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शुक्रवार, नवंबर 04, 2022

कहानी | सोचा तो होता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | "जनसत्ता" दीपावली विशेषांक 2022 में प्रकाशित

देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्र "जनसत्ता" के वार्षिक अंक "दीपावली 2022" में अपनी कहानी "सोचा तो होता" को प्रकाशित देख कर जो प्रसन्नता हो रही है, उसे आप सब से साझा कर रही हूं। 
   🌷हार्दिक धन्यवाद एवं हार्दिक आभार  Mukesh Bhardwaj जी तथा Surya Nath Singh जी 🙏
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कहानी
सोचा तो होता
  - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

‘‘क्या जरूरत थी झगड़ा करने की? है!‘‘ आरती पुकारते हुए बोली उसके मन में दबी हुई चिंगारी अचानक भड़क उठी। उसे लगने लगा कि वह कृष्णा को मार- मार कर अधमरा कर दे। इस मुए ने ऐसा लांछन लगवाया है कि पिछली जिंदगी के सारे बही खाते एक बार फिर खोल कर रख दिए गए।
आज दोपहर से आरती का मन खराब हो चला था और इसका जिम्मेदार था उसका अपना बेटा कृष्णा। आरती को यूं भी आए दिन सत्रह तरह की बातें सुननी पड़ती हैं। आरती ने ब्याह के बाद जिस दिन, जिस घड़ी इस घर में पांव रखा था उसी दिन से बल्कि उससे भी पहले से उसके साथ कई ताने जुड़ गए थे। ब्याह पक्का होने के साथ ही उसे यह जता दिया गया था की आरती जैसी लड़की को अपने घर की बहू बनाने जा रहे उसके सास-ससुर देवतुल्य उदार हैं। वरना कोई भी उसे अपने घर की बहू बनाना स्वीकार न करेगा। सारे गांव समाज के साथ साथ आरती की मां और मामा भी आरती के ससुराल पक्ष के कृतज्ञ थे जिन्होंने उनके कलंकित घर की लड़की को बहू के रूप में स्वीकार किया था।
‘‘संभल के रहियो, लल्ली! कहीं यह भी अपने बाप जैसी निकली तो समझो हो गया कल्याण तुम्हारे कुल-खानदान का!‘‘ आरती की मुंह दिखाई की रस्म के समय किसी औरत ने लल्ली यानी आरती की सास को सचेत करते हुए कहा था। इस चेतावनी का स्वर इतना ऊंचा था की कम से कम आरती तो साफ-साफ सुन ही ले। कलेजा कट कर रह गया था आरती का। लेकिन वह कर ही क्या सकती थी? यह सब तो उसके भाग्य में उसके पिता ने ही लिख दिया था। वह सिर झुकाए अपने पैरों के मेहंदी रची अंगूठों को इस प्रकार आंखें गड़ाए देखती रह गई थी, जैसे दोनों अंगूठों की मेहंदी में कोई अंतर तलाश रही हो। या फिर, अंगूठे से धरती को कुरेदते हुए इतना गहरा गड्ढा कर लेना चाहती हो कि उसमें समा सके। आसान नहीं होता है सरेआम कोई लांछन सुनना और सहना। घूंघट के भीतर आरती की काजल रची आंखें आंसुओं से भर गई थीं। वह रोना नहीं चाहती थी लेकिन रोना तो उसके भाग्य में लिखा जा चुका था, कम से कम वह तो यही मानती थी।
‘‘नहीं री, भुजना की मां! यह सब घर के माहौल की बात होती है। हमारे यहां सब ठीक रहेगा।‘‘ आरती की सास ने उस औरत अर्थात भुजना की मां को ढाढस बंधा ते हुए कहा।
‘‘बुरा मत मानियो लल्ली, मगर वो कहते हैं न कि ऐसी चीजें इंसान के खून में रहती है जैसा बाप वैसे बच्चे। आखिर ये भी है तो कीरत की ही बेटी।‘‘ भुजना की मां तो मानो आरती को नीचा दिखाने की कसम खाकर आई थी। गोया आरती से उसकी कोई जाती दुश्मनी थी। आरती भुजना की मां से पूछना चाह रही थी कि तुम्हारी मुझ से क्या दुश्मनी है? क्यों मेरे पीछे पड़ी हो? यह तो ठीक था कि आरती की सास आरती का पक्ष ले रही थी भले ही अहसान जताने की मुद्रा में।
‘‘यह बात बेटों पर जाती है, बेटियों पर नहीं! बेटी तो पैदा ही होती हैं दूसरे के घर के लिए.... और फिर ऐसे घर की बेटियों का कोई उद्धार न करें तो क्या होगा इन बेचारियों का? आखिर इसमें इनका क्या दोष? यह क्यों भुगते अपने बाप के कुकर्मों को? आरती की सास ने भुजना की मां को जवाब देते हुए अपने बड़प्पन को भी बड़ी सरलता से स्थापित कर लिया।
आरती के भीतर उमड़ता घुमड़ता क्रोध और विवशता का दबाव इस तरह एकाकार हो गया की आंखों से आंसू बह निकले। घूंघट की ओट में आंसू बहाती रही।
‘‘अरे भौजी तो रो रही हैं!‘‘ पास बैठी एक बालिका का ध्यान आरती के आंसुओं की ओर गया और वह बोल उठी।
‘‘पीहर की याद आ रही होगी।‘‘ एक अन्य स्वर सुनाई पड़ा।
वैसे यह अनुमान गलत था। आरती अपने पीहर को याद भी नहीं करना चाहती थी। करें भी क्यों? उसे अपने पीहर से जीवन भर का कलंक ही तो मिला है, कोई खजाना तो नहीं मिला। मां और भाइयों ने भी झेला है उस कलंक को और झेल भी रहे हैं। काश! बापू ने ऐसा न किया होता।


मुंह दिखाई की रस्म का एक-एक पल एक एक युग के समान बीता था। उसी समय से आरती के मन में एक अनजाना डर बैठ गया था कि जाने अब क्या होगा? उसके इस भय नहीं उसे अपने ससुराल में कभी सिर उठाकर जीने नहीं दिया। आरती सिर उठाती भी तो किसके भरोसे? पहली रात को ही उसके पति ने उससे यही बोला था कि तुम तो हमारा सिर नहीं फोड़ोगी न!
अपने पति से यह सुनकर आरती फफक कर रो पड़ी थी।
‘‘अरे? हम तो मजाक़ कर रहे थे। तुम तो रोने लगीं।‘‘ आरती के पति ने उसे बहलाते हुए कहा था। लेकिन आरती के मन में चुभी फांस चुभी ही रह गई थी। यह भी कोई मजाक है? उसका पति उससे मजाक न करता, बदले में उसे कानी, कुबड़ी, बदसूरत, काली-कलूटी - कुछ भी कह लेता। वह हंसकर सुन लेती। मगर ऐसा मजाक, जैसे कोई हंसिए से दिल चीर कर रख दे।
   

आरती भरसक प्रयास करती कि उसे किसी भी बात पर गुस्सा न आए, मगर वह भी इंसान है, कभी गुस्सा आ ही जाता है। एक बार उसे अपने छोटे देवर पर किसी बात पर गुस्सा आ गया था। गुस्से में आकर आरती ने अपने छोटे देवर की बांह पकड़ कर उसे झकझोर दिया था। उसका छोटा देवर उस समय 10 बरस का था। छोटे देवर ने बुक्का फाड़ कर रोते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया था, ‘‘अम्मा! बचाओ ! भौजी हमें मारे डाल रही हैं।‘‘
‘‘हाय रे! क्या हुआ? क्या हुआ रे छुटके?‘‘ आरती की सास बदहवास सी दौड़ी चली आई थी मानो आरती छोटे देवर को सचमुच मार डालेगी। बात जरा- सी थी, लेकिन देखते ही देखते तिल का ताड़ बन गई।
‘‘मेरी ही मति मारी गई थी जो मैं एक हत्यारे की बेटी को बहू बना के लाई।‘‘ आरती की सास ने विलापना और कोसना शुरू कर दिया और अपने माथे पर हाथ मारते हुए बोली, अब तो जन्म भर यही डर बना रहेगा कि यह कहीं किसी रोज हम में से किसी को निपटा न दे।
आरती रोती रही, बस रोती! कर भी क्या सकती थी वह रोने के सिवा। उसके भीतर का लावा आंसू बनकर ही निकलता था। खारा-खारा, लावे से कहीं ठंडा। किसी को भी भस्म नहीं कर सकता था। भीतर से खौलती और बाहर से रोती आरती अपने दुर्भाग्य के साथ जी रही थी कि आज उसके बेटे कृष्णा ने उसके घावों को बहुत गहरे कुरेद डाला।

‘‘तूने ऐसा क्यों किया रे कृष्णा?‘‘ आरती ने कृष्णा की दोनों बाहें पकड़कर उसे हिलाते हुए पूछा।
‘‘तो और क्या करता? उसने मुन्नी को छेड़ा था।‘‘ कृष्णा ने पलट कर जवाब दिया,‘‘ कोई मेरी बहन को छेड़े और मैं मुंह बाए देखता रहूं, मुझसे यह ना होगा।‘‘
कृष्णा का जवाब सुनकर सन्न रह गई आरती। क्या कृष्णा अपने नाना पर गया है? क्या भुजना की अम्मा ने सही कहा था कि यह सब इंसान के खून में रहता है? क्या उसके पिता का खून उसके शरीर से होता हुआ कृष्णा तक जा पहुंचा? आरती की पकड़ ढीली पड़ गई। कृष्णा आरती की पकड़ से छूटते ही घर से बाहर निकल गया। इधर आरती की आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठी। यूं उसे पता है कि अगर उसकी परिस्थितियां सामान्य होतीं तो कृष्णा की इस हरकत पर उसे गर्व होता। केवल वही नहीं, अपितु दूसरे लोग भी कृष्णा की प्रशंसा करते हुए कहते कि भाई हो तो ऐसा जो अपनी बहन के साथ छेड़छाड़ किए जाने को सहन नहीं कर सका और चार-पांच लफंगे लड़कों से अकेले ही जूझ पड़ा।
कृष्णा ने किसी और घर में जन्म लिया होता तो भी उसके इस साहस की तारीफ होती, लेकिन कृष्णा ने तो आरती की कोख से जन्म लिया है और आरती उस पिता की बेटी है जो हत्या के अपराध में आजन्म कारावास की सज़ा काट चुका है। इसलिए कृष्णा को उसके साहस पर बधाई कोई नहीं देगा बल्कि सभी यही कहेंगे कि कृष्णा की रगों में उसके नाना का खून दौड़ रहा है। एक हत्यारे का खून।
आरती की इच्छा होने लगी कि वह उसी समय अपने पिता के पास जाए और उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? क्या उसे एक पल को भी अपने बच्चों का ख्याल नहीं आया?
वैसे आरती को सब कुछ पता है। उसे पता है कि उसके पिता ने फुग्गन की हत्या क्यों की थी। फिर भी उसे क्षोभ है अपने पिता के कृत्य पर। इसलिए नहीं कि उसके पिता ने अपराध किया बल्कि इसलिए कि उसके पिता के इस कर्म की सज़ा उसे भी भुगतनी पड़ रही है।
बुरा समय शायद वहीं से शुरू हुआ जब से आरती के बापू कीरत और फुग्गन में दोस्ती आरंभ हुई। कहने को दोस्ती थी किंतु इसके पीछे सच्चाई कुछ और ही थी। आरती की मां सुखबाई को फुग्गन फूटी आंखों नहीं सुहाता था। उसने कीरत को इस बारे में चेताया भी था। यूं तो फुग्गन की नीयत पर कीरत को भी शंका थी। फिर भी कीरत अनदेखी करता रहा आखिर फुग्गन रसूख वाला आदमी था। किरत फुग्गन को आसानी से नहीं टाल सकता था। इसलिए उसने फुग्गन को टोंकने के बजाय अपनी बीवी सुखबाई को सचेत कर रखा था कि वह फुग्गन के सामने न निकला करें। सुखबाई को कौन- सी अटकी थी कि वह फुग्गन के सामने आती। वह तो स्वयं फुग्गन से डरी-डरी रहती थी। उसे केवल अपनी ही नहीं बल्कि अपनी दोनों बेटियों आरती और भारती की अस्मत की भी चिंता थी। हैवान आदमी का क्या भरोसा ऐसे आदमी औरतजात की उम्र नहीं देखते।
अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसीँमजाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर भाभी का बना रखा था। उसने टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन का सगर फोड़ने की नौबत आ गई। हुआ यह कि कीरत की अनुपस्थिति में आ टपका फुग्गन। पहले आंगन में बिछी चारपाई पर पसर गया। फिर उसने सुखबाई को आवाज देकर उससे पीने को एक गिलास पानी मांगा। उस समय घर पर न तो दद्दा थे और न बच्चे। दद्दा रिश्तेदारी में गए हुए थे और बच्चे बाहर कहीं खेल में मस्त थे। अब सुखबाई पानी के लिए मना कर नहीं सकती थी अतः झक मारकर सुखबाई को ही पानी लेकर फुग्गन के सामने आना पड़ा। उसने पानी का गिलास पकड़ने के बदले, सुखबाई की बांह पकड़ ली। उसने सुखबाई की अस्मत लूटने की कोशिश की। सुखबाई की चींख-पुकार के कारण फुग्गन अपने इरादे में सफल तो नहीं हो पाया, लेकिन सुखबाई दहशत से देर तक थर-थर कांपती रही। उसकी आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। अपमान और भय का मिलाजुला प्रभाव सुखबाई को गार रहा था।
जब कीरत घर आया तो सुखबाई उसे रोती हुई मिली। सुखबाई की हालत देखकर कीरत आपे से बाहर हो क्या और उसी समय चल पड़ा फुग्गन को खोजने। सुखबाई ने उसे रोकने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास आग में घी का काम कर गया था।
सुखबाई को बाद में खुद कीरत ने बताया था कि फुग्गन को देखते ही उसका खून खौल उठा। उसने आव देखा न ताव और पास में पड़ी कुल्हाड़ी उठाकर फुग्गन के सिर पर दे मारी। उस क्षण उसने सोचा भी नहीं था कि उसके हाथों एक हत्या होने जा रही है। उसने तो यह भी नहीं देखा था कि कुल्हाड़ी की धार किधर है?  संयोगवश कुल्हाड़ी की धार उल्टी थी, मगर उसकी कुल्हाड़ी का वार पड़ते है फुग्गन धराशयी हो गया था। उसने तत्काल दम तोड़ दिया था। यद्यपि कीरत को बहुत देर बाद थाने में पता चला था कि फुग्गन ने उसी समय दम तोड़ दिया था। सुखबाई को इस घटना का पता उस समय चला, जब गांव का ही एक आदमी दौड़ा- दौड़ा आया और उसने हांफते-हांफते बताया था कि कीरत पुलिस चौकी में है क्योंकि उसने फुग्गन को मार डाला है। यह सुनकर सन्न रह गई थी सुखबाई। हे भगवान ! यह क्या कर डाला कीरत ने। वह एक बार फिर थरथर कांपने लगी थी।
कीरत का मुकदमा बना उधार के लेनदेन के कारण हुई हत्या का। फुग्गन के परिवार वालों के वकील ने कहा कि पीड़ित ने फुग्गन से बड़ी रकम उधार ली थी। जब फुग्गन ने वह रकम वापस मांगी तो कीरत ने उसकी हत्या कर दी। कीरत ने भी सुखबाई वाले मामले को दबा रहने दिया। आखिर जोरू की इज्ज़त घर की इज्ज़त होती है। लोग तो यही मान बैठेंगे कि सुखबाई अपनी इज्जत नहीं बचाई बचा पाई। इससे बेटे-बेटियों का भविष्य भी चौपट हो जाएगा । ना कोई बहू देगा ना कोई बेटी लेगा। फिर भी उंगली उठाने वालों की कहीं कोई कमी होती है भला? तब कीरत  को कहां पता था की वह लाख प्रयत्न कर ले लेकिन उंगली उठाने वालों की उंगलियां वह नहीं रोक सकेगा। आजन्म कारावास की सज़ा भी उसके किए के परिणाम को बदल नहीं सकेगी। यह बात उसके छोटे बेटे सूरत की शादी के समय और भी स्पष्ट हो गई थी।
यह सारी बातें आरती को उसकी मां सुखबाई ने उस दिन स्वयं बताई थी, जिस दिन आरती पहली बार रोती हुई स्कूल से घर आई थी और चिल्लाने लगी थी कि ‘‘हमें नहीं जाना स्कूल। वहां सब लोग हमारी हंसी उड़ाते हैं। सब हमें हत्यारे की बिटिया कहते हैं, ऐसा क्यों किया बापू ने?’’
तब मां ने उसे उसके बापू की सच्चाई बताई थी किंतु आरती उस समय न तो समझ सकती थी और न समझ सकी। उसका स्कूल जाना अवश्य छूट गया। आरती स्कूल जाए या न जाए किसी को इस बात की चिंता नहीं थी। चिंता थी तो आरती के ब्याह की। नाते-रिश्तेदार भी यही सोचते थे कि ऐसे घर की लड़की को कोई अपनाएगा नही?
गांव में तो ऐसी घटनाएं आए दिन होती रहती हैं। शौच के लिए घर से बाहर निकली औरतों की अस्मत लूट ली जाती है या फिर सूने घर में घुस कर औरतों की देह को रौंदा जाता है। बात-बात पर हंसिए-दरांते और कुल्हाड़ियां चल जाती हैं। ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग अपना विवेक खो बैठते हैं। हर घटना का सार-समाचार होता है-‘‘आपसी रंजिश के चलते फलां ने फलां को मारा।’’ इसके पीछे का सच भला कौन टटोलता है? कोई नहीं! गांववाले भी नहीं!
कीरत सरकार की कृपा से सज़ा पूरी होने से पहले ही ज़ेल से छूट गया था, मगर उसके छोटे बेटे सूरत ने अड़ियल रवैया अपनाते हुए स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि उसके होने वाले ससुर नहीं चाहते हैं कि उसके बापू विवाह के समय घर पर रहें। इसलिए बेहतर है कि वे तीरथ पर चले जाएं।सूरत के बड़े भाई मूरत की घरवाली यानी सूरत की भौजी ने भी इसका समर्थन किया था। आरती भी अपने भाई और भौजी के पक्ष में जा खड़ी हुई थी।कीरत को जब इस बात का पता चला तो वह खून के आंसू रो दिया। उसने अपने बच्चों की इच्छााओं का ध्यान रखते हुए अपने दिल पर पत्थर रख लिया और तय किया कि वह तीरथ यात्रा पर चला जाएगा। सुखबाई भी अब अकेली क्या करती? कीरत को उसके बहू-बेटों ओर बेटी ने नई सज़ा सुना दी थी लेकिन इस बार सुखबाई इस नई सज़ा में अपने पति का साथ देने सुखबाई भी हो ली। दोनों ने अपनी गठरी-मोठरी बांध ली।
‘‘अम्मा तुम क्यों जा रही हो? तुम्हारे यहां होने से किसी को परेशानी नहीं है।’’ आरती ने झिझकते हुए सुखबाई से कहा थां। मूरत ने भी आरती की बात का समर्थन किया था। मगर सुखबाई नहीं मानी। आरती के मन में उस समय चोर आ बैठा था। वह चाहती थी कि अम्मा न जाएं। जाना है तो बापू ही जाएं। सबको बापू के रहने से परेशानी है, अम्मा के रहने से नहीं। मगर सुखबाई तो न जाने किस मिट्टी की बनी थी।
‘'मैंने और तुम्हारे बापू ने अलग-अलग रह कर बहुत सज़ा काट ली। अब जरा साथ-साथ रह कर भी सज़ा काट लें।’’ बड़ा चुभता उत्तर दिया था सुखबाई ने।
अम्मा का उत्तर सुन कर आरती के मन में कड़वाहट भर गई थी। बापू के लिए ऐसा ही दर्द का तो बापू को हत्या करनेे से क्यों नहीं रोका था?
सुखबाई और कीरत तीर्थ यात्रा पर चले गए। सूरत का विवाह धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। आरती अपनी ससुराल लौट आई। आरती ने अपने भाई की शादी में जी भर कर ढोलक बजाई थी। कृष्णा अपने मामा की बारात में खूब नाचा था। मुन्नी भी साथ गई थी। उसने भी ढोलक पर गाने गाए थे अपने मामा की शादी पर।
यूं तो मुन्नी साधारण नैन-नैक्श की थी लेकिन आवारा लड़कों को इससे क्या? उनके लिए तो मुन्नी का लड़की होना ही पर्याप्त था।
ज़रूर छेड़ा होगा उन लड़कों ने मुन्नी को, वरना कृष्णा उनसे यूं झगड़ा नहीं करता। आरती इतना सोच कर ही सकपका गई। उसे अपनी वह बात याद आ गई जो उसने अपनी मां को ताना मारते हुए कही थी-‘‘अच्छा!! हमारे पीछे तो कोई नहीं आता है, तुम्हारे पीछे फुग्गन क्यों पड़ा था?’’ बेटी आरती ने अपनी सच्चरित्रता को स्थापित करते हुए सुखबाई के चरित्र पर कीचड़ उछाल दिय था।
अब क्या यही बात वह अपनी बेटी मुन्नी से कह सकती है? उसी पल आरती को अपनी मां की परिस्थिति, पिता के क्रोध की सीमा और उनके द्वारा किए गए अपराध का औचित्य खुल कर सामने आ गया। दोष तो उसके बापू कीरत का भी नहीं था, यह बात आज उसकी समझ में आई। मगर अब हो भी क्या सकता था, उसकी अम्मा और बापू तो एक और सज़ा भुगतने घर से जा चुके थे। जबकि आरती और उसका बेटा एक अलग तरह की सज़ा काट रहे थे, जिसके मूल में एक ही बात थी कि -‘‘कृष्णा भी अपने नाना की तरह किसी दिन किसी की हत्या न कर दे।’’
‘‘हे भगवान, कृष्णा ऐसी गलती मत करना। मैं जीवन भर हर महीने पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाऊंगी, देवी मैया! तुम कृष्णा की रक्षा करना!’’ आरती बाहों में सिर दे कर सुबकने लगी।
कौन जानता था कि भावावेश में उठाया गया एक कदम इतने निर्दोष लोगों को जीवन भर कोई न कोई सज़ा भुगतने को विवश कर देगा।
आरती का मन चीत्कार कर उठा, ये सज़ा ओर कब तक भुगतनी पड़ेगी? वह आज भी अपने बापू को झकझोर कर कहना चाहती है कि कम से कम एक बार सोचा तो होता।
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शुक्रवार, अगस्त 05, 2022

लघुकथा | नारीशक्ति जिंदाबाद | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | युवाप्रवर्तक


पढ़िए मेरी लघुकथा और बताइए कि क्या सचमुच नारी सशक्तिकरण यही है? 👇🤔

हार्दिक धन्यवाद #युवाप्रवर्तक 🙏
https://yuvapravartak.com/67334/
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लघु कथा
नारीशक्ति जिंदाबाद !
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
           गांव के इकलौते चौराहे पर पंडाल लगा हुआ था।  पंडाल के नीचे एक ओर घूंघट वाली महिलाएं बैठी हुई थी और दूसरी ओर पुरुष वर्ग। सजे-संवरे मंच से सरपंचपति भैयाजी महिला सशक्तिकरण पर जोर-शोर से भाषण दे रहे थे।
     सरपंचपति भैयाजी का भाषण समाप्त हुआ तो उनके बाजू में बैठे बीडीओ ने उनसे पूछा,"भाभी जी क्यों नहीं आई?"
     "उनका यहां क्या काम? वे यहां आ जातीं तो वहां घर पर चूल्हा-चौका कौन सम्हालता?" बत्तीसी दिखाते हुए सरपंचपति ने बीडीओ से कहा।
      "मगर सरपंच तो वे हैं।" बीडीओ ने हिम्मत करके कहा।
      " लेकिन पति तो हम हैं।" बेशर्म हंसी हंसते हुए सरपंचपति भैयाजी ने कहा।
      उसी समय कुछ समर्थक नारे लगाने लगे-
"भैया जी जिंदाबाद!"
"नारी शक्ति जिंदाबाद!"
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सागर (म.प्र.)

#लघुकथा #डॉसुश्रीशरदसिंह #नारीशक्ति #स्त्रीसशक्तिकरण #सरपंच #सरपंचपति

गुरुवार, जून 23, 2022

कहानी | चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | पहला अंतरा पत्रिका

साहित्यिक पत्रिका "पहला अंतरा" के अप्रैल-जून 2022 अंक में मेरी कहानी "चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय" प्रकाशित हुई है।
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कहानी

चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय
 
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह

पल भर में समय कैसे मुंह फेरता है, यह सुखबाई से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? लगने को तो यूं लगता है मानो कल की ही बात हो, मगर गिनती करने बैठो तो पूरे बारह बरस गुज़र चुके हैं, तब से अब तक। वह बूढ़ा साधू जो पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर सुबह से कबिरहा गाया करता है, उसका स्वर भी अब थक चला है। वह भूल जाता है गाते-गाते और न जाने क्या बड़बड़ाने लगता है। कीरत को लगता है कि सुखबाई सब कुछ भूल गई है। कीरत शायद समझता नहीं कि सुखबाई को उस मनहूस घड़ी का एक-एक क्षण अच्छी तरह से याद है । वह तो बारह बरस की एक-एक घड़ी को भी नहीं भूली है। कबिरहा साधू की जिस आवाज़ पर उसने ब्याह कर आने के बाद ध्यान नही नहीं दिया था, कीरत के जाने के बाद सुखबाई ने कितने ध्यान से सुना है उसके एक-एक शब्द को यह वही जानती है। 
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय 
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय......
 
कैसे हुलस के सोचा करती थी वो कि जिस दिन कीरत घर लौट कर आएगा उस दिन वो देवी मैया के मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाएगी। कीरत के मन का खाना पकाएगी और अपने हाथों से उसे खिलाएगी। कीरत से विछोह के पूरे बारह बरस वह बारह पलों में मिटा देगी। वे दिन एक बार फिर लौट आएंगे जो मूरत, सूरत और दोनों बेटियों के पैदा होने के समय से भी पहले थे।
सुखबाई को पहला झटका उस दिन लगा था, जिस दिन कीरत पहली बार जेल से घर आया था । दद्दा के क्रिया-कर्म के लिए कीरत को पेरोल पर छोड़ गया था। 
‘दद्दा, कहंा चले गए तुम! हाय रे !’ कीरत का यह बिलखना सुन कर सुखबाई को याद आया था कि उसने भी इसी तरह विलापा था, मन ही मन सही कि ‘हाय दद्दा! तुम उस दिन यहंा क्यों नहीं थे!’
काश ! उस दिन दद्दा रिश्तेदारी में दूसरे गांव न गए होते तो शायद वो अनहोनी होने से बच गई रहती। सुखबाई तो दद्दा की अनुपस्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पाई थी लेकिन खूब कोसा था दद्दा ने, सुखबाई को। सुखबाई की ननद ने तो सुखबाई को ‘डायन’ तक की उपाधि दे डाली थी, जो उसके भाई को खा गई थी। सबने अपने-अपने ढंग से अपने मन की भड़ास निकाली थी लेकिन उस समय किसी ने भी ये नहीं सोचा कि अब सुखबाई का जीवन कैसे कटेगा? एक तो चार बच्चों की जिम्मेदारी और उस पर भरी जवानी। यह जवानी ही तो उसकी दुश्मन बन गई थी। 
जिस दिन फुग्गन ने उसे पहली बार बिना घूंघट के देखा था, बस तभी से उसकी लार टपकने लगी थी। औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे। सुखबाई ने भी पहले-पहल अनदेखा ही किया। कीरत ने उसे बताया था कि फुग्गन रसूख वाला व्यक्ति है और जब-तब कीरत की मदद कर दिया करता है, पैसों के मामले में भी और धाक जमाने के मामले में भी। सुखबाई नहीं चाहती थी कि उसकी वज़ह से कीरत और फुग्गन के बीच  कोई खाई पड़े। सुखबाई की इस सोच को स्वीकृति समझ कर फुग्गन ने अपनी क्रियाशीलता बढ़ा दी। वह हर दूसरे-तीसरे दिन घर आने लगा । कभी एक गिलास पानी का बहाना तो कभी चाय का बहाना, तो कभी नन्हीं भारती को उसकी गोद से अपनी गोद में लेने का बहाना, बस, वह सुखबाई को छूने का कोई न कोई बहाना खोज निकालता। सुखबाई को बड़ी घबराहट होती।  अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसी-माज़ाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी।
टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियंा काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है। 
सुखबाई को अपने साथ-साथ अपनी दोनों बेटियों के लिए भी डर सताने लगा। भारती, यद्यपि गोद में थी और आरती घुटनों के बल रेंगती थी, मगर पापी फुग्गन का क्या भरोसा? एक बार उसके मायके के गंाव में एक ढोंगी आया था, दो माह उस गंाव में रहा था, मगर उस दौरान उसने तीन-चार बरस की तीन-तीन बच्चियों की ज़िन्दगी बरबाद कर डाली थी। वो तो गनीमत है कि उसका भेद खुल गया और गंाव वालों ने उसे मार-मार कर अधमरा कर डाला, नहीं तो और पता नहीं कितनी बच्चियों की ज़िन्दगी बरबाद करता । पुलिसवालों ने भी उस अधमरे ढोंगी को खूब जुतियाया था मगर उससे उन बच्चियों का जीवन पहले जैसा तो नहीं हो सकता था। वे अपने माथे पर एक दाग़ ले कर बड़ी होंगी, फिर कौन करेगा उनसे शादी, कैसे बसेगा उनका घर ?
सुखबाई ने फुग्गन के सामने निकलना बंद कर दिया। फुग्गन के आने की आहट पा कर वो घर में ऐसे दुबक जाती जैसे बाज़ के डर से गौरैया दुबक जाती है। फुग्गन से भी यह परिवर्तन छिपा नहीं रह सका ।
‘का बात है, भौजी आजकल दिखती नहीं हैं! नाराज़ हैं का हमसे? कौनऊ  गुस्ताख़ी हो गई है का हमसे?’ फुग्गन निर्लज्ज की भांति कीरत से पूछने लगता ।
‘अरे नहीं, ऐसे ही कुछ काम में लगी है !’ कीरत टालते हुए उत्तर देता, और फिर ऊंचे स्वर में सुखबाई को आवाज़ देता, ‘देखो, तुम्हारे देवर आए हैं, चाय बन जाए तो पुकार लइयो, तब तक मूरत से पानी तो भेजवा देओ !’ 
यही सिलसिला चलता रहा, जब तक कि फुग्गन ने कीरत की पीठ पीछे घर में पांव नहीं रखा । वह दिन, वह घड़ी सुखबाई कभी भूल नहीं सकी। दद्दा रिश्तेदारी में गए हुए थे, मूरत और सूरत बाहर खेल रहे थे, आरती खाट पर और मालती झूले में सो रही थी, कीरत भी घर पर नहीं था । उस दिन फुग्गन ने दरवाज़े की कुण्डी भी नहीं खटकाई, उसे पता था कि कीरत घर पर नहीं है । लगभग सूने घर में अकेली सुखबाई, फुग्गन के लिए इससे अच्छा अवसर और भला क्या हो सकता था ? सुखबाई को आहट तो मिली थी, मगर कुण्डी खटकाने की आवाज़ के अभाव में उसने समझा कि बच्चे होंगे। जब तक सुखबाई कुछ समझ पाती, तब तक फुग्गन ने पीछे से उसे दबोच लिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण से हड़बड़ा कर सुखबाई ऐसी छटपटाई कि पहली पकड़ के बाद ही फुग्गन के बंधन से छूट खड़ी हुई। फुग्गन ने फिर प्रयास किया । सुखबाई बिल्ली के पंजे के समान अपनी उंगलियों से फुग्गन पर प्रहार करने लगी । कुछ देर की छीना-झपटी के बाद सुखबाई को समझ में आ गया कि फुग्गन उस पर भारी है, सुखबाई ने चींखना-चिल्लना शुरू कर दिया । जाने उसकी चींख में दम नहीं थी या घर के आस-पास कोई था ही नहीं, उसकी चींख सुन कल कोई नहीं आया। यद्यपि, फुग्गन डर गया कि कहीं कोई आ न जाए, वह भाग खड़ा हुआ। 
फुग्गन के जाते ही सुखबाई धम्म से वहीं ज़मीन पर गई । अस्मत तो उसने बचा ली थी मगर अब साहस जवाब दे गया था। फटे कपड़ों में, अपने घुटनों में सिर दिए, बैठी-बैठी वह अंासू बहाती रही। दद्दा से पहले कीरत आया, काश ! दद्दा पहले आए होते । कीरत ने सुखबाई की दशा देखी तो वह सकते में आ गया, क्या हुआ ? ये लो क्यों रही है ? कहीं दद्दा को तो कुछ नहीं हो गया ?
‘क्या हुआ सुक्खू ? तू रो क्यों रही है ? बता न क्या हुआ ?’ कीरत ने घबरा कर सुखबाई को कंधे से पकड़ कर झकझोर दिया, तभी उसे अहसास हुआ कि सुखबाई के कपड़े फटे हुए हैं ।
‘कौन आया था ?’ दूसरा प्रश्न यही था कीरत का ।
सुखबाई के हलक से आवाज़ नहीं निकल पाई लेकिन कीरत समझ गया और दनदनाता हुआ चल दिया फुग्गन के पास। 

कीरत को जेल की सज़ा होने के बाद कई रातें सुखबाई ने रो-रो कर काटीं । उसके आगे की कई लातें करवट बदल-बदल कर काटीं । उसका कोमल मन इस बात को ले कर और अधिक द्रवित हो उठता कि जेल में कीरत की रातें कितनी कठिनाई से कट रही होंगी । कभी-कभी सुखबाई को स्वयं पल क्रोध आता कि वह उस दिन अपने-आप पर नियंत्रण रख पाई होती तो कीरत को जेल न जाना पड़ता । सचमुच  ये सब उसी के कारण तो हुआ, सुखबाई का मन टीसता रहता । सुखबाई की उस दिन बड़ी विचित्र मनोदशा थी जिस दिन कीरत को पहली बार पेरोल पर घर आना था। चचिया देवर कीरत को लेने गया था । अंागन में दद्दा का शव रखा हुआ था । नाते-रिश्तेदार जुड़ गए थे । सभी को कीरत की प्रतीक्षा थी । दद्दा की चिता को आग, कीरत को ही देनी थी । पूरे घर में रोना-पीटना मचा हुआ था । सुखबाई की ननद खबर पाते ही अपनी ससुराल से दौड़ी चली आई थी । नंदेऊ भी साथ आया था, और बड़ा लड़का भी । ननद बुक्का फाड़ कर और छाती पीट-पीट कल रो रही थी । माना कि बाप के मरने का दुख बेटी को होना ही था, मगर उसके रोने में दुख कम और प्रदर्शन अधिक था । वह ऐसे संवेदनशील समय  में भी सुखबाई को कोसना नहीं भूली । उसने गरियाते हुए कहा था, ‘‘जे ससुरी हमाई भौजी नई, डायन है, डायन! पैले भैया को जेल भेजवा दओ, औ अब दद्दा को खा गई । अब जुड़ा गई छाती ? अब मिलहे छुट्टा ऐश करबे के लाने .....’’
क्या कहती सुखबाई ? खून का घूंट पी कर रह गई थी । जी में तो आया कि साफ़-साफ़  कह दे कि उसने नहीं कहा था कीरत को कि वो फुग्गन का सिर फोड़ दे, उसकी जान ले ले । लेकिन सुखबाई जानती थी कि कोई लाभ नहीं है मुंह खोलने से। सब उसे ही कोसेंगे, जलील करेंगे । जब से कीरत जेल गया था तब से उसे धिक्कार और प्रताड़ना के अलावा मिला ही क्या था । गंाव, रिश्तेदारी में सब उसे हत्यारे की बीवी कहते हैं, कभी प्रत्यक्ष में तो कभी परोक्ष में । वह मूंड़ औंधाए ज़िन्दगी काट रही है, और करे भी तो क्या? आवेश पल भर का और सज़ा ज़िन्दगी भर की।
सोना, सज्जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार
दुर्जन कुंभ-कुम्हार के, एकै धका दरार......

कीरत ने घर में पंाव रखा तो सुखबाई का कलेजा मुंह को आ गया । पहले से आधा शरीर रह गया था कीरत का । चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी जिसके कारण उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो वह जेल से नहीं बल्कि किसी लम्बी बीमारी के बाद अस्पताल से छूट कर आ रहा हो । घर का माहौल ऐसा था कि सुखबाई और कीरत की आपस में नज़र भी न मिल पाई । कीरत ने जैसे ही दद्दा के शव को देखा तो बिलखता हुआ शव से लिपट गया । 
‘दद्दा, कहंा चले गए तुम, हाय रेे !’ विलाप कर उठा था कीरत ।
सुखबाई से कीरत का बिलखना देखा नहीं गया । उसने कीरत को कभी रोते हुए भी नहीं देखा था। कीरत का विलाप सुन कर सुखबाई को चक्कर आ गया और वह गश खा कल गिर गई । जब उसे होश आया तो उसने खुद को औरतों के बीच एक कमरे में पाया । होश आते ही उसके मन में जो पहली बात कौंधी वह थी कि कीरत कहंा गया ? वह हड़बड़ा कर उठी और अंागन की और लपकी । एक औरत ने उसे थाम लिया और धीरज बंधाने लगी । 
‘दद्दा कहंा गए?’ उसने कीरत को न पूछ कर दद्दा के बारे में पूछा । यह उसका सहज संकोच  था, कोई सोचा-समझा प्रश्न नहीं था । 
‘ठठरी उठ गई, बिन्ना ! अब दद्दा कभऊं न आहें !’ एक बूढ़ी औरत ने कहा । दद्दा की अर्थी ले जाई जा चुकी थी । कीरत भी साथ में चला गया था । आग भी तो उसी को देना था, वह भला कैसे रुकता?
कीरत को पेरोल पर तीन दिन के लिए छोड़ा गया था। दद्दा की तेरहवीं के लिए आ पाएगा या नहीं , यह निश्चित नहीं था । सुखबाई के मन में बस एक ही चाह कुलबुला रही थी कि कम से कम दो पल के लिए ही सही कीरत उसके पास आ जाए । वह कीरत को जी भर कर देख ले। मगर उसे भय था कि उसकी ये चाह पूरी नहीं हो पाएगी । शोक वाला घर था। रिश्तेदारों की भरमार थी। दुख का वातावरण था। कीरत को ढाढस बंधाने वालों का तंाता लगा हुआ था। वैसे सच्चाई तो ये थी कि ढाढस बंधाने से कहीं अधिक उत्सुकता थी कीरत के रूप में सज़ा काट रहे हत्यारे को निकट से देखने की।
रात को सुखबाई अपने कमरे में आ गई थी । बच्चे सो चुके थे । सुखबाई ठंडी दीवार से पीठ सटा कर ,घुटने पर सिर रख कर बैठ गई थी । उसके मन में कीरत का चेहरा उमड़-घुमड़ रहा था । बैठे-बैठे, सोचते-सोचते जाने कब नींद लग गई । जब किसी ने अपने मज़बूत पंजे में उसकी बंाह दबोची तब वह अचकचा कर जाग गई । सामने कीरत था । अपने सामने कीरत को पा कर उसे खुश होना चाहिए था किन्तु पहली बार उसके मन में सिहरन दौड़ गई । उसे लगा मानो उसके सामने कीरत न हो बल्कि कोई अपरिचित चेहरा हो, मर चुके फुग्गन का या फिर उसे मारने वारे हत्यारे कीरत का । उस क्षण पहली बार सुखबाई के मस्तिष्क में यह विचार आया था कि कीरत एक इंसान की हत्या कर चुका है । वह हत्यारा है । वह किसी की भी हत्या कर सकता है । इससे आगे उसे सोचने का समय ही नहीं मिल था । कीरत ने उसे सोचने का अवसर ही नहीं दिया । फिर भी सुखबाई उसे समय वहंा हो कर भी नहीं थी । उसके  मानस पटल पर वे दृश्य घूमने लगे थे जो कीरत के कारावास के लिए उत्तरदायी थे।
ग़रीबी थी मगर वह समय ऐसा बुरा नहीं था। बुरा समय शायद वहीं से शुरू हुआ जब से कीरत और फुग्गन में दोस्ती आरम्भ हुई। सुखबाई की हालत देख कर कीरत आपे से बाहर हो गया और उसी समय चल पड़ा फुग्गन को खोजने। सुखबाई ने उसे रोकने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास आग में घी का काम कल गया । 
सुखबाई को बाद में खुद कीरत ने बताया था कि जब वह फुग्गन को ढूंढते पहुंचा तो फुग्गन अपने एक लंगोटिया के यहंा बैठ कर दारूखोरी कल रहा था। कीरत ने फुग्गन को देखा तो उसका खून खौल उठा । उसने आव देखा न ताव और पास में पड़ी कुल्हाड़ी उठा कल फुग्गन के सिर पर दे मारी । उस क्षण उसने सोचा भी नहीं था कि उसके हाथों एक हत्या होने जा रही है । उसने तो यह भी नहीं देखा था कि कुल्हाड़ी की धार किधर है। संयोगवश कुल्हाड़ी उल्टी थी मगर उल्टी कुल्हाड़ी का वार पड़ते ही फुग्गन धराशयी हो गया । उसने तत्काल दम तोड़ दिया । यद्यपि, कीरत को बहुत देर बाद थाने में पता चला था कि फुग्गन ने उसी समय दम तोड़ दिया था। सुखबाई को इस घटना का पता उस समय चल जब गंाव का ही एक आदमी दौड़ा-दौड़ा आया और उसने हंाफते-हंाफते बताया कि कीरत पुलिस चैकी में है क्योंकि उसने फुग्गन को मार डाला है। यह सुन कर सिहर गई थी सुखबाई। हे भगवान! ये क्या कर डाला कीरत ने! वह एक बार फिर थरथर कंापने लगी थी । 
कीरत का मुकद्दमा बना उधार के लेन-देन के कारण हुई हत्या का। फुग्गन के पुलिवालवालों के वकील ने कहा कि कीरत ने फुग्गन ने बड़ी रकम उधार ली थी। जब फुग्गन ने वह रकम वापस मंागी तो कीरत ने उसकी हत्या कर दी । फुग्गन के रिश्तेदार नहीं चाहते थे कि फुग्गन की मौत के बाद उसकी बदचलनी खुलेआम चर्चा का विषय बने, इससे उनकी साहूकारी-साख को धक्का लगता। कीरत ने भी सुखबाई वाले मामले को दबा रहने दिया। आखिर जोरू की इज्जत घर की इज्जत होती है। लोग तो यही मान बैठेंगे कि सुखबाई अपनी इज्जत नहीं बचा पाई । इससे बेटे-बेटियों का भविष्य  भी चैपट हो जाएगा । न कोई बहू देगा और न कोई बेटी लेगा । कीरत ने अदालत में सज़ा सुनाए जाने से पहले ज़ेल में सुखबाई को समझाया था कि फुग्गन ने तुम्हारे साथ क्या किया, इस पल पर्दा पड़े रहने देना । मन न होते हुए भी सुखबाई ने कीरत की बात मान ली थी और अपना मुंह बंद रखा था । फिर भी उंगली उठाने वालों की कहीं कोई कमी होती है भला ? लोगों ने यहंा कह डाल कि कीरत ने कर्ज न चुकाना पड़े इसके लिए फुग्गन से सुखबाई का सौदा भी करना चाहा था मगर फुग्गन न माना और बात बिगड़ गई । 
सुखबाई सब कुछ चुपचाप झेलती-सहती रही । इसके अलवा उसके पास और कोई चारा भी न था । कीरत के जेल चले जाने से दद्दा टूट गए । वे बीमार रहने लगे। दद्दा ने सुखबाई से बोलना बंद कर दिया था । जो भी बात कहनी होती वे बच्चों के माध्यम से कहते । दद्दा भी सुखबाई को उस अपराध की सज़ा दे रहे थे जो उसने किया ही नहीं था। मगर दद्दा की दृष्टि में सुखबाई का औरत होना ही सबसे बड़ा अपराध था। किसी मेल-मुलाकात करने वाले के घर आने पर वे सुखबाई को सुना-सुना कर कहते, ‘मरद के लिए जोरू सबसे बड़ी अभिशाप होती है, जारू न होए तो मरद को कोई कष्ट न होए...जारू खुद तो हरियाती है पर मरद को सुखा-सुखा कर ठूंठ कर देती है.... ।’
दद्दा की जले-कटे उद्गार सुन कर सुखबाई का जी करता कि वह भी तमक कर पूछे कि तुम्हारी जोरू न होती तो कीरत कहंा से पैदा होता? और, जो मैं न होती तो तुम्हारे वंश का नामलेवा कहंा से आता ? मगर वह चुप रहती, यह सोच कर कि इस बूढ़े बाप ने जवान बेटे को ज़िन्दगी भर के लिए जेल जाते देखा है, कहीं, किसी पर तो भड़ास निकालेगा ही। फिर भी, इस तनाव भले वातारण में सुखबाई के भीतर की औरत तिल-तिल कर के मर रही थी, भावनाओं के स्रोत सूखते जा रहे थे और जीवन बस, जीने के लिए जीना पड़ रहा था।
यही गनीमत थी कि सुखबाई के एक भाई ने उसका साथ दिया और बीच-बीच  में आ कर देख-भाल करने लगा । इसलिए स्थिति दयनीय होने से बच गई । धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया और बच्चे बड़े होते गए। लेकिन जेल से पहले पेरोल पर घर आए कीरत की छवि सुखबाई को इतनी अपरिचित लगी कि उसका मन तय ही नहीं कर पाया कि वह किस तरह अपना पत्नीधर्म निभाए। कीरत झुंझला उठा था उसकी उत्साहहीनता पर। जबकि सुखबाई ये सोच  कर हतप्रभ थी कि शाम को दद्दा की चिता फूंक कर आए कीरत का मन कैसे हो रहा है कुछ भी करने का ? माना कि कीरत को दो दिन बाद वापस जेल लौट जाना था मगर शाम को ही तो दद्दा की...। 
वे कुल तीन रातें बड़े कष्ट से बीती थीं । कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा था सुखबाई को । शरीर भी साथ नहीं दे रहा था, सब कुछ पत्थर हो चुका था। सारा उत्साह, सारी ललक और उत्तेजना चूल्हे की उस राख की तरह ठंडी पड़ चुकी थी जिसमें अंगारे का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी शेष न बचा हो, एकदम ठंडी राख।
यही हाल रहा, जब-जब कीरत परोल पर घर आया। मूरत के विवाह के समय  कीरत ने अवसर पाते ही सुखबाई को ढेर सारा उलाहना दे डाला था।
‘मेरे जेल जाते ही मेरी तरफ से मन फेर लिया न, सुक्खू ! तुम औरतजात ऐसी ही होती हो, तुम्हें तो रोज-रोज मिलने वाल मरद चाहिए, है न !’ कीरत ने जले-भुने स्वर में कहा था।
‘राम-राम! कैसी बातें करते हो, लाज नहीं आती ? जब से तुम जेल में जा के बैठे, मेरा तो मन ही मर गया है। अब तो जी ही नहीं करता है।’ अकुला कर बोली थी सुखबाई।
‘मुझे देख कर भी ? अपने पास पा कर भी ?’ तनिक नरम पड़ा था कीरत।
‘हंा!’ स्वीकार करते ही सुखबाई ने इतना और जोड़ दिया था, ’मगर तुम जो चाहो करो, मुझे मना नहीं है।’
वह कहना तो यह चाहती थी कि तुम आते हो तो किसी साहूकार की तरह अपना अधिकार वसूलते हो और फिर महीनों के लिए अकेली छोड़ कर चले जाते हो। भूख-प्यास तो तुम्हारे जाने के बाद भी लगती है, कैसे जीती हूं मैं, ये भी तो सोचो ! 
उसके बाद न तो कीरत ने उससे कुछ कहा, सुना और न सुखबाई ने। बड़े हो चले बच्चे सुखबाई को उपेक्षा का शिकार बनाने लगे। उन्हें भी लगने लगा कि जीवन की इस गड़बड़ में अगर बाप दोषी है तो मंा भी दोषी है, सज़ा उसे भी मिलनी चाहिए थी।
‘इससे तो अच्छा था कि तुम भी जेल जा बैठतीं, कम से कम कहने को तो रहता कि हम अनाथ है....’ किसी बात पर भड़क कर सूरत ने उसे ताना मारा था । 
‘हमारे पीछे तो कोई नहीं आता है, तुम्हारे पीछे फुग्गन क्यों पड़ा था....’ बेटी आरती ने अपनी सच्चरित्रता तो स्थापित करते हुए सुखबाई पल कीचड़ उछाल दिया।

जेल से छूटे उसे दो सप्ताह हो चले हैं मगर इन कुल चैहद दिनों में उसके और सुखबाई के संबंधों में वह जीवन्तता नहीं आ सकी, जैसी कि उसके जेल जाने से पहले हुआ करती थी । शायद उम्र बढ़ चली है? नहीं, सुखबाई को कीरत के निकट जाने में भी हिचक होती। यदि पत्नी धर्म निभाना उसकी विवशता न होती तो वह कीरत से कह ही देती कि चलो हम दोनों भाई-बहन की तरह रहें। हमारे बीच पति-पत्नी जैसा कुछ भी न रहे । मगर यह कह पाना संभव नहीं था । जबकि उतना ही दरूह था अपने भीतर पहले जैसी कल-कल करती नदी को ढूंढ पाना । पहली रात, दूसरी रात, तीसरी रात...बस, कीरत के  धैर्य का बंाध टूट गया। उसने सुखबाई से कह ही दिया-‘ऐसा लगता है कि तुम बदल गई हो ! मुझसे घिन आती है तुम्हें ?’
‘नहीं तो ?’ सुखबाई ने सिर झुका कर कहा ।
‘तो फिर ?’कीरत ने पूछा ।
‘फिर क्या ?’ नासमझ की तरह बोली थी सुखबाई ।
‘तुम हमसे दूर-दूर काहे भागती हो?’ झुंझला कर बोला था कीरत,‘तुम यही सोचती हो न कि एक हत्यारे के साथ कैसे रहा जाए?’
‘नहीं-नहीं, कैसी बातें करते हो ?....वो तो अब मन नहीं करता...बहुत साल गुज़र गए न !...अब हम नाती-पोते वाले हो चुके हैं...बहू बातें बनाएगी...पराए घर की लड़की है....’ सुखबाई ने झिझकते हुए कहा था। सुखबाई का कथन कुछ प्रतिशत सच था ल्ेकिन उससे बड़ा सच  था कि अब सुखबाई को संसर्ग में रुचि  ही नहीं रह गई थी। संसर्ग के मामले में बारह बरस का लगभग बैरागी जीवन बिताने के बाद तन-मन की सूखी बेल भला कैसे हरिया पाती। 
सुखबाई की बात सुन कल कीरत को बड़ी ठेस पहुंची थी । उसके ल्एि तो मानो उसके घर का समय  बारह साल से जहंा के तहंा ठहरा हुआ था, मगर नहीं, सुखबाई ने उसे याद दिला दिया कि समय  बहुत दूर निकल चुका है । बीती हुई उम्र लौट कर नहीं आएगी । स्रोत सूख चुके हैं, मौसम हमेशा के लिए बदल चुका है, अब नदी-ताल फिर कभी नहीं भरेंगे । संकेत में ही सही ल्ेकिन सुखबाई ने जता दिया था कि अब तो शेष जीवन सूखा और बंजर ही झेलना है । उफ ! यह सज़ा भी उसके हिस्से में लिखी हुई थी, कीरत फफक-फफक कर रोता रहा था ।
‘तुमने हमें जेल में ही क्यों नहीं बताया कि हम बुढ़ा गए हैं ...हम अपनी रिहाई ठुकरा देते और कह देते कि हमें जेल में ही रहना है!’ कलपते हुए बोल उठा था कीरत ।
सुखबाई उसका रोना देख कल रूंआसी हो उठी थी। सज़ा वह भी तो भोग रही थी। 
एक-दूसरे के प्रति पछतावे और सहानुभूति के बाद भी संबंधों में ठंडक बनी रही । 
सुखबाई ने एक बात और भी ध्यान दी थी कि जेल से लौटने के बाद कीरत बड़ी-बड़ी बातें करने लगा था, कुछ-कुछ संतो-महात्माओं जैसी। वैसे कीरत ने बताया था कि कीरत को ये ज्ञान रामसिंह लोधी ने दिया था । रामसिंह लोधी कीरत के समान जेल में सज़ा काट रहा था। सब उसे लोधी दादा कह कर पुकारते थे । वह ऐसे ही ज्ञान-ध्यान की बातें करता था । जबकि लोधी दादा को पता था कि वह खुद कभी जेल से आज़ाद नहीं हो पाएगा। उसे कोई बीमारी लग चुकी थी। कौन-सी बीमारी ? यह कोई नहीं जानता था। वह एक मामूली तबके का अपराधी था, कीरत के समान । वह न तो राजनीति से जुड़ा हुआ था और न किसी बड़े अपराधी दल से । उसकी खैर-ख़बर लेने वाला कोई नहीं था। उसे तो ऐड़ियंा रगड़ते हुए जेल में ही दम तोड़ना था । कीरत उसके लिए चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था । वह खुद ही लाचार था ।
क्या नहीं सहा कीरत ने जेल में ? उसने सिपाहियों की गालियंा सुनी, बिना बात के उनसे लात-जूते खाए, दादा-टाईप कैदियों के लिए गुलाम जैसे काम किए । यहंा तक कि उसने उनकी देह पिपासा शंात करने के लिए औरत की भूमिका भी निभाई। अपने पौरूष के विरूद्ध जब उसने पहली बार यह पीड़ा झेली तो उसके मन ने उससे देर तक पूछा था कि क्या यह सज़ा भी उसके आजन्म कारावास की सज़ा में शामिल है? सज़ा का काग़ज़ लिखते समय क्या इसे भी जज साहब ने उसके नाम दर्ज़ कर दिया था ? क्या उसे फुग्गन का सिर उल्टी कुल्हाड़ी से फोड़ते समय इस बात का अहसास था कि जेल में उसे क्या-क्या भुगतना होगा? कदापि नहीं! लेकिन अगर उसे इन सब सज़ाओं का ज़रा-सा भी अहसास होता तो क्या वो फुग्गन का सिर नहीं फोड़ता? ज़रूर फोड़ता। इस तरह की ढेरों बातें करता, बताता रहता कीरत । सुखबाई उसकी भोगी हुई कठिनाइयों को महसूस करने का प्रयत्न करती और सिहर-सिहर जाती ।
कीरत और सुखबाई के भाग्य में एक सज़ा और ल्खिी हुई थी जिसका उन्हें अनुमान भी नहीं था । यह सज़ा सुनाई उनके अपने बेटे सूरत ने ।
‘अम्मा, बापू से कह दइयो के वे कहूं चले जाएं। काए से के हमाए ससुर साब ने मूरत के लाने एक लड़की देखी है ...और हमाए ससुर साब जे नई चाहत हैं के ब्याओ की बेला में बापू इते रहें ।’ सूरत ने दो टूक शब्दों में सुखबाई से कह दिया था ।
‘पर बेटा....’
‘नई अम्मा, तुम कछु न बोले ! हमाए खयाल से भी जेई ठीक रैहे । अखीर बापू हत्या के जुर्म में जेल काट के आए हैं।’ सूरत ने कहा और सुखबाई को कुछ बोलने का अवसर दिए बिना ही वहंा से चला गया। 
सुखबाई ही जानती थी कि सूरत उसे किस मुसीबत में फंसा गया है । आखिर जिस इंसान ने उसकी अस्मत का मान रखने के लिए हत्या की और बारह बरस की लम्बी अवधि जेल में तिल-तिल कर काटी उससे कैसे कह दे वह कि तुम फिर कहीं चले जाओ क्योंकि तुम्हारे बेटे का ब्याह होने वाला है । क्या कहे ? कैसे कहे ? उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया अतः उसने दो-तीन दिन चुप रह कर व्यतीत कर दिए । इधर सूरत ने देखा तो वह सुखबाई पर बिगड़ उठा । उसने साफ-साफ कह दिया कि वह अपने हत्यारे बाप के लिए अपने निर्दोष भाई की ज़िन्दगी बरबाद नहीं कर सकता है । इस पर सुखबाई ने वादा किया कि वह कीरत से इस बारे में बात करेगी। 
‘सूरत कह रहा था कि उसके ससुर ने मूरत के लिए लड़की देखी है....’
‘अरे वाह ! ये तो अच्छी बात है ।’ कीरत ने खुश हो कर कहा ।
‘मगर...लड़की वाले ब्याह में हिचक रहे हैं ....’
‘क्यों ?’
‘वे सोचते हैं कि तुम अब घर में ही रहोगे तो...’ इसके आगे सुखबाई ने बात अधूरी छोड़ दी। पूरा कहने को कुछ था भी नहीं। बिना कहे भी कीरत बात समझ गया। लड़की वाले भला उस घर में अपनी बेटी को भेजने में हिचकेंगे ही जहंा एक हत्यारा रह रहा हो ।
कुछ देर चुप रहा कीरत। सुखबाई भी चुप रही। वह कीरत के उत्तर की प्रतीक्षा करती रही। कीरत ने अप्रत्याशित-सा प्रश्न किया-‘कितने दिनों के लिए जाना होगा मुझे ?’
‘तुम्हें ?’ सुखबाई हिचकिचाई ।
‘हंा, शादी वाले घर में औरतों के लिए ज्यादा काम रहता है । तुम्हारा यहीं रहना ठीक होगा ! ’ कीरत ने कहा ।
 ‘नहीं, मेरा भी यहां कोई काम नहीं है। मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी । मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी ।’ सुखबाई ने आग्रह किया । उसका ये आग्रह दिखावा नहीं था । वह कीरत का साथ देना चाहती थी। बंजर हो चुकी धरती भले ही फिर न हरियाएगी लेकिन एक-दूसरे के साथ की नमी तो उन्हें भिगोए रखेगी। 
 आवेश में घटी एक घटना कितनी दूर तक अपना असर छोड़ती है, इसका प्रमाण सुखबाई और कीरत की ज़िदगी के इस मोड़ पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता था। सुखबाई और कीरत अपना-अपना सामान बांधने लगे। सामान भी क्या था, चार जोड़ी कपड़े और उनकी अपनी धार्मिक आस्था से जुड़ी कुछ वस्तुएं। कबिरहा साधू के बोल सुखबाई के होठों पर तैर गए और वह सामान बांधती हुई गुनगुनाने लगी।
सांझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय
चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय .....
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#कहानी #हिंदीकहानी #कथा #कथासाहित्य #डॉसुश्रीशरदसिंह #पहलाअंतरा

सोमवार, मई 09, 2022

सुश्री भारती परिमल द्वारा कथाकार डाॅ (सुश्री) शरद सिंह की कहानी "थोड़ा-सा पागलपन" की ऑडियो प्रस्तुति

Thoda sa pagalpan Story of Dr (Miss) Sharad Singh Read by Ms Bharti Parimal


ब्लाॅग मित्रो,

विदुषी भारती परिमल ने मेरी कहानी "थोड़ा-सा पागलपन" को अपने ब्लाॅग "कभी फुरसत में ..." में अपने बड़े प्रभावी एवं भावप्रवण स्वर में प्रस्तुत किया है। 

आप भी सुनिए !!! 

हार्दिक आभार प्रिय भारती परिमल जी - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह 

 https://kabhi-fursat-me.blogspot.com/2022/05/blog-post_0.html?sc=1652084623134#c2574495921453097628

सोमवार, अप्रैल 18, 2022

कहानी | थोड़ा सा पागलपन | डॉ ,सुश्रीशरदसिंह | भास्कर | रसरंग

प्रिय मित्रो, आज दैनिक भास्कर के "रसरंग" परिशिष्ट में (यानी सभी संस्करणों में) मेरी कहानी प्रकाशित हुई है- "थोड़ा-सा पागलपन"... 
💁मुझे लगता है कि यह थोड़ा सा पागलपन हम सब में होना चाहिए!.. तो मेरी कहानी पढ़िए और बताइए कि आप इससे सहमत है या नहीं...
मेरी कहानी प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद एवं आभार #दैनिकभास्कर  🙏
दैनिक भास्कर के "रसरंग" में प्रकाशित कहानी पठन सुविधा के लिए साभार यहां दे रही हूं....   
थोड़ा-सा पागलपन
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह
        सब उसे एक ही नाम से पुकारते थे - बूढ़ी माई। बूढ़ी माई की उम्र कितनी थी, यह बताना कठिन है। काले-सफेद खिचड़ी बाल, उसकी उम्र का अनुमान लगाने में बाधा बनते थे।  
बूढी माई सुबह होते ही पता नहीं कहां से हमारी कॅालोनी में आती और रात होते-होते पता नहीं कहां चली जाती। शुरू-शुरू में सबने उसके इस आने-जाने को संदेह की दृष्टि से देखा। कोई कहता कि वह उठाईगीर है। तो कोई कहता कि वह बच्चे उठाने वाले गिरोह से है। मगर इस तरह की अटकलबाजियां धीरे-धीरे समाप्त हो गईं और बूढ़ी माई के प्रति सबके मन में दया उपजने लगी। एक दिन किसी ने बताया कि उसने बूढ़ी माई को रात के समय रेलवे स्टेशन के बाहर गुड़ीमुड़ी हो कर सोते देखा हैं तब से रहा-सहा संदेह भी दूर हो गया।
कॅालोनी की औरतें बूढ़ी माई को बचा हुआ खाना दे दिया करतीं। खाना अच्छा हो या बुरा बूढ़ी माई बड़ी रुचि से खाती। उसे इस तरह खाना खाती देख कर मन भर आता। यही लगता कि अगर बूढ़ी माई का कोई अपना सगा होता तो क्या उसे इस तरह सब के घर के बचे हुए खाने पर निर्भर रहना पड़ता? कभी लगता कि बूढ़ी माई को जरूर उसके घरवालों ने निकाल दिया होगा। छिः! आज के जमाने में रिश्ते-नातों भी स्वार्थी हो चले है।
बूढ़ी माई ने मेरे मन में जाने कब जगह बना ली मुझे पता ही नहीं चला। वह मुझे देखती और उसकी अंाखों में ममता छलकने लगती। जल्दी ही उसने मेरे घर के खुले बरामदे में रात बिताना शुरू कर दिया।
रात भर वह मेरे घर के बरामदे में सोती और सुबह होते ही काॅलोनी परिसर में लगे नीम के पेड़ के नीचे जा बैठती। फिर दिन भर वहीं बैठी रहती। क्या गरमी, क्या जाड़ा, क्या बरसात। वह नीम के पेड़ के नीचे से हिलने का नाम नहीं लेती। वह नीम का पेड़ काफी पुराना था। इस कॅालोनी के बनने के दौरान पता नहीं कैसे वह कटने से बचा रह गया। वरना इस इलाके के सारे पेड़ काट कर कॅालोनी बना दी गई थी। कॅालोनी में रहने वाले किसी को भी इससे कोई अन्तर भी नहीं पड़ता था। फिर गमलों में उगने वाले पौधे या इनडोर प्लांट तो थे ही बागवानी प्रेम के लिए। यह बात अलग है कि वह नीम का पेड़ बूढ़ी माई की भांति सबके जीवन का अनिवार्य अंग बन गया था। कॅालोनी की धर्मप्रिय स्त्रियां नीम को जल चढ़तीं। उसके तने में धागा बंाध कर मन्नतें मंागती। यही नीम का पेड़ बूढ़ी माई की दिन भर की आश्रयस्थली बन गया था।
जब कभी बूढ़ी माई की चर्चा चलती तो लोग यही कहते-‘होगी वहीं, उसी नीम के पेड़ के नीचे।’
जल्दी ही बुढ़ी माई हमारे जीवन का ऐसा हिस्सा बन गई कि हमने उसकी ओर अलग से ध्यान देना ही छोड़ दिया। उसे बचा हुआ खाना देना, पुराने कपड़े देना आदि एक सामान्य-सा व्यवहार बन गया। बूढ़ी माई ने कब मेरे घर के बरामदे छोड़ कर नीम की छांव को पूरी तरह अपना लिया, इस पर मेरा भी ध्यान नहीं गया।
ज़िन्दगी यूं ही चलती रहती अगर उस दिन शोर न मचता। सुबह के यही कोई नौ-साढ़े नौ का समय था। लगभग हर घर में आपाधापी मची हुई थी। दफ़्तर जाने वालों के तैयार होने का समय। स्कूल-बस आने का समय। कामवाली बाई के लेट करने से बेहाल महिलाओं के बड़बड़ाने का समय। लेकिन एक शोर ने सबके कामों पर ब्रेक लगा दिया। ऐसा लगा कि जैसे कोई आत्र्तनाद कर रहा है, चींख रहा है, झगड़ रहा है। मैं हड़बड़ा कर दरवाजे की ओर लपकी। बाहर दरवाजे पर ही इला मिल गई।
‘क्या हुआ इला? ये शोर कैसा?’ मैंने इला से पूछा।
‘सुना है, बूढ़ी माई पागल हो गई है। लोगों को पत्थर मार रही है।’ इला ने बताया।
‘‘कहां है बूढ़ी माई?’’
‘‘वहीं नीम के नीचे।’’
‘चलो, चल कर देखते हैं।’ मैंने इला से कहा।
वहां भीड़ एकत्र थी। नीम के पेड़ के नीचे खड़ी बूढ़ी माई चिल्ला रही थी और बुलडोजर जैसी डिगिंग मशीन पर पत्थर मार रही थी। वहां खड़े लोगों से पूछने पर पता चला कि वह जगह बिक गई है और उसे खरीदने वाला पेड़ हटा कर वहां अपनी दूकान बनवाना चाहता है। इसीलिए वह पेड़ उखाड़ने के लिए मशीन ले कर आया है। हमेशा गुमसुम रहने वाली बूढ़ी माई मशीन देखते ही भड़क गई। मशीन चालक ने जितनी बार नीम के पेड़ की ओर बढ़ने का प्रयास किया उतनी बार बूढ़ी माई ने न केवल उस पर पत्थर बरसाए बल्कि मशीन के इतने करीब आ खड़ी हुई कि मशीन चालक ने घबरा कर मशीन बंद कर दी। उसने मशीन चलाने से साफ़ इनकार कर दिया।
नीम के पेड़ के चारो ओर अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गई थी। मगर सबके सब तमाशाबीन थे। वे मानो किसी खेल को टकटकी लगाए देख रहे थे। सभी को यही लग रहा था कि अभी पुलिस आएगी और बूढ़ी माई को पकड़ ले जाएगी। हो सकता है उसे पागलखाने भेज दिया जाए।  
मगर हुआ कुछ ऐसा जो किसी ने सोचा ही नहीं था। बूढ़ी माई के इस हंगामे की ख़बर किसी ने मीडियावालों को दे दी। देखते ही देखते वहां रिपोर्टर्स की भीड़ लग गई। एक रिपोर्टर आंखों देखा हाल सुनाते हुए कैमरे पर कहने लगा,‘‘यहंा इतनी भीड़ के बावजूद कोई भी इंसान नीम के पेड़ को बचाने के लिए आगे नहीं आ रहा है। मगर एक पागल औरत जिसे लोग बूढ़ी माई कहते हैं, पेड़ से लिपटी हुई है अब आप ही बताएं कि पागल कौन है, बूढी माई या यहंा मौजूद भीड़?’’
रिपोर्टर की बात सूनते ही माहौल बदल गया। भीड़ ‘बूढ़ी माई ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने लगी। अब भीड़ आगे बढ़ कर नीम के पेड़ और मशीन के बीच अपनी दीवार की भांति खड़ी हो गई। अंततः जमीन मालिक ने हार मान ली और मामला यूं तय हुआ कि वह अपनी दूकान तो बनवाएगा लेकिन नीम के पेड़ को कटवाए बिना।
धीरे-धीरे भीड़ छंट गई। लोग अपने-अपने घरों को चले गए। मशीन लौट गई। लेकिन बूढ़ी माई उसी तरह पेड़ से लिपट कर खड़ी रही। मैं बूढ़ी माई के निकट पहुंची। उसने आहट पा कर पलट कर मेरी ओर देखा। उसकी अंाखें अभी भी क्रोध से जल रही थीं, लेकिन अपने सामने मुझे पा कर उन आंखों में शीतलता छा गई। अचानक बूढ़ी माई ने मुझे अपने गले से लगा लिया। शायद वह अपनी खुशी जाहिर करना चाहती थी। मेरी भी आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। हम दोनों के सिर के ऊपर नीम का पेड़ अपनी नन्हीं हरी पत्तियों को हिला-हिला कर अपनी ठंडक बिखेर रहा था। उस समय बूढ़ी माई क्या सोच रही थी ये तो मुझे पता नहीं लेकिन मैं यही सोच रही थी कि काश ! बूढ़ी माई जैसा थोड़ा-सा पागलपन हर इंसान में होता तो ऐसे न जाने कितने नीम के पेड़ कटने से बच गए होते।  
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रविवार, अप्रैल 10, 2022

संस्मरण | गर्मी के दिन - 1 बचपन की ठांव, तारों की छांव - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

संस्मरण | गर्मी के दिन - 1
 बचपन की ठांव, तारों की छांव
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

वे दिन कितने अच्छे थे जब पन्ना के हिरणबाग वाले अपने सरकारी घर में हम रहते थे। छोटे-छोटे दो कमरों, एक भीतरी आंगन और एक छोटे-से बरामदे वाला बहुत छोटा-सा घर। लेकिन मेरे लिए वह राजमहल से कम नहीं था क्योंकि वहीं मैंने आंखें खोली थीं और वहीं रहते हुए मैंने दुनिया को जानना और समझना शुरू किया था। 
       मैं और मेरी वर्षा दीदी ! हम गर्मियों में शाम से ही घर के बाहरी आंगन में पानी का छिड़काव करके और नारियल से गुंथी हुई खटियां बिछा दिया करते थे। ज़रा ठंडापन होने पर बिस्तर बिछा देते थे और खाना बनने का इंतज़ार करते हुए बिस्तर पर पड़े-पड़े तारे देखा करते थे। बुधवार की रात को रेडियो सिलोन से बिनाका गीतमाला सुना करते थे और शनिवार की शाम को विविध भारती से जयमाला कार्यक्रम सुना करते थे। कभी-कभी हवा महल कार्यक्रम के नाटक भी सुना करते थे, जब मैं भी वहां मौजूद होती और रेडियो लगा देतीं। यह सब सुना जाता खुले आसमान के नीचे बिस्तर पर लेट कर। 
      हम दोनों ही छोटे थे । स्कूल में पढ़ते थे। वैसे, दीदी मुझ से 5 साल बड़ी थीं और मुझसे अधिक समझदार थीं।  उस समय दीदी मुझे तारों के बारे में बताया करती थीं। वे जानती थीं कि कौन सा मेजर उर्सा है यानी बड़ी सप्तऋषि और कौन सा माईनर उर्सा यानी छोटी सप्तऋषि। हम सप्तऋषि तारों को 'बड़ी चोर खटिया' और 'छोटी चोर खटिया' भी कहा करते थे क्योंकि उन तारों के साथ कथाएं भी जुड़ी हुई थीं, जो हमारे नाना जी ने हमें सुनाई थीं। वर्षा दीदी को ध्रुवतारे का भी पता था। मुझको बताया करती थीं कि " वो देखो नीम के पेड़ के ठीक ऊपर जो तारा चमक रहा है वहीं ध्रुवतारा है। देखना, सुबह तक वह वही रहेगा।। वहां से हिलेगा भी नहीं।" सचमुच वह तारा वहां से नहीं हिलता क्योंकि वह ध्रुव तारा जो था। उन्हीं दिनों से मेरी खगोल विज्ञान के प्रति रुचि जागी। उन दिनों हमारे घर वाराणसी से प्रकाशित होने वाला दैनिक "आज" अखबार डाक से आया करता था, जिसमें कभी-कभी रात्रिकालीन आकाश का नक्शा यानी तारों की स्थिति प्रकाशित की जाती थी।  मैं उसकी कटिंग काट के रख लेती थी और बाद में टॉर्च की रोशनी में उसे देखते हुए आकाश की ओर देखकर पहचानने की कोशिश करती थी कि इसमें से वृषभ की आकृति कौन-से तारे बना रहे हैं और सिंह का आकार कौन सितारे बना रहे हैं? बृहस्पति कहां पर स्थित है और मंगल कहां दिपदिपा रहा है? मुझे उन दिनों पता चल चुका था कि शुक्र को भोर का तारा कहा जाता है। वैसे वह संध्या का तारा भी कहलाता था क्योंकि संध्या होने के समय ही वह क्षितिज पर दिखाई देने लगता था जबकि सुबह होने के समय भी वह क्षितिज पर दिखता था। बृहस्पति सबसे अधिक चमकने वाला तारा और मंगल हल्की लालिमा लिए हुए। इन सबके बीच चमकता शुक्र अपने आप में बड़ा खूबसूरत लगता था। तब पता नहीं था कि शुक्र यानी वीनस गर्म और जहरीली गैसों से भरा हुआ है। उस समय बस, मंगल के बारे में पता था कि वह एक गर्म ग्रह है।   
        आज जब गर्मी के दिन आते हैं और रात को कमरे के अंदर पंखा, कूलर चलाकर घुटन भरे माहौल में सोना पड़ता है तो खुले आसमान के नीचे गुज़ारी गई वे रातें  बहुत अधिक याद आती हैं। वे निश्चिंत राते़ं। चमकते तारों के नीचे बिस्तर पर लेट कर कल्पनाओं में डूबी हुई रातें। और हां, जब शुक्ल पक्ष होता था तो हम चंद्रमा की स्थिति को गौर से देखा करते थे। पूर्णिमा आते-आते उस पर दिखाई देने वाला धब्बा गहराने लगता था। जिससे कभी चंद्रमा पर चरखा चलाती बुढ़िया तो कभी बड़े क्रेटर का एहसास जाग उठता था। यानी फिक्शन और रियलिटी के बीच एक द्वंद चलता था। जब परस्पर विद्वता दिखानी होती तो हम आपस में क्रेटर्स की बातें करते और जब कल्पना लोक में विचरण करने का मन होता तो चरखा चलाती बुढ़िया की बातें करते। वर्षा दीदी बताती थीं ये जो चांद की किरणें हैं, वे उस बुढ़िया के द्वारा काते जा रहे रेशमी चांदी के धागे हैं जो पृथ्वी तक लटकते रहते हैं। उन्होंने यह कहानी नानाजी से सुनी थी और जिसमें अपनी तरफ से कुछ और काल्पनिकता का समावेश करके मुझे सुना दिया करती थीं। जब मां आकर हमें टोंकती कि "चलो, खाने का समय हो गया है, उठो! खाना खा लो फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े बतियाना।" तब हमारी आकाश लोक की यात्रा थम जाती। लेकिन सिर्फ़ रात्रि भोजन करने तक के लिए। उसके बाद फिर हम अपने बिस्तरों पर आ लेटते।
      शुरू से ही मैं और दीदी अलग-अलग खटियों पर सोया करते थे। लेकिन हमारी खटियां परस्पर सटी हुई बिछी रहती थीं। हम आजू-बाजू लेटे हुए ढेर सारी बातें करते रहते थे। दीदी मुझे बहुत-सी कहानियां सुनाया करती थीं। शायद उसी समय से मेरे मन में कहानियों के बीज रोपित हो चुके थे जो धीरे-धीरे प्रस्फुटित, पल्लवित होते गए। दीदी ने तो ग़ज़ल की राह पकड़ी लेकिन मैंने घूम फिर कर उन कहानियों की राह पर ही कदम बढ़ाए जो कहीं मेरे मानस में बहुत गहरे दबी हुई थी। 
      काश! वे दिन लौट आते। खुले आसमान के नीचे, तारों की छांव में, खुली हवा में सांस लेते हुए, चांद और तारों वाली वे चमकीली रातें। किसी तरह का कोई भय नहीं। पन्ना के उस छोटे कस्बाई शहर का उस समय का निरपराध-सा वातावरण। यद्यपि हमारी कॉलोनी के अहाते की दीवार से ही सटा हुआ था ज़िला जेल का परिसर। शाम होते ही जहां से कैदियों के सामूहिक प्रार्थना किए जाने का स्वर सुनाई देता। वहां किन अपराधों के कैदी रखे जाते थे यह मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन इतना जरूर याद है कि उन दिनों भी मुझे उन से डर नहीं लगता था। हम बाहर टेबल फैन भी लगाते थे। जब मैं छोटी थी तो घर में नानाजी थे, मां थीं, कमल सिंह मामा थे वर्षा दीदी थीं और मैं थी। फिर मामा जी की नौकरी लग गई और वे ट्राईबल वेलफेयर के हायरसेकंडरी स्कूल में बतौर शिक्षक तत्कालीन शहडोल जिले के बेनीबारी नामक स्थान में पोस्टिंग में चले गए। तब नानाजी, मां, दीदी और मैं - हम चार लोग रह गए। लेकिन उन दिनों स्कूलों में गर्मी की 2 माह की छुट्टी और  दशहरे से दीपावली तक की 1 माह की छुट्टी हुआ करती थी। जिसमें मामाजी पन्ना आ जाया करते थे। वह हमारी छोटी सी सुंदर दुनिया थी जिसमें उस कॉलोनी में रहने वाले शेष पांच परिवार भी शामिल थे। कोई कृत्रिमता नहीं, बस सच्ची आत्मीयता!
         आज घरों में दुबकी गर्मी की रातें, उन दिनों की खुली हवा की रातों के सामने कुछ भी नहीं हैं। हमने बहुत कुछ गवां दिया है पिछले 30-40 वर्षों में। दुख है कि वह स्वच्छ प्रकृति और वह निर्भयता, शायद अब कभी लौट कर नहीं आएगी।
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(09.04.2022)

रविवार, मार्च 27, 2022

विश्व रंगमंच दिवस | मेरे दो नाटक संग्रह | डॉ (सुश्री)शरद सिंह

आज 🎭विश्व रंगमंच दिवस🎭 पर हार्दिक शुभकामनाएं 🌷 और ये हैं मेरे दो नाटक संग्रह ...🎖️गदर की चिनगारियाँ - सस्ता साहित्य मंडल नई दिल्ली से ( प्रथम संस्करण 2011).....
🎖️आधी दुनिया पूरी धूप - आचार्य प्रकाशन, इलाहाबाद ( प्रथम संस्करण 2006) से प्रकाशित है।

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गुरुवार, मार्च 10, 2022

कहानी | क्या तुम पर वसंत आएगा, इला ? | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह



प्रिय ब्लॉग साथियों, "साहित्य संस्कार" त्रैमासिक (जनवरी-मार्च 22 अंक) में संपादक सुरेंद्र सिंह पवॉर जी ने मेरी एक कहानी प्रकाशित की है जिसे यहां शेयर कर रही हूं।  
सुरेंद्र सिंह पवॉर जी का हार्दिक धन्यवाद🙏
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कहानी
क्या तुम पर वसंत आएगा, इला ?
 - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
              कामदेव! क्यों सचमुच ऐसी ही गोलमटोल काया और छोटे-छोटे पंखों वाला होता है, कितना नुकीला है इसका बाण! इला ने हथेली पर रखे हुए डेढ़-दो इंच  के कामदेव की ओर देखते हुए सोचा । क्रिस्टल के इस पारदर्शी कामदेव के आरपार भी देखा जा सकता है। इला ने कामदेव के बारे में इससे पहले कभी इस प्रकार से नहीं सोचा था।
यह कामदेव कितना ही प्यारा और सुंदर क्यों न हो लेकिन उदय को यह कामदेव उपहार के रूप में इला को नहीं देना चाहिए था । आखिर किसी अविवाहिता को ऐसा उपहार नहीं दिया जाना चाहिए, वह भी किसी सहकर्मी द्वारा । वह इसे वापस कर देगी। इला ने सोचा। 
‘इला, मेरी कमीज़ कहां है ? ज़रा देखना तो !’ भाई की आवाज़ सुन कर इला हड़बड़ा गई। उसके मन के चोर ने उससे कहा, जल्दी छिपा इस कामदेव को, कहीं भैया ने देख लिया तो? ‘तुम्हारी भाभी जाने कब सीखेगी सामान को सही जगह पर रखना, उफ ! ’... और भैया सचमुच इला के कमरे के दरवाज़े तक आ गए । इला ने कामदेव को झट से अपने ब्लाउज़  में छिपा लिया । 
‘आप नहाने जाइए,मैं शर्ट निकाल देती हूं ।’ इला उठ खड़ी हुई । यद्यपि कामदेव का नुकीला बाण उसके वक्ष में चुभ रहा था ।
भैया का हो-हल्ला मचाना इला के लिए कोई नई बात नहीं है । बिला नागा प्रतिदिन सवेरे से यही चींख-पुकार मची रहती है । भाभी लड़कियों के स्कूल में पढ़ाती हैं । उनकी सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी रहती है । वैसे सच तो ये है कि भाभी ने जानबूझ कर सुबह की शिफ्ट में अपनी ड्यूटी लगवा रखी है । इससे घर के कामों से बचत रहती है । भैया इतने लापरवाह हैं कि वे अपने सामान भी स्वयं नहीं सम्हाल पाते हैं । लिहाज़ा, घर सम्हालने से ले कर भैया के समान सम्हालने तक की जिम्मेदारी इला पर रहती है । इला को अपनी इस जिम्मेदारी पर कोई आपत्ति भी नहीं है । वह अब तक में जान चुकी है कि दुनिया में हर तरह के लोग रहते हैं । भैया और भाभी भी ऐसे ही दो अलग-अलग प्रकार के व्यक्तित्व हैं । 
‘या रब्बा ! तू कैसे सब मैनेज कर लेती है ? भैया-भाभी की गृहस्थी भी सम्हालती है और दफ़्तर भी समय पर पहुंच  जाती है ... कमाल करती है तू तो !’ सबरजीत कौर अकसर इला से कहा करती है । विशेष रूप से उस दिन जिस दिन सबरजीत कौर को दफ़्तर पहुंच ने में देर हो जाती है । सबरजीत कौर को अकसर देर हो जाया करती है । वह अपने पति, बच्चों और सास-ससुर के असहयोग का रोना रोती रहती है ।
‘काश ! तेरे जैसी ननद मुझे मिली होती तो मैं तो उसकी लाख बलाएं लेती ! ’ प्रवीणा शर्मा को इला की भाभी से ईर्ष्या होती और वह अपनी इस ईर्ष्या को सहज भाव से इला के आगे व्यक्त भी कर दिया करती।
‘तुझे क्या अपनी गृहस्थी नहीं बसानी है इला?’ लेकिन साथ में वे इला से यह भी पूछती रहतीं ।
‘क्या करूंगी अलग से गृहस्थी बसा कर? भैया-भाभी की गृहस्थी भी तो मेरी ही गृहस्थी है ।’ इला शांत भाव से उत्तर देती ।
‘हां ! अब इस उम्र में तो यही सोच  कर संतोष करना होगा ।’ इला से चिढ़ने वाली कांता सक्सेना मुंह बिचका कर कहती। कांता सक्सेना की टिप्पणी सुन कर बुरा नहीं लगता इला को। आखिर  शराबी  पति  की व्यथित पत्नी की टिप्पणी का क्या बुरा मानना? यूं भी इला के मन में कभी अपनी निजी गृहस्थी बसाने का विचार दृढ़तापूवर्क नहीं आया। जब वह किसी के विवाह समारोह में जाती तो उसे लगता कि अगर उसकी शादी होती तो वह भी इस दुल्हन की तरह सजाई जाती .... लेकिन विवाह समारोह से वापस घर आते तक उसे भैया-भाभी की गृहस्थी ही याद रह जाती।
भैया-भाभी की गृहस्थी की ज़िम्मेदारी किसी ने उस पर थोपी नहीं थी वरन् इला ने स्वत: ही ओढ़ ली थी। अब कोई जिम्मेदारी ओढ़ना ही चाहे तो दूसरा क्यों मना करेगा ? भाभी ने कभी मना नहीं किया । संभवत: उन्होंने कई बार मन ही मन प्रार्थना भी की हो कि इला के मन में शादी करने का विचार न आए । इला चली जाएगी तो उनकी बसी-बसाई गृहस्थी की चूलें हिल जाएंगी । वे तो इस घर में आते ही आदी हो गई थीं इला की मदद की । इला को भी लगता है कि उसकी भाभी उसकी मदद की बैसाखियों के बिना एक क़दम भी नहीं चल सकती हैं ।
भाभी तो भाभी-भैया को भी इला के सहारे की ज़बर्दस्त आदत पड़ी हुई है। भैया इला से चार साल बड़े हैं लेकिन इला ने छुटपन में जब से ‘घर-घर’ खेलना शुरू किया बस, तभी से भैया इला पर निर्भर होते चले गए । जब किसी व्यक्ति के नाज़-नखरे उठाने के लिए मां के साथ-साथ बहन भी तत्पर हो तो परनिर्भरता का दुगुर्ण भैया में आना ही था । कई बार ऐसा लगता गोया इला छोटी नहीं अपितु बड़ी बहन हो। भैया ने इला की शादी के बारे में कभी गंभीरता से विचार नहीं किया। पहले भैया पढ़ते रहे फिर नौकरी पाने की भाग-दौड़ में जुट गए। नौकरी मिलते ही भैया की शादी कर दी गई । इला के बारे में कोई सोच पाता इसके पहले मां का स्वगर्वास हो गया। मां के जाने के बाद भैया इला में ही मां की छवि देखने लगे और रिश्तेदारों ने इस विचार से इला की शादी की चर्चा खुल कर नहीं छेड़ी कि कहीं उन्हें ही सारी जिम्मेदारी वहन न करनी पड़ जाए। आखिर लड़की की शादी कोई हंसी-खेल नहीं होती है, दान-दहेज में भी हाथ बंटाना होता है !
अपनी इस स्थिति के लिए भला किसे दोष दे इला? इला को दोष देना आता ही नहीं है। वह खुश है अपनी परिस्थितियों के साथ।
जाने क्यों उदय को इला का अकेलापन नहीं भाता है। वह अपने साथ के द्वारा  इला के इस अकेलेपन को भर देना चाहता है। जब से उदय  स्थानान्तरित हो कर इला के दफ्तर में आया है, तभी से वह इला के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया । इला उदय के बारे में अधिक नहीं जानती है और न उसने कभी जानना चाहा किन्तु उदय ने थोड़े ही समय में इला के बारे में लगभग सब कुछ जान लिया । इला को इस बात का अहसास तब हुआ जब एक दिन उदय  ने इला के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए कहा - ‘इला जी, आपके बारे में अगर आपके भैया-भाभी ने नहीं सोचा तो आपको चाहिए कि आप स्वयं अपने बारे में सोचें।’
‘मैं समझी नहीं आपका आशय?’ इला सचमुच  नहीं समझ पाई थी कि उदय क्या करना चाहता है। उसे अनुमान नहीं था कि उदय उसके बारे में दिन-रात सोचता रहता है । 
‘मेरा मतलब यही है कि आपको घर बसाने के बारे में स्वयं विचार करना चाहिए। आप आत्मनिर्भर हैं और ऐसा कर सकती हैं।’ उदय  ने कहा था और मौन रह गई थी इला ।
अब कल शाम को दफ़्तर से निकलते समय  उदय  ने उसे छोटा-सा पैकेट पकड़ाते हुए कहा था, ‘यह आपके लिए! वसंत के आगमन पर! प्लीज़ मना मत करिएगा।’ 
घर आ कर इला ने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर के धड़कते दिल पर काबू पाते हुए उस पैकेट को खोल कर देखा। क्रिस्टल का बना हुआ एक नन्हा-सा कामदेव था पैकेट में । भौंचक रह गई थी इला । प्रथम दृष्टि में उसे उदय की ये हरकत बुरी लगी....बहुत बुरी। किन्तु रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने उदय  के बारे में गंभीरता से सोचा तो उसे लगा कि उदय  को क्षमा किया जा सकता है। लेकिन क्या उसके संकेत को स्वीकार किया जा सकता है जो संकेत उसने क्रिस्टल  के कामदेव दे कर किया है ? वह तय  नहीं कर पाई । रात को नहीं, सवेरे भी नहीं।
इला ने घर के काम जल्दी-जल्दी निपटाए और तैयार हो कर दफ़्तर के लिए निकल पड़ी । दफ़्तर से एक चौराहे पहले ही उदय  मिल गया जो इला की प्रतीक्षा कर रहा था । 
‘इला रूको !’ उदय  ने इला को रूकने का संकेत करते हुए आवाज़ दी । इला ने अपनी मोपेड रोक दी । 
‘आप यहां क्या कर रहे है ?’ इला ने उदय  से पूछा । 
‘तुम्हारी प्रतीक्षा ! मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारा क्या जवाब है?’ उदय ने उतावले होते हुए पूछा।
‘जवाब?’ इला ने अनजान बनते हुए कहा ।
‘हां, क्या जवाब है तुम्हारा?’ उदय अधीर हो उठा ।
‘ज़वाब? मैं इतनी जल्दी जवाब नहीं दे सकती।’
‘मगर क्यों?’
‘मैंने कहा न, यह कठिन है मेरे लिए।’
‘इसमें कठिनाई क्या है? तुम बालिग हो, सेल्फडिपेंड हो। अपने जीवन का निर्णय तुम खुद कर सकती हो।’
‘मुझे पता है इला ने कहा मुझे पता है कि मेरे भैया या भाभी मेरे निर्णय का विरोध नहीं करेंगे लेकिन मैं जल्दबाज़ी में निर्णय नहीं ले सकती हूं।’
‘ज़ल्दबाजी इस पर गौर किया कभी कि तुम कितने वसंत अकेली गुज़ार चुकी हो।’
‘हां मुझे पता है और यही मेरी सबसे बड़ी दिक्कत है कि अब मैं एक पल में कोई निर्णय नहीं कर सकती हूं।’
‘मैं तो समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम क्या कहना चाहती हो?’
‘तो समझने की कोशिश करो दरअसल, उम्र के जिस पड़ाव में हम हैं वहां किशोरों वाले उपहार मन गुदगुदा तो सकते हैं किन्तु ठोस निर्णय नहीं करने में मदद नहीं कर सकते हैं। इस उम्र में जीवन का हर निर्णय  ठोस निर्णय  होता है और वह किसी मेज पर आमने-सामने बैठ कर, गंभीरतापूवर्क चर्चा कर के ही लिया जा सकता है। समझ रहे हैं न आप!’ इला ने पूरी गंभीरता के साथ कहा।
उदय को इला से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी। वह अवाक् रह गया । उसने तो दो ही प्रतिक्रियाओं की आशा की थी कि या तो इला नाराज़ हो जाएगी और उसे बुरा-भला कहेगी या फिर हंस कर उसके  भुजबंध को स्वीकार कर लेगी।
दफ़्तर पहुंचते-पहुंचते इला को लगने लगा कि कहीं उसने उदय के साथ आवश्यकता से अधिक कठोरता तो नहीं बरत दी? यदि इला के पर वसंत नहीं आया तो इसमें उदय का क्या दोष? अपने-आप पर झुंझलाती हुई इला को लगा कि अगर वह इसी प्रकार सोच-विचार करती हुई अपनी कुर्सी पर बैठी रहेगी तो दूसरे लोग उससे तरह-तरह के सवाल करने लगेंगे। वह कुर्सी से उठ कर प्रसाधन-कक्ष की ओर चल पड़ी।
प्रसाधन-कक्ष में पहुंचते ही इला का दर्पण में खुद से आमना-सामना हो गया। उसे ऐसा लगा जैसे उसका प्रतिबिम्ब उससे पूछ रहा हो, ‘तुम पर वसंत क्यों नहीं आया, इला ज़रा सोचो ! वसंत तो किसी भी इंसान पर कभी भी आ जाता है फिर तुम पर क्यों नहीं ...?’ 
पसीना-पसीना हो उठी, इला। उसे अपना प्रतिबिम्ब अपरिचित लगने लगा ...संभवत: प्रतिबिम्ब पर वसंत पूरी तरह आ चुका था जबकि इला के मन में पतझर के सूखे पत्ते बुहार कर बाहर फेंके जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। क्या यह निर्णय इतना आसान था इला के लिए कि वह अपने पतझर हो चले मन के सूखे पत्तों को बुहार कर बाहर फेंक दे या फिर वसंत के प्रेमासिक्त वासंती रंग को ओढ़ ले? निर्णय करना इला के लिए बहुत कठिन था। वर्षों का एकाकी अनुभव उसे किसी बंधन में बंधने की अनुमति इतनी आसानी से तो नहीं देने वाला था लेकिन क्या आतुर उदय उसके उत्तर की प्रतीक्षा करेगा? या़, वह कहीं और निकल पड़ेगा वसंत की तलाश में। इला ने एक फिर दर्पण में स्वयं की छवि देखी और स्वयं से प्रश्न  किया, ‘तुम पर वसंत क्यों नही आया, इला?’
मानो उसका प्रतिबिम्ब बोल उठा कि ‘एक समझदारी भरे ठहराव ने तुम्हारा रास्ता जो रोक रखा है, इला। तुम अब दिल से नहीं दिमाग़ से सोचने की आदी जो हो चुकी है।’ ...और उसे अपने प्रतिबिम्ब से अपना उत्तर मिल गया। उसने चैन की सांस ली और वह प्रसाधन-कक्ष से बाहर निकल गई। एकदम सहज हो कर। अब उदय का धैर्य ही तय करेगा कि इला पर वसंत आएगा या नहीं।
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शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2022

मेरी यादें - डॉ (सुश्री) शरद सिंह | 2

#मेरीयादें_डॉसुश्रीशरदसिंह 
🔸03 नवंबर 2019, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र परिसर | आजतक टीवी द्वारा आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल "साहित्य आजतक 2019" | मुझसे वहां "साहित्य की बेड़ियां" चर्चा में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था। आदरणीय चित्रा मुद्गल जी से वहां एक बार फिर भेंट हुई। हमेशा की तरह प्यारी सी मुस्कान और तरोताज़ा, स्फूर्तवान चेहरा। गले लगा कर आत्मीयता का संचार । यही तो खूबी है चित्रा जी की। 
     🔸चित्रा मुद्गल जी से मेरी कई बार भेंट हुई। कभी दिल्ली में उनके निवास पर (तब मुद्गल जी से भी भेंट हुई थी) और कभी किसी आयोजन में, तो कभी लखनऊ में... हमेशा सुखद, आत्मीय मुलाक़ात।
     📸 यह तस्वीर 03 नवंबर 2019, साहित्य आजतक 2019 की है जब हम कई साहित्यकार पावेलियन में साहित्यिक चर्चाओं में मशगूल थे।
   🚩 प्रणाम करती हूं आदरणीया चित्रा मुद्गल जी को 🙏

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मंगलवार, फ़रवरी 15, 2022

मेरी यादें - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

#मेरीयादें_डॉसुश्रीशरदसिंह
एक ओर मैं (शरद सिंह) और दूसरी ओर प्रख्यात आलोचक परमानंद श्रीवास्तव जी और बीच में कोई सरदार जी नहीं बल्कि सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय काशीनाथ सिंह जी हैं, कहानीकार अमरीक सिंह जी की पगड़ी में। स्थान..लखनऊ स्टेट गेस्टहाऊस का डायनिंग हॉल। सुबह नाश्ते की प्रतीक्षा में । कथाक्रम का आयोजन। सन् 2012 ।
      दोनों ही साहित्यकार जितने वरिष्ठ, उतने ही सहज स्वभाव के। परमानंद जी तो अब हमारे बीच नहीं हैं। जब वे गोरखपुर में अस्पताल में भर्ती थे तो उन्हें देखने जाने का अवसर मिला था। उनका उत्साह देखकर लग नहीं रहा था कि वे अस्पताल में है देर तक भावी योजनाओं पर चर्चा करते रहे। उन्हें नमन 🙏
#यादें  #स्मृतियां   #memories

शुक्रवार, जनवरी 07, 2022

कहानी | तुम कहां हो, पुरुरवा? | डॉ.(सुश्री) शरद सिंह

मेरी यह कहानी प्रकाशित हुई है भोपाल (म.प्र.) से वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र दीपक के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका "पहला अंतरा" अक्टूबर-दिसंबर 2021 अंक में।
कहानी
तुम कहां हो, पुरुरवा?
            - डॉ.(सुश्री) शरद सिंह

‘‘मुझे कुछ समय से ऐसा लगने लगा है कि हम सब मर चुके हैं। हम सब मृतक हैं। हमारा अमरत्व केवल एक भ्रम है ...देवराज!  हमारे स्वर्ग में ऐसी व्यवस्था क्यों है कि हम अपने हृदय के उल्लास को मात्र नृत्य गान से उद्घाटित कर सकते हैं, हम अपनी देह से दूसरे की देह का उपभोग करते हुए कामवासना में लिप्त रह सकते हैं, किंतु हम प्रेम नहीं कर सकते। ऐसा क्यों देवराज इंद्र, ऐसा क्यों?’’ उर्वशी के प्रश्न की तीक्ष्णता  ने सभागार की सभी ध्वनियों को काट कर गिरा दिया। सभागार में सन्नाटा छा गया। उर्वशी ने एक ऐसा प्रश्न उठाया था जो वहां उपस्थित लगभग सभी के मन में कभी न कभी अवश्य उपजा था किंतु कोई भी पूछने का साहस नहीं कर सका था उर्वशी ने यह साहस दिखा दिया।
‘‘तुम्हारा मूल प्रश्न क्या है, उर्वशी?’’ इंद्र ने सन्नाटे को तोड़ते हुए पूछा।
‘‘मेरा मूल प्रश्न यही है देवराज, कि पृथ्वी लोक में मनुष्य के युवा होते ही उसके हृदय में प्रेम स्पंदित होने लगता है किंतु हम चिर युवा होते हुए भी प्रेम नहीं कर सकते, ऐसा क्यों?’’ उर्वशी ने पूछा।
‘‘तुम यहां किस से प्रेम करोगी, हमसे? किंतु हम देवता हैं, हम प्रेम नहीं कर सकते। प्रेम करने के लिए हमें भी अवतार लेना पड़ता है। जब हम प्रेम नहीं कर सकते तो भला तुम कैसे प्रेम कर सकती हो?‘‘ इंद्र ने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया।
‘‘किंतु आप प्रेम क्यों नहीं कर सकते हैं?‘‘ उर्वशी ने पूछा।
‘‘हम इसलिए प्रेम नहीं कर सकते हैं क्योंकि प्रेम व्यक्ति को अंधा कर देता है और हम देवता अपनी दृष्टि गवा नहीं सकते हैं।
- क्योंकि प्रेम पागल कर देता है और हम देवता सोचने-समझने की अपनी शक्ति को खो नहीं सकते हैं। इसी के बल पर तो हम देवता बने हुए हैं। 
- क्योंकि प्रेम में पड़ा हुआ व्यक्ति प्रेम के बदले सब कुछ त्याग देने को उद्यत हो उठता है। जबकि हम देवता प्रेम के बदले कुछ भी त्याग नहीं सकते हैं। स्वर्ग भी नहीं।‘‘ इंद्र ने उर्वशी के एक प्रश्न के उत्तर में प्रेम न करने के तीन-तीन कारण गिना दिए।
‘‘आप देवता हैं। आप अपनी विवशताओं को जीने के लिए विवश हैं, देवराज ! किंतु मैं अप्सरा, मुनियों का तप भंग करने वाली रूपसी, सात सुरों को अपने घुंघरुओं में बांधकर नृत्य करने वाली नृत्यांगना... मैं विवश नहीं हूं। मैं प्रेम करना चाहती हूं। यदि स्वर्ग में मुझे किसी से प्रेम करने की अनुमति नहीं है तो मैं पृथ्वीलोक जाऊंगी। वहां प्रेम करूंगी। कृपया, मुझे पृथ्वीलोक जाने की अनुमति दीजिए।‘‘ उर्वशी ने अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट कर दी।
इन्द्र समझ गया कि अब उर्वशी को रोकना उचित नहीं होगा। यदि उसके हृदय में प्रेम पाने की लालसा जाग उठी है तो यह लालसा प्रेम पा लेने पर ही थमेगी। प्रेम है ही ऐसी मायावी भावना जो पृथ्वीलोक के वासियों को अपने संकेत पर सुख-दुख के हिंडोले पर झूले झुलाती रहती है। उर्वशी भी बार-बार पृथ्वीलोक जा कर प्रेम के प्रति जिज्ञासु हो उठी है। उसकी जिज्ञासा का शांत होना अब आवश्यक है। फिर भी इन्द्र ने उर्वशी को समझाने का एक और प्रयास किया।
‘‘तुम नहीं जानती हो उर्वशी कि पृथ्वीलोक में प्रेम अग्नि-सरिता की भांति है। हर किसी के वश में नहीं होता है उस सरिता को पार कर पाना।’’ इन्द्र ने कहा।
‘‘आप मुझे व्यर्थ भयभीत कर रहे हैं।’’ उर्वशी के स्वर में हठ था।
‘‘पृथ्वी में स्त्री-पुरुष के लिए प्रेम समभाव का विषय नहीं है, उर्वशी! तुम्हें कहीं पीड़ा न पहुंचे।’’ इन्द्र ने फिर कहा।
‘‘आप मुझे पृथ्वीलोक नहीं जाने देना चाहते हैं तो स्पष्ट कहिए। यूं प्रेम को पीड़ा का कारण मत ठहराइए। यह उचित नहीं है।’’ उर्वशी ने प्रतिरोध किया।
‘‘ठीक है उर्वशी! तुम पृथ्वीलोक जा कर किसी भी पृथ्वीवासी से प्रेम कर सकती हो। मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। लेकिन यदि तुम प्रेम को भली-भांति समझना और अनुभव करना चाहती हो तो तुम्हें वही करना होगा जो मैं कहूंगा। इसे चाहे तो मेरी शर्त मान सकती हो।‘‘ इंद्र ने कहा। 
‘‘कैसी शर्त, देवराज?‘‘ उर्वशी ने चकित होकर पूछा। 
‘‘शर्त यह है कि तुम जिस पुरुष को प्रेम करोगी उसे अपना वास्तविक परिचय किसी भी दशा में नहीं दोगी और यदि उसने प्रेम के उपरांत तुमसे तुम्हारा परिचय जानना चाहा तो तुम्हें उसे सदा के लिए छोड़ कर तत्काल वापस आना होगा।‘‘ इंद्र ने उर्वशी से कहा।
‘‘मुझे शर्त स्वीकार है, देवराज! ‘‘ उर्वशी ने प्रसन्नतापूर्वक शर्त स्वीकार कर ली। उसने सोचा कि अरे, वाह ! यह शर्त कितनी व्यर्थ है। अरे एक प्रेमी को अपने प्रिय से सरोकार रहता है, उसके परिचय या अतीत से नहीं। यह शर्त दुरूह नहीं है, कदापि नहीं। वह जिस पुरुरूा से प्रेम करेगी वह कभी इतनी-सी बात के लिए हठ नहीं करेगा। भला प्रेम की भावना से भी बढ़ कर कोई भावना हो सकती है पृथ्वीलोक में? 

इंद्र से अनुमति लेकर उर्वशी पृथ्वी पर आ गई।

पृथ्वी पर आकर उसकी दृष्टि पुरुरवा पर पड़ी। पुरुरवा को देखते ही उर्वशी का मन उसके वश में नहीं रहा। पुरुरवा ने भी उर्वशी की ओर देखा प्रथम दृष्टि में ही दोनों में परस्पर प्रेम हो गया। पुरुरवा उर्वशी से सौंदर्य को देखकर मानो अपना अस्तित्व भुला बैठा और उर्वशी तो आई ही थी किसी सुपात्र से प्रेम करने। 
‘‘तुम कौन हो सुंदरी? मेरा मन तुम पर आसक्त हो उठा है। मैं तुमसे प्रथम दृष्टि में ही प्रेम कर बैठा हूं।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी को मुक्त भाव से निहारते हुए कहा।
 ‘‘हे पुरुष ! मैं भी तुम्हारे प्रति अपने हृदय में प्रेम का अनुभव कर रही हूं। हम दोनों परस्पर प्रेम का आदान-प्रदान कर सकते हैं किंतु .....।‘‘ उर्वशी कहते कहते रुक गई। 
‘‘किंतु क्या सुंदरी?‘‘ पुरुरवा ने व्याकुल होकर पूछा ।
‘‘हमारा प्रेम प्रगाढ़ नहीं हो सकता है।‘‘ उर्वशी ने कहा। 
‘‘क्यों? क्यों नहीं हो सकता? क्या तुम मुझे इस योग्य नहीं समझती हो?‘‘ पुरुरवा ने आश्चर्य से पूछा। 
‘‘नहीं यह बात नहीं है। बात यह है कि मेरी कुछ विवशताएं हैं।‘‘ उर्वशी कहते- कहते रुक गई।
‘‘कैसी विवशता, रूपसी? मुझे बताओ। संकोच मत करो।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी का उत्साहवर्द्धन करते हुए कहा। 
‘‘यही कि हमारा प्रेम कितना भी प्रगाढ़ता पर क्यों न पहुंच जाए, फिर भी तुम मुझसे मेरा परिचय कभी नहीं पूछोगे। मैं कौन हूं? कहां से आई हूं? यह जानने का प्रयत्न नहीं करोगे। स्वप्न में भी नहीं। यदि तुमने ऐसा किया तो मैं उसी पल तुमको छोड़ कर चली जाऊंगी। हे पुरुष! यही मेरी विवशता है। यदि तुम्हें मेरे साथ मेरी विवशता भी स्वीकार्य है तो मैं आज इसी क्षण से तुम्हारी हूं।‘‘ उर्वशी ने पुरुरवा से कहा।
‘‘बस, इतनी सी बात? मुझे यह स्वीकार है, सुंदरी ! तुम जो कहो वह सब मुझे स्वीकार है। बस, तुम मुझे स्वीकार कर लो। अंगीकार कर लो।‘‘ पुरुरवा ने उर्वशी की विवशता को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। उर्वशी का ह्रदय प्रेम के गर्व से लबालब भर गया। 
प्रेम के तीव्र आह्लाद में डूबते-उतराते उर्वशी और पुरुरवा वन-उपवन में विचरण करने लगे। पुरुरवा के मस्तिष्क से कर्तव्यों का बोध जाता रहा। वह आठों पहर उर्वशी के रूप सौंदर्य और प्रेम का रसपान करता रहा। पुरुरवा के लिए उर्वशी के मुख का उजाला ही दिन था और उर्वशी के  केशराशि की छाया ही रात थी। उर्वशी के सानिध्य में वह स्वर्गिक सुख का अनुभव करता। उर्वशी भी पुरुरवा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी। वह प्रेम की गहराइयों का अनुभव कर रही थी। वह प्रेम की उत्तुंगता का अनुभव कर रही थी। वह जिस प्रेम की लालसा में पृथ्वी लोक आई थी, वह प्रेम पुरुरवा के रूप में उसे अपने भुजबंद में कसे हुए था। जिस प्रकार आकाश में तैरते कपासी बादल तेज हवा में गतिमान होकर एक दिशा से दूसरे दिशा की ओर बढ़ते चले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार दिन पर दिन सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष और महीने पर महीने व्यतीत हो गए तथा समय अपना आभास कराए बिना तीव्रता से सरकता गया।

उधर कुटिल दांवपेच के धनी इन्द्र ने स्वर्गलोक में यह प्रचारित करा दिया कि पुरुरवा ने उर्वशी को असुरों से बचाया था अतः उर्वशी पुरुरवा के उस ऋण से मुक्त होने पुरुरवा के पास गई है।

पुरुरवा उर्वशी पर मुग्ध था किंतु इस मुग्धावस्था में भी उसे कभी-कभी यह बात सालती थी कि ‘मैं उर्वशी के बारे में उसके नाम के अतिरिक्त और जानता ही क्या हूं? क्या पता यह नाम भी वास्तविक है या छद्म है? कौन है यह उर्वशी? कहां से आई है? किसकी पुत्री है? यह प्रेम के अतिरिक्त और कुछ चाहती भी नहीं है। और कुछ मांगती भी नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं है?  लेकिन मैं इससे पूछ भी तो नहीं सकता हूं। इसने पहले ही कह रखा है कि जिस क्षण में इससे पूछ लूंगा कि तुम कौन हो, यह उसी पल मुझे छोड़ कर चली जाएगी।‘
एक ओर पुरुरवा का प्रेम उसे प्रश्न करने से रोकता और दूसरी ओर उसका पुरुषत्व उसे उर्वशी के अतीत और उसका परिचय जानने के लिए उकसाता रहता, जिसे जानना पुरुरवा के लिए कतई आवश्यक नहीं था।
समय व्यतीत होने के साथ-साथ पुरवा के मन में प्रश्न का नाग फन उठाने लगा। उसे लगने लगा कि वह पूछने की इच्छा के वशीभूत होकर जागृत अवस्था में नहीं तो सोते समय स्वप्न में उर्वशी से प्रश्न कर बैठेगा। यदि ऐसा हुआ तो उर्वशी उसे छोड़ कर चली जाएगी। इस भय के कारण पुरुरवा रात्रि को उर्वशी का आंचल थाम कर सोता। उर्वशी ने पुरवा के अंतर्द्वंद्व को ताड़ लिया।

‘‘पुरुरवा! मुझे लगता है कि इन दिनों तुम अंतर्द्वंद्व में जी रहे हो। यदि यह सच है तो अपने मन को, अपने हृदय को और अपने मस्तिष्क को टटोल कर देखो कि तुम्हारे लिए क्या महत्वपूर्ण है मेरा प्रेम या मेरा परिचय?‘‘ उर्वशी ने कहा।
‘‘नहीं-नहीं! मैं तुम्हारे बारे में नहीं जानना चाहता हूं। मुझे तुम्हारे परिचय से नहीं तुमसे प्रेम है।‘‘ पुरुरवा ने तत्क्षण उत्तर दिया। 

एक बार फिर दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष और मास पर मास व्यतीत होने लगे। पुरुरवा के मन में गुंजलक मार कर बैठे जिज्ञासा के नाग का विष भी शनैः शनैः बढ़ता जा रहा था। उस विष की कालिमा में पुरुरवा को यह भी जानने की इच्छा होने लगी कि आज तो उर्वशी उसके प्रति पूर्ण समर्पिता है किंतु अतीत में किसी और से प्रेम तो नहीं करती थी? उर्वशी ने भले ही उससे उसकी रानियों के बारे में नहीं पूछा किंतु वह तो स्त्री है। एक स्त्री को इस पर आपत्ति करने का अधिकार नहीं है कि उसका सर्वस्व-पुरुष अन्य स्त्रियों से दैहिक संबंध रखता है या नहीं? किंतु मैं? मैं तो पुरुष हूं मुझे यह जानने और आपत्ति करने का पूरा-पूरा अधिकार है कि मेरी समर्पिता स्त्री के अतीत में किसी अन्य पुरुष के साथ दैहिक संबंध तो नहीं थे? कहीं इसीलिए उर्वशी ने अपने अतीत के प्रश्न-द्वार पर ताला तो नहीं डाल रखा है? उर्वशी के बारे में जानने की व्याकुलता पुरुरवा को पीड़ा देने लगी।

‘‘किस चिंता से व्याकुल हो, प्रिय?‘‘ उर्वशी ने पुरवा से प्रश्न किया था। 
हुआ यूं कि उर्वशी और पुरुरवा एक वृक्ष की शीतल छांव में बैठे हुए थे। उर्वशी ने वार्तालाप करते-करते अपना शीश पुरवा के वक्ष पर टिका दिया। उसी क्षण पुरुरवा के हृदय को यह विचार कचोट ने लगा कि हो सकता है इसी प्रकार कभी, किसी और पुरुष के वक्ष पर भी उर्वशी ने अपना शीश टिकाया हो। कौन जाने?
पुरुरवा वार्ता को विराम देकर मौन हो गया। जबकि उर्वशी समझ ही नहीं सकी कि पुरुरवा को अचानक किस चिंता ने ग्रस लिया। वह उस पल प्रेम के आनंद में डूबी हुई थी। यदि चैतन्य होती तो समझ जाती। पुरुषों के मन की बातें जानना उसके लिए कठिन नहीं था। पर उस समय तो वह प्रेम के अतिरिक्त और किसी विषय में सोच भी नहीं रही थी।
मन की व्याकुलता उचित और अनुचित के भेद को भुला देती है। एक दिन पुरुरवा उर्वशी के साथ प्रेमालाप में निमग्न था कि उसी समय उसके मन में बैठे जिज्ञासा के नाग ने फुंफकारे मारना आरम्भ कर दिया। पुरुरवा ने सोचा कि मुझे उर्वशी के साथ प्रेम संबंध स्थापित किए बहुत समय हो गया है। उर्वशी भी मेरे साथ की इतनी अभ्यस्त हो चुकी है कि अब वह किसी भी दशा में मुझे छोड़कर नहीं जाएगी। अब मुझे उर्वशी से उसके बारे में पूछ लेना चाहिए। 
‘‘तुम कौन हो उर्वशी?‘‘ और पुरुरवा ने पूछ ही लिया।
‘‘ओह! अभागे पुरुष! ...तो तुम अपने आप पर नियंत्रण नहीं रख पाए। तुम ने सिद्ध कर दिया कि तुम मानसिक दुर्बलता के पोषक हो। हे पुरुरवा ! तुमने अंततः मेरे वर्तमान और मेरे अतीत में से मेरे अतीत को ही चुना। तुम पुरुष स्त्री के अतीत में क्यों जीना चाहते हो? स्त्री के अतीत को लेकर किस बात से भयभीत रहते हो? यही भय रहता है न तुम्हें कि तुम्हारी आज की स्त्री ने अपने अतीत में किसी और पुरुष से दैहिक संसर्ग तो नहीं किया था? आज जो है उसे उस अतीत पर क्यों वारते हो जो न आज है और न भविष्य में कभी होगा। अतीत कभी न लौटने वाला समय होता है, उसके पीछे भागने से भला क्या लाभ? पुरुरवा! मेरे प्रिय! मेरा मन इस क्षण अपने प्रेम के लिए दुखी है। तुम्हारे लिए दुखी है। तुम्हारे पुरुषत्व के खोखले दम्भ पर लज्जित है। विदा पुरुरवा, चिरविदा !!‘‘ उर्वशी ने पुरुरवा से कहा और उसी पल वह स्वर्ग लौट गई।
प्रश्न पूछते समय भी पुरुरवा की मुट्ठी में उर्वशी का आंचल भिंचा हुआ था। इस भय से कि कहीं उर्वशी छोड़कर न चली जाए। उर्वशी चली गई किंतु आंचल का टुकड़ा फटकर पुरुरवा की मुट्ठी में दबा रह गया। पुरुरवा मुट्ठी में दबे रह गए आंचल के टुकड़े को देख कर व्याकुल हो उठा। उसे अपने प्रश्न पर पश्चाताप होने लगा। किंतु उर्वशी तो जा चुकी थी। पुरुरवा विलाप करता हुआ वनप्रांतर में भटकने लगा। वह उर्वशी का नाम ले लेकर पुकारने लगा। पुरुरवा का आत्र्तनाद स्वर्ग की अप्सरा तक पहुंच नहीं पा रहा था। यदि पहुंचता तो भी उर्वशी उस शंका को निर्मूल कैसे कर पाती जो पुरवा के हृदय में जड़ें जमा चुका था। विरह की ज्वाला से शंका का वृक्ष झुलस कर मृतप्राय पहले ही हो गया था किंतु अनुकूल वातावरण पाते ही उन्हें प्रस्फुटित भी तो हो सकता था। प्रेम के लिए शंका मृत्युदंड के समान होती है, निःसंदेह।

एक बार फिर वही दृश्य इंद्र के सभागार की रंगशाला का। जिसमें अप्सराएं नृत्यरत थीं। वादक वाद्ययंत्रों का वादन कर रहे थे और सोमरस का पान किया रहा था।
‘‘उर्वशी तुमने प्रेम का आनंद लिया?‘‘ उर्वशी इंद्र की उस रंगशाला में पहुंची तो इंद्र ने उससे पूछा। 
‘‘हां देवराज! ‘‘ उर्वशी ने उत्तर दिया। 
‘‘तो अब तो तुम जान गई होगी कि प्रेम क्या है?‘‘ इंद्र ने फिर पूछा। 
‘‘हां देवराज! ‘‘ उर्वशी ने स्वीकार किया। 
‘‘तो मुझे भी बताओ उर्वशी, प्रेम क्या है?‘‘ इंद्र ने प्रश्न किया। 
‘‘प्रेम वह सुगंधित, कोमल और सुंदर पुष्प है देवराज, जिसे यदि शंका की आग न झुलसाए तो वह सदैव पुष्पित रहता है अन्यथा पल भर में मुरझाकर भस्म हो जाता है।‘‘ उर्वशी ने व्यथित स्वर में उत्तर दिया।
उर्वशी इंद्र से पूछना चाहती थी कि क्या देवता भी मनुष्य का जन्म लेने पर स्त्री के प्रति शंकालु हो जाते हैं? किंतु उसने नहीं पूछा कि कहीं इंद्र उसकी भावनाओं पर कटाक्ष न करने लगे। तब उर्वशी को क्या पता था कि आने वाले सतयुग में विष्णु जब मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में जन्म लेंगे तो उसे उसके इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। उसे तो यह भी पता नहीं था कि उसकी इस व्यथा-कथा को पुराणों में अपनी-अपनी पौरुषेय अभिलाषा के अनुरूप उद्धृत किया जाएगा और उसका उल्लेख भी ऐसी विचित्र स्त्री के रूप में किया जाएगा जो पुरवा के समक्ष शर्त रखती है कि ‘‘जिस घड़ी मैं तुम्हें नग्न देख लूंगी उसी क्षण तुम्हें छोड़ कर चली जाऊंगी।‘‘ 
जो उर्वशी काम कला में निपुण थी, जो उर्वशी पुरुरवा की अंकशयनी थी, उसे भला पुरुरवा की नग्न देह देखने में क्या आपत्ति हो सकती थी? कालिदास जैसे लेखनी के धनी व्यक्ति ने भी तो उर्वशी के साथ न्याय नहीं किया। उन्होंने उर्वशी को अपनी भावनाओं के अनुरूप ढालते हुए उसे ‘‘भेड़िए के समान हृदय वाली स्त्री‘‘ कह दिया। उस समय उर्वशी को क्या मालूम था कि पृथ्वीलोक में एक स्त्री की भांति रहने का उसे क्या-क्या मूल्य चुकाना होगा। 
कहते हैं कि पुरुरवा का व्याकुल हृदय अपनी शंकालु प्रवृत्ति पर लज्जित होते हुए आज भी उर्वशी को ढूंढता फिर रहा है, भटक रहा है युगों-युगों से....भटकता रहेगा युगों-युगों तक। भले ही अब उर्वशी कभी नहीं पूछेगी कि ‘‘तुम कहां हो पुरुरवा?’’ वह अब कभी किसी पृथ्वीलोकवासी से प्रेम नहीं कर सकेगी। उस अप्सरा के भीतर का स्त्रीत्व आहत् जो हो चुका है।
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