पत्रिका समाचारपत्र ने आज से एक नया कॉलम आरम्भ किया है- #पत्रिका_व्यंग्य । इसकी शुरुआत मेरे #बुंदेली_व्यंग्य से की गई जिसके लिए मैं #पत्रिका की हृदय से आभारी हूं। तो ये है मेरा बुंदेली व्यंग्य...
----------------------लाईव ने भए तो कछु न भए
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
आज भुनसारे हमाए मोबाईल पे कक्का ने फोन करो। हमने देखो, जो का! कक्का तो वीडियो कॉलिंग कर रये। हमने ने उठाई। काए से के हम ऊ टेम पे पगलूं घांई दिखा रए हते। ने तो कंघी करी हती, ने कछु मेकअप-सेकअप करो रओ। अब भला पगलूं घाईं वीडियो पे तो आ न सकत ते। हमें फोन उठात ने देख उन्ने दस-बारा बार घंटी दे मारी। मनो मिस्डकॉल को रिकॉर्ड बना रये होएं। हमने जल्दी-फल्दी बाल ऊंछे। क्रीम-श्रीम लगाई। तनक अच्छी-सी सकल बना के हमने कक्का को कॉलबेक करो। बे तो मनो उधारई खाए बैठे हते। कहन लगे,‘‘इत्ती देर काए लगा दई बिन्ना? का कर रई हतीं?’’
‘‘कछु नई कक्का, चाय-शाय बना रई हती। हाथ भिड़ो हतो सो फोन ने उठा सकी।’’ हमने बहानो दओ।
‘‘खैर छोड़ो, तुम तो जा बताओ के तुम लाईव कबे हो रईं ?’’ कक्का ने पूछी।
‘‘का कै रये कक्का? हम कौन बढ़ा गए, जे लाईव तो हैं तुमाए आंगरे।’’ ‘‘अरे, जे लाईव नई, हम तो सोसल मीडिया की बात कर रये। काए से के ई टेम पे तो हमाए लाने फुरसतई नईं मिल रई, लाईव कविताई करे से। आजई की ले लेओ अबई दस बजे से एक लाईव आए, फेर बारा बजे से दूसरो लाईव, तीसरो चार बजे से, चौथे रात आठ बजे और...’’
‘‘बस-बस कक्का, आप तो जे बताओ के आप अनलाईव कबे रहत हो?’’
‘‘बिन्ना, जोई तो कहात है आपदा में अवसर। तुम सोई अवसर को लाभ उठा लेओ। बो का कहात आए बहती गंगा में हाथ धो लेओ। काए से के ई टेम पे सोसल मीडिया पे जो लाईव ने भओ ऊकी ज़िन्दगी मनो झंड आए। तुमे सोई लाईव होने चइये। कहो तो आज दुपारी वारी गोष्ठी में तुमाओ नाम जुड़वा दओ जाये। तुमाई सोई तनक पूछ परख बढ़ जेहे। औ हओ, लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिल जेहे। काए से के जा तो हमने तुमें पैलऊं बताई नई के लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिलत है। हमें तो अब लों सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल गए हैं।’’ कक्का ने बताई।
‘‘सो, आपको ड्राईंगरूम तो प्रमाणपत्रन से भर गओ हुईए। दीवारन पे जांगा बची के नई?’’
‘‘अरे नईं! दीवारन पे जांगा काए ने बचहे, प्रमाणपत्र कोनऊ कगदा पे नईयां, बे तो ऑनलाईन आंए। हम उन्हें सोसल मीडिया पे भेजत रहत हैं। तुमे सोई मिलहें, तुम लाईव रओ करे।’’ कक्का ने समझाई।
‘‘हओ कक्का, भली कहीं! जिन्दा होबे को सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल जाएं, सो ऊमें का बुराई? बाकी, मनो एक लाईव सर्टीफिकेट के लाने तो लोगन खों सौ-सौ पापड़ बेलने पड़त हैं। दफ्तरन के चक्कर लगाबे पड़त हैं।’’ हमने हंस के कही।
‘‘तुम तो और! अरे, तुमसे तो कछु कहबो-सुनबो फिजूल आए।’’ कक्का ने फोन काट दओ और हमने लाईव होने को मौका गवां के मनो आपदा में अवसर गवां दओ। बस, हम तभई से मरे-डरे से फील कर रये हैं, मनो लाईव ने भए तो कछु न भए।
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(पत्रिका में 04.09.2020 को प्रकाशित)
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