साहित्यिक पत्रिका "पहला अंतरा" के अप्रैल-जून 2022 अंक में मेरी कहानी "चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय" प्रकाशित हुई है।
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कहानी
चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय
- डॅा. (सुश्री) शरद सिंह
पल भर में समय कैसे मुंह फेरता है, यह सुखबाई से बेहतर भला कौन समझ सकता है ? लगने को तो यूं लगता है मानो कल की ही बात हो, मगर गिनती करने बैठो तो पूरे बारह बरस गुज़र चुके हैं, तब से अब तक। वह बूढ़ा साधू जो पीपल के पेड़ के नीचे बैठ कर सुबह से कबिरहा गाया करता है, उसका स्वर भी अब थक चला है। वह भूल जाता है गाते-गाते और न जाने क्या बड़बड़ाने लगता है। कीरत को लगता है कि सुखबाई सब कुछ भूल गई है। कीरत शायद समझता नहीं कि सुखबाई को उस मनहूस घड़ी का एक-एक क्षण अच्छी तरह से याद है । वह तो बारह बरस की एक-एक घड़ी को भी नहीं भूली है। कबिरहा साधू की जिस आवाज़ पर उसने ब्याह कर आने के बाद ध्यान नही नहीं दिया था, कीरत के जाने के बाद सुखबाई ने कितने ध्यान से सुना है उसके एक-एक शब्द को यह वही जानती है।
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय......
कैसे हुलस के सोचा करती थी वो कि जिस दिन कीरत घर लौट कर आएगा उस दिन वो देवी मैया के मंदिर में जा कर प्रसाद चढ़ाएगी। कीरत के मन का खाना पकाएगी और अपने हाथों से उसे खिलाएगी। कीरत से विछोह के पूरे बारह बरस वह बारह पलों में मिटा देगी। वे दिन एक बार फिर लौट आएंगे जो मूरत, सूरत और दोनों बेटियों के पैदा होने के समय से भी पहले थे।
सुखबाई को पहला झटका उस दिन लगा था, जिस दिन कीरत पहली बार जेल से घर आया था । दद्दा के क्रिया-कर्म के लिए कीरत को पेरोल पर छोड़ गया था।
‘दद्दा, कहंा चले गए तुम! हाय रे !’ कीरत का यह बिलखना सुन कर सुखबाई को याद आया था कि उसने भी इसी तरह विलापा था, मन ही मन सही कि ‘हाय दद्दा! तुम उस दिन यहंा क्यों नहीं थे!’
काश ! उस दिन दद्दा रिश्तेदारी में दूसरे गांव न गए होते तो शायद वो अनहोनी होने से बच गई रहती। सुखबाई तो दद्दा की अनुपस्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर पाई थी लेकिन खूब कोसा था दद्दा ने, सुखबाई को। सुखबाई की ननद ने तो सुखबाई को ‘डायन’ तक की उपाधि दे डाली थी, जो उसके भाई को खा गई थी। सबने अपने-अपने ढंग से अपने मन की भड़ास निकाली थी लेकिन उस समय किसी ने भी ये नहीं सोचा कि अब सुखबाई का जीवन कैसे कटेगा? एक तो चार बच्चों की जिम्मेदारी और उस पर भरी जवानी। यह जवानी ही तो उसकी दुश्मन बन गई थी।
जिस दिन फुग्गन ने उसे पहली बार बिना घूंघट के देखा था, बस तभी से उसकी लार टपकने लगी थी। औरत को मर्द की नीयत पहचानते देर नहीं लगती है, यह बात और है कि किसी मजबूरी के चलते वह सब कुछ अनदेखा कर दे। सुखबाई ने भी पहले-पहल अनदेखा ही किया। कीरत ने उसे बताया था कि फुग्गन रसूख वाला व्यक्ति है और जब-तब कीरत की मदद कर दिया करता है, पैसों के मामले में भी और धाक जमाने के मामले में भी। सुखबाई नहीं चाहती थी कि उसकी वज़ह से कीरत और फुग्गन के बीच कोई खाई पड़े। सुखबाई की इस सोच को स्वीकृति समझ कर फुग्गन ने अपनी क्रियाशीलता बढ़ा दी। वह हर दूसरे-तीसरे दिन घर आने लगा । कभी एक गिलास पानी का बहाना तो कभी चाय का बहाना, तो कभी नन्हीं भारती को उसकी गोद से अपनी गोद में लेने का बहाना, बस, वह सुखबाई को छूने का कोई न कोई बहाना खोज निकालता। सुखबाई को बड़ी घबराहट होती। अवसर मिलते ही फुग्गन छिछोरे हंसी-माज़ाक करने से नहीं चूकता। कहने को रिश्ता देवर-भाभी का बना रखा था उसने। इस रिश्ते की आड़ में अपने सौ गुनाह तो उसने माफ़ करवा ही लिए थे। बस, एक सौ एकवें की देर थी।
टालने का लाख प्रयास करने पर भी वह दिन आ ही गया जब फुग्गन एक सौ एकवां गुनाह कर ही बैठा और उसके सिर फोड़ने की नौबत आ खड़ी हुई। हुआ ये कि कीरत की अनुपस्थिति में फुग्गन घर आ टपका ।
‘सुनो जी, मुझे ये फुग्गन के रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लगते हैं।’ आखिरकार एक दिन सुखबाई ने कीरत से कह ही दिया। उसे लगा कि अगर वह कीरत से नहीं कहेगी तो फुग्गन का हौसला तो बढ़ेगा ही, कीरत भी किसी दिन उसे ही दोषी ठहराएगा। मर्द की ज़ात औरत में पहले दोष देखती है, मर्द में बाद में।
‘हूं, लगता तो मुझे भी है! सुनो, तुम उसके सामने न आया करो, चाय-पानी ले कर भी नहीं! मुझे आवाज़ दे दिया करो, मैं रसोई में आ कर ले लिया करुंगा!’ सोच-विचार कर कीरत ने रास्ता सुझाया ।
‘उसका घर पे आना नहीं रोक सकते? मना कर दो न उसको !’ सुखबाई बोली ।
‘बुरा मान जाएगा वो। रसूखवालों का बैर और प्यार दोनों बराबर होते हैं, गले मिलो तो चाटेंगे, और झगड़ा करो तो बोटियंा काटेंगे ! ऐसे ही चलने दो अभी तो, फिर देखते हैं कि आगे क्या होता है.... तुम सामने नहीं पड़ोगी तो चार दिन में ही किसी और दरवाज़े में झांकने लगेगा वो ।’
कीरत की बात सुखबाई को समझ में आ गई, और यह भी कि फुग्गन से आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं है।
सुखबाई को अपने साथ-साथ अपनी दोनों बेटियों के लिए भी डर सताने लगा। भारती, यद्यपि गोद में थी और आरती घुटनों के बल रेंगती थी, मगर पापी फुग्गन का क्या भरोसा? एक बार उसके मायके के गंाव में एक ढोंगी आया था, दो माह उस गंाव में रहा था, मगर उस दौरान उसने तीन-चार बरस की तीन-तीन बच्चियों की ज़िन्दगी बरबाद कर डाली थी। वो तो गनीमत है कि उसका भेद खुल गया और गंाव वालों ने उसे मार-मार कर अधमरा कर डाला, नहीं तो और पता नहीं कितनी बच्चियों की ज़िन्दगी बरबाद करता । पुलिसवालों ने भी उस अधमरे ढोंगी को खूब जुतियाया था मगर उससे उन बच्चियों का जीवन पहले जैसा तो नहीं हो सकता था। वे अपने माथे पर एक दाग़ ले कर बड़ी होंगी, फिर कौन करेगा उनसे शादी, कैसे बसेगा उनका घर ?
सुखबाई ने फुग्गन के सामने निकलना बंद कर दिया। फुग्गन के आने की आहट पा कर वो घर में ऐसे दुबक जाती जैसे बाज़ के डर से गौरैया दुबक जाती है। फुग्गन से भी यह परिवर्तन छिपा नहीं रह सका ।
‘का बात है, भौजी आजकल दिखती नहीं हैं! नाराज़ हैं का हमसे? कौनऊ गुस्ताख़ी हो गई है का हमसे?’ फुग्गन निर्लज्ज की भांति कीरत से पूछने लगता ।
‘अरे नहीं, ऐसे ही कुछ काम में लगी है !’ कीरत टालते हुए उत्तर देता, और फिर ऊंचे स्वर में सुखबाई को आवाज़ देता, ‘देखो, तुम्हारे देवर आए हैं, चाय बन जाए तो पुकार लइयो, तब तक मूरत से पानी तो भेजवा देओ !’
यही सिलसिला चलता रहा, जब तक कि फुग्गन ने कीरत की पीठ पीछे घर में पांव नहीं रखा । वह दिन, वह घड़ी सुखबाई कभी भूल नहीं सकी। दद्दा रिश्तेदारी में गए हुए थे, मूरत और सूरत बाहर खेल रहे थे, आरती खाट पर और मालती झूले में सो रही थी, कीरत भी घर पर नहीं था । उस दिन फुग्गन ने दरवाज़े की कुण्डी भी नहीं खटकाई, उसे पता था कि कीरत घर पर नहीं है । लगभग सूने घर में अकेली सुखबाई, फुग्गन के लिए इससे अच्छा अवसर और भला क्या हो सकता था ? सुखबाई को आहट तो मिली थी, मगर कुण्डी खटकाने की आवाज़ के अभाव में उसने समझा कि बच्चे होंगे। जब तक सुखबाई कुछ समझ पाती, तब तक फुग्गन ने पीछे से उसे दबोच लिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण से हड़बड़ा कर सुखबाई ऐसी छटपटाई कि पहली पकड़ के बाद ही फुग्गन के बंधन से छूट खड़ी हुई। फुग्गन ने फिर प्रयास किया । सुखबाई बिल्ली के पंजे के समान अपनी उंगलियों से फुग्गन पर प्रहार करने लगी । कुछ देर की छीना-झपटी के बाद सुखबाई को समझ में आ गया कि फुग्गन उस पर भारी है, सुखबाई ने चींखना-चिल्लना शुरू कर दिया । जाने उसकी चींख में दम नहीं थी या घर के आस-पास कोई था ही नहीं, उसकी चींख सुन कल कोई नहीं आया। यद्यपि, फुग्गन डर गया कि कहीं कोई आ न जाए, वह भाग खड़ा हुआ।
फुग्गन के जाते ही सुखबाई धम्म से वहीं ज़मीन पर गई । अस्मत तो उसने बचा ली थी मगर अब साहस जवाब दे गया था। फटे कपड़ों में, अपने घुटनों में सिर दिए, बैठी-बैठी वह अंासू बहाती रही। दद्दा से पहले कीरत आया, काश ! दद्दा पहले आए होते । कीरत ने सुखबाई की दशा देखी तो वह सकते में आ गया, क्या हुआ ? ये लो क्यों रही है ? कहीं दद्दा को तो कुछ नहीं हो गया ?
‘क्या हुआ सुक्खू ? तू रो क्यों रही है ? बता न क्या हुआ ?’ कीरत ने घबरा कर सुखबाई को कंधे से पकड़ कर झकझोर दिया, तभी उसे अहसास हुआ कि सुखबाई के कपड़े फटे हुए हैं ।
‘कौन आया था ?’ दूसरा प्रश्न यही था कीरत का ।
सुखबाई के हलक से आवाज़ नहीं निकल पाई लेकिन कीरत समझ गया और दनदनाता हुआ चल दिया फुग्गन के पास।
कीरत को जेल की सज़ा होने के बाद कई रातें सुखबाई ने रो-रो कर काटीं । उसके आगे की कई लातें करवट बदल-बदल कर काटीं । उसका कोमल मन इस बात को ले कर और अधिक द्रवित हो उठता कि जेल में कीरत की रातें कितनी कठिनाई से कट रही होंगी । कभी-कभी सुखबाई को स्वयं पल क्रोध आता कि वह उस दिन अपने-आप पर नियंत्रण रख पाई होती तो कीरत को जेल न जाना पड़ता । सचमुच ये सब उसी के कारण तो हुआ, सुखबाई का मन टीसता रहता । सुखबाई की उस दिन बड़ी विचित्र मनोदशा थी जिस दिन कीरत को पहली बार पेरोल पर घर आना था। चचिया देवर कीरत को लेने गया था । अंागन में दद्दा का शव रखा हुआ था । नाते-रिश्तेदार जुड़ गए थे । सभी को कीरत की प्रतीक्षा थी । दद्दा की चिता को आग, कीरत को ही देनी थी । पूरे घर में रोना-पीटना मचा हुआ था । सुखबाई की ननद खबर पाते ही अपनी ससुराल से दौड़ी चली आई थी । नंदेऊ भी साथ आया था, और बड़ा लड़का भी । ननद बुक्का फाड़ कर और छाती पीट-पीट कल रो रही थी । माना कि बाप के मरने का दुख बेटी को होना ही था, मगर उसके रोने में दुख कम और प्रदर्शन अधिक था । वह ऐसे संवेदनशील समय में भी सुखबाई को कोसना नहीं भूली । उसने गरियाते हुए कहा था, ‘‘जे ससुरी हमाई भौजी नई, डायन है, डायन! पैले भैया को जेल भेजवा दओ, औ अब दद्दा को खा गई । अब जुड़ा गई छाती ? अब मिलहे छुट्टा ऐश करबे के लाने .....’’
क्या कहती सुखबाई ? खून का घूंट पी कर रह गई थी । जी में तो आया कि साफ़-साफ़ कह दे कि उसने नहीं कहा था कीरत को कि वो फुग्गन का सिर फोड़ दे, उसकी जान ले ले । लेकिन सुखबाई जानती थी कि कोई लाभ नहीं है मुंह खोलने से। सब उसे ही कोसेंगे, जलील करेंगे । जब से कीरत जेल गया था तब से उसे धिक्कार और प्रताड़ना के अलावा मिला ही क्या था । गंाव, रिश्तेदारी में सब उसे हत्यारे की बीवी कहते हैं, कभी प्रत्यक्ष में तो कभी परोक्ष में । वह मूंड़ औंधाए ज़िन्दगी काट रही है, और करे भी तो क्या? आवेश पल भर का और सज़ा ज़िन्दगी भर की।
सोना, सज्जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार
दुर्जन कुंभ-कुम्हार के, एकै धका दरार......
कीरत ने घर में पंाव रखा तो सुखबाई का कलेजा मुंह को आ गया । पहले से आधा शरीर रह गया था कीरत का । चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी जिसके कारण उसे देख कर ऐसा लग रहा था मानो वह जेल से नहीं बल्कि किसी लम्बी बीमारी के बाद अस्पताल से छूट कर आ रहा हो । घर का माहौल ऐसा था कि सुखबाई और कीरत की आपस में नज़र भी न मिल पाई । कीरत ने जैसे ही दद्दा के शव को देखा तो बिलखता हुआ शव से लिपट गया ।
‘दद्दा, कहंा चले गए तुम, हाय रेे !’ विलाप कर उठा था कीरत ।
सुखबाई से कीरत का बिलखना देखा नहीं गया । उसने कीरत को कभी रोते हुए भी नहीं देखा था। कीरत का विलाप सुन कर सुखबाई को चक्कर आ गया और वह गश खा कल गिर गई । जब उसे होश आया तो उसने खुद को औरतों के बीच एक कमरे में पाया । होश आते ही उसके मन में जो पहली बात कौंधी वह थी कि कीरत कहंा गया ? वह हड़बड़ा कर उठी और अंागन की और लपकी । एक औरत ने उसे थाम लिया और धीरज बंधाने लगी ।
‘दद्दा कहंा गए?’ उसने कीरत को न पूछ कर दद्दा के बारे में पूछा । यह उसका सहज संकोच था, कोई सोचा-समझा प्रश्न नहीं था ।
‘ठठरी उठ गई, बिन्ना ! अब दद्दा कभऊं न आहें !’ एक बूढ़ी औरत ने कहा । दद्दा की अर्थी ले जाई जा चुकी थी । कीरत भी साथ में चला गया था । आग भी तो उसी को देना था, वह भला कैसे रुकता?
कीरत को पेरोल पर तीन दिन के लिए छोड़ा गया था। दद्दा की तेरहवीं के लिए आ पाएगा या नहीं , यह निश्चित नहीं था । सुखबाई के मन में बस एक ही चाह कुलबुला रही थी कि कम से कम दो पल के लिए ही सही कीरत उसके पास आ जाए । वह कीरत को जी भर कर देख ले। मगर उसे भय था कि उसकी ये चाह पूरी नहीं हो पाएगी । शोक वाला घर था। रिश्तेदारों की भरमार थी। दुख का वातावरण था। कीरत को ढाढस बंधाने वालों का तंाता लगा हुआ था। वैसे सच्चाई तो ये थी कि ढाढस बंधाने से कहीं अधिक उत्सुकता थी कीरत के रूप में सज़ा काट रहे हत्यारे को निकट से देखने की।
रात को सुखबाई अपने कमरे में आ गई थी । बच्चे सो चुके थे । सुखबाई ठंडी दीवार से पीठ सटा कर ,घुटने पर सिर रख कर बैठ गई थी । उसके मन में कीरत का चेहरा उमड़-घुमड़ रहा था । बैठे-बैठे, सोचते-सोचते जाने कब नींद लग गई । जब किसी ने अपने मज़बूत पंजे में उसकी बंाह दबोची तब वह अचकचा कर जाग गई । सामने कीरत था । अपने सामने कीरत को पा कर उसे खुश होना चाहिए था किन्तु पहली बार उसके मन में सिहरन दौड़ गई । उसे लगा मानो उसके सामने कीरत न हो बल्कि कोई अपरिचित चेहरा हो, मर चुके फुग्गन का या फिर उसे मारने वारे हत्यारे कीरत का । उस क्षण पहली बार सुखबाई के मस्तिष्क में यह विचार आया था कि कीरत एक इंसान की हत्या कर चुका है । वह हत्यारा है । वह किसी की भी हत्या कर सकता है । इससे आगे उसे सोचने का समय ही नहीं मिल था । कीरत ने उसे सोचने का अवसर ही नहीं दिया । फिर भी सुखबाई उसे समय वहंा हो कर भी नहीं थी । उसके मानस पटल पर वे दृश्य घूमने लगे थे जो कीरत के कारावास के लिए उत्तरदायी थे।
ग़रीबी थी मगर वह समय ऐसा बुरा नहीं था। बुरा समय शायद वहीं से शुरू हुआ जब से कीरत और फुग्गन में दोस्ती आरम्भ हुई। सुखबाई की हालत देख कर कीरत आपे से बाहर हो गया और उसी समय चल पड़ा फुग्गन को खोजने। सुखबाई ने उसे रोकने का प्रयास किया था लेकिन वह प्रयास आग में घी का काम कल गया ।
सुखबाई को बाद में खुद कीरत ने बताया था कि जब वह फुग्गन को ढूंढते पहुंचा तो फुग्गन अपने एक लंगोटिया के यहंा बैठ कर दारूखोरी कल रहा था। कीरत ने फुग्गन को देखा तो उसका खून खौल उठा । उसने आव देखा न ताव और पास में पड़ी कुल्हाड़ी उठा कल फुग्गन के सिर पर दे मारी । उस क्षण उसने सोचा भी नहीं था कि उसके हाथों एक हत्या होने जा रही है । उसने तो यह भी नहीं देखा था कि कुल्हाड़ी की धार किधर है। संयोगवश कुल्हाड़ी उल्टी थी मगर उल्टी कुल्हाड़ी का वार पड़ते ही फुग्गन धराशयी हो गया । उसने तत्काल दम तोड़ दिया । यद्यपि, कीरत को बहुत देर बाद थाने में पता चला था कि फुग्गन ने उसी समय दम तोड़ दिया था। सुखबाई को इस घटना का पता उस समय चल जब गंाव का ही एक आदमी दौड़ा-दौड़ा आया और उसने हंाफते-हंाफते बताया कि कीरत पुलिस चैकी में है क्योंकि उसने फुग्गन को मार डाला है। यह सुन कर सिहर गई थी सुखबाई। हे भगवान! ये क्या कर डाला कीरत ने! वह एक बार फिर थरथर कंापने लगी थी ।
कीरत का मुकद्दमा बना उधार के लेन-देन के कारण हुई हत्या का। फुग्गन के पुलिवालवालों के वकील ने कहा कि कीरत ने फुग्गन ने बड़ी रकम उधार ली थी। जब फुग्गन ने वह रकम वापस मंागी तो कीरत ने उसकी हत्या कर दी । फुग्गन के रिश्तेदार नहीं चाहते थे कि फुग्गन की मौत के बाद उसकी बदचलनी खुलेआम चर्चा का विषय बने, इससे उनकी साहूकारी-साख को धक्का लगता। कीरत ने भी सुखबाई वाले मामले को दबा रहने दिया। आखिर जोरू की इज्जत घर की इज्जत होती है। लोग तो यही मान बैठेंगे कि सुखबाई अपनी इज्जत नहीं बचा पाई । इससे बेटे-बेटियों का भविष्य भी चैपट हो जाएगा । न कोई बहू देगा और न कोई बेटी लेगा । कीरत ने अदालत में सज़ा सुनाए जाने से पहले ज़ेल में सुखबाई को समझाया था कि फुग्गन ने तुम्हारे साथ क्या किया, इस पल पर्दा पड़े रहने देना । मन न होते हुए भी सुखबाई ने कीरत की बात मान ली थी और अपना मुंह बंद रखा था । फिर भी उंगली उठाने वालों की कहीं कोई कमी होती है भला ? लोगों ने यहंा कह डाल कि कीरत ने कर्ज न चुकाना पड़े इसके लिए फुग्गन से सुखबाई का सौदा भी करना चाहा था मगर फुग्गन न माना और बात बिगड़ गई ।
सुखबाई सब कुछ चुपचाप झेलती-सहती रही । इसके अलवा उसके पास और कोई चारा भी न था । कीरत के जेल चले जाने से दद्दा टूट गए । वे बीमार रहने लगे। दद्दा ने सुखबाई से बोलना बंद कर दिया था । जो भी बात कहनी होती वे बच्चों के माध्यम से कहते । दद्दा भी सुखबाई को उस अपराध की सज़ा दे रहे थे जो उसने किया ही नहीं था। मगर दद्दा की दृष्टि में सुखबाई का औरत होना ही सबसे बड़ा अपराध था। किसी मेल-मुलाकात करने वाले के घर आने पर वे सुखबाई को सुना-सुना कर कहते, ‘मरद के लिए जोरू सबसे बड़ी अभिशाप होती है, जारू न होए तो मरद को कोई कष्ट न होए...जारू खुद तो हरियाती है पर मरद को सुखा-सुखा कर ठूंठ कर देती है.... ।’
दद्दा की जले-कटे उद्गार सुन कर सुखबाई का जी करता कि वह भी तमक कर पूछे कि तुम्हारी जोरू न होती तो कीरत कहंा से पैदा होता? और, जो मैं न होती तो तुम्हारे वंश का नामलेवा कहंा से आता ? मगर वह चुप रहती, यह सोच कर कि इस बूढ़े बाप ने जवान बेटे को ज़िन्दगी भर के लिए जेल जाते देखा है, कहीं, किसी पर तो भड़ास निकालेगा ही। फिर भी, इस तनाव भले वातारण में सुखबाई के भीतर की औरत तिल-तिल कर के मर रही थी, भावनाओं के स्रोत सूखते जा रहे थे और जीवन बस, जीने के लिए जीना पड़ रहा था।
यही गनीमत थी कि सुखबाई के एक भाई ने उसका साथ दिया और बीच-बीच में आ कर देख-भाल करने लगा । इसलिए स्थिति दयनीय होने से बच गई । धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया और बच्चे बड़े होते गए। लेकिन जेल से पहले पेरोल पर घर आए कीरत की छवि सुखबाई को इतनी अपरिचित लगी कि उसका मन तय ही नहीं कर पाया कि वह किस तरह अपना पत्नीधर्म निभाए। कीरत झुंझला उठा था उसकी उत्साहहीनता पर। जबकि सुखबाई ये सोच कर हतप्रभ थी कि शाम को दद्दा की चिता फूंक कर आए कीरत का मन कैसे हो रहा है कुछ भी करने का ? माना कि कीरत को दो दिन बाद वापस जेल लौट जाना था मगर शाम को ही तो दद्दा की...।
वे कुल तीन रातें बड़े कष्ट से बीती थीं । कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा था सुखबाई को । शरीर भी साथ नहीं दे रहा था, सब कुछ पत्थर हो चुका था। सारा उत्साह, सारी ललक और उत्तेजना चूल्हे की उस राख की तरह ठंडी पड़ चुकी थी जिसमें अंगारे का एक नन्हा-सा टुकड़ा भी शेष न बचा हो, एकदम ठंडी राख।
यही हाल रहा, जब-जब कीरत परोल पर घर आया। मूरत के विवाह के समय कीरत ने अवसर पाते ही सुखबाई को ढेर सारा उलाहना दे डाला था।
‘मेरे जेल जाते ही मेरी तरफ से मन फेर लिया न, सुक्खू ! तुम औरतजात ऐसी ही होती हो, तुम्हें तो रोज-रोज मिलने वाल मरद चाहिए, है न !’ कीरत ने जले-भुने स्वर में कहा था।
‘राम-राम! कैसी बातें करते हो, लाज नहीं आती ? जब से तुम जेल में जा के बैठे, मेरा तो मन ही मर गया है। अब तो जी ही नहीं करता है।’ अकुला कर बोली थी सुखबाई।
‘मुझे देख कर भी ? अपने पास पा कर भी ?’ तनिक नरम पड़ा था कीरत।
‘हंा!’ स्वीकार करते ही सुखबाई ने इतना और जोड़ दिया था, ’मगर तुम जो चाहो करो, मुझे मना नहीं है।’
वह कहना तो यह चाहती थी कि तुम आते हो तो किसी साहूकार की तरह अपना अधिकार वसूलते हो और फिर महीनों के लिए अकेली छोड़ कर चले जाते हो। भूख-प्यास तो तुम्हारे जाने के बाद भी लगती है, कैसे जीती हूं मैं, ये भी तो सोचो !
उसके बाद न तो कीरत ने उससे कुछ कहा, सुना और न सुखबाई ने। बड़े हो चले बच्चे सुखबाई को उपेक्षा का शिकार बनाने लगे। उन्हें भी लगने लगा कि जीवन की इस गड़बड़ में अगर बाप दोषी है तो मंा भी दोषी है, सज़ा उसे भी मिलनी चाहिए थी।
‘इससे तो अच्छा था कि तुम भी जेल जा बैठतीं, कम से कम कहने को तो रहता कि हम अनाथ है....’ किसी बात पर भड़क कर सूरत ने उसे ताना मारा था ।
‘हमारे पीछे तो कोई नहीं आता है, तुम्हारे पीछे फुग्गन क्यों पड़ा था....’ बेटी आरती ने अपनी सच्चरित्रता तो स्थापित करते हुए सुखबाई पल कीचड़ उछाल दिया।
जेल से छूटे उसे दो सप्ताह हो चले हैं मगर इन कुल चैहद दिनों में उसके और सुखबाई के संबंधों में वह जीवन्तता नहीं आ सकी, जैसी कि उसके जेल जाने से पहले हुआ करती थी । शायद उम्र बढ़ चली है? नहीं, सुखबाई को कीरत के निकट जाने में भी हिचक होती। यदि पत्नी धर्म निभाना उसकी विवशता न होती तो वह कीरत से कह ही देती कि चलो हम दोनों भाई-बहन की तरह रहें। हमारे बीच पति-पत्नी जैसा कुछ भी न रहे । मगर यह कह पाना संभव नहीं था । जबकि उतना ही दरूह था अपने भीतर पहले जैसी कल-कल करती नदी को ढूंढ पाना । पहली रात, दूसरी रात, तीसरी रात...बस, कीरत के धैर्य का बंाध टूट गया। उसने सुखबाई से कह ही दिया-‘ऐसा लगता है कि तुम बदल गई हो ! मुझसे घिन आती है तुम्हें ?’
‘नहीं तो ?’ सुखबाई ने सिर झुका कर कहा ।
‘तो फिर ?’कीरत ने पूछा ।
‘फिर क्या ?’ नासमझ की तरह बोली थी सुखबाई ।
‘तुम हमसे दूर-दूर काहे भागती हो?’ झुंझला कर बोला था कीरत,‘तुम यही सोचती हो न कि एक हत्यारे के साथ कैसे रहा जाए?’
‘नहीं-नहीं, कैसी बातें करते हो ?....वो तो अब मन नहीं करता...बहुत साल गुज़र गए न !...अब हम नाती-पोते वाले हो चुके हैं...बहू बातें बनाएगी...पराए घर की लड़की है....’ सुखबाई ने झिझकते हुए कहा था। सुखबाई का कथन कुछ प्रतिशत सच था ल्ेकिन उससे बड़ा सच था कि अब सुखबाई को संसर्ग में रुचि ही नहीं रह गई थी। संसर्ग के मामले में बारह बरस का लगभग बैरागी जीवन बिताने के बाद तन-मन की सूखी बेल भला कैसे हरिया पाती।
सुखबाई की बात सुन कल कीरत को बड़ी ठेस पहुंची थी । उसके ल्एि तो मानो उसके घर का समय बारह साल से जहंा के तहंा ठहरा हुआ था, मगर नहीं, सुखबाई ने उसे याद दिला दिया कि समय बहुत दूर निकल चुका है । बीती हुई उम्र लौट कर नहीं आएगी । स्रोत सूख चुके हैं, मौसम हमेशा के लिए बदल चुका है, अब नदी-ताल फिर कभी नहीं भरेंगे । संकेत में ही सही ल्ेकिन सुखबाई ने जता दिया था कि अब तो शेष जीवन सूखा और बंजर ही झेलना है । उफ ! यह सज़ा भी उसके हिस्से में लिखी हुई थी, कीरत फफक-फफक कर रोता रहा था ।
‘तुमने हमें जेल में ही क्यों नहीं बताया कि हम बुढ़ा गए हैं ...हम अपनी रिहाई ठुकरा देते और कह देते कि हमें जेल में ही रहना है!’ कलपते हुए बोल उठा था कीरत ।
सुखबाई उसका रोना देख कल रूंआसी हो उठी थी। सज़ा वह भी तो भोग रही थी।
एक-दूसरे के प्रति पछतावे और सहानुभूति के बाद भी संबंधों में ठंडक बनी रही ।
सुखबाई ने एक बात और भी ध्यान दी थी कि जेल से लौटने के बाद कीरत बड़ी-बड़ी बातें करने लगा था, कुछ-कुछ संतो-महात्माओं जैसी। वैसे कीरत ने बताया था कि कीरत को ये ज्ञान रामसिंह लोधी ने दिया था । रामसिंह लोधी कीरत के समान जेल में सज़ा काट रहा था। सब उसे लोधी दादा कह कर पुकारते थे । वह ऐसे ही ज्ञान-ध्यान की बातें करता था । जबकि लोधी दादा को पता था कि वह खुद कभी जेल से आज़ाद नहीं हो पाएगा। उसे कोई बीमारी लग चुकी थी। कौन-सी बीमारी ? यह कोई नहीं जानता था। वह एक मामूली तबके का अपराधी था, कीरत के समान । वह न तो राजनीति से जुड़ा हुआ था और न किसी बड़े अपराधी दल से । उसकी खैर-ख़बर लेने वाला कोई नहीं था। उसे तो ऐड़ियंा रगड़ते हुए जेल में ही दम तोड़ना था । कीरत उसके लिए चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था । वह खुद ही लाचार था ।
क्या नहीं सहा कीरत ने जेल में ? उसने सिपाहियों की गालियंा सुनी, बिना बात के उनसे लात-जूते खाए, दादा-टाईप कैदियों के लिए गुलाम जैसे काम किए । यहंा तक कि उसने उनकी देह पिपासा शंात करने के लिए औरत की भूमिका भी निभाई। अपने पौरूष के विरूद्ध जब उसने पहली बार यह पीड़ा झेली तो उसके मन ने उससे देर तक पूछा था कि क्या यह सज़ा भी उसके आजन्म कारावास की सज़ा में शामिल है? सज़ा का काग़ज़ लिखते समय क्या इसे भी जज साहब ने उसके नाम दर्ज़ कर दिया था ? क्या उसे फुग्गन का सिर उल्टी कुल्हाड़ी से फोड़ते समय इस बात का अहसास था कि जेल में उसे क्या-क्या भुगतना होगा? कदापि नहीं! लेकिन अगर उसे इन सब सज़ाओं का ज़रा-सा भी अहसास होता तो क्या वो फुग्गन का सिर नहीं फोड़ता? ज़रूर फोड़ता। इस तरह की ढेरों बातें करता, बताता रहता कीरत । सुखबाई उसकी भोगी हुई कठिनाइयों को महसूस करने का प्रयत्न करती और सिहर-सिहर जाती ।
कीरत और सुखबाई के भाग्य में एक सज़ा और ल्खिी हुई थी जिसका उन्हें अनुमान भी नहीं था । यह सज़ा सुनाई उनके अपने बेटे सूरत ने ।
‘अम्मा, बापू से कह दइयो के वे कहूं चले जाएं। काए से के हमाए ससुर साब ने मूरत के लाने एक लड़की देखी है ...और हमाए ससुर साब जे नई चाहत हैं के ब्याओ की बेला में बापू इते रहें ।’ सूरत ने दो टूक शब्दों में सुखबाई से कह दिया था ।
‘पर बेटा....’
‘नई अम्मा, तुम कछु न बोले ! हमाए खयाल से भी जेई ठीक रैहे । अखीर बापू हत्या के जुर्म में जेल काट के आए हैं।’ सूरत ने कहा और सुखबाई को कुछ बोलने का अवसर दिए बिना ही वहंा से चला गया।
सुखबाई ही जानती थी कि सूरत उसे किस मुसीबत में फंसा गया है । आखिर जिस इंसान ने उसकी अस्मत का मान रखने के लिए हत्या की और बारह बरस की लम्बी अवधि जेल में तिल-तिल कर काटी उससे कैसे कह दे वह कि तुम फिर कहीं चले जाओ क्योंकि तुम्हारे बेटे का ब्याह होने वाला है । क्या कहे ? कैसे कहे ? उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया अतः उसने दो-तीन दिन चुप रह कर व्यतीत कर दिए । इधर सूरत ने देखा तो वह सुखबाई पर बिगड़ उठा । उसने साफ-साफ कह दिया कि वह अपने हत्यारे बाप के लिए अपने निर्दोष भाई की ज़िन्दगी बरबाद नहीं कर सकता है । इस पर सुखबाई ने वादा किया कि वह कीरत से इस बारे में बात करेगी।
‘सूरत कह रहा था कि उसके ससुर ने मूरत के लिए लड़की देखी है....’
‘अरे वाह ! ये तो अच्छी बात है ।’ कीरत ने खुश हो कर कहा ।
‘मगर...लड़की वाले ब्याह में हिचक रहे हैं ....’
‘क्यों ?’
‘वे सोचते हैं कि तुम अब घर में ही रहोगे तो...’ इसके आगे सुखबाई ने बात अधूरी छोड़ दी। पूरा कहने को कुछ था भी नहीं। बिना कहे भी कीरत बात समझ गया। लड़की वाले भला उस घर में अपनी बेटी को भेजने में हिचकेंगे ही जहंा एक हत्यारा रह रहा हो ।
कुछ देर चुप रहा कीरत। सुखबाई भी चुप रही। वह कीरत के उत्तर की प्रतीक्षा करती रही। कीरत ने अप्रत्याशित-सा प्रश्न किया-‘कितने दिनों के लिए जाना होगा मुझे ?’
‘तुम्हें ?’ सुखबाई हिचकिचाई ।
‘हंा, शादी वाले घर में औरतों के लिए ज्यादा काम रहता है । तुम्हारा यहीं रहना ठीक होगा ! ’ कीरत ने कहा ।
‘नहीं, मेरा भी यहां कोई काम नहीं है। मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी । मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी ।’ सुखबाई ने आग्रह किया । उसका ये आग्रह दिखावा नहीं था । वह कीरत का साथ देना चाहती थी। बंजर हो चुकी धरती भले ही फिर न हरियाएगी लेकिन एक-दूसरे के साथ की नमी तो उन्हें भिगोए रखेगी।
आवेश में घटी एक घटना कितनी दूर तक अपना असर छोड़ती है, इसका प्रमाण सुखबाई और कीरत की ज़िदगी के इस मोड़ पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता था। सुखबाई और कीरत अपना-अपना सामान बांधने लगे। सामान भी क्या था, चार जोड़ी कपड़े और उनकी अपनी धार्मिक आस्था से जुड़ी कुछ वस्तुएं। कबिरहा साधू के बोल सुखबाई के होठों पर तैर गए और वह सामान बांधती हुई गुनगुनाने लगी।
सांझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय
चल चकवा वा देस को, जहां रैन नहिं होय .....
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