पुस्तक समीक्षा
- डॉ. शरद सिंह
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पुस्तक - यहीं कहीं था घर (उपन्यास)
लेखिका - सुधा आरोड़ा
प्रकाशक- सामयिकप्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नईदिल्ली 110002
मूल्य - रुपए 250 मात्र
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Yahin Kahin Tha Ghar |
स्त्री जीवन को ले कर अनेक
उपन्यास रचे गए हैं। इस विषय पर बंगाली साहित्य से ले कर हिन्दी साहित्य तक एक
समृद्ध श्रृंखला मौजूद है। फिर भी ऐसा लगता है जैसे अभी भी कुछ ऐसा है जो साहित्य
का हिस्सा नहीं बन पाया है अथवा सहज रूप में सामने नहीं आ पाया है। ऐसा ही
अनछुआ-सा मुद्दा है स्त्री-जीवन की प्राथमिकताओं का। क्या स्त्री होने का यही अर्थ
है कि वह युवावस्था में कदम रखते ही विवाह के बंधन में बांध दी जाए, वह भी कुछ इस तरह कि बेटी
का विवाह कर के माता-पिता अपने सिर का बोझ उतार रहे हों? तो क्या स्त्री होने का यही
अर्थ है वह विवाह करे, बच्चे
पैदा करे और आज्ञाकारिणी की भांति परिवार के पुरुषों की ‘हां’ में ‘हां’ मिलाती रहे? वह स्वयं को धन्य समझे कि
किसी पुरुष ने उसे अपने योग्य समझ कर उससे विवाह किया, तो क्या उसकी अपनी सोच, अपनी विचारधारा, अपनी भावना का कोई मूल्य
नहीं है? निःसंदेह
समय करवट लेता जा रहा है, आज
की स्त्री कामकाजी हो चली है, परन्तु
क्या इससे उसके सामाजिक और पारिवारिक दशा में कोई बुनियादी अन्तर आया है? कमाने के अधिकार के साथ-साथ
उसे खर्च करने का अधिकार भी मिला पाया है? क्या उसे अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने का अधिकार
मिल पाया है? बहुत
सारे प्रश्न हैं जो आज भी अपने उत्तर ढूंढ रहे हैं।
सुधा आरोड़ा एक स्थापित
लेखिका होने के साथ-साथ स्त्रियों से जुड़ी सामाजिक समस्याओं को निकट से देखने और
समझने का अनुभव रखती हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ स्त्री-जीवन की प्राथमिकताओं पर सशक्त ढंग से चर्चा करता है।
सुधा आरोड़ा ने अपने इस उपन्यास में इस तथ्य को सामने रखा है कि देह में स्त्रीत्व
के प्रकट होते ही स्त्री की देह लोलुप पुरुषों के लिए भोग्य-वस्तु बन जाती है। जिस
स्त्री को अपनी युवावस्था में पांव रखते ही किसी देह-लोलुप की कुदृष्टि से दो-चार
होना पड़े तो उसका स्वर विद्रोह के स्वर में बदलेगा ही। यदि वह अपनी उसी कच्ची
उम्र में स्वतः प्रेरणा से स्वयं को बचाना सीख जाती है तो उसमें यह भावना जागना
स्वाभविक है कि दुनिया की सारी औरतें आत्मनियंत्रित और आत्मरक्षिता बन सकें। ‘यहीं कहीं था घर’ में सुधा आरोड़ा ने स्त्री
के सामाजिक बोध के साथ मनोविज्ञान को भी बड़े ही विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत
किया है।
उपन्यास की नायिका विशाखा
अपने स्कूली छात्र जीवन से ही बुरे-भले अनुभवों से गुज़रते हुए जीवन को समझने का
निरन्तर प्रयास करती है। मकान मालिक की दूकान में अनाज के बोरे ढोने वाला नत्थू
लोहार की कामुकता विशाखा को उस समय भयाक्रांत कर देती है जब उसे कामुकता का अर्थ
भी पता नहीं था। यह भावी स्त्री की सहज प्रवृति थी जो उसे नत्थू लोहार के चंगुल से
स्वयं को बचाए रखने में सक्षम बना पाती है। विशाखा जानती थी कि नत्थू लोहार की
बेजा हरकतों के बारे में वह अपनी मां से यदि कुछ कहेगी भी तो मां इस विषय में कुछ
नहीं कर पाएगी। बात बढ़ाने का दुष्परिणाम यही हो सकता था कि विशाखा का स्कूल जाना
छुड़ा दिया जाता। जैसे उसकी बड़ी बहन के साथ हुआ। यद्यपि बड़ी बहन सुजाता का मामला
बिलकुल अलग था। सुजाता की पढ़ाई बंद करा देने के पीछे इतना कारण पर्याप्त था कि वह
किसी लड़के के प्रति आकर्षित हो रही थी, ऐसा दादी को संदेह था। मामला इतने पर ही शांत नहीं हुआ।
चिन्ता का दूसरा सिरा ठीक इसी बिन्दु से शुरू हुआ कि सुजाता के लिए शीघ्रातिशीघ्र
लड़का देख कर उसे ‘विदा’ कर दिया जाए। सुजाता की
ससुराल या लड़के के चाल-चलन से अधिक महत्वपूर्ण हो गया उसे ब्याह कर एक बेटी के
दायित्व से मुक्त हो जाना।
मध्यमवर्गीय परिवारों में
सबसे बड़ा संकट होता है विपन्नता। धनाभाव के कारण अनेक कठिनाइयां मुंह बाए खड़ी
रहती हैं और जब उनसे बच पाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है तो लोग ‘महात्माओं और बाबाओं’ की शरण में कठिनाइयों का हल
ढूंढने लगते हैं। अपनी कठिनाइयों के प्रभाव से वे इतने अधिक भ्रमित हो चुके होते
हैं उन्हें सही और गलत में अन्तर दिखाई देना बंद हो जाता है। जो धनराशि वे अपने
बच्चों के लालन-पालन या पढ़ाई-लिखाई में खर्च कर सकते हैं, उस धनराशि को ‘स्वामी जी’ की सेवा में बेहिचक खर्च
करते चले जाते हैं। धन की हानि की शायद भरपाई हो भी जाए किन्तु स्वामी जी के
चेले-चाटों की कुदिृष्ट से होने वाली हानि की भरपाई कभी नहीं हो पाती है। इन
परिस्थितियों में भावनात्मक शोषण किसी भी क्षण दैहिक शोषण में बदल सकता है। इस कटु
सच्चाई की ओर न तो पिता का ध्यान जाता है, न मां का और न दादी का। सुजाता को भी इस तथ्य का अनुभव हो
चुका होता है जिससे बचने का उसके पास कमजोर-सा उपाय है कि ऐसे व्यक्ति के सामने
पड़ने से बचा जाए।
स्वामी जी का चेला स्वामी
सदानन्द भावना से देह के रास्ते का सफर तय करना चाहता है और वह विशाखा की
भाग्यरेखाएं पढ़ने की आड़ में विशाखा की हथेली थाम लेता है,-‘‘तुम्हारा विवाह तो कुछ
विलम्ब से है, सुजाता
बेन का विवाह अल्पायु में होगा। कहते हुए स्वामी सदानन्द ने अपने दानों हाथों में
थामी हुई विशाखा की हथेली को अपनी गोद में नीचे दबा दिया। एक क्षण को विशाखा कुछ
समझ नहीं पाई, फिर
जैसे लोहे की गरम सलाख हथेली को छू गई हो, वह तमक कर उठ खड़ी हुई। स्वामी सदानन्द की तोंद का वह
लिजलिजा-सा स्पर्श और उसके नीचे एक सख्त चुभन। छिः।’’ (पृ.45)
विशाखा के मन में यदि
स्वामी जी और उसके चेलों के प्रति घृणा और अविश्वास का भाव पनपता है तो यह
स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। पहले नत्थू लोहार और फिर स्वामी सदानन्द स्त्री-पुरुष
के दैहिक समीकरण की झलक को वीभत्स ढंग से विशाखा के कोमल मन पर किसी गहरी खरोंच के
समान अंकित कर देते हैं। इन सबके बीच भावनात्मक हादसों का एक लौह-क्रम। विशाखा की
सबसे छोटी बहन जिसके लिए सुजाता दूध की बोतल तैयार किया करती थी, इस दुनिया से चली जाती है।
वह दुनिया को देख, समझ
भी नहीं पाई थी किन्तु उसकी पैदाइश के समय से ही उसे दादी के ताने हर पल मिलते
रहे। तीजी नाम की उस नन्हीं जीव ने लड़के के बदले लड़की के रूप में जो जन्म लिया
था।
मंा तो गोया बच्चा जनने की
मशीन बन चुकी थी। इधर सुजाता के विवाह के लिए लड़का ढूंढा जा रहा था और उधर मंा ने
सुजाता की दो जुड़वां बहनों को जन्म दिया। जिसमें से एक अस्पताल में ही चल बसी।
कथावस्तु के प्रवाह के साथ लेखिका ने मध्यमवर्गीय और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों
की इस जटिल समस्या को बड़ी ही सहजता से रेखांकित कर दिया है। एक ओर सबसे बड़ी बेटी
को विवाह योग्य माना जा रहा होता है और दूसरी ओर पिता एक अदद पुत्र की लालसा में
अपनी पत्नी को गर्भ धारण करने को विवश करता रहता है। इस लालसा के जन्म और लालसा की
पूर्ति के बीच दैहिक सम्मिलन में सुख जैसे किसी भाव के होने का प्रश्न ही नहीं रह
जाता है। एक मशीनी क्रिया कि जब तक मनचाहा उत्पादन नहीं होगा तब तक उत्पाद की
क्रिया चलती रहेगी, भले
ही स्त्री का देह रूपी यंत्र थक कर जर्जर हो चला हो।
विशाखा एक युवा बेटी के रूप
में अपनी मां की दुर्दशा को देखती है, वह चाहती है कि मां विद्रोह करे। वह अपनी बहन को इच्छा-अनिच्छा
से परे विवाह के खूंटे से बांधने के भावनाहीन प्रयासों को देखती है और चाहती है कि
सुजाता विद्रोह करे। परन्तु मां और सुजाता दोनों कमजोर स्त्रियां हैं, वे विद्रोह करने के बदले
परिस्थितियों के सामने घुटने टेकने को ही स्त्री जीवन का पर्याय मान लेती हैं।
घुटने टेकने का क्रम एक बार
जो शुरू होता है तो उसका अंन्त दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता है। एक अव्यक्त गुलामी
जीवनपर्यन्त। विवाह के समय ही सुजाता के ससुराली उसका वजूद बदलना शुरू कर देते हैं
जिससे वे उसे अपनी ‘सम्पत्ति’ में शामिल कर सकें। विगत
जीवन के अस्तित्व को पोंछ कर लगभग मिटा दिया जाए। विवाह के बाद स्त्री को अपनी
पहचान खोते देर नहीं लगती है। फलां की बहू, फालां की पत्नी, फलां की मां आदि-आदि सम्बोधन उसकी पहचान बन जाते हैं। श्रीमती
ये, श्रीमती
वो....यही परिचय रह जाता है। कई बार तो मृत्यु के बाद भी यही चर्चा होती है कि
उसकी बहू, उसकी
सास, उसकी
पत्नी की मृत्यु हो गई है। इन सबके बीच माता-पिता के द्वारा रखा गया नाम खो चुका
होता है। वह नाम जिसके साथ उसने अपने जीवन को पहचाना होता है, अपनी युवावस्था से नाता
जोड़ा होता है और जिस नाम को किसी ने (सौभाग्यवश कभी) प्रेम से पुकारा होता है या
उस नाम के नाम प्रेम-पाती लिखी होती है। वह अठ्ठारह-बीस साल का सहयात्री नाम भी कई
बार उससे अलग कर दिया जाता है और उसे दिया जाता है नया नाम।
सुजाता के साथ भी यही हुआ।
सुजाता की सास श्रीमती जुनेजा का निर्णय था,-‘‘ नहीं-नहीं पंडित जी, यह सुजात्ता नाम तो बंगालियों सा लगता है। एक तो हमारे पड़ोस
में ही काम करती है। हमें तो नाम बदलना है। मेरे जेठ की सारी बहुओं के नाम बदले गए
हैं। कोई अच्छा-सा नाम बताओ। कुडि़यों, छेत्ती करो!’’
(पृ. 131)
‘‘उस लगन मंडप में जलते हवनकुंड में सुजाता तनेजा के नाम के
अवशेष समाप्त हो गए। अब उसने नरेन्द्र जुनेजा की पत्नी श्रीमती रेणुका जुनेजा का
चोला धारण कर लिया था।’’ (पृ.132-33) जैसे कोई
किसी इमारत की बुनियाद का पत्थर बदल दे, अपनी मर्जी के आकार-प्रकार का लगा दे और फिर आशा करे कि इमारत
अडिग खड़ी रहे। इमारत तो निश्चित रूप से गिर जाएगी लेकिन स्त्री अपने जीवन का
एक-एक कण नींव के पत्थर में बदल देती है इसीलिए अपना सब कुछ बदल जाने पर भी
सामाजिक-पारिवारिक जीवन की इमारत को ढहने नहीं देती है। लेकिन क्या इसका अर्थ यह
है कि स्त्री के अस्तित्व के पंख उससे बार-बार नोंच लिए जाएं, एक परम्परा बना कर?
विवाहित जीवन में भी सब कुछ
ठीक-ठाक हो यह आवश्यक नहीं है। ऊपर से सब ठीक दिखने वाला दृश्य अपने भीतर अनेक
कोलाहल, अनेक
अव्यवस्थाएं समेटे रहता है। इस कोलाहल, इस असंतुलन पर पर्दा डाले रखने के लिए प्रायः स्त्री को ही
अपने निर्णय से मुंह मोड़ना पड़ता है,-‘‘वह निर्णय हमेशा की तरह आज फिर धराशाई हो गया है। शायद
इस उम्मींद से कि हमारे रिश्तों में कोई गर्माहट आएगी और मोनू को अपने मां-बाप का
वह साया मिल सकेगा, जिससे
वह अब तक अपरिचित है, पर
आज लग रहा है कि इस खुशफहमी में अब जीना फिजूल है। ये रिश्ते बहुत नाजुक हैं और
इनमें एक बार दरार पड़ जाए तो आसानी से भरती नहीं। उस दरार को कितना भी पाट लो, जरा-सा कुरदते ही हर बार
पहले से ज्यादा गहरी दरार नजर आती है।’’ (पृ.160)
बेटी के रूप में जन्म ले कर
बद्दुआएं झेलना, युवती
हो कर लम्पट पुरुषों की कुदृष्टि का शिकार बनना और अपने जीवन को एक मनुष्य के रूप
में अपने ढंग से जीने का अधिकार खो देना ही यदि स्त्री-जीवन की नियति है तो फिर
उसके जीवन की प्राथमिकताएं क्या हैं? ‘यहीं कहीं था घर’ उपन्यास के माध्यम से लेखिका ने परिवार की घनी बुनावट में
तरह-तरह की त्रासदी झेलती लड़कियों और घुटती हुई स्त्री के जीवन को उजागर करते हुए
स्त्री जीवन से जुड़े तथ्यों को रोचक और विचारणीय शैली में प्रस्तुत किया है।
उपन्यास की भाषा और प्रवाह पाठक को सतत जोड़े रखने में पूरी तरह सक्षम है। सुधा
आरोड़ा ने अपने लेखकीय कौशल और ज़मीनी अनुभवों से इस प्रश्न के हर पक्ष को बड़ी ही
बारीकी से अपने उपन्यास में पिरोते हुए, इस प्रश्न के उत्तर को भी सामने रखने का सफल एवं प्रभावी
प्रयास किया है।
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सहना या कहना, निर्णय हर क्षण लेना है। कहने से अन्ततः पीड़ा कम ही होती है।
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