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रविवार, दिसंबर 29, 2019

देशबन्धु के साठ साल-14 - ललित सुरजन

Dr Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  चौदहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-14
- ललित सुरजन
Lalit Surjan

"हमारा मकसद था कि हमारे पाठक हँसें, दुनिया पर, आत्मुग्ध नेताओं पर, पाखंड पर, मूर्खताओं पर और सबसे बढ़कर अपने आप पर। लेकिन वे पाठक कौन हैं जो विकसित विनोद भाव के धनी हैं। ये वे लोग हैं जो एक तरह से सभ्य आचरण करते हैं, जो  सहनशक्ति के धनी हैं और जिनमें चुटकी भर करुणा का भाव है।'' 

ये पंक्तियां सुविख्यात व्यंग्य चित्रकार के. शंकर पिल्लई ने ''शंकर्स वीकली'' के अंतिम अंक के संपादकीय में लिखी थीं। शंकर ने 1948 में, बहुचर्चित व अपार लोकप्रिय पत्रिका की स्थापना की थी और आपातकाल लागू होने के दो माह बाद 31 अगस्त 1975 को बंद कर दी थी। इसी संपादकीय में उन्होंने चिंता प्रकट की थी कि भारत के लोगों की विनोदवृत्ति क्षीण होते जा रही है। हम अपने पर हँसना भूल गए हैं।

देशबन्धु के दीपावली विशेषांक के आगे जब मैं पत्र के होली पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट की चर्चा करने की सोच रहा था, तब अचानक ही शंकर का यह प्रसंग याद आ गया। हमारे राष्ट्रीय जीवन में सहनशीलता जिस तरह निरंतर घटती जा रही है, उसमें भी भारत में राजनैतिक कार्टून की परंपरा स्थापित करने वाले शंकर का ध्यान आता  तो स्वाभाविक होता; लेकिन अभी हमारी बात अपने अखबार तक सीमित है। दीपावली विशेषांक की रचनाओं में जहां विचार वैभव और साहित्यिक आभा के दर्शन होते, वहीं होली के अवसर पर प्रकाशित विशेष परिशिष्ट में शिष्ट हास्य, चुलबुलापन, रंगों की छटा और सरसता का समावेश देखने मिलता। सामान्य दैनिक अंक की तुलना में इसमें चार-छह पृष्ठ अतिरिक्त होते, लेकिन प्रकाशित सामग्री होली के रंगों को कुछ और गाढ़ी कर देती। इस दिन की तैयारी भी हम हफ्ता-दस दिन पहले से करने लगते थे। राजू दा, रम्मू भैया, सत्येंद्र और अन्य साथी दिमागी घोड़े दौड़ाने लगते कि ऐसा क्या किया जाए जिससे अंक अधिक से अधिक पठनीय हो सके। प्रभाकर चौबे भी इस टीम का अभिन्न अंग होते थे। 

पाठकों को जानकर सुखद आश्चर्य हो सकता है कि देशबन्धु के होली विशेषांक में एक व्यंग्य रचना संस्थापक-संपादक मायाराम सुरजन पर निशाना साधते हुए लिखी जाती। इसे शुरूआती सालों में अमूमन रम्मू श्रीवास्तव लिखा करते थे। पत्र के पाठकों के साथ स्वयं बाबूजी इस फीचर का मजा लेते थे और लेखक को बधाई भी देते थे। यह देशबन्धु में जनतांत्रिक परंपरा का ही एक उदाहरण था, जिसकी कल्पना किसी अन्य मीडिया प्रतिष्ठान में तब भी नहीं की जाती थी। इसके अलावा होली के दिन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर बहुत सोच-समझ कर सच्ची प्रतीत होने वाली झूठी खबरें भी छपती थीं। हम समाचार में कहीं भी ''होली समाचार'' जैसा संकेत नहीं देते थे। बस, एक बॉक्स अलग से छपता था कि आज के अखबार में झूठी खबरें भी हैं। जो समझ जाएं वे हंस, और जो न समझ पाएं वे कौव्वे। वह अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण समय था। वातावरण में शंका-कुशंका की गुंजाइश आज के मुकाबले कहीं कम थी तो हमारी यह अराजक पत्रकारिता चल जाती थी।  उसकी साधारणत: कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया समाज में नहीं होती थी।  

होली के विशेष परिशिष्ट में पाठकों को सबसे अधिक इंतजार रहता था उपाधियों का। देश-प्रदेश की गणमान्य व चर्चित हस्तियों को उनके ज्ञात-कमज्ञात गुण-दोषों के आधार पर चुन-चुनकर उपाधियां दी जाती थीं। ये उपाधियां अशआरों की शक्ल में होती थीं। अयोध्याप्रसाद गोयलीय और प्रकाश पंडित द्वारा संपादित उर्दू शायरी के संकलन संपादकीय डेस्क पर रखे जाते। ग़ालिब, मीर, सौदा, जौक, फ़िराक, कतील शिफाई, नून नीम-राशिद और न जाने कितने समर्थ शायरों की गजलों में से शेर ढूंढे जाते। रम्मू भैया और प्रभाकर स्वयं समर्थ व्यंग्यकार थे तो उनकी स्वरचित पंक्तियां भी यथास्थान फिट की जातीं। इन उपाधियों की कई-कई दिनों तक बाजार में चर्चा होती। बारहां लोग शिकायत तक करते कि भाई, आपने हमको उपाधि क्यों नहीं दी।  रायपुर-जबलपुर के सामाजिक जीवन का यह एक पुरलुत्फ पहलू था। लेकिन अफसोस, एक समय आया, जब हमने इस ढंग से होली मनाना छोड़ दिया। जिनके मनोविनोद के लिए लिख रहे हैं, वे ही अगर न समझ पाएं तो क्या फायदा! जिस तरह शंकर ने एक दिन शंकर्स वीकली बंद कर दिया, उसी तरह हमने भी होली परिशिष्ट की परिपाटी स्थगित कर दी।

होली, दीवाली, गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस पर विशेषांक अथवा परिशिष्ट का प्रकाशन वार्षिक उद्यम था तो हर रविवार साप्ताहिक अंक का संयोजन ऐसा उपक्रम था जिसमें रचनात्मक प्रतिभा का समादर होता और हमें दैनंदिन काम से हटकर मानसिक संतोष मिलता। दरअसल, अनेक हिंदी अखबारों में संपादक के बाद साहित्य संपादक का नाम ही वरीयता क्रम में प्रमुख होता था। नवभारत में शिवनारायण द्विवेदी का नाम बाकायदा साहित्य संपादक के रूप में छपता था। संघ के मुखपत्र युगधर्म की प्रतिष्ठा बड़ी हद तक साहित्य संपादक  रामकुमार भ्रमर के कारण थी। हमारे यहां तो लगभग हर संपादक अपने अधिकार में साहित्यकार था, सो नाम किसी का नहीं छपता था और अंक संयोजन भी किसी एक की जिम्मेदारी नहीं थी। देशबन्धु के रविवासरीय अंक का नामकरण काफी बाद में हमने अवकाश अंक कर दिया था। एक अखबार ने इस शीर्षक की नकल भी की, लेकिन कुछ माह बाद वे पुराने ढर्रे पर लौट गए।

साप्ताहिक अंक, रविवासरीय अंक या अवकाश अंक में हमारी कोशिश होती थी कि नई प्रतिभाओं को अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाए। इस अंक में नवाचार की भी बहुत गुंजाइश थी, जिसका इस्तेमाल करने में कोई कमी नहीं की। इस बात का जिक्र मैंने लेखमाला की शुरुआती किश्तों में किया है। 1980 के आसपास रायपुर की कुछ युवा प्रतिभाओं ने एक पहल की, जो इसी साप्ताहिक अंक से लागू हुई। जयंत देशमुख, अरुण काठोटे और उनके साथी कलाकारों ने कविता पोस्टर बनाने की बात सोची। कोई एक अच्छी कविता ली, उसे रंगों और रेखाओं के संयोजन के साथ खुशख़त में लिखा और वह ''कविता चौराहे पर'' शीर्षक के स्थायी स्तंभ के रूप में अवकाश अंक के पहले पन्ने पर प्रकाशित होने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चला। इन नौजवान कल्पनाशील संस्कृतिकर्मियों ने उस पोस्टर को रायपुर के जयस्तंभ चौक जैसे प्रमुख स्थानों पर प्रदर्शित करने की पहल भी की। यह साहित्य को जनता के पास ले जाने की एक उम्दा कोशिश थी, जिसे हमने भरपूर सहयोग दिया। एक और उल्लेखनीय प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा।  प्रो. खलीकुर्ररहमान ''लेट अस लर्न'' शीर्षक से अंग्रेजी भाषा पर और ''एक शेर'' शीर्षक से उर्दू साहित्य पर लिखते थे। ये दोनों कॉलम एक साथ अवकाश अंक में छपते थे।

देशबन्धु के साहित्य परिशिष्ट के माध्यम से छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के अनेक नए रचनाकारों की प्रारंभिक पहचान कायम हुई, उनमें से कई की आज देश के जाने-माने लेखकों में गणना होती है। मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती है जब कोई लेखक अपने साक्षात्कार आदि में जिक्र करता है कि उसकी पहली रचना देशबन्धु में छपी थी। इस सिलसिले में आकाशवाणी, रायपुर के एक केंद्र निदेशक स्व. हेमेंद्रनाथ की स्मृति अनायास मानस पटल पर दस्तक देती है। हेमेंद्रजी सजग साहित्य रसिक थे। वे देशबन्धु में किसी नए लेखक की रचना पढ़ते तो फोन कर उसका पता-ठिकाना मुझसे मांगते और अगले दिन याने सोमवार को उस लेखक को आकाशवाणी से रचना पाठ का आमंत्रण पत्र चला जाता। कहना होगा- गुन न हिरानो, गुन गाहक हिरानो है। हीरे तो आज भी मौजूद हैं, उन्हें तराशने वाले गुम हो गए हैं।
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#देशबंधु में 17 अक्तूबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

शनिवार, दिसंबर 28, 2019

शिखंडी ... स्त्री देह से परे ( उपन्यास) - लेखिका डॉ. शरद सिंह

Shikhandi ... Stri Deh Se Pare - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh - The story of the struggle of a woman who plays a decisive role in the war of Mahabharata.

" शिखंडी ... स्त्री देह से परे " ( उपन्यास )
 
" एक स्त्री के संघर्ष की वह कथा जो जन्म जन्मांतर तक चलती हुई महाभारत के युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाती है। " - डॉ. शरद सिंह

गुरुवार, दिसंबर 26, 2019

देशबन्धु के साठ साल- 13- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  तेरहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल- 13
- ललित सुरजन
दीपावली  विशेषांक का प्रकाशन  हमारे लिए एक रोमांचक सालाना अनुभव हुआ करता था।
Lalit Surjan
गहमागहमी और भागदौड़ से भरपूर। दशहरे के अगले दिन काम शुरू कर धनतेरस के दिन विशेषांक की पार्सलें दूर-दूर के केंद्रों तक रवाना करने के बाद जब घर लौटते थे तो थकान से चूर होते थे। लेकिन जब उस विशेषांक की पाठकों  और  खासकर साहित्यकारों के बीच चर्चा होती थी और प्रशंसा में पत्र मिलने लगते थे तो मन उत्फुल्ल हो जाता था।  विशेषांक निकालने का मेरा अपना पहला अनुभव 1963 का था, जब बाबूजी ने नई दुनिया, जबलपुर (अब नवीन दुनिया) छोड़कर सांध्य दैनिक 'जबलपुर समाचार' (अब देशबन्धु, जबलपुर) का प्रकाशन शुरू किया था। प्रदेश के जाने-माने (और नए भी) लेखकों की रचनाएं कई हफ्ते पहले से आने लगी थीं। उन्हें संभालने, चयन करने, क्रम निर्धारण करने, धीमी गति की पुरानी पद्धति से उनकी कंपोजिंग, प्रूफ रीडिंग, पेज मेकअप, रेखाचित्रों का चयन, वैसी ही धीमी गति की ट्रेडल मशीन पर छपाई, मुखपृष्ठ का चयन और छपाई, अंक की जिल्दसाजी, बस और रेल से पार्सल रवानगी: इस पूरी प्रक्रिया में पंद्रह दिन लग गए। मेरे सहयोगी राजेंद्र अग्रवाल और मैं दो हफ्ते घर नहीं गए। जबलपुर के कमानिया गेट के पास नित्यगोपाल तिवारी के चलचित्र प्रेस में ही हमारा डेरा जमा रहा। थक जाने पर न्यूजप्रिंट की थप्पियों पर पैर फैलाकर थोड़ी नींद ले लेते थे।


मध्यप्रदेश-विदर्भ के समाचारपत्रों में एक लंबे समय तक दीपावली विशेषांक की परंपरा कायम रही जो शायद 1990-91 के आसपास जाकर टूटी। बांग्ला में पूजा के अवसर पर पत्रों के विशेषांक निकलते थे और मराठी में दीपावली पर कुछेक पत्र तो मात्र वार्षिक अंक ही प्रकाशित करते थे। याद आता है कि लोकप्रिय चित्रकार रघुनाथ मुलगांवकर एक ऐसा सालाना अंक निकालते थे, जिसकी मराठी भाषी पाठकों में अच्छी ख्याति थी। ''किर्लोस्कर'' पत्रिका का विशेषांक भी चाव से खरीदा और पढ़ा जाता था। बांग्ला में देश, आनंद इत्यादि पत्रों के पूजा विशेषांक को लेकर तो काफी किंवदंतियां  प्रचलित थीं। मसलन, जिस लोकप्रिय लेखक से उपन्यास लिखवाना है, उसे एक माह के लिए होटल के कमरे में ही कैद कर दो। जब पूरा लिख लें तब कैद से रिहाई! देशबन्धु और तब की नई दुनिया के विशेषांकों की प्रतीक्षा इसलिए होती थी, क्योंकि लेखकों-कलाकारों के साथ हमारी स्वाभाविक मैत्री थी और वे प्रसन्नतापूर्वक अपनी उत्तम ताजा रचनाएं विशेषांक के लिए देते थे। हमारे पाठकवर्ग की रुझान भी सदा से सुरुचिपूर्ण साहित्य की ओर रही है।


देशबन्धु (नई दुनिया, रायपुर) के दीपावली विशेषांक की सामग्री का चयन रायपुर में होता था, लेकिन छपाई के लिए सामग्री इंदौर भेजते थे। 1964 में बाबूजी ने मुझे इंदौर भेजा, जहां मैंने लाभचंदजी छजलानी (उन्हें भी बाबूजी कहते थे) के घर पर रहकर तथा उनके और अब्बूजी (अभय छजलानी) के सान्निध्य में प्रेस से संबंधित बहुत सी बातें उन पंद्रह दिनों में सीखीं। फिर दीपावली विशेषांक के ढेर सारे बंडल इंदौर-बिलासपुर एक्सप्रेस की ब्रेकवान में लदान कर उसी टे्रन से वापिस लौटा जहां उत्सुकता के साथ विशेषांक की प्रतीक्षा हो रही थी। उस साल मुखपृष्ठ पर पंडित नेहरू का चित्र था, जो सुप्रसिद्ध चित्रकार विष्णु चिंचालकर ने बनाया था। उसी अंक में या शायद अगले साल सिने जगत के जाने-माने कला निदेशक माधव आचरेकर का एक लेख ताजमहल पर था। इस लेख में उन्होंने अत्यन्त रोचक ढंग से ताजमहल के स्थापत्य की तकनीकी खूबियां समझाईं थीं कि ताज यदि विश्व की सर्वाधिक मनोहारी इमारत है तो उसके क्या कारण हैं।


 यह उन दिनों की बात है जब अविभाजित मध्यप्रदेश में द्विवेदी युग से लेकर मुक्तिबोध मंडली तक के अनेक वरेण्य लेखकों की उपस्थिति प्रदेश के साहित्यिक परिदृश्य पर थी। इनमें से लगभग हरेक के साथ बाबूजी के आत्मीय संबंध थे। उनके लिए देशबन्धु अपना ही अखबार था और हमें भी मानों उन पर मनमानी करने का अधिकार प्राप्त था। दीपावली विशेषांक के लिए छह-आठ हफ्ते पहले पत्र भेजा जाता और समय पर उनकी रचना हमें प्राप्त हो जाती। याददिहानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन रचनाओं को लेखकों के ज्येष्ठता क्रम में विशेषांक में संजोया जाता। मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामानुजलाल श्रीवास्तव, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, शैलेंद्र कुमार (नागपुर), ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, पदमा पटरथ, कोमलसिंह सोलंकी, शशि तिवारी, कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, हनुमान वर्मा इत्यादि की रचनाएं लगभग इसी क्रम में जमाई जाती थीं। इसी में आगे छत्तीसगढ़ और महाकौशल प्रदेश के अन्य चर्चित लेखकों की रचनाएं ली जातीं।  इनके अलावा दो स्थायी स्तंभ होते। पहला- सालभर के वैश्विक घटनाचक्र पर विशेष संपादकीय जिसे पंडितजी, बाद के वर्षों में बसंत कुमार तिवारी लिखते थे। दूसरा- पृथ्वीधराचार्य कृत वार्षिक भविष्यफल जो बेहद लोकप्रिय था। यह दीपावली विशेषांक हमारी पूर्व घोषणा के अनुसार ''संग्रहणीय'' होता था। अनेक पाठक बरसों तक विशेषांकों की प्रतियां अपने निजी पुस्तकालय में संभालकर रखते थे।


दीपावली विशेषांक का प्रकाशन मूलत: एक साहित्यिक उपक्रम था, लेकिन वह व्यवसायिक दृष्टि से भी लाभप्रद था। एक तो अखबार की चर्चा प्रबुद्ध वर्ग के बीच होती, जिससे वर्तमान मार्केटिंग मुहावरे में कहें तो  ''ब्रांड इक्विटी'' में इजाफा होता। दूसरे पत्र को प्रतिमाह औसतन जो विज्ञापन आय होती थी, उससे दुगनी से अधिक आय इस एक माह में हो जाती थी। याने बारह महीने में तेरह या चौदह माह की कमाई। इस अतिरिक्त आमदनी से बहुत से रुके हुए काम पूरे होते। कुछ कर्जे चुकाए जाते तो नए कर्ज लेने का रास्ता भी खुलता। विज्ञापन लेने के बहाने प्रदेश के वाणिज्यिक क्षेत्र के अनेक जनों से मुलाकात ताजा हो जाती। जो विज्ञापन देते, उनमें से अधिकतर निजी संबंधों के आधार पर ही सहयोग करते थे। कुछ के मन यह भावना होती थी कि अपने अखबार की मदद कर रहे हैं तो कुछ की निगाह भविष्य में मौका पड़ने पर अखबार का साथ मिलने की संभावना पर टिकी होती थी। विज्ञापन जुटाने में विज्ञापन विभाग की भूमिका सीमित होती थी। संपादकीय सहयोगी और विभिन्न स्थानों के संवाददाताओं के भरोसे ही काम मुख्यत: होता था। वे इसके लिए एक निर्धारित कमीशन के पात्र होते और यह उनकी अतिरिक्त आय का जरिया होता। महानगरों के पत्रों में अथवा पूंजीपति घरानों द्वारा संचालित अखबारों में कार्यरत पत्रकार नहीं समझ पाते कि पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने क्यों जाना चाहिए। वे इस कारण से देशबन्धु जैसे अखबारों को शंका की दृष्टि से देखते हैं और उनकी आलोचना भी करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि सीमित साधनों में स्वतंत्र रूप से अखबार निकालना कितना दुष्कर कार्य है। दरअसल, उनकी और हमारी दुनिया बिलकुल अलग है।


खैर, यह अलग से विचार करने का विषय है। रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव आदि औद्योगिक व्यवसायिक गतिविधियों वाले केंद्रों से स्वाभाविक ही आशा के अनुरूप विज्ञापन मिल जाते थे। कई जगह पर संवाददाताओं के निजी संपर्कों के कारण लाभ मिलता। कुछेक स्थानों पर संभावना होने के बावजूद निराशा हाथ लगती, क्योंकि स्थानीय संवाददाता इस दृष्टि से कमजोर होते थे। दीपावली विशेषांक के अलावा 26 जनवरी व 15 अगस्त को प्रकाशित विशेष परिशिष्ट भी पठनीय सामग्री के कारण संग्रहणीय होते तो दूसरी ओर उनसे भी विज्ञापन लाभ होता था। 1966 की दीवाली के पहले मैंने खुद एक लंबी, थकाने वाली यात्रा रायपुर से सरगुजा तक की। रायपुर से रेल से चला, रात रायगढ़ रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में काटी, अगली सुबह चार बजे की बस से अंबिकापुर। उन दिनों वहां जो संवाददाता थे, वे बिलकुल बेपरवाह थे।  मेरे प्राध्यापक आदरणीय रणवीर सिंह शास्त्री की सहधर्मिणी श्रीमती स्नेहलता शास्त्री बस में मिल गईं थीं। उनका मायका अंबिकापुर में था। वे स्नेहपूर्वक मुझे अपने घर ले गईं तो घर का चाय-नाश्ता मिल गया। अंबिकापुर में दिन भर घूमने के बाद भी हाथ खाली रहे। निराश होकर देर शाम की बस से पत्थलगांव आया। वहां से रायगढ़ लौटने का कोई प्रबंध नहीं हुआ तो कड़ाके की ठंड में पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में रात गुजारी। लौटती यात्रा में खरसिया, बाराद्वार, सक्ती, चांपा में एक-एक दिन रुका। छत्तीसगढ़ के इन छोटे-छोटे नगरों से इस तरह परिचय लाभ हुआ।
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#देशबंधु में 10 अक्तूबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

बुधवार, दिसंबर 25, 2019

देशबन्धु के साठ साल-12- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  बारहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-12
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
हमने सीखा था कि एक फोटो एक हजार शब्दों के बराबर होता है। इस सीख का दूसरा पहलू था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं। उन दिनों टीवी नहीं था। सोशल मीडिया भी नहीं था। तस्वीर की फोटोशॉपिंग कर झूठ को सच या सच को झूठ सिद्ध करने की गुंजाइश नहीं थी। महानगरों से प्रकाशित पत्रों में बेहतरीन फोटो छापने की होड़ होती थी। एक अच्छे फोटो से समाचार में निखार आता, पेज की सजावट में वृद्धि होती और पाठक को भी चाक्षुष आनंद मिलता। अखबार पर उसका भरोसा भी बढ़ता। लेकिन रायपुर-जबलपुर जैसे आंचलिक केंद्रों से प्रकाशित अखबारों के सामने व्यवहारिक अड़चन थी। अच्छी से अच्छी तस्वीर खींचकर ले आएं लेकिन उसे छापें कैसे? अखबारी भाषा में जिसे ''ब्लॉक" कहते थे, उसे बनाने की सुविधा इन स्थानों पर नहीं थी। ब्लॉक याने सीसे में ढालकर लकड़ी पर मढ़ी गई फोटो की प्रतिकृति। उन दिनों हम जैसे सभी अखबार महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पासपोर्ट आकार के फोटो के ब्लॉक बाहर से बनवाकर अपने कंपोजिंग कक्ष की आलमारी में तरतीबवार जमा कर रख लेते थे। किसी व्यक्ति से संबंधित समाचार के साथ फोटो देना आवश्यक समझा तो उसका ब्लॉक निकालकर पेज में सजा दिया। छपाई के बाद ब्लॉक वापिस आलमारी में।

इस प्रक्रिया में कभी-कभार मनोरंजक स्थिति उत्पन्न हो जाती। एक बार विनोबा भावे से संबंधित समाचार देना था तो उनकी जगह रायपुर के प्रतिष्ठित शिक्षक आचार्य सुधीर कुमार बोस का फोटो लग गया। जब रॉबर्ट कैनेडी की हत्या हुई तो जॉन एफ. कैनेडी का फोटो लगाया और अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए शीर्षक दिया- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी, जिसके भाई रॉबर्ट कैनेडी की भी हत्या कर दी गई। एक बार तो हद हो गई। वरिष्ठ राजनेता और राज्य के तत्कालीन शिक्षामंत्री शंकरदयाल शर्मा के स्थान पर हकीम वीरूमल आर्यप्रेमी की तस्वीर का ब्लाक लग गया। 60-70 के दौरान हकीम वीरूमल और एक डॉक्टर आजाद के आधा-आधा पेज के विज्ञापन उनके छत्तीसगढ़-प्रवास के दिनों में छपा करते थे। गलत फोटो इसलिए लग गया क्योंकि डॉ. शर्मा और हकीमजी दोनों के ब्लॉक कई बार छपने के कारण घिस गए थे और सिर्फ टोपी और गोलमटोल चेहरे का साम्य देखकर अनुमान से ब्लॉक चुन लिया गया। आज नवीनतम तकनीकी के प्रयोग के बाद भी अखबारों में गलतियां किसी न किसी रूप में होती ही हैं। ऐसी चूकों के चलते जगहंसाई होती है। अपने आप पर गुस्सा आता है। उन पर पाठकों व संबंधित पक्षों से माफी मांगने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता।

आमतौर पर पाठक या तो अखबार के संपादक को उसका नाम प्रतिदिन छपने के कारण जानते हैं या फिर प्रकाशन स्थल सहित अनेकानेक केंद्रों में नियुक्त संवाददाताओं को उनके सामाजिक संपर्कों के कारण। संपादकीय कक्ष में दिन या रात पाली में कई-कई घंटे बैठकर अखबार की पृष्ठ सज्जा व उसे अंतिम रूप देने वाले डेस्क संपादक अमूमन पृष्ठभूमि में ही रहे आते हैं। सलीम-जावेद के पहले संवाद लेखकों को कौन जानता था? इनकी भूमिका पर बाद में लिखूंगा, लेकिन संवाददाताओं के कारण यदि कभी पाठकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है तो कभी विचित्र स्थिति भी पेश आ जाती है। उदाहरण के लिए यह सच्चा किस्सा सुन लीजिए। यह सन् 65-66 की बात होगी। पंडरिया (कबीरधाम ज़िला) के संवाददाता एक दिन गुस्से में भरकर प्रेस आए। दरयाफ्त किया- उनके भेजे समाचार कई दिन से नहीं छप रहे हैं। क्या बात है? प्रांतीय डेस्क के प्रभारी ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया- आप रोज-रोज थानेदार के खिलाफ समाचार क्यों भेजते हैं? एक-दो बार छाप दिया, लेकिन हर दिन तो ऐसा नहीं कर सकते। इस पर उनका उत्तर खासा दिलचस्प था। थानेदार रोज मेरे घर के सामने से निकलता है। मुझे देखकर भी नमस्ते नहीं करता। ऐेसे में गांव में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? मैंने संवाददाता महोदय को समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंतत: कुछ दिनों बाद हमें उनके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नियुक्त करना पड़ा।

दरअसल, भारतीय समाज अखबारनवीसों को विशिष्ट श्रेणी का नागरिक मानकर चलता है। और भला ऐसा क्यों न हो? गांधी, नेहरू, तिलक, सुभाष, राजाजी सबने तो स्वाधीनता संग्राम में अखबार निकालकर अपनी कलम के जौहर दिखलाए थे। उनका असर आज तक चला आ रहा है। कोई व्यक्ति अपने किसी काम के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजता है तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर के अलावा उसकी प्रति ''समस्त अखबारों को" भेजी जाती है। पत्रकारों के पास नागरिक अपने दुख-दर्द सुनाने आते हैं, उनसे अक्सर भयभीत रहते हैं और अखबार वाले क्या नहीं कर सकते के मिथक में भी विश्वास रखते हैं। ऐसे में एक ग्रामीण संवाददाता यदि थानेदार को नमस्कार करने के बजाय उससे पहल करने की अपेक्षा करे तो इसमें उसका क्या दोष है? एक और सच्चा किस्सा सुन लीजिए। रायपुर का एमजी रोड एक समय ''वन वे" था। किसी हड़बड़ी में मैं गलत दिशा में गाड़ी ले गया। ट्रैफिक सिपाही ने रोका। चालान काटने के लिए नाम, पिता का नाम पूछा। पता देशबन्धु सुनते ही वह रुक गया। वही अखबार जिसके राजनारायण मिश्र मालिक हैं! हां भाई, वही मेरे बॉस हैं। ठीक है। जाओ। आगे से ध्यान रखना।

हम पत्रकारों को इससे एकदम विपरीत स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। दफ्तर में मेरा कक्ष काफी छोटा है। एक दिन धड़धड़ाते हुए सात-आठ लोग कमरे में घुस आए। आप ही संपादक हैं? हां। आज आपने मेरे बारे में कैसे छाप दिया कि मैं शहर का कुख्यात गुंडा हूं, कहते हुए पेपर पटक दिया। मैंने देखा- बीते दिन किसी पुलिस कार्रवाई के सिलसिले में नाम के साथ विशेषण छपा था। मैंने पूछा- इसमें गलत क्या लिखा है? तुम अपने साथियों को लेकर धमक पड़े हो तो यह क्या है? मैं तुम्हें देख लूंगा। ठीक है, उसके लिए प्रतीक्षा क्यों? मैं तो यहीं अकेला निहत्था बैठा हूं। जो चाहो कर लो। उसका दिमाग थोड़ा ठंडा हुआ। मेरी बेटी स्कूल में पढ़ती है।उसे सहेलियों ने आज उल्टी-सीधी सुनाई। अगर बेटी के बारे में इतना सोचते हो तो ऐसे काम ही क्यों करते हो? मैं उस लड़के के पिता को जानता था। उन्होंने सुनील दत्त की फिल्म 'साधना" से प्रेरणा ले विवाह किया था। मैंने उसके पिता की याद दिलाई तो उसका स्वर एकदम नरम हो गया। अपनी बेअदबी के लिए माफी मांगकर वह और उसके साथी चले गए। मुझे मन ही मन डर तो लगा था, लेकिन बाबूजी ने बरसों पहले जबलपुर में इसी तरह दो बार दादा लोगों को शांत किया था। वे प्रसंग मेरे ध्यान में थे।

इन संस्मरणों में खास कुछ भी नहीं है। ये पत्रकारों की सामान्य दिनचर्या के हिस्से हैं। किसी भी अन्य व्यवसाय में और किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे खट्टे-मीठे अनुभव आते होंगे। हम कभी-कभार हवा के घोड़े पर सवार होते हैं तो अक्सर हमें जमीन पर ही चलना होता है। एक समय मैंने नोटिस किया कि पत्रकार गण किसी कार्यक्रम में गए तो उचित सत्कार न होने के कारण बहिष्कार करके लौट आए। मैंने देशबन्धु में अपने साथियों को हिदायत दी कि यदि आप किसी आयोजन को व्यापक जनहित में मानकर रिपोर्टिंग करने जा रहे हैं तो काम पूरा करके लौटिए। सुविधाओं की चिंता मत कीजिए। अगर पूरे समय खड़े रहकर कवरेज करना है तो वह भी कीजिए। आखिरकार हम पाठकों के प्रति उत्तरदायी हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के संस्मरणों से मैंने दो बातें जानी थीं। एक- व्हाइट हाउस की पत्रकार वार्ता में अधिकृत संवाददाता ही सामने बैठते हैं। संयोग से यदि प्रधान संपादक भी आ जाए तो वह पीछे खड़ा होगा। दो- जब पत्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो अखबार उनका अनुमानित यात्रा व्यय राष्ट्रपति भवन को भेज देता है। मुफ्त की सैर नहीं होती। यह शायद एक कारण है कि अमेरिका में आज भी पत्रकार राष्ट्रपति का विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।
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#देशबंधु में 26 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

गुरुवार, दिसंबर 19, 2019

देशबन्धु के साठ साल-11- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  ग्यारहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-11
- ललित सुरजन

Lalit Surajan
आज जब कारपोरेट पूंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को बेतरह अपने शिकंजे में जकड़ लिया है और विनिवेश जैसी छलपूर्ण संज्ञा की ओट में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी पूंजी के हवाले करने का षड़यंत्र लगभग सफल हो चुका है, तब यह स्मरण हो आना स्वाभाविक है कि आज से 50-60 वर्ष पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन्हीं उद्यमों ने भारतवासियों के हृदय में नए सिरे से आत्मविश्वास भर दिया था, मन में नई ऊर्जा का संचार किया था और एक बेहतर भविष्य का स्वप्न हमारी आंखों में तैरने लगा था। छत्तीसगढ़ में पब्लिक सेक्टर के इन उद्यमों के कारण जो परिवर्तन आए, देशबन्धु लंबे समय से उनका साक्षी रहा है।

छत्तीसगढ़ का रेल यातायात उन दिनों दक्षिण-पूर्व रेलवे के अंतर्गत संचालित होता था, जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। बिलासपुर जोन की स्थापना तो बहुत बाद में हुई। हम अखबार वालों का काम सामान्यत: रेलवे के जनसंपर्क विभाग से ही पड़ता था। एक वरिष्ठ अधिकारी रघुवर दयाल (आर. दयाल) तब द.पू. रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे। रायपुर के अखबारों में रेलवे से संबंधित कोई भी खबर छपे तो शाम की बंबई-हावड़ा मेल से उसकी कतरन उनके पास चली जाती थी। यदि उस पर कोई स्पष्टीकरण या निराकरण की आवश्यकता हो तो दिन भर में कार्रवाई पूरी कर लौटती मेल से संपादक को उत्तर भेज दिया जाता था। सरकारी काम-काज में ऐसी फुर्ती और जवाबदेही की आज कल्पना करना भी मुश्किल है।

रेलवे के जनसंपर्क विभाग ने 1964 की मई में एक प्रेस टूर का आयोजन किया। वे हमें भिलाई के निकट स्थापित चरौदा मार्शलिंग यार्ड, बिलासपुर डिवीजन की कार्यप्रणाली और बिलासपुर से भनवार टांक तक बिछ रही दूसरी रेलवे लाइन से परिचित कराना चाहते थे। मेरे लिए किसी प्रेस टूर पर जाने का यह पहला अवसर था। मालगाड़ी के डिब्बे में प्रथम श्रेणी की एक बोगी लगा दी गई। तीन-चार दिन तक हमारा ठिकाना उसी बोगी में रहा। चरौदा में हमने देखा कि किस तरह भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर वैगनों में माल भराई होती है और मार्शलिंग यार्ड में उन वैगनों को अलग-अलग पटरियों पर डालकर विभिन्न दिशाओं के विभिन्न स्टेशनों के लिए पचास-साठ डिब्बों की मालगाड़ियां बनाई जाती हैं। खोडरी, खोंगसरा, भनवार टांक जैसे वनक्षेत्र के बीच बसे लगभग निर्जन रेलवे स्टेशनों पर फर्स्ट क्लास की एकाकी कोच में रात बिताना तो एक नया अनुभव था ही, रेल पटरियां बिछाते मजदूरों की गैंग, जंगल में तंबू तानकर बने रेलवे के अस्थायी दफ्तर व इंजीनियरों आदि के आवास, वहीं भोजन का प्रबंध- यह सब भी पत्रकार की कल्पना को पंख लगाने के लिए क्या कम था? मैंने लौटने के बाद दो किश्तों में अपने अनुभव लिखे।

इस अध्ययन यात्रा के दौरान भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से संक्षिप्त परिचय हो गया था। एकाध माह बाद ही भिलाई में पहली पत्रवार्ता में जाने का अवसर मिला। स. इंद्रजीत सिंह तब संयंत्र के जनरल मैनेजर थे (बाद में इसी को प्रबंध संचालक का पदनाम दे दिया गया)। एफ. सी. ताहिलरमानी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे और के.के. वर्मा आदि उनके अधीनस्थ अधिकारी। इस पत्रवार्ता में लगे जमघट को देखकर मुझे हैरानी हुई। रायपुर से हम 15-20 पत्रकार, साथ में दुर्ग व राजनांदगांव के सभी पत्रों के संवाददाता। श्री सिंह ने संयंत्र की मासिक प्रगति का विवरण पढ़कर सुनाया, दो-चार सवाल हुए और भिलाई होटल में लंच के साथ पत्रवार्ता समाप्त। उस दिन तो नहीं, लेकिन बाद में मैंने श्री ताहिलरमानी को पत्र लिखा कि इस मासिक पत्रवार्ता में हमारे दुर्ग प्रतिनिधि ही भाग लेंगे; रायपुर-राजनांदगांव से कोई नहीं आएगा। धीरे-धीरे अन्य अखबारों ने भी यह पद्धति अपना ली। ध्यान दीजिए कि उस समय तक भिलाई में किसी भी अखबार का दफ्तर या रिपोर्टर तैनात नहीं था। दुर्ग-भिलाई की पहचान एक जुड़वां शहर के रूप में थी।

खैर, भिलाई के जनसंपर्क विभाग की कार्यदक्षता और तत्परता भी गौरतलब थी। जितना मैं समझता हूं,  इसकी नींव श्री ताहिलरमानी ने ही डाली थी और उसे स्थिर करने का काम प्रदीप सिंह ने किया। भिलाई के बारे में कोई भी खबर छपे, तुरंत उस पर आधिकारिक प्रतिक्रिया आ जाती थी। जनसंपर्क विभाग पर ही आम नागरिकों को संयंत्र का अवलोकन याने गाइडेड टूर कराने का दायित्व था। छत्तीसगढ़ में जो मेहमान आते थे, उन्हें भिलाई देखने की उत्सुकता होती थी और मेजबानों को भी चाव होता था कि उन्हें भिलाई स्टील प्लांट तथा मैत्रीबाग घुमाने ले जाएं। भिलाई की टाउनशिप भी अपने आप में आकर्षण का केंद्र थी। उस समय की एक मार्मिक खबर कुछ-कुछ याद आती है। एक रशियन इंजीनियर की आकस्मिक मृत्यु मैत्रीबाग से लगे मरौदा जलाशय में हो गई। उसका तेरह साल का बेटा कार लेकर अस्पताल भागे-भागे आया। सबको आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे से लड़के ने कैसे कार चला ली!

बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना और उसी क्षेत्र में निर्माणाधीन डी.बी.के. रेलवे (किरंदुल-विशाखापटट्नम लाइन) पर चल रहे काम को देखना भी कम रोमांचक नहीं था। उन दिनों जगदलपुर में होटल भी नहीं थे। रायपुर से जगदलपुर की सिंगल लेन सड़क पर, बीच-बीच में लकड़ी के पुलों से गुजरते हुए दस घंटे में यात्रा पूरी हुई थी। गीदम-दंतेवाड़ा तब छोटे-छोटे गांव थे। एक रात हमने भांसी बेस कैंप में तंबुओं में ही गुजारी थी। मई माह में भी रात को कंबल ओढ़ने की जरूरत पड़ गई थी। किरंदुल का मानो तब अस्तित्व ही नहीं था। भांसी से हम जीप से ऊपर डिपाजिट-12 तक गए थे, जहां उत्खनन प्रारंभ होने वाला था। मैं देख रहा था कि कितने ही लोग सामान की बोरियां उठाए धीरे-धीरे पैदल ऊपर चढ़ रहे हैं। उस दिन पहली बार डिपॉजिट-12 पर साप्ताहिक बाजार लगने वाला था। इसके अलावा हमारे पत्रकार दल ने नई रेल लाइन बिछाने के काम का भी अवलोकन किया।

तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित जनों की एक बस्ती दंडाकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत बस्तर में बसाई गई थी। उनमें से कई लोग रेलवे लाइन पर काम कर रहे थे। वरिष्ठ साथी मेघनाद बोधनकर व मैं उनकी कॉलोनी में गए। विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उनकी जिजीविषा, परिश्रम, सुरुचिसंपन्नता को उन्होंने जैसे संजोकर रखा था, उससे हम बेहद प्रभावित हुए थे।

कुछ साल बाद शायद 1972 में एक प्रेस टूर में कोरबा जाने का अवसर मिला, जहां बाल्को (जिसे वाजपेयी सरकार ने वेदांता को बेच दिया) के एल्युमीनियम संयंत्र के निर्माण का शुरुआती काम चल रहा था। बाल्को के पहले इंजीनियर आर.पी. लाठ तथा कार्मिक प्रबंधक दामोदर पंडा से पहली बार भेंट हुई। श्री पंडा हमारे पथप्रदर्शक थे और श्री लाठ से आगे चलकर हमारी पारिवारिक मित्रता हुई। देश के नक्शे पर कोरबा एक औद्योगिक नगर के रूप में उभरने के पहले चरण में था। भिलाई, चरौदा, भनवार टांक, भांसी डिपाजिट-12, कोरबा, इन सभी स्थानों पर एक नया भारत मानो अंगड़ाई लेकर उठ रहा था। अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी ने भारत के आत्मबल, उद्यमशीलता, साहसिकता को नष्ट कर दिया था। उसके विपरीत एक नई फिजां बन रही थी।

देशबन्धु में हमें संतोष था कि हम इस परिवर्तन के गवाह बन रहे हैं। आज जब बात-बात पर सार्वजनिक उद्योगों की निंदा और निजी क्षेत्र की वकालत होती है तो ऐसा करने वालों की समझ पर तरस आता है। क्योंकि हमने देखा, लिखा और छापा है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने अपनी गलतियों व कमजोरियों के बावजूद एक सशक्त देश की बुनियाद रखने में कितनी महती भूमिका निभाई है।
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#देशबंधु में 19 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

सोमवार, दिसंबर 16, 2019

देशबन्धु के साठ साल-10 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,

   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  आठवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-10
- ललित सुरजन
 
Lalit Surjan
''अकाल उत्सव समाप्त हो गया",
अप्रैल 1980 में प्रथम पृष्ठ पर एक सप्ताह तक छपी रिपोर्टिंग श्रृंखला का यही मुख्य शीर्षक था। बीते साल छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था। इधर इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनकर लौट आई थीं।  केंद्र की जनता पार्टी सरकार को तो मतदाता ने नकार ही दिया था; राज्यों में भी जनता पार्टी की सरकारें बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक था। छत्तीसगढ़ में अकाल की स्थिति को देखते हुए सरकार ने राहत कार्य प्रारंभ कर दिए थे। इंदिरा जी 23 मार्च को एक दिन के हवाई दौरे पर राहत कार्यों का निरीक्षण करने छत्तीसगढ़ आईं। उनका दौरा भारी व्यस्त था। एक दिन में नौ स्थानों पर जाने का कार्यक्रम था। हमने अपने सभी वरिष्ठ साथियों को अलग-अलग स्थान पर कवरेज करने भेजा। मैं स्वयं रायपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर संडी बंगला नामक गांव गया। वहां सिंचाई विभाग की एक सौ साल पुरानी निरीक्षण कुटी थी, जिसे बंगला कहा जाता था। इंदिराजी को यहां निकटस्थ जर्वे गांव से गुजरने वाली नहर पर राहत कार्य के अंतर्गत गहरीकरण और गाद निकालने जैसे कामों का स्थल निरीक्षण करना था।

 हम इस तरह भिन्न-भिन्न जगहों पर गए। रायपुर के साथी शाम तक लौट आए। दूरदराज के संवाददाताओं ने फोन पर रिपोर्ट दाखिल कर दीं। यह तो सामान्य बात थी। हमने ठीक एक सप्ताह बाद उन्हीं साथियों को दुबारा राहत कार्यस्थल भेजा। देखकर आएं कि एक सप्ताह बाद क्या स्थिति बनी है। सत्येंद्र गुमाश्ता महासमुंद के पास तालाब गहरीकरण स्थल पर गए थे। उन्होंने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह 8 अप्रैल को छपी। उसका पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह था- ''तालाब  में जाने के लिए एक कोने में बाकायदा पार फूटी हुई थी। इसी रास्ते से होकर श्रीमती गांधी को तालाब के भीतर ले जाया गया था। वहां मिट्टी के भीतर एक गेंदे की माला अभी भी दबी पड़ी थी। उसके पास ही जमीन पर जमे सिंदूर की लाली और कुछ दूरी पर नारियल की टूटी हुई ताजा खोपड़ी।  टीका लगाने और आरती उतारने की याद के लिए यह सब काफी था।" इस एक पैराग्राफ ने ही सरकारी कामकाज की तल्ख  हकीकत सामने रख दी थी। हमने इसी वाक्य के आधार पर मुख्य शीर्षक बना धारावाहिक रिपोर्ट छापना शुरू कर दिया। आर.के. त्रिवेदी राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल के सलाहकार थे।  बाद में वे केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त बने।राज्य का प्रशासन उनके ही जिम्मे था। वे इस रिपोर्ट को पढ़कर बेहद खफा हुए। उन्होंने दिल्ली दरबार तक शिकायत की। लेकिन जिन तक शिकायत गई, वे त्रिवेदीजी के मुकाबले देशबन्धु को बेहतर जानते थे। बात वहीं खत्म कर दी गई।

जिस एक समाचार ने हमें अपने पत्रकार कर्म की सार्थकता के प्रति आश्वस्त किया और जो  हमारे लिए गहरे संतोष का कारण बनी, वह 29 फरवरी 1992 को प्रकाशित हुई थी। इस भीतर तक हिला देने वाले समाचार को सरगुजा के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख कौशल मिश्र ने भेजा था। आदिवासी बहुल सरगुजा अंचल की एक दूरस्थ पहाड़ी बसाहट में रिबई पंडो नामक आदिवासी के पोते बाबूलाल की भूख के चलते अकाल मृत्यु हो गई थी। एक-दो दिन बाद इस बच्चे की मां ने भी भूख से दम तोड़ दिया। इनके अंतिम संस्कार के लिए रिबई को अपनी दो एकड़ जमीन दो सौ रुपए में गिरवी रखना पड़ी।  खबर छपते ही जिला प्रशासन तो क्या राज्य सरकार और केंद्र सरकार तक हरकत में आई।  जिला प्रशासन ने जैसा कि अमूमन होता है खबर पर लीपापोती करने की कोशिश की। आनन-फानन में रिबई पंडो की झोपड़ी में अनाज पहुंचा दिया गया। देशबन्धु पर गलत खबर छापकर सनसनी फैलाने का आरोप भी लगाया गया, लेकिन सच्चाई सामने आ चुकी थी और उसे दबाना मुमकिन नहीं था। सच्चाई जानने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के साथ 7 अप्रैल 1992 को सरगुजा पहुंचे।

सरगुजा की यह खबर तो एक त्रासदी घटित हो जाने के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन हमारे संवाददाता खेमराज देवांगन एक ऐसी रिपोर्ट लेकर आए, जिसने तीन ग्रामीण महिलाओं को प्रताडि़त होने से बचा लिया। यह समाचार 20 नवंबर 2001 के अंक में प्रकाशित हुआ। वैसे तो हिंदीभाषी क्षेत्र में स्त्री अधिकारों के मामले में छत्तीसगढ़ अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, लेकिन टोनही की सामाजिक कुप्रथा से प्रदेश पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। देखा गया है कि किसी बेसहारा, अशक्त, अक्षम महिला पर टोनही (डायन) होने का आरोप लगाकर समाज उसे कई तरीकों से प्रताडि़त करता है। उसे जात बाहर कर देते हैं। गांव से बाहर भी निकाल देते हैं।  फिर उसकी संपत्ति पर रिश्तेदार या कोई और कब्जा जमा लेते हैं। उपरोक्त रिपोर्ट छपने  के कोई दो-तीन सप्ताह पहले ही एक अन्य गांव में कुछ महिलाओं को टोनही के आरोप में निर्वस्त्र कर गांव की गलियों में घुमाया गया था। इस बीच हमारे संवाददाता को सूचना मिली कि रायपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित बेंद्री गांव में इसी तरह का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। खेमराज ने उस गांव जाकर पूरे मामले को समझा और विस्तारपूर्वक रिपोर्ट प्रकाशित की। समाचार का शीर्षक था-''उन्हें आज साबित करना होगा वे टोनही नहीं हैं।" समाचार की प्रशासन तंत्र में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। फौरी कदम उठाए गए और एक अनहोनी होते-होते टल गई। इस रिपोर्ट पर खेमराज देवांगन को स्टेट्समैन का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

1980-81 में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट इन सबसे अलग मिजाज़ की थी और उसके बनने का किस्सा भी दिलचस्प है। रायपुर के ही एक अन्य अखबार में पाठकों के पत्र स्तंभ में एक चार पंक्तियों का संक्षिप्त पत्र छपा- लुड़ेग के बाज़ार में आदिवासी टमाटर लेकर आते हैं और शाम होते-होते औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अपने एक सहयोगी गिरिजाशंकर को कहा कि वे लुड़ेग जाएं और पूरी रिपोर्ट तैयार करें। गिरिजा उसी रात निकल पड़े। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस-ट्रक जो मिले उससे लुड़ेग- रायपुर से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर मुख्य मार्ग से कटकर, जशपुर जिले का एक आदिवासी ग्राम।  दो दिन बाद लौटकर वे जो रिपोर्ट लाए, वह चौंका देने वाली थी। दो रुपए में पचास किलो टमाटर! आदिवासी अंचल में टमाटर की फसल बहुतायत से होती है। बांस की टोकरियों में भर कई-कई कि.मी. पैदल चलकर आदिवासी लुड़ेग के बाज़ार आते हैं। दिन भर उनका माल कोई नहीं खरीदता। जानबूझ कर। दिन ढलते जब घर जाने का समय हो जाए तो क्या करें? क्या वापिस उतना बोझ लादकर लौटें? तब रांची आदि स्थानों से आए बिचौलिए उनकी मजबूरी  का लाभ उठाकर पानी के भाव टमाटर खरीद लेते हैं। जिस दिन यह खबर छपी, उसी दिन नवनियुक्त मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ जिले के प्रथम प्रवास पर पहुंचे थे। उन्होंने समाचार देखकर तुरंत कार्रवाई की। घोषणा की कि रायगढ़ जिले में टमाटर आधारित कृषि उद्योग की स्थापना की जाएगी। घोषणा के बाद सरकारी स्तर पर कुछ दिनों तक हलचल होती रही, फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
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#देशबंधु में 12 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

देशबन्धु के साठ साल-9 - ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,

   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  आठवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-9
- ललित सुरजन
 
Lalit Surajan
16 सितंबर 1980 का दिन देशबन्धु के इतिहास में, मुहावरे की भाषा में कहूं तो, स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दो दिन पहले दा राजनारायण मिश्र को हमने कलकत्ता (अब कोलकाता) रवाना किया था और अब उनसे एक खबर पाने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल, प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ''द स्टेट्समैन" ने ''स्टेट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन रूरल रिपोर्टिंग" की स्थापना उसी वर्ष की थी। श्रेष्ठ ग्रामीण पत्रकारिता के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय ऐसे तीन पुरस्कार पहली बार 1979 में छपी रिपोर्टों पर दिए जाने थे। हमने फरवरी-मार्च 80 में अपने साथियों की लिखी रिपोर्टं उन्हें भेज दी थीं। जुलाई में एक उत्साहवर्धक सूचना भी उनसे मिल गई थी कि राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट को पुरस्कार हेतु चुना गया है। यह नहीं बताया गया था कि दा को तीन में कौन सा पुरस्कार मिलेगा। द स्टेट्समैन का स्थापना दिवस 16 सितंबर है और उसी दिन पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। शाम को दा का फोन आया तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था। उनकी रिपोर्ट को प्रथम पुरस्कार मिला था। देश के कोने-कोने से विभिन्न अखबारों से प्राप्त तीन-चार सौ प्रविष्टियों के बीच पुरस्कार मिलने पर गर्व और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक था।

हमें इस बात का संतोष भी हुआ कि अपने स्थापना काल से लेकर अब तक देशबन्धु ने जिस संपादकीय नीति का वरण किया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर और वह भी अपनी पत्रकार बिरादरी के बीच, मान्यता मिली। रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता- ''द रोड नॉट टेकन एकाएक मानो चरितार्थ हो गई। कविता की पंक्तियां हैं- ''टू रोड्स डाइव•र्ड इन द वुड्स, एंड आई, आई टुक द वन, लैस ट्रॅवल्ड बाई; एंड तहत हैज़ मेड ऑल द डिफरेंस"। इसका सरल अनुवाद होगा- वन में दो पगडंडियां फूट रही थीं, मैंने वह चुनी, जिस पर कम लोग ही चले थे, और उसी से हुआ इतना बड़ा फर्क। कम चली राह पर या नई राह खोजने की यह नीति हमने अन्य प्रसंगों में भी अपनाई। फिलहाल ग्रामीण पत्रकारिता की ही चर्चा करें। स्टेट्समैन अवार्ड के पहले वर्ष में ही पहला पुरस्कार हासिल करने से जो शुरूआत हुई, वह लंबे समय तक चलती रही। देशबन्धु के पत्रकारों ने यह पुरस्कार अब तक कुल मिलाकर ग्यारह बार हासिल किया। सत्येंद्र गुमाश्ता ने एक अलग रिकॉर्ड कायम किया। उन्हें अलग-अलग सालों में तीसरा, दूसरा और पहला पुरस्कार मिले। धमतरी के ज़ियाउल हुसैनी को शायद दो बार पुरस्कार मिला। इनके अलावा गिरिजाशंकर, नथमल शर्मा, पवन दुबे, प्रशांत कानस्कर, खेमराज देवांगन भी पुरस्कृत हुए।

ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता के प्रति बाबूजी का आग्रह प्रारंभ से ही था। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारी भूमिका यदि एक ओर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप लोकहित की योजनाओं व कार्यक्रमों की सूचना जन-जन तक पहुंचाना है; तो दूसरी ओर आम जनता की आशा-आकांक्षा, सुख-दु:ख को शासन के ध्यान में लाना भी है। यदि इस दूसरी भूमिका में बहुसंख्यक ग्रामीण समाज के प्रति दुर्लक्ष्य करें तो फिर पत्रकारिता के व्यवसाय में बने रहने का हमारा औचित्य और अधिकार ही क्या है? इसी सोच के अनुरूप हमने ग्रामीण क्षेत्र में अपने संवाददाताओं को लगातार प्रोत्साहित किया, मुख्यालय से वरिष्ठ साथियों को जब आवश्यक समझा, दूरस्थ गांवों तक कवरेज के लिए भेजा तथा अन्य उपाय किए। मैं कह सकता हूँ कि अखबारों का कारपोरेटीकरण होने के पहले तक मध्यप्रदेश में देशबन्धु ही ऐसा पत्र था जिसकी रिपोर्टों का तत्काल संज्ञान शासन-प्रशासन में लिया जाता था और उन पर यथासंभव उचित कार्रवाई भी होती थी।

इस दिशा में एक नया प्रयोग देशबन्धु ने 1968 में किया। बिलासपुर के निकट अकलतरा के पत्रकार परितोष चक्रवर्ती को हमने बाकायदा पर्यटक संवाददाता नियुक्त किया। परितोष कोई एक गांव चुनकर वहां जाते थे और दिन-दिन भर रुक जनता से चर्चा के बाद उस स्थान पर विस्तृत फीचर तैयार करते थे। संवाददाता पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, उनके लिए यह सुकून की बात थी। वे गांव के प्रभुओं से कह सकते थे कि हैड ऑफिस से पत्रकार आया था। उसने जो लिखा, उस पर हम क्या कर सकते थे। लेकिन मुझे ध्यान आता है कि स्वयं परितोष को एकाधिक बार ऐसे वर्चस्ववादी जनों का विरोध और नाराजगी झेलना पड़ी थी। आगे चलकर परितोष ने एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम की। उन्होंने बांग्ला के दो-तीन उपन्यासों का भी हिंदी रूपांतर किया। किसी बात पर नाराज होकर उन्होंने मुझे खलनायक बनाकर भी एक कहानी लिखी थी, लेकिन अभी तीन-चार साल पहले प्रकाशित उनके उपन्यास ''प्रिंटलाईन" में परितोष ने देशबन्धु के दिनों को मोहब्बत के साथ याद किया है जिसमें मेरे प्रति भी उनका सदाशय ही व्यक्त हुआ है। खैर, यह बात यूं ही याद आ गई।

देशबन्धु की ग्रामीण रिपोर्टिंग के अध्याय में बहुत से स्मरणीय प्रसंग हैं। आदिवासी अंचल कांकेर के हमारे तत्कालीन संवाददाता बंशीलाल शर्मा एक अनोखे पत्रकार थे। वे दूर-दराज के गांवों का नियमित दौरा करते थे और प्रशासन की आंखें खोल देने वाली तथ्यपरक रिपोर्टें लेकर आते थे। उन्होंने अबूझमाड़ के दुर्गम इलाके की एक नहीं, दो बार साइकिल से कठिन यात्रा की थी। शायद दूसरी बार राजनारायण मिश्र उनके साथ थे। पंद्रह दिन की यात्रा में न रहने का ठिकाना, न खाने का। गांव में आदिवासी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जैसा सत्कार कर दें, वही स्वर्ग समान। जिस इलाके में सिर्फ पगडंडियों पर चलना हो, वहां साइकिल से यात्रा करना भी दुस्साहस ही था। अबूझमाड़ में सरकार कैसे चलती थी, इसका एक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव मेरा अपना है। मई 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अबूझमाड़ का प्रवेशद्वार माने जाने वाले ग्राम ओरछा के प्रवास आईं। मैं रात भर जीप से यात्रा कर वहां पहुंचा था। इंदिराजी का हेलीकॉप्टर उतरा। उन्होंने बड़े प्रेम से आदिवासियों से बातचीत की। ग्राम पंचायत को एक ट्रांजिस्टर भेंट किया। बच्चों को बिस्किट-चॉकलेट बांटे। फिर अमेरिकी सहायता (यूएसएड) से बने एक हैंडपंप का उद्घाटन किया। सच्चाई यह थी कि नीचे छोटे डोंगर की झील से टैंकरों में पानी लाकर ऊपर एक बड़े गड्ढे में भर दिया था। उस पर मोटे-मोटे तखत रख उन पर रिग मशीन खड़ी कर दी थी। इंदिराजी ने हैंडपंप चलाया तो पहले से एकत्र पानी की ही धार उससे निकली। वे जो ट्रांजिस्टर उपहार दे गईं थीं, उसे भी कोई राजस्व कर्मचारी अपने घर ले गया। रिपोर्ट छपी तो ट्रांजिस्टर पंचायत घर में वापिस आया, लेकिन जो बड़ा घोटाला हुआ था, उसका क्या हुआ, पता नहीं चला।

ग्रामीण समाज के साथ हमने सिर्फ समाचार के स्तर पर ही रिश्ता कायम नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में बेहतरी लाने की दिशा में भी एक छोटा कदम उठाया। इसकी प्रेरणा मुझे हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक बी.जी. वर्गीज से मिली। उन्होंने दिल्ली से कोई 50-60 कि.मी. दूर छातेरा नामक एक गांव को अंगीकृत कर उसकी विकास में भागीदार बनने की अनूठी पहल की थी। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार छातेरा जाते, वहां की समस्याओं और आवश्यकताओं को समझते और उन्हें संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाते, ताकि समाधान हो सके। इसके लिए हर सप्ताह ''आवर विलेज छातेरा" शीर्षक से एक कॉलम प्रकाशित होता था।

हमने भी ऐसा ही कुछ करने की ठानी। हमारे साथियों ने खोजबीन कर राजिम और चंपारन के बीच लखना नामक गांव का चयन किया। इस गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में मैंने सत्येंद्र गुमाश्ता को मनोनीत किया। वे हर सप्ताह लखना जाते, वहां की स्थितियों का अवलोकन करते और ''हमारा गांव लखना शीर्षक कॉलम में उनका वर्णन करते। वे देशबन्धु की ओर से विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी जाते और गांव की समस्याओं का निराकरण करने अधिकारियों को प्रेरित करते। लखना गांव बरसात में टापू बन जाता था। तीन तरफ महानदी, एक तरफ उसमें मिलने वाला बरसाती नाला। एक पुलिया बन जाने से बारहमासी रास्ता खुल जाता। यह काम हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुचिकित्सा, दुग्धपालन इत्यादि कई विषयों पर हमारी इस मुहिम ने ध्यान आकर्षित करवाया। लखना में अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली विभाग से संपर्क साध कर यह काम भी हुआ। गांव में स्ट्रीट लाइट लगा दी गई। मैं उसके दो-चार दिन बाद वहां गया। शाम के समय जब स्ट्रीट लाइट का उजाला फैल चुका था। ग्रामवासियों से हमारी बातचीत हुई। एक जन ने जो बात कही, वह आज तक मेरे कानों में गूंजती है। उसने कहा- ''लाइट आ जाने से हमारी जिंदगी बढ़ गई। अब तक हम सात-साढ़े सात बजे तक घरों में बंद हो जाते थे। अंधेरे में और करते भी क्या। लेकिन अब देखिए, रात के नौ बजे तक लोग-बाग घरों के बाहर बैठे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। आदमी-औरत अपनी-अपनी मंडली में बैठे हैं।"

अभी दो साल पहले रायपुर रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक सज्जन आए। आप ललित सुरजन हैं? हां कहने पर वे उत्साहित हुए। अपना परिचय दिया- मैं लखना का हूं। आपके अखबार ने हमारे गांव की तस्वीर बदल दी। उनके दिए इस सर्टिफिकेट को मैंने मन की दीवाल पर मढ़ लिया है।
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#देशबंधु में 05 सितम्बर 2019 को प्रकाशित 
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

रविवार, दिसंबर 08, 2019

देशबन्धु के साठ साल-8- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,

   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  आठवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-8
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
अनेक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो बड़े-बड़े पदों पर काम कर चुके हैं, आत्मकथाएं लिखी हैं। ये सभी पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई हैं और लगभग निरपवाद आत्मश्लाघा से भरपूर हैं। मेरे देखे में एक आरएसवीपी नरोन्हा और दूसरे जावेद चौधरी ही हैं जिनकी आत्मकथा क्रमश: ''ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट" और ''द इनसाइडर्स व्यू : मेमॉयर्स ऑफ ए पब्लिक सर्वेंट" निज पर अधिक केंद्रित होने के बजाय प्रशासनिक काम-काज की बारीकियों में झांकने का अवसर प्रदान करती हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त और बाद में चार दफे भोपाल क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य बने सुशीलचंद्र वर्मा की 'कलेक्टर की डायरी" शायद किसी वरिष्ठ आईएएस द्वारा हिंदी में लिखी गई एकमात्र आत्मकथा है। इस पुस्तक को धारावाहिक रूप में छापने का सुअवसर भी देशबन्धु को मिला। वर्माजी का अंदाजा-बयां बेहद दिलचस्प और पुरलुत्फहै। उनकी रोचक लेखन शैली नरोन्हा साहब की लेखनी के समकक्ष ठहरती है। वर्माजी ने बैतूल, रायपुर जैसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जिलों की कलेक्टरी की और आगे चलकर वे केंद्र में ग्रामीण विकास विभाग के सचिव भी रहे। उनके समान कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और ज़िन्दादिली से भरपूर व्यक्ति ने जाने किस अवसाद में डूबकर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु एक एंटी-क्लाइमेक्स ही कही जा सकती है!

मेरे स्मृतिपटल पर अनायास कनोज कांति दत्ता का नाम उभरता है। वे बंगाल के किसी नगर से 1955-56 के आसपास भिलाई इस्पात संयंत्र में फिटर जैसे किसी पद पर नियुक्ति पाकर यहां आ गए थे। उन्होंने अपने जीवन के कोई 35 साल इस कारखाने में खपा दिए और रिटायरमेंट के बाद भिलाई में ही बस गए। दत्ताजी ने कारखाने के भीतर और बाहर के जीवन पर एक उपन्यास ''लौह वलय" शीर्षक से लिखा। मूल बांग्ला से अनुवाद सुपरिचित लेखिका संतोष झांझी ने किया। वे भी भिलाई निवासी हैं। ''लौह वलय" में इस्पात कारखाने के भीतर का कारोबार कैसे चलता है, इसका बारीकी और विस्तार से वर्णन हुआ है। हिंदी में शायद यह अपनी तरह का एकमात्र उपन्यास है। इसे भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किया। अंग्रेजी में ऑर्थर हैली जैसे लेखकों ने मोटरकार कारखाने, बिजली संयंत्र, एयरपोर्ट, होटल जैसे स्थलों का दो-दो साल तक अध्ययन कर उनपर लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं। यहां तो लेखक ताउम्र उस कारखाने के जीवन को जी रहा है। उनके अनुभव प्रत्यक्ष और प्रामाणिक हैं। मुझे अफसोस है कि ''लौह वलय" का पुस्तकाकार प्रकाशन नहीं हो पाया। दत्ताजी उसके पहले ही अंतिम यात्रा पर रवाना हो गए। उनकी एक कहानी ''रिक्शावाला" भी बहुचर्चित हुई थी।

देशबन्धु के इन मित्र लेखकों के अलावा संपादक मंडल के अनेक सहयोगियों ने भी ऐसे नियमित कॉलम लिखे, जिनसे देशबन्धु की पहचान और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय ''एक दिन की बात" शीर्षक से सप्ताह में छह दिन कॉलम लिखते थे। वे साल में एक बार अपने गांव जाते थे, तभी उनकी लेखनी विराम लेती थी। देश के किसी भी अखबार में सबसे लंबे समय तक प्रकाशित कॉलम के रूप में इसने एक रिकार्ड कायम किया और ''लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स" में बाकायदा दर्ज हुआ। पंडितजी वक्रतुंड के छद्मनाम से स्तंभ लिखते थे। वे अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध थे। उनसे मिलने वाले भी घबराते थे कि पंडितजी कहीं उनको ही निशाना न बना दें। एक बार तो उन्होंने बाबूजी के खिलाफ तक लिख दिया था। लिख तो दिया, छप भी गया, लेकिन अगले दिन घबराए कि अब न जाने क्या हो! बाबूजी पंडितजी को नागपुर के दिनों से जानते थे। उन्होंने हँस कर टाल दिया। कुछ समय बाद बाबूजी के किसी मित्र पर तीर चलाया।उन्होंने बाबूजी से शिकायत की तो सीधा उत्तर मिला- भाई! वे तो मेरे खिलाफ तक लिख देते हैं। दुर्वासा ऋषि हैं। पंडितजी स्वाधीनता सेनानी थे। 1942 में भूमिगत हुए। लेकिन स्वाधीनता सेनानी की पेंशन लेना उन्होंने कुबूल नहीं किया। उनकी औपचारिक शिक्षा तो शायद मैट्रिक के आगे नहीं बढ़ी थी, लेकिन वे देश-दुनिया की हलचलों से बाखबर एक अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे तीस साल तक हमारे साथ रहे। फिर बेहतर सुविधाओं की प्रत्याशा में एक नए अखबार में चले गए। वहां उनका मोहभंग हुआ तो पत्रकारिता से अवकाश ले लिया। तब उनकी आयु पचहत्तर वर्ष के आसपास थी। हमारे साथ उनका आत्मीय जुड़ाव अंत तक बना रहा।

देशबन्धु के किसी संपादक द्वारा लिखा गया सबसे लोकप्रिय कॉलम ''घूमता हुआ आईना" था जिसे हमारे वरिष्ठ साथी, और मेरे गुरु व बड़े भाई राजनारायण मिश्र लिखते थे। दरअसल, इस कॉलम की शुरुआत मैंने की थी, किंतु कुछ ही हफ्तों बाद दा (इसी नाम से वे जाने जाते थे) ने मुझसे कॉलम ले लिया। यह उनकी चुटीली शैली का कमाल था कि सोमवार को हजारों पाठक बेसब्री से ''आईना" का इंतजार करते थे। इस स्तंभ में वे अधिकतर रायपुर शहर की उन घटनाओं व स्थितियों का सजीव चित्रण करते थे, जो अमूमन लोगों के ध्यान में नहीं आतीं। वे दौरे पर जाते थे तो अपनी सूक्ष्म व वेधक दृष्टि से उस स्थान की तस्वीरें भी उतार लाते थे। (दा पर मैं पृथक लेख लिख चुका हूं। वह मेरे ब्लॉग स्पॉट पर उपलब्ध है)।

सत्येंद्र गुमाश्ता एक और काबिल व विश्वस्त सहयोगी थे। वे 1963 में देशबन्धु से जुड़े और सारे उतार-चढ़ावों के बीच अंत तक साथ बने रहे। कैंसर के असाध्य रोग ने सत्येंद्र को असमय ही हमसे छीन लिया। दुबले-पतले-लंबे सत्येंद्र सरल स्वभाव के धनी थे। अखबार की साज-सज्जा में नए प्रयोग करने का उन्हें बहुत चाव था। वे अक्सर रात को पहले पेज की ड्यूटी निभाते थे। उसी के साथ उन्होंने साप्ताहिक ''रायपुर डायरी" स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। इसमें वे सामान्यत: बीते सप्ताह की प्रमुख घटनाओं का जायजा लेते थे। कॉलम के अंत में वे ''धूप में चलिए हल्के पांव" के उपशीर्षक से एक विनोदपूर्ण टिप्पणी लिखा करते थे। दरवेश के छद्मनाम से लिखा यह कॉलम भी पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। सत्येंद्र हमारे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे, जिन्होंने कोई एक दर्जन देशों की यात्राएं कीं। देशबन्धु की ओर से वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका की यात्राओं पर गए। पाकिस्तान तो वे क्रिकेट की टेस्ट सीरीज कवर करने के नाम पर गए थे, लेकिन उनका असली मकसद दूसरा था। वे लाहौर में सुप्रसिद्ध गायिका नूरजहां से मिले, उनका इंटरव्यू लिया। इसी तरह कुछ अन्य हस्तियों से भी उन्होंने मुलाकात की। सिरीमावो भंडारनायक और शेख हसीना से भेंट करने वाले वे प्रदेश के शायद एकमात्र पत्रकार हुए हैं।

देशबन्धु की प्रयोगधर्मिता का एक परिचय इन स्थायी स्तंभों के अलावा नए-नए विषयों पर प्रारंभ कॉलमों एवं फीचरों से मिलता है। मसलन यदि बसन्त दीवान प्रदेश के पहले प्रेस फोटोग्राफर के रूप में साथ जुड़े तो चीनी नायडू ने प्रथम खेल संवाददाता का दायित्व संभाला। कृषि विज्ञान में उपाधि लेकर टी.एस. गगन (प्रसिद्ध उपन्यास लेखक तेजिंदर) संपादकीय विभाग में काम करने आए तो उन्होंने खेती-किसानी पर सवाल-जवाब का स्तंभ शुरू कर दिया, जो ग्रामीण अंचलों में काफी पसंद किया गया।सेवाभावी डॉ. एस.आर. गुप्ता ने हिंदी में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर लेख लिखे तो आगे चलकर अनेक डॉक्टरों ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता पर साप्ताहिक या पाक्षिक कॉलम लिखे। निस्संदेह इसमें उन्हें भी लाभ हुआ। रायपुर में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मैनेजर श्री कुमार की पत्नी श्रीमती श्रेष्ठा ठक्कर एक दिन प्रस्ताव लेकर आईं कि वे महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन पर कॉलम शुरू करना चाहती हैं। उनके कॉलम को पर्याप्त सराहना और हमें एक नया पाठक वर्ग मिला। इन विविध स्तंभों के बीच एक व्यापक जनोपयोगी और गंभीर कॉलम था- अमृत कलश, जिसे पोषण विज्ञान की अध्येता डॉ. अरुणा पल्टा ने कई बरसों तक जारी रखा। इसी तरह दर्शनशास्त्र की विदुषी डॉ. शोभा निगम ने क्लासिक ग्रंथों पर शोधपूर्ण लेखों की माला ''प्राच्य मंजरी" शीर्षक से लंबे समय तक लिखी।

हमारा एक दैनिक स्तंभ ''दुनिया को जानें" सामान्य ज्ञान पर आधारित व विद्यार्थियों के लिए था। इसकी लोकप्रियता अपार थी। लोग घरों में इसकी कतरनों की फाइलें बनाकर रखने लगे, ताकि बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में या अन्य अवसरों पर काम आ सकें। इसी के साथ हमारे मित्र प्रो. शरद इंग्ले ने विद्यार्थियों के लिए कैरियर गाइडेंस पर एक नियमित स्तंभ लगभग पच्चीस साल तक लिखा। देशबन्धु ने हर साल एक जनवरी को "नववर्षांक" परिशिष्ट प्रकाशित करने की परिपाटी भी प्रारंभ की। कई साल तक भारत में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी अपना संवाददाता भेजने वाला प्रदेश का एकमात्र अखबार देशबन्धु ही था। बदलते समय के साथ और भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक कॉलम बंद हो गए। लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराना पाठक मिलता है और अपने किसी प्रिय कॉलम की चर्चा छेड़ देता है। देशबन्धु की असली पूंजी पाठकों से मिली प्रशंसा ही है।
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#देशबंधु में 29 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

गुरुवार, दिसंबर 05, 2019

देशबन्धु के साठ साल-7- ललित सुरजन

Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  सातवीं कड़ी....

Lalit Surjan
देशबन्धु के साठ साल-7
- ललित सुरजन
कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञान देशबन्धु का एक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ था। इसकी परिकल्पना प्रो. वी.जी. वैद्य ने की थी। नामकरण भी उन्होंने ही किया था। प्रो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आम अध्यापकों के विपरीत उनकी लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी थी; वे कैंपस के बाहर की हलचलों में भी दिलचस्पी रखते थे; और खाली समय में भी व्यस्त रहने के कारण निकाल लेते थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने रविशंकर वि.वि. में छात्रों के लिए फोटोग्राफी की निशुल्क कक्षाएं संचालित कीं। कुछ साल बाद वे पुणे चले गए तो वहां तर्कर्तार्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की मराठी विश्वकोष परियोजना से जुड़ गए। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर व लेखक लक्ष्मणराव लोंढे की अनेक मराठी विज्ञान कथाओं का हिंदी अनुवाद देशबन्धु के लिए किया। फिर स्वयं भी हिंदी में विज्ञान कथाएं लिखने लगे, जिसका पुस्तक रूप में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया। प्रसंगवश, वैद्य साहब के भाई एम.जी. वैद्य भोपाल में प्रतिष्ठित पत्रकार थे, भाभी श्रीमती शकुंतला वैद्य रूसी भाषी की कक्षाएं संचालित करती थीं और इंदौर के सीपीआई नेता अनंत लागू उनकी पत्नी के भाई थे।

सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का चलते-चलते उल्लेख पिछले अध्याय में हुआ है। एक ओर अपने विषय के अधिकारी विद्वान; दूसरी ओर अद्भुत सादगी। वे साधारण सा कुर्ता-पाजामा पहनते थे और साईकिल पर चलते थे। उन्हें अपने पांडित्य पर लेशमात्र भी गर्व नहीं था और धन-दौलत का मोह उन्होंने कभी नहीं पाला। एक बार कार खरीद ली तो वह भी इकलौती संतान बेटी संज्ञा को दे दी। घर-गिरस्ती उन्होंने भाभी श्रीमती उमा महरोत्रा के जिम्मे छोड़ रखी थी, जो इप्टा से जुड़ी रहीं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेती रहीं। इस दम्पति ने समाज हित में अनेक काम किए और एक के बाद दोनों की पार्थिव देहें रायपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गईं। महरोत्राजी व्यंग्य कविताएं भी लिखते थे, जो मुझे कभी पसंद नहीं आईं। वे अपने ''दो शब्द कॉलम में कोई दो शब्द उठाकर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे। यह स्तंभ अनेक वर्षों तक चला। हिंदी भाषा के प्रति प्रेम व रुचि जागृत करने की यह एक अनूठी पहल थी।

समय-समय पर देश की अनेक मूर्धन्य हस्तियों ने देशबन्धु में कॉलम लिखे। इनमें इंद्रकुमार गुजराल, विजय मर्चेंट, जयंत नार्लीकर, के.एफ. रुस्तमजी, अरुण गांधी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। गुजराल साहब का आशीर्वाद और स्नेह हमें अंत तक मिलता रहा। 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु के दिल्ली संस्करण के उद्घाटन पर वे ही मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने विशाल पुस्तक संग्रह का एक भाग देशबन्धु लाइब्रेरी को भेंट भी किया। वे सामान्यत: अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अंग्रेजी में लिखते थे, जिसका अनुवाद हमें करना होता था। उपरोक्त सभी महानुभावों के साथ भी यही बात थी। मई-जून 2003 में मुझे डाक से एक मोटा लिफाफा मिला। भीतर एक लेख के साथ साइरस रुस्तमजी का लिखा एक पत्र था- ''मैं के.एफ. रुस्तमजी का पुत्र हूं। वे आपके अखबार के लिए लिखते थे। उनके कागजात में उनका यह आखिरी लेख मिला है, जिसे वे समय रहते आपको भेज नहीं पाए। संभव हो तो इसका उपयोग कर लीजिए। अंग्रेजो में लिखे पत्र का भाव यही था। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी उन दिनों भारत में ही पत्रकारिता कर रहे थे और उन्होंने भी अपने लेख छापने के लिए सरलता से हामी भर दी थी। अरुण अब अमेरिका में रहते हैं। पिछले साल उनकी पुस्तक आई है- द गिफ्ट ऑफ एंगर। यह पुस्तक बापू के साथ बीते समय में हासिल अनुभवों पर आधारित है। इसमें बापू के जीवन दर्शन की सरल-सुबोध व्याख्या की गई है।

हमारे लेखकों की सूची में एक उल्लेखनीय नाम प्रो. एस.डी. मिश्र का है। वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में गणित के प्राध्यापक थे और 1964 में तबादले पर अन्यत्र चले गए थे। लेकिन एक गुणी अध्यापक के रूप में उनकी चर्चा उनके पूर्व छात्रों के बीच अक्सर होती थी। प्रो. मिश्र ने 92-93 साल की उम्र में अपने संस्मरण लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। यह अपने आप में अचरज की बात थी। उनके सुपुत्र डॉ. परिवेश मिश्र ने जब ये संस्मरण मुझे दिखाए तो मैं चकित रह गया। ऐसी सुंदर भाषा, ऐसे रोचक विवरण! गुजरे समय और स्थानों को उन्होंने जीवंत कर दिया। हमने दो बार में उनके संस्मरण 26-26 किश्तों में छापे। पहले ''ग्राउंड जीरो से उठी यादें; फिर बेमेतरा से बैरन बाज़ार तक। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिंदी में ऐसे संस्मरण लिखने वाले लेखक बिरले ही होंगे। रायपुर, नागपुर, भोपाल, दमोह इत्यादि अनेक स्थानों पर, यहां तक कि विदेशों में बसे उनके छात्र इन संस्मरणों को खोज-खोज कर पढ़ते। हमसे संपर्क कर उनका पता-फोन नंबर लेते और उनसे बात करते। संस्मरण लिपिबद्ध करने के कुछ समय पहले ही उनकी जीवन संगिनी का निधन हुआ था। लेकिन संस्मरण पढ़ने के बाद उनके छात्रों-मित्रों-परिचितों ने जब उनसे संपर्क किया तो उनका अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ।

डॉ. जयंत नार्लीकर रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर तीन दिन के लिए रायपुर आ रहे थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने विज्ञान के लोकव्यापीकरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। मैं उनका तब से प्रशंसक था जब वे 1960 के दशक में कैंब्रिज में फ्रेड हॉयल के साथ खगोलशास्त्र पर शोध कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल कर चुके थे। उनका रायपुर आना हमारे लिए एक बड़ी खबर थी। हमने नार्लीकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पूरे पेज की विशेष सामग्री प्रकाशित की और तीनों दिन उनके व्याख्यानों को प्रमुखता के साथ छापा। इसी समय लगे हाथ उनके अंग्रेजो लेखों को अनुवाद कर छापने की अनुमति भी मांग ली, जो सहर्ष मिल गई। महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने तो अंतरर्देशीय पत्र पर उनके लेख छापने की अनुमति प्रदान की थी। इन सबके लेख नई-नई जानकारियों से भरे होते थे; पाठकों का ज्ञान उनसे बढ़ता था और अखबार की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती थी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें से किसी ने भी हमसे न पारिश्रमिक की अपेक्षा की और न मांग की।

जयंत नार्लीकर के प्रथम रायपुर आगमन पर हमने जैसी विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, बिलकुल उसी तरह हमने विश्वविख्यात सितारवादक रविशंकर का भी अभिनंदन किया। इस तरह विभिन्न अवसरों पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित करने की एक परंपरा ही देशबन्धु में स्थापित हो गई। याद आता है सितंबर 1979 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई थी। तब हमने कुछ सप्ताह पूर्व ही ऑफसेट मशीन पर छपाई प्रारंभ की थी। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक-कवि-बैंक अधिकारी ओम भारती उन दिनों रायपुर में पदस्थ थे।ओम की क्रिकेट में भी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने क्रिकेट पर टैब्लाइड आकार में बत्तीस पेज के एक विशेषांक की योजना प्रस्तावित की। भारत में क्रिकेट की जैसी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए कहना न होगा कि देशबन्धु का यह क्रिकेट विशेषांक अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और हमें अंक दुबारा छापना पड़ा। इस अंक की बहुत सारी प्रतियां लेकर ओम नागपुर भी गए, जहां एक मैच होना था। वहां वीसीए स्टेडियम में देशबन्धु की धूम मच गई। उसी दौर में हमने शतरंज पर एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू किया। किसी हिंदी दैनिक में यह शायद अपनी तरह का पहला कॉलम था! इसे मुजाहिद खान तैयार करते थे, जो शायद रायपुर तहसील कार्यालय में कार्यरत थे। छत्तीसगढ़ में शतरंज का खेल लोकप्रिय हो चला था, जिसे आगे बढ़ाने में देशबन्धु ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई।
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देशबंधु में 22 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

रविवार, दिसंबर 01, 2019

देशबन्धु के साठ साल-6 - ललित सुरजन

Dr Sharad Singh
प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  छठवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-6
- ललित सुरजन
Lalit Surjan
देशबन्धु ने समाचार जगत में विगत साठ वर्षों के दौरान जो साख कायम की है, उसकी बुनियाद में देशबन्धु की संपादकीय नीति के दो तत्व प्रमुख हैं। एक तो पत्र ने प्रारंभ से अब तक एक सुस्पष्ट, संयमपूर्ण और अविरल वैचारिक दृष्टि का पालन किया है। दूसरे- अखबार अपनी संपादकीय प्रयोगधर्मिता के लिए अक्सर चर्चित रहा है। इसके तीन मुख्य घटक हैं। एक-स्थायी स्तंभ और फीचर। दो- विकासपरक रिपोर्टिंग। तीन- ग्रामीण पत्रकारिता। स्थायी स्तंभों की चर्चा करते हुए सबसे पहले हरिशंकर परसाई का नाम आता है। मैं नोट करना चाहूंगा कि 3 दिसंबर 1959 को बाबूजी ने जबलपुर से 'नई दुनिया का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया था। कालांतर में नए प्रबंधन के तहत उसका नाम बदलकर 'नवीन दुनिया कर दिया गया। उसकी कहानी आगे आएगी। परसाईजी ने बाबूजी के कहने पर 1960 में ''सुनो भाई साधो शीर्षक से साप्ताहिक कॉलम लिखना प्रारंभ किया, जो इंदौर, रायपुर और जबलपुर में अनेक वर्षों तक एक साथ छपता रहा।

जबलपुर में ही जब 1963 की रामनवमी पर बाबूजी और उनके समानधर्मा मित्रों ने मिलकर सांध्य दैनिक ''जबलपुर समाचार का प्रकाशन शुरू किया तो परसाईजी उसमें ''सबका मुजरा लेय शीर्षक से नया स्तंभ लिखने लगे। काफी आगे जाकर जब परसाईजी का अस्वस्थता के कारण बाहर आना-जाना अत्यन्त सीमित हो गया, तब हमारे आग्रह पर उन्होंने ''पूछिए परसाई से शीर्षक से एक और नया कॉलम लिखना स्वीकार किया। इस कॉलम को उन्होंने देखते ही देखते लोकशिक्षण के एक जबरदस्त माध्यम में परिणत कर दिया। इसमें वे पाठकों के आए सैकड़ों पत्रों में से हर सप्ताह कुछ चुनिंदा और गंभीर प्रश्नों के सारगर्भित लेकिन चुटीले उत्तर देते थे। 1983 में प्रारंभ यह कॉलम 1994 तक जारी रहा। कुछ समय पूर्व एक वृहदाकार ग्रंथ के रूप में कॉलम का संकलन छपा, लेकिन किसी अज्ञात कारण से पुस्तक का शीर्षक बदलकर ''पूछो परसाई से रख दिया गया!

मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी होती है कि परसाईजी की लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक रचनाएं देशबन्धु में ही प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ कॉलम या व्यंग्य लेखन ही करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर उनकी पैनी नजर रहती थी और वे महत्वपूर्ण ताजा घटनाओं पर वक्तव्य या टिप्पणी जारी करते थे, जो देशबन्धु में ही प्रथम पृष्ठ पर छपती थी। परसाईजी तर्कप्रवीण थे और उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उनके सामने पुस्तक या पत्रिका का कोई पन्ना खोलकर रख दीजिए। वे एक नजर डालेंगे और पूरी इबारत को हृदयंगम कर लेंगे। अपनी इस ''एलीफैंटाइन मेमोरी याने गज-स्मृति से वे हम लोगों को चमत्कृत कर देते थे। समसामयिक मुद्दों पर वे जो तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, वह भी लोकशिक्षण का ही अंग था। पाठकों की अपनी समझ उनसे साफ होती थी। जो लोग उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार मानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के इस गंभीर पहलू की अनदेखी कर देते हैं।

यह एक उम्दा संयोग था कि परसाईजी और बाबूजी दोनों ने 1983 में एक साथ अपने स्थायी कॉलम प्रारंभ किए। बाबूजी ने ''दरअसल शीर्षक से सामयिक विषयों पर लेख लिखे। एक तरह से दोनों अभिन्न मित्रों के कॉलम एक दूसरे के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे। बाबूजी के अखबारी लेखन की शुरूआत वैसे 1941-42 में हो चुकी थी, जब विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वर्धा से हस्तलिखित पत्रिका ''प्रदीप की स्थापना की थी। बाद के सालों में एक के बाद एक कई अखबारों की स्थापना व उनके संपादन-संचालन की दौड़धूप में उनका नियमित लेखन बाधित हो गया था। लेकिन बीच-बीच में समय निकालकर जब वे लिखते तो उसमें उनकी गहरी समझ और अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता। एक तरफ निरालाजी के निधन पर ''महाकवि का महाप्रयाण" ; दूसरी ओर रुपए के अवमूल्यन, वीवी गिरि के चुनाव; तीसरी ओर किसान ग्राम दुलारपाली पर फीचर आदि उनकी सर्वांगीण संपादकीय दृष्टि के उदाहरण हैं। नेहरूजी के निधन पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का जो त्वरित अनुवाद बाबूजी ने किया, मेरी राय में वह सर्वोत्तम अनुवाद है।

अपने स्तंभकारों की चर्चा करते हुए मैं राजनांदगांव के अग्रज साथी रमेश याज्ञिक का स्मरण करता हूं। रमेश भाई की हिंदी में हल्का सा गुजराती पुट था, लेकिन उनकी लेखन शैली अत्यन्त रोचक और बांध लेने वाली थी। उन्होंने टीजेएस जॉर्ज की लिखी वीके कृष्णमेनन की जीवनी का अनुवाद देशबन्धु के लिए किया था। हमारा एक प्रयोग उन दिनों बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ जब रमेश भाई ने गुजराती लेखक अश्विन भट्ट के रोमांचक उपन्यास ''आशका मांडल का अनुवाद किया और वह लगातार छब्बीस साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित हुआ। ऐेसे एक-दो अनुवाद उन्होंने और भी किए। उनके साप्ताहिक स्तंभ ''यात्री के पत्र को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। वे उन दिनों अपने व्यापार के सिलसिले में लगातार दूर-दूर की यात्राएं कर रहे थे और उन अनुभवों के आधार पर किस्सागोई की शैली में भारतीय समाज की जीवंत और प्रामाणिक छवि उकेर रहे थे। रमेश भाई ने एक कथाकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसंगवश बता दूं कि देशबन्धु में पहिला धारावाहिक उपन्यास 1965-66 में छपा था जो डॉ. सत्यभामा आडिल ने लिखा था। हृदयेश, मनहर चौहान आदि के उपन्यास भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किए।

एक ओर जहां रायपुर व छत्तीसगढ़ में अनेक लेखक नियमित कॉलम के द्वारा देशबन्धु से जुड़े, वहीं जबलपुर में प्रकांड विद्वान प्रो. हनुमान वर्मा ने ''टिटबिट की डायरी शीर्षक कॉलम लिखा, कहानीकार-व्यंग्यकार सुबोध कुमार श्रीवास्तव ने भी व्यंग्य का कॉलम हाथ में लिया; उधर सतना में समाजवादी नेता जगदीश जोशी के अलावा लेखक कमलाप्रसाद, देवीशरण ग्रामीण, बाबूलाल दहिया, सेवाराम त्रिपाठी के साप्ताहिक स्तंभ भी अनेक वर्षों तक प्रकाशित होते रहे। छत्तीसगढ़ में रमाकांत श्रीवास्तव, बसन्त दीवान, रवि श्रीवास्तव, कृष्णा रंजन आदि मित्रों ने नियमित कॉलम लिखे। पुरुषोत्तम अनासक्त व परदेसीराम वर्मा के उपन्यास भी धारावाहिक छपे। डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा ने अनेक वर्षों तक ''दो शब्द स्तंभ निरंतर लिखा, जो पांच खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। नागपुर के डॉ. विनय वाईकर व रायपुर के प्रो. खलीकुर्रहमान ने महाकवि गालिब के साथ-साथ उर्दू शायरी की श्रेष्ठता से पाठकों को परिचित कराया। मैंने अभी अपने संपादकीय सहयोगियों के लिखे स्तंभों का जिक्र नहीं किया है, और न देश के अनेक मूर्धन्य विद्वान स्तंभकारों का। कहानी अभी अधूरी है।
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#देशबंधु में 08 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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( प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)