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गुरुवार, जनवरी 30, 2020

देशबन्धु के साठ साल-23- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  तेईसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-23
- ललित सुरजन

Lalit Surjan
आनंद भाटे रौबीले व्यक्तित्व के धनी थे। ऊंची पूरी कद-काठी। छह फुट से ऊपर के रहे होंगे। शुभ्र खादी का कुरता-पायजामा उन पर फबता था। प्रेस बूढ़ापारा में था तो उन्होंने भी पास में ही कहीं किराए पर घर ले लिया था। सड़क पर निकलते तो बारहां लोग उन्हें राजनीति के मशहूर शुक्ल बंधुओं का ही भाई समझने की गलती कर बैठते थे। भाटेजी पहले जबलपुर में बाबूजी के पास थे। फिर यहां-वहां घूमते-घामते शायद 1965 में रायपुर आ गए थे। हिंदी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। उनकी दोनों में टाइपिंग भी बढ़िया थी। पत्र लेखन की कला थी। इन्हीं गुणों के कारण बाबूजी ने उन्हें विज्ञापन प्रबंधक नियुक्त किया था। यदा-कदा वे बंबई व्यवसायिक दौरे पर भी जाते थे। बस, उनके जीवन में एक कमी थी कि वे नितांत अकेले थे। बाबूजी से कुछ ही बरस छोटे रहे होंगे, लेकिन विवाह नहीं किया था। रायपुर आए तो एक भोजनालय में मासिक ग्राहकी का अग्रिम शुल्क देकर सदस्य बन गए। फिर ऐसा हुआ कि अगले माह भोजनालय ने उनकी सदस्यता का नवीनीकरण करने से हाथ जोड़ लिए। तू नहीं और सही की तर्ज पर वे माह-दर-माह भोजनालय बदलते रहे। दरअसल, बात यह थी कि भाटेजी को क्षुधा तृप्ति के लिए जिस मात्रा में भोजन की आवश्यकता थी, वह तीन-चार ग्राहकों के बराबर होती थी। अग्रिम राशि ले ली तो एक माह सेवा करना मजबूरी थी, लेकिन उसके आगे नहीं। साल-डेढ़ साल बाद भाटेजी ने विवाह कर लिया और नागपुर से नवविवाहिता को साथ लेकर आ गए। उसके आगे न जाने क्या हुआ कि एक के बाद एक दोनों रायपुर छोड़कर चले गए। हमें बाद में उनकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। देशबन्धु के साठ साल के इतिहास का यह एक व्यक्तिपरक लेकिन रोचक अध्याय है।

आज कुछ ऐसी ही हल्के-फुल्के प्रसंग ध्यान आ रहे हैं। एक किस्सा राजनादगांव का है। यह साठ के दशक की बात है जब प्रदेश में रायपुर ही एकमात्र प्रकाशन केंद्र था और यहां से चार दैनिक समाचारपत्र प्रकाशित होते थे। स्वाभाविक है कि प्रदेश में अखबार जहां तक पहुंचते हों, वहां हर पत्र का अपना एक संवाददाता हो। इन दूरस्थ केंद्रों में पत्रकारों के बीच समाचार संकलन के लिए होड़ हो, स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो, यह भी स्वाभाविक अपेक्षा होती थी। लेकिन प्रदेश की संस्कारधानी के रूप में ख्यातिप्राप्त राजनादगांव इस मामले में एक अपवाद था। देशबन्धु (तब नई दुनिया रायपुर) में रानूलाल झाबक, नवभारत में मातादीन अग्रवाल, महाकौशल में दुलीचंद बरड़िया व युगधर्म में रामेश्वर जोशी क्रमश: कार्यरत थे। ये सभी मृदुभाषी, मिलनसार, व्यवहारकुशल सज्जन थे। खैर, यह मेरी ड्यूटी का अंग था कि सभी अखबारों का नितदिन तुलनात्मक अध्ययन करूं। इस प्रक्रिया में मैंने गौर किया कि राजनादगांव के समाचार चारों पत्रों में हू-ब-हू छपते हैं। मैंने झाबकजी से पूछा तो पता चला कि चारों मित्र एक साथ बैठकर समाचार तैयार करते हैं। लेखन का काम शायद जोशीजी सम्हालते थे। बाकी तीनों के अपने छोटे-बड़े व्यापार भी थे। एक ने लिखा, अन्य ने अपनी लिखावट में प्रतिलिपि तैयार की और लिफाफा रायपुर भेज दिया। मुझे मजबूरन आदर्श मैत्री संबंध को तोड़ने के अपराध का भागी बनना पड़ा। हमने नए संवाददाता की नियुक्ति की लेकिन अन्य पत्रों में यह सिलसिला कुछ और वर्षों तक चलता रहा। आज पचपन साल बाद हम फिर शायद उसी दौर में लौट आए हैं; बल्कि जो रिवाज़ सिर्फ एक केंद्र तक सीमित था, वह चारों तरफ फैल गया है। यह आज का व्यापक चलन है कि गांव में कोई एक पत्रकार, या शायद कंप्यूटर केंद्र का हिंदी ऑपरेटर ही सारी खबरें तैयार करता है और उसे अपने डेस्क टॉप से सभी पत्रों को भेज देता है। उसमें कई दफे हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मूलत: जो संवाददाता समाचार बनाता है, वह एक दिन या एक समाचार के लिए सभी पत्रों का संवाददाता बन जाता है।

बहरहाल, पाठक जानते हैं कि समाचारपत्रों को अनेक तरह के दबावों का सामना करना पड़ता है और इसके उद्गम भी अनेक हैं। उन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष चर्चा इस लेखमाला में बीच-बीच में होती रही है। आपके अखबार पर दबाव बनाने का एक दिलचस्प प्रसंग सत्तर के दशक में आया। उन दिनों छत्तीसगढ़ में सड़क परिवहन में कुछ कंपनियों का लगभग एकाधिकार था। अखबार के पार्सल दूर-दराज के गांवों तक बसों से ही भेजे जाते थे। इन बसों के परिचालन में बहुत सी धांधलियों की शिकायतें आती थीं- समय पर न चलना, कहीं भी रोक देना, टिकिट न देना, पैसे न लौटाना, ठसाठस सवारी भर लेना आदि। इस बारे में समाचार छपने से नाराज एक कंपनी मालिक ने बाबूजी को फोन-किया- आपका राजिम का संवाददाता ठीक नहीं है। उसे बदल दीजिए। मैं दूसरा बेहतर आदमी आपको देता हूं। बाबूजी ने जवाब दिया- मैं जिस दिन आपकी बस का ड्राइवर बदलने की सिफारिश करूं, उसी दिन आप मुझे, संवाददाता बदलने की सलाह दीजिए। उन्हें इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। उनका बस चलता तो शायद पेपर के पार्सल ले जाना ही बंद कर देते लेकिन वह दौर अपेक्षाकृत सहिष्णुता का था। आज की तरह अखबारों की भरमार नहीं थी। यह भी जानते थे कि देशबन्धु को झुकाना संभव नहीं है।

इसी से कुछ-कुछ मिलता-जुलता एक और प्रसंग संभवत् 1971 के आम चुनावों के समय घटित हुआ। संपादकीय विभाग में सारंगढ़ के आसपास किसी स्थान के एक श्री वाजपेयी कार्यरत थे। कविहृदय थे। हिंदी बहुत अच्छी थी। समाचारों की समझ भी वैसी ही थी। वे एक दिन लंबे अवकाश का आवेदन लेकर आए। इतनी लंबी छुट्टी किसलिए? मुझे अपने इलाके में चुनाव प्रचार के लिए जाना है। भैया का आदेश है कि छुट्टी लेकर आ जाऊं। बहुत काम करना है। मैंने अवकाश स्वीकृत नहीं किया। चुनाव का समय है। दफ्तर में ही इतना काम है। आपके जैसे कुशल साथी को छुट्टी दूंगा तो काम कैसे चलेगा? वे मन मसोस कर चले गए। दो दिन बाद भैया याने केंद्रीय राजनीति में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता का फोन आया- अरे भाई ललित! वाजपेयीजी की जरूरत है। तुम उन्हें छुट्टी दे दो। यह तो संभव नहीं है। हमारे ऊपर ही इस वक्त काम का अतिरिक्त बोझ है। फिर वैसे भी हमारी घोषित नीति है कि हमारे पत्रकार किसी राजनैतिक दल का सदस्य नहीं बन सकते। बात यहीं खत्म हो गई। श्री वाजपेयी बिना अवकाश स्वीकृत हुए चले गए। चुनाव समाप्त होने के बाद लौटे तो उनके लिए जगह खाली नहीं थी। फिर वे कहां गए, मालूम नहीं।

आज का अध्याय मैं एक बहुत मनोरंजक किस्सा बयान करके समाप्त करना चाहूंगा। यह घटना जबलपुर कार्यालय की है। साल 1962। एक सज्जन बाबूजी से मिलने आए। परिचय दिया- मैं कविताएं लिखता हूं। आपको सुनाना चाहता हूं। भाई, यह मेरे काम करने का समय है। इस वक्त कविता नहीं सुन सकता। किसी दिन गोष्ठी में आऊंगा तो सुन लूंगा। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कुरते की जेब से एक मोटा लिफाफा निकाला। इसे देख लीजिए। मेरे स्वलिखित गीत हैं। एकदम ताज़ा लिखे हैं। इनको पढ़ने का भी समय नहीं है। आप संपादकीय विभाग में हीरालाल जी गुप्त से मिल लीजिए। वे भी कवि हैं। आप उनको अपनी कविताएं दे दीजिए। छपने योग्य समझेंगे तो अवश्य छपेंगी। कवि महोदय ने इतना सुनकर भी न तो धैर्य खोया और न हिम्मत हारी। कुरते की दूसरी पॉकेट से एक पुड़ा निकाला। यह तो स्वीकार कीजिए। यह क्या है? जी, अपनी चौक पर पान की दूकान है। आपके लिए अपने हाथ से बनाकर लाया हूं। इतना सुनना था कि बाबूजी का पारा चढ़ गया। तुम कविता छपाने के लिए मुझे पान की रिश्वत देने आए हो। बाबूजी के तेवर देखकर कविजी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। वे चुपचाप बाहर आए और अपना रास्ता पकड़ा।
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#देशबंधु में 26 दिसंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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