हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।
ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है।
प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की ग्यारहवीं कड़ी....
देशबन्धु के साठ साल-11
- ललित सुरजन
Lalit Surajan |
छत्तीसगढ़ का रेल यातायात उन दिनों दक्षिण-पूर्व रेलवे के अंतर्गत संचालित होता था, जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। बिलासपुर जोन की स्थापना तो बहुत बाद में हुई। हम अखबार वालों का काम सामान्यत: रेलवे के जनसंपर्क विभाग से ही पड़ता था। एक वरिष्ठ अधिकारी रघुवर दयाल (आर. दयाल) तब द.पू. रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे। रायपुर के अखबारों में रेलवे से संबंधित कोई भी खबर छपे तो शाम की बंबई-हावड़ा मेल से उसकी कतरन उनके पास चली जाती थी। यदि उस पर कोई स्पष्टीकरण या निराकरण की आवश्यकता हो तो दिन भर में कार्रवाई पूरी कर लौटती मेल से संपादक को उत्तर भेज दिया जाता था। सरकारी काम-काज में ऐसी फुर्ती और जवाबदेही की आज कल्पना करना भी मुश्किल है।
रेलवे के जनसंपर्क विभाग ने 1964 की मई में एक प्रेस टूर का आयोजन किया। वे हमें भिलाई के निकट स्थापित चरौदा मार्शलिंग यार्ड, बिलासपुर डिवीजन की कार्यप्रणाली और बिलासपुर से भनवार टांक तक बिछ रही दूसरी रेलवे लाइन से परिचित कराना चाहते थे। मेरे लिए किसी प्रेस टूर पर जाने का यह पहला अवसर था। मालगाड़ी के डिब्बे में प्रथम श्रेणी की एक बोगी लगा दी गई। तीन-चार दिन तक हमारा ठिकाना उसी बोगी में रहा। चरौदा में हमने देखा कि किस तरह भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर वैगनों में माल भराई होती है और मार्शलिंग यार्ड में उन वैगनों को अलग-अलग पटरियों पर डालकर विभिन्न दिशाओं के विभिन्न स्टेशनों के लिए पचास-साठ डिब्बों की मालगाड़ियां बनाई जाती हैं। खोडरी, खोंगसरा, भनवार टांक जैसे वनक्षेत्र के बीच बसे लगभग निर्जन रेलवे स्टेशनों पर फर्स्ट क्लास की एकाकी कोच में रात बिताना तो एक नया अनुभव था ही, रेल पटरियां बिछाते मजदूरों की गैंग, जंगल में तंबू तानकर बने रेलवे के अस्थायी दफ्तर व इंजीनियरों आदि के आवास, वहीं भोजन का प्रबंध- यह सब भी पत्रकार की कल्पना को पंख लगाने के लिए क्या कम था? मैंने लौटने के बाद दो किश्तों में अपने अनुभव लिखे।
इस अध्ययन यात्रा के दौरान भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से संक्षिप्त परिचय हो गया था। एकाध माह बाद ही भिलाई में पहली पत्रवार्ता में जाने का अवसर मिला। स. इंद्रजीत सिंह तब संयंत्र के जनरल मैनेजर थे (बाद में इसी को प्रबंध संचालक का पदनाम दे दिया गया)। एफ. सी. ताहिलरमानी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे और के.के. वर्मा आदि उनके अधीनस्थ अधिकारी। इस पत्रवार्ता में लगे जमघट को देखकर मुझे हैरानी हुई। रायपुर से हम 15-20 पत्रकार, साथ में दुर्ग व राजनांदगांव के सभी पत्रों के संवाददाता। श्री सिंह ने संयंत्र की मासिक प्रगति का विवरण पढ़कर सुनाया, दो-चार सवाल हुए और भिलाई होटल में लंच के साथ पत्रवार्ता समाप्त। उस दिन तो नहीं, लेकिन बाद में मैंने श्री ताहिलरमानी को पत्र लिखा कि इस मासिक पत्रवार्ता में हमारे दुर्ग प्रतिनिधि ही भाग लेंगे; रायपुर-राजनांदगांव से कोई नहीं आएगा। धीरे-धीरे अन्य अखबारों ने भी यह पद्धति अपना ली। ध्यान दीजिए कि उस समय तक भिलाई में किसी भी अखबार का दफ्तर या रिपोर्टर तैनात नहीं था। दुर्ग-भिलाई की पहचान एक जुड़वां शहर के रूप में थी।
खैर, भिलाई के जनसंपर्क विभाग की कार्यदक्षता और तत्परता भी गौरतलब थी। जितना मैं समझता हूं, इसकी नींव श्री ताहिलरमानी ने ही डाली थी और उसे स्थिर करने का काम प्रदीप सिंह ने किया। भिलाई के बारे में कोई भी खबर छपे, तुरंत उस पर आधिकारिक प्रतिक्रिया आ जाती थी। जनसंपर्क विभाग पर ही आम नागरिकों को संयंत्र का अवलोकन याने गाइडेड टूर कराने का दायित्व था। छत्तीसगढ़ में जो मेहमान आते थे, उन्हें भिलाई देखने की उत्सुकता होती थी और मेजबानों को भी चाव होता था कि उन्हें भिलाई स्टील प्लांट तथा मैत्रीबाग घुमाने ले जाएं। भिलाई की टाउनशिप भी अपने आप में आकर्षण का केंद्र थी। उस समय की एक मार्मिक खबर कुछ-कुछ याद आती है। एक रशियन इंजीनियर की आकस्मिक मृत्यु मैत्रीबाग से लगे मरौदा जलाशय में हो गई। उसका तेरह साल का बेटा कार लेकर अस्पताल भागे-भागे आया। सबको आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे से लड़के ने कैसे कार चला ली!
बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना और उसी क्षेत्र में निर्माणाधीन डी.बी.के. रेलवे (किरंदुल-विशाखापटट्नम लाइन) पर चल रहे काम को देखना भी कम रोमांचक नहीं था। उन दिनों जगदलपुर में होटल भी नहीं थे। रायपुर से जगदलपुर की सिंगल लेन सड़क पर, बीच-बीच में लकड़ी के पुलों से गुजरते हुए दस घंटे में यात्रा पूरी हुई थी। गीदम-दंतेवाड़ा तब छोटे-छोटे गांव थे। एक रात हमने भांसी बेस कैंप में तंबुओं में ही गुजारी थी। मई माह में भी रात को कंबल ओढ़ने की जरूरत पड़ गई थी। किरंदुल का मानो तब अस्तित्व ही नहीं था। भांसी से हम जीप से ऊपर डिपाजिट-12 तक गए थे, जहां उत्खनन प्रारंभ होने वाला था। मैं देख रहा था कि कितने ही लोग सामान की बोरियां उठाए धीरे-धीरे पैदल ऊपर चढ़ रहे हैं। उस दिन पहली बार डिपॉजिट-12 पर साप्ताहिक बाजार लगने वाला था। इसके अलावा हमारे पत्रकार दल ने नई रेल लाइन बिछाने के काम का भी अवलोकन किया।
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित जनों की एक बस्ती दंडाकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत बस्तर में बसाई गई थी। उनमें से कई लोग रेलवे लाइन पर काम कर रहे थे। वरिष्ठ साथी मेघनाद बोधनकर व मैं उनकी कॉलोनी में गए। विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उनकी जिजीविषा, परिश्रम, सुरुचिसंपन्नता को उन्होंने जैसे संजोकर रखा था, उससे हम बेहद प्रभावित हुए थे।
कुछ साल बाद शायद 1972 में एक प्रेस टूर में कोरबा जाने का अवसर मिला, जहां बाल्को (जिसे वाजपेयी सरकार ने वेदांता को बेच दिया) के एल्युमीनियम संयंत्र के निर्माण का शुरुआती काम चल रहा था। बाल्को के पहले इंजीनियर आर.पी. लाठ तथा कार्मिक प्रबंधक दामोदर पंडा से पहली बार भेंट हुई। श्री पंडा हमारे पथप्रदर्शक थे और श्री लाठ से आगे चलकर हमारी पारिवारिक मित्रता हुई। देश के नक्शे पर कोरबा एक औद्योगिक नगर के रूप में उभरने के पहले चरण में था। भिलाई, चरौदा, भनवार टांक, भांसी डिपाजिट-12, कोरबा, इन सभी स्थानों पर एक नया भारत मानो अंगड़ाई लेकर उठ रहा था। अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी ने भारत के आत्मबल, उद्यमशीलता, साहसिकता को नष्ट कर दिया था। उसके विपरीत एक नई फिजां बन रही थी।
देशबन्धु में हमें संतोष था कि हम इस परिवर्तन के गवाह बन रहे हैं। आज जब बात-बात पर सार्वजनिक उद्योगों की निंदा और निजी क्षेत्र की वकालत होती है तो ऐसा करने वालों की समझ पर तरस आता है। क्योंकि हमने देखा, लिखा और छापा है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने अपनी गलतियों व कमजोरियों के बावजूद एक सशक्त देश की बुनियाद रखने में कितनी महती भूमिका निभाई है।
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#देशबंधु में 19 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह
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