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गुरुवार, जनवरी 30, 2020

देशबन्धु के साठ साल-22 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बाईसवीं कड़ी....


देशबन्धु के साठ साल-22
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
कवि गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन में आए युवा अध्यापक बलराज साहनी को अंग्रेजी में लिखना छोड़कर मातृभाषा में लिखने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था- जब मैं मूलत: बांग्ला में लिख कर नाम कमा सका हूं तो तुम भी पंजाबी में क्यों नहीं लिख सकते? इस प्रसंग का उल्लेख करना आज की चर्चा में प्रासंगिक है।
देशबन्धु मेें 1969 में छत्तीसगढ़ी भाषा में स्तंभ लेखन प्रारंभ हो गया था। इस स्तंभ को सर्वप्रथम लिखने वाले थे- टिकेंद्रनाथ टिकरिहा। टिकरिहाजी वर्धा के गोविंदराम सेक्सरिया वाणिज्य महाविद्यालय में बाबूजी से जूनियर थे। इन लोगों ने मिलकर वर्धा हिंदी विद्यार्थी साहित्य समिति का गठन किया था और ''प्रदीप'' नाम से एक हस्तलिखित पत्रिका निकाली थी। 1941-42 में प्रकाशित इस पत्रिका के दो अंक आज भी देशबन्धु लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। मायाराम सुरजन संपादक थे। उनके साथ दो सह संपादक थे- सुखचैन बांसल व टिकेंद्रनाथ टिकरिहा।  हमारे पास जो प्रतियां हैं, उनमें ये तीनों नाम लिखे हैं और ये बाबूजी की हस्तलिपि में हैं। मेरा अनुमान है कि बांसलजी और टिकरिहाजी संपादन में सहयोग के अलावा हस्तलिखित प्रतियां भी तैयार करते होंगे! आगे चलकर श्री बांसल उसी जी.एस. कॉलेज की जबलपुर शाखा में वाणिज्य के प्राध्यापक और शायद प्राचार्य भी बने।  टिकरिहाजी भी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने घर रायपुर लौट आए होंगे।
मैं फिर अनुमान लगाता हूं कि रायपुर में अखबार स्थापित करने के समय बाबूजी और टिकरिहाजी के संपर्क दुबारा बने होंगे। यह संयोग था कि 1968-69 में ही मेरे आत्मीय मित्र, प्रसिद्ध रंगकर्मी व दुर्गा म.वि. में समाजशास्त्र के प्राध्यापक (स्व.) प्रदीप भट्टाचार्य ''बिल्लू'' ने अपने एक छात्र भूपेंद्र को मेरे पास संपादकीय विभाग में काम सीखने भेजा।  तभी मुझे मालूम पड़ा कि भूपेंद्र बाबूजी के छात्रजीवन के मित्र टिकरिहाजी के पुत्र हैं। बहरहाल, संपर्कों के इस नवीनीकरण का यह लाभ हुआ कि टिकेंद्रनाथ टिकरिहा की पत्रकारिता के प्रति रुचि फिर से जाग्रत हुई और उन्होंने हमारे लिए साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू कर दिया। मुझे फिलहाल याद नहीं आ रहा कि कॉलम का शीर्षक क्या था और उन्होंने स्वयं अपने लिए क्या छद्मनाम चुना था। जो भी हो, यह एक हिंदी समाचारपत्र में जनपदीय भाषा को प्रतिष्ठित करने का संभवत: पहला उपक्रम था। तब के मध्यप्रदेश के किसी भी अन्य अखबार में निमाड़ी, बघेली या बुंदेली में ऐसा कोई नियमित स्तंभ नहीं था और न शायद किसी अन्य प्रांत में किसी अन्य जनपदीय भाषा में। यह पहल छत्तीसगढ़ी भाषा में हुई और कहा जा सकता है कि इस तरह एक रिकॉर्ड बन गया।
टिकरिहाजी ने शायद अगले चार-पांच साल तक इस स्तंभ को जारी रखा। इस बीच परमानंद वर्मा हमारे संपादकीय विभाग में आए और किसी समय उन पर कॉलम को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई। परमानंद ने ''डहरचलती'' शीर्षक व ''डहरचला'' छद्मनाम से शायद बीस-पच्चीस साल तक छत्तीसगढ़ी का यह कॉलम लिखा। मैं अपनी स्मृति से ही ये सारे विवरण दे रहा हूं। (अफसोस कि अखबार की पुरानी फाइलें देखकर सही-सही समय लिखना संभव नहीं हो पा रहा है)।  ''डहरचलती'' देशबन्धु का एक अत्यन्त लोकप्रिय कॉलम तो था ही, साथ-साथ स्तंभ लेखक के लिए भी कई दृष्टियों से लाभकारी सिद्ध हुआ। कालांतर में उनकी छत्तीसगढ़ी रचनाओं की अनेक पुस्तकें पाठकों के सामने आईं जो इस कॉलम के अंतर्गत प्रकाशित हो चुकी थीं। हमने छत्तीसगढ़ी भाषा का सम्मान करने के अपने प्रकल्प को एक साप्ताहिक स्तंभ तक ही सीमित न रख यथासमय उसे विस्तार देने की योजना पर भी काम किया।
1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ एक पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, लगभग उसी समय हमारे मन में एक विचार उठा कि देशबन्धु के संपादकीय पृष्ठ पर अग्रलेख के अलावा देश-दुनिया के मुद्दों पर एक संपादकीय छत्तीसगढ़ी में भी लिखा जाना चाहिए। इस दिशा में प्रयत्न हुआ, लेकिन यह प्रयोग अधिक दूर तक नहीं चल पाया। इसी दौरान देशबन्धु ने छत्तीसगढ़ी को राजभाषा घोषित करने व संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए भी एक हस्ताक्षर अभियान चलाया। इस मुहिम में लगभग एक लाख हस्ताक्षर इकट्ठे हुए जो हमने भारत के राष्ट्रपति को प्रेषित कर दिए। यहां कहना होगा कि इस मुहिम को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी अपेक्षा हमने की थी। हस्ताक्षर संकलन के लिए शायद एक सघन अभियान की दरकार थी, जो किसी राजनैतिक दल के लिए ही मुमकिन था।
इसी दरमियान हमारे शुभेच्छु और रायपुर के भूतपूर्व लोकसभा सदस्य केयूर भूषण ने एक नया सुझाव सामने रखा, जिसे लागू करने में हमने देरी नहीं की। यह सुझाव था कि नए राज्य में एक साप्ताहिक कॉलम के बजाय हफ्ते में एक पूरा पेज छत्तीसगढ़ी भाषा को समर्पित करना चाहिए। इसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया। पन्ने का ''मड़ई'' नामकरण भी उन्होंने ही किया। मैं चाहता था कि स्वयं केयूर जी ही ''मड़ई'' का संपादन करें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में उनकी अहर्निश व्यस्तता के चलते यह संभव नहीं था सो शुरूआती दौर में परमानंद ने इसका संपादन भी किया। वे जब देशबन्धु से चले गए तो सुधा वर्मा ने यह दायित्व सम्हाल लिया। पिछले कई वर्षों से सुधा ही ''मड़ई'' का संपादन कर रही हैं। उसने भी इस तरह से एक नया रिकार्ड बना लिया है। इस साप्ताहिक फीचर के माध्यम से छत्तीसगढ़ी के अनेक लेखकों को अपनी रचनाशील प्रतिभा का परिचय देने का अवसर मिला है।
''मड़ई''  के नियमित प्रकाशन से मुझे प्रसन्नता तो है, लेकिन पूरी तरह संतोष नहीं है। हिंदी अखबार में छत्तीसगढ़ी को स्थान देने का निर्णय आकस्मिक और भावनात्मक नहीं, नीतिपरक और विचारात्मक था। हमारा मानना रहा है कि जनपदीय/ क्षेत्रीय/ आंचलिक/प्रादेशिक लघु भाषाओं का उन्नयन समाज के सर्वांगीण जनतांत्रिक विकास में सहयोगी होता है। इसलिए मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ी में लेखन का दायरा सिर्फ कविता-कहानी-व्यंग्य लेखन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसमें भी यदि नवोन्मेष न हो, किसी हद तक थोथा गौरव गान हो, वर्तमान की सच्चाईयों का वर्णन न हो तो ऐसा लेखन किस काम का?
एक कमी जो हिंदी में हमेशा महसूस की जाती है, वह अधिक बड़े रूप में छत्तीसगढ़ी में भी है। राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, विज्ञान इत्यादि तमाम विषयों में हमारी प्रादेशिक भाषा में लिखने की कोई पहल अब तक नहीं हुई है। इस कमी को दूर करने पर ही छत्तीसगढ़ी का एक समृद्ध भाषा के रूप में विकास हो सकेगा। मुझे कभी-कभी यह शंका भी होती है कि छत्तीसगढ़ी के नाम पर एक ऐसी जमात बन गई है जो अपने संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति के लिए भाषा के चतुर्मुखी विकास को रोक रही है। शायद हो कि हमारे वर्तमान नीति नियामकों का ध्यान इस ओर जाए!
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#देशबंधु में 19 दिसंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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