रखने लगी हूं ताकि मन लगा रहे। खाली रहती हूं तो घबराहट होने लगती है।’’ मैंने बताया।
‘‘हां, स्वयं को व्यस्त रखना आपके लिए जरूरी है।’’ उन्होंने मेरी बात पर हामी भरी थी।
‘‘आप अपना कोई एनजियो क्यों नहीं शुरू करतीं?’’ उन्होंने पूछा था।
‘‘क्या लाभ? मेरा लक्ष्य लोगों की मदद करना है, अब चाहे अपना एनजियो बना कर करूं या दूसरों के साथ मिल कर।’’ मैंने उत्तर दिया था।
‘‘ठीक है।’’ उन्होंने कहा था। 
इस संक्षिप्त वार्तालाप के बाद वे अप्रत्याशित ढंग से बोल उठे,‘‘नित्या जी, मैं आपका आलिंगन करना चाहता हूं।’’
एक पल को तो मुझे समझ ही नहीं आया कि जो मैंने सुना है वह सही है या गलत? 
‘‘आज आप बहुत सुंदर दिख रही हैं। इसीलिए मैं अपनी भावना प्रकट किए बिना नहीं रह पा रहा हूं। प्लीज़, मेरे क़रीब आइए।’’ उन्होंने मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किया बिना किसी बंदूक की गोली की तरह अगला वाक्य दाग़ दिया। 
‘‘यह संभव नहीं है। मैं आपको इस दृष्टि से नहीं देखती हूं।’’ मुझे दो-टूक कहना ही पड़ा। इसके बाद वे तनिक संयत हुए। 
‘‘मेरे विचार से अब आपको जाना चाहिए।’’ मैंने तनिक और कठोरता बरती।
उन्होंने मेरी ‘‘न’’ को ‘‘न!’’ ही माना और चले गए। किन्तु हम स्त्रियों की छठीं इन्द्रिय सजग रहती है। मैंने भांप लिया कि उन्होंने ऊपरी तौर पर खुद पर काबू पाया है, आंतरिक नहीं।
उनके जाने के बाद वे सारे प्रश्न मेरे मस्तिष्क से खेलने लगे जो उसी समय मुझे उनसे पूछने चाहिए थे। लेकिन उस समय मैंने बात को बढ़ाना उचित नहीं समझा था। मैं उनसे पूछना चाहती थी कि हमारा तो वर्षों पुराना परिचय है, लेकिन इससे पहले मैं कभी सुंदर नहीं लगी क्या? या फिर आज इसलिए सुंदर लग रही हूं कि मां के जाने के बाद नितांत अकेली रह गई हूं और साथ की ललक इस एक वाक्य से मुझे पिघला देगी? 
उन्होंने न कभी पूछा कि कोई, किसी तरह की आवश्यकता तो नहीं है? न मेरे दुख की घड़ी में मेरे आंसू पोंछने का समय निकाला। आज मेरे अकेलेपन में मैं उन्हें सुंदर दिखाई देने लगी। इतनी सुंदर कि आलिंगन योग्य। वाह! बहुत खूब!!
इस घटना ने रात भर मेरे मन को छीला। भोर भी अनमनी व्यतीत हुई। भोजन पकाने तक का मन नहीं हुआ। एक विरक्ति। एक विछिन्नता। एक व्याकुलता। मानो एक शीशा गिर कर टूट गया था और उसकी किरचें रह-रह कर चुभ रही थीं। प्रेम को व्यक्त करना कितना कठिन होता है, जबकि वासना को व्यक्त करना सरल। एक जुमला उछाला और मान लिया कि काम बन जाएगा। वह भी एक ऐसा व्यक्ति जो मेरी दृष्टि में प्रबुद्ध श्रेणी का था। लेकिन संभवतः बुद्धि, प्रबुद्धि और चरित्र तीनो अलग-अलग होते हैं। कल शाम से मैं यही मानने पर विवश हो गई हूं। 
घर में मन नहीं लग रहा था। बैंक की पासबुक निकाली और उसकी एंट्री अपडेट कराने निकल पड़ी। घर से निकलने का एकदम फिसड्डी बहाना। खैर, बैंक में जा कर ताज़ा एंट्री भी ले ली। अब क्या करूं? समझ में नहीं आ रहा था। तभी अनुभव हुआ कि थोड़ी भूख लग रही है। मैं अकेली ही रेस्तरां की ओर बढ़ ली। आमतौर पर मैं अकेली वहां बैठ कर नहीं खाती हूं। जब कभी आवश्यकता होती है तो पैक करवा कर घर ले आती हूं और फिर घर में अपने सोफे पर पांव पसार कर टीवी पर टकटकी लगा कर खाती हूं। लेकिन उस समय मैं भीड़ में रहना चाह रही थी। अकेली तो बिलकुल भी नहीं। बस, इस तरह इस रेस्तरां आ पहुंची और घंटे भर से कुछ न कुछ चुगती हुई उन लड़कियों को देखती हुई बैठी हूं।
वह प्रश्न मेरे मन में फिर कुलबुलाया कि यदि मेरी जगह ये ब्राउनी तितली होती तो क्या करती? जी हां, वह जो उन लड़कियों में सबसे अधिक चुलबुली और उत्साही लड़की थी उसने भूरे रंग का टाॅप पहना हुआ था, इसीलिए मैंने उसका नाम ‘‘ब्राउनी तितली’’ रख दिया। 
यदि मैं ब्राउनी तितली को अपने पास बुला कर अपने साथ घटी घटना के बारे में उससे बात करूं तो? उस लड़की से चर्चा करने का विचार आना ही इस बात का सबूत था कि ख़याली घोड़ों के नथुनों में कोई लगाम नहीं होती है। मैंने स्वयं को लानत भेजी। लेकिन मन था कि बार-बार इसी एक प्रश्न पर आ ठहरता था। मेरी जगह यदि यह ब्राउनी तितली होती तो इसकी क्या प्रतिक्रिया होती? क्या यह सहज रह पाती? या आलिंगनबद्ध हो जाती? या कोई अप्रत्याशित तीखी प्रतिक्रिया से सामने वाले के होश उड़ा देती? ये तीन प्रश्न या तीन उत्तर, वस्तुनिष्ठ की भांति थे, जिनमें से किसी एक पर टिक करना कठिन था। 
‘‘देखो, मुझे अंकल ने क्या दिया?’’ ब्राउनी के साथ वाली एक अन्य तितली अपने गले में पड़ी चेन दिखाती हुई बोली। 
‘‘हाऊ ब्यूटीफुल। डायमण्ड है इसमें?’’ एक ने पूछा।
‘‘अरे नहीं! डायमण्ड पहन कर मुझे अपना गला कटवाना है क्या? जब मैं अपनी कार में चलने लगूंगी तब डायमण्ड पहनूंगी। स्कूटी में गोल्ड, डायमण्ड ये सब सेफ थोड़े ही है।’’ उसने बड़े सयानेपन से कहा।
‘‘यस! शर्मा आंटी को देखो न, वे माॅर्निंगवाक पर गई थीं कि किसी ने उनके गले से उनकी सोने की चेन खींच ली। चेन तो हल्की थी, बहुत कीमती नहीं थी लेकिन चेन खींचे जाने से उनकी गरदन पर गहरे स्क्रैचेस आ गए थे।’’ ब्राउनी तितली ने कहा। मुझे वह बुहत समझदार लग रही थी। मुझे लग रहा था कि वह बहुत तेजी से दुनिया को समझती जा रही है। मगर मेरी जैसी परिस्थिति में आ कर वह क्या करती?
ढाक के तीन पात! मन घूम फिर कर उसी प्रश्न पर जा पहुंचा। माना कि युवा पीढ़ी के लिए दैहिक संबंध कोई ‘‘टैबू’’ नहीं है लेकिन जहां इच्छा का कोई सिरा ही न हो, वहां क्या आज का युवा कोई ‘डील’ कर सकता है?
‘डील’, हां यह एक व्यावसायिक शब्द है लेकिन आजकल प्रेम संबंधों में भी यह समाहित हो गया है। इसे नया भाषा विन्यास कहें या संबंधों के प्रति लाभ-हानि वाला दृष्टिकोण। जैसे पिछले दिनों मेरी एक साथी किसी पुरुष की चर्चा करती हुई कह रही थी कि वह तो बेहतरीन ‘‘हस्बैंड मटेरियल’’ है। जब हस्बैंड और वाईफ भी मटेरियल की दृष्टि से आंके जाएं तो फिर डील तो बहुत छोटा शब्द है इसके सामने। खैर, यह ब्राउनी तितली कैसे डील करती मेरे मसले को? 
‘‘तेरे अंकल भी ग़ज़ब की चीज़ हैं। काश! मेरे भी कोई ऐसे अंकल होते।’’ आह सी भरती हुई एक तितली की आवाज मेरे कानों से टकराई और मुझे अहसास हुआ कि मैं अपनी सोच में डूब गई और ये तितलियां उस कथित डायमण्ड के इर्दगिर्द ही घूम रहीं हैं। 
‘‘अरे यार, वो मेरे अंकल हैं!’’ उस चेन वाली लड़की ने खीझते हुए कहा।
‘‘हंा, यार छोड़ इसके अंकल को! तू ऐसा कर कि गिनीपिग सर के साथ डेट कर ले। कोई तो अच्छी गिफ्ट मिल ही जाएगी।’’ ब्राउनी तितली ने खिलखिलाते हुए कहा।
‘‘व्हाट रबिश! अगर गिनीपिग सर को पता चल गया तो वे तेरा फालूदा बना देंगे।’’ चेन के लिए आहें भरने वाली लड़की ने कहा।
‘‘हाय बना ही दें न!’’ चेन वाली लड़की बोल उठी।
‘‘तू सच्ची बहुत बड़ी बेशरम है!’’ चेन के लिए आहें भरने वाली लड़की ने हंस कर कहा।
‘‘यार लाईफ में गिफ्ट इंप्वार्टेंट नहीं है, इश्क़ इंप्वार्टेंट है। मैं तो गिनीपिग सर की ओर देखूं भी न। ऐसे हैंडसम लाखों पड़े हैं।’’ ब्राउनी तितली ने कहा। उसकी बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए। 
मगर एक कठिनाई यह थी कि मुझे वहां बैठे बहुत देर हो गई थी। अकेली बैठी-बैठी और कितनी देर स्नेक्स चुगती? तीन कप काफी भी पी चुकी थी। रेस्तरां वाला लड़का भी सोचता होगा कि कहां की भुक्खड़ आ बैठी है। यद्यपि उसका मालिक तो खुश ही होगा क्योंकि मैं बैठी-बैठी उसका बिल बढ़ा रही थी।
दूसरी कठिनाई यह थी कि तीन कप काफी और एक गिलास पानी पी चुकने के बाद वाशरूम की तलब सताने लगी थी। जबकि मैं उन तितलियों की बातों से चूकना नहीं चाहती थी और उठ कर आने-जाने के चक्कर में अपने प्रति उनका ध्यान भी नहीं खींचना चाहती थी। वे मेरी उपस्थिति से लगभग बेखबर थीं। यद्यपि मुझे पता नहीं था कि मेरी उपस्थिति का भान होने पर उनके वार्तालाप पर कोई असर पड़ेगा या नहीं?
तीसरी कठिनाई यह थी कि अब मुझे वहां बैठी रहना स्वतः ही अटपटा लगने लगा था। मेरी बाजू वाली मेज की वे दोनों महिलाएं काफी पहले जा चुकी थीं। उनके बाद उस मेज पर एक जोड़ा आया था। वह भी अब जा चुका था। मैंने ब्राउनी तितली के ‘‘गिफ्ट’’ और ‘‘इश्क़’’ के कथन को ही उसका सूत्र वाक्य मान लिया और बैरे को बिल लाने का संकेत कर दिया।
बैरा तो मानो मेरे संकेत की ही प्रतीक्षा कर रहा था। दो मिनट में बिल ले कर उपस्थित हो गया। मैंने बिल चुकाया और वहां से विदा होते समय एक गहरी दृष्टि उन तितलियों की ओर डाली। वे सब अपने-आप में डूबी हुई थीं। स्पष्ट था कि उन्हें मेरे होने या जाने से कोई अंतर नहीं पड़ रहा था। यह महसूस कर मुझे तसल्ली हुई।
अब मेरा मन भी हल्का हो चुका था। मानो मैंने अपना उत्तर पा लिया था। मैं जान गई थी कि मेरी जगह अगर वो ब्राउनी तितली होती तो उसकी भी प्रतिक्रिया मेरी तरह होती। उन तितलियों के लिए दैहिक संबंध कोई गंभीर विषय भले ही न हो लेकिन विवशता पूर्ण संबंध और इच्छापूर्ण संबंध में अंतर करना उन्हें भी आता है। लेकिन वे मेरे बुद्धिजीवी परिचित गए भूल गए कि ‘‘ प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए। राजा प्रजा जो ही रुचे, सीस दे हि ले जाए।।’’
मेरे मन की फांस अब एक कोने में सरक गई थी। वह निकल तो कभी सकती नहीं लेकिन हर समय टीसेगी तो नहीं, यही बहुत है। क्योंकि जो कुछ भी वह था वह प्रेम तो कदापि नहीं था। प्रेम उथला नहीं, गहरा होता है, बहुत गहरा। सात सागरों से भी गहरा। काश! सब लोग यह समझ पाते!
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2 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार (13-4-23} को ज़िंदगी इक सफ़र है सुहाना" (चर्चा अंक 4654)" पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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