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रविवार, जून 28, 2020

ज़िंदा मुहावरों का समय - डॉ शरद सिंह - संस्मरण पुस्तक का अंश

( शायद यक़ीन न हो पर ये मैं हूं... 5 वीं कक्षा की ग्रुप फोटो में से...निहायत बुद्धू-सी दिखाई दे रही ह़ूं !)
        उन दिनों मैं पन्ना (म.प्र) के शिशु मंदिर विद्यालय में पढ़ा करती थी। (सरस्वती शिशु मंदिर नहीं) यह मनहर महिला समिति  नामक एक ट्रस्ट द्वारा संचालित  विद्यालय था,  जिला कलेक्टर की पत्नी भी उस ट्रस्ट की मेंबर हुआ करती थीं । मुझे याद है कि उन दिनों मृणाल पांडे जी के पति अरविंद पांडे पन्ना में कलेक्टर थे और वे ट्रस्ट की मेंबर के रूप में मेरे विद्यालय कभी-कभी आया करती थीं। उन दिनों मुझे उनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। वह तो कॉलेज पहुंचते-पहुंचते यह पता चला कि वे प्रख्यात उपन्यासकार शिवानी जी की पुत्री थीं और स्वयं भी प्रखर पत्रकार और लेखिका थीं।

     बड़ा खूबसूरत था मेरा वह स्कूल। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से बिलकुल सटा हुआ था। सिर्फ़ बाउंड्रीवॉल थी दोनों के बीच....और एक साझा कुआ। दोनों विद्यालय पन्ना राजघराने की महारानी मनहर कुमारी के नाम पर पन्ना महाराज ने बनवाए थे। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मैंने आगे की पढ़ाई की लेकिन उसकी चर्चा किसी अगली पोस्ट में। मेरी मां वहां हिंदी की लेक्चरर थीं। वहां के अनुभव बाद में....

लंच बॉक्स की चोरी और जे बी मंघाराम के बिस्किट के डब्बे :
     उन दिनों के दो-तीन अनुभव ऐसे हैं जो मेरी स्मृति पर हमेशा के लिए दर्ज़ हो कर रह गए और उन्होंने मेरे जीवन पर गहरा असर डाला। उनमें से एक घटना थी मेरे लंच बॉक्स की चोरी की। उन दिनों हम दोनों बहनों के लिए मां बिस्कुट के टिन के डब्बे खरीद दिया करती थीं। दोनों के लिए अलग-अलग डब्बे, ताकि आपस में किसी प्रकार का कोई झगड़ा न होने पाए। यद्यपि हम दोनों बहनों के बीच खाने-पीने को लेकर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ फिर भी मां शायद कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थीं। उन दिनों जेबी मंघाराम के बिस्कुट के डब्बे चलन में थे, जिन पर बहुत ही खूबसूरत चित्र हुआ करते थे। मां ने अलग से लंच बॉक्स खरीदने के बजाए उन्हीं बिस्कुट के डिब्बों में से एक को मेरा लंच बॉक्स बना दिया था और मैं उसी में अपना लंच स्कूल ले जाया करती थी।  शायद यह घटना तीसरी या चौथी कक्षा की है...  मेरी कक्षा में एक लड़की थी जिसे दूसरों के बस्ते से सामान निकाल लेने की यानी चोरी करने की आदत थी। हमें उसके बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं थी लेकिन अंदाज़ा ज़रूर था। फिर भी उसे कभी कोई रंगे हाथों नहीं पकड़ पाया और इसीलिए वह हमेशा सज़ा से बचती रही। एक दिन उस लड़की ने मेरे लंच बॉक्स पर भी हाथ साफ़ कर दिया। यानी मेरा खाने का डब्बा ही चुरा लिया। वह खूबसूरत चित्र वाला बिस्कुट का डिब्बा जो था। ऐसा लंच बॉक्स मेरी किसी भी सहपाठी के पास नहीं था। इसीलिए वह सब में लोकप्रिय भी था। निश्चित रूप से उस चोर लड़की की नजर भी मेरे उस लंच बॉक्स पर कई दिनों से रही होगी और मौका पाकर उसने अपने हाथ की सफाई दिखा ही दी। घर लौटने पर जब मां ने बस्ता टटोला तो उन्हें मेरा डब्बा नहीं मिला। उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने तो खाना खाने के बाद याद से अपना डब्बा अपने बस्ते में रख लिया था। ख़ैर, मां ने दूसरे दिन दूसरे डब्बे में मेरे लिए खाना रख दिया। वह दूसरा डब्बा भी बिस्कुट का डब्बा ही था। सुंदर से चित्र वाला। दो-तीन दिन बाद वह भी मेरे बस्ते से चोरी हो गया। मां को जब इसका पता चला तो वह मुझ पर भी गुस्सा हुई कि मैं अपना सामान ठीक से क्यों नहीं रखती हूं। बतौर सज़ा उन्होंने यह तय किया कि मैं प्लास्टिक के लिफाफे में यानी प्लास्टिक की थैली में अपना लंच ले जाया करूंगी। उन दिनों प्लास्टिक की थैलियों यानी पन्नियों का इस क़दर चलन नहीं था। वह थैली किसी पैकिंग के रूप में आई थी। मां उसी प्लास्टिक की थैली में  मेरा लंच  पैक करके  मेरे बस्ते में रख दिया करतीं। लेकिन लंचटाईम में जब मेरी सारी सहेलियां  अपने-अपने लंच बॉक्स लेकर खाना खाने बैठतीं तो मुझे उनके बीच अपनी प्लास्टिक की थैली निकालते हुए शर्म महसूस होती। मैं अलग जाकर एक कोने में बैठ कर खाना खा लिया करती।  मेरी इस हरकत पर मेरी किसी शिक्षिका का ध्यान गया और उन्होंने मेरी मां को इस बारे में बताया कि मैं आजकल अलग-थलग बैठकर खाना खाती हूं। जब मां ने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें सारी बातें सच-सच बता दी कि मुझे प्लास्टिक की थैली में खाना ले जाने में शर्म आती है। इसके बाद मां ने मुझे पुनः एक बिस्किट का डिब्बा दिया और इस हिदायत के साथ कि मैं उसका पूरा ख़्याल रखूंगी।  मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनका विश्वास क़ायम भी रखा। नया डब्बा मिलने के बाद से मैं खाना खाने के बाद  अपने बस्ते का पूरा ध्यान रखती कि मेरे बस्ते से कोई भी सामान चोरी न हो पाए।  

       लंचबॉक्स की चोरी की यह घटना हमेशा के लिए मेरे मन में छप कर रह गई और मुझे ऐसे छात्रों से चिढ़ होने लगी जो दूसरों के बस्तों से सामान चुरा लेते थे। एक आध बार तो मैंने किसी को इस तरह की हरक़त करते देखा तो उसकी शिक़ायत भी कर दी। भले ही बदले में उस सहपाठी से मेरी लड़ाई हुई और बोलचाल भी बंद हो गई यानी 'कट्टी' हो गई। शायद यह भी एक ऐसी घटना थी जिसने बचपन से ही मेरे भीतर ग़लत बात की पीड़ा महसूस करने और ग़लत का विरोध करने का साहस जगाया।
     दूसरी घटना... ऊंहूं...आज नहीं, बाद में किसी और दिन....🙋✍️🙏

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शनिवार, जून 20, 2020

पराई बेटी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, कहानी

कहानी

पराई बेटी

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बाल्कनी में बैठी हुई मंजू जी ने चाय का अभी एक घूंट भरा ही था कि दिव्या की आवाज़ आई - "मम्मी चाय में चीनी कम तो नहीं है।"

मंजू जी ने उत्तर दिया," नहीं बेटा चाय में चीनी पर्याप्त है न कम और न ज्यादा बिल्कुल ठीक उतनी ही जितनी कि मैं चाय में लेती हूं।"

चाय के घूंट पीती हुई मंजू जी फिर अतीत की यादों में खो गईं। 

'मंजू जी' इस संबोधन से उन्हें उनके पति बुलाते थे। वैसे उनका नाम मंजूलता है लेकिन उनके पति हमेशा उन्हें मंजू जी ही कहते रहे हैं और इसीलिए उन्हें उनके सारे रिश्तेदार, उनकी कालोनी के लोग और उनके परिचित सभी उन्हें मंजू जी ही कहते हैं । पति के स्वर्गवास के बाद शुरू-शुरू में उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता था लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे वे अपनी स्कूल शिक्षिका की नौकरी और दोनों बच्चों में व्यस्त हो गईं । बेटा देवांश और बेटी दिव्या कब बड़े हो गए कब उनका विवाह हो गया और कब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों में वे भी व्यस्त हो गए, मंजू जी को मानो एहसास ही नहीं हुआ। बेटा देवांश अपनी पत्नी और बच्चे के साथ ही मंजू जी का भली-भांति ख़याल रखने लगा और बेटी दिव्या विवाह के बाद अपने ससुराल चली गई । बेटियां तो वैसे भी पराए घर की होती हैं । मंजू जी  दिव्या से हमेशा यही कहतीं कि बेटी तुम तो पराए घर की हो । तुम्हें तो हमसे एक दिन नाता तोड़ना ही है। दिव्या उनकी यह बात सुनकर हमेशा नाराज़ हो जाती थी। वह कहती  कि "मम्मी आप भी न ! आप मुझे हमेशा पराया-पराया क्यों कहती हैं ?.... और मैं ससुराल जाकर भी बेटी तो आपकी ही रहूंगी । मेरा और आपका मां - बेटी का नाता कभी टूटने वाला नहीं है।"

...और तब मंजू जी मन ही मन स्वयं से कहती कि... अरे जैसे मैं अपना मायका छोड़कर यहां ससुराल में पूरी जिंदगी व्यतीत कर रही हूं दिव्या ! तू भी ससुराल जाकर अपने मायके को पलट कर नहीं देखेगी , मैं जानती हूं आज भले ही तू कुछ भी कह ले कल तू मुझसे नाता तोड़ ही लेगी।

लेकिन आज बालकनी में बैठकर दिव्या के हाथों की बनी चाय पीते हुए मंजू जी को अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था। उन्हें याद आया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी  जब उनकी बहू होली का त्यौहार मनाने के लिए अपने मायके गई और  रंग पंचमी के बाद देवांश उसे लेने के लिए उसके मायके गया तो वहीं का होकर रह गया ...नहीं, घर जमाई बनकर नहीं …. परिस्थितिवश हुआ यूं कि कोरोना महामारी की आपदा के कारण पहले जनता कर्फ्यू और उसके बाद लॉकडाउन लग जाने के कारण देवांश को अपनी पत्नी के मायके में ही रुकना पड़ा। वीडियो कॉलिंग पर मंजू जी ने उसे बताया था कि उन्हें अपनी तबीयत कुछ ठीक  नहीं लग रही है। लेकिन देवांश ने मंजू जी को अपनी मजबूरी बताते हुए बताया था कि लॉकडाउन के कारण घर नहीं लौट पा रहा है और ऑफिस का काम भी ससुराल में रहते हुए मोबाईल, लैपटॉप पर ही कर रहा है।  

मंजू जी क्या करतीं। मन मसोसकर रह गई थीं। अकेलापन और भी घबराहट पैदा कर रहा था । रात को मोबाइल पर दिव्या से बात करते हुए वे अपनी तबीयत का हाल छुपाने की कोशिश करती रहीं लेकिन दिव्या ने बातचीत से ताड़ लिया कि मंजू जी का हाल अच्छा नहीं है, वे अकेलेपन और तबीयत ठीक नहीं होने के कारण घबरा रही हैं।

दिव्या ने पूछा था, "मम्मी मैं आ जाऊं क्या?"

 तो मंजू जी ने उसे कहा था नहीं बेटी तुम बिल्कुल मत आना। एक तो तुम पराए घर की हो और दूसरे लॉकडाउन के कारण  तुम यहां कैसे आ पाओगी। तुम तो यहां आने की सोचना भी मत । मेरा जो भी होगा मैं स्वयं संभाल लूंगी। मंजू जी को रात भर नींद नहीं आई थी  सुबह-सुबह आंख लगी ही थी कि दरवाजे की कॉल बेल बजी। 

लॉकडाउन में इतनी सुबह-सुबह कौन आया होगा ? सोचती हुई मंजू जी ने दरवाज़ा खोला तो सामने दिव्या खड़ी दिखी । दिव्या को देखकर वे चौंक गई -"अरे दिव्या! तुम बेटा तुम कैसे आ गई ?"

 दिव्या ने कहा - "मम्मी मुझे अंदर आने भी दोगी या बाहर से ही रुख़सत कर दोगी । मैं तो पराए घर की हूं न !"और वह हंसने लगी। 

मंजू जी ने एक और हटकर दिव्या को रास्ता दिया और दिव्या अंदर आ गई। दिव्या ने पूछा कि - "मम्मी तुम्हारी तबीयत अब कैसी है ?" मंजू जी ने कहा कि - "बेटा, तुम्हें देखकर तो मेरी सारी घबराहट दूर हो गई है लेकिन  तुम पहले यह बताओ कि तुम आई कैसे ?

 दिव्या ने हंसकर कहा -"मम्मी कुछ ग़लत मत सोचना । मैं अपनी ससुराल से भाग कर नहीं आई हूं । मैंने जब संजय और उनके मम्मी पापा से आपकी तबीयत का हाल बताया तो संजय ने अपने मम्मी पापा  की  आज्ञा से तत्काल  सक्षम अधिकारियों से परमिशन लेकर मेरे लिए गाड़ी का बंदोबस्त कर दिया और लॉकडाउन में भी मैं सुरक्षित आपके पास आ गई हूं ... और हां, पूरे लॉकडाउन की अवधि में जब तक देवांश भैया यहां नहीं आ पाते हैं, मैं आपके साथ ही रहूंगी ।"

मंजू जी बोल उठीं- " लेकिन बेटा, तुम्हारी ससुराल का क्या होगा?"

" मेरी ससुराल की चिंता आप बिल्कुल मत करिए। वहां मेरी ननद, मेरी सासू मां उस घर की देखरेख के लिए मौजूद हैं , आपके दिए हुए संस्कारों के कारण मैं उनकी बहुत सेवा करती हूं और वह भी मुझे अपनी बेटी की तरह मानते हैं ।"- दिव्या ने उत्तर दिया।


जिस बेटी को आज तक मंजू जी पराए घर की कहती रहीं, वही बेटी आज उनके पास उनका सहारा बनकर मौजूद है ।

ये सारी बातें याद करते हुए मंजू जी की आंखों में आंसू आ गए । वे सोचने लगीं कि  एक ओर  हम बेटी ससुराल जा कर भी वह दोनों कुल की लाज रखे यानी मायके की प्रतिष्ठा की रक्षा करे और वहीं, दूसरी ओर  बेटी के ससुराल जाते ही उससे मायके की डोरियां काटने लगते हैं।  बेटी के भी दिमाग़ में यही पर बिठा कर रखते हैं कि वह तो पराई हो चुकी है। स्वयं भी उससे इसी तरह का व्यवहार करने लगते हैं जैसे वह पराई हो। जबकि बेटी ऐसा कभी नहीं सोचती। वह अपने मायके को कभी पराया नहीं मानती है। दिव्या के रूप में एक उदाहरण आज मंजू जी के सामने था। बेटे देवांश ने इस तरह अपनी मां के पास आने के बारे में नहीं सोचा जबकि बेटी दिव्या ने न केवल सोचा अपितु आ भी गई। उसने तो अपनी मां को पराया नहीं माना, भले ही उसे हमेशा पराई होने का अहसास कराया गया। मंजू जच की आंखें पुनः भर आईं।

       चाय का प्याला  एक ओर रखते हुए उन्होंने दिव्या को पुकारा- "बेटा, तुम भी यहीं बालकनी में आ जाओ । टेबिल की दराज़ में रखा पुराना एल्बम भी लेती आना । हम दोनों मां-बेटी कुछ देर यहीं बैठ कर पुराने दिनों को याद ताज़ा करेंगे।"

"हां मम्मी, बहुत मज़ा आएगा। अभी आई आपकी यह पराए घर की बेटी ।" - दिव्या ने कमरे से आवाज़ दी। दिव्या की बात सुनकर मंजू जी का गला भर आया । वे रुंधे गले से बोल पड़ीं - " बेटी तू तो मेरी अपनी बेटी है।  अब कभी मैं तुझे पराए घर की बेटी नहीं कहूंगी और तू भी मुझे मेरी इस बात की याद नहीं दिलाना।"

मंजू जी को इस बात का भली-भांति एहसास हो गया था कि बेटी, बेटी होती है । पराए घर जा कर भी बेटी कभी पराई नहीं होती।

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गुरुवार, जून 18, 2020

ज़िंदा मुहावरों का समय - डॉ शरद सिंह - संस्मरण पुस्तक का अंश

सन् 1985 में मैंने पहली बार सुप्रसिद्ध जैनतीर्थ कुण्डलपुर का भ्रमण किया। उन दिनों "बड़े बाबा" की  प्रतिमा अपने मूल स्थान पर थी। कुण्डलपुर पर लिखे मेरे लेख "नवनीत", "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" और "नईदुनिया" में प्रकाशित हुए थे।

उल्लेखनीय है कि कुण्डलपुर भारत के मध्य प्रदेश राज्य में स्थित एक जैनों का एक सिद्ध क्षेत्र है जो दमोह से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  यहाँ तीर्थंकर ऋषभदेव की एक विशाल प्रतिमा है।

बुधवार, जून 17, 2020

डाॅ. शरद सिंह द्वारा संपादित पुस्तक मनोरमा ईयरबुक 2020 में शामिल

Third Gender Vimarsh - Book Edited By Dr (Miss) Sharad Singh
❤️ Hearty Thanks The #Malayala_Manorama_Hindi_Yearbook 2020 🙏
❤️Hearty Thanks #Samayik_Prakashan 🙏

 मेरे द्वारा संपादित एवं सामयिक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’ को मनोरमा ईयर बुक वर्ष 2020 में शामिल किया गया है। इस समाचार को वेब पोर्टल्स एवं सागर के समाचार पत्रों ने जिस प्रमुखता से स्थान दिया है उसे देख कर उनकी आत्मीयता का बोध होता है।
❤️ हार्दिक धन्यवाद ...
# दैनिकभास्कर #नवदुनिया #नवभारत #दैनिकजागरण #आचरण #देशबंधु #सागरदिनकर #राजएक्सप्रेस #स्वदेशज्योति #राष्ट्रीयहिंदीमेल

❤️ हार्दिक धन्यवाद वेब पोर्टल्स ...
#युवाप्रवर्तकडॉटकॉम #तीनबत्तीन्यूज़डॉटकॉम
#हरमुद्दाडॉटकॉम

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Navdunia,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Sagar Dinkar,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Navbharat,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Dainik Bhaskar,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Aacharan,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Deshbandhu,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Jagaran,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Raj Express,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Rashtriya Hindi Mail,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Swadesh Jyoti,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Teenbatti News.Com  05.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Yuva Pravartak,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Har Mudda.Com  05.06.2020
Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020

रविवार, जून 14, 2020

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 8

जिला पत्रकार संघ पन्ना में मुझे पदाधिकारी रहने का भी अवसर मिला। सन् 1982 में सह सचिव रही तथा सन् 1984 में मंत्री के पद के लिए निर्वाचित हुई। पन्ना का जिला पत्रकार संघ एक औपचारिक पत्रकार संघ न होकर एक परिवार जैसा था, जिसमें सभी पत्रकार परिवार के सदस्यों की तरह एक दूसरे से स्नेह रखते हुए थे। यद्यपि संघ के अन्य सभी पदाधिकारी एवं सदस्य आयु में मुझसे बड़े थे तथा मेरे लिए सम्मानीय थे।
  ( तस्वीर में दो लम्बी चोटियों में मैं ही हूं।)
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जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 7

 80 के दशक में आंचलिक और कस्बाई पत्रकारिता का अपना एक विशेष महत्त्व था। छोटे शहरों में पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करना जहां एक ओर जोखिम भरा हुआ करता था वहीं दूसरी ओर उसे सम्मान की दृष्टि से भी  देखा जाता था। मैंने जब पन्ना से ज़मीनी पत्रकारिता शुरू की तो मुझसे पहले श्रीमती प्रभावती शर्मा स्थानीय समाचार पत्र "पन्ना टाईम्स" का संपादन कर रही थीं और उन्हीं दिनों मेरी दीदी वर्षा सिंह पत्रकार एवं संवाददाता के रूप में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र #नवीनदुनिया में नियमित रूप से "जोग लिखी" का कॉलम लिख रही थीं। फिर मैंने कमान सम्हाल ली। इस तरह  मैं पन्ना जिले की तीसरी महिला पत्रकार रही। यद्यपि श्रीमती प्रभावती शर्मा का दायरा स्थानीय समाचार पत्र के संपादक होने के कारण जिले तक सीमित था और  दीदी वर्षा सिंह मध्य प्रदेश विद्युत मंडल में चयनित होने के बाद पत्रकारिता छोड़कर नौकरी करने लगी थीं। वहीं मैं #जबलपुर #सतना #रीवा #भोपाल आदि अनेक स्थानों से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में नियमित रूप से संवाददाता के रूप में तथा अनुबंध पर राष्ट्रीय स्तर के दैनिक तथा साप्ताहिक  #समाचारपत्र  एवं #पत्रिकाओं  के लिए कार्य करती रही। 
      एक लंबा अरसा पत्रकारिता के लिए समर्पित होकर मैंने कार्य किया। जबलपुर के  #नवीनदुनिया #नवभारत #ज्ञानयुगप्रभात #दैनिकभास्कर आदि। सतना के सतना टाइम्स। #रीवा के #रीवासमाचार। भोपाल के #प्रजामित्र, छतरपुर के #कृष्णक्रांति, दमोह से #दमोहसंदेश, कटनी से निकलने वाले #दैनिकआलोक.... इन अनेक समाचार पत्रों में संवाददाता की हैसियत से मैंने निरंतर लेखन कार्य किया। पत्रकार के रूप में अनेक राजनेताओं से साक्षात्कार किया जिसमें श्रीमती मेनका गांधी, एच.के.एल. भगत, अर्जुन सिंह, कैप्टन जयपाल सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, बाबू जगजीवन राम, गवर्नर के.एम. चांडी इत्यादि प्रमुख थे। खजुराहो फेस्टिवल की नियमित रूप से चार-पांच वर्षों तक मैंने रिपोर्टिंग की और इस दौरान प्रसिद्ध नृत्यांगना उमा शर्मा, सोनल मान सिंह,  से मेरी बातचीत को #रविवार #पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था।
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शनिवार, जून 13, 2020

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 6

मेरा पहला सम्वाददाता पत्र ... 
मित्रो, यह फोटो मैंने अपने कॉलेज ID के लिए पन्ना में जुगलकिशोर जी के मंदिर के पास जड़िया स्टूडियो में खिंचवाई थी। दो चोटी और बेलबॉटम का ज़माना ज़ारी था। उस पर जुनून पत्रकारिता का। 
         दैनिक "कृष्ण क्रांति" पन्ना के पड़ोसी ज़िला छतरपुर से प्रकाशित होता था। डॉ. अजय दोसाज इसके संपादक थे। उन दिनों पत्रकारिता जगत में छतरपुर की पत्रकारिता ने अपनी अलग ही पहचान बना रखी थी। उल्लेखनीय है कि सन् 1979-80  के प्रसिद्ध "छतरपुर कांड" जिसमें पत्रकारों के दमन उत्पीड़न की जुडिशल इंक्वायरी और प्रेस काउंसिल द्वारा जांच की गई थी। पत्रकारों ने इस संघर्ष में जीत हासिल की थी। इसी कांड के बाद छतरपुर के पत्रकार राजेश बादल (जो अब देश के जानेमाने पत्रकार हैं) ने आंचलिक पत्रकार से पूर्णकालिक पत्रकार की पारी शुरू की थी।

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मंगलवार, जून 09, 2020

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 5

 इंटरव्यू जो मैंने तत्कालीन सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस श्री एस पी नायडू से लिया था। आपको बता दूं कि श्री एसपी नायडू मशहूर क्रिकेटर कर्नल सीके नायडू के पुत्र थे। उनसे मेरी लंबी-चौड़ी सार्थक बातचीत हुई थी। यह इंटरव्यू मैंने दस्यु चाली राजा के सरेंडर के बाद लिया था जिसमें बाकी बचे डकैतों के सरेंडर के बारे में भी उनसे चर्चा हुई थी। यह 11 जुलाई 1982 को साप्ताहिक "रेवांचल" में प्रकाशित हुआ था।
Revanchal, 11 July 1982, Naidu Interview, Dr Sharad Singh


जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 4

कल रात मैंने अपनी फाईल पलटी तो उसमें मुझे अपनी 08 जुलाई 1982 की वह रिपोर्ट मिली जो मैंने दस्यु चाली राजा के सरेंडर पर लिखी थी।

निश्चित रूप से योगेंद्र सिंह सिकरवार जी के लिए भी वे दिन अविस्मरणीय होंगे क्योंकि उन दिनों संपूर्ण बुंदेलखंड क्षेत्र में डकैतों का आतंक था । विशेष रुप से पन्ना जिले में डकैत चाली राजा ने आतंक मचा रखा था और इस आतंक को मिटाने के लिए स्थानीय पुलिस बल के साथ में बीएसएफ का भी सहयोग लिया गया था।

मुझे आज भी याद है चाली उर्फ़ चार्ली राजा एक निहायत दुबला-पतला सामान्य-सी कद-काठी वाला एक आम ग्रामीण युवक दिखता था। यदि उसके हाथ में बंदूक न होती तो शायद वह किसी को भी मारने की हिम्मत नहीं रखता। यदि देखा जाए तो ग्रामीणों में से किसी का भी डकैत बनना बदले की भावना के हाथों में हथियार आ जाने की प्रक्रिया थी।
जिन्होंने सरेंडर किया वे जीवित रहे और अपने जीवन की दूसरी पारी जी सके जबकि अनेक डकैत पुलिस के हाथों मारे गए।
इसी संदर्भ में एक और वाकया मुझे याद आ रहा है जब मैं उन दिनों छतरपुर में कक्षा सातवीं में पढ़ती थी। मेरी मां उन दिनों B.Ed ट्रेनिंग के लिए छतरपुर में रह रही थीं और मैं उनके साथ वही पढ़ती थी। उन दिनों छतरपुर जिले में भी डकैतों का आतंक था। जब डकैत पुलिस के हाथों मारे जाते तो पुलिस वाले उनके शवों को ट्रैक्टर ट्रॉली में रखकर सार्वजनिक स्थान पर प्रदर्शित करते थे ताकि बाकी डकैतों तक यह संदेश जा सके कि यदि वे सरेंडर नहीं करेंगे तो उनका भी यही हश्र होगा। साथ ही जनता आश्वस्त हो सके कि डकैत मारे जा रहे हैं।

एक दिन स्कूल से लौटते समय मैंने भी छत्रसाल चौराहे पर ऐसी ही एक ट्रॉली देखी थी जिसमें तीन या चार शव प्रदर्शित थे । मुझे बहुत अज़ीब लगा था, वह सब देख कर। मैंने मां से इस बारे में चर्चा की थी। तब मां ने मुझे समझाया था कि आइंदा मैं ऐसा कोई दृश्य न देखूं और जो देखा है वह सब भुला दूं । उन दिनों तो शायद मैंने भुला भी दिया था लेकिन मेरी स्मृतियों के किसी कोने में वह दृश्य आज भी ताज़ा है और मुझे लगता है कि इस तरह से शवों के प्रदर्शन का वह तरीक़ा बिल्कुल भी ठीक नहीं था क्योंकि सार्वजनिक स्थान पर मेरी तरह बच्चे भी मौजूद होते थे।
पन्ना में पत्रकारिता करते हुए दस्यु उन्मूलन अभियान के बारे में बारीक़ी से जानने का मुझे मौका मिला। डकैत चाली राजा के सरेंडर के बाद यह समस्या खत्म नहीं हुई। कोई न कोई छुटपुट डकैत पैदा होता रहा। एक बार मुझे भी एक एनकाउंटर स्थल देखने का मौका मिला। दरअसल, हम पत्रकारों को सुबह पुलिस की ओर से सूचना मिली कि रात को कुछ डकैतों के साथ एनकाउंटर किया गया है, जिसमें कुछ डकैत मारे गए हैं। घटनास्थल पर उनके शव यथास्थिति मौजूद थे। जिन्हें देखने के लिए हम पत्रकारों को आमंत्रित किया गया था। मैं भी साथी पत्रकारों के साथ घटना स्थल पर गई। वहां मैंने पहली बार किसी ऐसे शव को देखा जिसके सिर पर गोली लगी थी और उसका भेजा बाहर आ गया था। वह मृतक डकैत बिल्कुल भी डकैत जैसा नहीं लग रहा था बल्कि किसी आम ग्रामीण की भांति दिखाई दे रहा था। उन दिनों यह भी अफ़वाह थी कि पुलिस अपना रिकॉर्ड ठीक करने के लिए फेक एनकाउंटर भी कर रही है। उन शवों को देखने के बाद यह कहना कठिन था कि वह रियल एनकाउंटर है या फेक एनकाउंटर। पर हमारे पास पुलिस पर विश्वास करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था क्योंकि हम चाली राजा को देख चुके थे जो देखने में एकदम आम ग्रामीण युवक दिखाई देता था। वैसे मैंने डकैत मूरत सिंह, डकैत मौनीराम सहाय को छतरपुर में उनके आत्मसमर्पण के समय देखा था। जबकि डकैत पूजा बब्बा से मेरी मुलाकात पन्ना में स्थित लक्ष्मीपुर की खुली जेल में हुई थी और उनसे चर्चा भी हुई थी यद्यपि मैं वहां पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि वहां के जेलर जो हमारे पारिवारिक परिचित थे, उनके आमंत्रण पर मां और दीदी के साथ गई थी। पूजा बब्बा बहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति लगे थे। उनकी एक आंख पत्थर की थी जिससे उन्हें देखने से एक अजीब भय उत्पन्न होता था। लेकिन बातचीत करने के बाद वह भय दूर हो गया था। उन्होंने हमें दूध और इलायची से बनी शरबत पिलाई थी। जब मैंने उनके बारे में जानकारी ली तो पता चला कि वह परिस्थितिवश डकैत बने थे और सरकार के द्वारा खुली जेल में रहकर सामान्य जीवन की ओर फिर से लौटने का प्रस्ताव मिलने पर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया था। वैसे दस्यु मूरत सिंह, मोनी राम सहाय और पूजा बब्बा का व्यक्तित्व उसी प्रकार का था जैसे फिल्मों में अच्छे वाले डकैत दिखाए जाते हैं। डकैत मूरत सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे सिर्फ़ अमीरों को लूटते थे और गरीबों की मदद करते थे। वे छतरपुर स्थित जटाशंकर मंदिर के लिए दान-दक्षिणा दिया करते थे। जिस प्रकार मूरत सिंह के सरेंडर में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की विशेष भूमिका रही, उसी प्रकार चाली राजा के सरेंडर में म.प्र.शासन के तत्कालीन संसदीय सचिव कैप्टन जयपाल सिंह की खास भूमिका रही, जो कि पन्ना के ही थे।
Damoh Sandesh, 08,07,1982, Chaali Raaja, Dr Sharad Singh



जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 3

सन् 1983 में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले "नवीन दुनिया" में छपी मेरी तस्वीर...
उन दिनों हमारे पास सोनी कंपनी का ब्लैक एंड वाइट फोटो वाला एक छोटा-सा कैमरा था, उसी कैमरे से वर्षा दीदी ने मेरी यह तस्वीर खींची थी।
Sharad Singh, 1983 By Sony Camera Published in Navin Dunia, Jabalpur

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश

मेरे संस्मरणों की पुस्तक ‘‘जिंदा मुहावरों का समय’’ में मैं एक अध्याय मेरे उस दिनों के संस्मरणों का है जब मैं एक सक्रिय पत्रकार थी। उसके कुछ अंश अपनी प्रकाशित रिपोर्टस और तस्वीरों के साथ इस अपने ब्लाॅग में साझा करती रहूंगी ......

अपने कॉलेज जीवन से ही मैंने जर्नलिज्म शुरू कर दिया था। सन् 1980 से 1988 तक बतौर रिपोर्टर विभिन्न समाचार पत्रों के लिए मैंने सक्रियता से काम किया। उन दिनों की चर्चित पत्रिका 'रविवार' और 'आज' समूह के प्रकाशन की पत्रिका 'अवकाश' के लिए भी मैंने रिपोर्टिंग की थी।

आज अपनी एक पुरानी फाइल खोलने पर मेरी कुछ पुरानी रिपोर्टिंग्स मेरी नजरों से गुज़री जिन्हें मैं आपसे क्रमशः साझा करती रहूंगी.....

जिनमें से ये है 'जनसत्ता' में सन् 1985 में प्रकाशित हुई मेरी रिपोर्ट ....
Jansatta, 31 May 1985, NMDC Panna,  Dr Sharad Singh