बुधवार, मार्च 09, 2016

फागुन माह पर मेरा बुंदेली लेख .... डॉ शरद सिंह

फागुन माह पर मेरा बुंदेली लेख आज (06.03.2016) ‘‘पत्रिका’’ समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ है... इस बुंदेली लेख को पढ़िए और बुंदेली की मिठास का आनंद लीजिए...
Bundeli Lekh of Dr (Miss) Sharad Singh Patrika .. 06. 03. 2016

लेख
करके नेह टोर जिन दइयो
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

माव, पूस के दिन बीत गए, अब जे फागुन मईना आ गओ। टेसू औ सेमर फूलन लगे। मौसम नोनो सो लगन लगो। औ इते काम के मारे फुरसत नईयां। जीने-मरबे की पर रई है... बाकी काम-काज तो लगई रैहे, कछू घड़ी मिल-बैठ के फाग को आनंद ले लौ जाये... ई बात पे ईसुरी ने जे भौतई नोनी फाग कही है-
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें
सबखों लगत रात जियत भर, जो नईं कभऊं बढ़ानें
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नई जानें
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’, करत-करत मर जाने
काल तक सबई तरफ, इते सबई कछू सिमटो-सुकड़ो सो हतो औ आज हिया पे जा बौरानी उमंग की छायरी सी परन लगी है। फाग को नसा सो चढ़न लगो है। मनो ईसुरी ने सही कही रई -
मोरे मन की हरन मुनइया, आज दिखानी नइयां
के कंऊ हुए लाल के संगै, पकरी पिंजरा मइयां
पत्तन-पत्तन ढूंढ़ फिरै हैं, बैठी कौन डरइयां
कात ‘ईसुरी’ इनके लाने टोरी सरग तरइयां
अब ईसुरी तो हते फाग-गुरू..... उनको मुकाबलो को कर सकत है.... ऐसी-ऐसी फागें रच डारीं, के सुनत-सुनत मन नई अघात है। किसम-किसम की फागें, ऐसी नोनी फागें के कछू ने पूछो। जा तो सबई जानत आंय, के ईसुरी पे रजऊ के प्रेम को रंग चढ़ो रओ। औ इत्तो चढ़ो रओ के ईसुरी खों रजऊ के सिवाय कछू सूझत ने हतो। रजऊ के लाने जीने-मरबे की कसमें सी खात रहतते। जा के लाने उनने खुदई जा फाग कही रई -
जौ जी रजऊ-रजऊ के लाने, का काऊ सें कानें
जौं लों जीनें जियत जिन्दगी, रजऊ के हेत कमानें
पेले भोजन करें रजऊ आ, पाछे कें मोय खानें
रजऊ-रजऊ कौ नांव ‘ईसुरी’, लेत-लेत मर जाने
लेकन मनो ऐसो भी नइयां, के ईसुरी ने कौऊ और रंग पे कछू और ने कहो होय..... उनकी कही फाग में सबई रंग से दिखात हैं। कारे रंग बारन पे उन्ने जे फाग कही है...
कारे सबरे होत बिकारे, जितने ई रंग बारे
कारे नांग सफां देखत के, काटत प्रान निकारे
कारे भमर रहत कमलन पै, ले पराग गुंजारे
कारे दगाबाज हैं सजनी, ई रंग से हम हारे
‘ईसुर’ कारे खकल खात हैं, जिहर न जात उतारे

मनो, जा बात भी भूलबे की नईंया के ईसुरी को कारे रंग वारे किसन कन्हैया सोई प्यारे हतेे। बे कहत हैं-
काम के बान कामनिन खों भये, कारे नंद दुलारे

बाकी जे फागुन मईना में सबई खों मिल जुल के रहबो चइये, चाहे कछू हो जाय। औ संगे ईसुरी की जा फाग याद रखो चइये -
करके नेह टोर जिन दइयो, दिन-दिन और बढ़ईयो
जैसें मिलै दूध में पानी, ऊंसई मनै मिलैयो
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो
कात ‘ईसुरी’ बांय गहे की, खबर बिसर ने जइयो
जो सबई जनें मिल-जुल के रेहें, सो सबई दिन फागुन से नोने लगहें। सो फागुन की जै-जै, औ सबई जनें की जै-जै।
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अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस 2016 पर डॉ हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में मुख्य वक्ता के रूप में डॉ शरद सिंह

Dr Sharad Singh as a main speaker at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016.
 (22. 02. 2016)
Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 (22.03.2016)

International Mother Language Day, Aacharan, Sagar Edition 20. 02. 2016 (Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 )

International Mother Language Day, Dainik Bhaskar, Sagar Edition 20. 02. 2016 (Dr Sharad Singh at Dr Hari Singh Gour Central University on International Mother Language Day 2016 )
 

मंगलवार, मार्च 01, 2016

पुस्तक-समीक्षा .... जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण पुस्तक .... - डॉ शरद सिंह



                           पुस्तक-समीक्षा




 जनकवि ईसुरी पर महत्वपूर्ण पुस्तक

- डॉ शरद सिंह



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पुस्तक   - जनकवि ईसुरी

संपादक  - आनन्दप्रकाश त्रिपाठी

प्रकाशक  - बुंदेली पीठहिन्दी विभागडॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.)

मूल्य     - 250 रुपए

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बुन्देलखण्ड में साहित्य की समृद्ध परम्परा पाई जाती है। इस परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं जनकवि ईसुरी। वे मूलतः लोककवि थे और आशु कविता के लिए सुविख्यात थे। रीति काव्य और ईसुरी के काव्य की तुलना की जाए तो यह बात उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु युग में लोककवि ईसुरी को बुन्देलखण्ड में जितनी ख्याति प्राप्त हुई उतनी अन्य किसी कवि को नहीं। ईसुरी की फागें और दूसरी रचनाएं आज भी बुंदेलखंड के जन-जन में लोकप्रिय हैं। ईसुरी की फागें लोक काव्य के रूप में जानी जाती है और लोकगीत के रूप में आज भी गाई जाती है। डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) के बुंदेली पीठ से प्रकाशित जनकवि ईसुरीपुस्तक ईसुरी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जानने, समझने की दिशा में महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में उपन्यास अंश एवं वैचारिक टिप्पणियों सहित कवि ईसुरी पर केन्द्रित कुल छब्बीस लेख हैं। पुस्तक का संपादन प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने किया है।

पुस्तक की भूमिका लिखते हुए प्रो. आनन्दप्रकाश त्रिपाठी ने ईसुरी के संदर्भ में जनकवि होने के अर्थ की व्याख्या की है। प्रो. त्रिपाठी के अनुसार, ‘जनकवि के फ़जऱ् से वे (ईसुरी) कभी गाफि़ल नहीं हुए। समाज के प्रति अपने सरोकारों को ले कर वे निरन्तर सजग रहे। किसान, स्त्री और समाज के पीडि़त आम आदमी के लिए उनके मन में गहरी सहानुभूति और संवेदना थी। अपने अंचल की ग्राम्य जीवन की समस्याओं, प्राकृतिक आपदाओं, पर्यावरण संकट, बढ़ती आबादी पर उन्होंने चिन्ता जताई।
जो अपनी सृजनात्मकता के माध्यम से जन की दशा और दिशा का चिन्तन करे, विश्लेषण करे और रास्ता सुझाए, वही जन साहित्यकार हो सकता है। कवि ईसुरी इस अर्थ में सच्चे जन कवि थे। ईसुरी का जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, वे किस प्रकार के संकटों से जूझते रहे इस पक्ष पर पुस्तक के पहले लेख ईसुरी की जीवन यात्रा’ (नाथूराम चैरसिया) से समुचित प्रकाश पड़ता है। इसी दिशा में लोकेन्द्र सिंह नागर का लेख ईसुरी और रजऊ की खोज मेंईसुरी और रजऊ के अस्तित्व का अन्वेषण करता है। इसे पढ़ कर ईसुरी के देशकाल से जुड़ना आसान हो जाता है।
ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र में मात्रा रजऊहै, दूसरी स्त्री नहीं। ईसुरी की कविताओं में प्रेम का जो रूप उभर कर आया है वह आध्यात्म की सीमा तक समर्पण का भाव लिए हुए है, जहां व्यक्ति को अपने प्रिय के सिवा कोई दूसरा दिखाई नहीं देता है और व्यक्ति उसकी हर चेष्टा से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है। श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति नैतिक बंधनों में पर्याप्त छूट लेने की अनुमति देती है।  यह छूट रीतिकालीन कवियों की कविताओं में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ईसुरी  की श्रृंगारिकता में सामान्य रूप से कुंठाहीनता, शारीरिक सुख की साधना, प्रेमजन्य रूपलिप्सा, भोगेच्छा, नारी के प्रति प्रिय के  दृष्टिकोण आदि शास्त्रीय लक्षणों से युक्त है।
ईसुरी के जीवन और सृजन पर रजऊनाम की स्त्री का गहरा प्रभाव था। यद्यपि इस बात में मतभेद है कि रजऊउस स्त्री का नाम था अथवा स्नेहमय सम्बोधन। किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि रजऊके प्रति ईसुरी को अगाध प्रेम था और उन्होंने अधिकांश काव्य रजऊ के संदर्भ में ही रचा है। ईसुरी के काव्य में रजऊ की उपस्थिति का आकलन एवं विवेचन करने वाले लेख हैं-‘‘लोककवि ईसुरी के प्रेमोच्छ्वास‘ (अम्बिकाप्रसाद दिव्य), ‘ईसुरी की फागों में रूप सौंदर्य’ (रामशंकर द्विवेदी), ‘ईसुरी के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश दुबे), ‘ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (शरद सिंह) तथा। इनके अतिरिक्त नर्मदा प्रसाद गुप्त का लेख ईसुरी की काव्य-प्रेरणा और रचना-प्रक्रियाभी ईसुरी के व्यक्तित्व-कृतित्व को समझने में सहायक है। इ।सुरी के फाग साहित्य को समझने की दृष्टि से यह लेख बहुत महत्वपूर्ण है। फागों के बारे में स्पष्ट करते हुए लेखक ने लिखा है कि पहले यह भ्रान्ति थी कि वे लोकरचित हैं किन्तु पुनरुत्थान के फागकारों और खासतौर से ईसुरी ने इस कुहर को साफ़ कर दिया। ...फागकार एक तो एकान्त में फागें रचता है, दूसरे सम्वाद की स्थिति में।
ईसुरी के काव्य में स्त्री, स्त्री उसका रूप-लावण्य, प्रेम और आध्यात्म की अद्भुत छटा दिखाई देती है। बहादुर सिंह परमार का लेख ईसुरी का समाज बोधतथा आनन्दप्रकाश त्रिपाठी का लेख ईसुरी की कविता में स्त्री समाजईसुरी के सामाजिक सरोकारों पर आधारित है। ये लेख इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि ईसुरी मात्र रीतिकालीन लक्षणों से प्रोतप्रोत कवि नहीं थे अपितु वे प्रगतिशील दृष्टि से परिपूर्ण सामाजिक चेतना भी रखते थे। ईसुरी का समाज बोधलेख से ज्ञात होता है कि लोक कवि के मुख से समाज की विद्रूपताओं एवं लोमन की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है।स्त्री समाज का अभिन्न हिस्सा है अतः ईसुरी के काव्य में स्त्री के स्वरूप को समझे बिना ईसुरी के काव्य को समझा नहीं जा सकता है। कुछ विद्वान ईसुरी के काव्य में श्रृंगार के अतिरेक को अश्लीलता ठहराते हैं किन्तु जैसा कि ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (आनन्दप्रकाश त्रिपाठी)लेख में भी स्पष्ट किया गया है कि श्रृंगार रस में डूबते हुए ईसुरी ने रजऊके अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री को ध्यान में नहीं रखा है। उनका सारा प्रेम या प्रेमासिक्त विवरण रजऊपर ही जा ठहरता है। आननदप्रकाश त्रिपाठी लिखते हैं कि-वस्तुतः ईसुरी के काव्य में नारी जीवन की बहुरंगी छवियां अंकित हैं। स्त्री समाज को उन्होंने पूरी संवेदना और सहजता के साथ चित्रित किया है।वहीं ईसुरी के काव्य में स्त्री’ (शरद सिंह) में भी यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि ईसुरी को मात्र दैहिक कवि मान लेना उनके काव्य के एक पक्ष को देखने के समान है। उनके काव्य में मिलन की तमाम आकांक्षाएं हैं किन्तु मिलन का वह विवरण नहीं है जो कई रीतिकालीन कवियों की कविताओं में खुल कर मुखर हुआ है। ईसुरी ने अपनी श्रृंगारिक कल्पनाओं को उन्मुक्त उड़ान भरने दिया है किन्तु उन कल्पनाओं की उड़ान के केन्द्र में मात्र रजऊहै, दूसरी स्त्री नहीं।
ईसुरी के लोक का महाकाशलेख में वसंत निरगुणे ने लिखा है कि मेरी दृष्टि में ईसुरी ने रजऊ में उस विराट स्त्री के दर्शन कर लिए थे, जिसे ब्रह्मा ने पहली बार रचा था। यह ईसुरी का लोक रहा जिसमें रजऊ बार-बार आती है और स्त्री की नई व्याख्या ईसुरी के छंद में उतरती जाती है।
दुर्गेश दीक्षित का लेख ईसुरी की आध्यात्म चेतनाईसुरी के काव्य के वस्तु विषय के क्रमिक विकास और उनकी आध्यात्मिकता प्रस्तुत करता है। तृप्ति के बाद विरक्ति का क्रम शाश्वत है।दुर्गेश दीक्षित का यह वाक्य ईसुरी के उसे भाव की ओर संकेत करते हैं जिनमें पहले तो कवि अपनी रजऊकी लौकिकता का वर्णन करते हैं और अंततः उसे नईयां रजऊ काऊ के घर में, बिरथां कोऊ भरमेंकह कर अलौकिक बना देते हैं।
पुस्तक की विशेषता यह भी है कि इसमें ईसुरी पर विविध विधाओं की सामग्री को संग्रहीत किया गया है। पर बीती नई कहत ईसुरी’ (रमाकांत श्रीवास्तव), ‘ईसुरी और उनके समकालीन गंगाधर व्यास’ (गुणसागर सत्यार्थ), ‘ईसुरी के काव्य में रजऊ’ (वेदप्रकाश दुबे), ‘पुनर्पाठ में ईसुरी’ (श्यामसुंदर दुबे), ‘जनकवि ईसुरी: प्रासंगिकता के नए संदर्भ’ (कांतिकुमार जैन), उपन्यास अंश कही ईसुरी फाग’ (मैत्रेयी पुष्पा) एवं प्रेम तपस्वी’ (अंबिकाप्रसाद दिव्य), नाटक यारौं इतनो जस कर लीजो’ (गुणसागर सत्यार्थी), कविताएं ईसुरी को याद करते हुए’ (आशुतोष कुमार मिश्र) तथा आकलनयुक्त टिप्पणियांे ने पुस्तक को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। कही ईसुरी फागहिन्दी की सुपरिचित लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का बहुचर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास में ईसुरी के मानवीय स्वभाव और चरित्र की दृष्टि से रजऊ और ईसुरी के पारस्परिक संबंध का आकलन किया गया है अतः पुस्तक में इस उपन्यास के अंश को शामिल किया जाना आवश्यक था। इसी प्रकार प्रेम तपस्वीउपन्यास ईसुरी के सम्पूर्ण जीवन पर प्रकाश डालता है अतः इसके अंश का समावेश भी समीचीन है। आशुतोष कुमार मिश्र का यह काव्यांश ईसुरी के कृतित्व को बखूबी रेखांकित करता है-
सही-सही बताना कवि
तुमने फाग लिखे हैं
कि रजऊके इंतज़ार के
घने वृक्ष लगाए हैं। 
बुंदेली अध्ययन मालाके अंतर्गत प्रकाशित जनकवि ईसुरीपुस्तक कवि ईसुरी के लगभग प्रत्येक पक्ष पर गहन दृष्टि डालने वाली सामग्रियों से परिपूर्ण है तथा यह शोधार्थियों सहित साहित्यिक अभिरुचि सभी पाठकों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय पुस्तक है।      
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