सोमवार, दिसंबर 28, 2020

धूपवाली सुबह की उम्मींद | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | लघुकहानी | ऑनलाइन कथापाठ

Dr (Miss) Sharad Singh

मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई द्वारा आयोजित ऑनलाइन कथापाठ में मेरे द्वारा पढ़ी गई लघुकहानी

लघुकहानी

                    धूपवाली सुबह की उम्मींद

                                     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 

जाड़े की रात अपना कहर बरपा रही थी। ठंड मानो आसमान से बरस रही थी और किसी बाढ़ आई नदी की तरह उस फ्लाई ओव्हर के नीचे से गुज़र रही थी जहां दर्जन भर से ज़्यादा परिवार सिकुड़े पड़े थे। उनके फटे कंबल और चीकट हो चली कथरियां उस ठिठुराते जाड़े से मुक़ाबला करने में असमर्थ थीं। वे लोग ठंड से अपनी जान बचाने की कोशिश में सिकुड़े जा रहे थे, एक-दूसरे से सटे जा रहे थे लेकिन जाड़े की थरथरा देने वाली रात मानों उनकी जान लेने पर उतारू थी। उन बेघर इंसानों और जाड़े के बीच जीने-मरने का यह संघर्ष जिस फ्लाई ओव्हर के नीचे चल रहा था। देश की राजधानी में बने अनेक फ्लाई


ओव्हर्स में से एक था यह। दिन भर रोज़ी-रोज़गार के लिए भटकने वाले मज़दूर रात को यहां सिमट आते। यही फ्लाई ओव्हर उनके लिए छत थी और उस फ्लाई ओव्हर के पाए उनके घर की दीवार। ऐसा घर न जिसमें खिड़की थी और न दरवाज़ा। एक काल्पनिक घर जो रात होते-होते उन्हें अपनी आगोश में बुलाने लगता। कमला भी उन्हीं में से एक थी। उसे जाड़े की मार से अपने पांच साल के नन्हें बच्चे को बचाते हुए एक पल अपना गांव याद आता तो दूसरे पल वह झुग्गी-झोपड़ी जिसमें लगभग छः माह पहले तक वे रहा करते थे। जाडा उसे झुग्गी में भी सताता था लेकिन इतना नहीं। वहां कम से कम चार दीवारें तो थीं, भले ही पक्की नहीं थीं लेकिन ठडी हवाओं बचाती तो थीं। इस फ्लाई ओव्हर के नीचे तो कोई बचाव नहीं है। 

कमला ने देखा उसका पति नत्थू इस तरह गुड़ीमुड़ी हो कर सोया हुआ था कि उसके घुटने उसके सीने से सटे हुए थे और सिर भी सीने की ओर झुका हुआ था, मानो वह गोल-मोल हो कर ठंड को चकमा देना चाहता हो। इतनी कठिन परिस्थिति में भी कमला उसे देख कर मुस्कुरा दी। उसे याद आ गया वह दृश्य जब लाॅकडाउन के दौरान यही दिल्ली छोड़ कर उन्हें वापस अपने गांव लौटना पड़ा था। आगरा तक एक ठेला मिल गया था। फिर आगरा से आगे पैदल सफ़र था। जितनी तीखी ठंड इन दिनों है, उतनी ही तीखी गरमी पड़ रही थी उन दिनों। बिलकुल झुलसा देने वाली। रात वे लोग गंावों के बाहर सड़क के किनारे गुज़ारते और तब थका-मांदा नत्थू हाथ-पांव फैला कर पसर जाता। पलक झपकते ही उसे नींद आ जाती। वही हाथ-पावं फैला कर सोने वाला नत्थू आज कपड़े की गेंद की तरह गोल हुआ जा रहा था।

 कमला को याद आया कि कोरोना आपदा के चलते रोजगार छूटा तो सारे मज़दूर महानगर छोड़ अपने-अपने गांवों की ओर निकल पड़े थे। कमला और नत्थू भी। अपार कष्ट सहते हुए, बड़ी उम्मींद ले कर वे लोग अपने गांव लौटे थे कि वहां उन्हें उन लोगों से सहारा मिल जाएगा जिनके लिए वे लोग अपना पेटकाट कर रुपए भेजा करते थे। मगर गांव पहुंचते ही सारे भ्रम टूट गए। पहले तो गांव में घुसने नहीं दिया गया। कोरोना की जंाच-पड़ताल के बाद जब उन्हें गांव में घुसने की इजाज़त मिली तो नत्थू के सगे छोटे भाई को यह रास नहीं आया कि उसका बेरोज़गार भाई अपनी बीवी और बच्चे के साथ उस पर बोझ बने। नत्थू और कमला अपने ही घर में गुलामों से बदतर हालत में जीने को मज़बूर हो गए। मानाकि भाई का दूकानदारी मंदी थी लेकिन इतनी भी नहीं कि वे सहारा न दे सकें। 


नत्थू और कमला दो निवालों के लिए खून का घूंट पीते रहते। जो कुछ दिल्ली में जोड़ा था वह लौटते समय रास्ते में सब खर्च हो गया था। इस कंगाल दशा में वे उस भाई पर निर्भर थे। चंद महीनों में लाॅकडाउन खुला तो नत्थू ने फिर एक बार महानगर की राह पकड़ना तय किया। कमला अपने पति के इस निर्णय से न तो सहमत थी और न असहमत। उसे पता था कि वह झुग्गी जिसे वे छोड़ आए हैं, लौटने पर नहीं मिलेगी। वह काम भी वापस नहीं मिलेगा। लेकिन गांव में भी तो कोई राहत नहीं थी। बस, उस महानगर में एक उम्मींद थी जो गांव में वह भी नहीं थीं। एक दिन छोटे भाई की बीवी ने किसी बात पर गुस्सा हो कर कमला के बच्चे के हाथ से रोटी छीन कर उसे एक चांटा जड़ दिया। यह असहनीय था कमला के लिए। वह हर किस्म का अपमान और कष्ट सह सकती थी लेकिन उसके भीतर की मां अपने बच्चे के हाथ से रोटी छीने जाते नहीं देख सकती थी। उसी दिन नत्थू और कमला अपने बच्चे को अपने सीने से लगाए वापस दिल्ली के लिए निकल पड़े। इस बार उनके पास पैसे भी नहीं थे लेकिन एक ठेकदार उन्हें साथ ले जाने को तैयार था। दिल्ली पहुंच कर उसी ठेकेदार के लिए महीना भर काम किया। वह ठेकेदार उन्हें वहीं छोड़ की कहीं और चला गया। तब से नत्थू सुबह उजाला होते ही निकल पड़ता है। दिन भर में छोटे-मोटे जो भी काम मिलते हैं, वह करता है ताकि दो रोटी का जुगाड़ हो सके। उस दौरान कमला अपनी गठरी बंाधे उसी फ्लाई ओव्हर के नीचे बच्चे की उंगली थामें डोलती रहती है। दिन के उजाले में उनकी वह छत उनसे छिन जाती है। 

कमला अपने गांव और अपनी छूटी हुई झुग्गी के बारे में सोच ही रही थी कि बच्चा ठंड से बचने के लिए उससे और चिपट गया। मानों वह एक बार फिर अपनी मां के गर्भ में समा जाना चाहता हो ताकि दुनिया की मुसीबतों से बचा रह सके। कमला ने भी उसे अपने से और सटा लिया और बुदबुदाई,‘‘डर मत बेटा! सुबह होगी तो सूरज उगेगा और तू खूब धूप तापना।’’ कमला की बात सुन कर शीत लहर मानों अट्टहास कर उठी। तापमान और गिर गया ...और फ्लाई ओव्हर के नीचे पड़े उन इंसानों का जीवन संघर्ष और तेज हो गया ....एक धूप वाली सुबह की उम्मींद में।

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 इस आयोजन के समाचार को सागर के प्रमुख समाचार पत्रों ने आज दिनांक 28.12.2020 को प्रकाशित किया है। मैं अपने सुधी ब्लाॅग पाठकों के अवलोकनार्थ यहां प्रस्तुत कर रही हूं-

On line Katha Paath by Dr (Miss) Sharad Singh - Deshbandhu, 28.12.2020

On line Katha Paath by Dr (Miss) Sharad Singh - Aacharan, 28.12.2020


11 टिप्‍पणियां:

  1. एक धूप वाली सुबह की उम्मींद में कमला महानगर में रहने को मज़बूर है। बढ़िया कहानी। वाकई ग़रीबी से बड़ा अभिषाप कुछ भी नहीं। शुभकामनाएँ।

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    1. हार्दिक धन्यवाद वीरेन्द्र सिंह जी। मेरी कहानी पर आपकी राय महत्वपूर्ण है। 🌹🙏🌹

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  2. बहुत अच्छी लघु कहानी का वाचन किया आपने गोष्ठी में।
    बधाई हो आपको।

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    1. आदरणीय,
      आपको मेरी कहानी पसंद आई यह मेरे लिए अत्यंत सुखद है। आपकी सदाशयता की आभारी हूं।
      सादर नमन 🙏

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  3. प्रिय कामिनी सिन्हा जी,
    आपका हार्दिक आभार कि आपने मेरी लघुकहानी को चर्चा मंच में शामिल किया है। यह मेरा सौभाग्य है।
    आपको बहुत धन्यवाद 🙏

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  4. बहुत सुन्दर कहानी शरद जी ! सशक्त सृजन हेतु आपको बहुत बहुत बधाई🙏🌹🙏

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  5. वाह!सुंदर सृजन । सच में गरीबी से बडा अभिषाप कोई नहीं .

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद शुभा जी 🌹🙏🌹
      मेरे ब्लॉग्स पर सदा आपका स्वागत है🙋

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  6. बहुत ही सुन्दर हृदयस्पर्शी कहानी...।

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