गुरुवार, जनवरी 10, 2019

शब्दों का उत्सव ... ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203---नाला सोपारा’ - संपादकीय - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh, Editor & Author
‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जनवरी - मार्च 2019 अंक में मेरा संपादकीय ...
 
("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj जनवरी - मार्च 2019 अंक )


संपादकीय
शब्दों का उत्सव ... 

‘पोस्ट बॉक्स नं. 203---नाला सोपारा’
- शरद सिंह
शब्दों का उत्सव ज़ारी है। वर्ष 2018 ने जाते-जाते सामयिक प्रकाशन को जो उपहार दिया वह न केवल सामयिक प्रकाशन वरन् हिन्दी के समस्त साहित्य सर्जकों के लिए उत्सवी माहौल पैदा कर रहा है। हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका चित्रा मुद्गल को वर्ष 2018 का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलना उस लेखकीय प्रतिबद्धता का सम्मान है जो समाज के शोषित पक्ष की निरंतर पैरवी कर रही है। चित्रा जी की सत्यनिष्ठा और सादगी यह कि साहित्य अकादमी पुरस्कार की घोषणा होने पर उन्होंने कहा कि ‘‘यह वंचित तबकों के प्रति मेरी सामाजिक प्रतिबद्धता और उससे उपजे मेरे साहित्य का सम्मान है।’’
हिन्दी साहित्य जगत् का एक विश्वस्त नाम हैं चित्रा मुद्गल। एक लम्बा जीवन-अनुभव ही नहीं वरन् अनवरत साहित्यिक प्रतिबद्धता चित्रा मुद्गल को दो लेखकीय पीढ़ियों के बीच सेतु के समान स्थापित किए हुए है। उन्होंने समय की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समकालीन धरातल से जिस प्रकार स्वयं को जोड़े रखा है, वह युवा ही नहीं वरन् अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्रोत कहा जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन के उतार-चढ़ाव के झंझावातों से गुज़रते हुए परपीड़ा को आत्मसात करके उसे शब्दों में उतारना और औपन्यासिक विन्यास में पिरो कर सर्वजन के समक्ष रखना असीम धैर्य, गहन संवेदना और अभिव्यक्ति की सक्षमता का द्योतक है। ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203-- नाला सोपारा’ जैसा उपन्यास यूं ही नहीं लिखा जा सकता है। इस उपन्यास के कथानक को चुनने और फिर कथानक को उपन्यास के रूप में ढालने के बीच जिस मनोदशा से चित्रा जी गुज़री हैं उसे उनके साक्षात्कारों से जाना और समझा जा सकता है, फिर भी बहुत कुछ छूटा हुआ है अभी भी उनके भीतर। कोई भी व्यक्ति अपनी संवेदना को अक्षरशः बयां नहीं कर सकता है लेकिन उसी संवेदना को उसकी रचना के पात्रा रेशा-रेशा बयां कर देते हैं।
‘‘मैं पेड़ नहीं बनना चाहता, मैं पेड़ का मतलब होना चाहता हूं।’’ नोबेल पुरस्कार विजेता टर्किश लेखक ओरहान पामुक जब यह कहते हैं तो वे पेड़ को जी रहे होते हैं। यही तो है कि जब बात किसी अनुभव के पर्याय बनने की होती है तो आवश्यक हो जाता है उसमें ढल कर उसी के जैसे हो जाया जाए। यहां ध्यान देने की बात है कि ‘वह नहीं’ अपितु ‘उसी के जैसे’। वही हो जाने में अभिव्यक्ति उसी की तरह अवरुद्ध हो जाएगी, मौन रह जाएगी जबकि उसका पर्याय बनने में उसकी पीड़ा, उसकी प्रसन्नता, उसकी संवेदना और उसके स्वप्नों को बयां किया जा सकता है। शहद के छत्ते से शहद की बूंदें कभी अपने-आप नहीं रिसती हैं। शहद की मिठास तक पहुंचने के लिए छत्ते के चक्रव्यूह को भेदना पड़ता है। ठीक इसी तरह पात्रों को चुनना और उन पात्रों के मनोभावों के तह तक पहुंचने के लिए उनके परिवेश को भेदना जरूरी हो जाता है। जो कथाकार जितनी सजगता और तन्मयता से अपने पात्रों के गोपन तक पहुंच जाता है और उसे उसके अनुरुप अभिव्यक्ति दे देता है, वही कालजयी कथाएं रचता है। ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203---नाला सोपारा’ जैसी कालजयीकृति को पढ़ना एक उपेक्षित समाज से तादात्म्य स्थापित कर लेने के समान है।
‘पो. बॉक्स नं. 203- नालासोपारा’ हिन्दी साहित्य में ऐसा पहला उपन्यास है जो किसी किन्नर की उस भावना से साक्षात्कार कराता है जो उसे उसके जैविक परिवार से सदैव जोड़े रखता है। यह उपन्यास समाज में किन्नरों की मनोदैहिक उपस्थिति को रेखांकित करता है। ‘पो. बॉक्स नं. 203- नालासोपारा’ की लेखिका चित्रा मुद्गल ने अपनी सिद्धहस्त लेखनी से एक मां और उसके किन्नर पुत्रा के परस्पर प्रेम को जिस मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है, वह अद्भुत है। ‘एक ज़मीन अपनी-सी’, ‘आवां’, ‘गिलिगडू’ जैसे सामाजिक सरोकारों के बहुचर्चित उपन्यासों की लेखिका चित्रा मुद्गल समाजसेवा से जुड़ी हैं। उनके ज़मीनी अनुभव उनके उपन्यासों को दस्तावेज़ी बना देते हैं। उनका उपन्यास ‘पो. बॉक्स नं. 203- नालासोपारा’ भी अपने आप में यथार्थ का एक ऐसा दस्तावेज़ सामने रखता है जिसका एक-एक शब्द पढ़ते हुए कभी रोमांच होता है तो कभी सिहरन, तो कभी मानसिक उद्वेलन। लेखिका ने अपने उपन्यास के माध्यम से यह प्रश्न उठाया है कि यदि कोई शिशु लिंग दोष के साथ जन्म लेता है तो भला उसमें इसका क्या दोष? 
आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि प्रत्येक किन्नर अपने समुदाय के बीच पला-बढ़ा होता है इसलिए उसकी सारी संवेदनाएं, सारे सरोकार अपने समुदाय के प्रति ही रहते हैं किन्तु इस मिथक को तोड़ते हुए चित्रा मुद्गल ने यह पक्ष  उजागर किया है कि माता-पिता की स्मृतियां ठीक उसी तरह उनके साथ भी रहती हैं जैसे कि किसी सामान्य व्यक्ति के साथ। ‘नाला सोपारा’ एक ऐसे किन्नर की कथा है जो अपनी मां का पता लगाकर उसके साथ पत्रा व्यवहार करता है। मां भी परिवार से छिपा कर अपने बेटे को उसके पत्रों के उत्तर देती है। लेकिन वह पत्राचार को गोपनीय रखती है। उसे इस बात का भय है कि यदि लोगों को उसकी किन्नर संतान का पता चल गया तो उसकी दूसरी संतानों के वैवाहिक संबंध में भी रुकावट आ जाएगी। उपन्यास पत्रा शैली में है। इस उपन्यास में कई चुभते हुए प्रसंग हैं जो मन-मस्तिष्क को झकझोरने में सक्षम हैं। सरकार ‘थर्ड जें़डर’ को आरक्षण दिए जाने पर विचार कर रही होती है तब उपन्यास का किन्नर नायक कहता है कि ‘‘सरकार को चाहिए कि वह किन्नरों के लिए आरक्षण के बजाय मां-बाप को दंडित करने का प्रावधान करे। अगर भ्रूण के लिंग परीक्षण करने पर आप सजा का प्रावधान कर सकते हैं तो ऐसे मां-बाप को क्यों नहीं दंडित किया जाना चाहिए जो अपने किन्नर बच्चों को कहीं छोड़ आते हैं या फिर किन्नरों को दे देते हैं?’’
बाज़ारवाद, भू-मण्डलीकरण अथवा अपसंस्कृति का विश्लेषण एवं विवेचन करते समय समाज का वह हिस्सा छूट जाता है जिसके जीवन पर चिन्तन करना सदियों पहले शुरू कर दिया जाना चाहिए था। समाज का अभिन्न हिस्सा ही तो हैं किन्नर, और उन्हें भी समाज में सम्मान एवं समानता पाने का अधिकार है।
चित्रा जी के अब तक लगभग तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. बहुचर्चित उपन्यास ’आवां’ के लिए उन्हें व्यास सम्मान से भी सम्मनित जा चुका है। इसके अलावा उन्हें इंदु शर्मा कथा सम्मान, साहित्य भूषण, वीर सिंह देव सम्मान आदि प्रतिष्ठित सम्मान मिल चुके हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार इनमें सबसे ताज़ा सम्मान है।
कथाएं काव्य से अधिक मुखर हो कर तत्कालीन परिवेश के रंगों को साहित्य में उभार देती हैं, इसीलिए काव्य में भी कथाएं रची गईं। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ कथात्मक महाकाव्य हैं। बुंदेलखण्ड के कवि जगनिक ने ‘‘आल्हाखण्ड’’ में आल्हा-ऊदल के वीरता के किस्से काव्यबद्ध किए हैं। बुंदेली लोककवि ईसुरी ने भी काव्य में कथा रची। लेकिन वह है प्रेयसी ‘रजऊ’ के प्रति उनकी प्रेमकथा। जिसका विन्यास कथात्मक न होते हुए भी प्रेमकथा के दृश्य उकेरता चलता है। विगत दिनों एक किताब आई है ‘‘लोककवि ईसुरी’’ जिसके लेखक हैं श्यामसुंदर दुबे। इस पुस्तक को ईसुरी के काव्य-साहित्य की पुनर्व्याख्या कहा जा सकता है। ईसुरी ने जिस तरह का काव्य रचा उसे ‘फाग’ कहा जाता है। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली  ‘चौघड़िया फाग’ को जन्म दिया। वहीं यह भी माना जाता है कि ईसुरी ने अपनी प्रेमिका ‘रजऊ’ को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। 
जो तुम छैल छला हो जाते परे उंगरियन राते
मां पांछत गालन खों लगते कजरा देत दिखाते
घरी-घरी घूंघट खोलत में नजर के सामें राते
ईसुर दूर दरस के लानें ऐसे कायं ललाते।
वसंत निरगुणे ने लिखा है कि ‘‘मेरी दृष्टि में ईसुरी ने रजऊ में उस विराट स्त्रा के दर्शन कर लिए थे, जिसे ब्रह्मा ने पहली बार रचा था। यह ईसुरी का लोक रहा जिसमें रजऊ बार-बार आती है और स्त्रा की नई व्याख्या ईसुरी के छंद में उतरती जाती है।’’ वस्तुतः ईसुरी के काव्य में स्त्रा के स्वरूप को समझे बिना ईसुरी के काव्य को समझा नहीं जा सकता है। लेकिन इस समझ की फ़़ुरसत किसे है? हिन्दी काव्य से पारम्परिक छंद ही धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है मानो हमारे लोक काव्य से ईसुरी जैसे कवि विलुप्ति के कगार पर जा पहुंचे हैं और छंदमुक्त कविता को ‘टूल’ मानकर यथार्थ की दुंदुभी बजाने का भ्रम पाले हुए कवियों का हुजूम काव्य की सरसता को सोखता जा रहा है। छंदमुक्त कविता में भी सरसता हो सकती है, बशर्ते वह नारे के सपाटपन से आगे बढ़ कर उतार-चढ़ावमय ध्वन्यात्मकता को अपनाए।
कथा के प्रति आश्वस्ति और काव्य के प्रति चिंतन के साथ ही ‘सामयिक सरस्वती’ की ओर से सभी रचनाधर्मियों एवं सुधी पाठकों को नववर्ष 2019 की हार्दिक शुभकामनाएं!
और अंत में एक कामना, मेरी कविता के रूप में-
नए साल की धूप
जब-जब माथे को चूमे
तो लिख जाए -
एक कथा, एक कविता, एक लेख
उनके नाम
जिन तक कभी पहुंची ही नहीं धूप।
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Samayik Saraswati Jan.-March 2019 Cover

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