रविवार, मार्च 25, 2018

Thought Of Sharad Singh After Midnight

Thought Of Dr (Miss) Sharad Singh After Midnight
हर दिन कम से कम एक सवाल खुद से भी किया जाना चाहिए। - डॉ शरद सिंह
#ThoughtOfSharadSinghAfterMidnight

शनिवार, मार्च 17, 2018

हिन्दी साहित्य के महामना - संपादकीय - शरद सिंह

‘‘सामयिक सरस्वती’’ पत्रिका के जनवरी - मार्च 2018 अंक में मेरा संपादकीय ...
Dr (Miss) Sharad Singh, Editor & Author
  ("सामयिक सरस्‍वती", कार्यकारी संपादक Sharad Singh, संपादक Mahesh Bhardwaj जनवरी - मार्च 2018 अंक )

हिन्दी साहित्य के महामना
- शरद सिंह

आत्म चेतना के स्तर पर आज हम सभी जीवन के अपने-अपने रेनासां को जी रहे हैं। एक ओर हम जहां नए संस्कारों को देख कर चमत्कृत होते हैं, वहीं पुराने संस्कारों में स्वयं को तलाशते रहते हैं। एक कंस्ट्रास्ट, एक विरोधाभासी  संवेगात्मक अनुभव का दौर है यह। इस दौर में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की उपस्थिति आवश्यक-सी लगती है। आचार्य शुक्ल में जो वैचारिक दृढ़ता थी, उस दृढ़ता की आज कमी महसूस होती है। उनकी वैचारिक दृढ़ता ओढ़ी हुई नहीं अपितु मौलिक थी, प्रकृति प्रदत्त। उनके बाल्यकाल में भी लगभग वही वातावरण था, जो आज है, मसलन भविष्य के सुखों को सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजी भाषा से पाणिग्रहण। आचार्य शुक्ल के पिता भी यही चाहते थे कि उनका पुत्रा अंग्रेजी भाषा का विद्वान बने और साथ ही उर्दू सीखे। लेकिन उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनका पुत्रा कोई सामान्य बालक नहीं है, वह तो हिन्दी भाषा को सुदृढ़ एवं कालबद्ध करने के लिए जन्मा है। आचार्य शुक्ल ने बचपन से ही हिन्दी से गहरा नाता जोड़ लिया था। उन्होंने अंग्रेजी और उर्दू का ज्ञान तो अर्जित किया किन्तु हिन्दी से मोह का नाता अटूट होता चला गया। हिन्दी से उनका मोहभंग होता भी कैसे? वह तो उनकी आत्मा में रच-बस चुकी थी। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी को केन्द्र में रख कर ही अपना जीवन जिया। उनका समस्त चिन्तन, समस्त चेष्टाएं एवं समस्त आकांक्षाएं हिन्दी के प्रति रहीं। मातृ भाषा के प्रति इस समर्पण ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को कालजयी बना दिया। आचार्य शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ उनकी साहित्य साधना एवं साहित्य के प्रति समर्पण की चरमपरिणति रही। हिन्दी साहित्य के ज्ञानकोश के रूप में यह आज भी अद्वितीय रूप से विश्वसनीय है। आचार्य शुक्ल ने आत्मनिधि हिन्दी भाषा की स्थापना को सुदृढ़ता प्रदान करते हुए इसके साहित्य को जिस प्रकार कालबद्ध किया है उससे नवीन वैचारिक पथ प्रशस्त हुए हैं। जैसा कि ऐतरेय उपनिषद् में कहा गया है- ‘आत्मवा इदमेक अग्र आसीत्, नान्यत् किंचनमिषत्। स ऐक्षत् लोकान्नुसृजा इति।’ अर्थात् आरम्भ में केवल आत्मा ही थी, अपनी सत्ता में पूर्ण, अद्वितीय, अविचल एवं निरपेक्ष। इस एक ने अपने भीतर अन्य की अपेक्षा उत्पन्न की।
नलिन विलोचन शर्मा ने ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ में लिखा है कि ‘शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक सम्भवतः उस युग में किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था।’ निःसंदेह, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हर तरह के विरोध-प्रतिरोध का सामना करते हुए एक ऐसा मानक रचा जिससे सहमत या असहमत तो हुआ जा सकता है लेकिन उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। साहित्य के इतिहास लेखक के रूप में आचार्य शुक्ल आज भी श्रेष्ठतम हैं। हिन्दी साहित्य के संदर्भ में शुक्ल जी की स्थापनाएं तथा निष्कर्ष वैज्ञानिक सिद्धांतों की भांति प्रतिपादित हो कर नवीन प्रयोगों एवं आविष्कारों की भूमि तैयार करते हैं।
आचार्य शुक्ल वैचारिक परिवर्तनों को सहजरूप से स्वीकार करते थे। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘इस तृतीय उत्थान (सन् 1918 ई. से) में समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष के कथन से आगे बढ़ कर कवियों की विशेषताओं और अंतःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया।’’ 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में काव्यविधा पर समुचित प्रकाश डाला है। वे स्पष्ट करते हैं कि ‘विभाव, अनुभाव के ज्ञान से रसात्मक अनुभूति होती है।’ कई आलोचक आचार्य शुक्ल की इस मीमांसा को आधार बना कर प्रश्न करते हैं कि शुक्ल जी की रसात्मकता का आग्रह केशव के काव्य के साथ क्यों कठोरता में ढल जाता है और वे केशव को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहते हैं। पर यहां ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि शुक्ल जी की दृष्टि में यदि संकुचन होता तो वे प्रतिदिन के जीवनानुभवों को काव्य में स्वीकार ही नहीं करते। उन्होंने स्वयं लिखा है कि ‘‘ जिन रूपों और व्यापारों से मनुष्य आदि युगों से परिचित है, जिन रूपों को सामने पाकर वह नरजीवन के आरम्भ से ही लुब्ध और क्षुब्ध होता आ रहा है, उनका हमारे भावों के साथ मूल या सीधा सम्बन्ध है।’’
आचार्य शुक्ल ने गद्य और काव्य के अन्तर को रेखांकित करते हुए गद्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग माना तो काव्य को ‘भावयोग’ कहा। ऐसा भावयोग जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुंचाता है। उन्होंने कविता को शेष सृष्टि के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने वाला तथा शक्ति के शील-विकास का श्रेष्ठतम साधन माना।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोक और धर्म की विस्तृत व्याख्या अपने निबंधों में की है। वर्तमान सामाजिक, वैचारिक एवं राजनीतिक दशाओं में शुक्ल जी के धर्म संबंधी विचार गहन विशेष मूल्यवत्ता रखते हैं। आज जब धर्म भगवा, टीका, टोपी, दाढ़ी आदि प्रतीकों (सिम्बल्स) के निरर्थक आधार पर उकेरा जा रहा है, ऐसे कठिन समय में आचार्य शुक्ल के धर्म संबंधी विचारों को प्रसारित करने की आज आवश्यकता है।
आचार्य शुक्ल ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा कि ‘सिद्ध हुआ लोक या समाज को धारण करने वाला धर्म है।’ उन्होंने अपनी पुस्तक ‘गोस्वामी तुलसीदास’ में तुलसीदास के काव्य की चर्चा करते हुए धर्म को लोक कल्याणकारी माना - ‘प्रोत्साहन और प्रतिबन्ध द्वारा मन, वचन और कर्म को व्यवस्थित करने वाला तत्व धर्म है।’ उनके चिंतन के केन्द्र में लोक सदा स्थापित रहा। जो कुछ भी लोकविरोधी था वह आचार्य शुक्ल के लिए स्वीकार्य नहीं था। ‘चिन्तामणि भाग 1’ में आचार्य शुक्ल ने लोक पर अपना दृष्टिकोण इन शब्दों में सामने रखा है कि धर्म की नींव लोक रक्षा के लिए डाली गई। इसी पुस्तक में वे निबंध भी संकलित हैं जो उत्साह, श्रद्धा और भक्ति, करुणा, लज्जा, क्रोध आदि मनोभावों पर लिखे गए है। इन निबंधों के द्वारा शुक्ल जी ने साहित्य में मनोवैज्ञानिक विषयों का बड़े सुंदर ढंग से समावेश किया। क्रोध जैसे मनोविकार पर जहां एक पैरा भी कठिनाई से लिखा जा सकता हो वहां एक पूरा निबंध लिख देना, उनकी मनोविज्ञान में व्यवहारिक पैंठ का द्योतक है। इस निबंध में भी लोकहित के पर्याप्त तत्व मौजूद हैं। शुक्ल जी ने इस निबंध के द्वारा गोया ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ के उस श्लोक को गद्य में विस्तारित किया जिसमें क्रोध का विश्लेषण किया गया है-
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
अर्थात् क्रोध सोचने, समझने की शक्ति छीन लेता है। मानो क्रोध की भावना व्यक्ति को सम्मोहित कर लेती है। सम्मोहन भ्रमित कर देता है, भ्रम में पड़ कर बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश प्राणों के अंत का कारण बनता है। आचार्य शुक्ल इस तथ्य को भली-भांति समझते थे कि जीवन चाहे जितना भी मशीनीकृत क्यों न हो जाए, मानवीय भावनाएं शून्य नहीं होंगी। सत् या असत् का कोई न कोई मनोभाव उपस्थित रहेगा।
वस्तुतः आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साहित्य ने हिन्दी साहित्य को न केवल समृद्ध किया वरन् एक व्यवस्थित अनुशासन भी दिया। ऐसे साहित्यिक महामना की समग्रता को एक स्थान पर प्रस्तुत करने के प्रयास स्वरूप ‘सामयिक सरस्वती’ के इस अंक की रूपरेखा बनी और अतिथि संपादन का महत्वपूर्ण दायित्व स्वीकार किया दिनेश कुमार जी ने। ‘सामयिक सरस्वती’ उनकी आभारी है। आभार उन विद्वानों का भी जिन्होंने अपनी व्यस्ततम जीवनचर्या से कुछ समय निकाल कर इस अंक रूपी यज्ञ में अपने लेखों की समिधा प्रदान की। सर्वश्री मधुरेश, विजय बहादुर सिंह, कृष्णदत्त शर्मा, राजेन्द्र कुमार, गोपाल प्रधान, राधावल्लभ त्रिपाठी, रवि रंजन, कमलेश वर्मा, सुधीश पचौरी, ओमप्रकाश सिंह, श्रीभगवान सिंह, वेंकटेश कुमार, सदानन्द शाही, गोपेश्वर सिंह जैसे हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञों, उद्भट विद्वानों ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उन सभी पक्षों को लेखबद्ध किया है जो इससे पहले छुए-अनछुए रहे। ‘सामयिक सरस्वती’ के इस विशेषांक को पाठकों को सौंपते हुए हमें यह विश्वास है कि यह शोधार्थियों के साथ ही उन सभी पाठकों के लिए रुचिकर साबित होगा जो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के साहित्य से होते हुए हिन्दी साहित्य को आद्योपांत समझना चाहते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी को उस युग में उसके स्वतंत्रा इतिहास का सम्मान दिलाया जिस युग में देश परतंत्रा था। और अंत में समर्पित है मेरी यह कविता उनके इस साहित्यिक अवदान के प्रति ......
ध्वनि और शब्द गढ़ते हैं भाषा
मनोभावों का धारण कर चोला
ठीक उसी समय
नृत्य करते हैं संवेग
थिरकती हैं आकृतियां शैलियों की
गूंज उठता है नाद-स्वर चिंतन का,
होता है उसी समय लेखबद्ध
अलिखित इतिहास -
इतिहास भाषा का, ध्वनियों का,
लिपि और साहित्य का
कालजयी करने विचारों को।
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